अनुराग मिश्रा
हवेली की घंटी
पुराना दिल्ली दरवाज़ा रात के बादलों में घुलकर एक फीकी आकृति बन गया था, और उसके पीछे से चलती संकरी गलियाँ अपने-अपने नाम भूलकर बस एक ही लय में सांस ले रही थीं—धीमी, टुकड़ों में टूटी, जैसे बहुत पुरानी घड़ी की टिक-टिक; उन्हीं गलियों में उस रात मुकुल चला आ रहा था, बैग में छोटा रिकॉर्डर, जैकेट की जेब में नोटबुक, और फ़ोन की स्क्रीन पर चमकती एक अजीब-सी सूचना: “12:17. सुनोगे तो समझोगे.” यह मैसेज उसे एक अनजान हैंडल से रोज़ाना पिछले तीन दिनों से मिल रहा था—घंटी की इमोजी के साथ—और आज उसने तय कर लिया था कि चाहे जो भी हो, वह ठीक 12:17 पर उस हवेली के बाहर खड़ा होगा, जिसके बारे में कहा जाता था कि वह चालीस साल से बंद है, मगर रात होते ही भीतर किसी अनदेखे मंदिर जैसी घंटी बजती है। वह चौराहे से दाईं तरफ़ मुड़ा तो पथरीली ज़मीन पर चाय की पत्तियों की जली हुई गंध थी, हवा में धुएँ के पतले धागे, और आसपास की दीवारों पर उखड़ा हुआ चूना, जिसके नीचे से उम्र का काला रंग झाँक रहा था; एक स्ट्रीट लाइट, जो शायद पिछले ज़माने की याद में ही जली रहती थी, पीलेपन में धड़कती हुई दूर से गली के मुहाने को ऐसा दिखाती थी जैसे कोई धड़कता दिल, और उसके ठीक पार, तंग मोड़ के पीछे, उस हवेली का कंगूरेदार माथा दीखता था, जिसे लोग “रज़ा-हुस्न हवेली” कहते थे—किसी पुराने नवाब का छोड़ा हुआ नाम, जो अब महज़ डर का छद्म बन चुका था। मुकुल एक लोकल न्यूज़ पोर्टल में रिपोर्टर था—उम्र मुश्किल से सत्ताईस—और उसका बीट अक्सर शहर की अनजानी कहानियाँ होती थीं: भूत नहीं, लेकिन ऐसे राज़ जो सच होने पर भी झूठ लगें; उसे लगा कि यह घंटी का मामला या तो किसी का घोंटाला है या किसी बदइंतज़ामी की परत, जिसे खोलना चाहिए; रात के सन्नाटे में उसके जूतों की आहट उसे ही बेइज़्ज़त कर रही थी, इसलिए वह धीरे-धीरे कदम रखता हुआ पहुँचा उस मोड़ तक, जहाँ गली एकाएक पतली हो जाती थी, और दोनों तरफ़ की दीवारें इतनी पास आ जातीं कि हवा को भी कंधे सिकुड़ाकर गुजरना पड़े। एक बंद दुकानों की कतार थी—टीन के शटरों पर ताला, ताले पर जंग, और जंग पर उँगलियों के निशान जैसे किसी ने हाल में उन्हें कुरेदा हो; एक दुकान के आगे चाय का ठेला आधा ढहा हुआ पड़ा था; वहीं, बगल में, दीवार से टिकाकर रखी एक टूटी हुई लकड़ी—जैसे किसी ने दरवाज़ा खटखटाने की औकात जुटाई हो और फिर आख़िरी वक़्त पर डरकर भाग गया हो। उसने जेब से फ़ोन निकाला तो 12:11 झपक कर सामने आया; छह मिनट बचे थे; उसने रिकॉर्डर ऑन किया और धीरे से बोला, “लोकेशन—खानकापुरा गली, रज़ा-हुस्न हवेली का बाहरी मोर्चा, तारीख़—मंगलवार, समय—रात 12:11; लोककथा के मुताबिक़ 12:17 पर घंटी बजती है; स्रोत—अनाम संदेश; उद्देश्य—ध्वनि के स्रोत की पहचान, प्रवेश-मार्ग की मैपिंग, आसपास के प्रत्यक्षदर्शियों से बयान।” ‘प्रत्यक्षदर्शी’ शब्द बोलते ही उसे अपनी ही आवाज़ अजीब लगी—इस वक़्त कोई जागा नहीं होगा, और अगर जागा भी मिला तो शायद वह जागने की ग़लती स्वीकार नहीं करेगा। वह आगे बढ़ा तो उसकी साँस में दानेदार धूल घुस आई; एक मोड़ और था, और मोड़ के बाद अचानक गली का फर्श नीचे धँसता-सा लगा, जैसे किसी ने ज़मीन को अंदर से खा डाला हो; हवेली का बड़ा दरवाज़ा अब साफ़ दिख रहा था—सागौन की पुरानी लकड़ी, जिस पर लोहे का चौड़ा क्लैम्प, बीच में गोला, गोले के ऊपर जंग खाई कील, और दोनों ओर काले-भूरे रंग की उभरी कारीगरी, जो किसी समय रोशनी में चमकती होगी, अब अँधेरे में दबी हुई थी; दरवाज़े के दायीं तरफ़ पत्थर का एक चबूतरा था, जिस पर बैठकर लोग शायद दिन में ताश खेलते रहे होंगे; उस चबूतरे पर बिखरे पड़े थे काँच के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े—साफ़, पारदर्शी, जैसे किसी ने धैर्य से एक शीशी तोड़कर उसके रेशों को चुन-चुनकर यहाँ लगाया हो; मुकुल ने टॉर्च की पतली किरण उन टुकड़ों पर डाली—वे रोशनी को तराशते हुए हल्की-सी नीली चमक लौटाते; उसे लगा जैसे किसी ने यहाँ आग नहीं, रोशनी तोड़ी हो। 12:14—उसने घड़ी देखी; तीन मिनट बचे थे; वह दरवाज़े के ठीक सामने खड़ा हो गया; अजीब तरह की ख़ामोशी थी—कुत्ते भी जैसे इस हिस्से में भौंकना भूल जाते हों; दूर कहीं किसी ने खाँसकर अपनी जाग का सबूत दिया, फिर फिर से सन्नाटा; हवेली की छत से लटकता पेड़ का सूखा डंडल हवा के बिना हिल रहा था, जैसे किसी के अंदर की बेचैनी बाहर आकर टहल रही हो; उसने दरवाज़े पर कान लगाया—अंदर से कोई गतिविधि नहीं, न किसी की पदचाप, न कपड़ों की खरखराहट, न साँस की आवाज़; सिर्फ़ दीवारों के भीतर कैद वर्षों की नमी, जो लकड़ी की रगों में फँसी किसी बूढ़ी याद की तरह धीरे-धीरे सूख रही थी। उसे याद आया कि शाम को, जब वह लोकेशन क्रॉस-चेक करने आया था, कोने वाली गली के मुहाने पर बैठे एक बूढ़े ने उसे बिना देखे कहा था—“बाबू, घुसना मत; जो अंदर जाते हैं, लौटकर जगह भूल जाते हैं; घर बहुत पास होता है, पर मिलने को उम्र लग जाती है”—और फिर वह बूढ़ा हँसा नहीं, खाँसा भी नहीं, बस चुप हो गया; तब यह वाक्य उसे सस्ती डरावनी लाइन लगा था, अब, रात की नमी में भीगकर, वह वाक्य कपड़ों से चिपकता जा रहा था। उसने नोटबुक में एक छोटा नक्शा बनाया—गली का मुहाना, मोड़, चबूतरा, दरवाज़ा, और दरवाज़े से पाँच कदम बाएँ एक संकरी दरार, जो दीवार और दीवार के बीच ऐसे फँसी थी जैसे किसी किताब में भूला हुआ पत्र; उसने तय किया कि अगर घंटी सच में बजेगी, तो ध्वनि की दिशा निर्धारण करने के लिए वह इसी दरार और दरवाज़े के बीच बारी-बारी खड़ा होगा; 12:16—उसने रिकॉर्डर को दरवाज़े के लोहे के क्लैम्प पर रखकर पकड़ लिया, ताकि कंपन आने पर वह महसूस कर सके; उँगलियों ने ठंड से सिकुड़कर धातु को कस लिया; एक बिला-ध्वनि तनाव हवा में फैल गया—जैसे कोई अदृश्य रबर धीरे-धीरे तानी जा रही हो। और फिर 12:17 ने अपने आप को प्रकट किया—न किसी अलार्म की तरह, न किसी शोर की तरह, बल्कि एक बेहद साफ़, भारी, गुंजायमान ध्वनि की तरह जो पहली बार में कमर के नीचे की हड्डियों से उठती हुई कानों तक पहुँची; यह मंदिर की घंटी नहीं थी, मस्जिद की अज़ान नहीं थी, चर्च का घंटाघर भी नहीं—यह किसी ऐसी धातु की थी जो सदी भर बंद रही हो और फिर अचानक अपनी स्मृति से जागकर एक बार, बिल्कुल एक बार, खुद को पहचानना चाहती हो; ध्वनि की दिशा अनिर्णीत रही—कभी लगा बायीं दरार से आई, कभी लगा दरवाज़े के भीतर से, कभी लगा ऊपर छत से; उसकी उँगलियाँ क्लैम्प पर जमी थीं—वह कंपन की प्रतीक्षा कर रहा था—मगर धातु बिल्कुल स्थिर रही, जैसे ध्वनि उसके स्पर्श की पहुँच से अलग किसी अदृश्य तार पर बज रही हो। घंटी एक ही पल में ख़त्म भी नहीं हुई—वह हल्की-हल्की लहरों में टूटती गई, और हर लहर के साथ गली की हवा एक सांस भरती और छोड़ती, मानो किसी ने लंबे समय से बंद पड़े कमरे की खिड़की खोल दी हो; ध्वनि के जाते ही सन्नाटा लौटा, मगर वही नहीं था—उसमें अब बिल्कुल अलग ढंग की गूँज फँसी थी—जैसे कोई शब्द कहा गया हो और गली उसे बार-बार अपनी दीवारों से टकराकर अनसुना करने की कोशिश कर रही हो। मुकुल ने रिकॉर्डर को जाँचा—मीटर ने उतार-चढ़ाव दर्ज किया था; उसने फौरन फ़ोन की घड़ी का स्क्रीनशॉट लिया—12:17:06—और अपने नोट्स में लिखा: “प्राथमिक निष्कर्ष—ध्वनि स्रोत अनिर्धारित; प्रतिध्वनि असामान्य; कंपन अनुपस्थित; ध्वनि का प्रोफ़ाइल भारी, परिधि-गोल, धात्विक; हवा स्थिर रहने पर भी लहरें महसूस।” उसने टॉर्च की रोशनी ऊपर दौड़ाई—कंगूरों के बीच काली छायाएँ मंडराईं; खिड़की की सलाखों में जालों के महीन पैटर्न चमके; उसे लगा कि एक पल को किसी ने पर्दे के भीतर से देख लिया; रोशनी हटाते ही देखने का भ्रम भी हटा, मगर उसकी रीढ़ पर धीमी ठंडक टिक गई। उसने दरवाज़े पर दस्तक देने का सोचा, फिर रोका; उसने तय किया—दूसरी बार घंटी बजे, उसके ठीक पहले वह दरार के भीतर टॉर्च डालेगा; पर क्या घंटी दोबारा भी बजेगी? लोककथा कहती थी—एक रात में एक ही बार, वही समय, वही मिनट; अगर ऐसा है, तो आज रात उसके पास बस यह एक मौका था किसी सुराग के लिए; उसने दरवाज़े के नीचे की पतली जगह में झुककर झाँकना चाहा—अंदर घुप्प अँधेरा; उसने टॉर्च को चालू कर उस चीरे में रोशनी धकेली—धूल के कण झिलमिलाए, जैसे हवा में किसी ने बारीक़ काँच घोल दिया हो; और तभी, बिना किसी चेतावनी के, भीतर से बहुत धीरे, बहुत कम आवाज़ में, किसी धातु पर उँगली फिराने जैसी “ट्न्न” की ध्वनि आई, जो घंटी नहीं थी, पर उसकी छोटी-सी परछाईं थी; वह उचककर सीधा हुआ; घड़ी 12:18 दिखा रही थी; उसे यक़ीन हो गया—घंटी के मूल के अलावा अंदर कोई और ध्वनि-कारक सक्रिय है—या कोई है जो सक्रिय कर रहा है। ठीक उसी वक़्त उसकी जेब में रखा फ़ोन बजा—वही अनजान हैंडल—सिर्फ़ एक लाइन: “सच घंटी में नहीं, गली में है.” उसने गली की ओर देखा; पत्थर में जड़ी दरकनों ने जैसे अपना नक्शा बदल दिया हो; उसे अचानक लगा कि जिस मोड़ से वह आया था, वह मोड़ अब वहीं, उसी दिशा में नहीं है; जैसे पीछे की दीवार हल्की-सी सरक गई हो, या सामने की परछाइयाँ बढ़कर रास्तों के नाम खा गई हों; यह भ्रम था, वह जानता था—या शायद वह यही मानना चाहता था—क्योंकि जो कुछ भी था, वह उसके नोट्स के दायरे में नहीं आता था। उसने गहरी साँस ली, रिकॉर्डर बंद किया, और जेब में रख लिया; आज की रात का काम बस इतना नहीं था, पर वह जानता था कि पहली बार में जो दिखता है, वह अक्सर वह नहीं होता जो होता है; वह दो कदम पीछे हटकर पूरी हवेली को एक फ़्रेम में देखने की कोशिश करने लगा—छत पर टेढ़ा खंभा, बाएँ की तरफ़ टूटी कंगनी, और दायीं तरफ़ दीवार में धँसा एक छोटा-सा गोल निशान, जिसे उसने पहले नहीं देखा था; जैसे किसी ने पत्थर में कमल की अधखिली रेखा उकेरी हो; उसने उँगलियों से उस निशान को छुआ—ठंडा, पर सूखा; और उसी पल उसके पीछे कहीं बहुत दूर से किसी के कदमों की बेहद धीमी, मगर एकसार आहट आई—टिक… टिक… टिक… जैसे कोई इंसान नहीं, कोई समय चल रहा हो; उसने मुड़कर टॉर्च उठाई—गली खाली; आहट थम गई; केवल दीवारों पर बचे शब्द—“सच गली में है”—जो अब उसके अंदर भी किसी दीवार पर उकेर दिए गए थे। उसने आख़िरी बार दरवाज़े की ओर देखा और मन-ही-मन तय किया कि अगली रात वह यहाँ अकेला नहीं आएगा; पर जैसे ही वह मुड़ा, उसकी नज़र ज़मीन पर एक छोटे-से काग़ज़ के टुकड़े पर पड़ी—फटी हुई रसीद, जिस पर धुंधला-सा छपा था: “रज़ा-हुस्न हवेली—न. 14—चाबी जमा”—और नीचे तारीख़ ऐसी, जिसे देखकर उसके दिमाग़ में ठंडी सिलवट दौड़ गई—ठीक बीस साल पहले की इसी रात की; वह टुकड़ा उसने उठा लिया; गली ने फिर साँस भरी, और दूर किसी बंद घड़ी ने एक बार—सिर्फ़ एक बार—धीरे से खुद को बजाया।
बंद दरवाज़ों के पीछे
सुबह की धूप लाल ईंटों पर उतर रही थी, मगर रात की गंध अभी तक मुकुल की नाक में फँसी थी—जैसे धूल और घंटी की आवाज़ ने मिलकर उसके भीतर कोई छुपा दरवाज़ा खोल दिया हो। उसने पिछली रात का रिकॉर्डर बार-बार चलाया; हर बार वही भारी गूँज और उसके बाद का हल्का “ट्न्न”, जैसे कोई और परछाईं, कोई दूसरी परत। वह रिपोर्टर था, और रिपोर्टरों का धर्म है कि संदेह से ही सत्य का आरंभ हो। उसने निश्चय किया—आज वह हवेली का इतिहास खंगालेगा, क्योंकि कोई भी जगह अचानक रहस्यमय नहीं होती; उसके अतीत में हमेशा कोई टूटा हुआ धागा होता है।
मुकुल पुरानी फाइलों के लिए शहर के अभिलेखागार गया। वहाँ पन्नों की बासी गंध, लकड़ी की दराज़ों में छुपे भूले हुए नाम, और पेंसिल से लिखे नोट्स उसकी आँखों में उतर रहे थे। “रज़ा-हुस्न हवेली, निर्माण 1884, मालिक—नवाब अब्दुल रज़ा। उल्लेखनीय: 1943 में पहली बार रिपोर्ट हुई गुमशुदगी—एक नौकरानी जिसका पता कभी नहीं चला।” इसके बाद हर बीसवें साल किसी का गायब होना दर्ज था—1963 में व्यापारी, 1983 में छात्र, 2003 में एक वकील। अब 2023 था, और गिनती फिर पूरी हो चुकी थी। वह फाइल हाथ में लिए देर तक खामोश रहा। तारीख़ का पैटर्न उसकी रगों में किसी सिहरन की तरह दौड़ गया—हर बीस साल। कल रात उसी दिन की सालगिरह थी।
शाम ढलते ही वह फिर उसी गली में लौटा। इस बार उसके बैग में रिकॉर्डर के साथ कैमरा और एक छोटी टॉर्च भी थी। रास्ते में दुकानदारों से पूछताछ की कोशिश की, मगर सबने चुप्पी साध ली। कोई कहता—“भाई, वहाँ का नाम मत लो”, कोई खाँसकर मुंह फेर लेता। डर आँखों में लिखा था, और चुप्पी दीवारों पर। उसे लगा मानो पूरी गली ही हवेली का हिस्सा है, और यहाँ के लोग उसकी निगरानी में बँधे हुए हैं।
दरवाज़े तक पहुँचकर उसने टॉर्च की रोशनी नीचे झुकाकर फेंकी। धूल के बीच कल रात गिरा वह काग़ज़ का टुकड़ा अब गायब था। जैसे गली ने उसे निगल लिया हो। उसने दरवाज़े पर हाथ रखा—लकड़ी ठंडी थी, पर कहीं-कहीं से नमी टपकती थी। उसने कैमरा ऑन किया और फ्लैश मारा। चमक के बीच दरवाज़े की कारीगरी साफ़ दिखाई दी—उखड़े हुए फूल-बेल, मगर उनके बीच में खिंचे अजीब चिह्न। ये साधारण नक्काशी नहीं थी। गोल घेरे, बीच से काटी गई लकीरें, और किनारों पर छोटे त्रिकोण। मुकुल ने महसूस किया कि ये प्रतीक किसी भाषा का हिस्सा हैं—एक भूली हुई भाषा, जो पत्थर और लकड़ी पर अपनी परछाईं छोड़ गई है।
उसने कैमरे से कई तस्वीरें लीं और फिर दरवाज़े के पास की संकरी दरार में टॉर्च डाली। इस बार उसने साफ़ देखा—भीतर की दीवारों पर भी वही प्रतीक उकेरे हुए थे, लाल रंग से, जैसे किसी ने खून से खींचे हों। कुछ निशान ताज़ा लग रहे थे। उसने नोटबुक में लिखा: “दरवाज़ा प्रतीक—अज्ञात, लाल रंग—ताज़ा।” तभी हवा की एक ठंडी लहर भीतर से निकली, जैसे किसी ने दरवाज़े के पार से साँस छोड़ी हो। मुकुल ने टॉर्च झटके से बाहर खींच ली।
अचानक रिकॉर्डर चालू हो गया—बिना उसकी छेड़छाड़ के। उसमें वही गूँज उभरी, जो पिछली रात दर्ज हुई थी, और उसके बाद एक धीमी सरसराहट—“वापस जाओ।” आवाज़ इतनी हल्की थी कि वह निश्चित नहीं हो पा रहा था कि यह सचमुच बोली गई थी या उसकी थकी हुई कल्पना का खेल। मगर रिकॉर्डर की सुई हिल रही थी, और सुई झूठ नहीं बोलती।
उसने गली के चारों ओर देखा। हर खिड़की बंद, हर दरवाज़ा जंग से सील। मगर हवा का दबाव बताता था कि कोई आँखें परदे के पीछे से उसे देख रही हैं। उसने साहस जुटाकर दरवाज़े पर ज़ोर से दस्तक दी। आवाज़ गूँजी, पर भीतर से कोई हलचल नहीं। उसने दूसरा हाथ उठाया ही था कि अचानक ऊपर की खिड़की से एक चीज़ गिरी—पुरानी पीतल की चाबी। वह उसके पैरों के पास आकर ठनकी। मुकुल झुककर उसे उठाने ही वाला था कि हवा में घंटी-सी झंकार हुई, और खिड़की की जाली खुद ही बंद हो गई।
मुकुल ने चाबी हथेली में कस ली। यह दरवाज़े का ताला खोलने वाली है या कोई और जाल? उसकी समझ नहीं आया। उसने नोटबुक में लिखा: “चाबी—स्रोत अज्ञात, गिरने का समय—रात 9:27।” फिर धीरे से चाबी को बैग में रख लिया।
उसकी रीढ़ पर सिहरन दौड़ गई। हवेली अब केवल बंद दरवाज़ा नहीं थी; वह एक जीवित जीव की तरह अपनी चाल चल रही थी, हर आगंतुक को अपनी बिसात पर गोटी बना रही थी। मुकुल समझ गया—अगर उसे सच तक पहुँचना है तो अब पीछे मुड़ने का विकल्प खत्म हो चुका है। यह खेल शुरू हो चुका है।
गली में छुपा साया
रात फिर उसी गली में उतर आई थी, और मुकुल इस बार हल्के-हल्के कदम रख रहा था जैसे हर ईंट उसकी थाह ले रही हो। उसके बैग में पिछली रात मिली पीतल की चाबी रखी थी, जिसका वजन उसके कंधे से कहीं ज़्यादा मन पर पड़ रहा था। दिन में उसने चाबी को ध्यान से देखा था—साधारण ताले की चाबी नहीं थी, उसके दाँत किसी खास ढाँचे में कटे हुए थे, ऊपर के हिस्से पर छोटा-सा अंकित चिह्न, वही गोल घेरे वाला प्रतीक जो दरवाज़े की कारीगरी में उसने देखा था। यह महज़ धातु का टुकड़ा नहीं था, बल्कि हवेली की स्मृति का हिस्सा लग रहा था।
गली में पहुँचते ही उसे पहली बार एहसास हुआ कि यहाँ हवा स्थिर नहीं रहती; दिन में जितनी भीड़ हो, रात ढलते ही जैसे हर दीवार अपने आकार बदल देती हो। चौराहे पर टंगी स्ट्रीट लाइट की रोशनी इस बार पहले से भी धुंधली थी, पीली लपट जैसे धीरे-धीरे बुझने की कगार पर। मुकुल ने फ़ोन की फ्लैशलाइट ऑन की और धीरे-धीरे बढ़ा।
पीछे से आती किसी आहट ने उसका ध्यान खींचा। उसने तुरंत पीछे मुड़कर देखा—गली बिल्कुल खाली, मगर धूल में जैसे ताज़ा पैरों के निशान दबे थे। वह झुककर देखने ही वाला था कि दूर से अचानक हल्की हँसी की आवाज़ आई—इतनी धीमी, इतनी महीन कि शायद हवा का धोखा हो। मुकुल की साँस तेज़ हो गई। वह समझ गया कि अब उसे केवल हवेली नहीं, बल्कि गली की भी पड़ताल करनी होगी, क्योंकि यह गली महज़ रास्ता नहीं, बल्कि रहस्य का हिस्सा है।
वह आगे बढ़ा। गली अचानक और भी संकरी हो गई। दोनों तरफ़ की दीवारें इतनी पास आ चुकी थीं कि वह हाथ फैलाए तो उंगलियाँ दोनों को छू सकती थीं। उसने नोटबुक में जल्दी से लिखा—“गली का विस्तार बदलता है—दिन और रात में अलग।” उसी समय उसके फ़ोन की फ्लैशलाइट अचानक बुझ गई। अँधेरे में एक क्षण के लिए उसने साफ़ महसूस किया कि कोई उसके बिल्कुल पीछे खड़ा है।
उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसने रिकॉर्डर ऑन किया और धीरे से बोला—“समय 10:42—पीछे किसी अज्ञात उपस्थिति की संभावना।” आवाज़ उसके गले से बमुश्किल निकली। फिर अचानक कंधे पर ठंडी हवा की थपकी लगी—जैसे किसी ने बिना हाथ लगाए छुआ हो। मुकुल ने झटके से मुड़कर कैमरा उठाया और फ्लैश दबाया। पलभर की रोशनी में उसने देखा—गली के कोने पर सफ़ेद परछाईं-सी आकृति, और आँखें जैसे चमकती हुई। रोशनी बुझते ही वह आकृति गायब। कैमरे में तस्वीर कैद हुई या नहीं, उसे पता नहीं।
वह घबराकर तेजी से कदम बढ़ाने लगा, लेकिन गली का मोड़ बार-बार उसे वहीं घुमा लाता। उसने तीन बार कोशिश की—हर बार वही दरवाज़ा सामने खड़ा। उसे समझ आया कि यह गली गोल-गोल घूमने वाला जाल है। जैसे जगह नहीं बदल रही, बस दीवारें अपनी दिशा पलट रही हैं। वह रुककर दीवार पर हाथ रखकर चलने लगा। उंगलियों के नीचे पुराना चूना झड़ रहा था, लेकिन बीच-बीच में उसे धातु जैसी ठंडी सतह महसूस हुई। उसने टॉर्च जलाकर देखा—दीवार के बीचोंबीच छोटे-छोटे लोहे के टुकड़े जड़े थे, जिन पर वही त्रिकोण और घेरे बने हुए थे।
मुकुल नोटबुक निकालकर स्केच बनाने लगा, तभी उसे फिर आहट सुनाई दी। इस बार स्पष्ट। टिक-टिक करती पदचाप—जैसे कोई नंगे पाँव उसके पीछे चल रहा हो। उसने पीछे झटके से देखा—कुछ नहीं। लेकिन धूल उड़ रही थी, और पैरों के निशान ताज़ा थे। वह बेतहाशा कैमरे से लगातार तस्वीरें खींचने लगा। अचानक एक फोटो के फ्लैश में उसने साफ़ देखा—दीवार पर टिकी एक छाया, इंसानी आकृति जैसी, मगर बिना सिर के। कैमरे की स्क्रीन पर फोटो झिलमिलाई और खुद-ब-खुद डिलीट हो गई। मुकुल के हाथ काँप गए।
वह भागकर दरवाज़े तक पहुँचा और हाँफते हुए पीतल की चाबी बाहर निकाली। उसका मन कह रहा था कि यह सबसे बड़ी भूल है, लेकिन जिज्ञासा उसे रोक नहीं रही थी। उसने चाबी ताले में डाली। हल्की-सी खटखटाहट हुई और ताला घूम गया। दरवाज़ा कराहता हुआ खुला—जैसे किसी ने सदियों बाद करवट बदली हो। भीतर से अंधेरा उसके सामने फैल गया, और हवा का झोंका बाहर निकला, जिसमें सीलन, राख और पुराने खून की गंध मिली हुई थी।
मुकुल दरवाज़े के पार एक कदम बढ़ाने ही वाला था कि पीछे से अचानक किसी की साँस उसके कान के पास गूँजी—बिल्कुल साफ़, गर्म, और मानवीय। शब्द इतने धीमे थे कि अर्थ पकड़ना मुश्किल, मगर वह जान गया—यह गली सिर्फ़ रास्ता नहीं, यह किसी अदृश्य पहरेदार का घर है। उसने रिकॉर्डर में आख़िरी नोट बोला—“गली में छुपा साया मौजूद है।” और दरवाज़े के अंधेरे में प्रवेश कर गया।
रहस्य की पहली दरार
हवेली के भीतर कदम रखते ही मुकुल को लगा कि उसने किसी कमरे में नहीं, बल्कि समय के गर्त में प्रवेश किया है। हवा इतनी भारी थी कि हर सांस सीलन और जंग के स्वाद से भर रही थी। दीवारों पर फफूँदी की परतें, छत से लटकते मकड़ी के जाले, और फर्श पर जमी धूल में दबे-घिसे कदमों के निशान—यह सब बता रहे थे कि कोई न कोई यहाँ हाल में ज़रूर आया है। वह टॉर्च की रोशनी धीरे-धीरे घुमाता रहा और अपनी नोटबुक में हर चीज़ दर्ज करता गया।
अचानक बायीं तरफ़ की दीवार पर उसे वही प्रतीक दिखे जो बाहर दरवाज़े पर थे—गोल घेरे, बीच से कटी रेखाएँ, और छोटे-छोटे त्रिकोण। इस बार लाल रंग और गाढ़ा था, जैसे हाल ही में खींचा गया हो। मुकुल का दिल तेज़ धड़कने लगा। “यह महज़ पुरानी नक्काशी नहीं, किसी अनुष्ठान का हिस्सा है,” उसने बुदबुदाया।
उसी समय उसकी नज़र एक टूटी खिड़की से बाहर पड़ी। गली के कोने पर एक बूढ़ा खड़ा था—सफ़ेद धोती, झुका हुआ शरीर, और आँखों में अजीब चमक। वह बिना हिले-डुले खिड़की की ओर देख रहा था। मुकुल ने टॉर्च घुमाई तो वह बूढ़ा धीरे-धीरे हाथ उठाकर इशारा करने लगा—बाहर आओ।
मुकुल चौंका, मगर जिज्ञासा उसे बाहर खींच ले गई। वह दौड़कर हवेली से बाहर निकला। गली की हवा पहले जैसी स्थिर थी, मगर बूढ़ा अब चबूतरे पर बैठा था, जैसे सालों से वहीं बैठा हो। मुकुल ने पास जाकर धीरे से पूछा, “आप यहाँ रहते हैं?”
बूढ़ा मुस्कुराया, दाँत लगभग ग़ायब, आवाज़ खुरदरी—“रहता नहीं बेटा, बस देखता हूँ। सबको देखता हूँ।”
“आपको हवेली के बारे में क्या पता है?” मुकुल ने रिकॉर्डर ऑन कर दिया।
बूढ़े ने गहरी साँस ली और धीरे-धीरे बोला—“यह हवेली नवाब अब्दुल रज़ा की थी। कहते हैं उसकी दौलत सिर्फ़ सिक्कों और महलों में नहीं, बल्कि उन अनुष्ठानों में थी जो उसने करवाए थे। उसकी एक रखैल थी—हुस्ना। हुस्ना जवान, खूबसूरत, मगर दिलेर थी। उसने नवाब से विद्रोह किया। एक रात हवेली के इसी आँगन में उसका खून बहा। लोग कहते हैं नवाब ने ही बलि दी, ताकि अपनी दौलत और ज़मीन पर तंत्र-मंत्र का ताला बाँध सके। उसी रात पहली बार घंटी बजी थी।”
मुकुल के रोंगटे खड़े हो गए। उसने पूछा, “घंटी क्यों बजती है?”
बूढ़ा आँखें झपकाए बिना बोला—“हर बीस साल में हवेली किसी नए ख़ून की तलाश करती है। घंटी उसका संकेत है। यह गली सीधी नहीं रहती, यह रास्ता घुमाकर शिकार को भीतर धकेल देती है। जो अंदर जाता है, वह बाहर नहीं आता—या फिर लौटकर इंसान नहीं रहता।”
मुकुल की साँस अटक गई। उसने याद किया—फाइलों में दर्ज गुमशुदगियाँ, वही बीस साल का फासला। सब कुछ मिल रहा था।
“क्या आपको किसी का चेहरा याद है? उन गायब हुए लोगों में से किसी को?” मुकुल ने हिम्मत जुटाकर पूछा।
बूढ़ा बहुत देर तक चुप रहा, फिर फुसफुसाया—“याद है। उनकी आँखें… वही आँखें जो अभी तेरी आँखों में देख रहा हूँ।”
मुकुल का दिल जोर से धड़क उठा। वह पीछे हटना चाहता था, मगर बूढ़ा अचानक हँस पड़ा—खुरदुरी, खोखली हँसी। “भाग सकता है? गली से? हवेली से? देख बेटा, तू अब हवेली का हिस्सा बन चुका है।”
मुकुल ने घबराकर पीछे देखा। हवेली का दरवाज़ा खुला था और भीतर से वही ठंडी हवा निकल रही थी। उसने फ़ौरन नोटबुक बंद की, रिकॉर्डर जेब में डाला और जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाए। लेकिन गली फिर से वैसी ही लग रही थी—हर मोड़ उसे वहीं घुमा लाता।
उसने पीछे मुड़कर देखा तो बूढ़ा अब गायब था। सिर्फ़ उसकी खुरदुरी हँसी हवा में लटक रही थी, और दीवार पर लाल रंग से ताज़ा लिखा था—“तू अगला है।”
गली का जाल
गली के पत्थरों पर उसके कदम जितनी बार पड़ते, उतनी ही बार उसे लगता कि वही आवाज़ दोहराकर लौट रही है—जैसे यह रास्ता उसकी चाल को चबा जाता हो और फिर वही टुकड़े उसे वापस खिलाता हो। मुकुल ने कई बार कोशिश की—कभी तेज़ चला, कभी धीरे, कभी दीवार छूकर चला, कभी आँखें बंद करके—पर हर बार वही दरवाज़ा सामने आ खड़ा होता। हवेली का विशाल सागौन का फाटक, जिस पर लोहे के घेरे और ताज़ा लाल प्रतीक उभरे थे।
उसने नोटबुक खोली और हड़बड़ी में लिखा—“गली का ढाँचा बदलता है। मोड़ संख्या अज्ञात। गोल चक्कर जैसा पैटर्न। प्रवेश = निकास।” लिखते-लिखते हाथ काँपने लगे।
रिकॉर्डर ऑन किया—“समय 11:56 रात। गली भूलभुलैया है। रास्ते की पुनरावृत्ति।—” तभी आवाज़ टूट गई। स्पीकर से हल्की गूँज आई, फिर एकदम से किसी और की साँस रिकॉर्ड होने लगी। मुकुल ने चौंककर रिकॉर्डर दूर किया—साफ़ सुनाई दे रहा था कि कोई भारी साँस बिल्कुल उसके पास ले रहा है।
उसने टॉर्च उठाई और चारों ओर घुमाई। अँधेरे में धूल के कण तैर रहे थे, पर कोई आकृति नहीं। फिर भी हवा बार-बार काँप रही थी, जैसे कोई अदृश्य परछाईं उसके पीछे-पीछे चल रही हो।
मुकुल ने सोचा—अगर गली सीधी नहीं है, तो शायद दीवारों में ही कोई राज़ छुपा है। उसने हथेली दीवार पर रखी। ईंटें ठंडी थीं, लेकिन बीच-बीच में धातु जैसी सतहें छू रही थीं। उँगलियों से दबाने पर हल्की कंपन महसूस हुई—जैसे दीवार खुद साँस ले रही हो। उसने पेन से ठोककर देखा—खोखली ध्वनि लौटी।
“दीवार खोखली है,” उसने नोट किया। “शायद भीतर दूसरा रास्ता।”
तभी दीवार पर लगी एक ईंट धीरे-धीरे खिसकी और अंदर से लाल रोशनी झाँकने लगी। मुकुल ने आँखें सिकोड़कर देखा—अंदर किसी छोटे कमरे जैसा स्थान था, जहाँ दीवारों पर वही प्रतीक चमक रहे थे। वह हिम्मत करके झुककर उस दरार से भीतर गया।
कमरा छोटा था, चारों तरफ़ वही आकृतियाँ, और बीच में लोहे का त्रिकोण रखा था, जैसे कोई यज्ञ का साधन हो। लोहे पर ताज़ा खून की बूंदें जमी थीं। मुकुल ने काँपते हाथ से कैमरा उठाया और तस्वीर ली। उसी पल रोशनी अचानक बुझ गई। अंधेरे में उसने पीछे किसी के चलने की आहट सुनी।
“कौन है?” उसकी आवाज़ फट गई।
कोई जवाब नहीं। बस एक धीमा हँसना—खुरदुरा, पुराना, वही बूढ़े जैसा जिसे उसने पिछली रात देखा था। मुकुल ने दरवाज़े की तरफ़ भागना चाहा, मगर दीवार फिर से बंद हो चुकी थी। वह अंदर फँस गया।
उसका दिल धड़कता रहा। उसने नोटबुक के पन्ने पर जल्दी से लिखा—“गली जाल है। दीवारें हिलती हैं। कमरा = जाल का हिस्सा। बाहर निकलना मुश्किल।”
अचानक त्रिकोण के लोहे से हल्की झंकार हुई, जैसे किसी ने उसे हथेली से छुआ हो। मुकुल ने देखा—लोहे की सतह पर धुंधली परछाईं उभर आई। वह परछाईं इंसानी थी, मगर सिर विहीन। उसकी धड़कनें कानों तक बजने लगीं।
“मुझसे क्या चाहिए?” वह चीखा।
परछाईं धीरे-धीरे आगे बढ़ी। उसकी जगह हवा भारी होने लगी। रिकॉर्डर जेब में अपने आप ऑन हुआ और उसमें वही शब्द गूँजे—“अगला तुम हो।”
मुकुल की साँस टूट रही थी। उसने कैमरा टटोला और अंधेरे में फ्लैश दबाया। एक पल की रोशनी में उसने देखा—परछाईं उसके बिल्कुल सामने थी, और उसकी छाती पर वही प्रतीक उकेरे हुए थे जो हवेली की दीवारों पर बने थे।
रोशनी बुझी और सब अंधकार में डूब गया। केवल उसकी नोटबुक के खुले पन्ने पर टॉर्च की हल्की किरण पड़ी, जहाँ आख़िरी लिखा था—“गली का जाल = मौत का दरवाज़ा।”
मौत की परछाई
कमरे की दीवारें जैसे धीरे-धीरे सिमट रही थीं। मुकुल का दिल धड़कनों से बाहर छलक रहा था, मगर उसके पैर जैसे जमे हुए थे। टॉर्च की रोशनी कांप रही थी, और हर कांपते पल में वही परछाईं और भी साफ़ उभरती जाती थी। सिरविहीन, चौड़े कंधों वाली आकृति, जिसकी छाती पर लाल प्रतीक जलते हुए अंकित थे। वह परछाईं आगे बढ़ी तो हवा अचानक ठंडी हो गई—इतनी ठंडी कि मुकुल की साँस धुएँ की तरह बाहर निकलने लगी।
वह लड़खड़ाकर पीछे हटना चाहता था, मगर दीवार से पीठ टकराई। उसने घबराकर कैमरे का फ्लैश दबाया। पलभर की चमक में उसने देखा—परछाईं अब इंसानी रूप ले रही थी। चेहरे के बिना भी उसकी परछाईं पर झुर्रियों की लकीरें थीं। उस बूढ़े की आकृति, जिसे उसने गली में देखा था। मगर अब वह बूढ़ा इंसान नहीं, बल्कि किसी पुरानी प्रतिज्ञा का जीवित रूप था।
“मुझे क्यों?” मुकुल ने चीखकर कहा।
आवाज़ चारों तरफ़ गूँज गई। परछाईं की ओर से जवाब आया—“हर बीस साल में हवेली को खून चाहिए। आख़िरी था वकील—2003। अब तुम्हारी बारी।”
मुकुल की आँखों में वह फाइल घूम गई—1963 व्यापारी, 1983 छात्र, 2003 वकील। और अब 2023—पज़ल पूरा हो गया था।
तभी अचानक कमरे की छत से धूल झड़ने लगी। कहीं ऊपर से किसी के दौड़ने की आहट आई। मुकुल ने टॉर्च घुमाई—कमरे के कोने में एक और संकरी दरार थी। उसने हिम्मत जुटाकर उधर छलाँग लगाई और पूरी ताक़त से दीवार पर धक्का दिया। ईंटें खिसककर गिर गईं। वह फिसलकर बाहर आ पहुँचा—फिर वही गली, वही पत्थर, वही अंतहीन भूलभुलैया।
मगर इस बार गली में सन्नाटा नहीं था। किसी के पैरों की आवाज़ साफ़ उसके पीछे-पीछे आ रही थी। उसने मुड़कर देखा—अंधेरे में वही परछाईं अब खुली गली में उतर आई थी। दूर से उसकी आँखें चमकीं—अब इस बार आँखें थीं, दो अंगारे जैसे।
मुकुल ने पागलों की तरह दौड़ना शुरू किया। मगर हर मोड़ उसे फिर हवेली के दरवाज़े तक ले आता। उसका गला सूख रहा था। “बाहर निकलने का रास्ता है ही नहीं,” उसने बुदबुदाया।
तभी दरवाज़ा खुद-ब-खुद चरमराकर खुल गया। अंदर से हवा का तेज़ झोंका आया और उसके कानों में किसी की आवाज़ पड़ी—“अंदर आ, तभी बचेगा।”
वह पसीने से तर था। हिम्मत और डर दोनों के बीच फँसकर उसने दरवाज़े के भीतर कदम रख दिया। हवेली का आँगन अंधेरे में डूबा था, मगर बीच में लोहे का बड़ा चौकोर चौकी रखा था—राख, मोमबत्तियों के जले हुए टुकड़े, और खून के धब्बों से सना।
उसी चौकी के पास एक छाया खड़ी थी। इस बार आकृति साफ़ थी—सफ़ेद अचकन, लंबा कुर्ता, और सिर पर जर्जर पगड़ी। मुकुल ने साँस रोक ली। यह वही पोर्ट्रेट था, जो उसने अभिलेखागार की फाइल में देखा था—नवाब अब्दुल रज़ा।
आकृति ने भारी आवाज़ में कहा—“मेरी हवेली ने तुम्हें चुना है। तुम्हारी कलम की स्याही अब खून से भरेगी। जो लिखा जाएगा, वही अमर होगा।”
मुकुल के हाथ काँप गए। उसने रिकॉर्डर जेब से निकाला और चालू किया। “पहचान—नवाब अब्दुल रज़ा। जिंदा या परछाईं—अज्ञात।”
नवाब की परछाईं ने ठहाका लगाया। “जिंदा और मरा, दोनों हूँ। यह हवेली मेरी देह है। यह गली मेरी सांस है। और तू अब मेरा शिकार।”
मुकुल पीछे हटना चाहता था, मगर उसके पैरों के नीचे का फर्श अचानक नरम हो गया। उसने नीचे देखा—धूल नहीं, खून था। आँगन में हर ईंट से गाढ़ा लाल रिस रहा था।
वह चीख उठा और दीवार की ओर भागा। लेकिन दीवार ने उसे धक्का देकर वापस चौकी की ओर गिरा दिया। हवा से वही बूढ़े की हँसी गूँजी। और नवाब की आकृति धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगी।
मुकुल ने आख़िरी कोशिश की। उसने बैग से वह पीतल की चाबी निकाली और चौकी पर पटक दी। चाबी ज़मीन पर गिरते ही एक तेज़ ध्वनि हुई—घंटी की। भारी, गूँजती हुई, वैसी ही जैसी उसने पहली रात सुनी थी।
हवेली की दीवारें काँप उठीं। नवाब की परछाईं ठिठक गई। उसकी आँखों की आग बुझने लगी।
मुकुल हाँफते हुए ज़मीन पर बैठा। समझ गया—यह चाबी महज़ ताले की नहीं, बल्कि हवेली की सांस को रोकने वाली कुंजी है।
पर क्या यह सचमुच उसकी रक्षा करेगी, या फिर किसी और जाल का हिस्सा है? यह सवाल उसके मन में गूँजता रहा, जबकि दीवारों से उठती गूँज अब भी कह रही थी—“हर बीस साल… हर बीस साल…”
आख़िरी दरवाज़ा
हवेली की दीवारें उस घंटी की गूँज से थरथरा रही थीं। मुकुल के कानों में अब भी वही ध्वनि भरी हुई थी—भारी, धात्विक, मगर इस बार मानो दरवाज़े खोलने की बजाय दीवारें तोड़ने पर तुली हो। पीतल की चाबी चौकी पर पड़ी काँप रही थी, और उसकी चमक लाल प्रतीकों पर फैलकर एक अजीब रोशनी बना रही थी।
मुकुल ने महसूस किया कि हवेली की साँस धीमी हो रही है। हवा में फैला सड़ांध का दबाव हल्का पड़ रहा था। मगर उसके भीतर एक और खिंचाव पैदा हुआ—जैसे कोई उसे और अंदर बुला रहा हो। उसने रिकॉर्डर उठाया और फुसफुसाया—“घंटी = कुंजी। प्रभाव = दीवारों का कंपन। निष्कर्ष: हवेली में गहराई की ओर मार्ग खुल रहा है।”
वह धीरे-धीरे चौकी के पीछे की ओर बढ़ा। वहाँ एक पुरानी सीढ़ी थी, जो नीचे तहख़ाने की ओर जाती थी। लकड़ी की सीढ़ियाँ इतनी जर्जर थीं कि हर कदम पर चरमराहट होती। मुकुल का हर कदम उसकी ही मौत की गिनती-सी सुनाता जा रहा था।
तहख़ाना बहुत अँधेरा था। उसने टॉर्च की रोशनी डाली तो देखा—दीवारों पर फिर वही प्रतीक, मगर इस बार वे केवल लाल रंग से बने नहीं थे, बल्कि धातु में खुदे हुए थे। जैसे किसी ने लोहे से दीवारों को गढ़ा हो। बीच में एक विशाल दरवाज़ा खड़ा था। इस पर भारी-भरकम ताले लगे थे, और ऊपर अरबी जैसी लिपि में अजीब शब्द खुदे थे। मुकुल ने नोटबुक खोली और उन आकृतियों की नकल की।
उस दरवाज़े के पास ज़मीन पर सूखी राख पड़ी थी—मानो कोई यज्ञ बार-बार यहाँ होता आया हो। राख में दबे-छुपे कुछ अवशेष भी थे—हड्डियों के टुकड़े, बालों के गुच्छे, और जले हुए कपड़ों के अंश। मुकुल की साँस अटक गई। यह जगह हवेली का दिल थी।
अचानक दरवाज़े के ताले अपने आप हिलने लगे। झनझनाहट की आवाज़ पूरे तहख़ाने में फैल गई। मुकुल ने समझ लिया कि यह वही “आख़िरी दरवाज़ा” है, जिसका ज़िक्र बूढ़े ने किया था। यही दरवाज़ा हवेली के असली रहस्य को कैद किए हुए है।
उसने कांपते हाथ से अपनी जेब टटोली। पीतल की चाबी अब भी उसके पास थी। उसे लगा—यही वह कुंजी है जो इस आख़िरी दरवाज़े को खोल सकती है। मगर जैसे ही उसने ताले के पास चाबी लगाई, तहख़ाने में अचानक सन्नाटा छा गया। एकदम घुप्प अँधेरा, जैसे टॉर्च की रोशनी को भी किसी ने निगल लिया हो।
अँधेरे में उसे किसी के आने की आहट सुनाई दी। धीमे-धीमे, भारी कदम। आवाज़ सीढ़ियों से उतर रही थी। मुकुल का गला सूख गया। उसने टॉर्च दोबारा जलाने की कोशिश की, मगर वह बार-बार बुझ जा रही थी। आहट और पास आई।
फिर अचानक एक आवाज़ गूँजी—भारी, मगर साफ़—“आख़िरी दरवाज़ा खोल, तभी सच मिलेगा।”
मुकुल का हाथ काँप गया। यह वही आवाज़ थी, जिसे उसने पिछली रात हवेली में सुना था। नवाब अब्दुल रज़ा की परछाईं।
उसने हिम्मत जुटाई और चाबी ताले में डाली। ताले ने खुद-ब-खुद घूमना शुरू किया। एक-एक करके सभी ताले गिरते गए, और दरवाज़ा धीरे-धीरे खुलने लगा। भीतर से ठंडी हवा का तेज़ झोंका आया—इतना तेज़ कि मुकुल पीछे की ओर लड़खड़ा गया।
दरवाज़ा पूरी तरह खुला तो सामने एक विशाल कक्ष दिखाई दिया। दीवारों पर अजीब आकृतियाँ जल रही थीं—मानो खून से बने दीपक। बीच में एक पत्थर की वेदी रखी थी, जिस पर लाल कपड़े से ढका हुआ कुछ पड़ा था।
मुकुल धीरे-धीरे आगे बढ़ा और कपड़ा उठाया। नीचे एक पुरानी किताब थी—काली जिल्द, लोहे की जंजीरों से बंधी, और हर पन्ने पर वही प्रतीक खुदे हुए। किताब को छूते ही उसके कानों में घंटी की गूँज भर गई।
और तभी—उसके सामने नवाब की आकृति प्रकट हुई। इस बार धुंधली नहीं, बल्कि बिल्कुल स्पष्ट। लंबी दाढ़ी, तेज़ आँखें, और होठों पर हल्की मुस्कान।
“तूने आख़िरी दरवाज़ा खोल दिया है,” नवाब ने कहा। “अब तू सच देखेगा, मगर याद रख—सच कभी इंसान को ज़िंदा नहीं छोड़ता।”
मुकुल का गला सूख गया। उसने रिकॉर्डर में आख़िरी नोट बोला—“आख़िरी दरवाज़ा खुल चुका है। भीतर का रहस्य किताब में है। पर सवाल है—क्या यह हवेली मुझे ज़िंदा बाहर जाने देगी?”
कक्ष की दीवारें धीरे-धीरे काँपने लगीं, और घंटी की आवाज़ फिर से गूँज उठी—इस बार इतनी ज़ोरदार कि तहख़ाने की ईंटें दरकने लगीं।
अंधेरी गली का सच
घंटी की गूँज इतनी भारी थी कि मुकुल को लगा उसके कान फट जाएंगे। तहख़ाने की दीवारें काँप रहीं थीं, छत से धूल और पत्थर टूट-टूटकर गिरने लगे थे। वह किताब हाथ में पकड़े खड़ा था—काली जिल्द, जंजीरों से बंधी, और पन्नों पर खून जैसे चमकते प्रतीक। नवाब की आकृति उसके सामने खड़ी थी, अब उतनी ही ठोस जितनी कोई इंसान।
“यह हवेली जीवित है,” नवाब ने धीरे-धीरे कहा, “और इसका प्राण इस किताब में है। जिसने इसे खोला, वही हवेली का अगला हिस्सा बनता है।”
मुकुल काँप रहा था। उसने रिकॉर्डर ऑन किया और फुसफुसाया—“किताब = हवेली की आत्मा। खुलना = मृत्यु।”
नवाब की आँखें जल उठीं। “लिख! इस किताब में अपना नाम लिख। तभी चक्र पूरा होगा।”
मुकुल ने किताब की जिल्द पर हाथ रखा। अचानक उसकी आँखों के सामने उन सबका चेहरा घूम गया—1963 का व्यापारी, 1983 का छात्र, 2003 का वकील। सबके नाम फाइलों में दर्ज थे। सब गायब। शायद सब इसी किताब में क़ैद हो चुके थे।
उसने साहस जुटाया और चिल्लाया—“नहीं! मैं पत्रकार हूँ। मेरा काम सच को बाहर लाना है, कैद करना नहीं।”
इतना कहते ही उसने किताब ज़मीन पर पटक दी। जंजीरें टूट गईं और पन्ने खुलकर चारों ओर उड़ने लगे। हर पन्ने से खून की बूंदें टपक रही थीं। हवेली की दीवारों पर बने प्रतीक जल उठे, और घंटी की आवाज़ चरम पर पहुँच गई।
नवाब गरजा—“मूर्ख! तूने चक्र तोड़ दिया!”
मुकुल भागकर सीढ़ियों की ओर दौड़ा। तहख़ाने का फर्श दरक रहा था, लाल लावा जैसे खून बहता जा रहा था। उसने किसी तरह ऊपर पहुँचकर दरवाज़ा धकेला। बाहर वही गली थी, मगर अब उसका आकार बदल चुका था। दीवारें टूट रही थीं, रास्ते खुल रहे थे।
वह दौड़ता गया, दौड़ता गया—पहली बार गली सीधी हो रही थी। पीछे से हवेली कराह रही थी, जैसे कोई बूढ़ा शरीर ढह रहा हो। घंटी की गूँज अब दर्द भरी चीख़ में बदल चुकी थी।
आख़िरकार मुकुल गली के मुहाने पर पहुँच गया। उसने पीछे मुड़कर देखा—रज़ा-हुस्न हवेली धूल और राख में बिखर रही थी। दीवारें खुद-ब-खुद ढह रही थीं। लाल प्रतीक धुएँ में बदल रहे थे।
सड़क पर लोग जमा हो गए। सबके चेहरे पर अविश्वास। किसी ने कहा—“चालीस साल में पहली बार हवेली ढही है।” किसी ने मुकुल को पहचान लिया—“ये वही पत्रकार है… जिंदा बाहर आया है!”
मुकुल हाँफते हुए ज़मीन पर गिर पड़ा। उसके हाथ में अब भी एक फटा हुआ पन्ना था—किताब का। उस पन्ने पर बड़े अक्षरों में लिखा था—“सच गली में है।”
उसने समझ लिया—हवेली केवल एक प्रतीक थी। असली जाल गली ही थी, जो हर बीस साल में किसी को अंदर धकेल देती। और वह गली अब भी वहीं थी, अपने अगले शिकार का इंतज़ार करती हुई।
रिकॉर्डर अब भी चल रहा था। मुकुल ने काँपते हुए आख़िरी नोट दर्ज किया—“सच: हवेली का श्राप टूट गया, पर गली अब भी ज़िंदा है। अगर यह रिपोर्ट तुम सुन रहे हो, तो याद रखना—12:17 पर कभी उस गली से मत गुजरना। क्योंकि अगला नाम शायद तुम्हारा हो।”
उसने पन्ना मोड़कर जेब में रखा। आसमान पर पहली सुबह की रोशनी उतर रही थी। मगर गली अब भी अंधेरी थी, और उसके भीतर से बहुत धीमे किसी के कदमों की आहट आ रही थी।
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