अदिति राठी
भाग 1: मुलाक़ात
पन्ना की सर्दी में धूप एक वरदान जैसी लगती थी। स्कूल की छत पर बिछी टाट की चटाइयों पर बच्चे बैठकर चित्र बना रहे थे—सूरज, पेड़, झोपड़ी, और किसी कोने में एक मंदिर की घंटियां। रेवती चौहान बीच में खड़ी, बच्चों की तस्वीरों पर झुकती, तारीफ़ करती और कभी-कभी पेंसिल हाथ में लेकर कोई रेखा ठीक कर देती। उसकी चुन्नी कंधे से खिसकती रहती थी, और वो बार-बार उसे एक ही अंदाज़ में पीछे सरका देती थी। जैसे उसकी ज़िंदगी में सब कुछ इसी दोहराव के भीतर समाहित था—शांत, व्यवस्थित, और बंधा हुआ।
उसी दोपहर, स्कूल गेट के पास एक बाइक रुकी। काले जैकेट में, कैमरा कंधे पर लटकाए एक लड़का उतरकर गेट के भीतर झाँकने लगा। उसकी आँखों में जिज्ञासा थी, लेकिन चाल में संकोच। उसके पास कोई औपचारिकता नहीं थी, बस एक नाम—रेवती।
“आप रेवती मैम हैं?”
रेवती ने आँखें मिचमिचा कर उसकी ओर देखा। तेज़ धूप और अजनबी की उपस्थिति, दोनों ही थोड़ा असहज कर देने वाले थे।
“जी, आप?”
“मैं अयान हूँ। फोटोग्राफर हूँ, डॉक्युमेंट्री बना रहा हूँ बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विरासत पर। आपके स्कूल की लोककला क्लास के बारे में सुना, इसलिए सोचा मिल लूँ।”
रेवती को अब तक दिल्ली से आने वाले पत्रकारों और रिसर्च स्कॉलरों की आदत हो गई थी। वे आते थे, लोककला की कुछ तस्वीरें लेते, और शहर लौटकर उसे ‘विलुप्त होती कला’ का लेबल दे देते। लेकिन इस लड़के की आवाज़ में कोई नक़ल या बनावट नहीं थी। शायद उसकी आँखों में कुछ था जो ठहराव मांगता था।
“आप अंदर आ सकते हैं,” उसने कहा, और सीढ़ियों की ओर इशारा किया।
अयान ने कैमरा संभालते हुए बच्चों की तरफ देखा। उनकी रंग-बिरंगी चित्रकारी, मिट्टी से सने हाथ और रेवती का मार्गदर्शन—सब कुछ एक जीवित फ्रेम जैसा लग रहा था।
“क्या मैं शूट कर सकता हूँ?”
“बच्चों की सहमति ज़रूरी है। और स्कूल की भी।”
“मैं सब डॉक्युमेंट लेकर आया हूँ,” अयान ने हँसते हुए कहा, “पर अगर आप मना करेंगी तो कैमरा नहीं खुलेगा।”
रेवती मुस्कुराई। हाँ, ये लड़का अलग था।
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शाम को जब बच्चे घर चले गए और स्कूल का मैदान खाली हो गया, तो छत पर सिर्फ़ दो कप चाय बचे थे—एक उसका, एक अयान का।
“आप यहीं की हैं?”
“हाँ। यही जन्म, यही पढ़ाई, यही नौकरी। और अब शायद यहीं बुज़ुर्ग भी हो जाऊँ।”
“आपको कभी बाहर जाने का मन नहीं करता?”
“बहुत करता है। लेकिन मन की कौन सुनता है?”
उसने कहा था जैसे कोई बात गले में अटक गई हो, लेकिन ज़ुबान ने जगह बना ली हो।
“आपकी आंखों में हमेशा एक ग़लतफ़हमी होती है,” रेवती ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
“कैसी?”
“कि आप जो देख रहे हैं, वही सच है। और जो सुन रहे हैं, वही कहानी।”
अयान को पहली बार किसी ने उसकी आँखों के बारे में कुछ कहा था। वह मुस्कुराया, लेकिन चुप रहा।
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अगले कुछ दिनों में अयान रोज़ स्कूल आता। कभी बच्चों के इंटरव्यू लेता, कभी रेवती से लोककला के बारे में सवाल पूछता। लेकिन उन सवालों में अब सिर्फ़ दस्तावेज़ी दिलचस्पी नहीं थी—वहाँ एक नर्म, अनकहा आकर्षण भी था।
“तुम्हें नहीं लगता, जो तुम कर रही हो वो बहुत बड़ा काम है?”
“मुझे तो लगता है, मैं बस अपनी ड्यूटी निभा रही हूँ।”
“ड्यूटी में जुनून नहीं होता, लेकिन तुम्हारी बातों में जान होती है।”
रेवती ने कोई जवाब नहीं दिया। वो जानती थी कि इस शहर में किसी अजनबी लड़के से ज़्यादा घुलने-मिलने का क्या मतलब निकाला जाता है। लेकिन फिर भी, अयान से बात करना एक किस्म की राहत देने लगा था। वो शब्दों के भीतर झाँकता नहीं था, उन्हें सहलाता था।
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एक दिन, बारिश आई। अचानक, बिना मौसम के। बच्चे नहीं आए। स्कूल सूना था।
“तो आज इंटरव्यू नहीं है?” रेवती ने पूछा।
“नहीं, आज बस आपसे बात करनी थी।”
“क्या बात?”
“कि अगर ये शहर आपको क़ैद करता है, तो क्या आप उड़ना चाहेंगी?”
रेवती चौंकी। ये सीधे सवाल अक्सर डरावने लगते हैं।
“उड़ने के लिए पंख नहीं, हिम्मत चाहिए। और वो हर किसी के पास नहीं होती।”
“और तुम्हारे पास?”
“मेरे पास पंख भी हैं, और डर भी।”
उनकी आँखें मिलती हैं। शब्द वहीं रुक जाते हैं।
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उस शाम, स्कूल की छत पर बारिश की नमी में दो कप चाय फिर रखे थे। एक चाय अब ठंडी हो गई थी, लेकिन दूसरी… अभी भी भाप छोड़ रही थी।
भाग 2: पहला दरार
पन्ना की गलियाँ संकरी थीं, लेकिन उनकी दीवारों के कान बहुत चौड़े थे। कुछ बातें जो सिर्फ़ नज़रों में कही गई थीं, अब उन पर भी फुसफुसाहटें हो रही थीं। मोहल्ले की औरतें मंदिर से लौटते हुए आपस में सिर हिला-हिलाकर कुछ कहतीं, और रेवती जब उन्हें नमस्ते कहती, वे हल्की मुस्कान देकर आगे बढ़ जातीं—एक ऐसी मुस्कान जिसमें अपने आप को बेक़सूर मानने का गर्व नहीं, दूसरों को कसूरवार ठहराने का सुकून छिपा होता था।
उस दिन स्कूल से लौटते वक्त उसका भाई शैलेश दरवाज़े पर ही खड़ा था। आँखों में कुछ ऐसा था, जिसे रेवती बचपन से पहचानती थी—संशय और क्रोध का वो सम्मिलित भाव जो पिता से सीखा गया था, और समाज से सींचा गया था।
“कहाँ थी?”
“स्कूल में।”
“उसके साथ थी न? उस फ़ोटोग्राफर के साथ?”
रेवती ने पहली बार महसूस किया कि सच बोलना एक किस्म की ज़िद हो सकता है।
“हाँ। था वो।”
शैलेश ने मुट्ठी भींची।
“रेवती, ये शहर छोटा है। और हम चौहान हैं। एक मुसलमान लड़के के साथ तुम्हारा यूँ खुले आम घूमना… ये सब हमारे लिए शर्म की बात बन रहा है।”
रेवती ने धीरे से पूछा, “हमारे लिए या तुम्हारे लिए?”
शैलेश को उसके लहज़े में कुछ चुभा। उसने कुछ नहीं कहा, बस वहाँ से चला गया। लेकिन उसके जाने के बाद रेवती को एहसास हुआ कि हवा अब और भारी हो गई थी। जैसे घर की दीवारें उसकी हर आहट सुन रही हों।
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अगले दिन स्कूल में अयान नहीं आया।
ना कोई फोन, ना कोई मैसेज। वो कैमरे के साथ कहीं चला गया था। शायद पन्ना के आसपास किसी गाँव में। लेकिन रेवती की बेचैनी बढ़ रही थी। अब वो कोई स्कूल प्रोजेक्ट नहीं रह गया था। अब वो… उसका हिस्सा बन चुका था।
तीसरे दिन, दोपहर में स्कूल के बाहर उसकी बाइक रुकी। रेवती खुद नीचे उतर आई।
“तुम कहाँ थे?”
“तुम्हारे भाई ने मुझे मिलने से मना किया। कहा कि अगर फिर से तुम्हारे आस-पास दिखा, तो अच्छा नहीं होगा।”
रेवती को जैसे किसी ने सीने पर पत्थर रख दिया हो।
“तो तुम डर गए?”
“नहीं। लेकिन मैं तुम्हें मुश्किल में नहीं डालना चाहता।”
“और अगर मैं तुम्हारे बिना ही मुश्किल में हूँ तो?”
अयान चुप रहा। बहुत कुछ था जो वो कहना चाहता था। लेकिन शब्द कमज़ोर पड़ रहे थे। उसकी आँखों में वही ग़लतफ़हमी थी जिसे रेवती ने पहले दिन कहा था—कि देख लेने से समझ आ जाता है।
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शाम को, जब वो छत पर अकेली बैठी थी, उसका फ़ोन बजा। अयान का मैसेज था—
“क्या तुम कभी उड़ना चाहोगी? मेरे साथ नहीं, लेकिन अपने लिए?”
रेवती ने जवाब नहीं दिया। लेकिन उसके मन में एक दरार पड़ चुकी थी। वो जो अब तक हिम्मत और डर के बीच संतुलन बनाए खड़ी थी, अब थोड़ा डगमगाने लगी थी।
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अगले हफ्ते स्कूल में एक सांस्कृतिक मेले का आयोजन था। ज़िलाधिकारी भी आने वाले थे, और अयान ने अनुमति ली थी इस आयोजन को शूट करने की। सब कुछ तय था। लेकिन रेवती को जानकारी नहीं दी गई।
जब वो जानती है कि अयान स्कूल में आया था और उससे मिलने नहीं दिया गया, तो पहली बार उसकी आंखें भर आती हैं।
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रात को, घर के आंगन में अकेले बैठी, माँ के पुराने रेडियो से एक गाना बज रहा था—
“कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया…”
उसने आसमान की ओर देखा। चाँद आधा था, जैसे उसका ही कोई टुकड़ा उसमें छिपा हो। और उसी चाँदनी में उसने खुद से पहली बार पूछा—
क्या मैं सचमुच अपने लिए जी रही हूँ? या बस सबके लिए निभा रही हूँ?
और इसी सवाल के साथ, उसकी ज़िंदगी की पहली दरार अब एक रास्ते में बदलने लगी थी।
भाग 3: दस्तक
पन्ना में सर्दियाँ धीरे-धीरे उतरती थीं, चुपचाप, बिना शोर किए। लेकिन उस शाम, जब रेवती चौहान घर लौटी, तो हवा में कुछ बेचैनी थी—जैसे कोई दरवाज़ा बंद होने से पहले आखिरी बार दस्तक दे रहा हो।
दरवाज़े के बाहर अयान खड़ा था।
उसके चेहरे पर थकावट थी, और आँखों में वही पुरानी जिज्ञासा। लेकिन इस बार उसमें एक नमी भी थी।
“मैं जानता हूँ, मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था,” उसने कहा, जैसे पहले से माफ़ी लेकर आया हो।
“तो आए क्यों?” रेवती ने दरवाज़े से हटे बिना पूछा।
“क्योंकि तुम्हें अलविदा कहे बिना जाना… अधूरा लग रहा था।”
“जाना?”
“हाँ। मेरा शूट खत्म हो गया है। दिल्ली लौट रहा हूँ कल सुबह।”
रेवती की आँखें कुछ पल के लिए स्थिर रहीं। कोई प्रतिक्रिया नहीं, कोई झटका नहीं। जैसे वह पहले से जानती थी कि ये होना ही है। लेकिन जानने और सहने में हमेशा एक गहरी खाई होती है।
“तो अब बस यही बचा था? एक अलविदा?”
“अगर तुम चाहो तो मैं नहीं जाऊँ।”
“नहीं,” वह मुस्कुराई, लेकिन उस मुस्कान में कांटे थे। “अगर तुम मेरे लिए रुकोगे, तो मैं कभी खुद के लिए उड़ नहीं पाऊँगी।”
अयान ने सिर झुका लिया। कुछ रिश्ते प्यार से नहीं, समझ से पलते हैं। और कभी-कभी समझ भी एक किस्म का दर्द बन जाती है।
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रात को घर में सन्नाटा था। माँ रसोई में धीमी आवाज़ में कुछ गुनगुना रही थीं। शैलेश बैठक में टीवी देख रहा था, लेकिन उसकी नज़रें खाली थीं।
रेवती छत पर चली गई, वही छत जहाँ उसने पहली बार अयान के साथ चाय पी थी। वो छत अब गवाह थी—उन बातों की, जो सिर्फ़ आँखों में कही गई थीं, और उन ख़ामोशियों की, जो दिल में उतर गई थीं।
वहाँ बैठकर उसने अपना स्केचबुक खोला। पहले पन्ने पर अयान की तस्वीर थी—पेंसिल से खींचा गया एक रेखाचित्र, अधूरा।
उसने पहली बार उस रेखा को पूरा नहीं किया। उसने एक नया पन्ना खोला।
उस पन्ने पर उसने खुद को बनाना शुरू किया—एक लड़की, जो खुली छत पर खड़ी है, बाल हवा में उड़ रहे हैं, आँखें बंद हैं… लेकिन चेहरे पर डर नहीं, निर्णय है।
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सुबह, स्टेशन पर कोई उसे छोड़ने नहीं गया।
लेकिन प्लेटफ़ॉर्म पर, जब अयान ट्रेन में चढ़ा, तो उसके हाथ में एक छोटा सा लिफाफा था। उस पर लिखा था—“जब लौटना हो, तब खोलना।”
ट्रेन की खिड़की से उसने आखिरी बार उस शहर को देखा, जिसने उसे एक कहानी दी थी—कहानी अधूरी थी, लेकिन ज़िंदा।
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उसी दोपहर, स्कूल में रेवती ने प्रधानाध्यापक से इस्तीफ़ा माँगा।
“लेकिन क्यों, रेवती जी? आप तो हमारी सबसे होनहार शिक्षिका हैं!”
“मैं अब खुद को पढ़ना चाहती हूँ, सर। दूसरों को पढ़ाते-पढ़ाते भूल गई हूँ कि मेरे भीतर भी कोई किताब है।”
उसी शाम, वह पोस्ट ऑफिस गई, और दिल्ली यूनिवर्सिटी में पोस्ट ग्रैजुएशन की फार्म स्पीड पोस्ट कर दी।
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रात को, जब शैलेश घर लौटा, तो दरवाज़े पर एक चिट्ठी चिपकी थी—
“मैं घर नहीं छोड़ रही, बस खुद से मिलने जा रही हूँ। अगर चाहो, तो कभी मिलने आ जाना।”
छत पर अब भी चाय के दो कप थे।
एक ठंडा हो चुका था।
दूसरे में भाप अब भी उठ रही थी।
भाग 4: दिल्ली की दीवारें
दिल्ली की हवा में एक अजीब-सी गंध थी—धूल, धुएँ और हज़ारों अधूरी कहानियों की। जब रेवती चौहान ने पहली बार निज़ामुद्दीन स्टेशन पर पैर रखा, तो उसे कोई लेने नहीं आया। उसके स्वागत में कोई फूल नहीं थे, कोई आवाज़ नहीं, कोई पहचान नहीं। लेकिन उसके अंदर एक जज़्बा था—खुद के लिए जीने का, पहली बार।
उसने एक छोटा कमरा किराए पर लिया—लाजपत नगर की संकरी गली में, जहाँ कमरे से ज़्यादा खिड़की अहम थी। खिड़की जो खुले आसमान की झलक देती थी, और एक नई ज़िंदगी की उम्मीद भी।
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दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाख़िला मिल चुका था। कला और संस्कृति में स्नातकोत्तर पढ़ाई। लेकिन असली पढ़ाई कक्षा के बाहर शुरू हुई। यहाँ लड़कियाँ अकेले कैब लेती थीं, लड़के हाथ पकड़कर चलते थे, और कोई किसी की जात पूछने में दिलचस्पी नहीं रखता था।
रेवती के भीतर शुरू में एक झिझक थी—वो बुंदेलखंड की मिट्टी से आई थी, जहाँ लड़कियों का तेज़ बोलना भी विद्रोह माना जाता था। लेकिन धीरे-धीरे, उसने बोलना सीखा। पहले धीरे, फिर पूरे आत्मविश्वास से।
क्लास के बाद वह लाइब्रेरी में बैठती, शहर की लोककथाओं पर शोध करती। दिल्ली की किताबें, उसकी भाषा से अलग थीं—लेकिन उसने सीखा कि शब्दों को भी गले लगाया जा सकता है, जैसे लोग एक-दूसरे को गले लगाते हैं।
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एक शाम, कॉलेज के हॉल में एक फोटोग्राफी प्रदर्शनी लगी थी—“Portraits of Forgotten Women.”
रेवती को जाने का मन नहीं था, लेकिन उसकी सहपाठी सारा ने जबरन खींच लिया। दीवारों पर बड़े-बड़े फ्रेम लगे थे। हर फ्रेम में एक स्त्री—कभी खेतों में, कभी नदी के घाट पर, कभी खंडहर में। और हर चेहरे में एक कहानी।
रेवती का कदम जैसे वहीं थम गया—एक चित्र उसके सामने था।
वह खुद थी।
साफ़-साफ़ वही चेहरा—स्कूल की छत पर बच्चों के बीच, उसके हाथ में पेंसिल, पीछे रंगों की भीड़, और उसकी आँखों में कुछ अनकहा।
नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था—
“Untitled – Panna, Madhya Pradesh (2019)”
Photographer: Ayan Khan
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उस रात, कमरे में लौटकर रेवती बहुत देर तक कुछ बोल नहीं सकी।
उसने सोचा, अयान तो चला गया था। लेकिन उसका कैमरा, उसकी नज़र… अब भी वहीं ठहरी थी जहाँ वो थी।
उस चित्र के सामने खड़े होकर उसे पहली बार यह एहसास हुआ कि कोई उसे समझा था—पूरी तरह, बिना शब्दों के।
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अगले दिन उसने प्रदर्शनी की गैलरी में जाकर एक चिट्ठी छोड़ी—उसके नीचे सिर्फ़ दो शब्द लिखे थे:
“मैं यहाँ हूँ।”
किसे भेजी गई थी? शायद उसे भी नहीं पता था। शायद अयान को। शायद खुद को।
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समय बीतता गया। रेवती अब दिल्ली की सड़कों पर चलना सीख गई थी। मेट्रो की भीड़ में अपनी जगह बनाना, किताबों की दुकानों से पन्ने चुराकर पढ़ना, और सबसे ज़्यादा—ख़ुद से बात करना।
लेकिन कभी-कभी रात को जब खिड़की से चाँद दिखता, तो वो जानती थी कि कोई एक दस्तक अब भी बाक़ी है।
दिल्ली की इन दीवारों पर अयान की दी गई छवि अब उसके साथ थी—जैसे कोई अज्ञात रिश्ता जो आवाज़ नहीं करता, बस ठहरता है।
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और उस ठहराव में, रेवती ने खुद को पहली बार पूरा पाया।
भाग 5: पुरानी दिल्ली की गलियाँ
पुरानी दिल्ली की गलियाँ समय से बाहर चलती थीं। वहाँ दीवारों पर सिर्फ़ पोस्टर नहीं, कहानियाँ चिपकी थीं—कभी मटमैली, कभी रंगीन। रेवती ने जब पहली बार चावड़ी बाज़ार की भीड़ में कदम रखा, तो लगा जैसे कोई पुराना सपना ज़ोर से पुकार रहा हो।
उस दिन यूनिवर्सिटी के एक सीनियर ने उसे कहा था—“अगर दिल्ली को समझना है, तो पुरानी दिल्ली में भटकना सीखो।” और भटकना, रेवती को आता था। उसने अपने पैरों को कहा—चलो, जहाँ दिल ले जाए।
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गली नंबर ४ में एक पुराना किताबों का गोदाम था—धूल भरी अलमारियाँ, मिट्टी सने कवर और पन्नों में फंसी ख़ामोशियाँ। यहीं उसे वो किताब मिली, जिसके भीतर एक अख़बार की कतरन दबा दी गई थी—पीली हो चुकी, किनारे से मुड़ी हुई।
कतरन में एक इंटरव्यू था:
“Ayan Khan: The lens remembers what the heart cannot.”
रेवती ने पढ़ा, जैसे कोई सूखा हुआ फूल दोबारा महक रहा हो। इंटरव्यू में अयान ने कुछ कहा था जो सीधा उसके दिल में उतर गया:
“मेरे कैमरे ने कई चेहरों को कैद किया, लेकिन कुछ आँखें होती हैं जो तस्वीर से बाहर भी पीछा करती हैं। मैं उन्हीं आँखों का कैदी हूँ।”
रेवती ने अख़बार को बंद नहीं किया। वो चाहती थी वो शब्द थोड़ी देर और ज़िंदा रहें।
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उसी दोपहर, बाहर हल्की बारिश होने लगी। पुरानी दिल्ली की छतें, जो अक्सर बोझ उठाती थीं, अब राहत की साँस लेतीं। रेवती एक चाय की दुकान पर बैठ गई, जहाँ प्लास्टिक की कुर्सियाँ थीं और अदरक की गंध हवा में घुली हुई थी।
पास ही एक लड़का बैठा था, कैमरा लिए। वो कोई अयान नहीं था, लेकिन कुछ वैसा ही भाव लिए देख रहा था—जैसे हर तस्वीर से पहले दिल धड़कता हो।
“तुम भी फोटोग्राफर हो?” रेवती ने हँसकर पूछा।
“हाँ। सीख रहा हूँ,” लड़का बोला। “आप?”
“मैं… बस तलाश में हूँ।”
“तलाश किसकी?”
“शायद उस फ्रेम की, जिसमें कोई मुझे देखे… और मैं खुद को पहचान लूँ।”
लड़का मुस्कुरा दिया। उसने कहा, “कभी-कभी वो फ्रेम हम खुद होते हैं।”
रेवती ने उस अजनबी की बात को सीने में रख लिया—जैसे कोई मामूली-सी पंक्ति, जिसकी गूंज बहुत दूर तक जाती हो।
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शाम को घर लौटकर उसने अयान को एक मेल लिखा।
Subject: पन्ना से दिल्ली
Message:
तुम्हारी बनाई तस्वीरें अब भी गूंजती हैं यहाँ।
लेकिन अब मैं सिर्फ़ तुम्हारे कैमरे में नहीं, अपनी आँखों में भी बसने लगी हूँ।
अगर कभी तुम्हारा lens थक जाए, तो आकर मेरी दुनिया देखना—बिना कैमरे के।
— रेवती
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उसने ‘send’ बटन दबाया, फिर खिड़की से बाहर देखा।
पुरानी दिल्ली की गलियों में अब भी वही कोलाहल था, लेकिन उसके भीतर एक नई ख़ामोशी उतर आई थी—ठहराव नहीं, संतुलन।
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रात गहराती गई।
चाय की प्याली से भाप अब नहीं उठ रही थी, लेकिन उसकी हथेलियाँ अब भी गर्म थीं। और उस गर्माहट में, पहली बार, रेवती ने खुद को बिना किसी परछाईं के देखा।
भाग 6: आवाज़ के पार
दिल्ली की सर्दियों में सुबह देर से होती थी। लेकिन उस दिन रेवती बहुत पहले उठ गई थी। जैसे कोई अदृश्य आहट उसे भीतर से जगा गई हो। कमरे की खिड़की के बाहर धुंध फैली थी, पर उसकी आंखों में एक अजीब-सी स्पष्टता थी—जैसे कोई निर्णय वहाँ आकार ले रहा हो।
उसने मेल चेक किया। अयान का कोई जवाब नहीं था।
फिर भी, वह निराश नहीं हुई। अब उसकी प्रतीक्षा में उम्मीद कम, आत्मविश्वास ज़्यादा था।
**
कॉलेज में उस दिन एक सेमिनार था—“सांस्कृतिक विरासत और नई पीढ़ी की भूमिका”।
रेवती को बोलने के लिए बुलाया गया।
वो मंच पर खड़ी थी, सामने दर्जनों चेहरे। कुछ परिचित, कुछ अपरिचित। पर पहली बार, उसे लगा वो डर नहीं रही। उसके शब्द अब तैर नहीं रहे थे, उतर रहे थे—धीरे-धीरे, गहराई में।
“हम अक्सर विरासत को एक बोझ की तरह देखते हैं। लेकिन कुछ विरासतें होती हैं जो हमारे भीतर पलती हैं—जैसे कहानियाँ, जैसे मिट्टी, जैसे यादें। मैं पन्ना से आई हूँ। वहाँ की गलियाँ मेरी रीढ़ की हड्डी हैं। लेकिन अब मैं दिल्ली में हूँ। और मैं चाहती हूँ कि मेरी जड़ें पन्ना में रहें… लेकिन मेरी शाखाएँ जहाँ चाहें, फैल सकें।”
तालियाँ बजीं। लेकिन रेवती का ध्यान एक कोने की ओर गया—वहाँ एक व्यक्ति खड़ा था, जैकेट में, कैमरा कंधे पर, चेहरा आधा रौशनी में, आधा परछाईं में।
वो अयान था।
**
सेमिनार के बाद, बाहर की भीड़ में वह कहीं नहीं दिखा। लेकिन जैसे उसकी उपस्थिति हवा में रह गई हो। जैसे उसका आना कोई भ्रम नहीं, दस्तक थी।
रात को, कमरे में लौटी तो दरवाज़े के नीचे एक छोटा सा लिफाफा खिसकाया गया था।
उसमें सिर्फ एक कागज़ था।
“तुम्हारी आवाज़ अब कैमरे से ज़्यादा तेज़ है।
मैंने तुम्हें ढूंढना बंद कर दिया था, क्योंकि तुम खुद को ढूंढ रही थीं।
लेकिन अब अगर तुम चाहो, तो साथ चल सकते हैं।
— अयान”
रेवती बहुत देर तक चुप बैठी रही। उसके भीतर एक कम्पन था—ना हां, ना ना। बस एक कम्पन।
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अगले दिन उसने कोई जवाब नहीं भेजा। लेकिन वह पुरानी दिल्ली गई। उसी चाय की दुकान पर बैठी। फिर उसी लड़के को देखा, जो उस दिन कैमरा लिए बैठा था।
“आज तुम्हारे पास कैमरा नहीं है?”
“नहीं,” वह बोला, “कभी-कभी तस्वीरों से ज़्यादा ज़रूरी होता है देखना।”
रेवती मुस्कुराई।
“जानते हो,” वह बोली, “मैं किसी को खोज रही थी। पर अब लगता है, मैं खुद को सुन पा रही हूँ। और जब आप अपनी आवाज़ पहचान लेते हैं, तो बाक़ी सब शोर लगने लगता है।”
लड़का कुछ नहीं बोला। बस चाय की प्याली आगे बढ़ा दी।
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उस रात, रेवती ने अयान को जवाब भेजा:
“चलो, लेकिन साथ में नहीं। समानांतर चलें।
एक-दूसरे की ज़मीन में बिना जड़ें फैलाए,
सिर्फ़ छाँव देने के लिए।”
**
यह प्रेम का एक नया रूप था—जहाँ कोई किसी के लिए अपनी उड़ान नहीं रोकता,
बल्कि हवा बाँटता है।
भाग 7: लौटती रौशनी
वसंत धीरे-धीरे दिल्ली की गलियों में उतर रहा था—पेड़ों की टहनियों पर नई कोंपलें, फुटपाथ पर पीली सरसों की तरह गिरती अमलतास की पंखुड़ियाँ, और हवा में एक तरह की मीठी बेचैनी।
रेवती अब अंतिम सेमेस्टर की ओर बढ़ रही थी। उसकी थीसिस का विषय था—“स्थानीय लोककला में स्त्री की दृश्य-अदृश्य उपस्थिति।” वो दिनभर पुस्तकालय में डूबी रहती, शाम को शहर की दीवारों, मूर्तियों, और कहानियों में स्त्री की परछाइयाँ खोजती।
अयान अब दिल्ली में ही था, पर दोनों ने मिलने का कोई तय सिलसिला नहीं रखा था। वे साथ नहीं रहते थे, लेकिन एक-दूसरे की उपस्थिति उनकी सांसों में थी।
कभी एक किताब की अनुशंसा किसी पेज के कोने पर मिलती, कभी मेलबॉक्स में सिर्फ एक पंक्ति—
“आज की हवा में पन्ना जैसी मिट्टी की खुशबू है।”
**
उस दिन रेवती चांदनी चौक की एक पुरानी हवेली में फोटोग्राफर मित्रों के साथ गई थी। वहाँ एक आयोजन था—“Heritage Reimagined”। अयान ने वहाँ अपनी एक नई प्रदर्शनी लगाई थी, और आयोजकों ने रेवती को भी निमंत्रित किया था।
हवेली की दीवारों पर जड़े फ्रेमों में नज़रें थीं—घूंघट के नीचे झांकती, खेतों की दरारों से निकलती, मंदिर की सीढ़ियों पर टिकी हुईं।
रेवती को हर तस्वीर में एक जानी-पहचानी स्त्री दिखती थी—कभी उसकी माँ, कभी स्कूल की छात्राएँ, कभी उसकी खुद की परछाई।
एक तस्वीर के नीचे लिखा था—
“Light returns when the gaze becomes its own mirror.”
— Ayan
वह जानती थी कि ये पंक्ति उसी के लिए थी।
**
उस रात उन्होंने फिर मुलाक़ात की—एक चाय की दुकान पर, जहाँ कोई भी उन्हें नहीं जानता था।
“पता है,” अयान ने कहा, “तुम्हें देखे बिना भी अब मैं तुम्हारी मौजूदगी महसूस कर लेता हूँ।”
“क्योंकि अब मैं खुद को देखना सीख गई हूँ,” रेवती ने जवाब दिया।
“तो क्या अब हमें साथ चलना चाहिए?”
रेवती ने उसकी ओर देखा, बहुत देर तक।
“नहीं,” उसने कहा, “हमें साथ रहना चाहिए—चलना अपने-अपने रास्तों पर। लेकिन जब किसी मोड़ पर ठहरना हो, तो एक-दूसरे की बेंच बन जाना।”
अयान ने सिर हिलाया। उनकी बातचीत अब तर्क नहीं मांगती थी, बस मौन समझदारी से बहती थी।
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रेवती ने उसकी हथेली थामी। पहली बार। बिना हिचक, बिना डर।
यह कोई इज़हार नहीं था, यह एक स्वीकृति थी।
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वो रात लौटती रौशनी की तरह थी—धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित।
भाग 8: पन्ना लौट चलें?
रेवती की दिल्ली अब एक शहर नहीं, एक यात्रा थी—जिसने उसे न केवल नया जीवन दिया, बल्कि एक पुरानी परत से मुक्त भी किया। लेकिन भीतर कहीं एक कोना ऐसा था, जो अब भी पन्ना की मिट्टी से जुड़ा था, जो अभी तक पूरी तरह से छूटा नहीं था।
उस दिन, दोपहर की धूप में जब वह किताबों से भरा बैग लिए हॉस्टल के कमरे में लौटी, तब दरवाज़े पर एक डाक लिफाफा पड़ा था। सरकारी कागज़, नीला ठप्पा।
“पन्ना जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय द्वारा निमंत्रण” — ग्रामीण शिक्षा और संस्कृति पर एक संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में भाग लेने के लिए।
वह चुपचाप बैठ गई।
चार साल बाद, पन्ना खुद उसे बुला रहा था।
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उस शाम, उसने अयान से पूछा—
“अगर तुम्हें कोई जगह बार-बार बुलाए, लेकिन वहाँ तुम्हारा सबसे गहरा दुख जुड़ा हो… तो क्या तुम जाओगे?”
“अगर वहाँ तुम्हारा कोई अधूरा हिस्सा रह गया हो, तो ज़रूर जाऊँगा,” अयान ने कहा।
रेवती ने कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन अगले ही दिन उसने टिकट बुक कर ली—दिल्ली से पन्ना, एक बार फिर।
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पन्ना वही था—धीमी रफ्तार, आहिस्ता बहती ज़िंदगी, मंदिर की घंटियाँ, चाय की दुकानों पर वही बहसें। लेकिन रेवती अब वही नहीं थी।
जब उसने घर का दरवाज़ा खोला, तो माँ पहले तो पहचान नहीं पाईं। फिर धीरे-धीरे आँखें नम हो गईं।
“इतनी बदल गई है तू…”
“नहीं माँ,” रेवती ने हाथ थामकर कहा, “मैं बस लौट आई हूँ अपने अंदर।”
शैलेश अब पहले जैसा नहीं रहा था। समय और अकेलापन कुछ चुप्पियाँ साथ लाते हैं। उसने कोई सवाल नहीं किया, सिर्फ़ सिर हिलाया।
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संगोष्ठी का आयोजन उसी स्कूल में था जहाँ रेवती ने कभी पढ़ाया था। जब वह मंच पर पहुँची, तो सामने वही क्लासरूम, वही छत, वही चटाइयाँ।
“मैं यहाँ कभी पढ़ाया करती थी। तब लगा था कि मैं दूसरों को पढ़ा रही हूँ। लेकिन अब समझती हूँ कि वो समय मुझे खुद को पढ़ने के लिए दे रहा था।”
बच्चे ताली नहीं बजा रहे थे—वे बस देख रहे थे, ध्यान से। शायद उस लड़की को, जो अब एक औरत बनकर लौटी थी।
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संगोष्ठी के बाद, स्कूल की छत पर वो फिर चढ़ी। वहाँ अब एक रंगीन बोर्ड था—“रेवती चौहान ओपन आर्ट स्टूडियो”।
बच्चों के बनाए चित्र अब दीवारों पर टंगे थे, और एक कोने में छोटी-सी स्लेट पर लिखा था—
“उड़ना है, तो डर से नहीं, रंग से उड़ा करो।”
रेवती मुस्कुराई।
उसी छत पर खड़े-खड़े उसने फोन निकाला और अयान को तस्वीर भेजी।
“छत अब भी वही है। लेकिन अब मेरी उड़ान की शुरुआत यहाँ से होती है।
पन्ना लौट आया है… मेरे भीतर।”
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उस रात, पहली बार रेवती को लगा, कि लौटना हमेशा हार नहीं होता। कभी-कभी लौटना… सबसे बड़ी जीत होती है।
भाग 9: दो स्टेशन बीच का शहर
रेवती के लौटने और फिर लौट जाने के बीच एक अजीब सी जगह बनी थी—ना पूरी तरह दिल्ली, ना पन्ना। जैसे दो स्टेशनों के बीच चलती कोई धीमी रेलगाड़ी, जहाँ न बाहर उतरने की जल्दी होती है, न कहीं पहुँचने की।
वो अब दिल्ली में वापस थी, लेकिन कुछ बदल चुका था।
पन्ना की यात्रा के बाद जैसे उसकी सांसों की लय भी बदल गई थी। वहाँ उसने देखा था कि ज़मीन से जुड़ना कैसा लगता है। यहाँ उसे याद आ रहा था कि उड़ते रहना भी ज़रूरी है।
कॉलेज की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। डिग्री हाथ में थी, लेकिन सवाल अब नया था—अब क्या?
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उस दिन एक मेल आया—यूनिसेफ के साथ ग्रामीण भारत में कला व शिक्षा पर एक फैलोशिप का प्रस्ताव।
रेवती ने फ़ॉर्म भरा नहीं। वह बैठकर सोचती रही।
“क्या मैं फिर किसी शहर में खुद को खो बैठूँगी?”
“क्या मेरी ज़िंदगी सिर्फ़ दो विकल्पों के बीच रह गई है?”
और तभी, मोबाइल पर एक नोटिफिकेशन आया।
Ayan Khan tagged you in a post.
उसने स्क्रीन खोली।
📷 Photo Caption:
“Between Delhi and Panna lies a place where courage lives. She lives there.”
📍Location: “Somewhere in Between”
तस्वीर में एक ट्रेन की खिड़की थी। बाहर धुंध, अंदर एक खुली किताब और एक अधूरी चाय की प्याली।
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रेवती ने हँसते हुए मेसेज भेजा—
“क्या यही मेरा नया शहर है?”
और जवाब आया—
“शहर नहीं, ये वो जगह है जहाँ दो लोग अपने रास्ते चलते हुए एक-दूसरे की दिशा बन जाते हैं।”
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अगले दिन, रेवती ने फैलोशिप फ़ॉर्म भर दिया।
पता: “Anywhere India”
मोटिवेशन लेटर की आख़िरी पंक्ति थी:
“मैं वहाँ जाना चाहती हूँ, जहाँ किसी लड़की को पहली बार लगे कि उसकी कहानी सिर्फ़ किसी की छाया नहीं, एक रोशनी है।”
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वह अब रोज़ स्टेशन जाती। ट्रेनें देखती। लोगों को जाते और लौटते देखती। वहाँ उसकी कोई प्रतीक्षा नहीं करता था। लेकिन वो जानती थी कि कहीं कोई, किसी नज़रे से, अब भी उसे देखता है।
शायद अयान, शायद खुद की कोई पुरानी परछाई।
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उसने स्टेशन की दीवार पर एक कोरा पोस्टर देखा। जेब से पेन निकाला। और उसपर लिखा—
“मिलना ज़रूरी नहीं, चलना ज़रूरी है। और अगर रास्ते कभी मिल जाएँ… तो चाय मेरी तरफ़ से।”
भाग 10: ख्वाबों के उस पार
रेवती ने जब पहली बार अपना सूटकेस बंद किया था, तब उसके अंदर सिर्फ़ कपड़े नहीं, कुछ सवाल भी थे—क्या लौट पाऊँगी? क्या समझ पाऊँगी खुद को? क्या किसी से प्यार कर सकूँगी बिना अपनी पहचान छोड़े?
अब, उसी सूटकेस में उसने कुछ और रखा—एक स्केचबुक, कुछ मिट्टी के रंग, पन्ना की एक चिट्ठी, और स्टेशन की दीवार से फाड़ा गया वह पोस्टर, जिस पर उसने खुद लिखा था।
“मिलना ज़रूरी नहीं, चलना ज़रूरी है…”
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फैलोशिप की पहली पोस्टिंग उसे मिली—बिहार के मधुबनी ज़िले में, एक छोटे गाँव की स्कूल परियोजना में। लोककला की शिक्षा के लिए।
जब वह वहाँ पहुँची, तो गाँव की बच्चियाँ उसे यूँ देखतीं जैसे किसी परीकथा से उतरी हो। लेकिन रेवती अब परी नहीं थी। वह ठोस थी, थकी हुई भी, और सशक्त भी।
वह दीवारों पर चित्र बनवाती, उनके भीतर की कहानियाँ खींचती। एक लड़की ने एक दिन पूछा—
“दीदी, क्या आप दिल्ली से आई हैं?”
रेवती मुस्कुराई।
“नहीं, मैं ख्वाबों से आई हूँ। जिनमें तुम सब दिखती हो।”
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एक दिन, जब वह रंगों में सने हाथों के साथ बाहर बैठी थी, उसके फोन पर एक कॉल आया।
“Unknown Number”
उठाया।
“मैं बोल रहा हूँ।”
“कौन?”
“वही… जो अब नाम में नहीं, तस्वीरों में रहता है।”
रेवती चुप हो गई।
अयान की आवाज़ अब वैसी नहीं थी। उसमें दूरी थी, ध्वनि के पार की धड़कनें।
“मैं आजकल लद्दाख में हूँ। बच्चों को कैमरा चलाना सिखा रहा हूँ।”
“तुम अब भी सिखा रहे हो?”
“हाँ। और तुम?”
“मैं अब जी रही हूँ।”
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दोनों चुप हो गए।
“क्या तुम कभी फिर मिलोगी?” अयान ने पूछा।
रेवती ने बहुत धीरे कहा,
“अगर मिलना ज़रूरी हुआ, तो मिल जाऊँगी। लेकिन ज़रूरी नहीं, ना?”
अयान ने हँसते हुए कहा,
“तुम्हारी यही बात सबसे ज़्यादा पास रखता हूँ। तुम्हारी ना भी एक सहमति जैसी लगती है।”
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कॉल कट गया।
रेवती ने अपनी स्केचबुक खोली और एक नया चित्र बनाया—एक रेल की खिड़की, दो अलग दिशाओं में जाती पटरियाँ, और एक स्टेशन… जिस पर कोई नाम नहीं था।
नीचे लिखा—
“ख्वाबों के उस पार, एक शहर है। वहाँ दो लोग रहते हैं—जो कभी नहीं मिले, लेकिन हमेशा एक-दूसरे को जानते रहे।”
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कहानी अब पूरी नहीं थी, बस ख़त्म हो चुकी थी। और ख़त्म होने में जो शांति थी, वो किसी मिलन से कहीं गहरी थी।
रेवती ने खिड़की से बाहर देखा। खेतों में सरसों खिली थी, और हवा में वो आवाज़ थी… जो किसी की नहीं थी, फिर भी अपनी सी लगती थी।
वो मुस्कुराई।
और एक कप चाय अपने लिए बनाई।
समाप्त
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