Hindi - सामाजिक कहानियाँ

मथुरा मोड़

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आरव चौबे


सुबह की चाय जैसे यमुना के पानी में उगता सूरज घोल देता है—गुनगुना, धुएँ-सा। विश्राम घाट पर घंटियों की अनगिन गूँज है; आरती का आख़िरी स्वर हवा में तैर रहा है। धूल-मिट्टी, धूप और भीगे पत्थरों की ख़ुशबू को माँ सरोज की उबलती चाय की भाप अलग से पहचान दिला रही है।

“राघव! कप धो दिये?” सरोज ने चूल्हे के पास से गर्दन घुमाई।
“हो गये, अम्मा,” राघव ने बेंत की टट्टी पर सूखते गिलास उलटते हुए कहा। उसकी हथेलियाँ नाव की रस्सियों जैसी थी—ख़ुरदरी पर भरोसेमंद।
कल्लू अपना ऑटो किनारे खड़ा करके आया, “दो कटिंग इधर भी फेंक दे, अम्मा। सुबह से तीन चक्कर लगा लिये। मथुरा तो जागती ही नहीं, बस आँख खोलकर मुस्कुराती है।”
सरोज हँसी, “और तुम उस मुस्कुराहट से मीटर चलाते हो!”

घाट पर पर्यटकों का पहला जत्था उतर चुका था। कोई घंटी बाँध रहा था, कोई फोटो। पंडित श्यामलाल ने सफ़ेद धोती पर हल्की पीली शॉल डाली, माथे की कत्थई बिंदी सलीके से सजा दी। उनका स्वर शांत था, “नदी का जीव जगा है, शहर का मन भी जागे।”
राधा ने “ब्रज पेड़ा भंडार” की टोकरी सँभाली। ताज़ा पेड़े की खुशबू हवा में घुलते ही दो-चार ग्राहक घिर आये। राधा की आँखों में नींद थी, पर आवाज़ में चमक, “लजीज़ पेड़ा, देसी घी, बिना मिलावट! छुट्टा वापस नहीं काटूँगी, पर स्वाद वापस माँग लोगे!”
कल्लू ने पैकेट उठाया, “उधार में स्वाद भी अच्छा लगता है।”
राधा आँख दिखाती मुस्कुराई, “उधार के स्वाद से घर का कर्ज़ नहीं उतरता, कल्लू भइया।”

इमरान अपने छोटे हथकरघे के सैंपल के साथ आया था; मंदिर के बाहर दुकानदारों को दुशाले दिखाने। कपड़े पर ब्रज की बेल-बूटियाँ जैसे चमेली की लताएँ। “देख लो भइया, हाथ का काम है, मशीन का नहीं,” उसने दुकानदार से कहा।
दुकानदार ने अंगुली से धागा टटोला, “मशीन सस्ता पड़ता है।”
इमरान की मुस्कराहट सिकुड़ गई, “सस्ता चीज़ जल्दी टूटती भी है।”

इसी बीच, विकास बाबू चार-पाँच लोगों के साथ आते दिखे। चुस्त सफ़ारी सूट, सधे हुए कदम, आँखों में ऐसा सुकून जैसे हर हल उनके जेब में पड़ा हो।
“अरे पंडित जी,” उन्होंने आदर से हाथ जोड़ते हुए कहा, “शहर बदल रहा है, नदी का किनारा भी चमकेगा। बस थोड़ी थी जगह चाहिए, थोड़ी थी समझ।”
पंडित श्यामलाल ने उनकी ओर देखा, “चमक ऊपर चढ़ती है तो गहराई नीचे उतरती है, बाबू।”
विकास मुस्कुराए, “गहराई का ध्यान है। पर देखा जाये तो रोज़गार भी गहराई ही बढ़ाता है।”

यही बोलते-बोलते नगरपालिका का एक चपरासी आया और घाट की दीवार पर पीला-सा नोटिस चिपका गया। स्याही अभी गीली थी—
रिवरफ़्रंट पुनर्विकास हेतु निर्धारित क्षेत्र में अतिक्रमण हटाओ अभियान। सात दिन के भीतर”—
आगे की पंक्तियाँ भी थीं; तारीख, फ़ाइल नंबर, सिग्नेचर। लेकिन बस इतना पढ़ना काफी था कि हवा का तापमान बदल गया। चाय की भाप ठंडी लगी।

राघव ने नोटिस को हाथ लगाया। उसकी नज़र नाव पर गयी—लकड़ी की पुरानी देह, बापू के हाथों की याद। उसने होंठ भींचे, “ये जो ‘अतिक्रमण’ है, इसमें हमारे दिन-रात कहाँ फिट होते हैं?”
कल्लू ने धीरे कहा, “हम तो सड़क पर हैं; सड़क किसकी—ये भी लिख देना चाहिए।”
इमरान ने नोटिस का फोटो अपने पुराने फ़ोन में कैद कर लिया। राधा चुप खड़ी रही। उसे दुकान के उधार खाता-बहियों का वज़न याद आया—अगर दुकान हटेगी तो? माँ की दवाइयों का क्या?

विकास बाबू ने माहिर आवाज़ में समझाया, “देखो भाई, ये किसी की रोज़ी छीनने नहीं आया। बस थोड़ी-सी व्यवस्था। मंदिर के सामने साफ़-सुथरा फ्रंट। पर्यटन बढ़ेगा, कमाई बढ़ेगी। दुकानों को शिफ़्ट किया जाएगा—और अच्छा स्पेस मिलेगा, सरकारी दर पर।”
सरोज ने चूल्हा धीमा किया, “दर पर पेट नहीं चलता, बाबू। ठिकाने पर ग्राहक आते हैं।”
विकास बाबू की चमक में एक पल की झुर्रन आयी, मगर वे फिर सँभल गए, “मीटिंग बुलाते हैं शाम को। सबकी बात सुनी जाएगी।”

दोपहर की धूप तिरछी हुई तो राधा ने पेड़ों की छाँह में स्टूल खिसकाया। एक दिल्ली से आया कपल पेड़े के साथ सेल्फ़ी ले रहा था। लड़की ने पूछा, “ये पेड़ा क्यों मशहूर?”
राधा हँसी, “क्योंकि इसे खाने से लोग मीठा बोलते हैं।”
लड़का बोला, “और ये नदी?”
राधा ने नदी की तरफ़ देखा, “ये तो सब सुनती है, पर जवाब धीरे-धीरे देती है।”

कल्लू ने बीच में टोका, “साहब-मैडम, आधा शहर मेरे ऑटो में बैठकर कहानियाँ सुनाता है। आज की कहानी फ्री: सरकार कहती है चमक, लोग कहते हैं छाँव। आप बताओ, धूप के बिना चमक, और छाँव के बिना ठहराव?”
कपल हँसता हुआ आगे बढ़ गया, पर मोबाइल कैमरा चालू रहा। कल्लू के तुकबंद वाक्य क्लिप में कैद हो गये—अनजाने में शहर की एक छोटी बहस रिकॉर्ड हो चुकी थी।

शाम ढलने लगी। घाट पर दीपदान की तैयारी। छोटे-छोटे दिये पीतल की थालों में, फूलों से घिरे। पंडित श्यामलाल ने हौले से कहा, “आरती में जो स्वर उठते हैं, वो शहर की धड़कन सँभालते हैं। आज धड़कन तेज़ है।”
राघव नाव की राँसी कस रहा था, तभी दो पुलिसवाले आये। उनमें से एक ने नोटिस की तरफ़ इशारा किया, “भाई लोग, सात दिन हैं। बाद में फिर कहना मत कि बताया नहीं।”
राघव ने विनम्रता से पूछा, “साहब, हम लोग कहाँ जाएँ? नाव कहाँ जाएगी?”
दूसरा पुलिसवाला सख़्त लहज़े में, “जो मीटिंग होगी, वहीं तय होगा। अभी भीड़ मत लगाओ।”

पर भीड़ तो थी—आवाज़ें, सवाल, थकान, डर। सरोज ने पुलिसवालों को चाय दी, “बिना चाय के बात कड़वी लगती है, साहब।”
पहला पुलिसवाला नरम पड़ा, “अम्मा, हमारे हिस्से में भी सख्ती लिखी है। ऊपर से आता है।”
सरोज ने मुस्कुरा कर देखा, “ऊपर से तो बरखा भी आती है। पर छत हो तो ठहरती है। हमारा तो छाजन भी आपसे ही पूछ रहा है।”

उसी भीड़ में नंदलाल सेठ भी दबे पाँव मौजूद थे, मोबाइल कान से सटाए—“जी हाँ, ज़मीन साफ़ होगी तो फ्रंट बनाते देर नहीं लगेगी… हाँ, दुकानदारों का हम देख लेंगे… हाँ-हाँ, बस बोर्ड पास हो जाये।” उनकी आँखों में गणित था: कितने की जगह, कितना किराया; कौन-सी दुकान कहाँ।

इमरान ने राधा से धीरे कहा, “तुम्हारे पेड़े की स्कूल कहाँ लगेगी फिर?”
राधा की हँसी इस बार फीकी थी, “जहाँ भूख होगी, वहाँ दुकान लगेगी। पर कर्ज़… कर्ज़ तो घर के कमरे जैसा है—हमारे साथ ही चलता है।”

दीपदान का वक़्त हो चुका था। लोग नदी किनारे खड़े थे; छोटे बच्चों को दिये पकड़ना सिखाया जा रहा था। गोपाल, वही शरारती बच्चा, मोबाइल लेकर आगे-आगे दौड़ता, “लाइव कर रहा हूँ, लाइव!”
“किसका?” राघव ने हँसकर पूछा।
“शहर का, काका! फॉलोअर्स बढ़ेंगे तो लाइक भी आएँगे!”
“लाइक से पेट भरता है क्या?” कल्लू ने चुटकी ली।
गोपाल ने कंधे उचकाए, “पता नहीं, पर लाइक में आवाज़ सुनाई देती है।”

आरती शुरू हुई। शंखनाद, मंजीरा, जय-जयकार। नदी पर दीयों की परछाइयाँ, जैसे सितारों ने पानी में छिपकर आँखें खोली हों। उसी पल किनारे से हल्की-सी चीख़ उठी—“अरे—अरे—सामान!” किसी पर्यटक का बैग फिसलकर पानी में जा गिरा था। भगदड़-सी नहीं, पर हलचल हुई।
राघव ने बिना सोचे-समझे राँसी छोड़ी; नाव को ढकेलकर पानी में उतरा। “जगह दो!” वह चप्पू थामते हुए बोला। उसकी पीठ पर शाम की रोशनी चिपक गयी। पानी की सतह पर गोल-गोल लहरें बनीं। उसने बैग तक नाव पहुँचाई, पर नाव का सिरा धारा में तिरछा हो गया।
“राघव!” सरोज की आवाज़ काँपी।
“कुछ नहीं, अम्मा!” राघव ने नाव घुमाई और बैग निकालकर किनारे बढ़ा दिया। भीड़ में तालियाँ पड़ीं। उस दिल्ली वाले कपल ने यह भी रिकॉर्ड कर लिया—राघव की नाव, दीयों की रोशनी, बैग का बचना। दो मिनट का वीडियो बन गया: “घाट का हीरो।”

लेकिन वीडियो के फ्रेम के बाहर, पुलिसवाले उसी वक़्त एक और नोटिस चिपकाते दिखे—इस बार घाट के सीढ़ियों के पास। गोपाल का “लाइव” उस काग़ज़ की तरफ़ घूम गया।
“ये देखो, नए बोर्ड!” उसने कैमरे में पढ़ने की कोशिश की।
अक्षर झिलमिलाये, पर इतना साफ़ दिखा: सात दिन”—जैसे किसी ने शहर के माथे पर उलटी गिनती लगा दी हो।

आरती खत्म हुई। लोग दीये प्रवाहित करते हुए मनौती माँग रहे थे। पंडित श्यामलाल ने थाल नीचे रखते हुए धीरे कहा, “दिया नदी को सौंपते हैं ताकि वह उसे दूर तक ले जाए। पर घर का उजाला फिर कहाँ से लौटा लाएँ?”
कल्लू ने ऑटो की चाबी घुमाकर कहा, “उजाले की सबसे बड़ी चालाकी ये है कि वो अँधेरे के बिना नहीं चमकता।”
राधा ने अपनी टोकरी समेटी। आँखें भीगने वाली थीं, पर उसने मुस्कान पहनी, “कल सुबह भी दुकान लगेगी। जब तक ‘सात दिन’ सात नहीं हो जाते।”

राघव किनारे बैठ गया। भीगी नाव, भीगी पलकों के बीच उसने दूर देखते हुए कहा, “यह नदी… ये जानती है ना, कि इसे बाँधोगे तो यह गीत से शोर बन जाएगी?”
इमरान ने उसके कंधे पर हाथ रखा, “गीत भी सुना देंगे, शोर भी। पर पहले बात होगी—सबके साथ। आज नहीं तो कल।”
सरोज ने आकर बेटे के सिर पर हाथ फेरा, “आज तो तूने बैग बचाया। कल घर बचा लेंगे। शहर है हमारा—माथे का तिलक। कोई मिटाने आये तो हम भी रंग घिसेंगे।”

आसमान पर चिड़ियाँ झुंड बनाकर लौट रही थीं। रोशनी धीरे-धीरे नीली हो रही थी—जैसे पानी ने शाम को पी लिया हो। घाट की सीढ़ियों पर चिपका हुआ पीला काग़ज़ हवा में फड़फड़ा रहा था—हर फड़फड़ाहट शहर की धड़कन को याद दिलाती: सात… छह… पाँच…
और वीडियो की दुनिया में—कल्लू के तुक, राधा की मुस्कान, राघव की नाव—सब अपलोड हो चुका था। टिप्पणियाँ आने लगीं: “क्या नज़ारा है!”… “रिवरफ़्रंट चाहिए, पर लोगों को न हटाओ!”… “घाट का हीरो!”
गोपाल ने स्क्रीन राघव की तरफ़ किया, “देखो काका, तुम ट्रेंड कर रहे हो!”
राघव ने मोबाइल में अपना धुँधला चेहरा देखा—नदी की परछाईं जैसा। वह मुस्कुराया भी नहीं। बस इतना कहा, “ट्रेंड से पेट नहीं भरता, गोपाल। पर शायद आवाज़ दूर तक पहुँचे।”

रात ने नदी पर चाँद का सिक्का रख दिया था। सिक्के के नीचे उठती लहरों की आवाज़ में किसी ने धीमे से कहा—शायद शहर ने खुद से—“कल क्या होगा?”
और नदी ने जवाब नहीं दिया। उसने बस दिया उठाया—थोड़ा आगे, फिर थोड़ा और आगे—कि कोई किनारा मिल सके।

यदि आप चाहें, मैं इसी टोन/आर्क में आगे के एपिसोड क्रमशः लिखता जाऊँ—हर एक ~1000 शब्द, त्योहारों/घटनाओं के फ्रेम में, छोटे क्लिफ़हैंगर्स और भावनात्मक पेऑफ़ के साथ।

मथुरा में होली किसी त्योहार से ज़्यादा एक नाटक है, जहाँ रंग ही कहानी सुनाते हैं। गलियों में जैसे ही गुलाल की पहली परत उड़ती है, पूरा शहर मानो रंग के धागों से सिल दिया जाता है। उस सुबह राधा ने दुकान पर आटे-चीनी की डलिया सजाई ही थी कि पास से हँसी-ठिठोली की आवाज़ आई—“अरे रंग बरसे, भइया!”
गोपाल सिर से पाँव तक पीला-गुलाबी हो चुका था, मोबाइल फिर से ऊँचा करके भाग रहा था, “लाइव होली, लाइव होली! देखो हमारे मथुरा की गली!”

सरोज ने चाय की केतली ढँक दी। “रंग ज़रा बचाकर डालना, दुकान-धंधा भी है।”
“अम्मा,” कल्लू ने मुस्कराते हुए कहा, “होली में रंग नहीं उड़े तो किसके नाम की होली!” वह अपने ऑटो पर ही बैठा-बैठा रंग के गुब्बारे बाँध रहा था। “ग्राहक चाहे न चढ़े, पर गुब्बारे चढ़ेंगे।”
राघव नाव के रस्से में रंग की छींटें देखता रहा। उसकी आँखों में कहीं भारीपन था—पीले नोटिस की गिनती घटकर अब छः दिन रह गई थी। लेकिन माहौल की शोरगुल में उसका मन अकेला-सा बज रहा था।

इमरान करघे से लाए छोटे रंग-बिरंगे कपड़े बेच रहा था। उसकी उँगलियों से निकली नाज़ुक बेल-बूटियाँ अब होली के बाज़ार में गोटे के दाम पूछ रही थीं। “ले लो भइया, हाथ का काम है। गली सज जाएगी।”
एक ग्राहक ने भाव गिराते हुए कहा, “इतने में तो मशीन का पर्दा आ जाएगा।”
इमरान ने धीमे स्वर में कहा, “मशीन का पर्दा गली सजाता है, पर दिल नहीं।”

राधा ने अपना टोकरा खिसकाया। “पेड़े ले लो, मीठी होली बनाओ।” उसकी आवाज़ में वही चिर-परिचित चमक थी, पर भीतर चिंता का फंदा कसता जा रहा था। दुकान के ऊपर भी वही नोटिस चिपका था। वह ग्राहकों की हँसी में छिपकर आँकड़ा कर रही थी—आज कितनी बिक्री हो, ताकि कल की किश्त निकले।

इसी बीच विकास बाबू का काफ़िला गली में दाख़िल हुआ। सफ़ेद कुर्ता, गुलाबी गुलाल, हाथ में माइक। उनके साथ कुछ कार्यकर्ता नारे लगा रहे थे—“रिवरफ़्रंट बनेगा, मथुरा खिलेगा!”
लोग रंग फेंकते-फेंकते एक पल ठिठके। पंडित श्यामलाल सामने आ खड़े हुए। उनके चेहरे पर रंग था, पर माथे की लकीरें साफ़।
“बाबू,” उन्होंने ठंडे स्वर में कहा, “होली में भी आप नोटिस का रंग घोल लाए हैं? गली के गीत में इतना शोर क्यों मिला रहे?”
विकास बाबू मुस्कराए, “पंडित जी, त्योहार पर ही तो शहर को नयी राह दिखानी चाहिए। ये रिवरफ़्रंट किसी का घर उजाड़ने नहीं, बल्कि सबको उजियारा देने आया है। सोचो—साफ़ घाट, रोशनी, सैलानी, पैसा।”
भीड़ में से आवाज़ उठी, “और हम? हमारी दुकानें? हमारे घर?”

गोपाल ने मोबाइल और ऊँचा कर लिया। “ये सब लाइव है, सब सुन रहे हैं!”
भीड़ अब बँटी हुई थी—कुछ लोग विकास बाबू के वादों पर तालियाँ बजा रहे थे, कुछ गुस्से से सवाल फेंक रहे थे। रंग की जगह अब हवा में शब्दों के गोले उड़ रहे थे।
सरोज ने धीरे से कहा, “रंग तो सबके चेहरे पर समान चढ़ता है, पर बाबू लोग फर्क कर देते हैं—किसका रंग टिके, किसका धुल जाए।”

राधा की आँखें नम हुईं। उसने ग्राहकों से पैसे समेटते हुए मन ही मन सोचा—अगर दुकान चली गई तो माँ की दवाइयाँ कहाँ से आएँगी? भाई की पढ़ाई कैसे चलेगी?
राघव उसकी तरफ़ देखता रहा। दोनों की नज़रें मिलीं तो एक पल के लिए गली का शोर थमा। जैसे सब रंगों के बीच कोई अदृश्य धागा खिंच गया हो।
“डर मत, राधा,” उसने धीमे से कहा। “नदी हमारी भी है। लड़ेंगे भी हम।”
राधा मुस्कुरा तो दी, पर उसकी मुस्कान का रंग फीका था।

कल्लू ने अचानक नारा लगाया, “जो मथुरा का है, वही टिकेगा!”
भीड़ एक पल चौंकी, फिर कई गले गूँज उठे। रंगों की बौछार अब नारों में बदल गई। विकास बाबू के चेहरे पर तनाव की रेखा उभरी। उन्होंने कार्यकर्ताओं को इशारा किया और जुलूस धीरे-धीरे गली से निकल गया।

लेकिन उनके जाते ही नंदलाल सेठ ने पास खड़े आदमी से फुसफुसाकर कहा, “जो लोग जितना चिल्ला रहे हैं, बाद में उतना ही सस्ता मान जाएंगे। बस थोड़े दबाव की देर है।” उनकी आँखों में वही गणित झलक रहा था।

दोपहर ढलते-ढलते गली में फिर से होली का शोर लौट आया। बच्चे पिचकारियों से दौड़ते रहे, ढोलकें गूँजती रहीं। मगर हर दिल में कहीं-न-कहीं वही डर बैठा था—“छः दिन…”

शाम को घाट पर रंगों का अंतिम खेल हुआ। यमुना के किनारे दीयों के साथ गुलाल की परछाइयाँ तैर रही थीं। राघव नाव पर बैठा लंबी साँसें ले रहा था। उसकी हथेलियों में रंग घुला था, पर मन में अँधेरा।
इमरान उसके पास बैठा, “देख, शहर का रंग कितनी जल्दी बदल जाता है। पर करघे का धागा अगर मजबूत हो, तो कढ़ाई बनी रहती है। हमें भी धागा कसकर पकड़ना होगा।”
राघव ने सिर हिलाया, “हाँ, वरना नदी की नाव भी किसी ठेकेदार की हो जाएगी।”

राधा दूर से सुन रही थी। उसके मन में पहली बार उम्मीद का हल्का रंग उठा—शायद मिलकर कुछ किया जा सकता है।
गोपाल मोबाइल घुमाकर बोला, “काका, आप फिर ट्रेंड कर रहे हो। देखो—‘घाट का हीरो’ के बाद अब ‘होली का सच’!”
राघव ने स्क्रीन पर नज़र डाली। लोग कमेंट कर रहे थे—“लोगों की आवाज़ दबाओ मत”… “सरकार और जनता में कौन जीतेगा?”
उसने एक गहरी साँस ली। “शायद अब हमारी आवाज़ वाकई दूर जा रही है।”

रात की हवा में गुलाल की गंध तैर रही थी। मंदिर की घंटियाँ अब भी बज रही थीं। और शहर की गली, जो सुबह रंगों से भरी थी, अब धीरे-धीरे ख़ामोश हो रही थी।
लेकिन ख़ामोशी के भीतर एक नया रंग पल रहा था—प्रतिरोध का।

सुबह-सुबह “ब्रज पेड़ा भंडार” की छोटी सी दुकान से घी और चीनी की गंध बाहर फैल रही थी। राधा ने लकड़ी की मेज़ पर ताज़ा पेड़े सजाए। उनके ऊपर कटी पिस्ता की बुरकनें ऐसे चमक रही थीं जैसे त्योहार की कोई सजावट। पर राधा की आँखों में आज कुछ और ही रंग था—चिंता का। नोटिस का दिन अब घटकर पाँच रह गया था। दुकान बची तो कर्ज़ का बोझ, दुकान गई तो पेट का बोझ।

सरोज वहीं पास बैठी थी, चाय के कुल्हड़ धोते हुए। “बिटिया, पेड़े जितने मीठे हैं, मन उतना कड़वा क्यों है?”
राधा ने जबरन मुस्कुराकर कहा, “अम्मा, मीठा तो बेचने के लिए है। घर की कड़वाहट ग्राहक नहीं खरीदते।”

इतने में कल्लू ऑटो से उतरकर बोला, “अरे बहन, दो पेड़े दे दो। सुबह से पेट्रोल का मीटर ही पी रहा हूँ।”
राधा ने पेड़ा थमाते हुए कहा, “भइया, तुमसे उधार और नहीं चलेगा। खाता पूरा हो गया है।”
कल्लू ने चुटकी ली, “उधार में ही तो असली स्वाद है।”
राधा ने आँखें तरेरी, “स्वाद नहीं, जहर है। उधार का बोझ नींद छीन लेता है।”

इसी बीच दुकान पर बैंक का क्लर्क पहुँचा। चेहरे पर हँसी, पर आवाज़ में कठोरता।
“बहन जी, किश्त पिछली बार भी लेट हो गयी थी। इस बार भी चूकी तो अकाउंट सीज़ हो सकता है। और आप जानती हैं, दुकान पर जो गिरवी रखा है…”
राधा का दिल धक् से रह गया। “भइया, इस बार होली में कुछ कमाई हुई है। दो दिन दीजिए, मैं भर दूँगी।”
क्लर्क ने सिर हिलाया, “देख लीजिए। वरना नोटिस से पहले ही दुकान चली जाएगी।”

बात वहीं से गोपाल के कानों में पड़ी। वह मोबाइल लेकर कूद पड़ा, “बहन जी, आप लाइव में बोलो न। लोग देखेंगे, शेयर करेंगे। सबको पता चलेगा कि छोटे दुकानदारों पर कितना बोझ है।”
राधा ने गुस्से से कहा, “गोपाल, हर बात लाइव नहीं होती। कर्ज़ की बात तो घर की चारदीवारी में भी भारी लगती है।”

राघव घाट से लौटा। हाथ में नाव की रस्सी थी और माथे पर पसीना। उसने राधा की आँखों का बोझ पढ़ लिया।
“क्या हुआ?”
राधा ने कुछ नहीं कहा। बस पेड़े के डिब्बे पर अंगुलियाँ फिराने लगी।
सरोज ने धीरे से बताया, “बैंक वाले फिर आ गये थे।”
राघव ने दाँत भींचे, “ये बैंक वाले और बिल्डर एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। सबको पता है, नदी किनारे से दुकानें हटेंगी तो उनकी जेब भरेगी।”

इमरान भी आ पहुँचा। उसके हाथ में बुनाई का एक दुपट्टा था। “राधा बहन, देखो ये नया डिज़ाइन। सोचा तुम्हारे पेड़े के साथ बेच दूँ। मिठास और रंग, दोनों साथ।”
राधा ने मुस्कुरा दिया, पर मुस्कान आँख तक न पहुँची।
“इमरान भइया, मिठास बिक जाती है, कर्ज़ नहीं। मेरा तो लगता है इस बार दुकान चली जाएगी।”
इमरान ने कहा, “दुकान जाएगी तो क्या हुआ? दुकान तुम्हारा हुनर नहीं ले जा सकती। पेड़ा तुम्हारे हाथों का है, दुकान की दीवारों का नहीं।”

इसी बीच विकास बाबू अपने लोगों के साथ आए। गली में पोस्टर चिपकाए जा रहे थे—रिवरफ़्रंट: नया मथुरा, नयी पहचान”
उन्होंने राधा की दुकान के सामने खड़े होकर कहा, “राधा बिटिया, तुम्हारी मिठाई तो मशहूर है। सोचो, नया घाट बनेगा तो दिल्ली, मुंबई से कितने सैलानी आयेंगे। तुम्हारा व्यापार चार गुना बढ़ेगा।”
राधा ने ठंडे स्वर में कहा, “बढ़ेगा तब, जब दुकान रहेगी। दुकान गई तो मिठाई कहाँ बनेगी?”
भीड़ में कुछ लोग हँसे, कुछ ने ताली बजाई।

सरोज ने कटाक्ष किया, “बाबू, पेट की आग बुझाने के लिए घर चाहिए, दुकान चाहिए। केवल वादे से चूल्हा नहीं जलता।”
विकास बाबू ने माहिर मुस्कान ओढ़ी, “अम्मा, देख लेना। शहर चमकेगा तो आप भी गर्व करेंगी।”
फिर उन्होंने अपने साथियों से कहा, “लिस्ट बनाओ, किसकी दुकान कहाँ शिफ़्ट होगी।”

भीड़ के बीच नंदलाल सेठ चुपचाप खड़ा था। उसकी आँखें सीधे दुकान की छत और तख्ते नाप रही थीं—मानो वह पहले से ही मोल-भाव कर रहा हो।

शाम होते-होते राधा ने दुकान समेटी। ग्राहकों से कमाई तो हुई, पर नोटिस की छाया हर पैसे पर भारी थी। उसने अपने बैग से खाता-बही निकाली। पन्नों पर फैली उधारी किसी काले धब्बे जैसी थी।
उसने सरोज से कहा, “अम्मा, मीठा बेचते-बेचते ज़िंदगी कड़वी हो गयी है।”
सरोज ने उसके सिर पर हाथ फेरा, “कड़वाहट भी पच जाती है, बिटिया। बस साथ चाहिए।”

राघव ने खामोशी तोड़ी। “राधा, मैं कल तुम्हारे साथ बैंक चलूँगा। देखेंगे कितना कर्ज़ है और कैसे उतरेगा। जब तक हम साथ खड़े हैं, कोई दुकान नहीं ले जाएगा।”
राधा ने पहली बार राहत की साँस ली।
इमरान ने भी कहा, “और मैं भी आऊँगा। बैंकवाले से कहूँगा कि मथुरा की मिठाई और मथुरा की बुनाई, दोनों यहाँ की जान हैं। इन्हें हटाया तो पूरा शहर खाली हो जाएगा।”

गोपाल ने मोबाइल उठाकर बोला, “काका, ये सब मैं रिकॉर्ड कर लूँ? दुनिया को बताऊँ कि हमारे शहर की मिठास पर भी नोटिस लग गया है।”
राधा ने हल्की हँसी दी, “गोपाल, मिठास कैमरे में नहीं, स्वाद में होती है। मगर अगर तुम्हारी आवाज़ सच फैला सके तो करो।”

रात को जब दुकान का ताला बंद हुआ, राधा ने आसमान की ओर देखा। चाँद की रौशनी में गली जैसे फीकी लग रही थी। पर मन में कहीं उम्मीद की छोटी लौ जल रही थी।
“शायद,” उसने मन ही मन कहा, “मीठा सच कड़वे कर्ज़ को भी हरा सकता है।”

गली में ढोलक की धुन अब थम चुकी थी। लोग अपने-अपने घर लौट रहे थे। पर हर घर के भीतर वही सवाल गूँज रहा था—पाँच दिन…”

और यमुना का पानी, अपने किनारों से टकराता हुआ, मानो धीरे-धीरे कह रहा था—
“मीठा भी मैं बहा ले जाऊँगी, कड़वा भी। पर आवाज़ अगर एक हुई, तो लहरें रुक जाएँगी।”

सुबह का सूरज गली के संकरे मोड़ों पर सुनहरी धागों जैसा बिखरा था। उस रोशनी के बीच इमरान की हथकरघे वाली कोठरी से टक-टक-टक की आवाज़ गूँज रही थी। वही आवाज़, जो उसके दादा के जमाने से चली आ रही थी—करघे की थाप, जैसे यमुना की लहरें। पर अब इस आवाज़ में बेचैनी घुली हुई थी।

इमरान का बेटा आरिफ़ पास बैठा था, किताब खोले हुए। पर उसकी नज़र शब्दों पर नहीं, करघे के धागों पर अटकी थी।
“अब्बा, ये करघा हम क्यों चला रहे हैं? सब लोग तो मशीन से कपड़ा बना रहे हैं। उसमें मेहनत भी कम, दाम भी ज्यादा।”
इमरान ने एक पल रुककर बेटे को देखा। “बेटा, मशीन कपड़ा बनाती है। पर ये करघा कहानी सुनाता है। हर धागे में किसी का हाथ, किसी का पसीना, किसी का दिल जुड़ा होता है।”
आरिफ़ ने मासूमियत से कहा, “लेकिन अब्बा, कहानी से पेट नहीं भरता।”
इमरान चुप हो गया। उसके मन में एक काँपती-सी बात उठी—क्या सचमुच करघे की कहानी अब खत्म होने वाली है?

गली से बाहर हल्ला सुनाई दिया। कल्लू ऑटो में तीन सैलानियों को घुमा रहा था। वह जोर-जोर से उन्हें समझा रहा था, “देखिए साहब, ये जो आवाज़ आ रही है, ये मथुरा का दिल है। ये करघा अगर बंद हो गया तो समझो शहर ने अपनी धड़कन खो दी।”
सैलानी हँसे, फोटो खींचे। एक बोला, “इतना पुराना है, पर सरकार सपोर्ट क्यों नहीं करती?”
कल्लू ने दार्शनिक अंदाज़ में कहा, “सरकार को आवाज़ सुनाई नहीं देती, उसे सिर्फ़ नोटों की खनक सुनाई देती है।”

इमरान को यह सुनाई दिया। उसके होंठों पर हल्की मुस्कान आई, पर आँखें गीली थीं।

राधा दुकान से कुछ पेड़े लेकर आई। “भइया, सुबह से करघे पर बैठे हो। थोड़ा मीठा खा लो।”
इमरान ने पेड़ा तो लिया, पर बोला, “राधा बहन, मीठा पेट भर देता है, पर कर्ज़ का खट्टापन दिल में रह जाता है। तुम तो जानती हो।”
राधा ने सिर झुका लिया। दोनों की आँखों में वही साझा दर्द चमका—कर्ज़ और उजड़ने का डर।

दोपहर को पंडित श्यामलाल आए। उन्होंने इमरान के करघे को देखा और कहा, “ये धागे तो मंदिर के झंडों जैसे हैं। इन्हें काटोगे तो शहर की पहचान कट जाएगी।”
इमरान ने गहरी साँस ली, “पंडित जी, पहचान बचाने के लिए रोज़ का खर्च भी चाहिए। ग्राहक अब मशीन वाला कपड़ा पसंद करते हैं। सस्ता है, टिकाऊ नहीं है, पर भीड़ उसी पर टूटती है।”
पंडित श्यामलाल ने आँखें मूँदकर कहा, “परंपरा की लौ धीमी हो सकती है, पर बुझनी नहीं चाहिए।”

उसी वक्त विकास बाबू गली में आए। उनके साथ नंदलाल सेठ भी था। दोनों ने करघे के ढेर को गौर से देखा।
“इमरान भाई,” विकास बाबू ने कहा, “तुम्हारा हुनर काबिल-ए-तारीफ़ है। पर सोचो, नया रिवरफ़्रंट बनेगा तो तुम्हारे करघे को प्रदर्शनी में जगह देंगे। सैलानी देखेंगे, खरीदेंगे, तुम्हारा नाम अखबार में छपेगा।”
इमरान ने ठंडी हँसी दी, “नाम छपने से घर का राशन नहीं आता, बाबू।”
नंदलाल सेठ ने जोड़ते हुए कहा, “देखो, समझौता ही करना पड़ेगा। वरना करघा भी जाएगा और कोठरी भी।”
भीड़ में सन्नाटा फैल गया।

गोपाल वहीं खड़ा था। उसने मोबाइल ऑन कर रखा था। “इमरान काका, आप बोलो न। ये लाइव है। लोग देखेंगे, आपके लिए आवाज़ उठाएँगे।”
इमरान ने कैमरे की ओर देखा। उसकी आँखों में थकान थी, पर स्वर दृढ़।
“ये करघा मेरा नहीं है। ये शहर का है। अगर इसे मशीन की तरह दबा दिया गया, तो मथुरा के रंग भी मशीन के हो जाएँगे। और मशीन का रंग कभी टिकता नहीं।”

वीडियो तुरंत वायरल होने लगा। कमेंट आने लगे—“सेव द हैंडलूम”… “सरकार ध्यान दो”… “ये परंपरा है, इसे बचाओ।”
राधा ने धीरे से कहा, “देखा भइया, आवाज़ अब सिर्फ़ गली में नहीं, बाहर भी गूँज रही है।”
इमरान ने गहरी साँस ली, “हाँ बहन, पर गूँज से पहले चूल्हे की आग चाहिए।”

शाम को इमरान ने करघे से एक नया दुपट्टा निकाला। उस पर कशीदाकारी ऐसे चमक रही थी जैसे यमुना पर चाँदनी। उसने राधा की ओर बढ़ाते हुए कहा, “ये ले लो। जब बैंक जाओ तो इसे साथ रखना। कह देना, ये गारंटी है—मथुरा की परंपरा की।”
राधा की आँखें भर आईं। “भइया, गारंटी तो सिर्फ़ साथ देने की होती है। बाकी सब वक्त के भरोसे है।”

राघव भी आ गया। उसने करघे को छुआ और बोला, “ये आवाज़ नाव की तरह है। अगर बंद हो गई तो नदी सूनी लगेगी।”
इमरान ने सिर हिलाया, “नदी और करघा, दोनों का गीत बचाना होगा।”

रात गहराने लगी। करघे की टक-टक अब धीमी पड़ चुकी थी। बाहर गली में अँधेरा था, पर करघे की आवाज़ अब भी किसी धड़कन की तरह बज रही थी—धीरे, पर ज़िद्दी।
और दीवार पर चिपका पीला नोटिस हवा में फड़फड़ा रहा था—पाँच… चार…”

इमरान खिड़की से बाहर देख रहा था। उसके होंठों पर बुदबुदाहट थी—
“जब तक धागा टूटेगा नहीं, बुनाई ज़िंदा रहेगी।”

कल्लू का ऑटो गली का चलता-फिरता न्यूज़रूम था। जिसकी भी बात करनी हो, जो भी खबर सुननी हो—सब कल्लू के ऑटो में बैठते ही शुरू हो जाती। सुबह की पहली रोशनी के साथ उसका हरे रंग का ऑटो “जय मथुरा” लिखा हुआ छतरी तले खड़ा था। हैंडल से बंधी घंटी बजाकर उसने आवाज़ लगाई—“आओ भइया, आओ बहन, मथुरा घूम लो, और कल्लू से खबर सुन लो!”

पहली सवारी तीन कॉलेज के लड़के थे। एक ने सीट पर बैठते ही पूछा, “भइया, नोटिस वाली बात सच है क्या? घाट तोड़ देंगे?”
कल्लू ने ऑटो स्टार्ट किया और मुस्कराया, “साहब, यहाँ हर बात आधी सच, आधी अफवाह होती है। लेकिन इस बार अफवाह में भी सरकार का ठप्पा है।”
दूसरा लड़का बोला, “तो लोग कर क्या रहे हैं?”
कल्लू ने घुमावदार अंदाज़ में जवाब दिया, “लोग रंग खेल रहे हैं, मिठाई खा रहे हैं, करघा चला रहे हैं। और बीच-बीच में डर भी पी रहे हैं।”
तीनों लड़के चुप हो गये। ऑटो के झटकों के साथ उनकी हँसी भी थम गयी।

कल्लू ने मन ही मन सोचा—शहर का दर्द भी कभी-कभी ऑटो की स्पीड की तरह होता है, जितना तेज़ करो उतना झटका।

रास्ते में राधा खड़ी मिली। उसके हाथ में पेड़े की टोकरी थी।
“भइया, स्टेशन तक छोड़ दोगे? कुछ पैकेट भेजने हैं।”
“बैठो बिटिया, तुम्हारे बिना तो ऑटो भी बेसुरा लगता है।”
राधा हँसी, पर हँसी के पीछे चिंता की परत छिपी थी।
सवारियों ने कानाफूसी की—“ये वही दुकान वाली हैं न? जिन पर बैंक का कर्ज़ है?”
कल्लू ने तुरंत टोका, “हाँ हैं। लेकिन याद रखो, मथुरा के पेड़े सिर्फ़ स्वाद नहीं, इज़्ज़त भी हैं।”

ऑटो स्टेशन की तरफ़ चला तो इमरान भी रास्ते में मिल गया। हाथ में दुपट्टे का गठ्ठर था।
“कल्लू भाई, मुझे भी बैठा लो। बाजार तक जाना है।”
“आओ इमरान मियाँ, आज तो मेरा ऑटो शहर का पूरा परिवार ढो रहा है।”
राधा ने मुस्कुराकर कहा, “भइया, तुम सच में शहर की धड़कन हो।”
कल्लू ने मज़ाक में कहा, “धड़कन तो है, पर कभी-कभी पेट्रोल महंगा पड़ जाता है।”

स्टेशन पहुँचते ही कुछ पर्यटक ऑटो में चढ़ गये। एक बुज़ुर्ग महिला बोली, “बेटा, हमें मंदिर ले चलो। रास्ते में बताना भी, शहर कैसा है।”
कल्लू ने हँसते हुए कहा, “माँ जी, मंदिर तक तो भगवान ले जाएँगे। लेकिन रास्ते की कहानी मैं सुनाऊँगा।”
उसने पूरे रास्ते किस्से सुनाए—किस गली में किस कवि ने राधा-कृष्ण पर पद लिखे, किस मोड़ पर पहली बार होली का रंग खेला गया।
बुज़ुर्ग महिला ने आशीर्वाद दिया, “बेटा, तू इस शहर की आत्मा है।”

पर ऑटो के भीतर हर बात सिर्फ़ हँसी-ठिठोली की नहीं थी। जब लोग नोटिस की चर्चा छेड़ते, कल्लू का चेहरा गंभीर हो जाता।
“देखो,” उसने कहा, “शहर बदलना बुरा नहीं है। लेकिन अगर बदलाव से लोग ही उजड़ जाएँ तो क्या बचेगा? मंदिर की आरती कौन करेगा, पेड़े कौन बेचेगा, करघा कौन चलाएगा?”
उसके शब्द सुनकर सन्नाटा छा जाता।

शाम को ऑटो घाट के पास पहुँचा। वहाँ विकास बाबू की सभा लगी थी। लाउडस्पीकर से नारे गूँज रहे थे—“रिवरफ़्रंट ही भविष्य है!”
कल्लू ने ऑटो रोका और यात्रियों से कहा, “लो साहब, ये है शहर का नया तमाशा। यहाँ वादे बिकते हैं, पर गारंटी नहीं।”
भीड़ में गोपाल भी घूम रहा था, मोबाइल ऊँचा किए हुए। “लाइव-लाइव! देखो, कल्लू भइया भी आ गये हैं!”
कल्लू ने मज़ाक किया, “गोपाल, तू एक दिन मेरा भी इंटरव्यू ले ले। फिर बता देना—ऑटो में भी संसद चलती है।”

सभा खत्म हुई तो भीड़ छँटने लगी। विकास बाबू ने कल्लू को देखकर हाथ हिलाया, “कल्लू भाई, तुम्हारा ऑटो भी रिवरफ़्रंट पर चमकेगा। नए रूट, नए ग्राहक।”
कल्लू ने आँखें तरेरीं, “बाबू, ऑटो चमकता नहीं है। पेट्रोल से चलता है, और पेट्रोल जनता के खून-पसीने से आता है। अगर जनता को ही हटाओगे तो मेरे ऑटो में कौन बैठेगा?”
विकास बाबू ने होंठ भींच लिए। जवाब न देकर आगे बढ़ गये।

रात को जब कल्लू ने ऑटो घर के सामने खड़ा किया, उसने थकान से लंबी साँस ली।
उसकी बूढ़ी माँ दरवाज़े पर खड़ी बोली, “बेटा, आज फिर देर हो गयी। खाना ठंडा हो गया है।”
कल्लू ने मुस्कुराकर कहा, “अम्मा, शहर की खबरें गरम थीं, इसलिए देर हो गयी।”
माँ ने सिर हिलाया, “बेटा, खबरें पेट नहीं भरतीं।”

कल्लू बिस्तर पर लेट गया। उसे पूरे दिन की बातें याद आईं—राधा की चिंता, इमरान की बुनाई, विकास बाबू की सभा, गोपाल का कैमरा।
उसने सोचा, “क्या होगा इस शहर का? अगर लोग चुप रहे तो नोटिस सबके सिर पर ताला बन जाएगा। पर अगर बोल पड़े तो शायद…”

नींद से पहले उसने ठान लिया—कल अपने ऑटो पर एक तख्ती लगाएगा:
ऑटो में बैठो, शहर की सच्चाई सुनो।”

बाहर सड़क पर हवा चल रही थी। और दीवार पर चिपका नोटिस अब भी फड़फड़ा रहा था—
चार… तीन…”

शहर की गलियों में पूरे हफ़्ते से जो हलचल थी, वह आज एक बिंदु पर आकर फूटने वाली थी। नगरपालिका ने शाम को बड़े मैदान में “जनसभा” बुलायी थी। आधिकारिक रूप से यह सभा रिवरफ़्रंट प्रोजेक्ट पर जनता की राय सुनने के लिए थी, पर असल में सब जानते थे कि यह सिर्फ़ औपचारिकता है।

सुबह से ही पोस्टर चिपकाए जा रहे थे—“नया मथुरा, उज्जवल भविष्य।” ढोल-नगाड़े बजते रहे, कार्यकर्ता लोगों को सभा में आने का निमंत्रण देते घूमते रहे। गोपाल ने मोबाइल निकालकर लाइव कर दिया, “दोस्तों, आज का दिन ऐतिहासिक है। देखो—पूरा शहर यहाँ इकट्ठा होगा। और हम सब मिलकर सरकार से पूछेंगे—‘हमारा घर कहाँ जाएगा?’”

राधा ने दुकान जल्दी समेट ली। उसके मन में घबराहट थी, पर उसने सोचा—“अगर आज नहीं गई, तो शायद आवाज़ कभी नहीं उठेगी।” उसने सरोज का हाथ पकड़ा और बोली, “अम्मा, चलो। हमारी मिठास भी आज सच बोलेगी।”

इमरान ने भी करघे की कोठरी बंद की। उसकी आँखों में थकान थी, पर होंठों पर दृढ़ता। “धागा कटने से पहले, आवाज़ बजनी चाहिए।” वह अपने बेटे आरिफ़ को साथ लेकर सभा की ओर बढ़ा।

कल्लू ने ऑटो में दर्जनभर लोगों को बैठा लिया। हँसी-ठिठोली में उसने कहा, “आज मेरा ऑटो संसद है, सब लोग बहस करो। पर एक शर्त है—किराया बाद में देना।” सब लोग हँस पड़े।

मैदान में शाम तक हज़ारों लोग जमा हो चुके थे। सामने एक ऊँचा मंच बना था, जिस पर बड़े-बड़े बैनर लगे थे—“रिवरफ़्रंट: स्वच्छ, सुरक्षित, समृद्ध।” मंच पर कुर्सियाँ सजाकर रखी गईं। बीच में विकास बाबू, उनके बगल में नंदलाल सेठ, और पीछे पुलिसकर्मी।

सभा की शुरुआत मंदिर के शंखनाद से हुई। पंडित श्यामलाल मंच पर आए और गंभीर स्वर में बोले, “यह शहर कृष्ण की नगरी है। यहाँ हर ईंट, हर गली, हर घाट इतिहास की आवाज़ है। अगर आप इन्हें मिटा देंगे, तो सिर्फ़ इमारतें बचेंगी, आत्मा नहीं।” भीड़ ने तालियाँ बजाईं।

फिर विकास बाबू माइक पर आए। उनका चेहरा आत्मविश्वास से भरा था।
“भाइयों-बहनों, ये प्रोजेक्ट आपके भले के लिए है। सोचो—कितनी साफ़-सुथरी जगह होगी, कितने पर्यटक आएँगे, कितनी नौकरियाँ बनेंगी। आप सबकी ज़िंदगी बदल जाएगी।”
भीड़ में से आवाज़ उठी—“बदलेगी तो सही, पर घर कहाँ होगा? दुकान कहाँ होगी?”
विकास बाबू ने हँसकर कहा, “उसकी व्यवस्था की जाएगी। सरकार सबकी सुन रही है।”

इमरान ने आगे बढ़कर पूछा, “सुन रही है या लिख रही है? हमारी कोठरियों का क्या होगा? करघे कहाँ रखेंगे?”
विकास बाबू ने जवाब टालते हुए कहा, “भाई, परंपरा की जगह हमेशा रहेगी। पर आधुनिकता भी चाहिए।”
भीड़ से हूटिंग हुई।

राधा ने हिम्मत करके मंच के पास जाकर कहा, “बाबू, मीठाई की दुकान कोई मशीन से नहीं चलती। हमारी पहचान ही यही है। अगर दुकान उजड़ गई तो हम कहाँ जाएंगे?”
विकास बाबू ने उसे समझाने वाले लहज़े में कहा, “बिटिया, तुम्हारा हुनर इतना है कि कहीं भी दुकान चलेगी।”
राधा ने पलटकर कहा, “लेकिन ग्राहक वहीं आता है जहाँ पहचान होती है। हमारी दुकान सिर्फ़ दीवार नहीं है, हमारे घर का सहारा है।”
भीड़ ने उसका समर्थन किया—“सही कहा! सही कहा!”

कल्लू ने ऑटो वहीं खड़ा करके माइक पकड़ लिया। उसकी आवाज़ तेज़ थी, तंज़ से भरी।
“बाबू, आप कहते हैं नौकरियाँ बनेंगी। पर किसके लिए? जो लोग पहले से यहाँ मेहनत कर रहे हैं, उनके लिए कोई गारंटी है? या फिर नौकरियाँ सिर्फ़ उन ठेकेदारों और दलालों के लिए होंगी, जो आपकी जेब भरेंगे?”
लोग हँसने लगे, तालियाँ पड़ीं। विकास बाबू का चेहरा तमतमा गया।

नंदलाल सेठ ने माइक लिया। उसकी आवाज़ सख़्त थी।
“देखो भाइयों-बहनों, प्रगति के लिए कुर्बानी देनी पड़ती है। थोड़ी बहुत जगह छूटेगी, तो क्या हुआ? नया शहर बनेगा।”
भीड़ से गुस्से की आवाज़ गूँजी, “हम कुर्बानी नहीं देंगे!”

अचानक एक हलचल हुई। मंच के बगल में लगा टीन-शेड हवा के झोंके से गिर पड़ा। भीड़ में भगदड़ मच गई। बच्चे चीखने लगे, औरतें इधर-उधर भागीं।
गोपाल ने मोबाइल से सब रिकॉर्ड किया। उसकी साँसें तेज़ थीं, पर हाथ काँपते हुए भी उसने लाइव नहीं बंद किया।
“दोस्तों, देखो! यहाँ जनसभा में शेड गिर गया! ये है सरकार की तैयारी!”

पुलिसवालों ने भीड़ सँभालने की कोशिश की। विकास बाबू ने माइक पर चिल्लाकर कहा, “शांति रखो! यह तो छोटा हादसा है। प्रोजेक्ट को लेकर अफवाह मत फैलाओ।”
पर भीड़ का गुस्सा और भड़क गया। किसी ने चिल्लाकर कहा, “अगर सभा का शेड नहीं संभलता, तो रिवरफ़्रंट कैसे संभलेगा?”

इमरान ने बेटे को कसकर पकड़ लिया। राधा ने सरोज को भीड़ से बाहर निकाला। कल्लू ने ऑटो को आगे बढ़ाकर बच्चों और औरतों को उसमें बिठाया।
“आओ, पहले जान बचाओ!” वह चिल्लाया।

आधे घंटे में भगदड़ थम गई। पर मैदान में गुस्से का लावा अब भी खौल रहा था। लोग एक-दूसरे से कह रहे थे, “अब बहुत हो गया। अगर हमने आवाज़ नहीं उठाई तो सब खत्म हो जाएगा।”

शाम ढलने लगी। लोग मैदान से लौट रहे थे, पर उनके चेहरों पर अब डर से ज्यादा गुस्सा था।
राधा ने कहा, “आज सबने देखा। सरकार सिर्फ़ वादे करती है, पर हमें गिरते शेड की तरह अकेला छोड़ देती है।”
इमरान ने सिर हिलाया, “हाँ बहन। अब आवाज़ तेज़ करनी होगी।”
कल्लू ने दाँत पीसते हुए कहा, “कल से मेरा ऑटो सिर्फ़ सवारी नहीं ढोएगा। ये विरोध की गाड़ी बनेगा।”

गोपाल मोबाइल पकड़े मुस्कुरा रहा था। “काका, आज का लाइव दस हज़ार लोगों ने देखा! लोग कह रहे हैं—‘मथुरा की आवाज़ दबने नहीं देंगे।’”
राघव, जो अब तक चुप था, बोला, “लहरें अब उठ रही हैं। लेकिन संभलकर चलना होगा। नदी की तरह—धीरे-धीरे, पर गहराई से।”

मैदान खाली हो गया। सिर्फ़ टूटा हुआ टीन-शेड पड़ा था—जैसे चेतावनी। दीवार पर लगा पीला नोटिस हवा में फड़फड़ा रहा था—
तीन… दो…”

और दूर यमुना की धारा में जैसे हल्की गड़गड़ाहट उठ रही थी—मानो वह भी कह रही हो, “अब चुप मत रहो।”

जनसभा के अगले दिन सुबह घाट पर अजीब-सी ख़ामोशी थी। कल की भगदड़ और गुस्से के बाद लोग अब भी सहमे हुए थे। दुकानों के शटर आधे उठे थे, करघों की आवाज़ धीमी थी। राधा ने पेड़ों का टोकरा सजाया, पर उसकी आँखें इधर-उधर किसी को ढूँढ रही थीं।

“गोपाल दिखा क्या?” उसने कल्लू से पूछा।
कल्लू ने ऑटो का दरवाज़ा बंद किया, “नहीं बिटिया। कल रात तक तो उसके हाथ में मोबाइल था। भीड़ में भागा, फिर नज़र नहीं आया। शायद घर चला गया हो।”
राधा ने सिर हिलाया, “घर भी नहीं पहुँचा। उसकी माँ सुबह से रो रही है।”

इमरान ने चिंतित स्वर में कहा, “बच्चा है। इस शोर-शराबे में कहीं भटक गया होगा।”
राघव ने गंभीर आवाज़ में कहा, “भटकना एक बात है, लापता होना दूसरी। कल के लाइव वीडियो के बाद बहुत लोग नाराज़ थे। हो सकता है…” उसकी बात अधूरी रह गई।

सरोज ने घबराकर कहा, “हे कृष्ण, बच्चे को कुछ न हो। वह तो बस खेल-खेल में सब रिकॉर्ड करता था।”

भीड़ धीरे-धीरे इकट्ठा होने लगी। गोपाल की माँ, फटी साड़ी में, आँसू पोंछते हुए आई। “मेरे लाल को ढूँढ दो। रात से पता नहीं कहाँ है। मोबाइल भी बंद है।”
भीड़ में सन्नाटा छा गया।

कल्लू ने तुरंत ऑटो चालू किया, “चलो, पहले थाने चलते हैं।”
इमरान बोला, “हाँ, रिपोर्ट लिखवाना ज़रूरी है।”
राधा ने टोकरा समेटा और बोली, “मैं भी चलूँगी। वो हर दिन मेरी दुकान पर बैठता था। जैसे मेरा छोटा भाई।”

थाने पहुँचकर सबने पुलिस को जानकारी दी। इंस्पेक्टर ने ऊबते हुए कहा, “बच्चा होगा, कहीं खेल रहा होगा। बड़ी बात मत बनाओ।”
राघव ने गुस्से से कहा, “साहब, वो बच्चा है, पर उसका मोबाइल सब देख रहा था। शायद इसी वजह से ग़ायब हुआ है।”
इंस्पेक्टर ने भौंहें चढ़ाईं, “तुम लोग हर बात राजनीति से जोड़ देते हो। हम देखेंगे। जाओ।”

निराश होकर सब बाहर निकले। कल्लू ने दाँत भींचे, “पुलिस भी नोटिस की तरह है—हवा में लटकती, पर किसी काम की नहीं।”
राधा ने कहा, “तो अब क्या करें?”
इमरान बोला, “खुद ढूँढेंगे। गली-गली, घाट-घाट।”

शाम तक सब अलग-अलग दिशाओं में तलाश करते रहे। कोई मंदिरों में पूछता, कोई बाजार में। पर कहीं पता नहीं चला।
गोपाल की माँ दरवाज़े पर बैठी रोती रही, “उसकी हँसी के बिना घर अँधेरा है।”

रात होते-होते लोगों का धैर्य टूटने लगा। तभी राघव को याद आया—“उसका मोबाइल! अगर बंद है तो आख़िरी लोकेशन देखी जा सकती है।”
आरिफ़, इमरान का बेटा, तकनीक में तेज़ था। उसने कहा, “मैं कोशिश करता हूँ।”
वह अपने फोन में ऐप से ट्रैक करने लगा। स्क्रीन पर आख़िरी लोकेशन दिखी—“पुराना गोदाम, यमुना किनारे।”

सबका दिल धक् से रह गया। वही जगह, जहाँ सेठ लोग सामान छिपाते थे और मजदूरों को धमकाकर रखते थे।
कल्लू ने कहा, “चलो सब, वहीं चलते हैं। पुलिस का इंतज़ार किया तो देर हो जाएगी।”

रात की ठंडी हवा में सब धीरे-धीरे गोदाम की ओर बढ़े। रास्ते में कुत्तों की भौंक, पेड़ों की सरसराहट और यमुना की गहरी आवाज़ सुनाई दे रही थी। राधा ने धीरे से कहा, “अगर गोपाल को कुछ हो गया तो?”
राघव ने उसका हाथ थाम लिया, “नदी की कसम, उसे कुछ नहीं होगा।”

गोदाम के पास पहुँचकर सब ठिठक गए। अंदर से हल्की रोशनी और फुसफुसाहट आ रही थी। नंदलाल सेठ की आवाज़ साफ़ थी—“उस बच्चे ने बहुत वीडियो बना लिया है। अगर बाहर गया तो सब बर्बाद हो जाएगा।”
राधा का दिल काँप गया। “हे भगवान, सचमुच उसी के कारण…”

अचानक कल्लू ने ज़ोर से कहा, “दरवाज़ा खोलो!”
भीतर खलबली मच गई। आवाज़ें थम गईं। फिर दरवाज़ा खुला और दो आदमी बाहर आए। हाथ में डंडे।
“कौन हो तुम लोग?”
राघव आगे बढ़ा, “हम मथुरा वाले हैं। हमारा बच्चा अंदर है। उसे छोड़ दो।”
आदमी ने गुर्राकर कहा, “यहाँ कोई बच्चा नहीं है। भागो यहाँ से।”

भीड़ गुस्से से गरज उठी। इमरान ने कहा, “झूठ मत बोलो। हमने लोकेशन देखी है।”
आदमी ने डंडा उठाया, पर उसी समय गोपाल की हल्की आवाज़ अंदर से आई—“काका!”

सब उछल पड़े। राघव ने ज़ोर से दरवाज़ा धक्का दिया। दरवाज़ा खुला और अंदर का नज़ारा सामने आया—गोपाल रस्सियों से बंधा, कोने में बैठा था। आँखों में डर, पर होंठों पर हिम्मत।
“मैं ठीक हूँ,” उसने धीमे से कहा, “उन्होंने मोबाइल छीन लिया।”

भीड़ ने हल्ला मचा दिया। दोनों आदमी घबरा गए। इतने में पुलिस भी पहुँच गई—शायद किसी ने सूचना दे दी थी।
इंस्पेक्टर ने सबको शांत किया और दोनों आदमियों को पकड़ लिया। पर भीड़ में कोई भरोसा नहीं था। लोग चिल्ला रहे थे, “ये सब सेठ और नेताओं के इशारे पर हुआ है!”
इंस्पेक्टर ने आँखें नीची कर लीं।

गोपाल की माँ दौड़कर बेटे को गले से लगा ली। उसकी आँखों से आँसू थम नहीं रहे थे।
राधा ने उसे सहलाते हुए कहा, “बिटिया, तूने सबकी आवाज़ बचाई है। अगर तेरा वीडियो न होता तो सच दब जाता।”
गोपाल मुस्कुराया, “काका, अब तो पूरा देश जानता है कि हमारे साथ क्या हो रहा है।”

भीड़ धीरे-धीरे छँट गई। पर सबके दिलों में आग जल चुकी थी। अब यह सिर्फ़ दुकानों या करघों का सवाल नहीं था—यह बच्चों की सुरक्षा, पूरे शहर की इज़्ज़त का सवाल था।

रात गहराने लगी। यमुना के पानी में चाँद की परछाईं काँप रही थी। राघव ने घाट पर खड़े होकर कहा,
“आज हमने एक बच्चे को बचाया है। पर असली लड़ाई अभी बाकी है। जब तक ये नोटिस फटा नहीं, तब तक चैन नहीं।”

दीवार पर वही पीला कागज़ अब भी लटक रहा था—
दो… एक…”

और नदी की लहरें जैसे कह रही थीं—“अब आवाज़ गूंजनी चाहिए, वरना सब बह जाएगा।”

गोपाल की बरामदगी ने पूरे मथुरा को हिला दिया। अब किसी को शक नहीं रहा कि रिवरफ़्रंट का खेल सिर्फ़ कागज़ी नहीं, बल्कि ज़िंदगी पर हमला है। बच्चे का अपहरण इस बात का सबूत था कि आवाज़ दबाने की कोशिश हो रही है।

सुबह-सुबह घाट पर भीड़ जमा हो गई। लोग फुसफुसा रहे थे—“बच्चा मिल गया, लेकिन जिम्मेदार कौन है?”
राधा ने दुकान खोली, पर हाथ काँप रहे थे। उसने पेड़ों के पैकेट सजाए, पर निगाहें मोबाइल पर अटकी रहीं। गोपाल फिर से लाइव जाने की जिद कर रहा था।
“बहन जी, लोग देखना चाहते हैं। अगर हम चुप हुए तो सब सोचेगा कि डर गये।”
राधा ने सख़्त स्वर में कहा, “लेकिन तुम्हें खतरा है।”
गोपाल मुस्कुराया, “खतरा तो सबको है। पर लाइव से लोग देखेंगे कि हम झुके नहीं।”

राघव घाट की नाव के पास बैठा था। उसके चेहरे पर थकान और गुस्सा दोनों थे।
“गोपाल ठीक है, यही काफी है। लेकिन अब हमें पूरे शहर की लड़ाई लड़नी होगी। एक-एक आवाज़ जुटानी होगी।”
इमरान ने सहमति जताई, “हाँ। करघे का धागा अकेले कमज़ोर है। पर अगर सब धागे जुड़ जाएँ तो मजबूत कपड़ा बनता है।”

कल्लू ने ऑटो आगे खड़ा किया और कहा, “मेरा ऑटो कल से ‘मोबाइल स्टूडियो’ है। इसमें बैठकर जो कहना हो, कैमरे में कहो। मैं इसे लाइव कर दूँगा।”
भीड़ में हलचल मच गई। लोग ताली बजाने लगे।

शाम को पहला लाइव शुरू हुआ। गोपाल ने मोबाइल सेट किया। कल्लू ने ऑटो के ऊपर लिखा—जनता की आवाज़”
राधा कैमरे के सामने आई। उसकी आँखों में आँसू थे, पर स्वर दृढ़।
“ये मिठाई सिर्फ़ स्वाद नहीं है। ये हमारे घर की रोटी है। अगर दुकान उजड़ी तो हम भूखे मरेंगे। क्या चमक सिर्फ़ बड़े लोगों के लिए है?”
हज़ारों लोग स्क्रीन पर यह देख रहे थे। कमेंट्स आने लगे—“राधा बहन की दुकान बचाओ”… “ये है असली मथुरा।”

फिर इमरान आया। उसने हाथ में बुना हुआ दुपट्टा उठाया।
“ये धागे मेरे दादा ने भी बुने, मैंने भी बुने। अब कह रहे हैं कि करघा हटेगा। पर मैं पूछता हूँ—अगर ये परंपरा टूट जाएगी तो मथुरा की पहचान कहाँ रहेगी?”
कमेंट्स बाढ़ की तरह आने लगे—“सेव हैंडलूम”… “इमरान भाई जिंदाबाद।”

कल्लू ने हँसते हुए कहा, “अब मेरी बारी।”
उसने माइक पकड़ा और बोला, “साहब लोग कहते हैं कि रिवरफ़्रंट से नौकरियाँ आएँगी। पर अगर जनता ही उजड़ जाएगी तो नौकरियाँ किसके लिए होंगी? मूर्तियों के लिए?”
लाइव पर हज़ारों लोग तालियाँ की इमोजी भेज रहे थे।

फिर राघव आया। उसने नाव की रस्सी पकड़ी और कैमरे में देखा।
“ये नाव मेरे बापू की है। उन्होंने इसे खून-पसीने से बनाया था। अब कह रहे हैं अतिक्रमण। क्या हमारी साँसें भी अतिक्रमण हैं?”
उसकी आवाज़ काँप रही थी, पर शब्द चट्टान जैसे।

लाइव घंटों चला। लोग गली-गली से आते और कैमरे के सामने बोलते। कोई कहता—“हमारा घर बचाओ।” कोई कहता—“हमारी दुकान मत तोड़ो।”
आवाज़ें जुड़ती गईं। मोबाइल स्क्रीन पर मथुरा अब सिर्फ़ शहर नहीं रहा, आंदोलन बन गया।

लेकिन सत्ता को यह पसंद नहीं था। अगले दिन पुलिस घाट पर आ गई। इंस्पेक्टर ने आदेश दिया, “यहाँ कोई लाइव नहीं होगा। धारा 144 लगी है।”
भीड़ भड़क उठी। राधा ने कहा, “साहब, धारा 144 भूख पर लगाइए। हमारी आवाज़ पर नहीं।”
इमरान ने जोड़ा, “अगर आवाज़ रोकेंगे तो धागा टूट जाएगा। और टूटे धागे से कपड़ा नहीं बनता।”

कल्लू ने चुपके से ऑटो आगे बढ़ाया। उसने मोबाइल ऑन किया और लाइव कर दिया।
“दोस्तों, देखो—यहाँ पुलिस आई है। हमें चुप कराने। पर हम चुप नहीं होंगे।”
लाइव में सब दिखाई दे रहा था—पुलिस, भीड़, नाराज़गी।

इंस्पेक्टर ने गुस्से से कहा, “मोबाइल बंद करो वरना जब्त कर लेंगे।”
गोपाल ने आगे बढ़कर कहा, “साहब, जब्त तो आप मोबाइल करेंगे, पर आवाज़ कैसे जब्त करेंगे?”
भीड़ ने जयकारा लगाया—“बोलो जोर से, मथुरा हमारी है!”

अचानक माहौल गर्म हो गया। पुलिस ने लोगों को धक्का दिया। कुछ लोग गिर पड़े। महिलाएँ चीखने लगीं।
राघव ने नाव की रस्सी उठाकर कहा, “हमें डराओ मत। ये घाट हमारा है, और रहेगा।”
इमरान ने भीड़ को संभालते हुए कहा, “शांति रखो! हिंसा से हमारी आवाज़ दब जाएगी। हमें सच बोलना है, लड़ना नहीं।”

लाइव चल रहा था। देशभर के लोग देख रहे थे। पत्रकारों ने भी इसे पकड़ लिया। टीवी चैनलों पर खबर चलने लगी—
मथुरा में जनता बनाम सरकार—रिवरफ़्रंट विवाद।”

राधा ने आँसुओं के बीच कहा, “हमारी मिठास कड़वाहट में मत बदलो। हमें घर चाहिए, रोटी चाहिए। चमक बाद में भी हो जाएगी।”
उसकी बात पूरे देश ने सुनी।

रात को जब भीड़ छँट गई, सब घाट पर बैठे थे। सरोज ने कहा, “आज तुम सबने शहर की आत्मा बचाई है। चाहे कुछ भी हो, आवाज़ अब दूर तक जाएगी।”
राघव ने आकाश की ओर देखा। चाँद की रोशनी यमुना पर लहरों की तरह बिखरी थी।
“नदी गवाह है। हमने आज सच को बहा दिया है—लाइव।”

और दीवार पर नोटिस अब अंतिम गिनती बता रहा था—
एक…”

सबके दिलों की धड़कन तेज़ थी। कल सुबह क्या होगा, कोई नहीं जानता था।

लाइव के बाद की रात मथुरा पर जैसे किसी ने काला आसमान और नीचे से नीली नदी की पतली रेखा खींच दी थी। हवा में गीली मिट्टी, डर और उम्मीद की मिली-जुली गंध थी। दीवार पर चिपके पीले नोटिस की तारीख़ अगले दिन की सुबह दिखा रही थी—कार्रवाई: प्रातः 9:00 बजे”। भीड़ धीरे-धीरे छँट चुकी थी, पर घाट के कुछ कोनों में लोगों के छोटे-छोटे गोल चक्र अब भी जमा थे—जैसे अँधेरे में जुगनू।

“स्टे ऑर्डर चाहिए,” राघव ने कहा, आवाज़ थकी हुई पर दृढ़। “सुबह तक नहीं मिला तो… नाव, दुकान, करघा—सब पे बुलडोज़र।”

इमरान ने करघे पर फैले दुपट्टे को समेटते हुए कहा, “कानून भी धागे जैसा है—अगर सही से गूंथा तो टूटेगा नहीं। हमें किसी वकील की ज़रूरत है जो रात में भी दलील कर दे।”

“वहीदेही शर्मा,” पंडित श्यामलाल ने धीरे से नाम लिया। “नई वकील है, तेज़ है। ई-फाइलिंग में निपुण। मंदिर के बच्चों के लिए केस लड़ चुकी है।”

कल्लू ने तुरंत ऑटो स्टार्ट किया, “बैठ जाओ सब। रात लंबी है, पर हिम्मत उससे लंबी।”

वहीदेही का छोटा-सा चैम्बर—एक लैंप, दीवार पर कानून की किताबें, और मेज़ पर रखी स्याही की खुशबू। वह टी-शर्ट और जैकेट में थी, बाल रबरबैंड में बाँध रखे। दरवाज़ा खुलते ही उसने एक नज़र में सबके चेहरे पढ़ लिये—थकान, ग़ुस्सा, और एक भरोसे का उजाला।

“सीधी बात,” उसने कहा। “कल सुबह नौ बजे कार्रवाई है। हमें अभी रात में एक याचिका दाख़िल करनी होगी—लोक हित में। वीडियो सबूत, नोटिस की कॉपी, आज की भगदड़, बच्चे के अपहरण की एफआईआर नंबर… कुछ भी जो दिखाए कि यह प्रक्रिया लोगों की आजीविका और सुरक्षा के ख़िलाफ़ जा सकती है।”

गोपाल आगे बढ़ा। “मैडम, मेरे पास सारे लाइव लिंक हैं। शेड गिरने वाला फुटेज, पुलिस की धक्का-मुक्की, नेताओं के बयान।”

वहीदेही ने सिर हिलाया, “लिंक जोड़ते हैं, पर साथ में अफ़िडेविट भी चाहिए। राधा—तुम्हारा हलफ़नामा कि दुकान हटे तो गुज़ारा नहीं। इमरान—कि करघा मशीन से प्रतिस्थापित नहीं हो सकता। राघव—कि नाव पारम्परिक विरासत है। कल्लू—ट्रांसपोर्ट रूट और रोज़गार पर प्रभाव। पंडित जी—घाट की सांस्कृतिक महत्ता।”

“स्टैंप पेपर?” राधा ने घबराकर पूछा।

“रात का स्टैंप भी मिलता है, बस क़ीमत दोगुनी,” वहीदेही मुस्कुराई, “पर लोग भी दोगुने अच्छे हैं—मैंने जोगिंदर से बात की है, वह आधी रात को भी देगा, और आधी क़ीमत लेगा।”

काग़ज़ उड़ने लगे। कलमें चलने लगीं। वहीदेही टाइप करती रही—शब्दों में रात की सिसकी और शहर की साँसें भरती हुई। बाहर कहीं दूर मंदिर की घंटियाँ धीमे-धीमे बज रही थीं, मानो हर ‘टिन-टिन’ पर एक दलील जुड़ रही हो।

इंस्पेक्टर का फ़ोन आया—वहीदेही ने स्पीकर पर किया।
“मैडम, धारा 144 लागू है। रात के इस वक़्त भीड़ ना जुटाइए।”

वहीदेही ने शांति से कहा, “कानून के दायरे में रहकर हम याचिका दाख़िल कर रहे हैं। और 144 अभिव्यक्ति की हत्या का लाइसेंस नहीं है, इंस्पेक्टर साहब। आप चाहें तो नोट लें—कल सुबह आप भी हाईकोर्ट का आदेश देखेंगे.”

फ़ोन कट गया। कमरे में एक पल की चुप्पी। फिर इमरान की धीमी हँसी—“धागे में गिरह लग गयी है।”

रात का एक बजा। जोगिंदर, स्टैंप-वाला, दुकान के आधे शटर उठाकर खड़ा था। “अरे भाई, तुम्हारे शहर ने मुझे भी जगा दिया। लो, स्टैंप ले जाओ, पर नाम सही लिखना—कहीं ‘इमरान’ ‘इमराँ’ न हो जाए।”

“नाम बिगड़ा तो शहर बिगड़ जाएगा,” इमरान ने कहा। सब हँस पड़े—थकान में हल्की सी रोशनी।

काग़ज़ तैयार हुए। गोपाल ने लिंक की लिस्ट बनायी। राधा ने अपनी माँ की दवाइयों के बिल भी जोड़ दिये। कल्लू ने ऑटो के मीटर की फ़ोटो, यात्रियों की दैनंदिन संख्या की नोटबुक। पंडित श्यामलाल ने घाट की परंपरा पर छोटा-सा नोट—“आस्थाओं का भूगोल।”

तीन बजे—ई-फाइलिंग पोर्टल। वहीदेही की उँगलियाँ कीबोर्ड पर नाचने लगीं। “अर्जेंट मेंशनिंग” का बटन दबा—कारण: “तत्काल विध्वंस/उजड़ने का खतरा।”

“अगर सुनवाई सुबह की पहली सूची में लग गयी तो स्टे की संभावना बहुत है,” उसने कहा। “वरना….”

“वरना?” राधा की आँखें फैल गयीं।

“वरना भी हम मैदान छोड़ेंगे नहीं,” वहीदेही ने सीधा देखा। “कानून की दलील कभी अकेली नहीं होती—पीछे जनता की दलील हो तो न्याय तेज़ हो जाता है।”

चार बजे—बिजली झपकी। कमरे में अँधेरा चटककर बैठ गया। जनरेटर की घरघराहट नहीं थी। बाहर से मोटरसाइकिलों के रुकने की आवाज़। दरवाज़े पर दस्तक। कल्लू आगे बढ़ा, “कौन?”

“खोलो,” आवाज़ आई। “सेठ जी के आदमी हैं। रात को अदालत मत लगाओ। मोल-भाव कर लो।”

राघव उठ खड़ा हुआ, “दलील का सौदा नहीं होता।”

वहीदेही ने दरवाज़ा नहीं खोला। “अगर एक कदम अंदर रखोगे तो वीडियो बनकर देश घूमोगे,” उसने ठंडे स्वर में कहा। “और हाँ—यह चैम्बर कानून की जगह है, ठेके की नहीं।”

चुप्पी। फिर मोटरसाइकिलों की आवाज़ दूर खिसक गयी। बिजली लौटी—जैसे कमरे में फिर से साहस जल उठा हो।

“डरो मत,” सरोज ने राधा के सिर पर हाथ रखा। “रात कितनी भी लंबी हो, भोर होती है।”

पाँच बजकर पंद्रह मिनट—पोर्टल पर एक पंक्ति चमकी: उल्लेख स्वीकार—सुबह 6:30 पर मेंशनिंग”। कमरे में सामूहिक साँस छोड़ी गयी। जैसे यमुना पर कोई बड़ा पत्थर गिरा और लहरें हल्की हो गयीं।

“छह बजे तक हम घाट पर,” राघव बोला। “अगर स्टे मिला तो वहीं से बाँसुरी बजेगी—आरती की।”

“और नहीं मिला?” गोपाल ने पूछा।

वहीदेही ने सीधे कहा, “तो भी कैमरा बंद नहीं होगा। दलील का अगला पड़ाव सड़क है—पर शांति से, अनुशासन से। हिंसा हमारे वीडियो को उनके खिलाफ़ नहीं, हमारे खिलाफ़ बना देगी।”

पंडित श्यामलाल ने कहा, “आज आधी रात से जनमाष्टमी की झाँकियाँ सजी हैं। कृष्ण का जन्म भी जेल में हुआ था—ताले के बीच, पहरे के बीच। पर जन्म हुआ—उम्मीद का। हमें भी वही जन्म देना है।”

“जनमाष्टमी…” राधा ने धीरे से कहा, “कितना अच्छा होता अगर आज बस दही-हांडी, पेड़े और गीत होते। लेकिन आज दलील का दिन है।”

इमरान ने खिड़की से बाहर झाँका—पूर्व में हल्की धूसर रेखा। “सुबह हो रही है। धागा तैयार है।”

घाट की तरफ़ लौटते हुए ऑटो में चुप्पी थी। सड़कों के दोनों ओर केले के पत्तों की पतली लड़ियाँ, झाँकियों के लिए बंधे टेंट, दही-हांडी के ऊँचे मचान—शहर त्यौहार और तनाव के दो ध्रुवों पर खिंचा हुआ। हवा में मृदंग की दूर से आती थाप—और साथ में जेसीबी के इंजन की दबी हुई घरघराहट, जैसे अँधेरे में कोई दैत्य करवट ले रहा हो।

छह बजकर बीस—घाट पर भीड़ फिर जमा। कल्लू ने ऑटो के ऊपर “जनता की आवाज़” का बोर्ड सीधा किया। गोपाल ने कैमरा टिका दिया। राधा ने पूजा की थाली में दो दिये जलाये—“एक दलील के लिए, एक दया के लिए।”

“कॉल आया तो स्पीकर पर,” राघव ने कहा। उसकी आँखों में रात भर की जाग, पर आवाज़ में नदी की धैर्य-रेखा।

छह बजकर अट्ठाईस—वहीदेही का फ़ोन वाइब्रेट हुआ। सबके कंठ सूख गए। उसने रिसीव किया, स्पीकर ऑन। दूसरी ओर रजिस्ट्रार की सपाट आवाज़—“मेंटशनिंग सुन ली गयी है। आदेश—…।”

एक सेकंड, दो, तीन—हवा ने जैसे साँस रोक ली।

“—अस्थायी रोक की याचिका पर ‘नोटिस’ जारी। प्रशासन से जवाब माँगा गया है। अंतरिम सुरक्षा—सीमित—‘दुकानों/करघों/नावों का तत्काल विस्थापन न किया जाए’—अगली सुनवाई तक। लेकिन ‘अवैध ढाँचों’ पर कार्रवाई पर पूर्ण रोक नहीं।”

भीड़ में मिली-जुली आवाज़ें—कुछ ने ‘जय!’ कहा, कुछ के चेहरों पर भ्रम। राघव ने जल्दी से पूछा, “मतलब हमारी दुकानें-नावें…?”

वहीदेही ने समझाया, “मतलब—तुम्हारी आजीविका के केंद्र—दुकान, करघा, नाव—उठाए नहीं जा सकते। पर जो वे ‘अवैध शेड’ या ‘अस्थायी बाड़’ कहते हैं, उन पर वे आंशिक कार्रवाई कर सकते हैं। हमें तुरंत आदेश की कॉपी प्रिंट करनी है, और साइट पर दिखानी है। किसी ने तोड़फोड़ की तो ‘कंटेम्प्ट’।”

इमरान ने राहत की लम्बी साँस ली, “धागा बचा।”

राधा की आँखें भर आईं, “दुकान रहेगी तो मिठास भी रहेगी।”

कल्लू ने हँसकर कहा, “और ऑटो चलेगा—खुशी की सवारी लेकर।”

पर ठीक उसी समय घाट की सड़क पर दो पीली मशीनें मुड़ीं—जेसीबी। उनके पीछे प्रशासन की जीप, कुछ पुलिसवाले, और नंदलाल सेठ की दूर से चमकती कार। भीड़ में सनसनाहट दौड़ी। जैकेट पहने एक अधिकारी माइक से बोला, “निर्देशानुसार ‘अवैध ढाँचों’ की हटाने की कार्रवाई शुरू होगी। शांति बनाए रखें।”

“आदेश की कॉपी!” वहीदेही ने फ़ोन पर कहा, “मैं मेल-प्रिंट भेज रही हूँ। कोई प्रिंटर?”

कल्लू उछला, “स्टॉल नंबर 7 पर ‘भोलू प्रिंट’—अभी खोलवाता हूँ!” वह ऑटो दगाकर भागा। गोपाल उसके साथ—कैमरा ऑन। राघव, इमरान, राधा, पंडित—सब आगे की लाइन में कंधे से कंधा जोड़कर खड़े। सरोज ने दीयों को हवा से बचाया—रोशनी काँपती रही, पर बुझी नहीं।

अधिकारी ने इशारा किया—एक किनारे का टीन-शेड खड़खड़ा उठा। लोहे की चादरें कर्कश आवाज़ में हिलीं, जैसे शहर के गले पर खरोंच। भीड़ से “रुको!” की संयुक्त पुकार उठी। पुलिसवालों ने बाँटने की कोशिश की—“पीछे हटो!”

इसी बीच कल्लू साँस फूली हुई लौट आया, हाथ में काग़ज़—ताज़ा प्रिंट, हाईकोर्ट की मुहर। वहीदेही की आवाज़ स्पीकर पर—“अधिकारी को पढ़कर सुनाओ। कैमरा चालू रखो।”

राघव ने काग़ज़ ऊँचा किया, “आदेश—हमारी दुकान, करघा, नाव—अस्थायी विस्थापन पर रोक। आप ये शेड गिरा सकते हैं, पर हमारी रोज़ी पर हाथ नहीं।”

अधिकारी ठिठका। उसने काग़ज़ पढ़े, किसी से फ़ोन पर बात की। जेसीबी के इंजन की घरघराहट एक पल को धीमी पड़ गयी। भीड़ की साँसों का शोर बढ़ गया। नंदलाल सेठ ने दूर से भौंहें सिकोड़ीं।

“ठीक है,” अधिकारी ने माइक पर कहा, “अजीविका-केन्द्र संरचनाओं को नहीं छुआ जाएगा—अस्थायी आदेश के अधीन। किनारों की अवैध बाड़ हटेगी। शांति बनाए रखें।”

तालियों की लहर उठी—राहत, जीत नहीं; पर जीत की दिशा में पहला कदम। राधा ने दीया ऊँचा किया, इमरान ने दुपट्टा हवा में लहराया, राघव ने नाव की रस्सी को चूम लिया। पंडित श्यामलाल ने धीमे से शंख फूँका—लंबा, स्थिर स्वर—जैसे शहर ने रात की दलील जीत ली हो, आंशिक सही, पर निर्णायक।

दूर मंदिर के ऊँचे कलश पर पहली धूप पड़ी। पुरोहितों ने घोषणा की—“आज जन्माष्टमी की महाआरती संध्या को।” भीड़ के बीच कोई बोला, “कृष्ण जन्मे तो कंस का अंत भी होगा—कभी न कभी।”

दीवार पर पीला काग़ज़ अब “शून्य” की देहलीज़ पर फड़फड़ा रहा था—०”—पर उसके नीचे ताज़ा काग़ज़ की सफ़ेद शीट भी चमक रही थी—आदेश की कॉपी, मुहर, स्याही, दलील।

रात की दलील का सूर्योदय हो चुका था। अब शहर उत्सव और संघर्ष, दोनों के सुर में गाने को तैयार था।

शहर की सुबह आज अलग थी। रात की दलील ने एक अस्थायी राहत दी थी—दुकानों, नावों, करघों पर बुलडोज़र नहीं चलेगा। लेकिन घाट की बाड़ और टीन-शेड्स हटाए जा चुके थे। आधे शहर के चेहरे पर राहत थी, आधे पर चोट। फिर भी हवा में उत्सव की गंध तैर रही थी—आज जन्माष्टमी थी।

गली-गली रंगीन झालरों से सजी, मंदिरों में फूलों की थालें, ढोलक-मृदंग की थापें। हर मोड़ पर छोटे-छोटे मंच तैयार थे—झाँकियों में नन्हे बच्चे कृष्ण-राधा बने मुस्कुरा रहे थे। पर इस बार त्योहार के साथ एक और ताल जुड़ गई थी—प्रतिरोध की।

राधा ने दुकान पर पेड़ों का बड़ा ढेर सजाया। उसने माँ सरोज से कहा, “अम्मा, आज मुफ्त बाँट देंगे। कृष्ण का जन्म है, मिठास सबको मिलेगी।”
सरोज मुस्कुराई, “मुफ्त मिठाई से दिल भरता है, बिटिया। और आज शहर को यही चाहिए।”

इमरान ने करघे पर नीले-सुनहरे धागों से एक खास दुपट्टा बुना। उस पर मोरपंख की आकृति थी। उसने बेटे आरिफ़ से कहा, “आज रात इसे मंदिर में चढ़ाएँगे। ताकि सबको पता चले—हमारा हुनर भी भगवान का प्रसाद है।”

कल्लू ने अपने ऑटो को फूलों से सजाया और ऊपर तख्ती टाँग दी—जय मथुरा—जनता की सवारी।”
उसने गोपाल को बुलाया, “आज तू ही मेरा कैमरा मैन। हम झाँकियाँ भी दिखाएँगे और जनता की आवाज़ भी।”

शाम ढलने लगी। विश्राम घाट पर हजारों लोग इकट्ठा हुए। सामने भव्य पंडाल, बिजली के झिलमिलाते झालर, और बीच में झूले पर रखा नन्हा कृष्ण। पंडित श्यामलाल ने घोषणा की—“आधी रात को महाआरती होगी। पर उससे पहले—हम सब मिलकर अपनी आवाज़ भगवान को अर्पित करेंगे।”

राघव नाव पर चढ़ा और भीड़ से बोला, “आज नदी गवाह है कि हम यहाँ हैं। बुलडोज़र हमारी नाव, दुकान, करघा नहीं छू पाए। लेकिन ये जीत अधूरी है। हमें पूरी जीत चाहिए।”
भीड़ ने एक स्वर में कहा, “चाहिए! चाहिए!”

राधा ने पेड़ा हवा में लहराते हुए कहा, “ये मिठाई सिर्फ़ त्योहार की नहीं, हमारी मेहनत की है। इसे बचाना ही हमारा संकल्प है।”
इमरान ने दुपट्टा उठाया, “ये धागा अगर कटेगा तो पहचान भी कटेगी। हमें इसे टूटने नहीं देना।”
कल्लू ने माइक जैसा पकड़ा मोबाइल और कहा, “आज से मेरा ऑटो सिर्फ़ सवारी नहीं, आंदोलन है। जो भी इसमें बैठेगा, सच सुनेगा।”

लाइव चालू था। गोपाल कैमरा घुमा-घुमाकर पूरे माहौल को दिखा रहा था। देशभर से कमेंट्स बरस रहे थे—“जय मथुरा”… “जनता की जीत”… “रिवरफ़्रंट रुकना चाहिए।”

आधी रात नज़दीक आई। शंखनाद गूँजा। आरती की थालें सजीं। बच्चे दही-हांडी फोड़ने के लिए चढ़े। भीड़ ने जयकारा लगाया—“हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की!”

इसी बीच मैदान के किनारे से अचानक शोर उठा। नंदलाल सेठ कुछ गुंडों के साथ खड़ा था। वे फुसफुसा रहे थे—“आज मौका है। भीड़ में हंगामा करो, फिर कहेंगे कि आंदोलनकारी हिंसक हैं।”
गोपाल ने कैमरा उस ओर घुमा दिया। लाइव में सब दिख गया। लोग चौंक गये।

राघव ने भीड़ से कहा, “सावधान रहो! कोई हिंसा नहीं करेगा। यही हमारी ताक़त है।”
भीड़ शांत रही। गुंडे तितर-बितर हो गये। नंदलाल सेठ गुस्से से दाँत पीसता रह गया।

घाट पर दीपदान शुरू हुआ। हजारों दिये यमुना में बहाए गए। रोशनी की लहरें पानी पर तैरने लगीं। इमरान ने मोरपंख वाला दुपट्टा झूले पर रख दिया। राधा ने पेड़े चढ़ाए। कल्लू ने ऑटो का हॉर्न बजाकर ताल दी। सरोज ने आँसू भरी आँखों से हाथ जोड़े।

पंडित श्यामलाल ने ऊँचे स्वर में कहा,
“कृष्ण का जन्म अँधेरे में हुआ था, पर वह अँधेरे को तोड़ने आया।
आज इस शहर में भी जन्माष्टमी है। और हमारे संघर्ष का कृष्ण है—हमारी एकजुटता।”

भीड़ गूँज उठी—“जय हो!”

आधी रात का समय हुआ। मंदिर की घंटियाँ एक साथ बजीं। आसमान पर आतिशबाज़ी फूटी। नदी पर हज़ारों दियों की परछाईं काँपने लगी। और उसी क्षण सबके दिल में एक ही संकल्प गूँज उठा—हम उजड़ेंगे नहीं। हम यहीं रहेंगे। मथुरा हमारी है।”

गोपाल ने कैमरा अपनी ओर घुमाया और कहा, “दोस्तों, ये है हमारा शहर। यहाँ भगवान भी जन्म लेते हैं और जनता भी अपनी आवाज़ को जन्म देती है। ये लाइव सिर्फ़ आज का नहीं, आने वाले कल का है।”

लाइव पर लाखों लोग देख रहे थे। कहीं दिल्ली से, कहीं लखनऊ से, कहीं विदेशों से। लोग कमेंट कर रहे थे—“मथुरा की लड़ाई हमारी भी है”… “ये है असली भारत की तस्वीर।”

राघव ने नाव की रस्सी को उठाकर कहा, “नदी हमारी साँस है। इसे कोई काग़ज़ का नोटिस नहीं बाँध सकता।”
राधा ने मिठाई बाँटते हुए कहा, “मिठास कभी हारती नहीं।”
इमरान ने करघे का धागा दिखाते हुए कहा, “ये धागा टूटेगा नहीं।”
कल्लू ने मुस्कुराकर कहा, “और मेरा ऑटो चलता रहेगा—सच की सवारी लेकर।”

आसमान में आतिशबाज़ी की गड़गड़ाहट, नदी में दीयों की चमक, भीड़ में जयकारा—मथुरा का दिल धड़क रहा था।

और दीवार पर लगा पुराना पीला नोटिस… हवा में अब भी फड़फड़ा रहा था, पर उसके ऊपर चिपकी सफ़ेद अदालत की कॉपी ज्यादा चमक रही थी। जैसे रात ने खुद कह दिया हो—
अभी अंत नहीं हुआ। यह तो शुरुआत है।”

समाप्त

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