देवांशु मिश्र
छींकापुर, ऐसा गाँव जहाँ हर दूसरे दिन बिजली जाती है और हर चौथे दिन चौधरी जी की बकरी। यहाँ के लोग ताश खेलते हुए दुनिया की राजनीति तय करते हैं और बीड़ी पीते हुए शेयर मार्केट की चाल समझाते हैं। इसी गाँव का सबसे विशेष जीव था—पप्पू यादव। उम्र 28, काम-काज शून्य, मगर जुगाड़ ज्ञान में ऐसा निपुण कि शादी में बिना बुलाए घुसने के 13 तरीके जानता था। स्कूल में मास्टर रामखेलावन उसे ‘गधे की जात’ कहकर बुलाते थे और मोहल्ले वाले उसे ‘UPSC का मजाक’ कहते थे। लेकिन पप्पू का आत्मविश्वास डबल बैटरी वाले टॉर्च जैसा था—कभी-कभी चमकता था, पर जब चमकता था, सबकी आँखें चौंधिया देता था। गाँव में उसकी पहचान थी—पप्पू, जो कभी नौकरी नहीं करेगा, लेकिन शादी हर सरकारी कर्मचारी की बहन से करवाएगा। दिन भर पीपल के नीचे बैठकर बताशे चबाना, पुरानी किताबें पढ़ने की एक्टिंग करना और गाँव की लड़कियों को ‘मोटिवेशनल स्पीच’ देना—यही उसका जीवन था। लेकिन वो दिन जब सब कुछ बदल गया, वो एकदम फिल्मी अंदाज़ में आया। पप्पू वहीं पीपल के नीचे आराम से खाँसी दबा रहा था, जब उसका छोटा भाई चिंटू गाँव की गलियों को चीरता हुआ दौड़ते आया—“भइया! अखबार में आपका नाम छपा है! आप IAS बन गए हो!”
अखबार की कतरन में मोटे अक्षरों में छपा था—“झारखंड के पप्पू यादव ने UPSC में टॉप 50 में जगह बनाई।” और चमत्कार ये हुआ कि नाम, पिता का नाम, और जन्म तिथि—तीनों पप्पू यादव छींकापुर वाले से मिलते-जुलते थे। बस, तस्वीर अलग थी, लेकिन अखबार की प्रिंटिंग में धुंधली थी, सो किसी ने फर्क नहीं किया। पप्पू ने अखबार की कटिंग माथे से लगाई और बोला—“हे भगवान, अब तो तुम भी हमें सिरियसली ले रहे हो!” गाँव में तो जैसे भूचाल आ गया। मंदिर में घंटे बजने लगे, पुरानी मौसी ने मीठा बाँटा, बबली—जिसने पिछले साल उसे राखी बाँधी थी—अब लाज से आँखें नीची करने लगी। मास्टर रामखेलावन, जिन्होंने कभी उसे ‘नालायक’ घोषित किया था, अब पप्पू के घर जाकर बोले—“मैं तो पहले दिन से जानता था, इस लड़के में एक अलग चमक है। सरकार को इसे राज्यसभा भेज देना चाहिए।” घर की छत पर नीली चादर डाल दी गई, आस-पड़ोस के लोग सेल्फी लेने आने लगे, और पप्पू खुद को ‘IAS साहब’ कहकर बुलाने लगे। यहाँ तक कि गाँव के चौधरी ने एलान कर दिया—“अब से हर सोमवार को हम ‘पप्पू दिवस’ मनाएंगे।” पप्पू को समझ नहीं आ रहा था कि ये सपना है या सरकारी योजना, मगर जब दिल्ली से कॉल आया कि “आपको IAS ट्रेनिंग के लिए आमंत्रित किया गया है,” तो उसके हाथ-पैर ठंडे हो गए। वो समझ चुका था—कुछ तो गड़बड़ है, लेकिन फिर भी मन में एक ही बात आई—“जब गलती ऊपर से हो रही है, तो नीचे वाला क्यों सही करे?”
पप्पू ने दिल्ली की ओर रवाना होने से पहले खुद को हर एंगल से शीशे में देखा—कंधे पर झोला, जेब में च्यवनप्राश, और मन में खलबली। गाँव से विदा होते समय पूरा छींकापुर स्टेशन पर जमा हो गया था। कोई माला पहना रहा था, कोई माथा छू रहा था, और कोई उसे भविष्य का कलेक्टर कह रहा था। दिल्ली पहुँचते ही उसका सामना हुआ ट्रेनिंग सेंटर के अधिकारी मुकुंद बाबू से, जिनके माथे की सलवटें देखकर लगता था कि वो Excel Sheet से ही पैदा हुए हैं। “छींकापुर?” मुकुंद बाबू ने भौंहें चढ़ाते हुए पूछा। पप्पू ने मुस्कुरा कर कहा—“जी हाँ, वहीं से… जहाँ ट्रैक्टर से पहले भैंस स्नान करती है।” उनका शक गहराया, लेकिन दस्तावेज़ देखकर बोले—“ठीक है, सुबह छह बजे रिपोर्ट करें।” अगले दिन पप्पू पहली बार जीवन में कोट-पैंट पहनकर समय पर पहुँचा, बालों में नारियल तेल और जेब में सेंटर फ्रेश। क्लास में उसने जब पहले दिन कहा, “RTI का मतलब होता है—रोटी टमाटर इनफॉर्मेशन,” तो सबने हँसते हुए मान लिया—यह बंदा देसी है, मगर दमदार है। अब पप्पू धीरे-धीरे सीखने लगा—कभी झूठ, कभी हाज़िरी में नकल, कभी गाँव के मुहावरों से लोगों को इंप्रेस करना। उसने ठान लिया था—अगर सरकार ने गलती से मौका दिया है, तो वो गलती को ऐतिहासिक बना देगा। और यहीं से शुरू हुआ उसका अनोखा, जुगाड़ू, देसी IAS बनने का पहला पन्ना।
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जब पप्पू ट्रेन से दिल्ली पहुँचा, तो उसका मन कुछ वैसा ही था जैसा गाँव के लड़कों का होता है जब वो पहली बार मॉल में जाते हैं—आँखें बड़ी, मन डरा हुआ, लेकिन जुबान पर वही पुराना आत्मविश्वास। दिल्ली की हवा अलग थी—यहाँ किसी को फुर्सत नहीं थी यह देखने की कि कौन IAS है और कौन B.A. पास। लेकिन पप्पू, जिसकी सारी ज़िंदगी ही “देख लेंगे” मोड पर चली थी, यहाँ भी वही रवैया अपनाए था। ट्रेनिंग सेंटर की इमारत देखकर उसका दिल धड़कने लगा—बिलकुल वैसी ही थी जैसी फिल्मों में दिखाई जाती है, बड़े-बड़े पत्थर के खंभे, सामने झंडा और अंदर जाते ही एक तेज़ खुशबू—जो उसे शुरुआत में हॉस्टल के वॉशिंग पाउडर जैसी लगी। पहला दिन था, और सब नए अफसरों को जमा किया गया था। सबने सफारी सूट पहन रखे थे, और अंग्रेज़ी ऐसे बोल रहे थे जैसे स्कूल में किताबों ने ही उन्हें पैदा किया हो। तभी पप्पू अपनी हवाई चप्पल और बकुली छपी शर्ट में पहुँचा। सबने एक नज़र देखा, और फिर नजरें फेर लीं, लेकिन मुकुंद बाबू—जो ट्रेनिंग के प्रभारी थे—उनकी नज़र एकदम अटक गई। “ये कौन है? इतना बेतकल्लुफ कौन?” पप्पू ने मुस्कुराकर कहा—“सर, हम ही तो छींकापुर वाले पप्पू यादव हैं, आपका चमकता सितारा!”
पप्पू की फाइल दो बार देखी गई। नाम, जन्म तिथि, जाति प्रमाण पत्र—सब कुछ मेल खाता था। तस्वीर ज़रा घबराई हुई थी, पर मुकुंद बाबू ने सोचा—”शायद इंटरव्यू में डर के मारे ऐसा चेहरा हो गया होगा।” अफसरों की व्यस्तता और सिस्टम की जल्दबाज़ी ने पप्पू की राह और आसान बना दी। अब पप्पू बाकायदा IAS ट्रेनी बन गया था। सुबह की परेड, शाम की लेक्चर, और बीच में सरकारी कैन्टीन की कतारें—जहाँ पप्पू ने अपने देसी तर्ज पर जुगाड़ शुरू किया। जैसे ही उसे पता चला कि लेक्चर में “इकोनॉमिक्स” आने वाला है, उसने गाँव के मोबाइल दुकानदार भोला से कॉल किया—“वो वाला मास्टर भेज दे जो B.Com फेल है, पर बातें बड़ी करता है।” अगली सुबह, पप्पू लाइब्रेरी में अंग्रेज़ी की किताब खोलकर उसे उल्टा पकड़कर बोल रहा था—“देखो, जो लाइन नीचे होती है, वो ग्रोथ होती है, और जो ऊपर जाती है, वो भ्रष्टाचार का ग्राफ।” क्लास में सब हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते, पर मुकुंद बाबू का माथा और गहरा होता जा रहा था। उन्होंने एक बार पूछ ही लिया—“पप्पू, RTI क्या है?” पप्पू ने तपाक से जवाब दिया—“सर, गाँव में कहते हैं रोटी-टमाटर-इनफॉर्मेशन… मतलब गरीब आदमी को जो पेट भरता है, वही उसका हक होता है!” पूरी क्लास ठहाके मारने लगी, और मुकुंद बाबू का सिर फाइलों में गड़ गया।
लेकिन पप्पू की सबसे बड़ी ताकत थी—उसका आत्मविश्वास। वो झूठ को ऐसे बोलता था जैसे नेता चुनावी वादा करते हैं—न बौखलाहट, न घबराहट। एक दिन क्लास में आपदा प्रबंधन पर लेक्चर था। अफसर ने पूछा—“आप एक बाढ़ग्रस्त गाँव में अधिकारी हैं, वहाँ सबसे पहला निर्णय क्या लेंगे?” सबने किताबों से पढ़ी हुई पंक्तियाँ दोहराईं—“राहत शिविर, प्राथमिक चिकित्सा, भोजन आपूर्ति” वगैरह। पप्पू बोला—“सर, सबसे पहले मैं नाव वालों से सेटिंग करूँगा, फिर चाय वाले को बोलूँगा कि राहत शिविर के बाहर स्टॉल लगाए, ताकि लोगों को लगे कुछ हो रहा है। और सबसे ज़रूरी—फेसबुक लाइव करूँगा, ताकि ऊपर तक दिखे कि हम काम कर रहे हैं।” कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया, फिर पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा। सभी ने सोचा—“भले ही ये किताबों से दूर है, पर रियल ज़िंदगी की समझ इससे बेहतर किसी में नहीं।” अब पप्पू हर दिन थोड़े-थोड़े तरीकों से सबका चहेता बनता जा रहा था। बबली तक ने एक दिन फोन कर कहा—“पप्पू, तुमने साबित कर दिया कि गाँव का लड़का कुछ भी कर सकता है।” पप्पू बोला—“हम तो वही हैं, बस नाम के आगे IAS जुड़ गया है। बाकी चप्पल अब भी वही है।” और इसी अंदाज़ में पप्पू अपने झूठ के ताने-बाने को ‘सरकारी योजना’ जैसा विस्तार देने में लगा रहा, इस उम्मीद में कि शायद गलती से मिली ये कुर्सी, अब क़ानूनी सच बन जाए।
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पप्पू को अब तक खुद भी यकीन नहीं हो रहा था कि वह वाकई IAS की ट्रेनिंग कर रहा है। बचपन में जो लड़का ब्लैकबोर्ड के सामने “A for Aaloo, B for Bhindi” बोलकर मास्टरजी का BP बढ़ा देता था, अब वही सरकारी प्रोजेक्ट्स की फाइलों के नीचे दबा हुआ था। दिल्ली का सरकारी ट्रेनिंग सेंटर बड़ा भव्य था, मगर पप्पू की कल्पना में इसे ‘सरकारी धर्मशाला’ जैसा ही समझा गया था। यहाँ पर हर चीज़ में अनुशासन था—सुबह की परेड से लेकर रात के होमवर्क तक। जहाँ बाकी ट्रेनी अधिकारी “गुड गवर्नेंस”, “डिजिटल इंडिया”, “इथिक्स इन पब्लिक सर्विस” जैसे शब्दों से झोले भर रहे थे, वहीं पप्पू दिन गिन रहा था कि कब उसे “कुछ गलत” करते पकड़ा जाएगा। लेकिन कमाल की बात ये थी कि पप्पू हर बार अपनी देसी सूझबूझ से निकल भी जाता। जब एक दिन क्लास में पूछा गया कि “आपके विचार में एक आदर्श लोकसेवक कैसा होना चाहिए?” तो पप्पू बोला—”जिसके पास घोड़ा हो, मूंछ हो, और रॉब हो।” सभी ठहाके मारने लगे, लेकिन ट्रेनर ने गंभीरता से सिर हिलाते हुए कहा—”कम से कम आत्मविश्वास तो है!” पप्पू को धीरे-धीरे समझ आ रहा था कि यहां के खेल में हारने वाला नहीं, बोलने वाला जीतता है। और बोलने में तो पप्पू का कोई जवाब नहीं था—वो चाय वाले को भी समझा सकता था कि पानी पीना हानिकारक है।
मुकुंद बाबू, जो शुरू से पप्पू के लक्षण देखकर परेशान थे, अब दिन-रात फाइलें खंगाल रहे थे। उन्हें शक था कि कुछ गड़बड़ है, लेकिन सब दस्तावेज़ सही थे। उधर पप्पू ने भी एक योजना बना ली थी—जैसे सरकारी योजनाओं में नाम बदलकर पुराने प्रोजेक्ट को नया बना दिया जाता है, वैसे ही वह अपने पुराने झूठ को सच की शक्ल देगा। उसने फॉर्म भरने वाले ऑफिस के बाबू से दोस्ती कर ली थी—रोज़ शाम को चाय पिलाता, समोसा खिलाता, और एक दिन तो घर से लिट्टी-चोखा बनाकर ले आया। बाबू पिघल गया, और बोला—”पप्पू बाबू, आप तो असली नेता बनेंगे।” और यहीं से शुरू हुआ पप्पू का पहला संगठित झूठ—उसने बाबू से कहा, “भाई साहब, हमारे रोल नंबर की कॉपी मुझे दे दो, ताकि आगे कोई पूछे तो मैं वही दिखा दूं।” बाबू ने थोड़ी देर घबराया, फिर बोला—”ठीक है, एक बार के लिए।” अब पप्पू के पास वह पेपर था, जिसे वह दुनिया के सामने दिखाकर कह सकता था—“देखिए, हम ही हैं असली IAS।” जब मुकुंद बाबू ने एक दिन उसे सख़्ती से बुलाकर पूछा—“तुम वाकई वही हो, ना?” तो पप्पू ने आँखों में आँसू भरकर कहा—“सर, जब हम UPSC का फॉर्म भर रहे थे, तब घर में आग लग गई थी। किताबें जल गईं, पिताजी की दुकान भी बंद हो गई। लेकिन हम डटे रहे। अब आप ही कहिए, क्या ऐसे झूठ बोला जा सकता है?” मुकुंद बाबू थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले—“चलो, काम से काम इमोशनल तो हो!” और पप्पू के पहले झूठ ने एक और सच्चाई को पस्त कर दिया।
अब पप्पू पूरी तरह ट्रेनिंग के रंग में रंग चुका था। सुबह उठना अब भी एक सजा थी, लेकिन वह बाथरूम के शीशे में खुद को कोट-पैंट में देखकर खुश होता था। धीरे-धीरे उसने एक खास पहचान बना ली थी—बाकी अधिकारी उसे “देश का देसी IAS” कहकर पुकारते थे। वह मीटिंग्स में देसी मुहावरों का इस्तेमाल करता—“सर, अगर फाइल नहीं चलेगी तो अफसर भी पगला जाएगा…”, “नीति ऐसी होनी चाहिए कि गाँव वाला भी बोले, वाह क्या बात है!”, और सबसे हिट डायलॉग—“देश को चाय चाहिए, पर ठंडी नहीं, गरम और तेज़।” उसकी लोकप्रियता ऐसी थी कि सोशल मीडिया पर उसकी एक तस्वीर वायरल हो गई, जिसमें वह फावड़ा उठाकर खेत में खड़ा था और कैप्शन लिखा था—“ग्राउंड ज़ीरो से उठकर ग्राउंड रिपोर्ट तक।” गांव में तो अब नई अफवाहें फैलने लगीं—कोई कहता पप्पू मोदीजी के करीबी बन गए हैं, कोई कहता उन्हें विदेश भेजा जाएगा। और बबली, जिसने अब तक चार बार रिजेक्ट कर चुकी थी, अब हर रविवार को माँ के साथ मंदिर जाकर मन्नत माँगती थी—“हे भगवान, पप्पू जैसा पति मिले… लेकिन थोड़ा अंग्रेज़ी वाला।” मगर पप्पू जानता था—ये सब एक ताश के पत्तों का खेल है, एक हवा चली और सब बिखर जाएगा। इसलिए वह हर सुबह खुद से कहता—“जब तक पकड़ में न आए, तब तक सबसे बड़ा IAS मैं ही हूँ।” और इस विश्वास के साथ वह हर झूठ को सच की तरह जी रहा था, जैसे देश की राजनीति में अक्सर होता है।
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गाँव छींकापुर अब पहले जैसा नहीं रहा था। पहले जहाँ पप्पू यादव को लोग चाय की दुकान पर बैठा देखकर ताने मारा करते थे—“अबे कुछ काम-धंधा भी करेगा या यहीं गिलास धोता रहेगा?”, अब वहीं लोग उसे अख़बार की कतरन हाथ में लिए गर्व से दूसरों को दिखाते थे, “देखा, ये है हमारा पप्पू बाबू, देश का अफसर!” गाँव की दीवारों पर सफेदी करके उस पर पप्पू की फोटो चिपकाई जा रही थी, मंदिर में प्रसाद बाँटा गया, और स्कूल की प्रार्थना सभा में ‘IAS बनने की प्रेरणा’ के रूप में उसका नाम लिया गया। सबसे ज़्यादा परिवर्तन बबली के व्यवहार में दिखा—वही बबली, जो कभी पप्पू को ‘ढीठ’ और ‘फालतू’ मानकर उसके करीब तक नहीं फटकती थी, अब हर सुबह उसके फेसबुक प्रोफाइल पर जाकर देखती थी कि उसने नया क्या डाला है। उसने अपने स्टेटस में लिखा—“Dreams Do Come True… Especially In Khadi”, और गाँव की सारी लड़कियाँ समझ गईं कि यह स्टेटस सिर्फ एक ही व्यक्ति के लिए है। अब गाँव में बबली को “IAS वाली होने वाली” कहकर बुलाया जाने लगा, और उसके तईं लड़कों का मन भी उचाट हो गया। जो लड़कियाँ पप्पू की मम्मी को पहले साजिशन दूध में पानी मिलाने वाली महिला कहती थीं, अब वही उन्हें “आंटी जी, एक कप चाय पिलाइए ना” कहने लगीं। गाँव में हवा ही बदल गई थी—जिस रास्ते से पप्पू गुज़रा करता था, अब लोग उसे “IAS मार्ग” कहकर मज़ाक में बुलाने लगे थे, मगर उस मज़ाक में भी एक हकीकत की मिठास थी।
पप्पू खुद दिल्ली में ट्रेनिंग कर रहा था, लेकिन उसका दिल अब छींकापुर की धड़कनों से जुड़ चुका था। वो जब भी बबली का मैसेज देखता—“कैसे हो, मिस्टर अफसर?”—तो उसकी छाती फुला जाती जैसे चाय के कप में दूध उबल रहा हो। अब दोनों के बीच नियमित चैटिंग शुरू हो चुकी थी—सुबह ‘गुड मॉर्निंग’ और रात ‘गुड नाइट’ से लेकर बीच में ‘प्लान्स फॉर फ्यूचर’ तक बात पहुँच गई थी। एक दिन बबली ने पूछा—“तुम्हें पहली पोस्टिंग कहाँ मिल रही है?” पप्पू ने अपनी आदत के मुताबिक थोड़ा सोचा, फिर उत्तर दिया—“अभी तो विदेश मंत्रालय का कॉल आया है, सिंगापुर भेज सकते हैं… बाकी मैं सोच रहा हूँ कि गाँव के पास ही किसी ज़िले में ट्रांसफर ले लूँ।” बबली ने दिल की गहराइयों से टाइप किया—“अगर तुम पास रहो, तो विदेश जैसा एहसास यहीं हो जाएगा।” पप्पू ने मोबाइल चूम लिया और मन ही मन कहा—“हे भगवान, तू अगर पकड़ भी ले ना, तो इस लड़की से शादी कर लेने देना।” उधर बबली की माँ अब पप्पू की मम्मी से परोक्ष रूप से मिलने लगी थीं—कभी आलू भेजतीं, कभी हरी मिर्च, और साथ में सुर्ख लिफाफे में रजाई का नमूना। दोनों माएं अब तक अपने-अपने स्तर पर शगुन की फेहरिस्त बना चुकी थीं—और गाँव में ये खबर फैल गई कि ‘IAS साहब की शादी तय हो गई, बधाई हो!’ उधर मास्टर रामखेलावन, जिन्होंने कभी पप्पू को छड़ी से पीटा था, अब उसके लिए कविता लिख रहे थे—“जो कभी बैठा था नीम तले, अब बैठा है मंत्रालय की कुर्सी पे… पप्पू बना गाथा।” लोग उसे सुनकर तालियाँ बजाते और चाय की दुकान पर आधी बीड़ी जलाकर गर्व से कहते, “हम तो पहले दिन से जानते थे कि ये लड़का एक दिन चमकेगा।”
लेकिन पप्पू जानता था कि यह सब एक खूबसूरत भ्रम है, जो सच की चादर के नीचे झूठ का गद्दा बिछाकर तैयार किया गया है। वह जानता था कि असली IAS पप्पू यादव कहीं न कहीं अपने कागज़ात लेकर भटक रहा होगा, और किसी दिन ये सारा तमाशा धराशायी हो सकता है। मगर उसकी समस्या यह थी कि अब यह झूठ केवल उसका नहीं रह गया था—यह अब पूरे गाँव का सपना बन चुका था, बबली की उम्मीद बन चुका था, और उसकी माँ की आँखों का पानी बन चुका था। वह अब हर सुबह उठकर सिर्फ ट्रेनिंग की परेड नहीं करता था, बल्कि अपने भीतर उस भय को भी ठेलता था जो कहता था—“कभी तो यह सब फूटेगा।” लेकिन दिन की शुरुआत बबली के “टेक केयर, मिस्टर IAS” और रात के “मैं तुम्हारे सपनों में आऊँगी” से होती थी, तो डर खुद-ब-खुद थोड़ी देर के लिए दूर भाग जाता था। वह अब तय कर चुका था—जब तक पकड़ाया नहीं जाता, तब तक वह इस किरदार को पूरी तरह निभाएगा। और सच कहें, तो देश में आधे नेता, आधे बाबू, और आधे सोशल मीडिया के इंफ्लुएंसर भी यही तो करते हैं—पकड़े जाने तक झूठ को सच मानकर जीते हैं। पप्पू अब उसी परंपरा का एक नया अध्याय था… एक देसी IAS, जो झूठ में भी गाँव का गर्व बन चुका था।
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ट्रेनिंग का दूसरा चरण शुरू होते ही पप्पू को भी बाक़ायदा “मीटिंग्स” में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जहाँ बड़े-बड़े अफसर अपनी भारी भरकम अंग्रेज़ी और फॉर्मूलों के साथ पसीना बहाते थे। पहली मीटिंग थी—”पब्लिक डिलिवरी सिस्टम में पारदर्शिता कैसे बढ़ाएँ?” और पप्पू, जो आज सुबह चाय के साथ पारले-जी खा रहा था, सीधा पहुँच गया मीटिंग टेबल पर जहाँ हर अफसर के सामने एक फाइल, एक बॉटल और एक नकली गंभीर चेहरा मौजूद था। शुरुआत हुई जैसे होती है—”सर, हमें टेक्नोलॉजी को एमपावर करना चाहिए, ताकि थ्रू AI और डिजिटल फ्रेमवर्क, गवर्नेंस रिस्पॉन्सिबिलिटी इनहैंस हो सके…” और पप्पू बस सिर हिलाता रहा, जैसे सब समझ में आ रहा हो, लेकिन अंदर ही अंदर सोच रहा था, “AI मतलब आटा इधर?” जब उसकी बारी आई, सब चुप। मुकुंद बाबू की नजरें उस पर थी, जैसे कह रही हों—अब बोल, बेटा। पप्पू ने गला खँखारा, और बोला—“सर, मेरा मानना है कि अगर सरकारी राशन को सही जगह पहुँचाना है, तो पहले राशन की दुकान वाले को चाय की जगह डर देना ज़रूरी है। गाँव में टेक्नोलॉजी नहीं, तगड़ी निगरानी चलती है। भैंस चोरी हो तो तीन घंटों में खोज लेते हैं, तो चावल चोरी कैसे नहीं पकड़ सकते?” कुछ लोग हँसे, कुछ ने मुंह दबाया, लेकिन चीफ ट्रेनर ने गंभीर स्वर में कहा—“Interesting perspective from ground level… let’s consider it.” और पप्पू की आँखों में वो चमक आ गई जो सिर्फ तब आती है जब कोई देसी आदमी AC कमरे में देसी हल्दी वाला इलाज सुझा दे और सब मान लें।
इसके बाद पप्पू मीटिंग में नायक बन गया। अगले हफ्ते मीटिंग थी—“डिजास्टर मैनेजमेंट इन रूरल इंडिया”। सभी अधिकारियों ने पहले से प्रेजेंटेशन बना रखे थे, पॉइंटर्स, स्लाइड्स, ग्राफ्स… और पप्पू पहुँचा एक बड़ा सा नक्शा लेकर जिस पर उसने खुद हाथ से ‘बाढ़’, ‘सूखा’ और ‘सरपंच का घर’ सब रंगीन पेन से चिह्नित किया था। जब पूछा गया कि “आप किसी आपदा में पहले क्या करेंगे?” तो पप्पू ने पूरी संजीदगी से कहा—“सबसे पहले गाँव के रामधारी को बुलाएँगे, काहे कि उसका नाव सबसे तेज़ चलता है। उसके बाद स्कूल को राहत शिविर बना देंगे, और चाय वाले लालू से कहेंगे कि बड़ा भगौना लाओ, ताकि भीड़ को लगता रहे कुछ हो रहा है।” क्लास फिर हँसी से गूंज उठी, पर ट्रेनर ने सिर हिलाकर कहा—“यह आदमी सिस्टेमैटिक नहीं है, पर प्रैक्टिकल है।” अब पप्पू को कुछ-कुछ लगने लगा था कि शायद वह गलती से ही सही, लेकिन सच्चे अफसरों से बेहतर सोचता है। बबली से बात करते हुए उसने उस रात कहा—“जानती हो, सब लोग स्लाइड्स लेकर आते हैं, हम सीधे समाधान लेकर आते हैं।” बबली ने जवाब में गुलाबी हार्ट भेजा और लिखा—“तुम ही तो रियल इंडिया हो।” अब पप्पू को खुद पर एक नया नशा चढ़ने लगा था—झूठ को सच बना देने का नशा। उसने हर अफसर की मीटिंग में देसी समाधान देना शुरू कर दिया—चोर पकड़ने के लिए CCTV नहीं, चौपाल के बुज़ुर्गों की ‘तीसरी आँख’, पेड़ लगाने की योजना में गड्ढा खुदवाने के लिए JCB नहीं, स्कूल के बच्चों की ‘पुनर्वास खेल योजना’।
मुकुंद बाबू अब दो तरफ से झुँझलाए हुए थे—एक ओर उन्हें यह शक और खटका बना हुआ था कि पप्पू कहीं न कहीं से गड़बड़ है, और दूसरी ओर यह कड़वी सच्चाई भी कि जो बात बड़े-बड़े अफसर नहीं कह पा रहे, वो यह छोरा कह रहा है, और सब मान भी रहे हैं। एक दिन उन्होंने पप्पू को अलग बुलाकर कहा—“तुम्हारी बातें तर्कपूर्ण होती हैं, लेकिन तुमसे एक सच्चा अफसर वाली झलक अब तक नहीं आई।” पप्पू ने बिन झिझक कहा—“सर, झलक वो देता है जो दिखावा करता है। हम तो वहीं दिखाते हैं जो गाँव में चलता है।” मुकुंद बाबू फिर चुप। वह जान चुके थे—अगर ये लड़का गलत भी है, तो इसे पकड़ना ऐसे नहीं होगा। अब उन्हें कागज़ों से नहीं, चालों से खेलना होगा। लेकिन पप्पू की तो चाल ही देसी थी—सीधी दिखती थी, पर चलती उल्टी दिशा में। अब हर क्लास में जब कोई दिक्कत आती, तो अफसर कहते—“पप्पू, तुम्हारा देसी समाधान क्या है?” और वह सीना चौड़ा करके बताता—“सर, गाँव का हल तो हमेशा हल के पीछे ही होता है, लेकिन उसे पहचानने की निगाह ज़रूरी है।” और इस तरह पप्पू अब ट्रेनिंग का अनऑफिशियल हीरो बन गया—एक ऐसा अफसर जो झूठ पर टिका है, पर समाधान में सबसे सच्चा लगता है।
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जिस तरह बरसात की पहली फुहार में छतों पर छिपे जाले अचानक दिखने लगते हैं, वैसे ही पप्पू की चकाचौंध से भरी IAS ट्रेनिंग में अब असली फाँस दिखाई देने लगी थी। बिहार से दिल्ली तक किसी सिस्टम में कभी कुछ सीधा हुआ हो या नहीं, लेकिन दस्तावेज़ों के गड़बड़झाले के बीच एक सरकारी कंप्यूटर ऑपरेटर की ऊँगली ने वो की-बोर्ड दबा ही दिया जिससे वो ईमेल निकला—“Subject: Clarification required on identity duplication – Pappu Yadav (Roll No: 221844)”। असली पप्पू यादव, जो बिहार के सीतामढ़ी ज़िले का रहने वाला था और सचमुच UPSC टॉपर लिस्ट में 48वें स्थान पर आया था, वो पिछले दो महीने से फाइलों में अपना नाम ढूँढते हुए खुद को खोया हुआ महसूस कर रहा था। हर दफ्तर में जाकर कहता—“मैं ही हूँ असली IAS पप्पू यादव,” लेकिन कोई उसकी बात पर भरोसा नहीं करता, क्योंकि उसकी जगह एक और पप्पू ट्रेनिंग कर रहा था और बाकायदा Instagram पर motivational quotes डाल रहा था। तब उसने एक आख़िरी कोशिश की—RTI। और यही वो हथियार था जो धीरे-धीरे दिल्ली की चमचमाती फाइलों तक पहुँचा और मुकुंद बाबू के टेबल पर आ गिरा। RTI की कॉपी, साथ में दस्तावेज़ और बिहार से आए अफसर का पत्र देखकर मुकुंद बाबू ने अपनी मोटी ऐनक उतारी, सिर खुजलाया और बुदबुदाया—“अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे।”
उधर, पप्पू को अभी इस तूफान की भनक तक नहीं थी। वह आज भी बबली से फोन पर बात कर रहा था—“तुम्हारे लिए दिल्ली से सूट सिलवा रहा हूँ, शादी में पहनोगी तो सब कहेंगे—‘देखो, IAS की दुल्हन आ गई।’” बबली ने मुस्कुरा कर कहा—“मैं तो कब से तैयार बैठी हूँ, बस बारात की डेट बताओ।” उसी समय मुकुंद बाबू ने ऑफिस बॉय से कहा—“उसे अभी बुलाओ। और हाँ, चाय मत देना।” जब पप्पू ट्रेनिंग रूम से बाहर निकला तो उसे हल्का सा अंदाज़ा हो गया था कि कुछ तो गड़बड़ है। लेकिन जैसे देसी आदमी हर मुसीबत को ‘देख लेंगे’ कहकर टालता है, पप्पू ने भी वहीं मन में बोला—“अरे, कुछ ना कुछ तो होगा ही… हम भी तो कुछ ना कुछ बोल देंगे।” मगर इस बार सामने फाइल थी, दस्तावेज़ थे, RTI था और उस असली पप्पू यादव का वीडियो बयान भी। मुकुंद बाबू ने सीधा सवाल किया—“सच-सच बताओ, क्या तुम वही पप्पू यादव हो जो UPSC टॉपर है?” पप्पू की पलकों ने फड़फड़ाना बंद किया, होंठों पर मुस्कान अटक गई। पहले उसने कोशिश की—“सर, सिस्टम में कई नाम मिलते हैं, गलती ऊपर से हुई होगी।” फिर कहा—“सर, जब मुझे बुलाया गया तो मैंने मना नहीं किया, आप ही लोगों ने कहा था—जॉइन करो।” मुकुंद बाबू ने धीरे से कहा—“अब सिस्टम ने तुम्हें पकड़ लिया है, बेटा।” पप्पू चुप रहा। वो जानता था कि अब जितना भी बोलेगा, सब झूठ में डूबेगा। पहली बार उसका आत्मविश्वास, जो पीपल के पेड़ जितना मजबूत था, अंदर से दरकने लगा था। उसकी आँखें अब सच का भार उठाने को तैयार हो रही थीं।
तीन दिन बाद दिल्ली में एक इंटर्नल इनक्वायरी बिठा दी गई। अखबारों में भी लीक हो चुका था—“फर्जी IAS की कहानी, फिल्म से भी बढ़कर।” सोशल मीडिया पर मीम्स बनने लगे—“पप्पू पास हो गया, देश फेल हो गया।” लेकिन हैरानी की बात यह थी कि पप्पू को गुस्से से ज्यादा चिंता बबली की थी। उसने बबली को फोन किया, काफी देर तक मोबाइल हाथ में थामे रखा, लेकिन कॉल नहीं किया। डर था—उसकी आवाज़ भी अब झूठ लगेगी। उसी रात बबली का कॉल आया—“सच-सच बताना, क्या सब झूठ था?” पप्पू ने बहुत देर तक चुप रहकर सिर्फ इतना कहा—“हां, पर वो जो तुमसे बात करते हुए महसूस करता था, वो झूठ नहीं था।” दूसरी तरफ से सिर्फ सांसों की आवाज़ आई और फिर कट। पप्पू जान चुका था—अब वह पकड़ा जा चुका है, न सिर्फ सिस्टम से, बल्कि खुद से भी। जब अगली सुबह अफसर आए और बोले—“हमें आपकी ट्रेनिंग यहीं रोकनी होगी, आप पर केस हो सकता है,” तो पप्पू सिर्फ मुस्कुराया और बोला—“ठीक है साहब, अब मुझे छुट्टी दे दीजिए, मैं फिर से वही बनना चाहता हूँ जो कभी था… पप्पू छींकापुर वाला, बिना IAS वाला।” और वह उठकर चला गया—कोट की जगह झोला उठाकर, और पॉलिसी की जगह फिर से देसी जुगाड़ की दुनिया में लौटने के लिए।
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दिल्ली से निकाले जाने के बाद पप्पू सीधे छींकापुर नहीं गया। ट्रेन से उतरने के बजाय उसने एक छोटी बस पकड़ी, जो गाँव-गाँव घूमती थी, और रास्ते में अपने मोबाइल की स्क्रीन को लगातार देखता रहा—न बबली का कोई मैसेज, न किसी पत्रकार का फोन, बस चार-पाँच अनजाने नंबर्स के मिस्ड कॉल, शायद कोई अफसर, शायद कोई वकील। जब वो गाँव पहुँचा, तो हालात वैसे नहीं थे जैसे वह सोचकर आया था। उसे लगा था लोग पत्थर फेंकेंगे, बबली थाली बजाकर उसे कोसेगी, मास्टरजी फिर से उसे ‘नाकारा’ कहेंगे… लेकिन गाँव वालों ने कुछ नहीं कहा। बल्कि जिस चाय की दुकान पर कभी वो घंटों बैठा रहता था, वहीं उसे देखकर दुकानदार लालू बोला—“अरे! अपने पप्पू बाबू आ गए… क्या बात है, दिल्ली से छुट्टी लेकर आए हैं?” पप्पू बस मुस्कुरा दिया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। फिर धीरे-धीरे पूरे गाँव में खबर फैल गई—“पप्पू वापस आ गया है।” लेकिन इस बार लोगों के चेहरों पर न गुस्सा था, न अफसोस। सबके मन में एक ही सवाल था—“अब क्या करेगा?” और पप्पू खुद भी यही सोच रहा था। शाम को वह गाँव के पुराने स्कूल की टूटी बेंच पर बैठा, जहाँ मास्टर रामखेलावन आए। उनके हाथ में वही पुराना छड़ी था, जो कभी पप्पू की पीठ से ज्यादा उसके आत्मसम्मान पर पड़ी थी। उन्होंने पास आकर बैठते हुए कहा—“तो बेटा, अब क्या करने का इरादा है?” पप्पू ने एक लम्बी साँस ली, और कहा—“सर, अब झूठ की नौकरी नहीं, सच्ची नेतागिरी करूँगा।”
बात अजीब थी, लेकिन मास्टरजी चौंके नहीं। पप्पू की चाल, उसके बोलने का तरीका, और गाँव के मन को छू लेने वाला स्वभाव किसी भी भाषण में आग लगा सकता था। अगले दिन पप्पू ने गाँव की चौपाल में खड़े होकर भाषण दिया—बिना माइक, बिना मंच, सिर्फ एक चारपाई और ढेर सारी देसी सच्चाई के साथ। उसने कहा—“हाँ, हमने झूठ बोला। हाँ, हमने देश को बेवकूफ़ बनाया। लेकिन क्या देश खुद झूठ से दूर है? जो नेता आज मंच से कहते हैं ‘हर घर जल’, वो खुद AC पानी पीते हैं। हमने अगर गलती की, तो लोगों की आँखें खोलने के लिए की।” और उस दिन पहली बार गाँव ने तालियाँ बजाई, हँसी नहीं उड़ाई। पप्पू की यह देसी सच्चाई सोशल मीडिया पर भी वायरल हो गई—किसी ने वीडियो बना लिया, किसी ने कैप्शन दिया—“पप्पू गिरा नहीं, अब राजनीति में उड़ान भरेगा।” दिल्ली में बैठे अधिकारियों के माथे पर फिर बल पड़ गए, लेकिन अब केस चलाना उतना आसान नहीं रहा था। पप्पू अब पब्लिक इमोशन का चेहरा बन गया था—‘भ्रष्ट सिस्टम का भोला शिकार’। और तब, वही अफसर जो कल तक उसे जेल भेजने की तैयारी कर रहे थे, अब फाइलें टेबल पर ही छोड़कर छुट्टी पर चले गए—क्योंकि उन्हें पता था कि अब पप्पू को पकड़ना मतलब मीडिया के कैमरों से भिड़ना।
उधर बबली, जिसने पप्पू की सच्चाई सुनकर बात करना बंद कर दिया था, अब धीरे-धीरे हर उस वीडियो को देख रही थी जिसमें पप्पू अपने दिल की बात कह रहा था। एक रात उसने लंबा मैसेज टाइप किया—”झूठ से जो शुरुआत हुई थी, वह दर्द देती है… लेकिन जो सच के साथ खड़ा हो गया, वो अब बड़ा लगता है।” पप्पू ने जवाब में सिर्फ इतना लिखा—“अब अगर कभी कुर्सी मिली, तो वो तेरे साथ बैठने के लिए होगी।” और वही शाम बबली की आँखों में फिर से सपना जगा गई। अब पप्पू गाँव का हीरो नहीं, आंदोलन का चेहरा बन चुका था। जहाँ पहले उसकी पहचान फर्जी IAS की थी, अब वह ‘देसी जागरूकता यात्रा’ का संस्थापक बन गया। जगह-जगह जा कर बोलता—“अगर सिस्टम से लड़ नहीं सकते, तो उसे समझो और उसके भीतर से बदलाव लाओ।” लोग उसका भाषण सुनते, तालियाँ बजाते और उसे चाय में डुबोकर बिस्कुट की तरह चूसते—सच भी, मज़ाक भी, और उम्मीद भी। वह पकड़ा गया था, मगर जिस देश में चोर माफिया बन जाते हैं और माफिया संसद में, वहाँ पप्पू सिर्फ पप्पू ही नहीं रहा… वह एक नई किस्म का नेता बन गया—जो झूठ से पैदा हुआ, लेकिन अब सच्चाई से पनप रहा था।
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जब देश भर में चुनावी मौसम आया, तो छींकापुर में लाउडस्पीकर से सबसे ज़्यादा जो नाम गूंज रहा था, वह किसी पार्टी का नहीं, बल्कि एक व्यक्ति का था—“पप्पू भैया ज़िंदाबाद! देसी नेता, जनता का बेटा!”। गाँव की गलियों से लेकर ज़िले के चौक-चौराहों तक, पप्पू अब किसी राजनीतिक दल का मोहताज नहीं था, उसने खुद की पार्टी बना ली थी—नाम रखा “जुगाड़ जनता पार्टी (JJP)”। उसका चुनाव चिन्ह था—टिफिन बॉक्स। वजह पूछने पर उसने कहा—”देश को वही संभाल सकता है जो खुद खाना लेकर निकलता है, दूसरों की थाली में ताकता नहीं।” उसकी रैली में पोस्टर पर बड़े-बड़े वादे नहीं, बल्कि देसी तुकबंदी थी—“हम नहीं देंगे झूठा सपना, काम करेंगे घर का अपना।” लोगों को उसका अंदाज़ भा गया—ना ख़ास टोपी, ना कुर्ता-पाजामा का रौब। बस वही पुरानी पैंट, गमछा और हाथ में माइक। भाषण में वो कहता—“हम झूठ से शुरू हुए हैं, पर सच तक पहुँचना है। IAS नहीं बन पाया, तो क्या हुआ? अब पूरा सिस्टम बदल दूँगा।” और जनता ठहाके लगाकर तालियाँ बजा देती। स्कूल के बच्चे, जिन्हें कभी वह चॉक चुराने सिखाता था, अब उसके लिए ‘वोट मांगो’ अभियान चला रहे थे। बबली अब साथ में खड़ी रहती थी, भाषण के बाद लोगों से मिलती, और चाय के झूठे कप समेटती—नेता की नहीं, साथी की तरह। रामखेलावन मास्टरजी ने उसे देखकर कहा—“बेटा, अब तुम मेरे सबसे काबिल शिष्य हो, क्योंकि तुमने किताबों से नहीं, ज़िंदगी से सीखा है।”
पप्पू ने चुनाव में उतरकर न सिर्फ अपनी छवि को पलटा, बल्कि राजनीति में एक नया ट्रेंड भी शुरू कर दिया—’बिना वंश, बिना धन, बिना झूठ के भी चुनाव लड़ा जा सकता है।’ उसके भाषणों में मुद्दे होते थे, लेकिन भाषा देसी होती थी। वो कहता—“हम वादा नहीं करेंगे कि सब बदल देंगे, लेकिन इतना ज़रूर कहेंगे कि आपकी बात सुनने वाला कम से कम एक आदमी तो होगा।” और इस एक वाक्य ने पूरे ज़िले में तहलका मचा दिया। पुराने नेता जो पाँच साल में एक बार गाँव आते थे, अब हर दो दिन में चौपाल लगाने लगे—डर था कि पप्पू वाकई जनता के दिल में न बैठ जाए। मगर देर हो चुकी थी। उसके पोस्टर अब स्कूल की दीवारों पर थे, ट्रैक्टर की पीछे की नंबर प्लेट पर थे, और WhatsApp स्टेटस में भी। एक दिन TV चैनल वाले आए और पूछा—“आप फर्जी IAS थे, अब नेता बन गए, क्या भरोसा करें?” पप्पू ने कैमरे की तरफ देखकर कहा—“एक बार झूठ बोला, क्योंकि मौका मिला। अब सच बोल रहा हूँ, क्योंकि जनता मौका दे रही है। अब गलती की सज़ा मैं सेवा से दूँगा।” उस जवाब ने सोशल मीडिया पर उसे वायरल कर दिया—“नेता नहीं, गलती से हीरो बन गया!” जब चुनाव नतीजे आए, तो पप्पू ने ज़िले की सबसे बड़ी सीट जीत ली—मौजूदा विधायक की ज़मानत ज़ब्त हो गई। और पप्पू का पहला भाषण था—“हमने गलती की, लेकिन सिस्टम की गलती से बड़ी नहीं थी। अब उसी सिस्टम को ठीक करेंगे।”
अब विधानसभा में कुर्ता-पाजामा पहनकर जो आदमी सबसे तेज़ी से बोलता था, वो था वही पप्पू—छींकापुर का बेटा, जो एक गलती से आईएएस बन गया था, और एक सच्चाई से नेता। लोग उसे अब ‘नेताजी’ कहने लगे थे, लेकिन वो आज भी अपने नाम से ही खुश था। ऑफिस में बैठते ही उसने सबसे पहला काम किया—गाँव के स्कूल को इंटर कॉलेज में बदलवाया, और उसका नाम रखा—“बबली देवी स्मृति इंटर कॉलेज”। बबली ने जब ये देखा, तो उसकी आँखों से खुशी की बूँदें गिरीं और वो मुस्कराकर बोली—“IAS नहीं मिला, पर इससे बड़ा कुछ मिल गया।” पप्पू ने खुद को बदल लिया था, लेकिन अपनी देसी जड़ें कभी नहीं छोड़ीं। आज भी वह मिड डे मील के बर्तन चखकर कहता—“दाल में नमक कम है।” आज भी वह ट्रांसफर पोस्टिंग पर मिलने आए लोगों से कहता—“घूस नहीं, सुझाव दो, फिर सोचेंगे।” और लोग उसे असली नेता मानने लगे थे, क्योंकि वह हर गलती को स्वीकारता था। वह अब फर्जी नहीं था—वो देसी था, और देसी ही देश की सबसे बड़ी सच्चाई होती है।
“पप्पू IAS नहीं बन पाया,
लेकिन वह देश का सबसे सच्चा नेताजी बन गया।”
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