Hindi - प्रेतकथा

अंधेरों के पाँव

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सार्थक अग्रवाल


भाग 1 — पुरानी हवेली का दरवाज़ा

शाम की आख़िरी रोशनी छोटे से कस्बे शिवपुर की सड़कों पर रेंगते-रेंगते पतली हो रही थी जब अर्जुन ने बस से उतरकर अपना बैग कंधे पर डाला और चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई; स्टेशन नहीं, बस अड्डा भी ठीक से नहीं—एक खुला सा चौराहा, दो चाय की टिन की दुकानों के बीच से पराठे की घी वाली गंध, और दूर क्षितिज पर काली होती रेखा, जिसके पीछे वह हवेली थी जिसके बारे में शहर में फुसफुसाहटें चलती थीं; उसके मोबाइल में नोट्स खुले थे—“शिवपुर, पुरानी हवेली, मालिक: ठाकुर हरिराम सिंह (1892–1947), कथाएँ: रात में कदमों की आहट, रोशनी अपने-आप जली-बुझी, बंद कमरे में ठंडी हवा, आसपास के पाँच घर खाली”—और एक छोटी सी टू-डू लिस्ट—“स्थानीयों से बात, हवेली तक पैदल, सूर्यास्त से पहले गेट का सर्वे, रिकॉर्डर ऑन”; उसे अपने आप पर हल्की हँसी आई, जैसे कोई स्कूल प्रोजेक्ट हो, पर भीतर कहीं एक पतली सी बेचैनी भी खिंच रही थी जो दिमाग की किसी पुरानी नस को बजा रही थी कि कुछ अनाम सा सामने आने वाला है; चाय वाले लड़के ने दूर से आवाज़ लगाई, “साहब, चाय?” और वह बेंच पर बैठ गया, बैग घुटनों पर, उसकी गर्दन के पीछे उमस की नमी जमा थी, और कानों में कस्बे की आवाज़ें—बच्चों का दूर खेलना, किसी घर में दादी की खाँसी, किसी बाड़े में बँधे पशु की घंटी—एक साथ जाल की तरह उलझकर छिपा रही थीं कि इस जगह का दिन और रात कैसा होगा; चाय वाले ने जब कप रखा तो उसने पूछा, “उधर काली पहाड़ी के नीचे जो हवेली दिखती है, वही है ना?” लड़के ने एक पल को आँखें सिकोड़ दीं, फिर जल्दी से गर्दन हिला दी, “हाँ साहब, पर उधर मत जाइएगा अभी, सूरज डूबने वाला है; रात में रास्ते बदल जाते हैं यहाँ,” और उसे लगा कि यह वाक्य शायद सुना हुआ है, शायद किसी पुराने टीवी सीरियल के डरावने एपिसोड में, पर लड़के के चेहरे पर जो सहजता थी, उसने अर्जुन की मुस्कराहट के किनारों को एकदम सपाट कर दिया; “कौन रहता है वहाँ?” “कोई नहीं, कभी-कभी शहर से कोई फ़ोटोग्राफ़र आता है, सुबह-सुबह, पर जल्दी लौट जाता है; मेरे नाना कहते थे, पहले ठाकुर साहब रहते थे, फिर…” उसने बात अधूरी छोड़ दी, नज़र झुका ली, जैसे अपनी ही आवाज़ से डर गया हो; अर्जुन ने जेब से रिकॉर्डर निकाला, क्लिक किया, उसका लाल बिंदु चमका, “क्यों लौट जाते हैं?” लड़का कंधे सिकोचकर बोला, “क्योंकि वहाँ रात के वक़्त कोई चलता है—कदमों की आहट—और कोई दिखता नहीं,” और उसने अपना कप उठा लिया; अर्जुन को ऐसे वाक्य पसंद थे, वे खबर बनाते थे, और खबरों में कुछ न कुछ सच्चाई रहती ही थी—किसी के डर की सच्चाई, किसी के नुकसान की, किसी की याद की—और ऐसी सच्चाइयों को पकड़ना ही तो उसका काम था; उसने पैसे दिए, एक और चाय पी, कलाई की घड़ी देखी—छह बजकर पाँच मिनट—आसमान में जामुनी पट्टी गहरी होती जा रही थी, और पेड़ों की छायाएँ इकट्ठी होकर एक रंग बनती दिख रही थीं, जैसे कोई पृष्ठ पर कालिख चढ़ा दे; उसने बैग कस कर उठाया और चौराहे के बाएँ वाली कच्ची पगडंडी पकड़ी, जो बबूल और कँटीली झाड़ियों के बीच से एक पतली रेखा की तरह निकलती हुई दूर तक जाती थी; रास्ते में उसे हर सौ कदम पर टूटे काँच की चमक, पुराने ईंटों के ढेर, और काग़ज़ के टुकड़े दिखे, जिन पर आधी उखड़ी लिखावटें थीं—किसी शादी का निमंत्रण, “रात नौ बजे तक पहुँचें”, किसी दवाख़ाने का पोस्टर—“दमा, बवासीर, गुप्त रोग”—और कहीं-कहीं बच्चों की पेंसिल से बनाई गईं जानवरों की डगमग रेखाएँ; ये सब चीज़ें, जो किसी जगह को जगह बनाती हैं, वहाँ अब उपयोग में नहीं थीं, जैसे समय ने अपनी हथेली इस बस्ती पर रख दी हो और चलते-चलते कुछ वस्तुएँ भूले में छोड़ दी हों; आगे जाकर वह कच्ची पगडंडी एक चौड़े लोहे के फाटक पर आकर जैसे टूट गई—दो खंभों पर टिके भारी पल्ले, जिन पर जंग लगे फूल-पत्तियों के नक़्क़ाशीदार पैटर्न अब जंगली बेलों में उलझे थे; फाटक के पार वही हवेली खड़ी थी—लंबी, साँवली, दो मंज़िलें, बीच में मेहराबदार बरामदा, ऊपर की जालियाँ टूट-टूटकर हवा में थोड़ी-थोड़ी झूलतीं, और सबसे ऊपर हवा में स्थिर एक सा लगने वाला चील, जो शायद पत्थर का था, शायद असली; हवेली की दीवारों पर बारिश के पुराने निशान ऐसे बहते थे जैसे किसी ने बहुत साल पहले रोया हो और आँसुओं की धारें अब भी जमी हों; अर्जुन ने एक लंबी साँस ली, जैसी कोई तैराक पानी में छलांग से पहले लेता है, और फाटक की जाली में हाथ डालकर उसे हल्का सा हिलाया—एक लंबी कराह, जैसे कोई बुज़ुर्ग नींद से उठे—और पल्ला आधा इंच खिसका, मगर वहीं अटका; उसने जेब से टॉर्च निकाली, मोबाइल की फ़्लैशलाइट ऑन की, दोनों रोशनियाँ एक साथ डालकर ताले की हालत देखी—ताला लगा नहीं था, बस पल्लों पर जंग और बेल का कसाव उन्हें जकड़े हुए था; उसने अपने जूतों से बेलों को थोड़ा हटाया, हाथ से कुछ खर-पतवार के गुच्छे उखाड़े, और फिर दोनों हाथों से पल्ले को धक्का दिया—एक बार, दो बार—तीसरी बार में फाटक थरथराया, जैसे कोई भीतर से ‘मत’ कह रहा हो, और अचानक खुल गया; भीतर का आँगन गीली मिट्टी और धूल की मिली-जुली गंध से भरा था, जैसे बरसात हाल ही में गुज़री हो, जबकि शाम अब सूखी लग रही थी; आँगन पार करते हुए उसे लगा कि आवाज़ें कुछ बदल गई हैं—बाहर के पत्तों की खड़खड़ाहट यहाँ धीमी होकर एक अलग तरह की फुसफुसाहट बन गई थी; बरामदे की सीढ़ियाँ काई से फिसलन भरी थीं, उसके जूतों की आवाज़ उनमें धँसकर एक ख़ाली घर के भीतर जाने की तरह सुनाई दे रही थी—धक, धक, धक—और हर धक के साथ किसी दूसरी, बहुत हल्की, लगभग अदृश्य धक की प्रतिध्वनि भी, जैसे कोई उसके साथ कदम मिला रहा हो; उसने रिकॉर्डर फिर ऑन किया—“शिवपुर हवेली, प्रवेश समय—अठारह बजकर बयालीस मिनट, हवा स्थिर, तापमान अनुमानतः तीस डिग्री, उमस, गंध—नमी और पुराने लकड़ी की”—उसने यह बोलते हुए खुद को स्थिर किया, जैसे शब्द उसकी ढाल हों; बरामदे के स्तंभों पर लगी टाइलों में नीला-पीला फूलों का पैटर्न अब धूसर हो गया था; एक कोने में टूटा हुआ दीया पड़ा था, जिसमें मिट्टी के साथ मोम चिपका था, जैसे किसी ने हाल में जलाया हो, हालाँकि यहाँ “कोई” नहीं था; सामने जो मुख्य दरवाज़ा था, वह बाकी सब चीज़ों से ज़्यादा ठहरा हुआ दिखाई देता था—गाढ़ी काली लकड़ी का, मोटा, उस पर चमड़े जैसे काले पड़े लोहे की पट्टियाँ, बीच में गोल पीतल की हथेली आकार की ठुकठुकी, जो थोड़ी टेढ़ी थी; दरवाज़े की दहलीज़ के पास कुछ चिह्न थे—सफेद चूने से बनाए गए ज्यामितीय आकृतियाँ, पाँव की छोटी-छोटी उँगलियों जैसी पत्तियाँ, और बीच में एक छोटा-सा वृत्त—अर्जुन नीचे झुका, टॉर्च पास लाई, और अचानक उसे लगा कि यह सब उसने किसी किताब में देखा है—लोक-टोटका, किसी गाँव के क़िस्से में; “यह किसने बनाया होगा?”, उसने सोचा, और तभी उसकी टॉर्च का प्रकाश दहलीज़ के बिल्कुल सामने कुछ पर टिक गया—दो छोटे-छोटे काले-से दाग़, जो सूखे खून जैसे दिखते थे; उसने उँगली से छुआ नहीं, बस रोशनी को घुमाकर देखा—दाग़ जैसे किसी छोटे पशु के पाँव के; उसकी रीढ़ के निचले हिस्से में एक ठंडी लहर दौड़ गई; “फालतू,” उसने खुद से कहा, “डर का इमेजिनेशन”; उसने दरवाज़े की ठुकठुकी उठाई—वह उसके हाथ में ठंडी थी, और जैसे ही उसने एक बार उसे गिराया—टन्न—आवाज़ भीतर के किसी सुनसान हॉल में गिरकर लंबे गलियारे से लौट आई, और उसी क्षण, न जाने कहाँ से, ऊपर की जाली में एक चिड़िया फड़फड़ाई; उसने दूसरी बार ठुकठुकी गिराई—टन्न—और दरवाज़े की दाहिनी पट्टी बहुत हल्की-सी खिसकी; दरवाज़ा बंद नहीं था—सिर्फ़ भीतर से कहीं किसी कपड़े, किसी टहनी, किसी पुरानी किताब के ढेर ने उसे हल्का सा जकड़ा हुआ था; उसने हथेली दरवाज़े की किनारी पर लगाई और धीरे से धक्का दिया; भीतर घुप्प अँधेरा था, पर अँधेरा भी कुछ-कुछ दिखाई देने लग जाता है अगर आँखे कुछ सेकंड ठहर जाएँ—हॉल बड़ा, छत ऊँची, बीच में टूटे फर्नीचर के ढेर, दायीं तरफ़ दीवार पर टंगी एक बड़ी-सी चीज़—आईना—जो आधे पर अख़बारों से ढंका था; उसने टॉर्च की रोशनी आईने पर डाली और उसकी अपनी रोशनी कई गुना होकर वापस आई—पर चमक में उसे कुछ अजीब दिखा—उसके कंधे के बगल में एक बहुत पतली-सी परछाईं, जैसे कोई खड़ा हो और उसकी रूपरेखा सिर्फ़ धूल में लिखी हो; उसने टॉर्च को एक इंच दायें, एक इंच बाएं किया—परछाईं स्थिर रही; उसने पीछे पलटकर देखा—कुछ नहीं; “मिरर इफेक्ट,” उसने बुदबुदाया, “धूल और क्रैक्स से,” और आगे बढ़ा; फर्श पर जगह-जगह काँच के छोटे-छोटे टुकड़े थे, जो उसके जूतों के नीचे बहुत धीमी-सी करच की आवाज़ कर रहे थे; उसने रिकॉर्डर की आवाज़ धीमी कर दी; दीवारों पर एक जगह परिवार की एक फ़्रेम-फ़ोटो उल्टी पड़ी थी—दो पुरुष, एक स्त्री, तीन बच्चे—सभी की आँखें कैमरे की तरफ़ थीं, पर किसी कारण उनकी मुस्कानें अधूरी थीं, जैसे पेंटिंग के बीच में समय रुक गया हो; उसने फ़ोटो सीधी करके रख दी; जैसे ही उसने यह किया, उसके पीछे के बरामदे में हवा का एक सूखा झोंका आया और दरवाज़ा अपनी जगह पर हल्का-सा भिंचा; “अर्जुन,” उसने खुद से कहा, “तुम यहाँ अकेले हो,” और यह वाक्य उसके भीतर की चेतना के केंद्र को स्थिर करने जैसा था; उसने जेब से अपनी छोटी-सी डायरी निकाली और कुछ शब्द लिखे—“फर्श—काँच, आईना—ढंका, परछाईं—स्थिर, फोटो—परिवार,” और जैसे ही उसने “परिवार” लिखा, हॉल के बाएँ वाले गलियारे से बहुत दूर, बहुत पतली, और बहुत छोटी-सी हँसी की आवाज़ आई—किसी बच्चे की, जो खेलते-खेलते गलत कमरे में घुस गया हो; उसकी उँगली डायरी पर ठिठक गई; उसने टॉर्च उस दिशा में उठाई—अँधेरे में रोशनी की एक पतली तलवार गई और कहीं किसी पुरानी कुर्सी की पीठ पर अटककर रह गई; “हैलो?” उसने आवाज़ दी—अपनी आवाज़ की ही परछाईं उसे लौटी; उसने फिर कहा—“कौन?”—और अब उसकी आवाज़ में एक पत्रकार से ज़्यादा एक आदमी था जो खुद को बहला रहा था; कोई जवाब नहीं आया; उसने टॉर्च नीचे की, और अब उसकी रोशनी फर्श पर जाते-जाते एक जगह टिक गई—पुरानी लकड़ी का छोटा-सा डिब्बा, जिस पर धूल की मोटी परत थी; उसने झुककर उसे उठाया और ऊपर से उँगली से धूल पोंछी—ढक्कन पर उभरा हुआ अक्षर—देवनागरी में—“मत”; उसने हँसना चाहा पर गले में नीम-कड़वाहट सी आई; “किसे कहा जा रहा है?” उसने फुसफुसाया और ढक्कन थोड़ा उठाया—अंदर पीलेपन लिए काग़ज़ का एक मोड़ा हुआ टुकड़ा था और दो सूखे गुलाब की पंखुड़ियाँ; उसने काग़ज़ खोला—लिखा था, “यह मत खोलो”; उसने पल भर को साँस रोकी—कभी-कभी वक्त चुटकी बजाता है और वही वाक्य जो बाहर चाय की दुकान पर टेप में रिकॉर्ड हुआ था, अचानक आपके हाथ में लिखकर पड़ जाता है; हॉल के भीतर कहीं बहुत ऊपर, छत के पास, लकड़ी की किसी बीम ने कराह की; उसने काग़ज़ को वापस रख दिया, डिब्बे का ढक्कन बंद किया, और खड़ा हो गया; तभी उसके पीछे मुख्य दरवाज़े की ठुकठुकी बिना छुए एक बार खुद-ब-खुद हिली—टन्न—ऐसा नहीं कि तेज़, पर उतना कि उसकी रीढ़ के नीचे तक एक पतली ठंडी रेखा उतर गई; उसने टॉर्च को कसकर पकड़ा, रिकॉर्डर का लाल बिंदु देख लिया—चल रहा था—और उसने धीरे-धीरे उस ठुकठुकी की तरफ़ मुड़कर दरवाज़े की दरार पर रोशनी डाली—दरार के पार बरामदे की सीढ़ियाँ खाली थीं, पर पायदान पर मिट्टी का ताज़ा, बहुत छोटा, और बहुत स्पष्ट-सा निशान था—जैसे किसी नंगे पाँव का हौले से रखा गया पंजा—और वह निशान दरवाज़े की दहलीज़ के ठीक इस पार, उसके जूते के पास, हर पल एक मिलीमीटर बढ़ रहा था, जैसे किसी अदृश्य का पाँव अभी-अभी घर के भीतर आ ही रहा हो।

भाग 2 — आईनों में परछाइयाँ

अर्जुन का दिल धक से रुककर दोबारा धड़कने लगा जब उसने दरवाज़े की दहलीज़ पर वह ताज़ा पाँव का निशान देखा। मिट्टी गीली नहीं थी, लेकिन निशान जैसे अभी-अभी बना हो। उसने जल्दी से पीछे हटकर टॉर्च की रोशनी फर्श पर दौड़ाई। कोई नहीं, सिर्फ़ टूटी लकड़ी और धूल का ढेर। उसके जूते के नीचे काँच के टुकड़े चरमराए। रिकॉर्डर का लाल बिंदु अब भी झिलमिला रहा था—उसके अपने डर का गवाह।

उसने धीमे स्वर में बुदबुदाया—“किसी ने मज़ाक किया होगा। हो सकता है हवा से धूल सरकी हो।” पर दिल जानता था कि धूल से किसी नंगे पाँव की उँगलियों के निशान नहीं बनते। उसने हिम्मत जुटाकर डिब्बे को वहीं छोड़ दिया और टॉर्च उठाए धीरे-धीरे हॉल के बाईं तरफ़ बढ़ा।

गलियारे में अंधेरा और गाढ़ा था। दीवारों पर जगह-जगह टूटे फ्रेम लटके थे, जिनमें कुछ काली हो चुकी तस्वीरें थीं—चेहरे पहचान में नहीं आते थे, बस आँखों के धब्बे चमकते थे। जैसे तस्वीरें अब भी देख रही हों। अर्जुन की रोशनी उन पर टिकते ही हर बार लगा जैसे आँखें झपकी मार रही हों।

गलियारे के अंत में एक बड़ा-सा दरवाज़ा मिला। लकड़ी के पल्लों पर चाँदी के रंग की उखड़ी सजावट। उसने हल्का धक्का दिया। दरवाज़ा कर्र की आवाज़ के साथ खुला और भीतर का कमरा सामने आया—आईनों का कमरा।

चारों दीवारें ऊँचे-ऊँचे आईनों से ढकी थीं। कुछ टूटे, कुछ धुंधले, और कुछ अब भी चमकदार। कमरे में कदम रखते ही उसे लगा कि वह अकेला नहीं है—हर तरफ़ उसके अपने कई रूप खड़े हैं, अलग-अलग कोणों से, कुछ असली, कुछ टूटी दरारों से टेढ़े-मेढ़े।

उसने खुद को आश्वस्त करने के लिए कहा—“ये सिर्फ़ आईने हैं।” पर तभी बाएँ कोने वाले आईने में उसे कुछ और दिखा। वहाँ उसकी जगह कोई और खड़ा था—कद वही, पर चेहरा अस्पष्ट। जैसे धुएँ से बना कोई आकृति। अर्जुन ने टॉर्च सीधा उसी पर डाला—आईना खाली हो गया, सिर्फ़ दरारों का जाल।

उसका गला सूखने लगा। उसने रिकॉर्डर में फुसफुसाते हुए कहा—“कमरा—चारों तरफ़ आईने, कुछ टूटी हुई परछाइयाँ। अभी-अभी एक अजीब प्रतिबिंब देखा, शायद आँखों का धोखा।”

वह बीच में खड़ा होकर चारों तरफ़ देखने लगा। हर आईने में उसका चेहरा थोड़ा अलग दिखता—कहीं लंबा, कहीं छोटा, कहीं धुँधला। लेकिन सबसे अजीब था सामने का आईना। उसमें उसका चेहरा बिल्कुल साफ़ था, पर पीछे की जगह अंधेरी नहीं, रोशन दिखाई दे रही थी। जैसे किसी और कमरे की झलक।

उसने टॉर्च उस पर डाली। असलियत में वहाँ बस आईना था, लेकिन आईने में हल्के पीले उजाले वाला एक बड़ा हॉल। और उस हॉल के बीचोंबीच खड़ी थी एक औरत—सफ़ेद साड़ी में, बाल ढके नहीं, चेहरे पर छाया। वह स्थिर खड़ी थी, जैसे अर्जुन को सीधा देख रही हो।

अर्जुन का गला सूख गया। उसने झटपट आईने की तरफ़ हाथ बढ़ाकर छूना चाहा, लेकिन उंगलियाँ ठंडी सतह पर ही अटक गईं। दूसरी तरफ़ की औरत मुस्कुराई।

अर्जुन ने पीछे हटना चाहा, तभी कमरे के दूसरे कोने के आईने में उसकी अपनी परछाई अचानक गायब हो गई। वह भागकर उस तरफ़ पहुँचा—आईना खाली था, जैसे रोशनी उसे पकड़ ही नहीं पा रही हो। उसने सामने झुककर हाथ हिलाया—कुछ नहीं।

लेकिन पीछे वाले आईने में उसका रूप अब भी था। और उस रूप की आँखें हल्की-सी लाल चमक रही थीं।

अर्जुन का पूरा शरीर ठंडे पसीने से भर गया। उसने रिकॉर्डर उठाया—आवाज़ काँप रही थी—“आईने…परछाई नहीं दिख रही…किसी और का चेहरा…यह सामान्य नहीं है।”

अचानक, कमरे के सारे आईने एक साथ चरमराने लगे। जैसे काँच किसी अदृश्य दबाव से काँप रहा हो। दीवारें गूँज उठीं, और टूटी दरारों से हवा सीटी बजाती हुई निकली। अर्जुन ने कान ढक लिए। तभी एक आईना अचानक टूट गया और उसके टुकड़े फर्श पर बिखर गए। टुकड़ों में अर्जुन ने देखा—हर टुकड़े में वह अकेला नहीं था, उसके पीछे वही सफ़ेद साड़ी वाली औरत खड़ी थी।

उसने घबराकर टॉर्च बंद कर दी। कमरे में गहरा अंधेरा छा गया। पर अंधेरे में भी उसे लगा कि चारों तरफ़ कई परछाइयाँ हिल रही हैं, उसके कदमों की नकल करती हुईं।

उसने जल्दी से बाहर निकलने की कोशिश की। दरवाज़ा बंद था। उसने जोर से धक्का मारा, दो बार, तीन बार—अचानक दरवाज़ा खुला और वह गलियारे में लड़खड़ाता हुआ गिर पड़ा।

बाहर की हवा भारी थी, जैसे किसी ने उसका दम घोंटा हो। उसने पीछे मुड़कर देखा। दरवाज़ा अपने आप बंद हो चुका था। पर बंद होने से पहले उसने एक झलक पाई—कमरे के भीतर सारे आईनों में उसका ही चेहरा था, पर हर चेहरा मुस्कुरा रहा था। सिर्फ़ वही एक था जो डरा हुआ खड़ा था।

अर्जुन ने रिकॉर्डर बंद कर दिया। पहली बार उसे लगा—यह खोज शायद उसकी आख़िरी खोज साबित होगी।

भाग 3 — फुसफुसाहटें

गलियारे की नमी से भरी हवा में अर्जुन का साँस लेना मुश्किल हो गया था। उसके कानों में अब भी आईनों की कर्राहट गूँज रही थी। वह सीढ़ियों के सहारे दीवार से टिककर कुछ देर खड़ा रहा। टॉर्च की रोशनी उसने बंद ही रखी, क्योंकि अंधेरे में उसे अजीब-सा भरोसा महसूस हो रहा था कि शायद परछाइयाँ कम हो जाएँगी। लेकिन अंधेरा उतना ही घना था जितना डर।

धीरे-धीरे उसने कदम बढ़ाए। गलियारे में चलते ही उसकी रीढ़ के पीछे से हवा खिंचकर जैसे कानों तक आई। और तभी सुनाई दिया—एक बहुत हल्का, लगभग बच्चों जैसा ठहाका। जैसे किसी ने परदे के पीछे से खेल-खेल में हँसी दबाई हो।

उसका गला सूख गया। उसने हिम्मत कर टॉर्च ऑन की। रोशनी दीवारों पर तिरछी पड़ी—खाली। पर उसी रोशनी में उसने साफ़ सुना, कोई बहुत पास आकर धीमे स्वर में फुसफुसाया—
“तुम्हें नहीं आना चाहिए था…”

अर्जुन ने तेजी से टॉर्च घुमाई। गलियारे में कोई नहीं। उसका दिल अब जोर से धड़कने लगा। उसने रिकॉर्डर उठाकर कहा—“गलियारे में अनजानी आवाज़ें। बच्चों की हँसी और किसी औरत की फुसफुसाहट। कोई मौजूद नहीं।”

आवाज़ फिर आई, इस बार बिल्कुल उसके कान के पास—
“वापस लौट जाओ…”

उसने चौंककर हाथ झटक दिया जैसे किसी ने उसके कंधे को छुआ हो। टॉर्च की रोशनी सीढ़ियों की तरफ़ पड़ी। ऊपर जाने का रास्ता टूटी रेलिंग से घिरा था। उसी रेलिंग पर कुछ काले धब्बे दिखे, जैसे पुराने जलने के निशान।

वह धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा। हर कदम पर सीढ़ी कर्राती और जैसे किसी अदृश्य बोझ को उठाने से कराहती। ऊपर पहुँचकर उसने देखा—एक लंबा गलियारा और बायीं ओर आधा खुला दरवाज़ा। दरवाज़े के अंदर हल्की नीली रोशनी झिलमिला रही थी।

उसका मन हुआ तुरंत नीचे भाग जाए, लेकिन उसके पेशेवर जिज्ञासु मन ने उसे वहीं खड़ा कर दिया। उसने धीरे से दरवाज़ा खोला।

अंदर का कमरा खाली था, पर बीच में फर्श पर लाल चौक से खींचा हुआ एक गोलाकार मंडल बना था। उस मंडल के चारों ओर कुछ टूटी गुड़िया पड़ी थीं—बाँहें टूटी, आँखें धँसी, और चेहरों पर काली राख जैसे किसी ने जानबूझकर जला दिया हो।

अर्जुन ने टॉर्च नीचे की। तभी अचानक सब गुड़ियाएँ एक साथ हिलने लगीं। उनकी मुँह से बच्चों जैसी किलकारियाँ निकलीं। कमरा हँसी से गूंज उठा। अर्जुन का खून जम गया। उसने रिकॉर्डर चालू किया लेकिन उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं—“गुड़ियाएँ…खुद हिल रही हैं…हँसी की आवाज़ें…”

अचानक, सारी हँसी रुक गई। जैसे किसी ने स्विच ऑफ कर दिया हो। अब सिर्फ़ एक भारी सन्नाटा। और उस सन्नाटे में किसी ने धीरे से कहा—
“यह मत खोलो…”

अर्जुन के कान खड़े हो गए। वही शब्द। वही चेतावनी जो पहले डिब्बे में लिखी मिली थी। उसने डर और गुस्से में एक गुड़िया को उठा कर दीवार पर पटका। गुड़िया टूटी नहीं, बल्कि उसकी खाली आँखों से राख की पतली धूल निकलकर हवा में फैल गई।

वह खाँसने लगा। और तभी धुएँ में उसे कई चेहरों की परछाइयाँ तैरती दिखीं—बच्चों के, बूढ़ों के, और एक औरत के जो बार-बार उसी वाक्य को दोहरा रही थी—“यह मत खोलो, यह मत खोलो…”

अर्जुन ने आँखें कसकर बंद कर लीं और दरवाज़े की तरफ़ भागा। बाहर निकलते ही उसने दरवाज़ा जोर से बंद कर दिया। गलियारे में खड़ा होकर उसका साँस फूल रहा था। दिल धड़क रहा था जैसे सीना तोड़कर बाहर निकल जाएगा।

नीचे उतरने का साहस उसने जुटाया। सीढ़ियों पर आते ही उसे लगा कोई पीछे-पीछे चल रहा है। उसने मुड़कर देखा—खाली। पर हर बार उसका एक कदम पड़ता, ठीक वैसा ही कदम पीछे गूँजता।

फर्श पर लौटते ही उसने आईनों वाले कमरे की ओर न देखकर सीधा हॉल का रास्ता पकड़ा। बाहर जाने का विचार मन में पक्का हो चुका था। लेकिन हॉल में पहुँचते ही सब कुछ बदल गया।

मुख्य दरवाज़ा जो उसने खुला छोड़ा था, अब बंद था। और दरवाज़े पर काले रंग से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—अब देर हो चुकी है।”

अर्जुन की साँस अटक गई। उसने टॉर्च उठाई। दरवाज़े पर कोई ताज़ा पेंट नहीं, लेकिन अक्षर जैसे खून से लिखे हों, अभी गीले। उसने हाथ लगाने की कोशिश की, उँगलियों में ठंडी नमी चिपकी।

अचानक, पीछे से फुसफुसाहट आई—इस बार सैकड़ों आवाज़ें एक साथ, बच्चे, औरतें, बूढ़े। पूरे हॉल में गूँज उठी—
“अब तुम हमारे साथ हो…”

अर्जुन वहीं जड़ हो गया। उसकी टॉर्च काँप रही थी, और रिकॉर्डर उसकी हर धड़कन कैद कर रहा था।

भाग 4 — रक्तरंजित इतिहास

हॉल की दीवारें अब भी फुसफुसाहट से कांप रही थीं जब अर्जुन ने खुद को संभालने की कोशिश की। उसका पूरा शरीर पसीने से तर था। वह बार-बार रिकॉर्डर की लाल बत्ती को देख रहा था, मानो यह छोटा-सा यंत्र ही उसकी जान बचाने वाली ढाल हो। उसने एक गहरी साँस ली और दरवाज़े के पास खड़े-खड़े अपने बैग से नोटबुक निकाली। पन्ने खोले और काँपते हाथों से लिखने लगा—“दरवाज़ा बंद, शब्द लिखे हुए, आवाज़ें चारों तरफ़, बाहर निकलने का रास्ता फिलहाल असंभव।”

लिखते-लिखते अचानक उसे लगा कोई उसके कंधे के ऊपर झाँक रहा है। उसने झटपट पीछे मुड़कर देखा—खाली हॉल। लेकिन ठंडी हवा की लहर गर्दन को छूकर गुज़र गई। वह काँप गया।

उसने तय किया कि अब असली वजह ढूँढनी होगी। सिर्फ़ डर दर्ज करके कहानी अधूरी रहेगी। इसलिए उसने हिम्मत जुटाई और हवेली के बीच वाले आँगन की ओर बढ़ा। आँगन में टूटी झाड़ियों और सूखी बेलों के बीच एक कुआँ था, जिसके ऊपर लोहे की पुरानी चरखी लटकी थी। कुएँ की दीवारों पर घिसे-घिसे निशान थे, जैसे वहाँ रस्सी से भारी चीज़ें बार-बार नीचे उतारी गई हों।

अर्जुन ने नीचे झाँका। अंधेरा ही अंधेरा। टॉर्च की रोशनी भी गहराई तक नहीं पहुँची। लेकिन कानों में हल्की आवाज़ पड़ी—जैसे कोई पानी पर थपकी मार रहा हो। उसने तुरंत नोटबुक में लिखा—“कुएँ से आवाज़ें आ रही हैं। लगता है पानी नहीं, कुछ और है।”

अचानक, उसके पीछे से कोई बोल पड़ा—“मत देखो उसमें।”

अर्जुन चौंककर मुड़ा। आँगन के दरवाज़े पर खड़ा था एक बूढ़ा आदमी। दाढ़ी सफ़ेद, आँखें धँसी हुईं, और हाथ में लकड़ी की छड़ी। अर्जुन ने राहत की साँस ली। शायद कोई स्थानीय चौकीदार होगा।

“आप यहाँ क्या कर रहे हैं?” अर्जुन ने पूछा।

बूढ़ा धीरे-धीरे पास आया। “मैं यहीं रहता हूँ… या कहो, मुझे यहीं रहना पड़ता है।”

“आपको इस हवेली के बारे में क्या पता है?” अर्जुन की जिज्ञासा बढ़ गई।

बूढ़ा हँस पड़ा, पर उसकी हँसी में खड़खड़ाहट थी। “इतिहास जानना चाहते हो? तो सुनो। ठाकुर हरिराम सिंह—इस हवेली का मालिक—बहुत ज़ालिम था। बाहर से शानो-शौकत, पर अंदर… उसकी दीवारें खून से रंगी हैं।”

अर्जुन ने रिकॉर्डर चालू कर दिया। “क्या हुआ था यहाँ?”

बूढ़े ने चारों तरफ़ देखा और धीमी आवाज़ में बोला—“उसने अपने नौकरों को यहाँ ज़िंदा गाड़ दिया था। कहते हैं, उन्हें धोखा देने का शक हुआ था। इस आँगन के नीचे की मिट्टी लाल थी कई दिनों तक। कुएँ में औरतों और बच्चों के शव फेंके गए। जब लोग पूछने आए, ठाकुर ने कहा—‘यहाँ भूत पिशाचों का शिकार है।’ और उसी डर से सब चुप रहे।”

अर्जुन के रोंगटे खड़े हो गए। “तो यह सब सच है?”

“सच से भी ज़्यादा डरावना,” बूढ़ा बुदबुदाया। “उनकी आत्माएँ अब भी यहाँ हैं। रात में फुसफुसाती हैं। तुम्हें बुलाती हैं।”

अर्जुन ने पूछा—“आपने खुद सुना है?”

बूढ़ा धीरे-धीरे उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला—“तुम अभी तक नहीं सुने?”

इतना कहकर बूढ़ा अचानक हँसा, और उसकी परछाईं ज़मीन पर लंबी होकर कुएँ में उतरती चली गई। अर्जुन ने टॉर्च घुमाई—बूढ़ा गायब था।

उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। क्या वह सचमुच था, या हवेली का कोई छलावा?

अचानक, आँगन की मिट्टी से हल्की कराहने की आवाज़ आने लगी। जैसे नीचे से कोई हाथ पटक रहा हो। अर्जुन पीछे हट गया। आवाज़ बढ़ती गई—अब साफ़ सुनाई दे रहा था, कई लोग एक साथ कराह रहे हों—“हमें बाहर निकालो…”

अर्जुन ने काँपते हाथों से नोटबुक में लिखा—“आँगन की मिट्टी से आवाज़ें, जैसे दबे लोग मदद माँग रहे हों।” उसकी उँगलियाँ पसीने से भीग चुकी थीं।

फिर आवाज़ें बदल गईं। अब वही शब्द दोहराए जाने लगे—“यह मत खोलो… यह मत खोलो…”

अर्जुन का सिर घूमने लगा। उसने टॉर्च और रिकॉर्डर दोनों कसकर पकड़े और हवेली के भीतर वापस भागा। आँगन की ठंडी हवा उसके पीछे-पीछे दौड़ती आई।

हॉल में लौटकर उसने देखा—सामने की दीवार पर अब खून जैसे दाग से बड़ा-सा चित्र उभर आया था। उसमें ठाकुर हरिराम सिंह का चेहरा था—भारी मूंछें, कठोर आँखें, और होंठों पर विकृत मुस्कान।

चित्र धीरे-धीरे हिलने लगा। और उसी हिलते चेहरे से गूँजा—“जो मेरा है, उसे कोई छीन नहीं सकता।”

अर्जुन वहीं जड़ हो गया। उसके सामने अब हवेली का इतिहास सिर्फ़ कहानी नहीं रहा, बल्कि सजीव हो उठा था।

भाग 5 — दरवाज़े के पीछे

हॉल की दीवार पर उभरा रक्तरंजित चेहरा धीरे-धीरे धुंधला पड़ने लगा, मानो किसी ने अदृश्य हाथ से उसे मिटा दिया हो। लेकिन मिटते-मिटते भी उसकी आँखें अर्जुन की तरफ़ देखती रहीं। अर्जुन का गला सूख गया था, और उसकी उंगलियाँ रिकॉर्डर पर इतनी कस गईं कि नाखूनों के नीचे दर्द होने लगा।

उसने खुद से कहा—“बस कल्पना है, थकान है।” लेकिन मन जानता था—यह हवेली उसे धोखा नहीं दे रही, यह सचमुच दिखा रही है।

हॉल के पिछले हिस्से में एक पुराना, काला दरवाज़ा था। भारी लकड़ी का, जिस पर मोटे लोहे की पट्टियाँ जड़ी थीं। दरवाज़े पर ताले का निशान तो था, पर ताला नज़र नहीं आ रहा था। जैसे किसी ने जानबूझकर उसे खुला छोड़ दिया हो।

अर्जुन ने धीरे-धीरे पास जाकर दरवाज़े पर टॉर्च डाली। लकड़ी पर उँगलियों के गहरे निशान थे, जैसे किसी ने भीतर से नाखून गड़ाकर बार-बार बाहर निकलने की कोशिश की हो। जगह-जगह खून के धब्बे भी सूखे हुए थे।

उसने नोटबुक में लिखा—“पीछे का दरवाज़ा—खून और नाखून के निशान। लगता है, किसी को बंद किया गया था।”

दिल की धड़कन अब तेज़ थी। लेकिन उसके पत्रकार मन ने कहा—“यह दरवाज़ा खोलना ही होगा। यही सच्चाई है।”

उसने दोनों हाथों से दरवाज़े को धक्का दिया। पहली बार में दरवाज़ा हिला तक नहीं। दूसरी बार में एक कर्र की आवाज़ हुई। तीसरी बार जोर लगाया तो दरवाज़ा धीरे-धीरे खुलने लगा।

जैसे ही दरवाज़ा आधा खुला, भीतर से ठंडी हवा का झोंका बाहर आया। इतनी ठंडी कि उसकी साँस बर्फ़ जैसी हो गई। रोशनी अंदर डाली तो सामने एक लंबा, अँधेरा कमरा था। फर्श पर मोटी धूल, दीवारों पर काले धब्बे। और बीच में लोहे का एक बड़ा-सा बक्सा रखा था।

अर्जुन की साँस अटक गई। बक्सा मानो उसके इंतज़ार में रखा गया था। उसने रिकॉर्डर चालू किया—“कमरे के बीच में बड़ा लोहे का संदूक। शायद इसमें कोई राज़ छिपा हो।”

वह धीरे-धीरे बक्से की ओर बढ़ा। पास पहुँचकर देखा—संदूक पर भी वही शब्द उकेरे हुए थे—मत खोलो।”

उसके होंठ सूख गए। यही शब्द वह हर जगह सुन रहा था। हर चेतावनी इसी एक वाक्य में छिपी थी। लेकिन जिज्ञासा और डर के बीच उसकी उँगलियाँ काँपती रहीं।

उसने संदूक का जंग लगा ढक्कन उठाने की कोशिश की। पहले तो वह अटका रहा। फिर धीरे-धीरे चीखती आवाज़ के साथ खुल गया।

भीतर झाँका तो सबसे ऊपर कुछ पुराने कपड़े थे—फटे हुए, धूल और राख से भरे। उसने हाथ से हटाया। नीचे हड्डियाँ नज़र आईं। इंसानी हड्डियाँ—कंकाल। दो छोटे, एक बड़ा।

अर्जुन का गला सूख गया। उसने रिकॉर्डर में बुदबुदाया—“संदूक के भीतर… हड्डियाँ… शायद औरत और बच्चे।”

तभी अचानक हड्डियों के बीच से एक चीख फूटी। कान फाड़ देने वाली, औरत की चीख। कमरे की दीवारें काँप गईं। अर्जुन पीछे हट गया और टॉर्च गिर पड़ी। रोशनी चारों तरफ़ भागने लगी।

हड्डियाँ हिलने लगीं। जैसे कोई अदृश्य हाथ उन्हें उठा रहा हो। बच्चों की हँसी फिर से गूँजी। और संदूक अपने आप बंद हो गया।

अर्जुन ने जल्दी से टॉर्च उठाई और दरवाज़े की ओर भागा। लेकिन दरवाज़ा अब बाहर से बंद हो चुका था। उसने धक्का मारा, लात मारी, पर दरवाज़ा नहीं खुला।

तभी कमरे के कोने से धीमे-धीमे फुसफुसाहट शुरू हुई। कई आवाज़ें एक साथ—
“हम यहाँ हैं… हमें बचाओ…”
“यह मत खोलो… यह मत खोलो…”

फिर बीच में वही भारी, कठोर आवाज़ गूँजी—
“जो अंदर गया, वह कभी बाहर नहीं आता।”

अर्जुन दीवार से टिककर बैठ गया। रिकॉर्डर अब भी चालू था। उसने काँपते स्वर में कहा—“दरवाज़ा बंद… संदूक में हड्डियाँ… आवाज़ें… मैं शायद बाहर नहीं निकल पाऊँ।”

अचानक दरवाज़ा खुद-ब-खुद कर्र की आवाज़ के साथ खुल गया। अर्जुन घबराकर बाहर भागा। गलियारे में आकर पीछे देखा—दरवाज़ा बंद हो चुका था।

उसके हाथ अब भी काँप रहे थे। पर मन में एक बात साफ़ हो गई—इस हवेली का हर दरवाज़ा मौत की ओर खुलता है। और फिर भी, उसे अगला दरवाज़ा खोलना ही होगा।

भाग 6 — सफ़ेद साड़ी वाली औरत

गलियारे की ठंडी हवा अर्जुन की हड्डियों में उतर गई थी। उसकी आँखें बार-बार दरवाज़े की ओर जातीं, जिसे वह अभी पीछे छोड़ आया था। वहाँ बंद संदूक की स्मृति उसके कानों में अब भी गूँज रही थी—औरत की चीख, बच्चों की हँसी, और वह भारी आवाज़ जो कह रही थी कि “जो अंदर गया, वह कभी बाहर नहीं आता।”

अर्जुन का मन भागने को कह रहा था, लेकिन पाँव मानो हवेली के फर्श से चिपक गए थे। उसने खुद को सँभालने के लिए रिकॉर्डर उठाया और बोला—“समय… रात लगभग नौ बजने वाली है। हवेली के भीतर लगातार परालौकिक गतिविधियाँ दर्ज हो रही हैं। अब हिम्मत जुटाकर आगे बढ़ रहा हूँ।”

गलियारे के अंत में एक टूटी खिड़की से चाँदनी भीतर उतर रही थी। वह चाँदनी धूल को सोने की बारीक परत की तरह चमका रही थी। अर्जुन ने उस रोशनी में टॉर्च बंद कर दी। तभी उसने देखा—बरामदे के पार सीढ़ियों पर कोई खड़ा है।

सफ़ेद साड़ी में एक औरत। उसके बाल बिखरे हुए, चेहरे पर छाया। और सबसे अजीब बात—उसके पैर ज़मीन को छू नहीं रहे थे, थोड़े ऊपर तैर रहे थे।

अर्जुन का खून जम गया। उसने आँखें मलीं, सोचा शायद रोशनी का भ्रम हो। लेकिन नहीं—औरत अब भी वहीं थी। स्थिर, शांत, और उसकी तरफ़ देखती हुई।

उसने हिम्मत करके आवाज़ लगाई—“कौन हैं आप?”

कोई जवाब नहीं। सिर्फ़ एक हल्की सीटी जैसी आवाज़, जैसे हवा किसी बंद दरार से निकल रही हो। औरत ने धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे आना शुरू किया। उसके पाँव अब भी हवा में थे। हर कदम पर हवा और ठंडी हो रही थी।

अर्जुन ने टॉर्च ऑन की और सीधा उस पर डाली। रोशनी पड़ते ही औरत का चेहरा साफ़ दिखा—सफेद, सूना, आँखें बिल्कुल काली, जैसे उनमें कोई तली न हो। होंठों पर आधी मुस्कान, जो डर से ज़्यादा दर्द भरी लग रही थी।

अर्जुन पीछे हट गया। उसकी पीठ दीवार से टकराई। औरत अब बिल्कुल उसके सामने थी। उसने धीरे से हाथ उठाया और अर्जुन के कंधे को छूने ही वाली थी कि अर्जुन ने आँखें बंद कर लीं।

लेकिन छूने की बजाय कानों में एक फुसफुसाहट आई—
“क्यों खोला?”

अर्जुन ने काँपते स्वर में कहा—“क्या?”

फुसफुसाहट और गहरी हो गई—
“संदूक… क्यों खोला?”

अर्जुन का दिल थम गया। यानी हवेली में सबकुछ जुड़ा हुआ था। वह औरत, संदूक, आवाज़ें—सब एक ही श्राप का हिस्सा।

उसने हिम्मत करके आँखें खोलीं। औरत गायब थी। सिर्फ़ ठंडी हवा की परतें रह गई थीं।

लेकिन अब फर्श पर गीले पाँवों के निशान उभरने लगे—एक के बाद एक, सीधा उसकी ओर बढ़ते हुए। अर्जुन पीछे हटता गया, निशान आगे आते गए। अचानक सारे निशान वहीं रुक गए, और हवा में वही भारी आवाज़ गूँजी—
“अब तुम लौट नहीं सकते।”

अर्जुन ने रिकॉर्डर में फुसफुसाया—“मैंने सफ़ेद साड़ी वाली औरत देखी। उसने मुझसे पूछा—संदूक क्यों खोला। शायद वह भी उन्हीं आत्माओं में से एक है। लगता है मैं श्राप का हिस्सा बन चुका हूँ।”

उसकी साँसें भारी हो रही थीं। उसने हिम्मत जुटाकर सीढ़ियाँ उतरने का फैसला किया। लेकिन नीचे पहुँचते ही उसके पैरों तले ज़मीन जैसे काँपी। हॉल की सारी खिड़कियाँ एक साथ धड़धड़ाकर खुल गईं। बाहर से हवा का ज़ोरदार झोंका आया और चारों तरफ़ दीये अपने आप जल उठे।

अब पूरा हॉल पीली लौ से चमक रहा था। और ठीक बीच में वही औरत खड़ी थी। सफ़ेद साड़ी, काले आँखें, और इस बार उसकी मुस्कान और चौड़ी थी।

उसने धीरे-धीरे हाथ उठाया और दीवार की तरफ़ इशारा किया। अर्जुन ने देखा—दीवार पर अब एक और दरवाज़ा उभरा था, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था। दरवाज़े पर खून जैसे रंग से लिखा था—यह मत खोलो।”

औरत की आवाज़ गूँजी—“खोलो… तभी सब पता चलेगा।”

अर्जुन काँप गया। उसका मन भागने को कह रहा था, लेकिन जिज्ञासा उसे वहीं रोक रही थी।

भाग 7 — शापित किताब

दीवार पर उभरे उस नए दरवाज़े की तरफ़ अर्जुन का दिल खिंच रहा था। सफ़ेद साड़ी वाली औरत अब गायब हो चुकी थी, लेकिन उसकी आवाज़ अब भी हवेली की हवा में तैर रही थी—खोलो… तभी सब पता चलेगा।”

अर्जुन ने कांपते हाथों से दरवाज़े की कुंडी पकड़ी। दरवाज़ा हल्का धक्का देते ही कर्र-कर्र की आवाज़ करता खुल गया। अंदर एक लंबा, अँधेरा कमरा था। दीवारों पर ऊँचे-ऊँचे अलमारियाँ जमी थीं, भरी हुई पुरानी किताबों से। यह हवेली की लाइब्रेरी थी।

कमरे में सीलन और पुराने काग़ज़ की गंध इतनी तेज़ थी कि साँस लेना मुश्किल हो रहा था। टॉर्च की रोशनी घुमाते ही उसने देखा—ज़्यादातर किताबें धूल और दीमक से सड़ चुकी थीं, कई की जिल्द उखड़ चुकी थी। लेकिन एक किताब बीच की मेज़ पर रखी थी—नई जैसी, चमकदार काले रंग की जिल्द में।

अर्जुन धीरे-धीरे उसके पास पहुँचा। किताब की जिल्द पर चाँदी की स्याही से लिखा था—मत पढ़ो।”

उसका शरीर सिहर उठा। हर जगह वही चेतावनी—मत खोलो, मत पढ़ो। पर मन में खिंचाव और भी गहरा हो गया। पत्रकार का मन कह रहा था—“अगर यह राज़ है, तो यहीं मिलेगा।”

उसने रिकॉर्डर चालू किया—“लाइब्रेरी में एक किताब मिली है। बाकी सब पुरानी, पर यह बिल्कुल नई लग रही है। जिल्द पर लिखा है—‘मत पढ़ो।’ मैं पहला पन्ना खोल रहा हूँ।”

किताब का ढक्कन उठाते ही ठंडी हवा का तेज़ झोंका पूरे कमरे में दौड़ गया। अलमारियों की किताबें हिलने लगीं, जैसे हवा में सांस ले रही हों। अर्जुन का गला सूख गया, लेकिन उसने पहला पन्ना पलटा।

पन्ने पर लाल स्याही में लिखा था—
जिसने यह पढ़ा, उसकी आत्मा हवेली से बंध जाएगी। उसके शब्द हमारे शब्द बन जाएंगे। उसके जीवन और मृत्यु के बीच कोई फ़र्क़ नहीं बचेगा।”

अर्जुन की आँखें फटी रह गईं। उसने किताब तुरंत बंद करने की कोशिश की, लेकिन पन्ने अपने आप पलटने लगे। हवा इतनी तेज़ हो गई कि उसके बाल उड़ने लगे। अलमारियों से किताबें गिरने लगीं।

हर पन्ने पर अलग-अलग चेतावनी—
“तुम्हें यहाँ नहीं होना चाहिए।”
“हमारे साथ बँध चुके हो।”
“अब कोई वापसी नहीं।”

अर्जुन ने किताब को ज़ोर से बंद किया और मेज़ से हट गया। लेकिन किताब अपने आप हिलने लगी, और पन्ने फड़फड़ाने लगे। कमरे में गूँजती आवाज़ें अब एक साथ कह रही थीं—पढ़ लिया… अब लौट नहीं सकते।”

अचानक मेज़ पर रखी किताब की जिल्द से धुआँ निकलने लगा। धुएँ में कई परछाइयाँ तैरती दिखीं। उनमें वही औरत भी थी—सफ़ेद साड़ी वाली। उसकी काली आँखें अब और गहरी हो चुकी थीं। उसने अर्जुन की ओर हाथ बढ़ाया और फुसफुसाई—“तुमने हमें मुक्त किया है।”

अर्जुन पीछे हट गया। उसका शरीर काँप रहा था। उसने रिकॉर्डर में काँपती आवाज़ में कहा—“मैंने किताब का पहला पन्ना पढ़ लिया… लगता है अब मैं भी इस हवेली के श्राप का हिस्सा बन चुका हूँ।”

लाइब्रेरी की दीवारें हिलने लगीं। ऊपर से प्लास्टर टूट-टूटकर गिरने लगा। अर्जुन ने किताब उठाकर फेंकना चाहा, लेकिन किताब उसके हाथों से चिपक गई। जैसे जिल्द में अदृश्य हथेलियाँ हों जो उसे पकड़ रही हों।

“छोड़ो!” अर्जुन चीखा। उसने पूरी ताक़त से किताब को झटका। अचानक वह हाथ से छूट गई और कमरे के बीच हवा में तैरने लगी। पन्ने अपने आप पलटने लगे।

हर पन्ने से आवाज़ें निकल रही थीं—बच्चों की हँसी, औरतों की चीख, मर्दों की कराह। पूरा कमरा उन आवाज़ों से गूँज उठा। अर्जुन ने कान बंद कर लिए, लेकिन आवाज़ें उसके सिर के भीतर गूँजने लगीं।

किताब अचानक बंद हो गई और ज़ोर से ज़मीन पर गिरी। धूल का गुबार उठा। और उसी धूल में शब्द उभरे—अगला दरवाज़ा खोलो।”

अर्जुन काँपते हुए कमरे से बाहर भागा। गलियारे में लौटकर उसने रिकॉर्डर बंद कर दिया। साँसें इतनी तेज़ थीं कि सीना फटने को था।

अब उसे साफ़ समझ आ गया—हवेली का हर रहस्य एक-दूसरे से जुड़ा है। दरवाज़े, संदूक, आईने, किताब—सब मिलकर किसी बड़ी सच्चाई की ओर धकेल रहे हैं। और अब वह खुद उस सच्चाई का हिस्सा बन चुका है।

भाग 8 — सपनों की कैद

लाइब्रेरी से निकलकर अर्जुन गलियारे में आया तो लगा मानो हवेली ने एक लंबी साँस खींचकर उसे अपने भीतर और कसकर जकड़ लिया हो। दीवारें पहले से ज़्यादा नम थीं, हवा पहले से ज़्यादा ठंडी। उसके कान अब भी किताब की आवाज़ें सुन रहे थे—तुम्हें लौटने नहीं देंगे।”

वह थका हुआ था, शरीर काँप रहा था। उसने तय किया कि थोड़ी देर बैठकर नोट्स लिखेगा। हॉल के कोने में टूटी हुई कुर्सी पर बैठते ही आँखें भारी होने लगीं। उसने खुद से कहा—“बस कुछ मिनट आराम, फिर बाहर निकलने की कोशिश करूंगा।”

लेकिन नींद जैसे उसी का इंतज़ार कर रही थी। पलकें गिरते ही हवेली की दीवारें धुंधली हो गईं और वह सपनों में खिंच गया।

सपने में उसने खुद को उसी हवेली के आँगन में खड़ा पाया। पर आँगन वैसा नहीं था जैसा अभी उसने देखा था। मिट्टी ताज़ा लाल थी, मानो खून में भीगी हो। चारों तरफ़ लोग खड़े थे—नौकर, औरतें, बच्चे। उनके चेहरे पर डर। बीच में ठाकुर हरिराम सिंह खड़ा था, हाथ में तलवार। उसकी आँखें वही थीं जो अर्जुन ने दीवार पर उभरे चेहरे में देखी थीं—निर्मम, पत्थर जैसी।

ठाकुर गरजा—“धोखा देने वालों की यही सज़ा है।” और उसने इशारा किया। नौकरों को ज़बरदस्ती आँगन की मिट्टी में गाड़ा जाने लगा। उनकी चीखें हवा में गूँज रहीं थीं। बच्चे अपनी माँओं से चिपककर रो रहे थे। औरतें रहम की भीख माँग रही थीं।

अर्जुन ने यह सब अपनी आँखों से देखा। उसका गला फट गया, पर आवाज़ नहीं निकली। उसने भागना चाहा, लेकिन पाँव ज़मीन से चिपक गए।

फिर ठाकुर ने उसकी ओर देखा। सीधे उसकी ओर। तलवार उठाई और चीखा—“तुम भी गद्दार हो!”

अर्जुन चीख पड़ा और अचानक उसकी दोनों हथेलियों में जलन होने लगी। उसने नीचे देखा—उसके हाथों पर ताज़ा खून बह रहा था, जैसे किसी ने चाकू से काट दिया हो।

वह हड़बड़ाकर जागा। साँस तेज़, पूरा शरीर पसीने से भीगा। टॉर्च उसके हाथ से गिर चुकी थी। उसने हाथों की तरफ़ देखा—नींद से जागने के बावजूद हथेलियों पर वही ज़ख्म थे, ताज़ा खून रिस रहा था।

उसका दिमाग़ सुन्न हो गया। सपने की यातना वास्तविकता में बदल गई थी। उसने तुरंत नोटबुक में काँपते हाथों से लिखा—“नींद में देखा दृश्य—नौकरों की हत्या, ठाकुर की तलवार। जागने पर वही ज़ख्म मेरे हाथों पर। सपनों और हकीकत के बीच की दीवार टूट चुकी है।”

कमरे में अचानक ठंडी हवा भर गई। उसे लगा जैसे कई अदृश्य लोग उसके चारों तरफ़ खड़े हों। कानों में हल्की-हल्की आवाज़ें गूँजने लगीं—
“हमारे दर्द को देखा तुमने…”
“अब हमारे साथ रहो…”
“यह हवेली तुम्हारा भी घर है…”

अर्जुन ने चिल्लाकर कहा—“नहीं! मैं यहाँ से निकल जाऊँगा!”

लेकिन आवाज़ें और तेज़ हो गईं। और अचानक उसके सामने वही सफ़ेद साड़ी वाली औरत प्रकट हुई। उसकी काली आँखें अब और गहरी थीं। उसने अर्जुन के ज़ख्मी हाथ पकड़ लिए। और बोली—“तुम्हारे सपने अब हमारे सपने हैं।”

अर्जुन का शरीर बर्फ़ जैसा ठंडा हो गया। उसने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, पर औरत की पकड़ लोहे जैसी थी। उसके होंठ हिले—“जब तक सच बाहर नहीं आएगा, तुम्हें चैन नहीं मिलेगा। यह हवेली हर रात तुम्हें सपनों में खींचेगी… जब तक तुम हमारे अंत को पूरा नहीं करोगे।”

इतना कहकर वह हवा में विलीन हो गई। लेकिन उसके हाथों की ठंडक अर्जुन की हड्डियों तक जम चुकी थी।

अर्जुन ज़मीन पर गिर पड़ा। उसने रिकॉर्डर उठाया और फुसफुसाया—“हवेली ने मुझे अपने सपनों में कैद कर लिया है। नींद अब सुरक्षित जगह नहीं रही। हर सपना मुझे मार देगा। अगर मैं बचा तो अगली रात फिर कैद हो जाऊँगा।”

उसकी आँखें भारी हो रही थीं। लेकिन अब सोना मौत जैसा लगता था। उसने खुद को जगाए रखने के लिए हथेली के घावों पर दबाव डाला, ताकि दर्द से नींद भाग सके।

पर भीतर कहीं उसे पता था—हवेली से बाहर निकले बिना वह न जाग पायेगा, न सो पायेगा।

भाग 9 — आख़िरी रात

हवेली की घड़ियाल जैसी आवाज़ें अब अर्जुन के सीने के भीतर गूँज रही थीं। समय जैसे थम गया था। घड़ी नहीं थी, पर उसे लग रहा था कि आधी रात हो चुकी है। हाथों के ज़ख्म अब सुन्न होने लगे थे, पर उनमें दर्द की जगह एक अजीब-सी झनझनाहट भर गई थी। जैसे ज़ख्म अब उसका हिस्सा न होकर हवेली की देन बन गए हों।

उसने खुद से कहा—“बस एक कोशिश और… बाहर निकलना ही होगा।”

वह काँपते पैरों से सीढ़ियाँ उतरकर मुख्य हॉल में पहुँचा। दरवाज़ा बंद था, जैसा पहले। इस बार उसने टॉर्च की जगह अपने मोबाइल का फ्लैशलाइट इस्तेमाल किया। रोशनी दरवाज़े पर पड़ी—अब वहाँ लिखा था: तुम्हारा रास्ता यहीं खत्म।”

अर्जुन ने पूरी ताक़त से दरवाज़ा धक्का दिया। लकड़ी चरमराई, लेकिन दरवाज़ा टस से मस न हुआ। उसने फिर कोशिश की—कंधे से मारा, पैर से लात मारी—पर हर बार दरवाज़ा जैसे मज़बूत होता गया।

और तभी उसे अजीब लगा—वह जितना भी भागने की कोशिश करता, दरवाज़ा वहीं सामने आता। बाएँ मुड़ा तो भी दरवाज़ा सामने, दाएँ गया तो भी दरवाज़ा सामने। मानो हवेली का नक्शा ही बदल गया हो और उसे एक बंद घेरे में घुमा दिया गया हो।

उसका दिमाग़ सुन्न हो गया। “मैं फँस चुका हूँ,” उसने बुदबुदाया।

हॉल की छत से अचानक झूमर हिलने लगा। धूल और काँच के टुकड़े गिरने लगे। हवा में बच्चों की हँसी और औरतों की चीखें मिलकर एक विकृत शोर पैदा करने लगीं। अर्जुन ने कान बंद कर लिए। लेकिन आवाज़ें सीधे उसके दिमाग़ में उतर रही थीं।

एक गहरी आवाज़ गूँजी—तुम्हें सच जानना ही होगा।”

हॉल के बीचोबीच फर्श फट गया। दरार से लाल रोशनी निकली, जैसे धरती के भीतर आग जल रही हो। दरार चौड़ी हुई और उसमें से हाथ निकलने लगे—काले, हड्डियों जैसे हाथ, जो हवा में लहराकर अर्जुन की ओर बढ़ रहे थे।

वह पीछे हट गया, पर हाथ लगातार बढ़ते रहे। उनमें से एक ने उसके पैर को छुआ। ठंडक का ऐसा झटका लगा कि उसका पूरा पैर सुन्न हो गया। वह गिर पड़ा।

और तभी उसने देखा—दरार के भीतर वही सफ़ेद साड़ी वाली औरत खड़ी है। उसकी आँखें अब खून जैसी लाल थीं। उसने हाथ बढ़ाकर अर्जुन से कहा—“सच देखने का समय आ गया है।”

अर्जुन चीख पड़ा—“मैं बाहर जाना चाहता हूँ!”

औरत बोली—“बाहर अब तुम्हारे लिए नहीं है। तुमने हमें पढ़ लिया, देख लिया, छू लिया। अब तुम्हारा हिस्सा भी यहीं रहेगा।”

उसने अर्जुन का हाथ पकड़ लिया। अर्जुन को लगा उसका पूरा शरीर खिंचकर दरार की ओर जा रहा है। वह छटपटाने लगा, दीवार पकड़ने की कोशिश की, लेकिन पकड़ जैसे मिट्टी पर थी—कुछ काम नहीं आया।

अचानक रिकॉर्डर उसके हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिरा और उसमें से उसकी खुद की आवाज़ें गूँजने लगीं—
“मैं यहाँ फँस गया हूँ… शायद बाहर नहीं निकल पाऊँ…”
“सपनों और हकीकत की दीवार टूट चुकी है…”
“जो अंदर गया, वह कभी बाहर नहीं आता…”

हर वाक्य उसकी आत्मा को और भारी कर रहा था।

दरार अब और चौड़ी हो गई। और उसमें से कराहती हुई परछाइयाँ निकलने लगीं—बच्चों के, औरतों के, नौकरों के। सबके चेहरे रक्त से लथपथ। वे अर्जुन को देख रहे थे, जैसे कह रहे हों—“अब तुम भी हमारे साथ।”

अर्जुन ने आखिरी बार पूरी ताक़त लगाई। उसने रिकॉर्डर उठाकर दरार में फेंक दिया। रिकॉर्डर की लाल बत्ती आग जैसी चमकी और दरार से निकली सारी परछाइयाँ एक पल के लिए थम गईं।

औरत की आवाज़ गूँजी—“तुम सोचते हो इससे बच जाओगे? आख़िरी रात तो अभी शुरू हुई है।”

अर्जुन ने आँखें बंद कर लीं। उसे लगा उसका शरीर हवा में लटक रहा है। और जब उसने आँखें खोलीं, तो पाया कि वह फिर से हॉल की सीढ़ियों के नीचे पड़ा है। चारों तरफ़ सन्नाटा।

लेकिन दरवाज़े पर अब नए शब्द लिखे थे—कल सुबह तुम्हें यह हवेली खुद रख लेगी।”

भाग 10 — अनंत अंधेरा

रात अब अपने आख़िरी पड़ाव पर थी। हवेली के बाहर की दुनिया शायद शांत नींद में डूबी थी, पर अंदर अर्जुन के लिए समय ठहर चुका था। हर मिनट एक युग जैसा भारी लग रहा था। वह सीढ़ियों के नीचे बैठा था, खून से लथपथ हाथों को घुटनों में छिपाकर। उसकी साँसें टूट-टूटकर निकल रही थीं, और आँखें आधी खुली, आधी बंद।

दरवाज़े पर लिखे शब्द अब भी चमक रहे थे—कल सुबह तुम्हें यह हवेली खुद रख लेगी।” वह जानता था, सूरज उगे या न उगे, उसके लिए सुबह कभी नहीं आएगी।

अचानक हवेली में फिर से हलचल हुई। टूटी खिड़कियों से ठंडी हवा आई और सारे दरवाज़े एक-एक करके धड़धड़ाकर बंद हो गए। पूरा हॉल अंधेरे में डूब गया। सिर्फ़ एक जगह रोशनी थी—ऊपर, दूसरी मंज़िल पर।

अर्जुन ने काँपते पैरों से उठकर सीढ़ियाँ चढ़नी शुरू कीं। हर कदम पर सीढ़ी कर्राती, जैसे चेतावनी दे रही हो—“मत आओ।” पर अब उसके पास कोई और रास्ता नहीं था।

ऊपर पहुँचते ही उसने देखा—एक कमरा खुला हुआ था। अंदर से हल्की लाल रोशनी झर रही थी। अर्जुन ने दरवाज़ा धकेला।

कमरे के बीचोंबीच एक बड़ा-सा आईना रखा था। वही आईना जो उसने पहले देखा था, पर अब यह और भी साफ़ था। उसमें उसका चेहरा दिख रहा था, लेकिन अजीब बात यह थी कि आईने में उसका रूप अकेला नहीं था। पीछे सफ़ेद साड़ी वाली औरत खड़ी थी।

वह बोली—“यही तुम्हारा सच है।”

अर्जुन ने हिम्मत करके पीछे मुड़कर देखा—कमरा खाली था। पर आईने में औरत अब और पास आ चुकी थी। उसने धीरे-धीरे अर्जुन के कंधे पर हाथ रखा—आईने के भीतर से। और अर्जुन को महसूस हुआ, सचमुच किसी ने उसे छुआ है।

उसका शरीर ठंडा हो गया। आईने में अब सिर्फ़ औरत और अर्जुन नहीं थे—सैकड़ों परछाइयाँ थीं। बच्चे, औरतें, नौकर—सबकी आँखें खाली, सबकी आवाज़ें गूँज रही थीं—
हमारे साथ रहो… हमेशा के लिए…”

अर्जुन ने चीखकर आईना तोड़ने की कोशिश की। उसने पास रखी टूटी कुर्सी का टुकड़ा उठाया और पूरी ताक़त से आईने पर मारा।

काँच हज़ार टुकड़ों में बिखर गया। लेकिन हर टुकड़े में उसका चेहरा मुस्कुरा रहा था—डर और दर्द की जगह अब वही शून्य मुस्कान।

फर्श हिलने लगी। दीवारों से खून रिसने लगा। पूरा कमरा एक गड्ढे जैसा हो गया, और अर्जुन उसमें खिंचता चला गया। चारों तरफ़ परछाइयाँ, फुसफुसाहटें, चीखें। उसने रिकॉर्डर कसकर पकड़ा और आखिरी बार उसमें बोला—

अगर कोई ये सुने, तो जान ले—मैं हवेली का हिस्सा बन चुका हूँ। यहाँ से कोई नहीं लौटता। यह जगह अब मेरी भी है…”

उसकी आवाज़ टूट गई। रिकॉर्डर हाथ से छूटकर फर्श पर गिरा। सुबह की पहली किरणें जब हवेली की टूटी खिड़कियों से भीतर आईं, तो सबकुछ शांत था। हॉल खाली, गलियारे स्थिर, दरवाज़े बंद।

सिर्फ़ सीढ़ियों के पास ज़मीन पर एक छोटा-सा रिकॉर्डर पड़ा था। उसका लाल बटन अब भी टिमटिमा रहा था। उसमें अर्जुन की आखिरी आवाज़ गूँज रही थी—

अगर कोई ये पढ़ रहा है, तो मुझे बचा लो।”

उसके बाद सन्नाटा।

हवेली अब अगले शिकार का इंतज़ार कर रही थी।

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