दिव्या चावला
१
जून की एक नमी से भरी, भारी-सी रात थी। मुंबई की बारिश अपनी पूरी ताक़त के साथ बरस रही थी, सड़कें पानी से भर चुकी थीं और कहीं-कहीं रेल की पटरियों के नीचे पानी बहने की आवाज़ एक अजीब-सी लय बना रही थी। शहर के पुराने हिस्से में, लोहे का वह पुल खड़ा था जो एक सदी से भी ज़्यादा समय से स्थानीय ट्रेनों का भार उठाता आ रहा था। पुल के नीचे काले पानी का एक स्थायी पोखर बना रहता था, और चारों ओर दीवारों पर उग आई हरी काई, समय और नमी के मिलन की गवाही देती थी। उस रात एक और चीख़ती सायरन ने इस सन्नाटे को तोड़ा — पुलिस की जीप पुल के पास आकर रुकी, कुछ जवान उतरकर टॉर्च की रोशनी में नीचे झुके। कीचड़ और बारिश के बीच एक आकृति पड़ी थी, शरीर पानी से आधा डूबा, चेहरा मिट्टी और खून से ढका। इंस्पेक्टर नीरज पाटिल ने जैसे ही लाश को देखा, उनका चेहरा कठोर हो गया। “फिर वही तारीख़…” उन्होंने धीमे से कहा, मानो खुद से। यह वही रात थी, जब पिछले नौ सालों से हर साल यहाँ एक लाश मिलती थी — हमेशा इसी पुल के नीचे, और हमेशा इसी तारीख़ पर।
कुछ ही देर में वहां एक और आवाज़ गूंजी — पुरानी बाइक की, जिसके पीछे लटकता बैग और गले में कैमरा, क्राइम रिपोर्टर आदित्य “आदि” वर्मा का पहचान चिह्न था। भीगते हुए भी उसके कदम तेज थे, क्योंकि उसे पता था कि ऐसे केसों में सेकंड्स की अहमियत होती है। बारिश की बूंदें कैमरे के लेंस पर पड़ रही थीं, लेकिन वह उसे पोंछने की बजाय लाश की ओर झुक गया। उसने देखा — यह एक अधेड़ उम्र का आदमी था, शरीर पर कई गहरे घाव, जैसे किसी ने लंबे और भारी लोहे के औज़ार से हमला किया हो। पर जो बात सबसे अजीब थी, वह थी लाश के पास पड़ा एक सिक्का — मोटा, पुराना, पूरी तरह लोहे का बना, जिस पर किसी ज़माने का साल उकेरा गया था, लेकिन साल को खुरच कर मिटा दिया गया था। आदि ने कैमरे से क्लोज़-अप लिया और मन में नोट किया कि पिछले साल की लाश के पास भी उसे एक अजीब चीज़ मिली थी — तब वह एक टूटी हुई पॉकेट वॉच थी, जिस पर समय हमेशा रात 12:03 पर रुका था। क्या यह कोई पैटर्न था?
बारिश लगातार गिर रही थी, और पुल के ऊपर से गुजरती ट्रेन की गड़गड़ाहट नीचे खड़े लोगों की आवाज़ें निगल रही थी। पाटिल ने आदि को देखा और कहा, “तुम्हारा यहाँ होना मुझे हैरान नहीं करता, लेकिन यह केस अखबार के लिए नहीं है… यह खतरनाक है।” आदि ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, “सर, खतरनाक वही होता है जिसमें कहानी छिपी हो।” पाटिल ने उसे घूरा और अपने जवानों को लाश उठाने का आदेश दिया। जैसे ही पुलिसवाले स्ट्रेचर लेकर नीचे आए, पानी में हलचल हुई और सिक्का लुढ़ककर आदि के पैर से टकराया। उसने झुककर सिक्का उठा लिया और अपनी जैकेट की जेब में डाल लिया, बिना किसी को बताए। उसे अहसास था कि यह धातु का टुकड़ा इस रहस्य की एक कड़ी है, और अगर पुलिस के रिकॉर्ड में गया तो शायद यह हमेशा के लिए गायब हो जाएगा। पाटिल ने चुपचाप नोट किया कि आदि का दिमाग हमेशा एक कदम आगे चलता है, और यही वजह है कि वह कई बार सीमा भी लांघ जाता है।
आदि ने वहां से जाने से पहले पुल की लोहे की बीम को गौर से देखा — बारिश की बूंदें उन पर गिरकर एक अजीब धुन बना रही थीं, मानो किसी पुराने ज़ख्म का दर्द गा रही हों। उसने आसपास का मुआयना किया — पानी में पुराने जूते, टूटी बोतलें, सिगरेट के टुकड़े और एक जंग लगा ताला पड़ा था। लेकिन कोई ताज़ा खून का निशान नहीं, जैसे लाश को कहीं और मारा गया हो और यहाँ फेंका गया हो। आस-पास के अंधेरे कोनों में उसे हल्की-सी हरकत दिखी — शायद कोई भिखारी, शायद कोई गवाह, या शायद कोई जो यह देख रहा था कि वह यहाँ क्या कर रहा है। ठंडी हवा में भी उसके गले में पसीने की लकीर उतर आई। वह जानता था, इस पुल के नीचे हर साल की मौत सिर्फ़ एक क्राइम स्टोरी नहीं है — यह किसी की गिनती, किसी का खेल, और शायद किसी का बदला है। जैसे ही वह बाइक स्टार्ट कर वहाँ से निकला, उसने जेब में पड़े सिक्के को महसूस किया और तय किया कि इस बार वह इस कहानी को अधूरा नहीं छोड़ेगा — चाहे इसके लिए उसे कितनी भी गहराई में उतरना पड़े।
२
बारिश की बूंदें अब हल्की हो चुकी थीं, लेकिन रात अभी भी भारी थी। लोहे के पुल के नीचे कीचड़ और पानी का मिश्रण हवा में सीलन की गंध घोल रहा था। आदि ने पुलिस के जाने के बाद एक बार फिर इर्द-गिर्द नज़र दौड़ाई। वह जानता था कि असली सुराग अक्सर भीड़ छंटने के बाद मिलते हैं। तभी उसकी नज़र पुल के एक अंधेरे कोने में पड़ी, जहाँ हल्की-सी चमक दिखाई दे रही थी—कैमरे के लेंस पर पड़ती स्ट्रीट लाइट की परावर्तित किरण। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा तो देखा कि एक पतली, छोटे बालों वाली लड़की, जींस और हुडी पहने, दीवार से टिककर कुछ फोटो खींच रही थी। उसके हाथ में पुराना लेकिन मजबूत DSLR था, जिसकी आवाज़ बारिश और ट्रेन की गड़गड़ाहट में भी सुनाई दे रही थी। लड़की ने उसकी तरफ़ एक बार देखा, फिर कैमरे में झुककर अगला शॉट लिया, मानो किसी अनजान आदमी की मौजूदगी से उसे कोई फर्क न पड़ता हो। “तुम यहाँ क्या कर रही हो?” आदि ने हल्के लेकिन सतर्क स्वर में पूछा। लड़की ने कैमरा नीचे करते हुए कहा, “वही जो तुम—कहानी तलाश रही हूँ। फर्क सिर्फ इतना है कि मैं तस्वीरों में लिखती हूँ।”
उसका नाम सना कुरैशी था, धारावी में पली-बढ़ी, और अब फ्रीलांस स्ट्रीट फोटोग्राफर के तौर पर काम करती थी। आदि ने महसूस किया कि उसकी आँखों में एक तरह की जिज्ञासा और चपलता है, जो सिर्फ़ उन लोगों में होती है जिन्होंने सड़कों का असली चेहरा देखा हो। सना ने कैमरे का डिस्प्ले घुमाकर उसे एक तस्वीर दिखाई—बारिश की धुंध में पुल के नीचे की एक धुंधली छवि। तस्वीर में लाश आने से कुछ मिनट पहले का नज़ारा था, और सबसे कोने में एक अंधेरा साया नज़र आ रहा था—मानो कोई वहाँ खड़ा देख रहा हो। आदि ने तस्वीर को ज़ूम करके देखा, लेकिन चेहरा साफ़ नहीं हो पा रहा था। “तुमने यह कब लिया?” उसने पूछा। सना ने बिना झिझक जवाब दिया, “लगभग पंद्रह मिनट पहले… मैं यहाँ रोज़ नहीं आती, लेकिन इस तारीख़ को आती हूँ।” आदि ने भौंहें चढ़ाईं, “क्यों?” सना ने ठंडी साँस लेकर कहा, “क्योंकि मैं जानती हूँ, इस तारीख़ को यह पुल किसी को निगल लेता है। बचपन से सुनते आए हैं कि यह लोहे का ढांचा सिर्फ़ ट्रेनों का बोझ नहीं उठाता, यह बदला भी उठाता है।”
आदि ने हल्की हँसी में टालने की कोशिश की, लेकिन सना का चेहरा गंभीर रहा। उसने बताया कि उसके मोहल्ले में कई बुजुर्ग कहते हैं कि दशकों पहले, इसी पुल के नीचे मजदूरों का खून बहा था—और तब से हर साल एक आत्मा अपनी गिनती पूरी करने लौटती है। वह अंधविश्वास पर ज्यादा भरोसा नहीं करता था, लेकिन शहर के पुराने किस्सों को पूरी तरह नकारना भी मूर्खता होती है। उसने पूछा, “तुमने पहले की भी तस्वीरें ली हैं?” सना ने सिर हिलाया, “हाँ, लेकिन ज्यादातर धुंधली… जैसे कैमरा खुद डर रहा हो।” उसकी आवाज़ में एक सच्चाई थी, जो आदि को सोचने पर मजबूर कर रही थी। उसने तय किया कि यह लड़की उसके लिए एक अहम स्रोत बन सकती है, लेकिन उसे सावधान रहना होगा—मुंबई की अंडरवर्ल्ड से जुड़ी कहानियों में गवाह अक्सर गायब हो जाते हैं। सना ने एक और फोटो दिखाया—इसमें लाश की जगह अब भी खाली थी, लेकिन जमीन पर वही तरह का पुराना सिक्का पड़ा था, जैसा आदि ने अपनी जेब में रखा था। उसका दिल एक पल को रुक-सा गया। उसने बिना कुछ कहे बस तस्वीर को देखा, और मन ही मन यह मान लिया कि यह कोई इत्तेफाक नहीं है।
पुल के नीचे हवा अचानक ठंडी हो गई थी। दूर से एक लोकल ट्रेन की रोशनी पुल के लोहे के ढांचे को सुनहरी चमक दे रही थी, और बारिश की बूंदें उस पर गिरकर धातु की सुरीली खनक पैदा कर रही थीं—जैसे किसी पुराने किस्से का संगीत। सना ने कैमरा पैक करते हुए कहा, “मैं कल रात फिर यहीं आऊँगी, अगर हिम्मत है तो तुम भी आना। लेकिन याद रखना, जो यहाँ आता है, वो कभी अकेला नहीं रहता… चाहे इंसान दिखे या न दिखे।” उसकी आँखों में एक चेतावनी और एक चुनौती, दोनों थीं। आदि ने उसकी पीठ पीछे जाते हुए सोचा—यह लड़की सच जानती है, शायद उससे भी ज़्यादा। और अगर यह सच उसे उस साए तक ले गया जो तस्वीर में दिखा था, तो पुल के नीचे का खेल इस साल किसी और तरीके से खत्म होगा। लेकिन वह यह भी जानता था—खेल में कूदते ही उसके पास लौटने का रास्ता नहीं बचेगा।
३
सुबह का आसमान अब भी बादलों से घिरा था, लेकिन बारिश थम चुकी थी। नमी से भरी हवा में रेल की पटरियों और गीले लोहे की गंध फैली हुई थी। आदि वर्मा, पिछली रात के सिक्के और सना की तस्वीरों के बारे में सोचता हुआ, अपने ऑफिस की बजाय सीधे मुंबई क्राइम ब्रांच के पुराने हेडक्वार्टर पहुँचा। वह जानता था कि अगर किसी के पास इस केस के आधिकारिक रिकॉर्ड तक पहुँच है, तो वह इंस्पेक्टर नीरज पाटिल ही है। इमारत के भीतर का माहौल वैसा ही था जैसा बड़े पुलिस दफ्तरों में होता है—फाइलों के ढेर, टाइपराइटर की आवाज़, और कॉरिडोर में तेजी से चलते पुलिसवाले। पाटिल अपने केबिन में खाकी वर्दी में, आँखों के नीचे गहरी थकान के साथ बैठा था, मेज पर अधूरी चाय और आधा जला सिगरेट पड़ा था। उसने ऊपर देखा और एक हल्की, लगभग उदास मुस्कान के साथ कहा, “तुम फिर आ ही गए, वर्मा। मुझे लगा शायद कल रात के बाद डर जाओगे।” आदि ने कुर्सी खींचते हुए सीधा जवाब दिया, “डरना होता तो पत्रकार नहीं बनता। मैं यहाँ यह जानने आया हूँ कि हर साल इसी तारीख़ को पुल के नीचे लाश क्यों मिलती है।” पाटिल ने एक लंबा कश खींचा, फिर धुआँ छोड़ते हुए धीमे स्वर में कहा, “तुम्हें यह केस छोड़ देना चाहिए।”
आदि ने उसकी आँखों में देखा—वहाँ एक थकान के साथ-साथ एक छिपी हुई बेचैनी थी, जैसे कोई व्यक्ति कुछ कहना चाहता है लेकिन कह नहीं सकता। “क्या यह आदेश ऊपर से आया है?” आदि ने सीधा सवाल दागा। पाटिल ने कुछ क्षण चुप रहकर मेज की दराज खोली, और एक मोटी फाइल निकाली। “यह इस केस की फाइल है… लेकिन इसमें तुम्हें वह नहीं मिलेगा जो तुम ढूँढ रहे हो।” आदि ने पन्ने पलटने शुरू किए—पहली रिपोर्ट दस साल पुरानी थी, जिसमें लिखा था कि मृतक की मौत ‘अज्ञात कारणों’ से हुई। आगे की रिपोर्टें भी लगभग कॉपी-पेस्ट जैसी थीं, बस नाम और उम्र बदलते थे। और फिर, हैरानी की बात—पिछले नौ सालों की पोस्टमॉर्टम रिपोर्टें गायब थीं, जैसे किसी ने उन्हें जानबूझकर निकाल दिया हो। “ये कहाँ हैं?” आदि ने पूछा। पाटिल ने सिर झुकाकर कहा, “मैंने भी ढूँढने की कोशिश की थी, लेकिन हर बार फाइलें किसी और के ‘कस्टडी’ में चली जाती हैं। और फिर मामला ठंडा पड़ जाता है।” उसकी आवाज़ में एक लाचारी थी, जो एक पुलिस अफसर में कम ही दिखाई देती है।
“मतलब, कोई चाहता है कि ये मौतें रहस्य ही बनी रहें,” आदि ने कहा। पाटिल ने उसे ध्यान से देखा और धीमे लेकिन ठोस शब्दों में बोला, “मुंबई में कुछ सच ऐसे होते हैं जिन्हें जानना तुम्हारे लिए ही नहीं, तुम्हारे आसपास के लोगों के लिए भी खतरनाक होता है।” उसने अपने ड्रॉअर से एक पुरानी, पीली पड़ चुकी अखबार की कटिंग निकाली और आदि के सामने रख दी। उसमें बीस साल पहले का एक छोटा-सा समाचार था—‘रेलवे मजदूर की हत्या, पुल के नीचे लाश मिली’। पाटिल ने कहा, “तब मैं इस डिपार्टमेंट में नया था। इस केस पर काम करने वाले दो अफसर कुछ हफ़्तों में ट्रांसफर कर दिए गए, एक तो अचानक गायब ही हो गया। तब से मैं जानता हूँ कि यह मामला सिर्फ़ पुलिस का नहीं, इसके पीछे शहर की बहुत गहरी परतें हैं।” आदि ने नोट किया कि पाटिल बात करते हुए कई बार दरवाज़े की ओर देखता है, जैसे डरता हो कि कोई सुन रहा है। यह साफ़ था कि वह किसी अदृश्य दबाव के तहत है, और शायद इसीलिए वह आधी बातें ही कह रहा है।
आदि ने उठते हुए कहा, “अगर मैं यह सब छोड़ दूँ, तो फिर पत्रकार होने का क्या मतलब है? मैं जानना चाहता हूँ कि यह सब किसके इशारे पर हो रहा है।” पाटिल ने उसकी ओर झुककर धीरे से कहा, “तो एक सलाह मान लो—अगर अगली लाश आने से पहले सच ढूँढना है, तो पुलिस की तरह मत सोचो… और मुझसे बहुत ज्यादा मिलने मत आना।” उसकी आँखों में एक अनकहा डर और चेतावनी दोनों थे। बाहर निकलते हुए आदि के कानों में पाटिल की बात गूंज रही थी—‘पुल के नीचे का सच सिर्फ़ पानी में नहीं, खून में बहता है।’ वह जानता था कि अब वापसी का कोई रास्ता नहीं है। पोस्टमॉर्टम रिपोर्टों का गायब होना, पुराने केस का दबा दिया जाना, और पाटिल का असहाय रवैया—ये सब मिलकर यह साबित कर रहे थे कि यह कोई सीरियल किलिंग नहीं, बल्कि एक सुनियोजित खेल है जिसमें शहर की ताक़तवर ताक़तें शामिल हैं। और इस खेल का अगला मोहरा शायद खुद वह बन सकता है।
४
शाम ढलने के साथ ही मुंबई के चर्नी रोड इलाके की पुरानी लाइब्रेरी में हल्की-सी नमी और बासी कागज़ की गंध भर गई थी। बाहर बारिश फिर से शुरू हो चुकी थी, और खिड़कियों के शीशे पर बूंदों की टक-टक, अंदर की खामोशी को और गहरी कर रही थी। आदि वर्मा, मोटे लेंस वाले अपने चश्मे के पीछे से एक के बाद एक अखबार की बाउंड वॉल्यूम्स पलट रहा था। उसकी उंगलियों पर धूल और पुरानी स्याही का रंग चढ़ चुका था। यह खोज सिर्फ़ जिज्ञासा नहीं थी—अब यह एक ज़िद थी। उसने पिछले तीस सालों के जून महीने की खबरें खंगालना शुरू किया, और कई पुराने संस्करणों में ‘लोहे के पुल के नीचे लाश’ जैसी छोटी खबरें मिलीं। फिर, 25 साल पुराना एक पन्ना उसके सामने आया—शीर्षक छोटा था, लेकिन विवरण में बहुत कुछ छिपा था: “रेलवे ट्रैक के पास मजदूर की मौत, पुलिस ने बताया हादसा”। रिपोर्ट में लिखा था कि मजदूर का नाम यूसुफ़ शेख था, उम्र 32, जो पास की लोहार चॉल में रहता था। मौत का कारण—‘फिसलकर सिर पर चोट लगना’। आदि को यह बात खटक गई—क्योंकि रिपोर्ट में किसी भी गवाह का नाम नहीं था, सिर्फ़ एक लाइन में लिखा था, “कुछ लोगों ने उसे आखिरी बार पुल के नीचे देखा था”।
वह यहीं नहीं रुका। नगर निगम के पुराने रिकॉर्ड सेक्शन में जाना आसान नहीं था, लेकिन एक पुराने संपर्क ने उसे एंट्री दिला दी। अंदर का माहौल अंधेरा और ठंडा था, दीवारों पर लगे पुराने पंखे लगातार घरघराहट कर रहे थे। एक सरकारी बाबू ने अनिच्छा से उसे पुराने डेथ रजिस्टर निकालकर दिए, जिनमें हाथ से लिखी स्याही अब धुंधली पड़ चुकी थी। पन्ने पलटते हुए उसने जून के वही दिन ढूंढे। और फिर उसे यूसुफ़ शेख का एंट्री मिला—लेकिन पते की जगह सिर्फ़ ‘N/A’ लिखा था, और गवाह वाले कॉलम में सीधी लकीर खींची गई थी, मानो नाम लिखे ही न गए हों। और भी अजीब यह था कि पेज के किनारे हल्के से कटे हुए थे, जैसे किसी ने उस्तरे से जानकारी सावधानी से मिटाई हो। आदि का पत्रकार वाला दिमाग तुरंत जागा—यह सिर्फ़ रिकॉर्ड की कमी नहीं, बल्कि एक सुनियोजित सफ़ाई थी। उसने बाबू से पूछा कि इतने पुराने दस्तावेज़ में ऐसी ‘ग़लतियाँ’ क्यों हैं, तो वह बस कंधे उचका कर बोला, “साहब, जो फाइल ऊपर से आती है, हम वैसी ही रखते हैं… ज्यादा पूछताछ ठीक नहीं।”
आदि ने अपनी नोटबुक में हर तारीख़, हर लाश, और हर साल के पैटर्न को टेबल की तरह बनाना शुरू किया। वह देख रहा था कि 25 साल पहले का यह पहला ‘अनऑफिशियल’ मर्डर किसी तरह आधिकारिक रूप से कभी मर्डर बना ही नहीं। इसके बाद हर साल एक लाश मिली, लेकिन केस कभी खुला नहीं। और सबसे रोचक—हर केस में कुछ न कुछ दस्तावेज़ गायब थे—कभी पोस्टमॉर्टम, कभी गवाहों के बयान, कभी पुलिस डायरी। यह सिर्फ़ आलस्य नहीं हो सकता था, यह किसी बड़े और लगातार चलने वाले दमन का नतीजा था। उसने यूसुफ़ शेख का नाम लेकर अखबार के पुराने क्राइम रिपोर्ट्स चेक किए, लेकिन आगे कहीं उसका ज़िक्र नहीं था—जैसे वह इंसान मरने से पहले भी अदृश्य था। यह बात उसे चुभ रही थी। किसी को मिटाने का सबसे आसान तरीका यही है—उसे रिकॉर्ड से हटा दो, ताकि उसकी मौजूदगी ही सवाल बन जाए। और शायद यही इस केस का पहला मकसद था।
रात गहरी हो चुकी थी जब वह लाइब्रेरी से बाहर निकला। बारिश ने सड़कों पर पीले लैंपलाइट्स को धुंधला कर दिया था, और हवा में रेल की पटरियों की सी गंध थी। वह जानता था कि यह सुराग, यूसुफ़ शेख का नाम, और रिकॉर्ड की रहस्यमयी सफ़ाई, उसे सीधे उस परत तक ले जा सकती है जहाँ यह खेल शुरू हुआ था। लेकिन इसके लिए उसे दो चीज़ों की ज़रूरत थी—एक, उस समय के जीवित गवाह, अगर वे अब भी ज़िंदा हैं; और दो, वह असली कहानी जो 25 साल पहले पुल के नीचे लिखी गई थी। उसे महसूस हुआ कि वह अब सिर्फ़ एक रिपोर्टर नहीं रहा, बल्कि एक ऐसा खिलाड़ी बन चुका है जिसे बोर्ड पर किसी ने बुलाया नहीं, लेकिन जो अब खेल से बाहर भी नहीं निकल सकता। आसमान में दूर से ट्रेन की आवाज़ आई, और आदि को लगा जैसे वह पुल खुद उससे कह रहा हो—“तूने दरवाज़ा खोल दिया है, अब देख क्या मिलता है।”
५
बरसात की रिमझिम में भीगी मुंबई की सड़कों पर शाम का पीला उजाला उतर रहा था। लोहे के पुल के पास, पुराने रेलवे क्वार्टरों के किनारे एक छोटा-सा टिन की छत वाला ढाबानुमा चाय का ठेला था—मामा गणेश का अड्डा। चालीस साल से ज्यादा समय से वह यहीं चाय बेच रहे थे, और कहा जाता था कि पुल के नीचे की हर हलचल उनकी आँखों से बच नहीं पाती। आदि वर्मा ने उन्हें पहले भी दूर से देखा था—झुकी कमर, सफ़ेद झब्बेदार मूंछें, और हमेशा माथे पर पसीने की हल्की चमक। आज वह ठानकर आया था कि मामा गणेश से कुछ निकालेगा। उसने एक चाय का ऑर्डर दिया और ठेले के कोने में रखी बेंच पर बैठ गया। मामा ने बिना ज़्यादा देखे, पीतल के पतीले से उबलती चाय कप में उँडेली, और बस इतना कहा, “लाश वाली बात मुझसे मत पूछ, बाबू। जो देखना था, देख लिया… अब बाकी दिन चैन से गुजर रहे हैं।” आदि मुस्कुराया, “चैन से जीने का मतलब ये नहीं कि सच को दबा दो, मामा।” लेकिन मामा ने कोई जवाब नहीं दिया, बस अपने ग्राहकों को सर्व करते रहे।
बारिश थोड़ी तेज़ हुई, तो मामा ने टिन की छत पर रखे पत्थरों को ठीक किया ताकि पानी अंदर न टपके। इस बीच आदि ने दूसरी चाय मंगाई, फिर तीसरी। हर कप के साथ वह छोटे-मोटे किस्से छेड़ता—पुल की पुरानी बनावट, ट्रेन के समय, बरसों पुराने बाढ़ के किस्से—ताकि माहौल हल्का हो। मामा धीरे-धीरे सहज होने लगे, लेकिन लाशों का ज़िक्र आते ही उनकी आँखें अनजाने डर से सिकुड़ जातीं। चौथी चाय के बाद, शायद चाय की गरमी और आदि की जिद ने असर किया, मामा ठेले के पीछे से झुककर फुसफुसाए, “हर साल की लाश, बाबू, बस यूं ही नहीं रखी जाती। चेहरा हमेशा पश्चिम की तरफ़ होता है… जैसे डूबते सूरज को देख रहा हो। और बायाँ हाथ फैला होता है, उँगलियाँ सीधी, मानो किसी को इशारा कर रही हों।” उन्होंने चाय की केतली का ढक्कन हटाकर भाप निकलने दी, फिर बोले, “पहली बार जो देखा, तब लगा संयोग है। लेकिन दूसरी, तीसरी… और अब तो जैसे रिवाज़ बन गया है।”
आदि ने नोटबुक निकाली और तुरंत इस विवरण को दर्ज किया। “ये इशारा किस तरफ़ होता है?” उसने पूछा। मामा ने एक पल सोचा, फिर गर्दन मोड़कर पुल के नीचे के अंधेरे कोने की तरफ़ इशारा किया—जहाँ पत्थरों की दीवार काई से हरी हो चुकी थी। “वहीं, उस कोने में… जहां अब कोई जाने की हिम्मत नहीं करता।” उनकी आवाज़ में अजीब सा कंपन था। “तूने खुद देखा है?” आदि ने पूछा। मामा ने होंठ भींच लिए, फिर धीमे से बोले, “दो बार… लेकिन तीसरी बार के बाद मैंने कसम खा ली, कि कभी नहीं देखूँगा। रात में वो चेहरा… और वो फैला हुआ हाथ… ऐसा लगता था जैसे लाश मुझसे कुछ कहना चाहती है, पर आवाज़ गले में अटक गई हो।” उन्होंने कप धोते हुए धीरे से जोड़ा, “ये कोई इशारा है, बेटा… बस समझने की हिम्मत चाहिए। हिम्मत… और कीमत चुकाने का मन।”
बारिश थम चुकी थी, लेकिन हवा में अब भी नमी और लोहे की गंध घुली थी। आदि ने आखिरी घूंट लेते हुए सोचा—मामा गणेश ने उसे एक बेहद ठोस, लेकिन डरावना पैटर्न दे दिया था। पश्चिम की ओर चेहरा, बायाँ हाथ फैला हुआ, और वह अंधेरा कोना—यह कोई संयोग नहीं हो सकता था। इसका मतलब था कि हत्यारा, या जो भी यह कर रहा है, वह किसी पुरानी रस्म या गहरे निजी मकसद के तहत हर साल मौत को ‘संदेश’ में बदल रहा है। मामा की आँखों में अब एक तरह का सुकून था—शायद सच का थोड़ा हिस्सा कह देने से। लेकिन साथ ही एक डर भी, कि उसने जो बताया, वह आगे क्या खतरनाक दरवाज़े खोलेगा। पुल के पास से गुजरती ट्रेन की गर्जना ने दोनों की बात को बीच में रोक दिया। जब शोर थमा, तो मामा बस इतना बोले, “बाबू, अगर तू उस इशारे का मतलब समझ गया… तो समझ, तूने मौत को खुद बुला लिया।” और यह कहकर उन्होंने अपनी केतली फिर से चढ़ा दी, मानो बात वहीं खत्म हो गई हो।
६
रात के करीब नौ बजे, समुद्र से उठती नमी और शहर के ट्रैफिक का शोर एक अजीब-सा भारीपन हवा में घोल रहे थे। आदि वर्मा अपने नोट्स को पलटते हुए सना के छोटे से फोटो-स्टूडियो पहुँचा। दीवारों पर पुराने ब्लैक-एंड-व्हाइट प्रिंट्स टंगे थे—कुछ वीरान गलियों के, कुछ जर्जर पुलों के, और कुछ ऐसे चेहरों के जो कैमरे के सामने भी निडर खड़े थे। सना ने बिना ऊपर देखे कहा, “आदि, तू इस बार सच में खतरे के बहुत करीब आ गया है।” उसने अपने कैमरे का लेंस साफ़ करते हुए एक नाम लिया—“इमरान भाई।” यह नाम हवा में ऐसे ठहर गया, जैसे किसी ने कमरे का तापमान अचानक गिरा दिया हो। सना ने फुसफुसाकर बताया, “इस शहर में इमरान का नाम लेना भी गुनाह है। पुलिस भी सीधी टक्कर लेने से बचती है, क्योंकि उसके हाथ सिर्फ़ हथियारों में नहीं, सिस्टम में भी हैं।” उसकी आँखें एक पल के लिए दरवाज़े की ओर गईं, जैसे उसे डर हो कि कोई सुन न रहा हो।
आदि ने कलम को मेज़ पर रखते हुए पूछा, “तो इन लाशों का उससे क्या लेना-देना है?” सना ने हल्की-सी हँसी के साथ सिर हिलाया, जिसमें कोई खुशी नहीं थी, सिर्फ़ व्यंग्य था। “तुझे लगता है, नौ साल से हर साल एक ही तारीख़ को लाश मिलना बस यूं ही है? ये ‘पुराना हिसाब’ चुकाने का तरीका है। शहर के पुराने गैंगवार में बहुत से लोग ग़ायब हुए थे, और कुछ का हिसाब कभी नहीं हुआ। इमरान भाई को पुराने रंजिशें सुलझाने का अपना तरीका है—तारीख़, जगह और पैटर्न… ताकि हर कोई समझ जाए कि खेल अभी खत्म नहीं हुआ।” उसने एक फोटोग्राफ निकाली, जिसमें पुल के नीचे वही अंधेरा कोना दिख रहा था, लेकिन उसमें एक आदमी की परछाईं स्पष्ट थी—लंबा, चौड़े कंधों वाला, और हाथ में शायद कोई थैला। “ये पिछले साल की रात का शॉट है,” उसने धीमे से कहा। “मैंने इसे किसी को नहीं दिखाया… क्योंकि दिखाने का मतलब है, गायब हो जाना।”
कमरे में एक पल के लिए सिर्फ़ घड़ी की टिक-टिक सुनाई दी। बाहर से गुजरती ट्रेन का कंपन फर्श तक महसूस हुआ। सना ने आगे कहा, “तूने शायद नोट किया होगा—हर लाश का चेहरा पश्चिम की ओर, और बायाँ हाथ फैला हुआ होता है। ये सिर्फ़ कोई साइन नहीं… ये उस शख़्स की आखिरी दिशा है, जिसे वो दिखाना चाहता था। इमरान के लोग इसे एक तरह का ‘संदेश’ मानते हैं—किसी को याद दिलाने के लिए कि कर्ज़ अभी बाकी है।” आदि ने उसकी बात ध्यान से सुनी, लेकिन मन में सवाल उठ रहे थे—अगर यह गैंगवार का हिस्सा है, तो पुलिस क्यों चुप है? और ये तारीख़ ही क्यों? सना ने जैसे उसके मन की बात पढ़ ली, “क्योंकि तारीख़ ही उसकी पहचान है। उस दिन कुछ हुआ था… कुछ ऐसा, जिसने शहर के अंडरवर्ल्ड का नक्शा बदल दिया। और जब तक वो राज़ नहीं समझेगा, तू इस खेल को नहीं सुलझा पाएगा।”
आदि ने नोटबुक बंद की और गहरी सांस ली। उसे महसूस हुआ कि वह अब एक ऐसे नाम से टकरा चुका है जो सिर्फ़ अपराध की कहानी का हिस्सा नहीं, बल्कि उस अपराध की जड़ है। सना ने जाते-जाते उसकी ओर देखते हुए आखिरी चेतावनी दी, “आदि, इमरान भाई के बारे में लिखना, पूछना या सोचना… तीनों खतरनाक हैं। लेकिन अगर तूने ये रास्ता चुना है, तो यकीन मान, अब पीछे लौटना मुमकिन नहीं।” बाहर निकलते ही समुद्री हवा के साथ हल्की-सी ठंडक उसकी हड्डियों में उतर गई। पुल के नीचे की लाशें अब उसे किसी लोककथा का हिस्सा नहीं लग रही थीं—ये एक सुनियोजित, ठंडे दिमाग से खेले जाने वाले खेल के मोहरे थे, और इमरान भाई उस खेल का अदृश्य राजा। दूर से आती ट्रेन की सीटी ने जैसे एक और संदेश दिया—कि समय तेजी से भाग रहा है, और अगली लाश शायद बहुत जल्द मिल सकती है।
७
सांझ के समय, जब शहर की रोशनी धीरे-धीरे जलने लगी थी, आदि वर्मा अपने छोटे से किराए के कमरे में अखबारों के पीले पड़ चुके पन्नों में खोया बैठा था। उसने पिछले नौ साल की हर लाश की तारीख़ को नोट किया था, और अब वह उन तारीख़ों को पुराने घटनाक्रमों के साथ मिलाने की कोशिश कर रहा था। अचानक उसकी नज़र एक पुराने अख़बार की हेडलाइन पर अटक गई—”मुंबई डॉकवर्कर स्ट्राइक में 11 मजदूरों की मौत”। तारीख़ वही थी, जिस दिन हर साल पुल के नीचे लाश मिलती है। यह संयोग नहीं हो सकता था। वह आर्टिकल विस्तार से पढ़ने लगा—उस दिन बंदरगाह के मज़दूर वेतन और सुरक्षा की मांग को लेकर हड़ताल पर थे, लेकिन टकराव इतना बढ़ा कि पुलिस ने गोली चला दी। गवाहों का कहना था कि यह सिर्फ़ पुलिस की कार्रवाई नहीं थी, बल्कि बंदरगाह के कुछ प्रभावशाली लोगों ने भी हिंसा को हवा दी। और इस गोलीबारी में 11 मज़दूर मारे गए थे।
आदि ने एक और रिपोर्ट निकाली, जिसमें एक नाम बार-बार आता था—इमरान खान, उम्र 27, पेशा: ट्रक ड्राइवर। रिपोर्ट के मुताबिक, इमरान उन मारे गए मज़दूरों के बीच सबसे आगे रहने वाले नेता का छोटा भाई जैसा था। उस दिन, जब गोलियां चलीं, इमरान ने अपने दोस्त और ‘भाई’ जैसे साथियों को अपनी आँखों के सामने मरते देखा था। इसके बाद वह अचानक गायब हो गया—कोई नहीं जानता था कि वह कहाँ गया, क्या किया, लेकिन अफवाह थी कि उसने कसम खाई थी: “हर उस गद्दार को मैं उसकी औकात याद दिलाऊँगा, उसी दिन, उसी वक्त।” यह वाक्य मज़दूर बस्ती में एक फुसफुसाई जाने वाली कहानी बन चुका था। आदि को समझ आने लगा कि यह “तारीख़” सिर्फ़ एक कैलेंडर पर अंकित दिन नहीं, बल्कि इमरान भाई के लिए एक सालाना युद्धघोष था।
आदि ने नक्शा निकाला और उन जगहों को मार्क किया जहाँ-जहाँ इन सालों में लाशें मिली थीं—हर जगह का कोई न कोई अप्रत्यक्ष संबंध उस पुराने स्ट्राइक से था। किसी लाश का शिकार एक पूर्व यूनियन सदस्य था, जो बाद में मालिकों के साथ मिल गया था; किसी की पहचान एक ऐसे पुलिसकर्मी से जुड़ी थी, जिसने उस दिन गोली चलाई थी; और कुछ तो ऐसे लोग थे जिनका नाम कहीं दर्ज नहीं, लेकिन पुराने मजदूरों की कहानियों में आता था। यह सब मिलाकर एक भयावह तस्वीर बन रही थी—इमरान भाई अपने ‘भाइयों’ की मौत का हिसाब धीरे-धीरे, साल-दर-साल चुका रहा था। वह हर हत्या को एक ‘यादगार’ बना देता था, ताकि यह तारीख़ डर और खामोशी में हमेशा जीवित रहे।
रात गहराने लगी थी, और बाहर हल्की बूंदाबांदी शुरू हो चुकी थी। आदि ने खिड़की से झांककर लोहे के पुल की दिशा में देखा—वहीं, जहाँ अगली लाश का इंतज़ार जैसे हवा में तैर रहा था। अब यह साफ़ था कि यह केस सिर्फ़ एक क्राइम स्टोरी नहीं, बल्कि एक पुराने खून के कर्ज़ का हिस्सा था, जिसे एक आदमी ने अपनी ज़िंदगी का मकसद बना लिया था। तारीख़, जगह, और पैटर्न—ये सब एक-एक धागा थे, जो उस दिन की गोलीबारी से बंधे थे। लेकिन असली सवाल अभी भी बाकी था—अगर इमरान भाई यह सब कर रहा है, तो अगला शिकार कौन है? और सबसे बड़ा डर—क्या इस बार, वह खेल किसी ऐसे मोड़ पर पहुँचने वाला है, जहाँ सिर्फ़ पुराने गुनहगार ही नहीं, बल्कि सच जानने की कोशिश करने वाले भी निशाने पर होंगे?
८
सुबह का आसमान भारी और धूसर था, जैसे बादल भी शहर पर मंडरा रहे ख़तरे को महसूस कर रहे हों। आदि ने सना को फोन किया—पहली बार घंटी बजी, फिर दूसरी बार, और तीसरी बार जाते-जाते कॉल अचानक कट गई। बेचैनी उसके भीतर कंकड़ की तरह हिलने लगी। उसने सना के स्टूडियो का दरवाज़ा खटखटाया, पर ताला बाहर से बंद था। पड़ोसी ने बताया, “कल रात देर तक वो किसी से फोन पर बात कर रही थी… फिर सुबह-सुबह एक टैक्सी आई और वो बाहर निकली, लेकिन लौटकर नहीं आई।” यह सुनते ही आदि के गले में एक सर्द गांठ-सी पड़ गई। वह सीधे पुल की ओर दौड़ पड़ा—वहीं, जहाँ से उसकी और सना की खोज शुरू हुई थी। बारिश की हल्की बूंदें गिर रही थीं, और रेलवे पुल के नीचे का काला, नम हिस्सा जैसे किसी रहस्य को छुपाए खड़ा था। और तभी, गीली मिट्टी के पास, उसे एक कैमरा बैग पड़ा मिला—सना का।
उसने बैग उठाकर खोला—अंदर कैमरा, कुछ लेंस, और एक मेमोरी कार्ड था। उसके हाथ थोड़े काँप रहे थे, लेकिन उसने कैमरा ऑन किया। आखिरी तस्वीर देखते ही उसके पेट में ठंडक उतर गई—पुल के नीचे तीन नकाबपोश आदमी खड़े थे। उनके चेहरे पूरी तरह ढंके थे, लेकिन उनकी बॉडी लैंग्वेज में एक खतरनाक आत्मविश्वास था, जैसे उन्हें किसी की मौजूदगी से डर न हो। उनमें से एक के हाथ में कुछ भारी और धातु जैसी चीज़ थी—शायद एक चेन या लोहे की रॉड। तस्वीर में सना का कैमरा थोड़ा झुका हुआ था, जिससे अंदाज़ा होता था कि यह फोटो जल्दी में, बिना फ्रेम बनाए ली गई थी… शायद उस पल, जब वह भागने की कोशिश कर रही थी। आदि को महसूस हुआ कि यह तस्वीर सिर्फ़ एक रिकॉर्ड नहीं, बल्कि एक सिग्नल थी—कि वे लोग जान चुके थे, कोई उन्हें देख रहा है।
आदि वहीं जमीन पर बैठ गया, तस्वीर को बार-बार देखते हुए। अब उसे समझ आया कि वह खुद इस खेल में गहराई तक फँस चुका है। यह अब महज़ एक कहानी नहीं रही, न ही सिर्फ़ अतीत का रहस्य सुलझाने की कोशिश—यह एक जाल था, जिसमें वह और सना दोनों फँस चुके थे। फर्क बस इतना था कि सना शायद कहीं बंधक बनी थी, और वह आज़ाद होते हुए भी असल में बंदी था। पुल के नीचे से गुजरती ट्रेन ने ज़मीन को हिला दिया, और उस कंपन में आदि को लगा जैसे कोई अदृश्य हाथ उसे भीतर खींच रहा हो। उसके कानों में मामा गणेश की पुरानी बात गूँजने लगी—“ये कोई इशारा है, बेटा… बस समझने की हिम्मत चाहिए।” अब उस इशारे का मतलब और भी गहरा हो गया था—सिर्फ़ लाशों का पैटर्न नहीं, बल्कि जिंदा लोगों को भी गायब करने का तरीका।
वह धीरे-धीरे पुल से दूर चला, लेकिन हर कदम पर उसे लगता रहा कि कोई उसकी पीठ के पीछे चल रहा है। सड़क के दूसरी तरफ़ जाते हुए उसने एक क्षण के लिए आईने जैसी गीली सड़क पर अपने अलावा एक और परछाईं देखी—लंबी, चौड़े कंधों वाली। उसने मुड़कर देखा, लेकिन वहां कोई नहीं था। हवा में सिर्फ़ समुद्र की खारी गंध और लोहे के पुल की पुरानी, जंग लगी महक थी। आदि जानता था कि अब वह सिर्फ़ एक रिपोर्टर नहीं, बल्कि इस साल के ‘तारीख़ वाले खेल’ का हिस्सा बन चुका है—और शायद अगली कहानी में, उसका नाम भी किसी फाइल से रहस्यमय तरीके से गायब हो जाएगा, जैसे पिछले नौ साल के शिकारों का हुआ था।
९
बारिश उस रात लगातार बरस रही थी, मानो आसमान भी मुंबई के इस पुराने लोहे के पुल के नीचे होने वाले खेल का साक्षी बनना चाहता हो। तारीख़ वही थी—साल की सबसे डरावनी, सबसे चुप रात। आदि और इंस्पेक्टर पाटिल गहरे साए में छिपकर इंतज़ार कर रहे थे, उनके कपड़े बारिश में भीग चुके थे और सांसें ठंडी हवा में धुंध की तरह निकल रही थीं। लोहे के पुल की जंग लगी बीमों से पानी टपकता, ज़मीन पर गड्ढों में गिरकर धीमे-धीमे लहरें बनाता। दोनों की निगाहें पुल के नीचे उस जगह पर टिकी थीं, जहाँ हर साल लाश मिलती थी। घड़ी की सुइयाँ धीरे-धीरे आधी रात की तरफ़ बढ़ रही थीं, और हवा में एक अजीब-सी खामोशी थी—जैसे शहर ने अपनी सांस रोक ली हो। तभी, दूर से हेडलाइट्स की चमक दिखी, और एक पुरानी वैन गीली सड़क पर फिसलती हुई पुल के किनारे आकर रुक गई।
चार आदमी जल्दी-जल्दी वैन से उतरे, उनके चेहरों पर काले नकाब थे, और हाथों में भारी लोहे की छड़ें। उन्होंने वैन का पिछला दरवाज़ा खोला और एक बंधे हुए शख्स को बाहर घसीटने लगे। बारिश में भीगा हुआ वह शिकार कराह रहा था, लेकिन उसकी आवाज़ गाड़ियों की आवाज़ और पानी की बौछार में दब गई। पाटिल ने हल्की फुसफुसाहट में कहा, “यही वक्त है।” दोनों आगे बढ़ने ही वाले थे कि टॉर्च की रोशनी अचानक सीधी उन नकाबपोश आदमियों पर पड़ी—और बीच में खड़ा था इमरान भाई खुद। उसकी आँखों में कोई हिचकिचाहट नहीं, सिर्फ़ पुराना हिसाब चुकाने का ठंडा संकल्प। उसके हाथ में एक पुराना रिवॉल्वर था, जिस पर जंग की हल्की परत चढ़ी हुई थी, लेकिन ट्रिगर पर उसकी उंगली बेहद स्थिर थी।
अगले ही पल सब कुछ विस्फोट की तरह फट पड़ा। गोलियों की आवाज़ ने पुल के नीचे की हवा चीर दी, और धातु के ढांचे में कंपन दौड़ गया। पाटिल ने तुरंत कवर लिया और जवाबी फायर किया, जबकि आदि ने बंधे हुए शख्स की तरफ़ दौड़ने की कोशिश की। बारिश की बूंदें अब गोलियों के साथ मिलकर किसी युद्ध का संगीत बना रही थीं—हर धमाके के साथ पानी की छींटें हवा में उड़ रही थीं, और चीखें लोहे के पुल की गूंज में खो रही थीं। इमरान भाई ने एक तेज़ नज़र से आदि को देखा, और उस एक पल में जैसे समय रुक गया—दोनों समझ गए कि यह मुकाबला अब सिर्फ़ जान बचाने का नहीं, बल्कि कहानी के अंत का फैसला करने का है। एक गोली आदि के बेहद करीब से गुज़री, और उसने महसूस किया कि यह खेल उसकी कल्पना से कहीं ज्यादा खतरनाक है।
उस रात सच सामने आया—इतने सालों की लाशें, हर साल की तारीख़, सब एक ही वादा निभाने के लिए थे, जिसे इमरान भाई ने डॉकवर्कर स्ट्राइक के दिन किया था। लेकिन आखिरी ट्विस्ट यह था कि बंधा हुआ शख्स कोई गद्दार मजदूर नहीं, बल्कि पाटिल का ही पुराना इनफॉर्मर था, जो इमरान के सबसे करीब जाकर उसे पकड़वाने की योजना बना रहा था। जैसे ही पाटिल ने यह जाना, उसकी आंखों में झिझक आ गई—और वही झिझक उसकी हार बन गई। गोलियों की बौछार में यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि कौन किसके हाथ से गिरा, किसकी चीख आखिरी थी, और कौन ज़िंदा बचा। बस इतना याद रहा कि पुल का पुराना ढांचा पूरी रात कांपता रहा, और सुबह होते-होते वहां सिर्फ़ बारिश से धुली मिट्टी, कुछ गोलियों के खोखे, और एक पुराना लोहे का सिक्का रह गया—जिस पर साल का अंक फिर से मिटा हुआ था।
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