तृषा तनेजा
१
धुंध से भरी उस सुबह में, पहाड़ों का रंग नीला नहीं था—वह कुछ धुंधला, कुछ राखी था, जैसे नींद से आधे जागे किसी ख्वाब के किनारे खड़े हों। चित्रधारा नामक इस छोटे से पहाड़ी कस्बे में पहली बार कदम रखते ही दक्ष सहगल को लगा मानो किसी भूली हुई याद की गलियों में लौट आया हो। स्टेशन से लेकर गांव के ऊपरी छोर तक पहुँचने वाली पतली पगडंडी के दोनों ओर देवदार के ऊँचे वृक्ष उसकी यात्रा के साथी बने हुए थे। उसके ट्रैवल बैग से लटकता कैमरा हर छाया को पकड़ने को उतावला था, पर उसके भीतर की बेचैनी उस से भी अधिक तेज़ थी—मानो वह यहां खुद की तस्वीर खींचने आया हो। घाटी के उस पार दूर कहीं मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, और हवा में धूप की गंध घुलने लगी थी। गेस्ट हाउस पहुँचकर उसने बैग नीचे रखा, चाय की चुस्की ली, और पहाड़ों की चुप्पी में कुछ पल खुद को समेट लिया। यहीं से शुरू हुई उसकी तलाश—बिना किसी दिशा या नाम के—बस एक एहसास को ढूंढने की, जिसे उसने बरसों पहले खो दिया था।
दोपहर होते-होते वह कैमरा उठाकर कस्बे की गलियों में उतर आया। लोग यहाँ कम बोलते थे, लेकिन उनकी आंखों में वो कहानियाँ थीं जो शहरों में किताबों में भी नहीं मिलतीं। दुकानों के शटर ढीले थे, पुराने दरवाज़ों पर लगी ताले पर धूप थिरक रही थी। जब वह पुस्तकालय के पास पहुँचा, एक पुरानी लकड़ी की बिल्डिंग जिसमें जीवन के कुछ थमे हुए साल अब भी साँस लेते थे, वहाँ कुछ बच्चों की आवाजें सुनाई दीं। भीतर दाखिल होते ही उसकी नजर उस पर पड़ी—एक लड़की, जिसकी पीठ सूरज की ओर थी, लेकिन जिसका चेहरा किसी कविता का मुखपृष्ठ लग रहा था। मीरा भट्टाचार्य—गहरे रंग की सलवार, बालों को पीछे बाँध रखा था, और हाथ में एक पुरानी किताब। वह बच्चों को कुछ पढ़ा रही थी, लेकिन उसके बोलने के ढंग में जैसे कोई पुराने राग की लय छुपी थी। दक्ष ने अनजाने में कैमरे का शटर दबाया—एक क्षण के लिए, बगैर उसकी इजाज़त के, बगैर कुछ कहे। उसकी आँखों ने मीरा को नहीं, उसके मौन को कैद कर लिया था। मीरा ने सिर घुमाया, उसकी ओर देखा, और उसकी निगाह में हल्की सी जिज्ञासा तैर गई। कोई परिचय नहीं हुआ, कोई मुस्कान नहीं बांटी गई, लेकिन कुछ था जो उस क्षण में पिघल कर समय के भीतर रिस गया।
शाम तक चित्रधारा की हवाओं में सर्दी उतरने लगी थी। दक्ष गेस्ट हाउस की बालकनी में बैठा चाय पी रहा था, और मीरा की छवि अब भी उसकी आंखों के भीतर चलती तस्वीर की तरह ठहरी हुई थी। उसे खुद पर हैरानी हो रही थी—क्योंकि इतने सालों में वह किसी अनजान चेहरे से इतना नहीं जुड़ा था जितना आज उस एक मुलाकात ने उसे जकड़ लिया था। नीचे घाटी में बत्तियाँ जलने लगी थीं, मंदिर की घंटियाँ मंद हो गई थीं, और दूर से आती हल्की बूंदों की सरसराहट उसके भीतर की खामोशी को चूम रही थी। वह जानता था कि यह सिर्फ एक शुरुआत है, लेकिन इसमें कुछ बहुत गहरा है—कुछ जो उस तस्वीरों से आगे जाकर आत्मा को छूता है। उसने कैमरा बंद किया, चाय का कप टेबल पर रखा, और आसमान की ओर देखा। पहाड़ों के ऊपर चाँद धीरे-धीरे निकल रहा था। दक्ष के मन में एक हल्का-सा ख्वाब पिघलने लगा—एक ऐसा सपना, जो शायद मीरा की आंखों से होकर उसकी आत्मा तक पहुंचने को तैयार था।
२
दक्ष अगले कुछ दिनों तक चित्रधारा के उस शांत और अभ्यस्त जीवन में खो सा गया था। उसने तय किया था कि वह यहाँ सिर्फ तस्वीरें नहीं, बल्कि उन अदृश्य लम्हों को भी पकड़ेगा, जो उसकी आंखों से अक्सर छुप जाते हैं। उसे एहसास था कि यह जगह सिर्फ एक क्षणिक आराम नहीं थी, बल्कि आत्मा को रचनात्मकता में फिर से ढालने की एक प्रक्रिया थी। जैसे एक गायक अपनी आवाज़ को किसी साधना की तरह परिष्कृत करता है, वैसे ही दक्ष ने अपनी नजरें उन चीज़ों पर घुमा दी थीं जो आमतौर पर अनदेखी रह जाती थीं—एक पत्ते का मुड़ना, सूरज की हल्की किरण जो किताबों की धूल में समा जाती, या फिर किसी बच्चे का चेहरा जो आधे छाए हुए किवाड़ से झाँकता हो। लेकिन, इन सबके बीच कुछ था जो उसे सबसे ज़्यादा आकर्षित करता था—वो था मीरा का अस्तित्व, उसकी किताबों और शब्दों की दुनिया। हर दिन, जैसे ही पुस्तकालय का दरवाज़ा खुलता, मीरा उसी जगह पर होती, जहां उसने उसे पहली बार देखा था—सुखद शांति में डूबी, और किताबों से घिरी हुई। उसकी किताबों का मोल सिर्फ पन्नों में नहीं था, बल्कि उसमें बसी हर कविता, हर कहानी में एक अनकहा संवाद था, जिसे दक्ष ने अपनी आँखों से महसूस किया था।
धीरे-धीरे दक्ष का आना-जाना पुस्तकालय में बढ़ता गया। वह अक्सर किताबें लेकर बैठता, लेकिन कभी भी मीरा से सीधा संवाद नहीं करता। वह बस उसे देखता था, कभी उसे पढ़ते हुए, तो कभी किताबों के बीच चलती उसकी उंगलियों की सफ़ेद छाया को। मीरा के पास हमेशा कोई किताब होती—कभी ग़ज़ल की किताब, कभी कोई कवि की जीवनी। दक्ष के भीतर एक जिज्ञासा थी, लेकिन वह कभी किसी सवाल का जवाब नहीं चाहता था। उसकी निगाहों में जैसे मीरा का हर शब्द एक चुप्पी में तब्दील हो जाता, और वह चुप्पी ही उसे दिलचस्प लगती थी। वह चाहकर भी यह नहीं जान सकता था कि मीरा की आंखों में क्या था, क्यों वह उसे इतने खामोश तरीके से देखती थी, जैसे उसकी आंखों में कोई छुपा हुआ रहस्य हो। एक दिन, जैसे ही मीरा ने अपना काम खत्म किया और किताबें वापस रखने के लिए उठी, दक्ष ने अचानक उससे पूछा, “क्या आपको कभी महसूस होता है कि शब्द हमेशा अपनी पूरी कहानी नहीं कह पाते?” मीरा ने चौंकते हुए उसकी ओर देखा, और फिर हल्की सी मुस्कान के साथ कहा, “कभी-कभी शब्दों की चुप्पी ही सबसे बड़ी बात होती है।” यह उत्तर न तो नकारात्मक था, न ही सकारात्मक, बस एक सहज सत्य था, और दक्ष ने इसे अपने भीतर कहीं गहरे तक महसूस किया।
अगले कुछ दिनों में, दक्ष और मीरा के बीच शब्दों की कमी एक अजीब सी समझ में बदल गई। पुस्तकालय में दोनों के बीच अब कोई भी व्यर्थ का संवाद नहीं था, बस एक ख़ामोशी थी जो उनकी आँखों से होकर उनके दिलों तक पहुँचती थी। मीरा की दादी सवित्री अक्सर दोनों को देखती रहतीं, और उनकी मुस्कान से यह साफ़ ज़ाहिर होता था कि वह इस चुप्पी से सब कुछ समझ रही थीं। एक दिन, जब दक्ष और मीरा फिर से साथ बैठे थे, मीरा ने अचानक उसे एक किताब दी—”अजनबी से कुछ कहानियाँ”—और बोला, “यह किताब कुछ हद तक वही करती है जो शब्द नहीं कर पाते। इसे पढ़कर शायद तुम कुछ समझ पाओ।” दक्ष ने किताब ली, और मीरा की आँखों में एक सूक्ष्म सी गहराई देखी, जैसे वह खुद भी कोई अधूरी कहानी हो, जो उसे ढूँढने के लिए पूरी दुनिया को सामने लाकर रख देगी। दक्ष ने उस दिन रात तक किताब का एक बड़ा हिस्सा पढ़ डाला, और जैसे ही पन्ने पलटते गए, उसने महसूस किया कि मीरा की तरह ही वह भी अपने भीतर एक खामोश कहानी जी रहा था। उसके जीवन में कुछ ऐसा था जो अब तक केवल तस्वीरों में दिखता था, और वह कहानी का हिस्सा बन रहा था—लेकिन क्या वह तैयार था खुद को पूरी तरह से उसकी नजरों में देखने के लिए?
३
उस दिन सुबह से ही आकाश में बादलों की एक परत छाई हुई थी, जैसे चित्रधारा की सारी खामोशियाँ आज एक बूंद में ढलने को तैयार बैठी हों। दक्ष अपने कैमरे के साथ झील की ओर निकला था, पर आसमान की बढ़ती गहराई ने उसके कदमों को कस्बे की ओर मोड़ दिया। पुस्तकालय बंद था, शायद मीरा आज नहीं आई थी। एक अजीब बेचैनी उसके भीतर चुपचाप सरक रही थी, जैसे वो किसी परिचित संगीत के बिना रह गया हो। आसमान से पहली फुहारें गिरीं और कस्बे की छतें, गलियाँ और पत्ते, सब एकदम भीग उठे। हवा में मिट्टी और गीली लकड़ी की महक थी। दक्ष बिना छतरी के मंदिर की सीढ़ियों तक पहुँचा, जहाँ बारिश से बचने के लिए कुछ लोग ठहरे थे। पर एक कोना बिल्कुल शांत था—वहीं, सीढ़ियों के सबसे ऊपर, मीरा बैठी थी। उसके हाथ में एक नीली डायरी थी, और उसकी उंगलियाँ तेज़ी से पन्नों पर दौड़ रही थीं, जैसे बारिश और कविता के बीच कोई अदृश्य पुल बुन रही हों। उसके चेहरे पर हल्की सी नमी थी, शायद बारिश की, शायद उसकी आँखों से आई हुई।
दक्ष कुछ दूर ही खड़ा रहा, उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी उस लम्हे को छेड़ने की। उस क्षण में मीरा कोई लड़की नहीं, बल्कि एक कविता थी जो अपने आप को लिख रही थी—किसी पाठक के लिए नहीं, किसी दुनिया के लिए नहीं, बस अपने लिए। मंदिर की घंटियाँ धीमे बज रही थीं, और आस-पास के लोग बारिश से बचते हुए चुपचाप खड़े थे, पर दक्ष की आँखों में सिर्फ मीरा की छवि ठहरी थी। उसने बिना शटर की आवाज़ किए एक तस्वीर ली—लेकिन कैमरे से नहीं, अपनी आत्मा से। कुछ पल बाद मीरा ने अचानक सिर उठाया और उसे देखा, मानो वो जानती थी कि कोई उसे देख रहा है। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा, बस अपनी डायरी बंद की और धीमे से मुस्कराई—एक ऐसी मुस्कान, जिसमें न स्वागत था, न विरोध, सिर्फ स्वीकृति थी। वह सीढ़ियों से उतरी, पास से गुज़री, और जाते-जाते धीमे स्वर में बोली, “तस्वीर खींची, या कहानी लिख ली?” दक्ष ने कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ उसके जाने के बाद उस कोने में बैठ गया जहां वह थी, और अपनी हथेली को उसी पत्थर पर टिकाया—वहाँ अब भी थोड़ी सी गर्मी थी।
उस शाम दक्ष गेस्ट हाउस लौटा तो उसके भीतर एक अजीब सी ताजगी थी, जैसे किसी लंबे समय से सूखे हुए भाव ने अचानक कोई रूप पा लिया हो। उसने कैमरे की स्क्रीन पर दिन भर की तस्वीरें देखीं, पर मीरा की कोई तस्वीर उसमें नहीं थी—उसने वास्तव में उस क्षण को कैमरे में नहीं, अपने भीतर सहेजा था। बारिश अब भी गिर रही थी, लेकिन वह बूंदें अब केवल पानी नहीं, बल्कि एक लय बन चुकी थीं। दक्ष ने अपने कमरे की बत्तियाँ बुझा दीं और बालकनी से बाहर झाँका—हर चीज़ धुंध में डूबी हुई थी, लेकिन मीरा की छवि उतनी ही स्पष्ट थी जितनी सुबह की पहली किरण। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसके भीतर क्या हो रहा है—ये आकर्षण था, प्रेरणा थी, या कोई पुराने जन्म की स्मृति? पर वह जानता था कि कुछ बदल गया है। उस रात वह पहली बार बिना किसी तस्वीर के सोया, लेकिन उसकी नींद में एक कविता थी—जिसके शब्द उसने कभी नहीं सुने, पर जिसकी लय अब उसकी साँसों में घुल चुकी थी।
४
अगले दिन दोपहर में जब दक्ष पुस्तकालय पहुँचा, मीरा वहाँ नहीं थी—उसकी जगह एक बुज़ुर्ग महिला पुराने रजिस्टर में कुछ नाम दर्ज कर रही थीं। सफेद बालों की एक गहरी चोटी, माथे पर लाल टिकली और हाथों में महीन चूड़ियाँ—उनका चेहरा ऐसा था जैसे किसी पुराने दौर की स्मृति हो। दक्ष ने धीरे से पूछा, “मीरा आज नहीं आई?” उन्होंने चश्मा उतारते हुए मुस्कराकर कहा, “वो घर गई है, बारिश में भीग गई थी कल शाम… आप दक्ष हैं ना?” दक्ष थोड़े चौंके, लेकिन सिर हिलाकर हामी भरी। उन्होंने फिर बिना देर किए कहा, “वक़्त मिले तो हमारे घर आ जाइए, सामने वाली गली में नीले दरवाज़े वाला मकान है—मीरा की दादी सवित्री हूँ मैं।” दक्ष कुछ कह न पाया, बस झुककर धन्यवाद कहा और किताब उठाकर बाहर आ गया। चित्रधारा की पहाड़ियाँ उस दिन कुछ हल्की दिख रही थीं, शायद सूरज को बादलों से थोड़ी राहत मिल गई थी। लेकिन दक्ष के भीतर जो चल रहा था, वह एक नई दिशा पकड़ रहा था—मीरा का घर, उसका परिवार, उसकी दुनिया अब केवल कल्पना नहीं रही थी, अब उसमें प्रवेश का निमंत्रण मिल चुका था।
शाम होते-होते वह नीले दरवाज़े तक पहुँच गया। दरवाज़ा पहले से ही खुला था, जैसे किसी का इंतज़ार हो। भीतर लकड़ी की पुरानी गंध थी, और दीवारों पर रखी किताबें, पुराने पोस्टर और तस्वीरें उस घर को किसी जीवित संग्रहालय में बदल देती थीं। सवित्री दादी रसोई से निकलकर बोलीं, “आप आ गए, अच्छा हुआ। मीरा ऊपर कमरे में है, तब तक चाय पीते हैं।” चाय का कप उसके हाथ में देते हुए उन्होंने अचानक कहा, “मीरा के बारे में पूछना है?” दक्ष ने थोड़ा झेंपते हुए कहा, “नहीं, बस हालचाल लेने आया था।” दादी ने ठहरकर उसकी ओर देखा और हल्की मुस्कान के साथ कहा, “मीरा बचपन से ही अपने में डूबी रही है, किताबें उसकी दुनिया हैं। उसके माँ-बाप जल्दी चले गए, बस मैं हूँ उसकी… और कुछ यादें जो अब भी आँखों में पानी ला देती हैं।” उनका स्वर थमा नहीं, “एक लड़का था… अर्जुन, पुलिस की नौकरी में… मीरा को लगा था, प्यार समझदारी में बदल जाएगा। लेकिन हर समझदार रिश्ता आत्मा को नहीं छूता।” दक्ष ने बिना कुछ कहे कप में देखना शुरू किया, चाय अब भी गर्म थी, लेकिन उसके मन में कुछ ठंडा-सा फैल गया था। सवित्री ने धीमे स्वर में जोड़ा, “प्यार सिर्फ पास आने का नाम नहीं, दूरियों में भी जो छवि ठहरी रहती है ना, वही असली प्यार होता है।”
कुछ देर बाद मीरा सीढ़ियाँ उतरती हुई दिखाई दी—हल्के नीले रंग की सूती कुर्ती, बाल खुले, और आँखों में वही गहराई। उसने दक्ष को देखकर न कोई चौंक दिखाया, न कोई औपचारिक मुस्कान, बस धीमे से कहा, “आ गए?” जैसे कोई अपना लौट आया हो। वे तीनों थोड़ी देर तक चाय की चुस्कियों और धीमी बातचीत में बैठे रहे, फिर दादी उठकर भीतर चली गईं। अब केवल मीरा और दक्ष बचे थे, और बीच में रखा वही पुराना लकड़ी का मेज़, जिस पर चाय के हल्के धब्बे थे। मीरा ने धीरे से कहा, “कल मंदिर की सीढ़ियों पर जो हुआ… वो मैंने डायरी में लिखा।” दक्ष ने नज़रें उठाईं, उसकी आँखों में कोई सवाल नहीं था, सिर्फ एक मौन स्वीकृति। मीरा ने जोड़ा, “तुम्हारे बिना कहे समझने की आदत अच्छी लगती है, लेकिन डर भी लगता है… किसी ने कभी इतने ध्यान से मुझे नहीं देखा।” यह कहकर वह चुप हो गई। बाहर अंधेरा घिरने लगा था, और भीतर रोशनी धीरे-धीरे पीली पड़ रही थी। उस पल में, दो अधूरी आत्माएँ अपनी खामोशियों से एक-दूसरे के करीब आ रही थीं—बिना वादे, बिना डर, बस एक अनकही स्वीकृति के साथ।
५
अगली सुबह, आकाश में उमड़े बादल शहर के सिर पर एक छत्र बन गए थे—घनीभूत, ठहरे हुए, मानो कोई पुरानी यादें बारिश बनकर फिर से टपकने को तैयार थीं। दक्ष अपने कमरे की खिड़की से बाहर देखता रहा, चाय का प्याला हाथ में और दिल में पिछली शाम की मीरा—उसका नीला कुर्ता, सादा चेहरा, और वो बात जो उसने बिना घबराए कह दी थी: “तुम्हारे बिना कहे समझने की आदत अच्छी लगती है।” वह वाक्य दक्ष के भीतर कहीं ठहर गया था, जैसे कोई आवाज़ किसी बंद कमरे में बार-बार गूंजती है। उसी पल मीरा का मैसेज आया—बस दो शब्द: “बारिश चलेगा?” और उसके नीचे एक स्थान साझा किया गया था—चित्रधारा झील के पास वाली पुरानी झोंपड़ी, जहाँ शहर के लोग कभी पिकनिक मनाते थे, लेकिन अब वो जगह सैलानियों की नज़रों से बाहर हो गई थी। दक्ष ने बिना जवाब दिए छाता उठाया, कैमरा बैग कंधे पर डाला और सड़क की ओर चल पड़ा। रास्ते में छींटों ने उसे भीगोना शुरू कर दिया था, लेकिन मन इतना हल्का था कि जैसे हर बूंद एक पुराने बोझ को धो रही हो।
झील तक पहुँचते-पहुँचते बारिश तेज़ हो गई थी, लेकिन मीरा पहले से वहाँ बैठी थी—लकड़ी की बेंच पर, उसके आस-पास जलते अगरबत्ती के दो डंठल, और उसके हाथ में वही कॉफी मग जिसमें पिछली बार उसने पीला गुलाब रखा था। उसने दक्ष को देखकर कोई मुस्कान नहीं दी, सिर्फ अपने पास जगह बना दी, जैसे कह रही हो कि “तुम्हारा होना ही काफी है।” दक्ष चुपचाप बैठ गया। कुछ देर दोनों सिर्फ बारिश की आवाज़ सुनते रहे—झील पर गिरती बूंदों का संगीत, पेड़ों से टपकते जलकणों का मंद स्वर, और भीतर कहीं धड़कनों की लय। फिर मीरा ने धीमे से कहा, “बारिशें मुझे हमेशा उलझाती रही हैं… कभी अर्जुन के साथ भी इसी झील के पास बैठी थी… लेकिन तब ये बूंदें भीतर तक नहीं पहुंची थीं।” उसकी आवाज़ में अब न कोई दुख था, न क्रोध—बस एक तरह की स्वीकारोक्ति थी, जैसे कोई किताब का अधूरा अध्याय ज़ोर दिए बिना पलट रहा हो। दक्ष ने उसका हाथ थामने की कोशिश नहीं की, न ही कोई तसल्ली दी—उसने सिर्फ उसकी ओर देखा, वैसे ही जैसे पहली बार देखा था—बिना किसी उम्मीद, बिना किसी वादे के।
कुछ देर बाद, मीरा ने उसकी ओर मुड़कर कहा, “क्या तुम कभी सोचते हो कि जो हम जी रहे हैं, वो किसी उपन्यास का हिस्सा है? जहां सब कुछ स्क्रिप्टेड है… तुम्हारा आना, मेरा कहना, बारिश में भीगना?” दक्ष मुस्करा दिया, लेकिन कुछ कहा नहीं। मीरा फिर बोली, “अगर ये कहानी है, तो मुझे उसका मध्य चाहिए—न अंत, न शुरुआत… सिर्फ वो पल जब हम कहीं टिके हों, कहीं थमे हों, बस हों।” बारिश अब झील की सतह पर छोटे-छोटे उबाल पैदा कर रही थी, और हवा ठंडी होकर शरीर के भीतर तक घुसने लगी थी। मीरा ने अचानक कॉफी मग उठाया और झील में छोड़ दिया—वो मग धीरे-धीरे डूबता गया, जैसे कोई स्मृति पानी में विलीन हो रही हो। फिर वो खड़ी हुई, और बिना कुछ कहे झोंपड़ी की ओर चलने लगी। दक्ष पीछे-पीछे चल पड़ा। उस झोंपड़ी के भीतर, आधा-अंधेरा, आधा-नम वातावरण था—लकड़ी की गंध, पुराने कपड़ों की सीलन और बारिश की भीनी थाप। मीरा ने दरवाज़ा बंद किया और दक्ष की ओर देखा। उस नज़र में कुछ मांगने जैसा नहीं था, बस बाँटने जैसा था—एक लंबी चुप्पी, एक सर्द साँस, और दो धड़कनों के बीच ठहरा हुआ समय। फिर, पहली बार उन्होंने एक-दूसरे को छुआ—कोई उत्तेजना नहीं, कोई जल्दबाज़ी नहीं—बस वो स्पर्श, जो किसी आत्मा के दरवाज़े पर एक हल्की दस्तक हो। उस रात, झील की बारिश और झोंपड़ी की दीवारें दोनों इस कहानी की मूक साक्षी बनी रहीं।
६
झील की उस शाम के बाद शहर कुछ बदल-सा गया था, या शायद वे दोनों बदल गए थे। मीरा अब पहले से ज्यादा चुप हो गई थी, उसकी आंखों में किसी अधूरे ख्वाब की परछाइयाँ तैरती रहती थीं, और दक्ष के लिए उसकी हर चुप्पी एक नया रहस्य बन गई थी। ऑफिस में वे अब भी साथ बैठते, मीरा अब भी काले रंग की डायरी में कुछ-कुछ लिखती रहती और दक्ष की नज़रें अब भी बीच-बीच में उससे टकरा जातीं, लेकिन दोनों के बीच अब कुछ ऐसा था जो पहले नहीं था—एक अघोषित दूरी, जो उस झोंपड़ी में बीते स्पर्श के बाद खुद ही बन गई थी। एक दिन मीरा ने अचानक पूछा, “क्या तुम कभी उस रात के बारे में सोचते हो?” दक्ष ने सिर झुका लिया, जैसे किसी प्रतिबंधित अध्याय को दोबारा पढ़ने से डर रहा हो। मीरा मुस्कराई नहीं, न ही किसी जवाब का इंतज़ार किया—वह बस उठी, अपनी डायरी समेटी और धीमे स्वर में बोली, “कभी-कभी जो कहा नहीं जाता, वही सबसे ज़्यादा ज़िंदा रहता है।”
उसी शाम दक्ष अकेले शहर की सड़कों पर भटकता रहा। बारिश तो नहीं थी, लेकिन हवा में एक नमी-सी थी जो उसके कपड़ों से चिपकी रही। वह उन जगहों पर गया जहाँ वे पहले साथ गए थे—पुरानी किताबों की दुकान, कॉफी हाउस की खिड़की वाली सीट, और वो फुटपाथ जहाँ एक बार मीरा ने चलते-चलते उसका हाथ थाम लिया था बिना कुछ कहे। हर जगह अब भी वैसी ही थी, लेकिन हर जगह में कुछ गायब था—शब्दों की वो गर्माहट, नज़रों की वो बेचैनी, और छू लेने की वो सहजता। रात होते-होते वह शहर के सबसे पुराने हिस्से में पहुंच गया, जहाँ गलियों में अब भी पीली रोशनी वाली स्ट्रीट लाइट्स टंगी थीं और दीवारों पर समय की परतें जमी हुई थीं। वहां एक पुरानी हवेली के पास बैठकर उसने अपनी नोटबुक खोली और पहली बार मीरा के लिए कुछ लिखा—”तुम्हारे होने ने मुझे सिखाया कि कुछ कहानियाँ सिर्फ महसूस की जाती हैं, बयान नहीं।”
अगले दिन ऑफिस में मीरा नहीं आई। एक अजीब-सी बेचैनी पूरे दिन दक्ष के अंदर सरसराती रही, जैसे कोई सपना अधूरा छोड़ दिया गया हो। शाम को जब वह मीरा के घर पहुँचा, तो दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। भीतर घुसते ही लकड़ी की हल्की सी गंध मिली, एक मोमबत्ती की बुझी हुई खुशबू और टेबल पर खुली पड़ी उसकी डायरी—उसके पहले पन्ने पर लिखा था: “शब्दों से भागी हूं, शायद किसी चुप्पी की तलाश में।” दक्ष ने पूरे घर को देखा—किचन की टूटी खिड़की, कमरे की खामोश दीवारें, और उस कोने की मेज़ जिस पर उनका पहला खींचा गया स्केच पड़ा था—मीरा की अधूरी तस्वीर, जिसमें आंखें अब भी अधूरी थीं। वह समझ गया कि मीरा इस शहर से कहीं दूर निकल गई थी—शायद खुद से मिलने, शायद उस अध्याय को पूरा करने जो उनके बीच बिना अंत के छूट गया था। और उस रात शहर की खामोशियाँ और भी गहरी हो गईं, जैसे किसी ने संगीत बंद कर दिया हो पर स्वर अब भी हवा में तैरते रहें।
७
मीरा के जाने के बाद शहर सचमुच बदरंग लगने लगा था। दक्ष की सुबहें अब चाय के उबलते हुए बर्तन की आवाज़ से नहीं, बल्कि दीवार पर टिकी घड़ी की धीमी टिक-टिक से होती थीं। हर आवाज़ जैसे किसी खालीपन को और गहरा कर जाती थी—कॉफी मशीन की बीप, ईमेल के नोटिफिकेशन, और घर की खिड़की से आती ट्रैफिक की आवाज़ें। ऑफिस वही था, डेस्क वही था, डायरी की जगह खाली थी—पर अब दक्ष की नज़रें हर वक़्त उस खालीपन को ढूंढती थीं जिसे मीरा की मौजूदगी भरा करती थी। धीरे-धीरे वो मीरा की आदतों की नकल करने लगा—वही हाथ से कॉफी मिक्स करना, वही फाउंटेन पेन से लिखना, और वही खिड़की के पास बैठना, जहाँ से शहर की हलचल दिखाई देती थी। कभी-कभी वह खुद से कहता, “शायद अगर मैं उसकी तरह जीने लगूं, तो वो लौट आए,” लेकिन भीतर कहीं जानता था, कि जो जा चुका है, वो लौटे या न लौटे—पर हर जगह उसकी परछाईं जरूर छोड़ जाता है।
कई हफ्तों बाद, एक दिन दक्ष को मीरा की एक पोस्टकार्ड मिली—बिना रिटर्न एड्रेस के। उसमें लिखा था: “जो शहर सांस लेने से मना कर दे, वहाँ रहना गुनाह हो जाता है। मैं किसी ऐसे शहर में हूं जहाँ खामोशियाँ भी मुस्कुराती हैं। तुम अब भी सुन रहे हो क्या?” उस एक वाक्य ने दक्ष को भीतर तक झकझोर दिया। उसने हर शाम वो पोस्टकार्ड अपने पास रखा, जैसे किसी ज़िंदा रिश्ते का अंतिम धागा। धीरे-धीरे उसने खुद को बाहर निकालना शुरू किया—पुरानी गिटार को उठाया, ट्रैफिक के बीच पैदल चलना शुरू किया, और हर नए कैफे में जाकर लोगों की आंखों को पढ़ना सीखा। हर चेहरा उसे मीरा की याद दिलाता था—कभी उसकी मुस्कान, कभी उसकी चुप्पी, और कभी वो आंखें जिनमें जादू था पर जवाब नहीं। एक दिन बारिश में भीगते हुए वह उसी झील के किनारे पहुंचा, जहां कभी मीरा उसके गले लगकर चुपचाप रोई थी। झील अब भी वैसी ही थी—नीली, शांत, और इंतज़ार में डूबी। दक्ष ने वहीं बैठकर डायरी निकाली और पहली बार खुद के लिए लिखा—”तुम्हारी गैरमौजूदगी ने मुझे तुमसे भी ज़्यादा तुमसे मिला दिया।”
उस रात घर लौटते वक्त, पहली बार उसकी आँखों में आंसू थे—but they were not of sorrow, they were of a strange relief. उसने महसूस किया कि मीरा भले शहर में न हो, पर वह उसके भीतर बस गई थी—हर सोच में, हर ख्याल में, हर उस शब्द में जिसे वह बिना बोले समझ लेता था। उसने अपने कमरे की दीवारों पर मीरा की पोस्टकार्ड की एक कॉपी चिपकाई और उसके नीचे लिखा—“मैं अब भी सुन रहा हूं।” अब दक्ष की रातें तन्हा नहीं थीं, वो उससे कहानियाँ कहता था जो उसने कभी मीरा से नहीं कही थीं—वो कहानियाँ, जो अब ख्वाबों में ज़िंदा थीं और जिनका अंत वो खुद लिखने को तैयार हो गया था।
८
दिल्ली की ठंडी सुबह में दक्ष की सांसें भाप बनकर हवा में घुल रही थीं, पर उसका मन एक नई गर्माहट से भरा हुआ था। पिछले हफ्तों में कुछ ऐसा बदला था जो खुद उसे समझ नहीं आया—मीरा की अनुपस्थिति अब एक खाली कुर्सी की तरह नहीं, बल्कि एक प्रेरणा की तरह महसूस होने लगी थी। उसने अपने कमरे को फिर से सजाया, किताबों की धूल झाड़ी, किचन में पकने लगे वो व्यंजन जो कभी मीरा के हाथों से निकले थे, और ऑफिस में भी उसकी फुर्ती लौट आई थी। पर हर दिन के अंत में जब वह खिड़की से बाहर देखता, एक अजीब सा सन्नाटा उसके चारों ओर पसरा रहता—जैसे कोई कह रहा हो, “सबकुछ तो है, पर सबकुछ अधूरा है।” उसी अधूरेपन को भरने की कोशिश में उसने फैसला लिया—उसे मीरा को ढूंढ़ना है। कोई पक्का पता नहीं था, बस वो पोस्टकार्ड था, और उसमें छुपे एक छोटे से सुराग का जिक्र—”खामोशियाँ भी मुस्कुराती हैं।” दक्ष जानता था, मीरा का मतलब पहाड़ियों से था—शायद मनाली, या किसी और शांत जगह से जो मीरा की आत्मा से मेल खाती हो। उसने छुट्टियाँ लीं, गिटार के साथ बैग पैक किया, और निकल पड़ा उस आवाज़ की तरफ, जो अब भी उसके दिल में गूंज रही थी।
पहाड़ी कस्बों में दिसंबर की हवा कुछ खास होती है—ठंडी, नम और सुस्त चाल से चलने वाली। जैसे हर चीज़ थमी हुई हो, सिर्फ दिलों की धड़कनें ही चल रही हों। मनाली पहुंचने के कुछ दिनों बाद, दक्ष ने एक छोटे से कैफे में गिटार बजाना शुरू किया—हर शाम कुछ लोकगीत, कुछ पुराने नगमे, और कुछ वो धुनें जो उसने मीरा के लिए ही रची थीं। हर बार बजाते हुए उसकी नज़र दरवाज़े की तरफ जाती, उम्मीद में कि कोई पहचाना चेहरा लौट आएगा। वो जानता था, ये सब फिल्मी लग सकता है, पर कुछ कहानियाँ अगर अधूरी रह जाएं, तो जिंदगी के सारे संवाद बेमानी हो जाते हैं। और फिर, एक शाम, जब कैफे में बर्फ गिर रही थी, दरवाज़ा खुला, और एक लहरदार स्कार्फ हवा में उड़ता हुआ भीतर आया—पीछे-पीछे मीरा। न कोई संवाद, न कोई सवाल—केवल नज़रों की भाषा में बात हुई। मीरा की आंखों में वो सब कुछ था जो शब्द नहीं कह सकते थे—पछतावा, सुकून, मोहब्बत और एक अनकही इजाज़त।
उस रात दोनों ने बहुत कुछ कहा, और बहुत कुछ नहीं कहा। मीरा ने बताया कैसे वह खुद से भागती रही, और कैसे हर बार उसके ख्वाबों में दक्ष ही लौटकर आया। उसने ये भी कबूल किया कि उसने पोस्टकार्ड जानबूझकर बिना पते के भेजा था—शायद ये देखने के लिए कि क्या दक्ष अब भी उसे ढूंढेगा। और जब दक्ष ने जवाब में बस इतना कहा—“मैं अब भी सुन रहा हूं,”—तो मीरा ने उसकी हथेलियों को अपने होंठों से छुआ, जैसे वो यकीन कर लेना चाहती हो कि ये सब सच है। उस पहाड़ी रात में, जहां दूर से किसी मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, दोनों ने पहली बार बिना किसी डर, बिना किसी उलझन के, खुद को एक-दूसरे में समर्पित कर दिया। वो रात सिर्फ एक मिलन नहीं थी, वो दो आत्माओं की वापसी थी—एक अधूरी कहानी के मुकम्मल होने की दस्तक।
९
मीरा और दक्ष अब मनाली की उन ढलानों पर साथ-साथ चलते थे जहाँ हर मोड़ पर हवा में ठहराव होता था और हर पेड़ उनकी खामोश बातों का गवाह बन जाता था। गिटार की धुनें अब केवल संगीत नहीं रहीं, बल्कि दोनों की आत्माओं की भाषा बन गई थीं। मीरा ने अपना स्केचपैड फिर से उठाया और दक्ष के सुरों के साथ रंगों को चलने दिया—कभी वो नीलापन जो बर्फ से ढके आसमान में गूंजता था, कभी वो लालिमा जो दक्ष की आंखों में चमकती थी, और कभी वो हल्का भूरापन जो पुराने घावों की याद में उतर आता था। दोनों अब न तो अतीत की परछाइयों में उलझे थे, न भविष्य की अनिश्चितताओं से डरे हुए—बल्कि वर्तमान के उस छोटे से पल में पूरी तरह समा गए थे, जो बरसों की तन्हाइयों के बाद उन्हें मिला था। चाय के प्यालों के बीच, अनकहे वादों की गरमाहट ने उनके रिश्ते को एक नया आकार दिया, ऐसा आकार जो शादी या समाज के नामों से परे था—केवल दो सच्चे दिलों के बीच की नमी।
एक दिन, दक्ष को एक पुरानी डायरी मिली जो मीरा ने वर्षों पहले दिल्ली में छोड़ दी थी—सफ़ेद कवर वाली, किनारों से घिसी हुई, और भीतर भरी मीरा की उलझनों और बेचैनियों से। हर पन्ने में दक्ष की झलक थी—कभी कविता के रूप में, कभी शिकायतों में, और कभी सन्नाटे की भाषा में। और सबसे आखिरी पन्ने पर केवल एक वाक्य लिखा था—”अगर वो मुझे समझ सका, तो जरूर लौटेगा।” उस वाक्य ने दक्ष को झकझोर दिया—मीरा कभी भी बस चली नहीं गई थी, वो एक इम्तिहान में थी, अपनी पहचान, अपने डर और अपनी मोहब्बत के बीच एक संतुलन तलाशती हुई। दक्ष ने उस डायरी को वापस मीरा के हाथों में दिया, बिना कुछ कहे। मीरा की आंखें भर आईं—कभी-कभी शब्दों से ज्यादा वजन चुप्पियों में होता है, और उस शाम उन दोनों ने वही चुप्पी साझा की, जो दो आत्माओं के बीच की सबसे गहरी बातचीत होती है।
रात होते ही बर्फ गिरने लगी थी, लेकिन कमरे के भीतर आग की धीमी लपटें जल रही थीं, और उसके पास दो आत्माएं, जो अब खुद को फिर से नया बना रही थीं। मीरा ने धीमे से पूछा, “क्या हम अब भी वही लोग हैं जो दिल्ली की उस दोपहर एक कैफ़े में मिले थे?” दक्ष मुस्कराया, “नहीं, अब हम ज़्यादा खुद हैं।” दोनों ने एक-दूसरे को देखा, जैसे पहली बार देखा हो—बिना किसी परत के, बिना किसी मुखौटे के। उस पल में, शब्दों की ज़रूरत ही नहीं थी—उनके बीच अब केवल अहसासों की भाषा बची थी, और वह भाषा किसी भी नाम, किसी भी परिभाषा से बहुत आगे थी।
१०
मनाली की उस आखिरी सुबह में कुछ अलसाई हुई सी ठंड थी, कुछ वैसी ही जैसी दो लंबे आलिंगनों के बाद रह जाती है—गर्माहट की स्मृति और उसकी अनुपस्थिति का एक साथ एहसास। मीरा खिड़की से बाहर देख रही थी, जहां बादल बर्फ की चादरों पर धीरे-धीरे फिसलते जा रहे थे, जैसे उनके मन में अब भी कुछ अनकहा बचा हो। दक्ष उसके पास आया, एक कप अदरक वाली चाय के साथ—बिना पूछे, बिना बोले, जैसे अब वो मीरा की हर खामोशी को पढ़ना सीख गया हो। कुछ देर दोनों उस शांत दृश्य को देखते रहे, जैसे समय अब उनके लिए रुक गया हो। लेकिन भीतर, दोनों को पता था कि समय अब फिर से चलने वाला है—अलग-अलग दिशाओं में नहीं, बल्कि साथ-साथ, लेकिन पहले अपनी-अपनी ज़मीन पर जाकर। मीरा को दिल्ली लौटना था, अपनी पुरानी किताबें और नए विचारों के साथ, और दक्ष को अपनी अधूरी रचनाओं को पूरा करना था, जो अब केवल रचनाएं नहीं, बल्कि मीरा की मौजूदगी का विस्तार थीं।
जब स्टेशन का वक्त आया, तब कोई न नाटक हुआ, न आँसू, न कोई भारी वादा। केवल कुछ सधी हुई मुस्कानें, कुछ गुनगुनाहटें, और एक सच्चा आलिंगन जिसमें ना कोई ज़रूरत थी “रुको” कहने की, ना “चलो” कहने की। मीरा ने कहा, “मैं अब लौट रही हूं, लेकिन अब की बार खुद को लेकर।” और दक्ष ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया, “अब जब तुम खुद को साथ ला रही हो, तब शायद मुझे फिर कभी तुम्हारे जाने का डर नहीं रहेगा।” स्टेशन की सीटी जैसे कोई पुराने स्वप्न का अंत थी, और मीरा की आंखों में अब सिर्फ नई शुरुआतें थीं—बिना भय के, बिना गिल्ट के, बिना किसी अधूरेपन के। ट्रेन के भीतर, जब उसने अपनी डायरी खोली, तो उस पर नया पन्ना जोड़ा—”मनाली में एक रात थी, जो उम्र भर साथ रहेगी।”
दिल्ली की सड़कें अब भी वैसी ही थीं—भागती, शोर करती, लेकिन मीरा अब उनमें खो नहीं रही थी, वो अब जानती थी कहाँ रुकना है, किसे सुनना है, और सबसे जरूरी—कब खुद से बात करनी है। गिटार की धुन अब उसे वीडियो कॉल में भी मिलती थी, कभी दक्ष के स्टूडियो से, कभी बस उसकी आवाज़ से। दोनों अब दूर रहते हुए भी पहले से कहीं ज़्यादा करीब थे। उन्होंने एक-दूसरे को पाना नहीं सीखा, बल्कि एक-दूसरे को बने रहने देना सीखा। “रात की रौशनी में तुम” अब कोई अधूरा ख्वाब नहीं, बल्कि एक जीती-जागती कविता बन गई थी, जो हर उस दिल में गूंज सकती थी जो टूटकर भी प्यार करना जानता हो—बिना शर्त, बिना मांग, केवल होने के अहसास में।
समाप्त