राघव सक्सेना
१
दिल्ली की चकाचौंध और भीड़भाड़ से दूर, शहर के एक नामी-गिरामी प्राइवेट अस्पताल की चमकती इमारतें अक्सर बाहर से किसी पाँच सितारा होटल जैसी लगती थीं। बड़े-बड़े शीशे, सफ़ेद यूनिफ़ॉर्म में सजे कर्मचारी, कॉफ़ी की खुशबू और एसी से छनकर आती ठंडी हवा… इन सबके बीच डॉ. आरव मेहता अपने इंटर्नशिप के पहले कुछ महीनों से गुज़र रहा था। महज़ सत्ताईस साल का यह जूनियर डॉक्टर मेडिकल कॉलेज से निकला ही था और उसने अपने भीतर आदर्शों और सेवा-भाव से भरी दुनिया बनाई थी। उसके लिए डॉक्टर होना महज़ पेशा नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी थी, जिसे निभाने के लिए वह दिन-रात मेहनत करता था। मरीजों की आँखों में भरोसा और डर का मिला-जुला भाव देखकर उसके भीतर और अधिक लगन पैदा होती। हर केस में वह पूरी शिद्दत से जुटता और यही वजह थी कि कई वरिष्ठ डॉक्टर उसकी ईमानदारी की प्रशंसा करते। लेकिन चमक-दमक के इस अस्पताल में आरव को हमेशा एक अजीब-सी बेचैनी महसूस होती—जैसे कोई परछाईं उसके साथ-साथ चल रही हो, अनदेखी, लेकिन मौजूद।
एक दिन इमरजेंसी वार्ड में एक सड़क दुर्घटना का केस आया। तीस वर्षीय एक युवक को गंभीर हालत में लाया गया था, उसका शरीर खून से लथपथ था और सांसें टूट रही थीं। आरव ने पूरी कोशिश की, लेकिन इलाज के दौरान मरीज की मौत हो गई। मौत भले ही स्वाभाविक लग रही थी, पर आरव ने जब मेडिकल रिपोर्ट और डैथ सर्टिफिकेट का मसौदा देखा, तो उसके माथे पर बल पड़ गए। रिपोर्ट में लिखा था कि मौत हृदयाघात से हुई है, जबकि आरव ने खुद देखा था कि मरीज के शरीर पर कई गहरे ज़ख्म थे और खून की भारी कमी उसकी जान ले चुकी थी। न तो कार्डियक अरेस्ट के लक्षण थे और न ही किसी रिपोर्ट में रक्तस्राव का ज़िक्र। पहले तो उसने सोचा कि शायद टाइपिंग की गलती हो, लेकिन जब उसने फ़ाइल को ध्यान से पढ़ा, तो साफ़ दिखा कि सब कुछ बहुत सुनियोजित ढंग से लिखा गया है। उसकी अंतरात्मा ने फुसफुसाकर कहा—“यहाँ कुछ गड़बड़ है।” पहली बार उसे अहसास हुआ कि जिस संस्था को वह पवित्र समझकर काम कर रहा है, उसके भीतर शायद कोई अंधेरा छिपा है।
आरव देर रात तक उस केस के कागज़ों पर नज़र गड़ाए बैठा रहा। अस्पताल के गलियारों में उस समय सन्नाटा पसरा था, सिर्फ़ दूर कहीं मशीनों की बीप-बीप की आवाज़ और नाइट ड्यूटी नर्सों के कदमों की आहट सुनाई दे रही थी। उसका मन बार-बार सवाल करता—अगर मौत रक्तस्राव से हुई है, तो रिपोर्ट में इसे छुपाया क्यों गया? क्या यह सिर्फ़ एक लापरवाही है या इसके पीछे कोई और वजह है? उसकी आँखों के सामने उस मरीज का चेहरा घूम गया, जिसकी सांसें उसके हाथों में थम गई थीं। उस रात नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। अस्पताल की इमारत उसे अचानक उतनी साफ़-सुथरी नहीं लगी जितनी दिन के उजाले में दिखती थी। दीवारों पर पड़ती लंबी परछाइयाँ उसे डराने लगीं। उसने तय किया कि इस मामले की तह तक जाएगा, लेकिन तभी उसके भीतर एक और आवाज़ गूँजी—“सच तलाशने की कीमत भारी भी पड़ सकती है।” उसे नहीं पता था कि यह उसकी जिंदगी की सबसे खतरनाक राह की शुरुआत थी, जहाँ इंसाफ़ और सच्चाई की खोज उसे मौत के साए तक ले जाएगी।
२
दिल्ली की तपती दोपहर थी जब नेहा अपने भाई रवि को अस्पताल लेकर आई। रवि एक छोटे कस्बे से आया हुआ युवक था, जो शहर में मज़दूरी करता था। अचानक पेट में तेज़ दर्द उठने के बाद उसे लोकल क्लिनिक से रेफ़र कर इस बड़े अस्पताल में भेजा गया था। नेहा के चेहरे पर घबराहट साफ़ झलक रही थी—पसीने से भीगी माथे की लटें, आँखों में चिंता, और हाथों में कसकर पकड़ा हुआ बैग जिसमें कुछ कपड़े और दवाइयाँ रखी थीं। रिसेप्शन पर वह काग़ज़ी कार्यवाही में उलझती रही, और थोड़ी देर बाद रवि को ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया। बाहर बैठी नेहा हर बीतते पल के साथ बेचैन होती रही, उसकी निगाहें कभी बंद दरवाज़े पर टिक जातीं, तो कभी उन डॉक्टरों पर जो सफ़ेद कोट पहनकर तेज़ी से इधर-उधर आते-जाते थे। कुछ घंटों की चिंता और इंतज़ार के बाद, अचानक सूचना मिली कि ऑपरेशन के दौरान रवि की हालत बिगड़ गई और उसकी मौत हो गई। नेहा के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसकी आँखें सुन्न हो गईं, और वह ज़ोर से चिल्लाकर रो पड़ी। परिजनों को दिलासा देने की औपचारिक कोशिश की गई, लेकिन नेहा को लगा कि उसके भाई की मौत इतनी अचानक और संदिग्ध नहीं हो सकती। उसकी मासूमियत में सवाल उठ रहे थे, पर उसे जवाब देने वाला कोई नहीं था।
इसी बीच डॉ. आरव मेहता, जो उस वार्ड में इंटर्नशिप कर रहे थे, को यह केस देखने का मौका मिला। जब उन्होंने रवि का डैथ सर्टिफिकेट और ऑपरेशन रिपोर्ट देखी, तो उनकी आँखें संदेह से सिकुड़ गईं। रिपोर्ट में लिखा था कि मरीज की मृत्यु हृदय रुक जाने से हुई, लेकिन शरीर के हालात कुछ और ही कह रहे थे। आरव ने गौर किया कि मरीज का शरीर अस्वाभाविक रूप से हल्का और कमजोर लग रहा था, जैसे अचानक उससे कुछ ज़रूरी अंग गायब कर दिए गए हों। उन्होंने नोटिस किया कि टाँके लगाने का काम बहुत सफ़ाई से और अजीब जल्दीबाज़ी में किया गया है, मानो ऑपरेशन का उद्देश्य इलाज कम और कुछ और ज़्यादा रहा हो। रिपोर्ट में खून की कमी या आंतरिक चोटों का कोई ज़िक्र नहीं था, जबकि सामान्य हालात में यह कारण लिखा जाना चाहिए था। आरव की धड़कनें तेज़ हो गईं—क्या यह वही विसंगति है जिसकी आहट उसने पहले केस में महसूस की थी? नेहा के रोते हुए चेहरे और उसके असहायपन ने आरव को अंदर से झकझोर दिया। उसे लगा कि शायद इस लड़की के भाई की मौत सिर्फ़ एक मेडिकल दुर्घटना नहीं बल्कि किसी बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है।
रात गहराने लगी थी। अस्पताल के गलियारों में सफ़ेद रोशनी फैली थी, लेकिन वह रोशनी आरव की आँखों में अंधेरा भर रही थी। वह बार-बार रवि के केस फ़ाइल को पलटता और काग़ज़ों पर लिखे शब्दों को अपने अनुभव से मिलाने की कोशिश करता। उसे साफ़ दिखा कि ऑपरेशन रिपोर्ट और वास्तविक चिकित्सा स्थिति में ज़मीन-आसमान का अंतर है। रवि की छाती पर हल्के नीले निशान थे, पेट पर ऐसे टाँके थे जो किसी बड़े अंग-प्रतिस्थापन सर्जरी जैसे लगते थे। लेकिन रिपोर्ट में इनका कोई उल्लेख नहीं था। यह महज़ लापरवाही नहीं हो सकती, यह सुनियोजित ढंग से की गई हेराफेरी थी। आरव के भीतर डर और गुस्सा दोनों उमड़ने लगे। उसने कल्पना की कि शायद ऑपरेशन थिएटर के भीतर रवि के शरीर से उसके गुर्दे या कोई और अंग निकाल लिए गए और फिर जल्दी-जल्दी रिपोर्ट बनाकर मौत को “हृदयाघात” का नाम दे दिया गया। यह शक उसके सीने में बोझ बनकर बैठ गया। बाहर नेहा अपने भाई के शव के पास बैठी सुबक रही थी, और आरव की आँखों में भीगते हुए सवाल थे—क्या वह चुप रहकर इस अपराध का हिस्सा बनेगा या हिम्मत करके सच उजागर करेगा? पर उसके मन में एक और आवाज़ उठी—“अगर तूने सच बोला तो शायद अगला शव तेरे अपने घर से उठेगा।” और इसी डर और दुविधा के बीच, उसकी असली परीक्षा की शुरुआत हो चुकी थी।
३
अगली सुबह अस्पताल की गलियों में चहल-पहल लौट आई थी। मरीजों के वार्डों में नर्सें चेकअप में व्यस्त थीं, स्ट्रेचर पर नए केस लाए जा रहे थे और हर ओर मशीनों की लगातार आवाज़ माहौल को भारी बना रही थी। लेकिन डॉ. आरव मेहता के भीतर अब एक अनकहा तूफ़ान चल रहा था। रात की घटनाओं और रवि की संदिग्ध मौत ने उसे चैन से बैठने नहीं दिया था। उसे महसूस हो रहा था कि यह महज़ एक या दो घटनाएँ नहीं, बल्कि कुछ बड़ा और गुप्त षड्यंत्र है। सवाल था—आख़िर वह किससे बात करे? किस पर भरोसा करे? कई वरिष्ठ डॉक्टर उसे गंभीरता से नहीं लेते, और सीधे शिकायत करने पर उसके करियर पर खतरा मंडरा सकता था। बहुत सोचने के बाद उसने तय किया कि वह अपने विभाग की सीनियर रेज़िडेंट डॉक्टर, डॉ. संजना कपूर से बात करेगा। संजना एक सख्त लेकिन न्यायप्रिय डॉक्टर मानी जाती थीं, जिनके निर्णय पर कई इंटर्न भरोसा करते थे। उनके सामने अपनी शंका रखना शायद सुरक्षित हो। लेकिन जब आरव उनके ऑफिस में पहुँचा, तो उसके मन में अजीब-सा डर था—क्या वह सही व्यक्ति को चुन रहा है या किसी जाल में खुद ही फँसने जा रहा है?
संजना अपने केबिन में बैठी रिपोर्ट्स देख रही थीं, उनकी आँखों पर हल्की थकान झलक रही थी। जब आरव ने धीरे-धीरे पूरी बात सुनाई—रवि की रिपोर्ट में विसंगतियाँ, शरीर पर असामान्य निशान और पिछले केस की तरह गड़बड़ी—तो कुछ क्षणों तक संजना चुप रहीं। उनके चेहरे पर एक कठोरता उभर आई, लेकिन उनकी आँखों में क्षणभर के लिए एक झिझक और डर भी चमका। उन्होंने फाइल बंद की और धीमे स्वर में कहा, “आरव, जितना देखा है, वही तक रहो। ज्यादा सवाल मत पूछो। यहाँ ऐसी बातें हवा में करना भी खतरनाक है।” उनकी आवाज़ में चेतावनी थी, लेकिन कहीं गहराई में एक दबा हुआ दर्द भी। आरव ने प्रतिवाद करना चाहा—“लेकिन मैम, ये गलत है, किसी की जान ली गई है, ये अपराध है…”—पर संजना ने उसे बीच में ही रोक दिया। “तुम नए हो, समझते नहीं। इस अस्पताल में सिर्फ़ मरीजों की ज़िंदगी ही दांव पर नहीं होती, यहाँ काम करने वालों की ज़िंदगी भी सस्ती है। जो सच जानते हैं, वे या तो नौकरी छोड़ देते हैं या हमेशा के लिए खामोश कर दिए जाते हैं।” उनके लहजे ने आरव को भीतर तक हिला दिया। यह पहली बार था जब उसने महसूस किया कि उसका शक अकेला नहीं है, बल्कि कोई और भी इस सच्चाई की भनक रखता है।
आरव के मन में द्वंद्व और बढ़ गया। एक ओर उसका पेशेवर धर्म और मरीजों के प्रति ज़िम्मेदारी थी, दूसरी ओर यह डर कि कहीं वह भी किसी खतरनाक जाल में न फँस जाए। संजना का चेहरा कठोर दिखाई दे रहा था, लेकिन उनकी आँखों की बेचैनी यह साफ़ बता रही थी कि वह बहुत कुछ जानती हैं, पर बोल नहीं सकतीं। जाते-जाते उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, “तुम्हें सलाह है कि चुपचाप अपनी इंटर्नशिप पूरी करो, करियर पर ध्यान दो। यहाँ के मामलों में टाँग अड़ाने का मतलब है अपनी कब्र खुद खोदना।” यह वाक्य आरव के कानों में हथौड़े की तरह गूंजता रहा। बाहर निकलते हुए उसे लगा कि अस्पताल की सफेद दीवारें भी अब उसे किसी साजिश की तरह घेर रही हैं। पर उसी क्षण उसके भीतर एक और आवाज़ उठी—“अगर सब डरकर चुप रहेंगे, तो नेहा जैसे कितने भाई-बहन अपने अपनों को खोते रहेंगे?” इस सवाल ने उसके दिल को बोझिल कर दिया। वह जान गया कि अब उसके लिए पीछे हटना आसान नहीं होगा। चेतावनी मिल चुकी थी, पर यह चेतावनी ही उसके लिए रास्ता भी खोल रही थी—कि सच है, और वह सच दबाया जा रहा है। आरव ने तय किया कि वह चाहे अकेला हो, लेकिन इस परछाईं के पीछे छुपे सच को सामने लाएगा।
४
रात का सन्नाटा हमेशा से ही अस्पताल की गलियों को और डरावना बना देता था। दिन में जहाँ चारों तरफ़ चहल-पहल होती थी, वहीं रात में वही जगहें अजीब सी रहस्यमय खामोशी ओढ़ लेती थीं। डॉ. आरव मेहता उस रात अपने भीतर उठ रही बेचैनी को दबा नहीं पाए। रिपोर्टों और अचानक हुई मौतों की विसंगतियाँ उन्हें लगातार परेशान कर रही थीं। उन्होंने तय किया कि वे मॉर्चरी जाकर खुद देखेंगे कि वहां क्या होता है। धीमे कदमों से वह उस दिशा में बढ़े। गलियारे में ट्यूब लाइट्स की टिमटिमाहट और एंटीसेप्टिक की गंध माहौल को और अजीब बना रही थी। मॉर्चरी का भारी दरवाजा आधा खुला हुआ था। आरव ने धीरे से अंदर झांका और उनकी साँसें थम गईं। दो लोग सफेद एप्रन पहने शवों पर काम कर रहे थे। लेकिन यह कोई सामान्य पोस्टमार्टम नहीं था—वे सावधानी से अंग निकाल रहे थे और उन्हें स्टील के कंटेनरों में रख रहे थे। आरव की धड़कन तेज हो गई। उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति फोन पर धीरे-धीरे किसी से बात कर रहा था। उसने नाम लिया—“रफ़ीक।” यह सुनते ही आरव के कान खड़े हो गए। वह समझ गए कि यह महज एक हादसा या गलती नहीं, बल्कि संगठित धंधा है।
आरव की नज़रें शवों पर टिक गईं। उनमें से कुछ वही मरीज थे जिनकी रिपोर्टों में उन्होंने पहले विसंगतियाँ देखी थीं। उस समय उनकी शंकाएँ सच साबित होती दिखीं। उनके शरीरों पर ताज़ा सिलाई के निशान थे, लेकिन मेडिकल रिपोर्ट में ऐसे किसी ऑपरेशन का ज़िक्र नहीं था। स्टाफ उन निशानों को बड़ी सफाई से ढकने की कोशिश कर रहा था। आरव ने सांस रोककर पूरा दृश्य देखा। उनकी उंगलियाँ पसीने से भीग गईं और माथे पर ठंडी बूंदें चमकने लगीं। वह जानते थे कि अगर किसी ने उन्हें देख लिया तो उनकी जान पर बन सकती है। उन्होंने खुद को दीवार की ओट में छिपा लिया और ध्यान से सुनने लगे। उनमें से एक व्यक्ति ने कहा—“रफ़ीक को माल कल सुबह तक पहुँचना चाहिए। क्लाइंट इंतज़ार नहीं करेगा।” ये शब्द सुनकर आरव की रीढ़ में ठंडी सिहरन दौड़ गई। यह खेल कितना गहरा है, इसका अंदाज़ा उन्हें पहली बार स्पष्ट रूप से हुआ। यह कोई छोटी-मोटी चोरी नहीं थी—यह नेटवर्क था, जिसके पीछे पैसा, सत्ता और प्रभावशाली लोग खड़े थे।
मॉर्चरी के बाहर निकलते हुए आरव के मन में संघर्ष चल रहा था। उनकी आत्मा चिल्ला रही थी कि यह सच बाहर आना चाहिए, लेकिन दिमाग चेतावनी दे रहा था कि यह रास्ता मौत की ओर भी ले जा सकता है। उन्होंने गहरी सांस ली और तय किया कि अब पीछे हटना संभव नहीं है। उनके सामने स्पष्ट था कि इंसानों को यहाँ सिर्फ मरीज नहीं, बल्कि “सफ़ेद सोना”—अंगों की तस्करी का सामान—बनाकर देखा जा रहा था। अस्पताल के भीतर ही मौत को बाजार में बदल दिया गया था। बाहर आकर उन्होंने खुद को संभाला, पर दिल की धड़कनें अब भी तेज़ थीं। रात की हवा ठंडी थी, मगर उनके भीतर का उबाल उन्हें चैन नहीं लेने दे रहा था। उन्होंने महसूस किया कि यह उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मोड़ है। वे जानते थे कि अब उनकी हर सांस, हर कदम खतरे से भरा होगा, मगर सच का सामना करने का साहस उन्होंने उसी रात जुटा लिया था। यह उनकी नींद छीन लेने वाला राज़ था, और अब यह बोझ अकेले उठाना आसान नहीं होगा। पर आरव ने मन ही मन कसम खाई कि चाहे कितनी भी बड़ी ताक़तें सामने हों, वह इस अंधेरे सच को उजागर करेंगे।
५
अस्पताल के प्रशासनिक दफ्तर का माहौल हमेशा ही रहस्यमय और दबावपूर्ण लगता था। वहाँ बैठते थे डॉ. विक्रम सिंह—इस पूरी इमारत के असली कर्ताधर्ता। उम्र पचास के करीब, चेहरे पर हमेशा एक सख्त मुस्कान और आँखों में ऐसा आत्मविश्वास जैसे कोई उसे चुनौती देने की हिम्मत न कर सके। मेडिकल डिग्री के साथ-साथ उनके पास राजनीतिक संबंधों का भी मजबूत जाल था। आरव ने जब पहली बार उन्हें देखा, तो महसूस किया कि यह व्यक्ति सिर्फ अस्पताल का एडमिनिस्ट्रेटर नहीं, बल्कि पर्दे के पीछे चल रहे खेल का संचालक है। पुलिस से लेकर मीडिया तक पर उनकी पकड़ थी। अगर किसी मरीज की मौत संदिग्ध हालात में होती भी थी, तो अगले ही दिन “कानूनी” दस्तावेज़ सामने आ जाते थे, जिसमें अंगदान की सहमति पत्र और हस्ताक्षर मौजूद होते थे। आरव को साफ दिखाई दे रहा था कि यह सब फर्जीवाड़ा है, लेकिन इस फर्जीवाड़े को इतनी सफाई से अंजाम दिया जाता था कि कानून भी उसे वैध मान ले। उनकी टेबल पर रखी फाइलें मानो सिर्फ रिकॉर्ड नहीं, बल्कि इंसानी जिंदगियों का सौदा करने वाले अनुबंध थे।
आरव का शक अब भय में बदल रहा था। उन्होंने मॉर्चरी में जो देखा था, वह यथार्थ था, पर अब डॉ. विक्रम सिंह की मौजूदगी ने उस यथार्थ को और गहरा कर दिया। उन्हें समझ आ गया कि यह कोई साधारण गिरोह नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित और संगठित तंत्र है, जिसे तोड़ना आसान नहीं। विक्रम सिंह हर संदिग्ध मौत के बाद अखबारों में विज्ञापन छपवाते—“अस्पताल ने अंगदान के माध्यम से नई जिंदगियाँ दीं।” कैमरों के सामने वे मुस्कुराकर कहते, “हमारा उद्देश्य सेवा है।” जबकि पर्दे के पीछे वही मौतें लाखों-करोड़ों में बिक रही थीं। उनके इशारों पर पुलिस केस दर्ज करने से बचती और मीडिया खबरों को दबा देती। आरव की आत्मा चीख रही थी कि वह चुप न बैठें, पर उनका मन बार-बार उन्हें आगाह कर रहा था—अगर वे गलत कदम उठाते हैं तो अगला नाम मौत के दस्तावेज़ों में उन्हीं का हो सकता है। उन्हें लग रहा था कि अदृश्य पर बेहद मजबूत जाल उनके चारों तरफ फैल चुका है, और हर रास्ता बंद है।
दिन बीतने के साथ आरव की बेचैनी बढ़ती गई। उन्होंने महसूस किया कि अस्पताल की दीवारें सिर्फ ईंट और पत्थर की नहीं थीं, बल्कि रहस्यों और अपराधों के बोझ से बनी हुई थीं। हर गली, हर कमरा, हर ऑफिस जैसे किसी न किसी धोखे से जुड़ा था। मरीजों और उनके परिवारों को लगता था कि वे इलाज के लिए सुरक्षित जगह पर आए हैं, पर असल में वे अनजाने में मौत और लालच के खेल का हिस्सा बन जाते थे। डॉ. विक्रम सिंह की ठंडी, योजनाबद्ध मुस्कान उन्हें और डराने लगी थी। वह व्यक्ति एक ऐसा खिलाड़ी था जिसने हर चाल पहले से सोच रखी थी। आरव को लग रहा था जैसे उनके चारों ओर अदृश्य शिकंजा कस रहा है, और अगर उन्होंने सांस भी जोर से ली तो उसकी आहट भी उन तक पहुँच जाएगी। लेकिन इसके बावजूद, भीतर कहीं एक जिद जन्म ले रही थी—कि चाहे यह जाल कितना भी अदृश्य और शक्तिशाली क्यों न हो, सच को दबाकर रखा नहीं जा सकता। आरव जानते थे कि अब उन्हें और सतर्क रहना होगा, क्योंकि वे उस दानव के सामने खड़े थे जो खुद को डॉक्टर नहीं, बल्कि इंसानों का व्यापारी बना चुका था।
६
नेहा का चेहरा हर मुलाकात में और ज़्यादा उदास होता जा रहा था। अपने भाई की अचानक हुई मौत और उसकी रिपोर्ट में छिपाए गए सच ने उसके भीतर एक बगावत जगा दी थी। वह बार-बार आरव को घेरकर कहती, “डॉक्टर साहब, आप ही बता सकते हैं कि मेरे भाई के साथ क्या हुआ। अगर आप चुप रहेंगे तो कोई नहीं बोलेगा।” उसकी आँखों में आँसू तो थे, लेकिन उनमें आग भी थी—एक ऐसी आग जो इंसाफ़ की माँग कर रही थी। आरव हर बार उसकी बात सुनकर भीतर से कांप उठते। वह सच जानते थे, पर उनके सामने दीवारें इतनी ऊँची थीं कि उन्हें पार करना लगभग नामुमकिन लग रहा था। उन्होंने नेहा से कहा, “नेहा, मैं तुम्हारी तकलीफ़ समझता हूँ, लेकिन यहाँ खेल बहुत बड़ा है। इसमें पुलिस और मीडिया तक शामिल हैं। अगर मैंने गलती से भी कुछ कहा, तो तुम्हें भी खतरा हो सकता है।” नेहा की आँखों से आँसू बह निकले, पर उसकी आवाज़ काँपी नहीं। उसने धीरे से कहा, “खतरा मुझे मंज़ूर है, लेकिन झूठ मंज़ूर नहीं।” उसके ये शब्द आरव के सीने में तीर की तरह चुभ गए। उन्हें लगा जैसे नेहा की हिम्मत उनके अपने डर को आइना दिखा रही हो।
इसी बीच, डॉ. संजना कपूर का व्यवहार भी धीरे-धीरे बदलने लगा था। जब आरव ने पहली बार उनसे अपने शक की बात की थी, तो उन्होंने उसे चुप रहने की सलाह दी थी। लेकिन अब शायद उनका भी धैर्य टूट रहा था। उन्होंने आरव को एक रात कॉरिडोर में रोका और धीमी आवाज़ में कहा, “तुम्हारे संदेह गलत नहीं हैं। मैंने भी कई बार ऐसी रिपोर्टें देखी हैं जो असलियत से मेल नहीं खातीं।” आरव चौक गए। उन्हें लगा कि आखिरकार कोई तो है जो उनका दर्द समझता है। संजना ने आगे कहा, “लेकिन सावधान रहना। यहाँ सिर्फ करियर दांव पर नहीं, जान भी दांव पर है।” उस पल आरव को पहली बार एहसास हुआ कि वह अकेले नहीं हैं। संजना ने उनकी आँखों में देखा और कहा, “मैं तुम्हारे साथ हूँ, लेकिन हमें सबूत चाहिए।” यह सुनकर आरव को उम्मीद की हल्की किरण दिखाई दी। नेहा की गुहार और संजना का समर्थन मिलकर उन्हें अंदर से मजबूत करने लगे।
लेकिन उम्मीद की ये लौ ज्यादा देर तक जल नहीं पाई। अगले ही हफ्ते अचानक खबर आई कि डॉ. संजना को इस केस से हटा दिया गया है। उन्हें दूसरे विभाग में शिफ्ट कर दिया गया और स्पष्ट निर्देश दिए गए कि वे इस मामले पर अब कोई दखल नहीं देंगी। आरव समझ गए कि यह दबाव सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि किसी बड़े नेटवर्क का हिस्सा है। संजना की आँखों में मजबूरी साफ झलक रही थी, पर उनमें यह भी था कि वह सच जान चुकी हैं। उन्होंने जाते-जाते आरव से कहा, “मत समझना कि मैं पीछे हट गई हूँ। बस मुझे अब खुलकर मदद करने का मौका नहीं दिया जाएगा।” आरव के दिल पर भारी बोझ आ गया। अब उनके पास नेहा की चीखती हुई उम्मीदें थीं और संजना की मौन प्रतिज्ञा। लेकिन साथ ही यह भी सच था कि वह अकेले खड़े थे—उनके खिलाफ अदृश्य ताकतें थीं, जिनका जाल हर दिन और कसता जा रहा था। उस रात आरव ने अस्पताल के अंधेरे गलियारे में खड़े होकर महसूस किया कि उनकी अपनी आवाज़ बहुत छोटी है, लेकिन अगर वे चुप रहे तो वह आवाज़ भी हमेशा के लिए खो जाएगी। यह अकेली आवाज़ अब उनकी आत्मा से निकल रही थी, और वे जानते थे कि चाहे रास्ता कितना भी कठिन हो, यह आवाज़ उन्हें लड़ने पर मजबूर करेगी।
७
आरव ने कई दिनों तक अपने डर से लड़ाई लड़ी और आखिरकार तय किया कि अब चुप रहने से कुछ हासिल नहीं होगा। अस्पताल के गलियारों में गूंजती नेहा की गुहार, मॉर्चरी में देखे गए दृश्य और डॉ. विक्रम सिंह की ठंडी मुस्कान—ये सब मिलकर उसे और चैन से बैठने नहीं दे रहे थे। उसने तय किया कि चाहे परिणाम कुछ भी हो, वह पुलिस में शिकायत करेगा। अगले ही दिन वह सारी हिम्मत जुटाकर पास के पुलिस स्टेशन पहुँचा। उसके सामने बैठी थीं इंस्पेक्टर सीमा राठौड़—कड़क आवाज़ और तेज नज़र वाली महिला, जिनकी ख्याति सख्ती और ईमानदारी के लिए जानी जाती थी। आरव ने कांपती आवाज़ में कहा, “मैडम, इस अस्पताल में अंगों की तस्करी हो रही है।” सीमा ने हल्की हँसी उड़ाते हुए जवाब दिया, “डॉक्टर साहब, आप जैसे लोग अकसर भावनाओं में आकर ऐसी बातें कर देते हैं। अस्पताल में मौतें होना कोई नई बात नहीं है।” उनकी ठंडी प्रतिक्रिया से आरव का दिल बैठ गया, लेकिन उसने हार नहीं मानी। उसने टेबल पर एक फाइल रखी, जिसमें नेहा के भाई की रिपोर्ट और कुछ अन्य संदिग्ध केसों की कॉपी थीं। सीमा ने जब दस्तावेज़ देखे, तो उनके माथे पर शिकन उभर आई।
सीमा ने धीरे-धीरे पन्ने पलटे। रिपोर्ट में लिखी जानकारी और वास्तविक मेडिकल स्थितियों के बीच का अंतर इतना स्पष्ट था कि एक साधारण व्यक्ति भी सवाल उठाता। उन्होंने आरव की तरफ गंभीर नज़रों से देखा और कहा, “ये सब आप कैसे लाए?” आरव ने सच बताते हुए कहा कि उसने खुद मॉर्चरी में छेड़छाड़ होते हुए देखा है और नाम भी सुना है—रफ़ीक। सीमा की आँखें थोड़ी सिकुड़ गईं। वह जानती थीं कि रफ़ीक नाम का आदमी पहले भी कई छोटे-मोटे अपराधों में पकड़ा गया है, लेकिन कभी सबूत न होने के कारण छूटा। अब अगर उसका नाम इस धंधे में शामिल है, तो मामला छोटा नहीं है। सीमा ने कुर्सी से पीछे झुकते हुए गहरी सांस ली। “डॉक्टर साहब, आप समझते हैं कि आप किस खेल में फँस रहे हैं? यहाँ सिर्फ एक-दो लोग शामिल नहीं हैं। इसके पीछे बड़ी ताक़तें हैं। अगर आप सच कह रहे हैं, तो आपको अपनी जान की हिफाज़त करनी होगी।” उनकी आवाज़ अब पहले जैसी उपेक्षापूर्ण नहीं थी, बल्कि गंभीर और सतर्क हो चुकी थी।
आरव को पहली बार लगा कि उसकी बात सुनी जा रही है। लेकिन साथ ही उसे यह भी समझ आया कि यह रास्ता आसान नहीं होगा। सीमा ने फाइल बंद करके कहा, “ठीक है, मैं इस पर ध्यान दूँगी। लेकिन आपसे एक सवाल है—क्या आप इस लड़ाई को आखिरी तक लड़ने के लिए तैयार हैं? क्योंकि एक बार मैंने कदम बढ़ा दिया तो पीछे हटना मुमकिन नहीं होगा।” आरव ने धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में कहा, “मैडम, अब मैं चुप नहीं रह सकता। अगर मैंने कुछ नहीं किया तो और लोग मारे जाएँगे।” सीमा की आँखों में हल्की चमक आई। उन्होंने कहा, “ठीक है, अभी यह मामला हमारे बीच रहेगा। आप जो भी देखें या पाएँ, मुझे तुरंत बताइएगा। लेकिन याद रखिए, जब तक ठोस सबूत न मिले, किसी पर हाथ डालना नामुमकिन है।” आरव के भीतर हल्की सी राहत आई। उसे लगा कि उसकी अकेली आवाज़ अब किसी मजबूत कान तक पहुँची है। मगर उसके मन में यह डर भी था कि अगर अस्पताल प्रशासन को भनक लग गई, तो न सिर्फ उसका करियर बल्कि उसकी जान भी खतरे में पड़ सकती है। पुलिस थाने से निकलते वक्त उसने महसूस किया कि यह पहली भिड़ंत थी—सच और झूठ के बीच, और अब असली जंग की शुरुआत हो चुकी थी।
८
दिन-ब-दिन हालात और पेचीदा होते जा रहे थे। आरव अब पुलिस इंस्पेक्टर सीमा राठौड़ के साथ लगातार संपर्क में था। दोनों ने तय किया कि किसी भी कार्रवाई से पहले ठोस सबूत जुटाना बेहद ज़रूरी है। आरव ने अस्पताल की फाइलों, मरीजों की रिपोर्टों और ऑपरेशन थिएटर के रिकॉर्ड्स की बारीकी से जांच शुरू की। वहीं सीमा अपने स्तर पर उन संदिग्ध मौतों के परिवारों तक पहुँचीं और उनसे बयान लेने लगीं। धीरे-धीरे तस्वीर साफ़ होने लगी—हर केस में एक जैसी विसंगतियाँ थीं, और हर रिपोर्ट के पीछे नकली सहमति पत्र मौजूद थे। आरव को एक रात मॉर्चरी से बाहर आते हुए एक संदिग्ध आदमी दिखा, जिसके हाथ में काला बैग था। उसने तुरंत सीमा को खबर दी। पुलिस ने जाल बिछाया और आखिरकार उस शख्स को रंगे हाथ पकड़ लिया। वही था—रफ़ीक। उसकी गिरफ्तारी के साथ ही आरव को लगा कि अब यह अदृश्य जाल धीरे-धीरे टूटने लगा है।
पुलिस पूछताछ में रफ़ीक ने शुरुआत में चुप्पी साधे रखी। लेकिन सीमा की कड़ी पूछताछ और सामने रखे गए सबूतों के दबाव में वह टूट गया। उसने कबूल किया कि वह केवल डीलर है, असली खेल अस्पताल के अंदर चलता है। उसने बताया कि किस तरह दलाल गरीब परिवारों से अंगदान के झूठे कागज़ों पर हस्ताक्षर करवाते हैं, और फिर उन अंगों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तस्करी होती है। रफ़ीक ने कुछ बड़े नाम भी लिए, जिनमें अस्पताल प्रशासन और बाहर के लोग शामिल थे। उसकी बातें सुनकर आरव का खून खौल उठा—वह समझ गया कि नेहा का भाई और ऐसे अनगिनत मरीज सिर्फ इस काले व्यापार की बलि चढ़े थे। सीमा ने उसकी पूरी गवाही लिखवाई और अगले दिन कोर्ट में पेश करने की तैयारी शुरू कर दी। पहली बार लग रहा था कि अब इस नेटवर्क का चेहरा बेनकाब होगा, और मासूमों की जान बचाई जा सकेगी। आरव के दिल में उम्मीद जगी, मानो लंबे अंधेरे के बाद एक किरण दिख रही हो।
लेकिन किस्मत इतनी आसान नहीं थी। जिस रात रफ़ीक को सुरक्षित सेल में रखा गया था, अगली सुबह खबर आई कि उसकी मौत हो चुकी है। रिपोर्ट में कहा गया—“हार्ट अटैक।” पर सीमा और आरव दोनों जानते थे कि यह कोई सामान्य मौत नहीं थी। उसके शरीर पर ऐसे निशान थे जो साफ़ इशारा कर रहे थे कि यह एक सोची-समझी हत्या है, ताकि वह सच बाहर न ला सके। आरव की रूह कांप गई। उन्हें लगा कि यह नेटवर्क अपनी रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। सीमा का चेहरा सख्त हो गया। उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, “इसका मतलब है हम सही रास्ते पर हैं, और यही वजह है कि उन्होंने उसे खत्म कर दिया।” आरव ने उस पल महसूस किया कि उनका संघर्ष और कठिन हो चुका है। एक गवाह के मरने से केस कमजोर हो गया, लेकिन सच को दबाने की कोशिश ने उन्हें और पक्का कर दिया। अब यह जाल टूटने नहीं, बल्कि खुलकर सामने आने की कगार पर था। लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी जान की बाज़ी लगानी होगी।
९
रफ़ीक की मौत के बाद से ही माहौल और डरावना हो गया था। आरव को साफ़ महसूस होने लगा था कि अब वह सीधा निशाने पर है। एक रात अस्पताल से घर लौटते समय उसकी कार का पीछा करने लगी एक काली एसयूवी। पहले तो उसने सोचा कि यह संयोग है, लेकिन जैसे-जैसे सड़क सुनसान होती गई, वह गाड़ी और नज़दीक आने लगी। अचानक एक मोड़ पर एसयूवी ने उसकी कार को टक्कर मारी। आरव का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा, उसने पूरी ताक़त से गाड़ी संभाली और किसी तरह पुलिस स्टेशन की तरफ़ मोड़ दी। पीछा करने वाली गाड़ी अचानक अंधेरे में गायब हो गई। जब वह रुका तो हाथ काँप रहे थे और माथे पर पसीना था। उसी रात उसके मोबाइल पर अनजान नंबर से संदेश आया—“सच बाहर लाने की कोशिश की तो अगली बार गाड़ी नहीं बचेगी, सिर्फ़ तुम।” यह पढ़कर उसकी रूह कांप गई। यह कोई सामान्य धमकी नहीं थी, बल्कि एक सीधा ऐलान था कि मौत अब उसके साए की तरह पीछे-पीछे चल रही है।
खतरे का यह दायरा सिर्फ़ आरव तक सीमित नहीं रहा। डॉ. संजना कपूर भी शक के घेरे में आ गईं। उन्हें अचानक नोटिस दिया गया कि उन पर “प्रोफेशनल नेग्लिजेंस” का केस दर्ज हो सकता है। यह अस्पताल प्रशासन का तरीका था उन्हें डराने और चुप कराने का। एक दिन तो उनकी गाड़ी के ब्रेक भी फेल कर दिए गए, लेकिन वह संयोग से बच गईं। आरव ने जब यह सुना तो उनका खून खौल उठा। वह जानता था कि संजना ने सिर्फ़ उसका साथ देने की कोशिश की थी और अब वह भी निशाने पर आ चुकी थीं। दोनों को अब हर कदम फूँक-फूँक कर रखना पड़ रहा था। लेकिन असली झटका तब लगा जब नेहा, जो लगातार सच की मांग कर रही थी, का पीछा अजनबी लोग करने लगे। वह अक्सर नोटिस करती कि बाज़ार में, अस्पताल के बाहर, यहाँ तक कि उसके घर के पास भी कोई न कोई उस पर नज़र रख रहा है। एक बार तो उसने देखा कि एक मोटरसाइकिल सवार उसके पीछे-पीछे चल रहा है। वह डर के मारे सीधे आरव के पास पहुँची और बोली, “डॉक्टर साहब, अगर मैं भी मारी गई तो मेरे भाई की तरह मेरा सच भी कहीं दब जाएगा।” उसकी आवाज़ में डर और हताशा साफ झलक रही थी।
पूरा माहौल अब भय से घिर चुका था। जहाँ भी आरव जाता, उसे लगता कोई न कोई उसके पीछे है। फोन पर अजीब आवाज़ें आतीं, घर के दरवाज़े पर अजनबी लोगों की छाया दिखती। उसे महसूस हुआ कि उसकी हर हरकत पर नज़र रखी जा रही है। नेहा की आँखों में डर स्थायी हो गया था और संजना का चेहरा पहले से ज़्यादा थका और तनावग्रस्त दिखाई देता था। इंस्पेक्टर सीमा राठौड़ भी मान चुकी थीं कि यह नेटवर्क बेहद खतरनाक है और इसमें पुलिस के कुछ लोग भी शामिल हो सकते हैं, वरना रफ़ीक इतनी आसानी से “मारा” नहीं जाता। आरव ने महसूस किया कि यह मौत का साया सिर्फ़ चेतावनी नहीं, बल्कि धीरे-धीरे उनकी ज़िंदगियों को घेर रहा है। लेकिन जितना डर बढ़ रहा था, उतनी ही उनके भीतर लड़ने की ज़िद गहराती जा रही थी। उन्हें समझ आ गया था कि अब यह मामला सिर्फ़ कानून और अपराध का नहीं रहा, बल्कि यह उनकी अस्तित्व की लड़ाई बन चुका है। मौत का साया हर तरफ़ मंडरा रहा था, लेकिन उस अंधेरे में ही कहीं सच की चिंगारी भी छिपी थी, जिसे बुझने नहीं देना था।
१०
सीमा राठौड़ अब तक की जांच से एक निर्णायक कदम उठाने का मन बना चुकी थीं। कई दिनों से छुप-छुपकर जुटाए गए सबूतों, गवाहियों और रिपोर्टों के आधार पर उन्होंने अचानक छापेमारी का आदेश दिया। जिस अस्पताल और उससे जुड़े गोदामों में लंबे समय से अवैध गतिविधियों की खबर मिल रही थी, वहां पुलिस दस्तक देती है। रात के अंधेरे में जब पुलिस का काफिला सायरन के बिना आगे बढ़ता है, तो हवा में एक अजीब तनाव घुला होता है। दरवाजे तोड़े जाते हैं, कंप्यूटर और फाइलें जब्त होती हैं, और अंदर का मंजर किसी सिहरन से कम नहीं होता—ऑपरेशन थियेटर में आधे-अधूरे पड़े इंस्ट्रूमेंट, खून से सने कपड़े, और ठंडी अलमारियों में रखे शरीर के अंग। यह सब देखकर वहां मौजूद पुलिसकर्मी भी कुछ क्षणों के लिए ठिठक जाते हैं। आरव और संजना, जो सीमा के साथ इस पूरी कार्रवाई में मौजूद थे, स्तब्ध रह जाते हैं। उनके सामने वो भयावह सच खुल चुका था, जिसे वे केवल अंधेरे संकेतों और अंदाजों में अब तक महसूस कर रहे थे। लेकिन इन सबूतों के मिलने का मतलब केवल एक जीत नहीं था, बल्कि यह भी कि वे एक ऐसे राक्षसी जाल से टकरा चुके थे, जो न जाने कितनी परतों और कितने रसूखदार लोगों से बना था।
छापेमारी में जो कुछ सामने आया, उसने एक बार फिर साबित कर दिया कि यह धंधा किसी एक-दो दलालों या डॉक्टरों का काम नहीं था। इसमें कई अस्पताल, ब्लड बैंक और बाहर तक फैले लोग शामिल थे। पुलिस के हाथों ऐसे दस्तावेज़ लगते हैं जिनमें गुप्त खातों, फर्जी पहचान और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंगों की सप्लाई की जानकारी दर्ज थी। कुछ नाम सामने आते हैं जो देखने में सम्मानित समाजसेवक या डॉक्टर हैं, लेकिन असल में इस नेटवर्क के धुरी। संजना की आंखों में आंसू आ जाते हैं—उसे याद आता है कि कितनी मासूम जिंदगियां इस लालच की बलि चढ़ी होंगी। नेहा, जो अब तक डर के साए में जी रही थी, भी देखती है कि उसकी शंकाएं सच निकलीं। लेकिन यह भी सच था कि इस खुलासे की कीमत भी उन्हें भारी चुकानी पड़ी। रफ़ीक की मौत के बाद अब और भी लोग खतरे में आ गए थे। सीमा को भीतर से पता था कि ऐसे नेटवर्क का पूरी तरह सफाया एक ही छापे से संभव नहीं है, और न ही ये रसूखदार लोग इतनी आसानी से हार मानेंगे। लेकिन आरव और संजना के साहस ने उन्हें मजबूती दी। दोनों जानते थे कि अब पीछे हटने का कोई सवाल ही नहीं है। यही मौका था जब सारा सच सामने आ सकता था, भले ही इसके लिए उन्हें अपनी जिंदगी दांव पर लगानी पड़े।
जैसे-जैसे जांच गहराई तक जाती है, वैसे-वैसे बलिदान और धोखे की कहानियां भी खुलने लगती हैं। कुछ लोग जो भरोसेमंद लगे, वे दरअसल इस गंदे धंधे के हिस्सेदार निकलते हैं। वहीं, कुछ साधारण लोग अपनी जान की बाजी लगाकर पुलिस की मदद करते हैं। एक सिपाही, जिसने गुप्त रूप से सबूत इकट्ठा किए थे, छापे के बाद रहस्यमय तरीके से गायब हो जाता है—यह साफ था कि इस नेटवर्क का हाथ बहुत लंबा है। सीमा समझ जाती हैं कि अभी लड़ाई खत्म नहीं हुई है, बल्कि अब असली खेल शुरू हुआ है। “सफ़ेद सोना”—यानी इंसानी अंगों का काला कारोबार—भले ही इस छापे के बाद उजागर हो गया हो, लेकिन मन में सवाल गूंजता रह जाता है—क्या यह सचमुच खत्म हुआ, या फिर सिर्फ एक हिस्सा काटा गया है और बाकी जाल अब भी कहीं जिंदा है? आरव और संजना अस्पताल की वीरान गलियों में खड़े उस रात एक-दूसरे की आंखों में देखते हैं। वे जानते हैं कि उनकी जिंदगियां अब पहले जैसी नहीं रहेंगी। यह जीत भले ही दर्द और हानि से भरी हो, लेकिन यह आने वाली लड़ाइयों के लिए एक चिंगारी भी है—जिससे उम्मीद जिंदा रखी जा सकती है कि शायद एक दिन इंसानियत इस काले धंधे पर सचमुच जीत हासिल करेगी।
समाप्त