अभिराज गुप्ता
भोपाल की कोचिंग स्ट्रीट पर शाम ढलते ही भीड़ उमड़ने लगती है। सड़क के दोनों ओर कतार से लगे कोचिंग सेंटर्स से थके हुए छात्रों की भीड़ निकलती है, हाथों में बैग, आंखों में अधपकी नींद और मन में परीक्षा की चिंता। इन्हीं में एक लड़का हर शाम बिना चूके ठेले की एक विशेष गंध की तरफ खिंचता चला आता है। उसका नाम है वेदांत शर्मा। ग्वालियर से आया है, और कोचिंग के इस शहर में अपना इंजीनियरिंग का सपना लिए भटक रहा है। बाकी लड़कों से कुछ अलग है—भीड़ में होते हुए भी अलग-थलग, बातों में नहीं बल्कि किताबों और चुप्पी में रुचि रखने वाला। लेकिन एक चीज़ है जो उसे रोज़ खींच लाती है—गोल चौराहे से थोड़ा आगे, पीपल के पेड़ के नीचे लगे उस कुरकुरे के ठेले तक, जहाँ से शाम के वक्त हल्का-हल्का भुने मिर्च मसाले की खुशबू आती है। और उसी ठेले के पीछे बैठी होती है—प्रिया यादव। चटक आँखों वाली, फटी जीन्स और ढीली कुर्ते में लिपटी, चेहरे पर तेज़ और आँखों में हज़ार कहानी। वो चुपचाप बैठी कुरकुरे तलती है और साथ ही हिंदी की कोई पुरानी किताब पढ़ती रहती है, जैसे ‘कुरु कुरु स्वाहा’ और ‘गुनाहों का देवता’ उसके जीवन की टेक्स्टबुक हो। जब वेदांत पहली बार वहाँ पहुंचा था, तो उसने चुपचाप दस रुपए के कुरकुरे मांगे थे। प्रिया ने सिर उठाए बिना पूछा था, “मसाला ज़्यादा या कम?” और बिना उसके जवाब का इंतज़ार किए, मसाला झटक कर कुरकुरे की थैली थमा दी थी। उस एक झटके में जैसे कुछ और भी जुड़ गया था।
वेदांत के लिए यह रोज़ का रिवाज़ बन गया था—कोचिंग खत्म होते ही वहीं जाना, वही कुरकुरे खाना और वहीं एक कोना पकड़कर बस लोगों को देखना। शुरुआत में दोनों के बीच बातचीत सीमित थी—”दस के दे दो”, “आज खट्टा ज़्यादा है”, “भैया, टिशू मिलेगा?” लेकिन धीरे-धीरे कुछ और पिघलने लगा। एक दिन जब प्रिया ने शरद जोशी की कोई चुटीली पंक्ति जोर से पढ़कर हँसी, तो वेदांत मुस्कुराए बिना नहीं रह पाया। उसने हिचकते हुए पूछा, “आपको शरद जोशी पसंद हैं?” प्रिया ने पहली बार उसकी तरफ पूरा देखा और कहा, “नापसंद कैसे हो सकता है भाई, ये तो हमारी आत्मा हैं।” वो दिन अलग था। उस शाम पहली बार वेदांत थोड़ी देर ज़्यादा रुका था, और उसने कुरकुरे खत्म होने के बाद भी हाथ में उस कविता की किताब को पकड़ कर देखा था। प्रिया ने कोई आपत्ति नहीं की थी। उसने अपनी किताब की दूसरी कविता भी ज़ोर से पढ़ी थी, और फिर हँसते हुए कहा, “तुम्हारी शक्ल बहुत गंभीर है, पर लगता है दिल थोड़ा गुनगुनाता है।” उस वाक्य ने वेदांत के भीतर कहीं कुछ खींच दिया था—जैसे लंबे समय से उसने किसी से सुना ही न हो कि उसका भी कोई ‘दिल’ है।
इसके बाद जैसे शब्दों और मसालों के बीच एक अनकहा रिश्ता पनपने लगा। वेदांत अब कुरकुरे के स्वाद से ज़्यादा वहाँ की कविताओं की तलाश में आता। कभी प्रिया ‘कैफ़ी आज़मी’ पढ़ रही होती, तो कभी ‘मुक्ता’ नाम की किसी छुपी लेखिका की पंक्तियाँ। और वेदांत—जो अब तक केवल ‘H.C. Verma’ और ‘Irodov’ की गणनाओं में उलझा था—इन शब्दों की नमी महसूस करने लगा था। उसके लिए वो ठेला अब केवल भूख का इलाज नहीं, बल्कि एक ठिकाना बन गया था—जहाँ दुनिया कुछ देर के लिए ठहर जाती थी। एक ऐसा ठिकाना, जहाँ प्रिया अपने बेबाक शब्दों के ज़रिए जीवन को थोड़ा और समझने लायक बनाती, और वेदांत अपने भीतर पहली बार कुछ महसूस करने लगता—जो किताबों से परे था। भोपाल की उस कोचिंग स्ट्रीट के हज़ारों ठेले, शोर और थकान के बीच, पीपल के उस पेड़ के नीचे, कुरकुरे की मसालेदार खुशबू और कविता की पंक्तियों के बीच एक नन्हा रिश्ता पलने लगा था—बिना किसी वादे के, बिना किसी परिभाषा के—पर सच्चा, साधारण और स्वादभरा।
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अगले कुछ हफ्तों में भोपाल की कोचिंग स्ट्रीट की शामें वेदांत के लिए एक ख़ास रूटीन बन गई थीं—साढ़े छह बजे क्लास खत्म होते ही स्टीयरिंग क्लासेज़ के मोड़ से निकलना, पुराने चश्मे को ऊपर चढ़ाते हुए पीपल के पेड़ तक पहुँचना, और फिर प्रिया के कुरकुरे ठेले के सामने एक खंभे से टिककर खड़ा हो जाना। उसके चेहरे पर अब पहले जैसी झिझक नहीं थी, न ही प्रिया में वो तुनकापन, जो हर ग्राहक के लिए अलग अंदाज़ में निकलता था। वेदांत के लिए वो अब हल्का मुस्कुराती थी—जैसे मान्यता दे दी हो कि ये लड़का अब इस ठेले का स्थायी हिस्सा है। “आज ‘कागज़ की नाव’ पढ़ रही हूँ,” उसने एक दिन बिना पूछे ही कहा। “सुनना है?” और फिर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए उसने किताब के पन्ने पलटे और पढ़ना शुरू किया। उसका पढ़ने का तरीका अजीब था—शब्दों में तेज़ी थी, पर भावना धीमी और स्थिर। मसाला हिलाते-हिलाते जब वो कहती, “भीगने से डरते रहे, और नाव बह गई,” तब लगता जैसे न कुरकुरे की महक है, न ठेले की भीड़, बस वो आवाज़ है और उसमें डूबा एक लड़का, जो कभी कविता नहीं पढ़ता था, पर अब हर शब्द को आत्मा से महसूस करने लगा है।
उस दिन के बाद कविता उनकी बातचीत की नींव बन गई। अब कुरकुरे सिर्फ माध्यम थे—वास्तविक संवाद तो उनके बीच कविता के बहाने हो रहा था। एक शाम वेदांत अपने बैग में मुक्तिबोध की एक किताब लेकर आया। “आपके लिए,” उसने झिझकते हुए कहा। प्रिया ने किताब को उलट-पलट कर देखा और मुस्कुराई, “अब लग रहा है, तुम सही ग्राहक हो।” फिर जैसे एक असली संवाद शुरू हुआ। प्रिया ने बताया कि वो ओपन यूनिवर्सिटी से हिंदी साहित्य में ग्रेजुएशन कर रही है। पिता पहले ये ठेला चलाते थे, अब बीमार हैं, तो दुकान की ज़िम्मेदारी उसने उठा ली। “लेकिन कविता? ये कहाँ से आई?” वेदांत ने पूछा। प्रिया थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली, “जब कुछ कहने वाला कोई न हो, तो शब्द ही साथी बन जाते हैं। किताबें चुपचाप सुन लेती हैं तुम्हारी हर बात।” उस वाक्य ने वेदांत को भीतर तक हिला दिया। उसकी खुद की ज़िंदगी भी तो कुछ ऐसी ही थी—किताबों में दबी आवाज़, दोस्तों की भीड़ में अकेलापन और हर दिन एक ही सवाल: क्या मैं अपने सपनों के लायक हूँ? अब ये सवाल वो खुद से नहीं, प्रिया की कविताओं के जवाब में खोजने लगा था।
एक दिन, ठेले पर भीड़ ज़्यादा थी। प्रिया बेहद व्यस्त थी—तेज़ी से कुरकुरे तल रही थी, मसाले छिड़क रही थी, पैसे गिन रही थी। वेदांत कोने में खड़ा, अपने हाथ में डायरी पकड़े, कुछ कहना चाहता था लेकिन मौक़ा नहीं मिल रहा था। तभी एक बच्चे ने कुरकुरे खाकर कागज़ नीचे गिरा दिया। प्रिया गुस्से से चिल्लाई, “ओए! ये सड़क क्या तुम्हारे बाप की है?” भीड़ थोड़ा पीछे हट गई। वेदांत हँस पड़ा—ये वही प्रिया थी, जो कविता पढ़ते हुए इतनी कोमल लगती थी, और दुकान पर ऐसी कि कोई दोबारा बहस की हिम्मत न करे। उसी रात प्रिया ने अचानक पूछा, “तुम कभी अकेले रोए हो?” वेदांत चौंका, फिर धीरे से बोला, “हाँ। शायद उस रात जब मुझे लगा मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा। सब मुझसे आगे निकल जाएंगे।” प्रिया ने कुरकुरे की थैली उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “जब भी ऐसा लगे, ये खा लेना। ये चीज़ स्वाद से ज़्यादा कुछ और है—बचपन की तरह, झूठा सुकून देती है।” उस रात कुरकुरे के मसाले में कुछ और भी मिला था—शायद भरोसा, शायद कविता, शायद दोनों।
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भोपाल की गर्मियों में बारिश एक सौगात जैसी लगती है—धूल भरे आसमान में जैसे अचानक कोई गीत गूंज उठे। उस शाम भी कुछ ऐसा ही हुआ था। क्लास खत्म होते ही जब वेदांत ने बाहर कदम रखा, तो हल्की बूंदाबांदी शुरू हो चुकी थी। वो वैसे भी भीगने से डरने वाला नहीं था, लेकिन मन में कहीं एक चिंता थी—ठेले का क्या हुआ होगा? क्या आज कुरकुरे मिलेंगे? क्या प्रिया वहाँ होगी? जैसे-जैसे बारिश तेज़ होती गई, उसका मन भी बेचैन होता गया। जब वह पीपल के पेड़ तक पहुँचा, तो देखा ठेला गायब है—न कोई खुशबू, न मसाले की झोंक, न किताबों की आवाज़। खाली जगह, भीगी मिट्टी, और एक कटा हुआ मौन। उसने पहली बार महसूस किया कि दिन की समाप्ति बिना उस ठेले के अधूरी लगती है, जैसे कोई पंक्ति कविता से हटा दी गई हो। उस शाम वो बिना कुरकुरे खाए, बिना कुछ कहे, वापस अपने कमरे की ओर चला गया। खिड़की से टपकती बारिश की बूंदें और उसके हाथ में अधूरी डायरी—दोनो एक जैसे लगे: भीगे, चुप, और प्रतीक्षा में।
अगली शाम मौसम साफ था, और वेदांत लगभग दौड़ता हुआ उस मोड़ पर पहुँचा। इस बार ठेला मौजूद था, मसालों की वही परिचित महक भी, लेकिन सबसे खास थी प्रिया की आंखों में लौट आई वो चंचलता। “कल तुम आए थे?” उसने जैसे बिना पूछे सब जान लिया था। वेदांत ने सिर हिलाया, हाँ में। “बूंदें ज्यादा थीं, तो किताबें और कुरकुरे दोनों छुपा लिए,” वो मुस्कुराई। फिर उसने नीचे से एक पुरानी सी डायरी निकाली और उसकी ओर बढ़ाई। “पढ़ना चाहोगे?” वेदांत ने झिझकते हुए डायरी ली—धूसर, किनारों से मुड़ी हुई, लेकिन उसके भीतर जैसे कोई और ही दुनिया थी। पहले पन्ने पर लिखा था: “मुक्ता”. नीचे कविता थी—”ठहराव”। उसने पढ़ना शुरू किया—”मैं नहीं जानती, क्या है प्रेम / शायद वो जो रुके / बिना ज़ोर दिए, बस ठहर जाए / जैसे बारिश… पेड़ के नीचे।” वेदांत कुछ क्षणों तक स्थिर खड़ा रहा, फिर सिर उठाकर प्रिया की ओर देखा। उसके चेहरे पर न गर्व था, न शर्म, बस एक सच्चाई थी—कि उसने अपना सबसे निजी हिस्सा सामने रख दिया था, बिना किसी अपेक्षा के। उस डायरी में केवल कविताएँ नहीं थीं, वह जीवन था—कटी-फटी पंक्तियाँ, अधूरी भावनाएँ, और एक लड़की की दुनिया जिसे बहुत कम लोग जानते थे।
उस शाम दोनों ने कुरकुरे भी खाए, कविता भी पढ़ी और एक नई चुप्पी में बातें कीं—जिसमें शब्द नहीं थे, पर समझ थी। जब वेदांत जाने लगा, तो प्रिया ने कहा, “तुम्हारी भी कोई डायरी है?” वेदांत ने थोड़ी देर सोचा, फिर बोला, “है, पर उसमें सवाल और सूत्र हैं, कविता नहीं।” प्रिया ने हँसते हुए कहा, “तो अब सवाल बदलो, जवाब कविता में ढूंढो।” उस रात वेदांत अपने कमरे में देर तक जगा रहा। उसने अपनी फिज़िक्स की नोटबुक खोली, पीछे के पन्नों पर कुछ लिखा। पहला प्रयास था, थोड़ा बेतुका भी—“वो जो ठेले पर बैठी है / वो सिर्फ कुरकुरे नहीं तलती / वो किसी की थकान भी सुनती है / किसी की शाम भी।” उसने पहली बार खुद को भावों में उड़ते हुए पाया। प्रिया की कविताएँ, उसका अपनापन और उसकी बेहिचक दुनिया अब वेदांत के भीतर भी कुछ खोल रही थी। वो जो अब तक कोचिंग की मशीनरी में खोया हुआ एक छात्र था, अब एक खोजकर्ता बन गया था—स्वयं का, शब्दों का और शायद… उस लड़की का भी जो ‘कविता’ की तरह थी—जैसे हर बार पढ़ो, कुछ नया लगे।
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वो दिन धीरे-धीरे एक आदत में बदल गए थे, और वेदांत को अब उस आदत की आदत हो चली थी। कोचिंग खत्म होते ही जैसे उसके कदम अपने-आप पीपल के उस पेड़ की ओर मुड़ जाते, और हर बार वो वहीं होता—ठेले पर खटखटाता तवा, मसालों की चटकती आवाज़, और किसी पुरानी किताब की खुलती हुई पंक्तियाँ। लेकिन उस दिन कुछ अलग था। प्रिया थकी हुई लग रही थी। उसका चेहरा उतरा हुआ था, आँखों के नीचे गहरे साए और होंठों पर कोई चुटीली टिप्पणी नहीं। वेदांत ने कुरकुरे का ऑर्डर दिया, लेकिन आज मसालों से ज़्यादा चुप्पी झोंकी गई थी। जब वो थैली थमा चुकी, तब वेदांत ने हिम्मत कर पूछा, “सब ठीक है?” प्रिया कुछ देर चुप रही, फिर बोली, “पापा को बुखार है। सुबह से दुकान भी खुद लगानी पड़ी। और युनिवर्सिटी का असाइनमेंट भी अधूरा है।” उसकी आवाज़ में वो तेज़ी नहीं थी जो अकसर होती थी। आज वो लड़की जो दुनिया को ठेले से तौलती थी, खुद किसी बोझ के नीचे दबी सी लगी। वेदांत ने पास रखे डिब्बे की ढक्कन ढीली देखकर धीरे से कस दिया—जैसे किसी रिश्ते की गांठ कस रहा हो। पहली बार उसे ये जगह सिर्फ कविता या कुरकुरे की नहीं, एक संघर्ष की जगह लगी। एक ज़िम्मेदारी की जगह, जिसे एक लड़की अपने पूरे वजूद से ढो रही थी।
उस दिन के बाद से वेदांत ने प्रिया को सिर्फ एक कवि या दुकानदार के तौर पर नहीं देखा—वो अब एक बेटी थी, एक छात्रा थी, एक रक्षक थी। वो छोटी-छोटी बातें नोटिस करने लगा—कैसे वो हर दिन अपनी किताब के पन्ने मोड़कर ग्राहक संभालती, कैसे हल्की बारिश में ठेले पर प्लास्टिक की चादर डालती, कैसे एक हाथ में चिमटा और दूसरे में पेन संभालती। एक दिन प्रिया ने बिना किसी भूमिका के पूछा, “तुम्हारे घर में कौन-कौन है?” वेदांत ने कहा, “मम्मी-पापा हैं। ग्वालियर में। लेकिन पापा थोड़े सख्त हैं। चाहते हैं कि बस नंबर आए, बस सीट मिले, बस कुछ बन जाऊँ।” प्रिया हँसी नहीं, बोली, “हमारे यहाँ भी बनना ज़रूरी है। फर्क बस इतना है कि यहाँ कविता बनने नहीं देती ज़्यादा कुछ।” वेदांत ने उस वाक्य को बहुत देर तक मन में दोहराया। पहली बार उसे लगा कि उसका अकेलापन और प्रिया की मजबूरी, दोनों ही शब्दों के अलग-अलग पन्ने हैं, लेकिन किताब एक ही है। उस शाम उसने प्रिया की दुकान संभालने में मदद की—पैसे गिने, टिशू निकाले, और दो कुरकुरे के पैकेट खुद थमाए। प्रिया ने कुछ नहीं कहा, पर उसकी मुस्कान में वो धन्यवाद छिपा था जो कई बार शब्दों में कहने से कम हो जाता है।
एक और शाम, जब कोचिंग से आने में उसे देर हो गई, तो देखा प्रिया एक किनारे बैठी कुछ लिख रही थी। ग्राहक कम थे, और पेड़ की छांव में जैसे समय कुछ धीमा हो गया था। उसने धीमे से जाकर पूछा, “क्या लिख रही हो?” प्रिया ने डायरी उसकी ओर बढ़ा दी—“कहानी है एक लड़की की, जो खुद से बड़ा बनने की कोशिश करती है।” वेदांत ने मुस्कुराकर कहा, “कहानी या आत्मकथा?” प्रिया ने पहली बार थोड़ी देर उसकी आंखों में देखा—सीधा, बिना टकराए, जैसे कुछ समझ रही हो। फिर बोली, “जो लिखते हैं, उनकी हर कहानी थोड़ी आत्मकथा होती है।” उस रात वेदांत जब कमरे में लौटा, तो उसने खुद को आइने में देखा और मन में कहा, “क्या मेरी कहानी में कोई ‘प्रिया’ भी है?” अब कविता और कुरकुरे से आगे, वो उसके संघर्ष में हिस्सेदार बन चुका था। भोपाल की वो कोचिंग स्ट्रीट अब सिर्फ पढ़ाई की नहीं थी, वहाँ अब दो ज़िंदगियाँ हर शाम एक-दूसरे से जुड़ रही थीं—धीरे-धीरे, चुपचाप, पर सच्चाई से।
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भोपाल की शामें अब वेदांत के लिए कोचिंग के पन्नों से कहीं ज़्यादा प्रिया की डायरी के पन्नों में दर्ज होने लगी थीं। लेकिन उस दिन कुछ अलग था—उसके मन में कुछ था जो हर बार कंठ तक आता और फिर वापस उतर जाता। वो सिर्फ सुनने वाला नहीं रहना चाहता था, वो भी कुछ कहना चाहता था। अपनी बात, अपने मन की वो परछाईं जो उसने वर्षों से छुपा रखी थी। उस शाम जब वो ठेले पर पहुँचा, तब प्रिया ‘त्रिलोचन’ की कोई कविता पढ़ रही थी—“जो मनुष्य कभी नहीं रोया / वह कुछ भी नहीं जानता।” वेदांत कुछ देर वहीं खड़ा रहा, फिर झिझकते हुए अपनी फिज़िक्स वाली पुरानी नोटबुक से एक मुड़ा-तुड़ा पन्ना निकाला। “मैंने कुछ लिखा है… पहली बार,” उसकी आवाज़ में वो कंपकंपी थी जो अक्सर डर और ईमानदारी के बीच होती है। प्रिया ने बिना सवाल किए पन्ना लिया और पढ़ने लगी। लिखा था: “वो जो शाम को ठेले पर बैठी मिलती है / वो मसाले में सिर्फ स्वाद नहीं, स्मृति मिलाती है / और जब वो कविता पढ़ती है / लगता है जैसे किसी ने मेरी चुप्पी को आवाज़ दे दी है।” प्रिया की आंखों में कुछ चमका, फिर वो मुस्कुरा दी। “अच्छा है… ज़्यादा अच्छा इसीलिए है क्योंकि तुमने लिखा है,” उसने कहा। और उस वाक्य में वो अपनापन था जिसे कोई भी छात्र कभी नोट्स में नहीं पढ़ पाता।
उसके कुछ ही दिनों बाद एक और बारिश आई—तेज़, बदहवास, और वो ठंडी हवा लिए जो पुराने पलों को फिर से छूने लगती है। उस दिन प्रिया का ठेला बंद था, लेकिन वेदांत खुद रुक गया—पेड़ के नीचे, उस जगह पर जहाँ प्रिया बैठा करती थी। उसके पास प्रिया की पुरानी डायरी थी, जो प्रिया ने कुछ दिन पहले कहते हुए दी थी, “रख लो, लेकिन वापस करोगे।” वो डायरी सिर्फ कविताओं की नहीं थी—वो उसके भीतर की चुप चीखों, अधूरी उम्मीदों और अधखुले सपनों की आवाज़ थी। एक पृष्ठ पर एक कविता थी: “वो जो ग्राहक बनकर आता है / कभी पढ़ने वाला, कभी सुनने वाला बन जाता है / और मैं सोचती हूँ, कहीं वो मेरी कविता तो नहीं?” वेदांत देर तक उस पंक्ति को देखता रहा—बारिश की बूंदें डायरी के कोनों को छू रही थीं, और उसके भीतर कुछ धीरे-धीरे भीग रहा था। उसके लिए यह सिर्फ आकर्षण नहीं था—यह वह जुड़ाव था जो किसी परीक्षा के अंक से तय नहीं होता। अब वो जानता था कि दोनों की चुप्पियों के बीच कविता ही वह पुल थी, जिससे वे एक-दूसरे तक पहुँचते थे—बिना शोर के, बिना शर्त के।
अगले दिन वेदांत डायरी लौटाने गया। प्रिया ठेले पर थी, हमेशा की तरह, लेकिन आज उसके हाथ में कोई किताब नहीं थी—सिर्फ चिमटा और टोकरी। “तुमने सब पढ़ लिया?” उसने पूछा। वेदांत ने धीमे से कहा, “कुछ पढ़ा, कुछ समझा… और कुछ बस महसूस किया।” प्रिया ने सिर झुकाकर हँसते हुए कहा, “वही सबसे ज़रूरी होता है—महसूस करना।” फिर उसने जेब से एक छोटा सा पन्ना निकाला—पीला, मुड़ा हुआ। “ये मेरी पहली कविता है। कभी किसी को नहीं दिखाई। अब तुम्हें दे रही हूँ। शायद क्योंकि तुम्हारी आँखें सुनना जानती हैं।” वेदांत ने वो पन्ना लिया और पढ़ा—”मैं जब बहुत छोटी थी / तो चुप रहना सीख लिया / अब जब बोलने का मन करता है / तो शब्द छुप जाते हैं कहीं।” वो समझ गया था—प्रिया की ताकत उसकी चुप्पी में थी, उसकी कविता में, और उस भाव में जो वो बिना कहे दे जाती थी। अब ये रिश्ता सिर्फ कुरकुरे, किताबों या कागज़ का नहीं था—ये उन दो अधूरे इंसानों का साथ था, जो एक-दूसरे की अधूरी बातों को पूरा करने लगे थे। शब्द अब दिल में उतरने लगे थे, और वो दोनों धीरे-धीरे उसी भाषा में बोलने लगे थे—जो शायद कविता से भी ज़्यादा सच्ची होती है।
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जुलाई के आख़िरी हफ्ते में भोपाल का आसमान कुछ अलग होता है—न पूरी तरह साफ़, न पूरी तरह ढंका। जैसे किसी अनकहे पल के इंतज़ार में अटका हो। वेदांत के कोचिंग सत्र के भी अब कुछ ही दिन बचे थे। क्लासरूम में अब शिक्षक की बातें सुनते समय उसकी कलम का रुख अक्सर भटककर डायरी के खाली कोनों तक पहुँच जाता था, जहाँ वो गणितीय समीकरणों के बीच किसी कविता की अधूरी लाइन लिख दिया करता—”वक़्त भी कैसा इम्तिहान लेता है / दिल को पाठ्यक्रम में नहीं गिनता।” उसे अब उस अंतिम दिन का डर सताने लगा था, जिस दिन उसे भोपाल छोड़कर वापस जाना होगा, और प्रिया के उस ठेले पर कोई और खड़ा होगा। वह ठेला अब उसके लिए केवल एक दुकान नहीं रहा, बल्कि दिन की थकान के बाद की एक गर्म, मानवीय जगह थी, जहाँ दो शब्दों से ज़्यादा सुकून मिलता था। और प्रिया—वो अब एक परिचित से कहीं आगे बढ़ गई थी। एक दोस्त? शायद हाँ। कुछ और? शायद… पर ये परिभाषाएँ दोनों ने कभी नहीं बाँटी थीं। उनका रिश्ता शब्दों के पीछे था—वहीं जहाँ कविताएँ सांस लेती हैं, जहाँ अधूरे वाक्य भी पूरी बात कह जाते हैं।
एक शाम, जब क्लास के बाद वेदांत वहाँ पहुँचा, तो देखा प्रिया किताब नहीं, बल्कि पुराने अख़बार के पन्ने समेट रही थी। पास में एक नन्हा लड़का बैठा था—उसका छोटा भाई अर्जुन। “पापा की तबियत फिर खराब है,” उसने बताया, “मम्मी को हॉस्पिटल जाना पड़ा, अर्जुन को आज दुकान पर साथ लाना पड़ा।” वेदांत ने बिना कुछ कहे कुरकुरे का स्टॉल संभाल लिया—चटपट कुरकुरे बनाए, मसाला छिड़का और बच्चों को संभाला। प्रिया ने उसकी तरफ देखा, लेकिन कुछ नहीं कहा। उस चुप्पी में आभार था, भरोसा था। जब भीड़ थोड़ी कम हुई, वे दोनों ठेले के पीछे बैठे—वेदांत ने अपनी नोटबुक से एक नया पन्ना निकाला, जिस पर लिखा था: “कुछ बातें बस हवा में लटकती हैं / न पूरी होती हैं, न अधूरी लगती हैं / जैसे तुम्हारा साथ, जो मेरे जीवन का कोमा बन गया है / वाक्य नहीं, पर विराम है / ज़रूरी, सटीक।” प्रिया ने पढ़ा, बहुत देर तक चुप रही। फिर बोली, “ये तुम्हारी सबसे सच्ची कविता है।” पहली बार उसकी आवाज़ में कोई कंपन था—जैसे बहुत कुछ कहना चाहती हो, लेकिन शब्द अब भरोसे से भी भारी हो गए हों। उस रात जब वेदांत गया, तो प्रिया ने धीमे से कहा, “अब ज़्यादा दिन नहीं बचे, है ना?” और वेदांत ने सिर हिलाया। दोनों ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उस शाम हवा कुछ अलग थी—बोझिल, थमी हुई, और उनके बीच कुछ ऐसा था जो कहा नहीं गया, फिर भी समझ लिया गया।
आख़िरी दिन आ पहुँचा। वेदांत ने अपने कमरे के सारे सामान बाँध लिया था—किताबें, नोट्स, कपड़े, और वो एक डायरी जो अब जीवन के सबसे कीमती हिस्सों में से एक बन चुकी थी। वो आख़िरी बार पीपल के पेड़ तक पहुँचा। आज प्रिया अकेली नहीं थी—दो-तीन ग्राहक थे, लेकिन उसकी आँखें बार-बार उसकी ओर घूम रही थीं। वेदांत ने बिना कुछ बोले कुरकुरे के दस रुपये थमाए, लेकिन प्रिया ने पैसे नहीं लिए। उसने एक कागज़ की पुड़िया उसकी ओर बढ़ाई—“ये मेरी आख़िरी कविता तुम्हारे लिए।” वेदांत ने वो पुड़िया जेब में रख ली, बिना खोले, क्योंकि वो जानता था—कुछ चीज़ें वक़्त के साथ ही खुलनी चाहिए। फिर दोनों बस खड़े रहे—एक पल, दो पल, पूरी ज़िंदगी जितना लंबा। और फिर वो पल टूट गया। वेदांत ने बिना पीछे देखे जाने का फ़ैसला किया, लेकिन जाते-जाते उसने एक बार मुड़कर देखा—प्रिया खड़ी थी, मुस्कुरा रही थी, लेकिन उसकी आँखों में वो चमक नहीं थी जो पहली बार वेदांत ने देखी थी। जैसे वो भी कुछ छोड़ रही हो—किसी को, या शायद खुद को।
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भोपाल पीछे छूट चुका था, लेकिन वेदांत के भीतर कुछ अब भी वहाँ अटका हुआ था—पीपल के पेड़ की छाँव में, कुरकुरे की खुशबू में, और सबसे ज़्यादा, प्रिया की अधूरी बातों में। ग्वालियर लौटने के बाद उसके दिन फिर वही थे—सुबह किताबों की मेज़, दोपहर माता-पिता की उम्मीदों के बोझ तले और रातें… रातें अब ज्यादा खामोश लगने लगी थीं। पहले सोचता था, पढ़ाई ही उसकी सबसे बड़ी प्राथमिकता है, लेकिन अब लगता था, प्रिया की एक कविता की कमी उससे ज़्यादा तोड़ती है, जितना किसी टेस्ट में आए कम नंबर। उसने वो अंतिम पुड़िया खोलने की हिम्मत नहीं जुटाई थी—वो जो प्रिया ने विदा के वक़्त थमाई थी। जैसे कोई अंतिम पत्र, जो पढ़ लिया तो बात पूरी हो जाएगी, और वह नहीं चाहता था कि ये कहानी अभी खत्म हो। कुछ दिन तक उसने खुद को पढ़ाई में झोंक दिया, लेकिन फिर एक दिन, किसी पुरानी किताब से एक पंक्ति निकली—“सही समय कभी नहीं आता, हमें ही समय को सही बनाना होता है।” उसी रात, चुपचाप उसने वो पुड़िया निकाली, उसे सीधा किया और पढ़ा—”मैं चाहती थी चिल्ला कर कहना / पर मेरी आवाज़ मसाले में घुल गई / अगर कभी तुम्हें याद आए मेरे शब्द / तो समझ लेना—मैंने तुम्हें वही दिया, जो मैं खुद भी ठीक से नहीं समझ पाई।” पंक्तियाँ छोटी थीं, पर असर में गहरी। उसके बाद वेदांत देर तक अपनी डायरी में कुछ नहीं लिख पाया, क्योंकि लगता था, जो वो कहना चाहता था, उसे पहले ही किसी ने कह दिया है।
शामें अब भी आती थीं, लेकिन अब उनके पास कोई इंतज़ार नहीं होता था। किताबें पढ़ते हुए अक्सर उसकी निगाहें भटक जातीं—दीवारों से टकरा कर वापस आतीं, जैसे कोई आवाज़ जो लौट आती हो, जवाब न मिलने पर। एक शाम, जब ग्वालियर की गलियों में हल्की हवा बह रही थी, वेदांत एक छोटे से चाय के ठेले पर बैठा था। उसके बगल में दो बच्चे कुरकुरे खा रहे थे, और उस खुशबू ने उसे सीधे भोपाल की ओर फेंक दिया—जहाँ मसाले की महक में कविता पकती थी। उसी रात, उसने अपनी डायरी में पहली बार कुछ पूरा लिखा, अधूरा नहीं। “काश ज़िंदगी भी ठेले जैसी होती—जहाँ ग्राहक आकर चला जाता है, लेकिन कुछ स्वाद, कुछ शब्द पीछे छोड़ जाता है।” और उस पंक्ति को लिखते ही उसे लगा कि वो लौटना चाहता है—शायद हमेशा के लिए नहीं, पर एक शाम के लिए, एक कविता के लिए, शायद एक नज़र के लिए। लेकिन वो जानता था—कभी-कभी लौटना आसान नहीं होता। वो डरता था कि कहीं प्रिया बदल गई हो, कहीं वो ठेला अब न हो, या सबसे बुरा—कहीं वो अब वेदांत के इंतज़ार में न हो। और फिर भी, वह जानता था कि किसी उत्तर के लिए, किसी कविता के अंतिम छंद तक पहुँचने के लिए, उसे एक बार फिर वही पन्ना पलटना होगा।
अगली सुबह उसने बिना किसी को बताए भोपाल की ट्रेन पकड़ ली। पूरे रास्ते उसकी धड़कनें किसी अनजान परीक्षा के डर जैसी थीं। जब स्टेशन से बाहर निकला, तो सब कुछ वैसा ही था, फिर भी अलग। रिक्शे की आवाज़, गर्म हवा, कोचिंग स्ट्रीट की हलचल। लेकिन जब वो पीपल के पेड़ के पास पहुँचा, तो उसका दिल जैसे एक पल को रुक गया। ठेला वहीं था। तवा गर्म था। लेकिन प्रिया वहाँ नहीं थी। एक दूसरी लड़की—शायद उसकी चचेरी बहन—ठेले पर बैठी थी। वेदांत ने हिचकते हुए पूछा, “प्रिया… नहीं है?” लड़की ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “दोपहर तक थी, लेकिन शाम की क्लास में गई है। अब नियमित पढ़ाई कर रही है।” वेदांत कुछ देर चुप खड़ा रहा, फिर ठेले के कोने में बैठ गया, ठीक वहीं जहाँ पहले प्रिया बैठती थी। और वहाँ बैठकर उसने पहली बार महसूस किया—कभी-कभी कहानी खत्म नहीं होती, वो बस अगले अध्याय में चल पड़ती है। वो शाम उसके लिए उत्तर नहीं लायी, पर एक उम्मीद ज़रूर दे गई—कि कविताएं कहीं नहीं जातीं, बस अपने सही पाठक का इंतज़ार करती हैं।
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वेदांत उस शाम वहाँ बहुत देर तक बैठा रहा—ठेले के उस किनारे पर, जहाँ कभी प्रिया बैठकर किताबों के पन्ने पलटती थी और मसाले मिलाते वक्त किसी कविता की पंक्ति कह डालती थी। अब वहाँ एक नई लड़की बैठी थी, चेहरे पर मुस्कान थी, पर आँखों में वो बेचैनी नहीं जो प्रिया की पहचान बन चुकी थी। वेदांत ने एक कुरकुरे का पैकेट लिया, पैसे दिए, और ठेले के ठीक पीछे वाली दीवार से टिक गया—उसी दीवार से जहाँ एक बार उसने अपनी पहली कविता प्रिया को दी थी। उसे सब कुछ याद आ रहा था—पहली मुलाक़ात, डायरी के पन्ने, बारिश में ठेला न मिलना, और वो अंतिम पंक्तियाँ जो प्रिया ने उसे दी थीं। उसे इस बार कोई कविता नहीं लिखनी थी, कोई भावनात्मक संवाद नहीं चाहिए था। उसे बस ये समझना था कि प्रिया अब कहाँ है, कैसी है, और क्या उसकी ज़िंदगी अब वेदांत के बिना भी पूरी है? कुछ देर बाद, जब वो ठेला बंद होने ही वाला था, तो वही लड़की धीरे से पास आई और बोली, “आपका नाम वेदांत है न?” वेदांत चौंका, फिर धीरे से हाँ कहा। लड़की ने मुस्कुराकर एक लिफ़ाफा थमाया—पीला-सा, किनारों से थोड़ा मुड़ा हुआ। “दीदी ने कहा था अगर आप कभी आएँ… तो ये देना है।” वेदांत के हाथ काँपे, पर उसने लिफ़ाफा लिया और धीरे-धीरे खोलने लगा। भीतर सिर्फ एक पन्ना था, और उस पर लिखा था:
“शब्द कभी पूरे नहीं होते वेदांत,
वे बस उस जगह तक आते हैं
जहाँ चुप्पी उन्हें ढँक लेती है।
मैंने तुम्हें कविता में पाया था,
और शायद वही सबसे सच्चा था।
अब मैं शब्दों से परे जी रही हूँ—
सपनों के ठीक पास, और कुरकुरों से थोड़ा दूर।
अगर कभी मिलें… तो आँखों से कहना।
अब वहाँ बातें ज्यादा भरोसेमंद हैं।”
वेदांत देर तक उस पत्र को देखता रहा, जैसे वो कोई उत्तर नहीं, बल्कि एक दिशा हो। प्रिया की बातों में न शिकायत थी, न कोई आग्रह। वह बस एक स्वीकार था—कि ज़िंदगी आगे बढ़ चुकी है, और शायद अब दोनों अपने-अपने रास्तों पर ठीक वैसे चल रहे हैं जैसे एक समय साथ चले थे। वह जानता था कि अब अगर प्रिया से मिलना भी हुआ, तो वह पुराने ठेले पर नहीं, शायद किसी विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में होगा—जहाँ वो अब शब्दों को सिर्फ लिखेगी नहीं, पढ़ाएगी भी। वेदांत ने वह पत्र अपने डायरी के उस हिस्से में रखा जहाँ उसकी पहली कविता थी, और एक धीमी मुस्कान के साथ खड़ा हुआ। हवा में अब वही मसालों की गंध थी, पर उसकी टीस कुछ कम लग रही थी—जैसे किसी पुराने ज़ख्म को पहली बार नाम मिल गया हो।
स्टेशन लौटते वक्त ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँकते हुए वेदांत ने एक आखिरी बार उस शहर को देखा—भोपाल, जो अब उसके लिए सिर्फ एक कोचिंग सिटी नहीं था। वह अब एक पन्ने की तरह था, जहाँ उसने खुद को लिखा था, मिटाया था, और फिर से खुद को ढूंढा था। प्रिया अब उसके पास नहीं थी, लेकिन उसका होना, उसका पढ़ाया हर शब्द, हर कविता, उसकी साँसों में बस गया था। वापस ग्वालियर जाकर वह एक नई शुरुआत करेगा, लेकिन अब वो केवल इंजीनियर नहीं बनेगा—वो एक पाठक भी होगा, शायद एक लेखक भी, और सबसे ज़रूरी… एक ऐसा इंसान, जो चुप्पी को भी पढ़ना जानता है। कहानी वहीं खत्म नहीं हुई—क्योंकि असल में, ऐसी कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं। वे बस अपने पाठकों के भीतर ज़िंदा रहती हैं… स्वाद की तरह, कविता की तरह।
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