Hindi - प्रेतकथा

अनुपमा

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रात का अंधेरा कुछ ज़्यादा ही घना था जब डॉक्टर रुचिका सावंत अपनी कार लेकर पुणे-मुंबई एक्सप्रेसवे पर निकल पड़ी। अस्पताल की ड्यूटी से छूटकर वो देर हो गई थी, और रात के ग्यारह बज चुके थे। उसके पास और कोई विकल्प नहीं था—अगले दिन एक जरूरी ऑपरेशन था, और वो चाहती थी कि रात में घर पहुँचकर थोड़ी देर माँ के हाथ का बना खाना खा ले और फिर आराम से नींद ले। उसका मन शांत नहीं था—वो खुद को थका हुआ महसूस कर रही थी, और ड्राइविंग में उसका ध्यान कम ही था। एक्सप्रेसवे के आसपास कोई आबादी नहीं थी, दूर-दूर तक जंगल और गहरा सन्नाटा। रेडियो ऑन करने की कोशिश की, लेकिन स्टेशन नहीं मिला। उस वीरान रास्ते पर सिर्फ उसकी कार की हेडलाइट्स और इंजन की हल्की गूंज थी, मानो अंधेरे की चुप्पी से लड़ने का अंतिम प्रयास कर रही हो।

अचानक सामने सड़क पर कुछ हलचल सी दिखी। रुचिका की नजरें चौकन्नी हो गईं। कुछ फीट की दूरी पर एक महिला खड़ी थी—साड़ी में लिपटी, बिखरे बाल, और गोद में कपड़े में लिपटा बच्चा। वह महिला सड़क के बीचोंबीच खड़ी थी, जैसे किसी को रोकना चाहती हो। रुचिका ने तेजी से ब्रेक मारा, टायर चीखते हुए रुके, और कार एक हल्के झटके के साथ बाईं ओर घास में चढ़ गई। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने सांस संभाली, और पीछे देखा—पर सड़क खाली थी। एक क्षण पहले जिस औरत को उसने देखा था, वो अब वहां नहीं थी। वो सोच में पड़ गई—क्या ये उसकी थकावट का भ्रम था? या कोई महिला सच में मदद मांग रही थी? लेकिन कोई बच्चा गोद में लिए इस वीराने में रात के ग्यारह बजे क्यों घूमेगा? डर और असमंजस के बीच रुचिका ने गाड़ी फिर से स्टार्ट की, और धीमी गति से आगे बढ़ने लगी।

करीब एक किलोमीटर आगे जाने पर उसे एक छोटा ढाबा दिखा, जहाँ दो ट्रक खड़े थे और कुछ ट्रक ड्राइवर चाय पी रहे थे। रुचिका ने कार साइड में लगाई और गहरी सांस ली। अब भी उसका दिल तेज धड़क रहा था। चाय का ऑर्डर देते वक्त उसने ट्रक ड्राइवरों से बात छेड़ी और झिझकते हुए पूछा—”इस हाइवे पर… कभी किसी औरत को देखा है, बच्चा लिए?” सभी ड्राइवरों के चेहरे एक पल के लिए सख्त हो गए। एक बुज़ुर्ग ड्राइवर, जिसकी टोपी पर “शिवम ट्रांसपोर्ट” लिखा था, ने धीमे स्वर में कहा, “आपने भी देख लिया क्या…? वो ‘दूध वाली औरत’ है… रात में दिखती है, बच्चा गोद में होता है, और बस एक ही बात कहती है — ‘थोड़ा दूध चाहिए…’। जिसे वो दिखती है, उसका अगला सफर अक्सर आखिरी होता है।” रुचिका के हाथ से चाय का कप फिसलते-फिसलते बचा। क्या वो जिस औरत को देखकर अभी-अभी बाल-बाल बची थी, वो कोई आत्मा थी? ढाबे का माहौल अचानक ठंडा हो गया, जैसे किसी ने एक अनदेखी सिहरन हवा में घोल दी हो, और रुचिका को पहली बार एहसास हुआ कि उस हाईवे पर सिर्फ गाड़ी नहीं दौड़ती, कुछ अनकही कहानियाँ भी भटकती हैं—एक माँ की अधूरी पुकार के साथ।

रुचिका ढाबे पर बैठी थी, लेकिन उसका शरीर मानो सुन्न हो गया था। चारों ओर धुआं, हल्की रोशनी, और ट्रकों के इंजन की गूंज के बीच वह उस एक दृश्य में उलझ गई थी—सड़क पर खड़ी वह औरत, उसकी गहरी आँखें, और गोद में लिपटा हुआ बच्चा। ट्रक ड्राइवर विक्रम देशमुख, जिसने उससे पहले ‘दूध वाली औरत’ का ज़िक्र किया था, अब पास की बेंच पर बैठ गया। “मैडम, आप नई हैं इस रास्ते पर, नहीं तो कभी रात में अकेले ड्राइव न करतीं।” उसने एक बीड़ी जलाते हुए कहा, “हम लोग तो पिछले बीस साल से इसी हाईवे पर चल रहे हैं। लेकिन जिस किसी ने भी उस औरत को नजरअंदाज किया, अगले मोड़ तक जिंदा नहीं पहुंचा।” रुचिका को अब तक यह सब दकियानूसी लग रहा था, लेकिन विक्रम का चेहरा गंभीर था। उसने कहा, “हमारे गिरधारी भाई… साल 2018 में, नवम्बर की रात… वही औरत दिखी थी। वो बोले – ‘पागल है, मैं क्यों दूं कुछ।’ अगले दिन उनका ट्रक पुल से नीचे मिला, टैंक में आग, शरीर जला हुआ। बस चेहरा ऐसा था जैसे चीख चीख कर मरा हो।”

विक्रम की बातें सुनकर रुचिका को अजीब सी झुरझुरी महसूस हुई। “लेकिन कोई पुलिस रिपोर्ट, CCTV… कुछ तो होगा?” उसने सवाल किया। विक्रम हँस पड़ा, एक कड़वी हँसी थी, “पुलिस ने बस एक्सीडेंट कहा, मैडम। कभी कोई नहीं मानता कि आत्मा भी भटक सकती है। पर हम ट्रक वाले जानते हैं—हर दो महीने में कोई न कोई हादसा होता है, और पीछे कहानी वही होती है। औरत गोद में बच्चा लिए, दूध मांगती है… मना करो तो बस… खत्म।” पास बैठे एक और ड्राइवर ने जोड़ा, “हमने तो ये भी सुना है, जिसने उसकी बात मानी, उसे सपने में उसकी दुआ मिलती है। वो बच जाता है। इसलिए कुछ लोग अब सफर पर दूध का पाउच रखते हैं, ‘अगर वो मिले तो दे देंगे, जान तो बचे।’” ये सब सुनते हुए रुचिका का मेडिकल तर्क लड़खड़ाने लगा था। उसने पढ़ाई में सीखा था कि हर मानसिक भ्रम के पीछे एक वैज्ञानिक कारण होता है। पर आज वो खुद भ्रम और वास्तविकता के बीच झूल रही थी।

जब उसने वहाँ से निकलने की तैयारी की, तो विक्रम ने उसे एक आखिरी बात कही, “मैडम, अगर वो फिर दिखे… तो डरना मत। बस गोद की तरफ देखना। वो बच्चा… मरा हुआ है। उसकी आँखें कभी नहीं खुलतीं। और उसकी माँ की आत्मा… बस दूध से नहीं, पछतावे से भी तृप्त होती है।” रुचिका ने गाड़ी में बैठते वक्त एक आखिरी बार ढाबे के चारों ओर देखा—हर चेहरा भय और अनुभव से सना हुआ था। गाड़ी स्टार्ट करते वक्त उसने महसूस किया, जैसे कोई पीछे की सीट पर बैठ गया हो। लेकिन पीछे मुड़ने की हिम्मत वो नहीं कर पाई। हेडलाइट्स फिर अंधेरे को चीरती चलीं, पर इस बार उसके साथ सफर में केवल दूरी नहीं, एक अधूरी आत्मा की पीड़ा भी थी।

पुणे लौटने के बाद भी रुचिका का मन अशांत बना रहा। अस्पताल में काम, मरीजों की चहल-पहल, और सहकर्मियों की हल्की-फुल्की बातें—सब अब उसे सतही और कृत्रिम लगने लगे थे। रात को नींद में बार-बार वही दृश्य उभर आता—गोद में कपड़े में लिपटा शिशु, सूनी आँखों से ताकती वो औरत, और उसके होंठों से बार-बार फिसलते शब्द—”थोड़ा दूध चाहिए…”। किसी समय यह आवाज़ धीरे से आकर रुचिका के कान में फुसफुसाती, कभी-कभी इतनी तीव्र हो जाती कि वह रात के सन्नाटे में पसीने से भीगकर जाग उठती। वह समझ नहीं पा रही थी कि इस भयावहता के पीछे सिर्फ डर है या कहीं कोई ऐसा रेशा छिपा है, जो उसके अपने अतीत से जुड़ता है। हर बार जब वह अपनी बेटी आर्ची की तस्वीर देखती, उसके भीतर कुछ टूट सा जाता था। पाँच साल की मासूम बच्ची, जो उसके जीवन का केंद्र थी—और जिसे एक दुर्लभ बीमारी ने छीन लिया था। आर्ची के जाने के बाद उसकी गोद तो सूनी हो ही गई थी, पर उस खालीपन ने मन में ऐसा गड्ढा बना दिया था, जिसे कोई प्रोफेशन, कोई मेडिकल डिग्री भर नहीं पाई थी।

उस रात जब रुचिका अकेली अपने बेडरूम में थी, और तेज़ बारिश की आवाज़ खिड़कियों से टकरा रही थी, तब उसे एक सपना आया—उसने देखा कि वो एक सूने कमरे में खड़ी है, जिसमें दूध की गंध फैली हुई है। कमरे के बीचोंबीच एक झूला लटका है, जिसमें आर्ची सो रही है। लेकिन जैसे ही वह झूले के पास जाती है, वहां आर्ची की जगह कोई और बच्चा दिखाई देता है—नीला पड़ा चेहरा, बंद आंखें, और होंठों पर सफेद दूध की लकीर। झूले के पास बैठी वही औरत है—जिसे उसने हाईवे पर देखा था। उसका चेहरा पहले से कहीं ज़्यादा उदास है। वह धीरे-धीरे रुचिका की तरफ देखती है, और कहती है, “तेरी गोद खाली है, मेरी भी… कोई तो दूध दे दे… ताकि दोनों को मुक्ति मिले…”। उसी क्षण झूला ज़ोर से हिलने लगता है, जैसे किसी अनदेखी शक्ति ने उसे झिंझोड़ दिया हो। रुचिका चीखते हुए उठ बैठी। सांसें तेज़, कपड़े पसीने से भीगे हुए। सपना भले ही सपना था, लेकिन वह रुचिका के भीतर कुछ असली और ज़िंदा जगा गया।

अगले दिन वह काम पर तो गई, पर उसके चेहरे से साफ़ था कि कुछ गलत है। नर्सों ने भी महसूस किया कि उसकी आँखों के नीचे काले घेरे बढ़ गए हैं और आवाज़ में थकावट है। लंच ब्रेक में वह अस्पताल के काउंसलिंग रूम में जाकर अकेली बैठी रही। दिमाग में एक ही बात चल रही थी—क्या ये आत्मा वाकई कोई बदला चाहती है? या फिर सिर्फ वो मातृत्व की एक अधूरी प्यास है, जो हर उस औरत के पास आ जाती है, जिसकी गोद कभी सूनी रह गई हो? शायद इसीलिए उसने रुचिका को चुना था—क्योंकि वह जानती थी, रुचिका समझ सकती है उस अधूरी ममता को, उस कराहती माँ को, जो अब भी एक मृत शिशु को गोद में लिए उस सड़क पर दूध मांग रही है। उस दिन शाम को, अस्पताल से लौटते वक्त, रुचिका ने तय कर लिया कि वह इस रहस्य के पीछे जाएगी—not as a doctor, but as a grieving mother.

रुचिका ने तय कर लिया था कि अब वह सिर्फ डरकर नहीं बैठेगी—उसे इस आत्मा के पीछे छिपी सच्चाई जाननी थी। उसने ट्रक ड्राइवर विक्रम से संपर्क किया, जो हाईवे के भूतिया अनुभवों में उसका एकमात्र सहारा बन चुका था। विक्रम ने थोड़ी हिचकिचाहट के बाद बताया कि ‘दूध वाली औरत’ को सबसे पहले वर्षों पहले एक गाँव के पास देखा गया था—नाम था देवगाँव, जो पुणे से करीब पैंतालीस किलोमीटर दूर था और अब लगभग वीरान पड़ चुका था। “वहाँ एक औरत रहती थी… अनुपमा नाम था उसका। गांव में लोगों ने बताया था कि उसका बच्चा डिलीवरी के समय मर गया था, और वो खुद भी…” विक्रम बात अधूरी छोड़ देता है। लेकिन रुचिका के भीतर का वैज्ञानिक अब यह मानने को तैयार नहीं था कि आत्मा बिना किसी मानवीय पीड़ा के भटकती है। वहाँ जरूर कोई अधूरी कहानी छिपी थी, जिसे जानना ज़रूरी था।

अगले दिन सुबह-सुबह वह विक्रम के साथ देवगाँव की ओर निकल पड़ी। रास्ते में खेत, पगडंडियाँ, और झाड़ी से ढके टेढ़े-मेढ़े रास्ते दिखते रहे, जैसे समय ने इस गाँव को भुला दिया हो। जब वे वहाँ पहुँचे, तो गाँव में सन्नाटा पसरा हुआ था। कुछ अधबने घर, टूटी हुई खपरैल की छतें, और एक पुराना कुआँ—जहाँ बगल में बैठा एक वृद्ध किसान चुपचाप मुँह में सुपारी चबा रहा था। विक्रम ने आगे बढ़कर उसे प्रणाम किया और अनुपमा के बारे में पूछा। बूढ़े ने लंबी साँस ली, मानो अतीत का दरवाज़ा धीरे-धीरे खोल रहा हो। “हाँ बेटा… अनुपमा माने। बड़ी सुंदर, शांत, सीधी लड़की थी। ब्याह के एक साल में ही पेट से हो गई थी। लेकिन जब प्रसव का समय आया, तो पति शहर में था… गाँव में कोई गाड़ी नहीं थी, और हम सबने मिलकर झोपड़ी में ही दाई बुला ली। लेकिन बच्चा पेट में उलझ गया था… मरा हुआ निकला। और अनुपमा… उसने अपना होश खो दिया। बस एक ही बात कहती रही—’कोई दूध दे दो… मेरा बच्चा भूखा है।’ कई घंटे बाद वो भी मर गई। आँखें खुली रह गईं… और होंठ सूखते रहे, जैसे अब भी कह रही हो—दूध दो…”।

यह सुनकर रुचिका अंदर तक कांप गई। उसे अब साफ़ लगने लगा कि यह आत्मा कोई दुष्ट प्रेतनी नहीं, बल्कि मातृत्व के अपमान और उपेक्षा की एक कराह बन चुकी है। एक अधूरी माँ, जिसे समाज, हालात और समय ने अनसुना कर दिया था। गाँव में लोगों ने बताया कि अनुपमा की मौत के कुछ साल बाद, उस झोपड़ी के पास कई बार औरत की चीखें सुनाई दीं, और कभी-कभी गोद में बच्चा लिए वह झोपड़ी के सामने बैठी दिखती थी। एक वृद्ध महिला ने कहा, “हम तो अब उधर नहीं जाते, बिटिया। कहते हैं उसकी आत्मा आज भी अपने मरे हुए बच्चे को ज़िंदा मानती है, और जो उसकी ममता को नकारे… उसका अंत निश्चित है।”

गाँव छोड़ने से पहले रुचिका ने अनुपमा की उस टूटी झोपड़ी को देखा, जहाँ दीवार पर अब भी एक पुरानी तस्वीर टंगी थी—एक नवविवाहिता स्त्री की, जिसकी आँखों में अनकही आशा थी। अब रुचिका के लिए ये आत्मा सिर्फ एक रहस्य नहीं, एक अधूरी कहानी बन चुकी थी—एक ऐसी सच्चाई, जिसे दुनिया भुला चुकी थी, पर जिसकी ममता अब भी भटक रही थी। वह जानती थी कि अब यह यात्रा और आगे जाएगी… और शायद अब अगला सामना आमने-सामने होगा।

गाँव से लौटते वक्त शाम ढल चुकी थी। बारिश की हल्की बूँदें कार की विंडशील्ड पर गिर रही थीं और वाइपर एक स्थिर लय में उन्हें हटाने में लगे थे। रुचिका अकेली गाड़ी चला रही थी, विक्रम बीच रास्ते में एक चौक पर उतर गया था। भीतर एक अजीब बेचैनी थी—देवगाँव में सुनी बातें, अनुपमा का चेहरा, उसकी झोपड़ी, दीवार पर टंगी उसकी तस्वीर और बूढ़े किसान की आवाज़… सब कुछ कानों में गूंज रहा था। हाईवे पर चढ़ते ही उसने महसूस किया कि उसकी कार की हेडलाइट कुछ क्षण के लिए झपक गई, मानो बिजली डगमगाई हो। फिर अचानक इंजन झटका खाकर रुक गया। वह घबराकर कार से बाहर निकली—चारों ओर अंधकार, तेज़ हवाएं और दूर-दूर तक कोई नहीं। मोबाइल की टॉर्च ऑन की, पर नेटवर्क चला गया था। जैसे ही उसने बोनट खोलने के लिए कदम बढ़ाया, उसे लगा कि पीछे कोई आहिस्ते से सांस ले रहा है।

पीछे मुड़ते ही उसका शरीर सिहर उठा—वही औरत खड़ी थी। वही उलझे बाल, गंदी साड़ी, और गोद में सफेद कपड़े में लिपटा हुआ बच्चा। लेकिन इस बार वो दूर नहीं थी—वो बिल्कुल कार के पास खड़ी थी। चेहरा पहले से अधिक स्पष्ट था—सूजा हुआ, गीला, दर्द से भरा। और वो कुछ नहीं बोल रही थी, बस अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाए थी—जैसे दूध माँग रही हो। रुचिका को पहली बार उसके बच्चे का चेहरा साफ़ दिखा—नीला पड़ा, आँखें बंद, जैसे वो कभी सांस ही नहीं ले पाया। आत्मा के पास आने से हवा भारी हो गई थी, कार के शीशों पर पानी जम गया, और समय जैसे थम गया। रुचिका पीछे हटती गई लेकिन अचानक उसका पैर फिसल गया और वो ज़मीन पर गिर पड़ी। आत्मा उसके बिल्कुल ऊपर झुक गई—चेहरा अब बेहद नज़दीक, और उसकी साँसें बर्फ जैसी ठंडी।

“मुझे दूध दे दो…” एक बेजान, पर गूँजती हुई फुसफुसाहट। रुचिका की आँखों से आँसू बहने लगे—डर से नहीं, करुणा से। उसके भीतर की माँ, जो आर्ची को खोने के बाद अधूरी रह गई थी, आज किसी और की पीड़ा को महसूस कर रही थी। उसने कांपते हुए हाथ बढ़ाकर आत्मा से कहा, “मैं दे दूँगी… जो तू चाहती है… लेकिन मेरे पास दूध नहीं… मैं एक माँ हूँ… पर मेरी गोद भी सूनी है…”। आत्मा का चेहरा कुछ क्षण के लिए नरम हुआ, लेकिन फिर अचानक वो बच्चे को रुचिका की गोद में डालने लगी। रुचिका की चीख निकल गई—वो शरीर बर्फ जैसा ठंडा था, और जैसे ही उसने उसे छूआ, एक बिजली सी दौड़ गई उसके शरीर में। उसी पल उसे कुछ झलकियाँ दिखीं—अनुपमा की दर्दनाक मौत, उसका चीखता हुआ चेहरा, गाँव वालों की उपेक्षा, और वो बच्चा… जो कभी जी ही नहीं पाया।

होश आने पर रुचिका खुद को कार की सीट पर पाती है। कार स्टार्ट हो चुकी थी, और खिड़की के शीशे खुले थे। पास की सड़क अब भी सुनसान थी। लेकिन उस आत्मा का कोई नामोनिशान नहीं था। वह समझ चुकी थी—ये एक चेतावनी थी, शायद अंतिम मौका था। अनुपमा की आत्मा अब उससे कुछ और चाहती थी—शायद मुक्ति। और वह जान गई थी कि उसे अब इस खेल में सिर्फ डॉक्टर बनकर नहीं, एक अधूरी माँ बनकर उतरना होगा। उसके भीतर कोई निर्णय जन्म ले चुका था, जो आने वाले अध्याय को मोड़ देगा।

पुणे की पुलिस चौकी में इंस्पेक्टर मोहित चौघुले अपना सिर खुजला रहे थे। टेबल पर आठ फाइलें खुली थीं—सभी में एक जैसी दुर्घटनाएं, वही स्थान, वही समय—रात के ग्यारह बजे के आसपास, पुणे-मुंबई हाईवे के उसी मोड़ पर। हर केस की तस्वीरों में एक समान बात थी—ड्राइवर की खुली आँखें, शरीर पर ज़्यादा चोट नहीं, लेकिन चेहरे पर भय की चरम अभिव्यक्ति, जैसे मरने से पहले उन्होंने कुछ असंभव देखा हो। लेकिन सबूत? कहीं कुछ नहीं। न CCTV, न चश्मदीद। कोई भी केस ‘ओवरस्पीडिंग’ या ‘स्लीप ड्राइविंग’ कहकर बंद कर दिया गया था। लेकिन मोहित के भीतर अब संदेह जन्म ले रहा था—क्या वाकई इन सबके पीछे कोई “सुपरनैचुरल” कारण हो सकता है?

उसी वक्त डॉक्टर रुचिका सावंत पुलिस स्टेशन में दाखिल हुई। उसका चेहरा थका हुआ था, लेकिन आँखों में डर की जगह अब एक सच्चाई की खोज थी। उसने सारी कहानी सुनाई—हाईवे पर दिखी औरत, बच्चा, गाँव की यात्रा, अनुपमा की झोपड़ी और पिछली रात का अनुभव। मोहित ने पहले मज़ाक में लिया, लेकिन जब रुचिका ने गाँव का नाम और दिनांक दिए, तो उसकी भौंहें तन गईं। एक पुरानी केस डायरी में अनुपमा माने नाम की मृत्यु दर्ज थी—1995, ग्रामीण चिकित्सा लापरवाही, कोई मेडिकल मदद नहीं, मौत के वक्त मानसिक असंतुलन। धीरे-धीरे घटनाओं की कड़ियाँ जुड़ने लगीं। रुचिका ने एक विचार रखा—“क्या आत्मा हर उस व्यक्ति को मारती है, जो मातृत्व का अपमान करता है? जो उसकी पीड़ा को समझे बिना आगे बढ़ जाता है?” मोहित गंभीर हो गया, “और जो उसकी बात सुन ले, क्या वो बच जाता है?”

इसी प्रश्न का उत्तर उन्हें अगली रात मिला। मोहित ने हाईवे पर नाइट पेट्रोलिंग के दौरान खुद उस मोड़ के पास गाड़ी रोकी। वो कैमरा ऑन कर रहा था, कि सामने उसकी गाड़ी की हेडलाइट्स में वही औरत प्रकट हुई। चेहरा पहले जैसा—सूजा हुआ, बाल बिखरे, गोद में बच्चा, और वही गूंजती आवाज़—“थोड़ा दूध चाहिए…”। मोहित का कलेजा काँप उठा। लेकिन उसने वही किया जो शायद अब तक किसी पुलिस अफसर ने नहीं किया था—गाड़ी से उतर कर उसने उस औरत की तरफ एक छोटी बोतल बढ़ाई, जिसमें अस्पताल का सैंपल दूध था जो रुचिका ने उसे “सिर्फ़ अगर दिखे तो देना” कहकर दिया था। आत्मा कुछ देर तक उसे देखती रही, फिर बच्चा उसकी गोद में शांत हो गया, और वो औरत हवा में धीमे-धीमे ग़ायब होने लगी—बिना किसी चीख या डर के।

रात भर मोहित वहीं बैठा रहा, एक चुपचाप भय में डूबा हुआ। सुबह की पहली किरण के साथ उसने पुलिस स्टेशन लौटकर अपनी रिपोर्ट तैयार की—”कोई एक्सीडेंट नहीं हुआ आज रात। सब सामान्य।” पहली बार उस मोड़ से कोई मौत नहीं हुई थी। उसने रुचिका को फोन करके सब बताया। रुचिका की आंखों में पहली बार आशा चमकी। अब वे दोनों समझ चुके थे कि ये कोई साधारण आत्मा नहीं, एक अधूरी माँ की करुण पुकार है। और अब, जब उसकी बात सुनी गई, तो शायद वह अब भी कहीं इंतज़ार में है—किसी ऐसे कदम का, जो उसे पूर्ण मुक्ति दे सके। रुचिका जानती थी—अगली कड़ी उसकी होगी। अंतिम सामना शायद अभी शेष है।

रुचिका की ज़िंदगी अब पहले जैसी नहीं रही थी। एक समय था जब वह एक व्यस्त डॉक्टर थी—गंभीर चेहरा, पर सुलझी सोच, हर निर्णय विज्ञान पर आधारित। लेकिन अब उसके मन में विज्ञान के साथ साथ किसी और चीज़ की भी दस्तक थी—एक आत्मा की, एक माँ की, एक ऐसे दर्द की जो सिर्फ अनुभव किया जा सकता है, समझाया नहीं जा सकता। इंस्पेक्टर मोहित की बातों और उस रात की घटना के बाद वह समझ चुकी थी कि अनुपमा की आत्मा को अब सिर्फ दूध नहीं, अब पहचान और शांति चाहिए। अब कोई दंड नहीं, अब बस अपनापन। तभी उसके भीतर एक विचार ने जन्म लिया—क्या किसी नवजात को गोद लेकर वह इस अधूरी आत्मा को पूर्णता दे सकती है? क्या उसका मातृत्व, जो आर्ची के साथ अधूरा रह गया, अब किसी और मासूम के जीवन में एक पुल बन सकता है?

उसने तुरंत कार्यवाही शुरू कर दी। पुणे के सिविल अस्पताल से जुड़े अनाथाश्रम में उसका नाम पहले से दर्ज था, लेकिन अब वह सक्रिय हो गई। कागज़ात, प्रक्रिया, मानसिक मूल्यांकन सब कुछ उसने गंभीरता से पूरा किया। एक सप्ताह बाद उसे फोन आया—”मैम, एक बच्चा है… तीन दिन का। माँ की मृत्यु प्रसव के बाद हो गई, कोई परिजन नहीं।” रुचिका कुछ पल के लिए चुप रह गई। उसे लगा जैसे कोई अदृश्य हाथ उसके कंधे पर आकर धीरे से कह रहा हो—”यह वही गोद है, जिसका तुमसे वादा था।” जब वह बच्चे को पहली बार देखने पहुँची, तो वो कपास में लिपटा एक नन्हा जीव था—बिल्कुल आर्ची की तरह, पर फिर भी बिल्कुल अलग। उसके होंठ हल्के खुले थे, जैसे कुछ माँग रहे हों। रुचिका की आँखों में आँसू थे, लेकिन होंठों पर मुस्कान। उसने बच्चे को अपनी गोद में लिया, और मन ही मन कहा—”अब कोई भूखा नहीं रहेगा।”

उस रात जब वह उस बच्चे को लेकर अपने घर लौटी, तो आसमान में बादल थे, लेकिन हवा में हल्की गर्मी थी। कमरे में जब वह बच्चे को दूध की बोतल पिलाने बैठी, तभी खिड़की से एक ठंडी हवा का झोंका अंदर आया। खिड़की खुद-ब-खुद खुल गई। वह पलट कर देखी ही रही थी कि कमरे के कोने में एक हल्की सी धुंध जमा होने लगी। धीरे-धीरे वह धुंध एक रूप लेने लगी—वही अनुपमा। लेकिन अब उसका चेहरा विकृत नहीं था। बाल सुलझे हुए, आँखों में आँसू और होंठों पर एक थकी हुई मुस्कान। वो कुछ नहीं बोल रही थी, बस देख रही थी—गोद में लेटे हुए उस बच्चे को। रुचिका ने बच्चे को उठा कर अनुपमा की तरफ किया और बुदबुदाई—”तेरी नहीं, मेरी भी गोद अधूरी थी। अब ये दोनों हमारे हैं।” आत्मा ने सिर झुकाया, और उसकी आँखों से दो बूंद आँसू हवा में घुल गए। कमरे में दूध की हल्की गंध फैली, जैसे अनुपमा की आत्मा आखिरी बार अपने बच्चे की महक को महसूस कर रही हो। फिर, वह धीरे-धीरे पीछे हटने लगी—उसकी देह धुंध में बदल गई, और अंततः सिर्फ एक करुण मुस्कान कमरे में रह गई।

उस रात, पहली बार कई वर्षों में, रुचिका को गहरी नींद आई। सपना नहीं आया, चीख नहीं सुनी, और बच्चा भी चैन से सोता रहा। जैसे किसी अदृश्य माँ ने उस पर अपनी आत्मीय निगरानी छोड़ दी हो। ये अब केवल मातृत्व की कहानी नहीं थी—ये मुक्ति की भी कहानी थी। एक आत्मा की, जो अब न हाईवे पर भटकेगी, न किसी से दूध माँगेगी, क्योंकि कहीं न कहीं, अब कोई और उसकी अधूरी गोद को पूरी कर चुका था।

पुणे से मुंबई लौटने का सफ़र अब वैसा नहीं रहा था जैसा पहले हुआ करता था। अब उस हाईवे से गुज़रते हुए रुचिका के मन में डर की नहीं, शांति की लहर दौड़ती थी। गोद में सोता हुआ नन्हा ‘आरव’ — जिसे उसने पिछले महीने अनाथालय से गोद लिया था — उसकी दुनिया का केंद्र बन चुका था। आरव के साथ उसकी ज़िंदगी फिर से सांस लेने लगी थी। आर्ची की यादें अब पीड़ा नहीं, स्मृति बनकर रहने लगी थीं। कुछ अधूरा नहीं लगता था अब। हर रात जब वो आरव को दूध पिलाती, उसे लगता जैसे उसके साथ कोई और भी मुस्करा रहा है—जैसे अनुपमा की आत्मा अब सिर्फ एक मातृ-छाया बनकर उसके जीवन का हिस्सा हो गई हो।

फिर एक रात, वह वही रास्ता तय कर रही थी—मुंबई से पुणे, आरव पिछली सीट पर अपनी बेबी सीट में चैन से सो रहा था, और गाड़ी धीमी गति से हाईवे के उसी कुख्यात मोड़ की ओर बढ़ रही थी, जहाँ कभी वो पहली बार “दूध वाली औरत” से टकराई थी। उस रात अंधेरा ज़्यादा घना नहीं था, आसमान साफ़ था, और चाँद हल्का पीला चमक रहा था। जैसे ही गाड़ी मोड़ पर पहुँची, अचानक एक झिलमिलाहट सी कार की विंडशील्ड पर पड़ी। रुचिका ने ब्रेक धीमा किया। सामने दूर खड़ी थी वही आकृति—वही औरत, वही साड़ी, वही गोद का बच्चा… लेकिन इस बार कुछ बदल गया था। औरत का चेहरा शांत था, आँखों में दहशत नहीं, बल्कि एक थकी हुई संतुष्टि थी।

रुचिका ने कार रोकी और बिना डरे बाहर निकली। वो औरत अब पास आई, धीरे-धीरे, उसकी चाल में कोई कंपकंपी नहीं थी। उसके होंठ खुले, पर इस बार आवाज़ आई—“अब मुझे कोई दूध नहीं चाहिए।” उसकी आवाज़ में राहत थी, एक करुण स्पर्श था। उसने आरव की तरफ देखा और कहा, “तेरी गोद अब पूरी है। अब मेरी ममता भी पूरी है। अब हम दोनों एक-दूसरे को बाँट चुके हैं।” यह कहते हुए उसने झुक कर आरव का माथा चूमा। उस क्षण हवा में एक हल्की महक फैल गई—जैसे चंदन, दूध और बारिश की मिट्टी एक साथ घुल गई हो। उसके बाद वह औरत धुंध में बदलने लगी। पर इस बार वह चीखते हुए नहीं गई, न ही हवा में विलीन हुई, बल्कि जैसे एक थकी हुई माँ नींद में समा गई हो।

उसके जाते ही आसमान में अचानक टिमटिमाते तारे और चाँद ज़्यादा चमकने लगे। हवा अब भारी नहीं थी। रुचिका ने ऊपर देखा—एक पल के लिए उसे लगा, जैसे बादलों में से एक चेहरा झांक रहा है, मुस्कराते हुए। वह लौटकर गाड़ी में बैठी, आरव अब भी मुस्करा रहा था, उसकी नींद शांत थी। गाड़ी फिर धीरे-धीरे चल पड़ी—हाईवे के उस मोड़ को पार करती हुई, जहाँ अब कोई आत्मा नहीं भटकती, कोई गोद खाली नहीं रही।

समय बीतता गया, लेकिन “दूध वाली औरत” की कहानियाँ अब ढाबों पर कम सुनाई देने लगीं। ट्रक ड्राइवर अब वहां रुक कर चाय पीते, पर किसी से डर कर नहीं, बल्कि राहत से कहते—”अब वो नहीं दिखती। शायद किसी ने उसकी बात सुन ली।”

और इस तरह, एक आत्मा को न सिर्फ शांति मिली, बल्कि एक अधूरी माँ को भी उसका बच्चा मिला — और एक अधूरी कहानी, अंततः पूरी हो गई।

समाप्त

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