Hindi - प्रेतकथा

नीली चूड़ियों की आवाज़

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सोनल शर्मा


पहली रात बसेरिया में

प्राची मिश्रा की कार धूल उड़ाती हुई जब बसेरिया गांव के छोर पर पहुँची, तब शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। चारों ओर पीली रोशनी में नहाया खेत, सूखी घास की सरसराहट और दूर कहीं पीपल के पेड़ पर बैठे कौवे की कांव-कांव। उसने कार से उतरते हुए कैमरा और बैग उठाया, मोबाइल की लो बैटरी का नोटिफिकेशन नजरअंदाज़ किया, और अपनी डायरी जेब में खिसका ली। दिल्ली से करीब आठ घंटे की दूरी पर स्थित बसेरिया अब बस एक नाम भर रह गया था। कभी गुलजार रहा ये गांव अब जैसे साँसें लेने को भी डरा हुआ था। ज़िंदा लोग तो थे, पर खामोशी में दबे हुए। प्राची ने वहां पहुँचते ही सबसे पहले गांव के प्रधान से मिलना चाहा लेकिन जवाब मिला—“वो बहुत बूढ़े हो चुके हैं, अब किसी से मिलते नहीं। आप रामू काका से बात कीजिए।” रामू काका, ८५ साल का झुका-सा शरीर, झुर्रियों से भरा चेहरा और धूप में तपे हुए धूसर बाल। वो गांव के एकमात्र ऐसे बुजुर्ग थे जो बाहरवालों से बात करते थे। जब प्राची उनके कच्चे घर के आंगन में पहुँची, तो उन्होंने उसे पहले टोका, “रात से पहले गांव छोड़ देना बेटी, तुम्हारा काम सुबह-सुबह भी हो सकता है।” प्राची ने हँसते हुए जवाब दिया, “मैं यहां एक रात रुकने ही आई हूँ काका। कुछ तो सुनाया आपने नीली चूड़ियों वाली बात?” रामू काका का चेहरा तुरंत सख्त हो गया। “नीलम… नाम था उसका। पच्चीस साल पहले आई थी ब्याह कर इस गांव में। शादी के ठीक तीन दिन बाद उसके घर से चीखें आईं। लोग भागे-भागे गए तो देखा—कमरे में आग और उसके हाथ में नीली चूड़ियों का जोड़ा… बस हड्डियाँ रह गई थीं।” प्राची का मन एक पल को सिहर उठा लेकिन उसने अपने चेहरे पर उत्साह बनाए रखा। “काका, क्या ये सब बस अफवाहें हैं?” रामू काका धीरे से बोले, “हर अफवाह की जड़ में कोई न कोई हकीकत होती है। अब तू ही सोच, जब भी कोई लड़की इस गांव में अकेली आती है, और रात में बाहर निकलती है, तो अगली सुबह वो… मिलती नहीं।” “क्या मतलब?” प्राची ने पूछा। “मतलब ये कि उसकी नीली चूड़ियाँ किसी ना किसी पेड़ की डाल पर लटकी मिलती हैं… और वो लड़की कभी नहीं मिलती।” प्राची ने सोचा, यही तो उसकी कहानी है। अगर ये सच है तो वो क्यों छुपाया जा रहा है? और अगर झूठ है, तो इस डर का फायदा कौन उठा रहा है? अगले कुछ घंटे वो गांव में घूमती रही—पुराने जले हुए घर, काली हुई दीवारें, और एक टूटी हुई कुआँ जिसके पास बच्चों को खेलने से मना किया जाता है। हर घर में महिलाएँ खिड़कियाँ बंद किए बैठी थीं, और पुरुषों की निगाहों में एक चुप डर। रात के आठ बजे तक, गांव में पूरा अंधेरा छा गया था। कोई बिजली नहीं थी, और टॉर्च की रोशनी ही एकमात्र सहारा थी। प्राची ने ठहरने के लिए जो घर लिया था, वो गांव के आखिरी छोर पर था—एक पुराना, खाली पड़ा हुआ घर जो पंचायत ने ‘सरकारी मेहमानों’ के लिए खोल दिया था। प्राची ने कैमरा सेट किया, ट्राइपॉड लगाया और खुद से बात करने लगी, “रात के साढ़े नौ बजे हैं। मैं बसेरिया गांव के उस घर में हूँ जहाँ कोई नहीं रहता, और जहां से नीलम की चूड़ियों की आवाज़ सबसे पहले आती बताई जाती है। आइए देखते हैं, डरावनी कहानियों में कितना सच है।” वो दरवाज़ा बंद कर कैमरा ऑन करके लेट गई। ठीक बारह बजे, जब बाहर का सन्नाटा और गहरा हो चुका था, तभी कहीं से धीमी झंकार सुनाई दी। जैसे काँच की चूड़ियाँ हवा में झूल रही हों। टन-टन… छन-छन… धीरे-धीरे करीब आती हुई आवाज़ें। प्राची ने चौंक कर आँखें खोलीं। कैमरा अभी भी रिकॉर्डिंग कर रहा था। उसने धीरे से टॉर्च उठाई और दरवाज़े की ओर देखा। कोई नहीं था। लेकिन आवाज़ें… अब और साफ थीं। टन-टन… छन-छन… जैसे किसी ने गलियारे में चलते हुए कांच की चूड़ियाँ हिलाई हों। उसने दरवाज़ा खोला और बाहर झाँका। गलियारा खाली था, पर दीवारों पर नीली परछाइयाँ लहराती सी लग रही थीं। हवा नहीं चल रही थी, लेकिन पास के आम के पेड़ की एक डाली हिल रही थी—उसपर कुछ लटक रहा था। प्राची टॉर्च लेकर बाहर आई। कैमरा अब भी रिकॉर्डिंग मोड में था। उसने डाली की ओर देखा। वहाँ एक जोड़ी नीली काँच की चूड़ियाँ थीं—बिल्कुल वैसी जैसी रामू काका ने बताई थीं। प्राची का गला सूख गया। वो मुड़ी ही थी कि उसके पीछे एक धीमी, पर ठंडी साँस की आवाज़ आई। उसने पलट कर देखा—कोई नहीं। पर तभी एक औरत की फुसफुसाहट—“तू… भी जल… जाएगी…”

नींद और नीली परछाई

“तू भी जल जाएगी…” वो फुसफुसाहट अब भी उसके कानों में गूंज रही थी। प्राची ने तुरंत टॉर्च चारों ओर घुमाई लेकिन आसपास कोई नहीं था। पेड़ की डाल अब भी हिल रही थी, नीली चूड़ियाँ उसकी रोशनी में चमक रही थीं। उसकी सांसें तेज़ हो गईं। वो कुछ कदम पीछे हटी और तेजी से कमरे की ओर भागी, दरवाज़ा भीतर से बंद किया और दीवार से टिककर खड़ी रही। मोबाइल में सिग्नल नहीं था, कैमरे की रिकॉर्डिंग अभी चल रही थी लेकिन बैटरी खत्म होने के करीब थी। उसने खुद को समझाया, “शायद थकान है, दिमाग खेल कर रहा है।” लेकिन मन नहीं माना। उसने दरवाज़े के पास कैमरा रखकर रेकॉर्डिंग चालू रखी और बिस्तर पर जाकर लेट गई। पर नींद कहाँ थी? बाहर अब भी हल्की-हल्की छनछनाहट चल रही थी, जैसे कोई इधर-उधर घूम रहा हो, धीरे-धीरे, जानबूझकर। रात किसी तरह बीत गई। सुबह की पहली रोशनी कमरे में आते ही उसने चैन की साँस ली। जैसे किसी ने उसे मौत की देहरी से लौटाया हो। उसने तुरंत कैमरा उठाया, रिकॉर्डिंग चेक की। सब कुछ कैद था—चूड़ियों की आवाज़, उसकी खुद की भागती सांसें, और एक पल ऐसा भी जब कैमरे की फ्रेम में कोई हल्की नीली छाया बाईं ओर से गुज़रती दिखाई दी थी। वो कांप गई। ये सब अब सिर्फ डर की बात नहीं थी—ये सबूत था। वो बाहर निकली तो गांव के लोग पहले से भी ज्यादा चुपचाप थे। उसकी ओर कोई सीधा नहीं देख रहा था। रामू काका के पास पहुँची तो उन्होंने उसे देखते ही पूछा, “बची रह गई?” प्राची ने कैमरा दिखाया, “मैंने वो सब रिकॉर्ड किया है। अब आप बताइए कि नीलम के साथ असल में क्या हुआ था।” रामू काका चुप रहे, फिर बोले, “तू अगर सच्चाई जानना चाहती है, तो चौपाल के पीछे जो सूखा कुआँ है, वहाँ जा। और खुदाई करवा, उस कुएँ में सिर्फ पानी नहीं है… राज़ भी है।” “कौनसा राज़?” “उस रात नीलम की सिर्फ मौत नहीं हुई थी… वो ‘लौट’ भी आई थी।” प्राची उस दोपहर खुदाई के लिए दो लोगों को पैसे देकर साथ ले गई। कुएँ की खुदाई शुरू हुई और एक घंटे में ही नीचे से एक चूड़ियों से भरा संदूक निकला। पर सिर्फ चूड़ियाँ नहीं थीं—संदूक में एक अधजली लाल चुनरी और एक आधा जला हुआ दुल्हन का फोटो भी था। फोटो की आंखें जैसे अब भी उसे देख रही थीं। अचानक एक मज़दूर ने घबराकर कहा, “मैडम, मैं नहीं कर सकता ये। कुछ तो है इसमें।” दूसरा भी डर के मारे भाग गया। प्राची ने फोटो उठाया, और देखा—उसमें नीलम के पास एक आदमी खड़ा था। “क्या ये उसका पति है?” उसने सोचा। उस शाम वो फिर रामू काका के पास पहुँची और फोटो दिखाया। काका की आंखें फैल गईं। “ये… ये तो सुभाष है। गांव के मुखिया का बेटा। नीलम का पति। लेकिन शादी के बाद एक हफ्ते में ही गांव छोड़कर शहर चला गया। आज तक नहीं लौटा। कोई कहता है डर गया था, कोई कहता है खुद ही जलाया था।” “और उसकी कोई सज़ा नहीं हुई?” “कौन देता? उसका बाप ही पंचायत था। और नीलम की लाश जल चुकी थी, सबूत नहीं था।” प्राची के अंदर ग़ुस्सा भर गया। वो जानती थी अब कहानी सिर्फ आत्मा की नहीं, इंसाफ की भी है। उसने फैसला किया—वो सुभाष को ढूंढेगी। रात को उसने कैमरा चार्ज किया, लैपटॉप में फुटेज ट्रांसफर किया और इंटरनेट चलाने के लिए गांव के इकलौते स्कूल की छत पर चढ़ गई जहां थोड़ा सिग्नल आता था। सर्च किया—“सुभाष सिंह, बसेरिया” और कुछ मिनटों में उसे एक लिंक मिला—सुभाष अब एक बिल्डर था, लखनऊ में। प्राची के अंदर कुछ बदल गया। एक भयानक सच्चाई सामने थी—जिसने नीलम को जलाया, वो आज भी ज़िंदा था, सफल था, और किसी को परवाह नहीं थी। वो लौटने ही वाली थी कि तभी फिर से वही आवाज़—तू भी जल जाएगी…” इस बार वो पीछे मुड़ी और देखा—छत के कोने पर एक औरत खड़ी थी, नीली साड़ी, अधजला चेहरा, और हाथ में चूड़ियाँ। लेकिन उसकी आंखें… उनमें रोशनी नहीं, बस धधकता ग़ुस्सा था। प्राची की टॉर्च गिर गई, मोबाइल हाथ से छूट गया, और उस साए ने उसकी ओर एक हाथ बढ़ाया। तभी अचानक कुछ हुआ—हवा तेज़ चली, जैसे पूरा आसमान गरज गया हो। वो साया गायब हो गया। लेकिन नीचे मैदान में सब सुन चुके थे। कुछ ने उस नीली साड़ी वाली को देखा भी था। अगली सुबह प्राची गांववालों के सामने खड़ी हुई और बोली, “अगर नीलम को इंसाफ नहीं मिलेगा, तो ये गांव कभी नहीं सो पाएगा। अब या तो आप सब साथ आइए, या फिर अगली बार चूड़ियों की आवाज़ आपके घर से आएगी।”

इंसाफ की आहट

गांव की चौपाल पर वो दोपहर जैसे किसी अदालत में बदल गई थी। प्राची के शब्दों का असर गहराई तक गया था। नीली चूड़ियों की झंकार अब सिर्फ डर नहीं, चेतावनी बन चुकी थी। गांववाले जो अब तक चुप थे, उनके चेहरे पर भय और ग्लानि की एक अजीब परत फैल चुकी थी। किसी ने दबी आवाज़ में कहा, “सुभाष को लाना चाहिए… अब और नहीं छुपा सकते।” रामू काका सबसे आगे आए। उन्होंने झुकी कमर सीधी की, और कहा, “जो कुछ भी हुआ वो हमारे गांव के पाप की छाया है। नीलम को जलाने के बाद हमने चुप्पी ओढ़ ली। हमने इंसाफ की जगह खामोशी को चुना। लेकिन अब अगर हम नहीं बोले, तो वो हमें जलाकर बोलेगी।” उस रात गांव के कुछ लोग पहली बार प्राची के पास आए, बिना डरे। उन्होंने बताया कि सुभाष की शादी के तीसरे दिन नीलम को एक कमरे में बंद कर दिया गया था। सुभाष की मां ने कहा था कि वो कुलक्षिणी है—दहेज में गाड़ी नहीं लाई, और न बाप के पास ज़मीन है। सुभाष शुरू से ही दब्बू किस्म का था, लेकिन लालच ने उसे जानवर बना दिया। उसने नीलम को अपने हाथों से मारा था। “हमने देखा था,” एक बुजुर्ग महिला बोली, “पर हम डर गए थे। पंचायत का बेटा था, हम क्या करते?” प्राची ने धीरे से पूछा, “और उस रात… जलते हुए कमरे से जो चिल्लाहटें आई थीं, वो क्या कह रही थीं?” सब चुप। फिर रामू काका बोले, “वो एक ही बात दोहराती रही—‘मुझे मत जलाओ, मेरी माँ की चूड़ियाँ मत तोड़ो… मेरी माँ की चूड़ियाँ मत तोड़ो…’” हवा एक बार फिर ठंडी हो गई थी। नीली चूड़ियाँ अब प्रतीक बन चुकी थीं—पुकार का, पीड़ा का, और प्रतिशोध का। प्राची ने तय किया कि अगली सुबह वो लखनऊ जाएगी। वो अकेली नहीं थी—गांव के तीन युवक और रामू काका भी साथ आने को तैयार हो गए। रात को उसने एक आखिरी बार कैमरा ऑन किया और उस नीली साड़ी वाली परछाई को पुकारा। “नीलम… अगर तुम चाहती हो कि तुम्हें इंसाफ मिले… तो मुझे एक बार बताओ कि मैं किस रास्ते पर जाऊँ।” कुछ देर कोई जवाब नहीं आया। फिर कमरे की दीवारों से एक धीमी सी आवाज़ गूंजी—पुरानी हवेली… जिसकी सीढ़ियाँ कभी नीचे नहीं जातीं…” प्राची सिहर गई। वो जानती थी कि ये संकेत है, शायद सुभाष का पुराना घर—वो जो अब खंडहर हो चुका था, और जिसे गांव के बच्चे भूतों का डेरा कहते थे। सुबह निकलने से पहले वो वहां गई। दरवाज़ा टूटा हुआ था, अंदर धूल और सन्नाटा। उसने एक कमरे की दीवार पर खुरचकर लिखा देखा—मेरे होने को मत मिटाना।” वही कमरे के कोने में एक टूटा हुआ दर्पण पड़ा था। प्राची ने उसमें देखा तो एक पल के लिए पीछे नीली साड़ी वाली झलक गई। वो पलटा—कोई नहीं। लेकिन दरवाज़े के पास एक नीली चूड़ियों का जोड़ा रखा था। उसने वो उठाया, बैग में रखा, और गांववालों के साथ लखनऊ के लिए रवाना हो गई। लखनऊ में सुभाष को ढूंढना मुश्किल नहीं था। उसका नाम अब एक बड़े बिल्डर के तौर पर मशहूर था। उसका ऑफिस चमकदार था, लेकिन उसकी आत्मा शायद अब भी स्याह थी। जब प्राची ने रिसेप्शन में नाम बताया, तो उसे बैठाकर इंतज़ार करने को कहा गया। पर जैसे ही सुभाष को पता चला कि कोई “बसेरिया” से आई है, उसने मिलने से मना कर दिया। “मैडम, सर बहुत व्यस्त हैं,” रिसेप्शनिस्ट बोली। प्राची मुस्कुराई, “तो मैं कैमरा ऑन कर देती हूँ, और बाहर निकलकर कहती हूँ कि बिल्डर सुभाष सिंह ने दहेज हत्या की थी। देखते हैं कितनी देर तक व्यस्त रहते हैं।” कुछ ही मिनटों में दरवाज़ा खुला। एक लंबा, गोरा-सा आदमी बाहर आया—चेहरा भरा हुआ, लेकिन आंखों में एक डर दबा हुआ। “आपको जो चाहिए, मैं दे दूँगा,” उसने कहा, “पर मेरा पीछा छोड़ दीजिए।” प्राची ने कैमरा ऑन किया, नीली चूड़ियाँ सामने रख दीं और पूछा, “पहले ये बताइए, आपने नीलम को क्यों मारा?” सुभाष के चेहरे का रंग उड़ गया। उसके होंठ फड़के, और उसने आंखें फेर लीं। “मैंने नहीं मारा…” “तो किसने?” “मेरी माँ ने कहा था कि अगर उसे ज़िंदा छोड़ा तो हमारी बदनामी होगी… उसने चूड़ियाँ ज़मीन पर पटक दी थीं… और माँ ने माचिस फेंकी थी… मैंने…” वो रुक गया। प्राची ने कैमरा ज़ूम किया, “आपने क्या किया?” “मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया था… ताकि वो बाहर न आ सके।” कमरे में सन्नाटा पसर गया। बाहर तेज़ हवाएं चल रही थीं। तभी दरवाज़े के बाहर की खिड़की से नीली रौशनी अंदर झलकी। प्राची ने देखा—उसका कैमरा अपने आप झुक गया था, जैसे किसी ने उसे हाथ से घुमाया हो। तभी सुभाष की गर्दन पर नीले निशान उभर आए, जैसे किसी ने उसे जकड़ लिया हो। वो हाँफने लगा, “हटाओ इसे… हटाओ… वो आ गई है…” प्राची ने चूड़ियाँ उसके सामने फेंकी और कहा, “ये तेरे गुनाह का साया है। अब या तो अदालत में कबूल कर, या उसकी आग तुझे जला देगी।”

कबूलनामा और कसम

सुभाष की आंखें पथरा गई थीं। जैसे नीली चूड़ियाँ सिर्फ काँच नहीं, उसकी आत्मा पर लिपटी जली हुई राख थीं। कमरे में हवा अब भी ठंडी थी, लेकिन उसके माथे से पसीना बह रहा था। उसने कांपते हुए प्राची से कहा, “ठीक है… मैं सब बताऊंगा… अदालत में भी, मीडिया के सामने भी। लेकिन एक बार… एक बार उस साए को कहो, मुझे माफ कर दे।” प्राची ने उसकी ओर देखा—उस आदमी की आँखों में अब डर नहीं, विनती थी। उसने अपना कैमरा बंद किया, लेकिन रिकॉर्डिंग ऑन ही रखी। “उसके लिए माफ़ी नहीं, सज़ा तय होगी। तूने दरवाज़ा बंद किया था, सुभाष। तूने उसकी चीखें सुनी थीं। अब तेरे पास कोई चारा नहीं है।” उसी दिन शाम को प्राची और रामू काका ने पास के पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज करवाई। पुराने केस की फाइलें धूल में दबी थीं, लेकिन जब सुभाष खुद थाने पहुंचा और अपने बयान में हत्या स्वीकार की, तब पूरा केस फिर से खुल गया। न्यूज़ चैनलों पर सुर्खियाँ बनने लगीं—“25 साल पुराना मर्डर केस दोबारा खुला, एक पत्रकार की जिद ने दिलाई आत्मा को आवाज़”। पर कहानी वहीं खत्म नहीं हुई। उस रात जब प्राची वापस अपने होटल में थी, तो उसे एक अजीब सपना आया। वो एक जलता हुआ कमरा था, जिसमें एक औरत चिल्ला रही थी—“मेरी माँ की चूड़ियाँ मत तोड़ो… मत तोड़ो…” और अचानक वो औरत मुड़ी, और प्राची की ओर देखा। चेहरा अधजला था, लेकिन आंखों में कोई डर नहीं, बस एक गहरी पीड़ा। “मैं अब भी जल रही हूँ,” वो बोली। प्राची हड़बड़ा कर उठ गई, उसकी सांसें तेज़ थीं, दिल धड़क रहा था। उसने पानी पिया और कैमरे की रिकॉर्डिंग दोबारा देखी। सुभाष के कबूलनामे के ठीक बाद कैमरे की फ्रेम में एक क्षण के लिए नीली धुंध उभरी थी—जैसे किसी की उपस्थिति महसूस हो। क्या नीलम अब भी मुक्त नहीं हुई थी? क्या सज़ा का ऐलान काफी नहीं था? अगले दिन वो वापस बसेरिया लौटी। गांव अब पहले जैसा नहीं लग रहा था। लोग अब उसकी ओर देखते थे—आदर से, भय से, या शायद राहत से कि किसी ने वो काम किया जो वो बरसों से नहीं कर पाए। रामू काका ने उसे चौपाल पर बुलाया। “बेटी,” उन्होंने कहा, “तेरे आने से जैसे नीलम को आवाज़ मिली। अब ये गांव चुप नहीं रहेगा।” प्राची ने धीरे से कहा, “पर अभी कुछ अधूरा है। नीलम ने कहा था—‘मैं अब भी जल रही हूँ’। इसका मतलब है कि सिर्फ अदालत का फैसला काफी नहीं है। शायद कुछ ऐसा है, जो उसकी आत्मा को रोक रहा है।” तभी गांव की एक वृद्धा, शारदा बुआ, जो कभी नीलम की सास की सहेली रही थीं, धीरे से पास आईं। “एक बात कहूँ, पर तू डरना मत,” उन्होंने कहा। “नीलम की माँ मरने से पहले एक बात कहती थी—उसने अपनी बेटी की शादी के लिए जो चूड़ियाँ दी थीं, वे पुरखियों की थीं। उन चूड़ियों को कभी जलाया नहीं जाना चाहिए था। पर जब वो जली, तो आत्मा उसी से बंध गई।” प्राची चौंकी। “तो क्या वो चूड़ियाँ अभी भी किसी के पास हैं?” शारदा बुआ ने धीरे से सिर हिलाया। “हां… सुभाष की माँ ने एक जोड़ी अपने पास छिपाकर रखी थी, और जब वो मरी, तो उन्हें मंदिर के पीछे वाले पुराने गड्ढे में गाड़ दिया गया। शायद वहीं से नीलम की आत्मा बंधी रह गई।” प्राची के रोंगटे खड़े हो गए। उसने उसी शाम रामू काका और दो गांववालों के साथ मंदिर के पीछे खुदाई शुरू करवाई। अंधेरा घिरने लगा था, लेकिन खुदाई चलती रही। तभी मिट्टी के नीचे से एक छोटी-सी लोहे की डिब्बी मिली, और जब उसे खोला गया, तो उसमें वही नीली चूड़ियों का पुराना जोड़ा निकला—सपाट, पर चमकता हुआ। साथ ही एक पत्र भी मिला, जिसमें लिखा था—अगर ये चूड़ियाँ कभी जलाई गईं, तो उसका दुख इस धरती पर रहेगा। उसे शांति देनी हो, तो उसे मां की माटी में मिलाओ।” प्राची तुरंत गांववालों को लेकर नीलम के मायके गई, जो पास के ही गांव में था। वहां की मिट्टी ली, और उस नीली चूड़ियों को उसी मिट्टी में दबा दिया, फूल चढ़ाए, और एक दीपक जलाया। हवा एकदम शांत हो गई थी। जैसे किसी ने एक लंबी साँस छोड़ी हो। प्राची ने आंखें बंद कर लीं, और तभी पीछे से एक धीमी, अब शांत सी आवाज़ आई—धन्यवाद… अब मैं जल नहीं रही…”

राख से उगती हुई सुबह

जब दीपक की लौ मिट्टी में दबी नीली चूड़ियों के पास स्थिर हो गई, तो उस क्षण गांव जैसे सांस लेने लगा। बसेरिया की हवा, जो सालों से किसी अनकहे अपराध की राख ओढ़े चुप थी, उसमें पहली बार हलचल थी—नरम, सौम्य, जैसे किसी ने ज़ख्म पर शहद रख दिया हो। प्राची वहीं बैठी रही, मिट्टी की उस गंध में जो अब नीलम की मां की आंचल से आती लग रही थी। शांति अब कोई किताबी शब्द नहीं, उसकी सांसों में उतर चुका था। गांववालों ने उस स्थान को छोटा-सा स्मृति स्थल बना दिया, जहां रोज़ एक दीया जलाने का निर्णय हुआ। “नीलम अब देवी है हमारे लिए,” एक महिला ने कहा, “जो हमें बताती है कि चुप रहना भी अपराध है।” लेकिन प्राची जानती थी कि कहानी का अंत नहीं, नया अध्याय शुरू हुआ है। वो गांव के स्कूल में गई, बच्चों से बात की, और नीली चूड़ियों की कहानी को सिर्फ डरावनी दंतकथा नहीं, बल्कि सच्चाई के रूप में बताया—“कभी कोई अगर तुमसे कहे कि औरत की आवाज़ कमजोर होती है, तो उन्हें नीलम की कहानी सुनाना,” उसने कहा। उसी शाम प्राची ने आखिरी बार कैमरा ऑन किया। इस बार वो सामने नहीं, सिर्फ आवाज़ में थी। बैकग्राउंड में मंदिर की घंटियां, बच्चों की हँसी और हवा में उड़ते पीले फूल। “ये बसेरिया है,” उसने कहा, “एक गांव जो सालों तक चुप रहा, और फिर एक लड़की की पुकार ने उसकी नींव हिला दी। नीलम अब सिर्फ आत्मा नहीं, प्रतिशोध नहीं, बल्कि एक वादा है—कि हर औरत की कहानी दर्ज होगी, सुनी जाएगी, और याद रखी जाएगी।” जब वो रिकॉर्डिंग बंद करने लगी, तो एक धीमी झंकार फिर से सुनाई दी—बहुत हल्की, जैसे हवा में कोई विदा ले रहा हो। पर अब उसमें डर नहीं था, सिर्फ आभार। लखनऊ लौटकर प्राची ने रिपोर्ट लिखी, वीडियो संपादित किया, और एक बड़ा डिजिटल प्लेटफॉर्म पर डॉक्युमेंट्री जारी की—“The Blue Bangles: A Ghost’s Testimony”। वो वायरल हो गई। सोशल मीडिया, न्यूज़ चैनल, और यहां तक कि यूनिवर्सिटीज़ तक में उसकी चर्चा होने लगी। नारी-अधिकार संगठनों ने इसे जनांदोलन की तरह अपनाया। लेकिन एक सवाल अब भी रह गया था—क्या नीलम की आत्मा सचमुच मुक्त हो गई थी? या बस शांति की सतह पर टिक गई थी, ताकि वो फिर किसी और अन्याय के खिलाफ उठ सके? कुछ दिनों बाद, प्राची को एक अजीब पैकेट मिला—डाक से, बिना किसी प्रेषक के। अंदर एक पुराना कागज़ था, उस पर चाय के दाग, किनारे मुड़े हुए। कागज़ पर बस एक लाइन लिखी थी—हर बार मैं नहीं लौटूंगी, पर अगर लौटूं… तो साथ देना।” नीचे हस्ताक्षर जैसा कुछ नहीं था, सिर्फ एक छायाचित्र—नीली चूड़ियाँ और उसके नीचे एक उंगली से बनी राख की रेखा। प्राची मुस्कुराई। उसका काम अब सिर्फ पत्रकारिता नहीं, दस्तावेज़ बनाना था—उन आवाज़ों का जिन्हें दुनिया ने कभी सुना ही नहीं। उसने एक नया प्रोजेक्ट शुरू किया: “Whispers from the Silent”—जहां हर एपिसोड में वो उन महिलाओं की कहानियाँ लाने लगी जो मर गईं, पर चुप नहीं हुईं। बसेरिया अब बदल गया था। गांव में लड़कियाँ अब स्कूल जा रही थीं, पंचायत में पहली बार एक महिला सरपंच बनी थी—किसी और की नहीं, नीलम की छोटी बहन, रचना। “दीदी की याद दिलाती है ये चूड़ियाँ,” उसने शपथ लेते समय कहा था, “पर अब ये भय नहीं, शक्ति का चिन्ह हैं।” रामू काका अब भी चौपाल पर बैठते हैं, लेकिन उनके पास अब डरावनी कहानियाँ नहीं, इंसाफ के किस्से होते हैं। प्राची हर साल वहां जाती है, एक दीपक जलाने। और हर बार जब हवा चलती है, तो वो झुकी हुई पीपल की शाख पर झूमती चूड़ियों की आवाज़ सुनती है—टन… टन… छन… अब वो आवाज़ डराती नहीं, मुस्कराती है। जैसे कहती हो, “मैं अब भी यहां हूँ, लेकिन जल नहीं रही… जगा रही हूँ।”

अदालत की गवाही और आत्मा का साया

लखनऊ के ज़िला सत्र न्यायालय में उस दिन जैसे हवा में कुछ अलग था। चारों ओर पत्रकार, कैमरे, और एक जिज्ञासा—कि 25 साल बाद एक आत्मा की पुकार पर न्यायालय क्या करेगा। प्राची कोर्ट में मौजूद थी, कैमरा बंद लेकिन कलम खुली। सुभाष को पुलिस की निगरानी में लाया गया—चेहरा उतरा हुआ, आंखों में खौफ और थकान। एक वक़्त था जब वो लोगों को घूरता था, अब खुद सबकी नज़रों से बचता फिर रहा था। सरकारी वकील ने केस की रूपरेखा अदालत के सामने रखी: “महोदय, यह सिर्फ हत्या का मामला नहीं है, यह उन सभी आवाज़ों का मामला है जिन्हें समाज ने दबा दिया। यह एक महिला की चीख़ का मामला है, जिसे ज़िंदा जला दिया गया और फिर भूत बना दिया गया। लेकिन इस बार उसकी आवाज़ को एक पत्रकार ने सुना, रिकॉर्ड किया, और यहां तक लेकर आई।” पहली बार अदालत में आत्मा की उपस्थिति को गवाही के रूप में रखा जा रहा था। प्राची ने अपनी रिकॉर्डिंग पेश की—कैमरा फुटेज जिसमें सुभाष खुद अपने जुर्म को स्वीकार करता है, साथ ही गांववालों के बयान, पुराने संदूक से मिली नीली चूड़ियाँ, और वह पत्र जो चूड़ियों के साथ मिला था। वकील ने कहा, “यह कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं। यह सबूत है उस समाज का जो दहेज की वजह से बेटियों को ज़िंदा जला देता है और फिर उसकी राख पर चुप्पी की चादर ओढ़ लेता है।” सुभाष के वकील ने बचाव में कहा कि सुभाष पर मानसिक दबाव था, कि वो अपनी मां के आदेशों का पालन कर रहा था, कि साक्ष्य अप्रत्यक्ष हैं। लेकिन जब सुभाष खुद कटघरे में आया और धीमी आवाज़ में बोला, “मैंने ही दरवाज़ा बंद किया था… मैंने ही उसे मरने दिया…”, तो कोर्ट रूम में सन्नाटा छा गया। जज ने जब फैसला सुनाया, तो उनके शब्दों में क्रोध नहीं, संतुलन था। “यह अदालत मानती है कि सुभाष सिंह ने अपनी पत्नी नीलम को जानबूझकर जलने दिया। अदालत उसे उम्रकैद की सज़ा देती है। साथ ही राज्य सरकार को आदेश देती है कि बसेरिया गांव में महिला सुरक्षा व पुनर्वास केंद्र बनाया जाए। ताकि नीलम की आत्मा सिर्फ एक कहानी न रह जाए, एक परिवर्तन बन जाए।” कोर्ट के बाहर प्राची खड़ी थी, उसकी आंखें भरी थीं लेकिन होठों पर मुस्कान। तभी हवा चली, और उसने कानों में फिर वही आवाज़ सुनी—अब तू मेरी नहीं, सबकी आवाज़ है…” कुछ पत्रकार प्राची से इंटरव्यू के लिए दौड़े, लेकिन उसने सिर हिलाकर मना किया। आज उसे कोई प्रचार नहीं चाहिए था, सिर्फ सुकून। उसी रात जब वो होटल में थी, उसने अचानक महसूस किया कि कमरे में कुछ बदल गया है। दरवाज़ा अपने आप धीरे-धीरे बंद हुआ, खिड़की की परछाई में एक औरत की आकृति बनी, और सामने रखे शीशे पर फॉग में उभरे दो शब्द—धन्यवाद, बहन।” प्राची की आंखें नम हो गईं। उसने धीरे से चूड़ियों का वो पुराना जोड़ा निकाला, जो अब भी उसके पास था। उसे अपनी हथेली पर रखा और धीरे से कहा, “अब तुम जहां भी हो, वहां रोशनी हो, शांति हो… और तुम्हारी आवाज़ हर बार समय से पहले सुन ली जाए।” उसने वो चूड़ियाँ उसी रात शहर के महिला स्मारक पर चुपचाप रख दीं। अगली सुबह लोग हैरान रह गए जब देखा कि वहां कुछ फूल भी थे—जो किसी ने वहां नहीं रखे थे, फिर भी वो ताज़ा थे, और हल्के नीले रंग के। उस दिन से स्मारक को नीलम की चौखट” कहा जाने लगा। शहर की लड़कियाँ वहां दीपक जलाने लगीं, और कहते हैं कि जब भी किसी स्त्री पर अत्याचार होता है, उस स्मारक की नीली चूड़ियाँ धीमे-धीमे हिलती हैं… जैसे कह रही हों, “अब हम चुप नहीं रहेंगे।”

नीली चेतावनी

सुभाष की सज़ा के बाद कुछ हफ़्तों तक सब शांत रहा। प्राची ने अपने अगले प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया था, लेकिन नीलम की कहानी अब भी उसके भीतर गूंज रही थी। जब भी वो अकेली होती, उसके कानों में चूड़ियों की हल्की झंकार सुनाई देती, मानो नीलम की आत्मा अब भी किसी ओर संकेत कर रही हो। एक दिन प्राची को एक फोन आया—बसेरिया से नहीं, बल्कि उसी ज़िले के एक दूसरे गांव नगरेली से। फोन करने वाली एक बुज़ुर्ग महिला थी, जिसने बस इतना कहा, “बेटी, यहां भी चूड़ियों की आवाज़ आती है… लेकिन इस बार ये नीली नहीं, काली हैं।” प्राची चौंकी। “काली चूड़ियाँ?” “हां… एक और लड़की जल गई है… पर वो किसी की बेटी नहीं थी, कोई पहचान नहीं… और उसकी चूड़ियाँ अब हर रात हमारे दरवाज़े पर टनकती हैं।” प्राची ने तुरंत तय किया—वो नगरेली जाएगी। अगले ही दिन वो वहां पहुँची। बसेरिया की तरह ये गांव भी डर में डूबा था, लेकिन फर्क था—यहां लोग दहशत में चुप नहीं, गुस्से में चुप थे। गांव के प्रधान ने मिलने से मना कर दिया, और लोगों ने सीधे कहा—“तुम्हारी वजह से बसेरिया बदनाम हुआ। यहां भी वही करने आई हो?” लेकिन कुछ महिलाएं धीरे से उसके पास आईं और बोले, “हम तुम्हारे साथ हैं। हम भी अब नींद में नहीं जलना चाहते।” प्राची ने गांव के बाहर की झोपड़ी में ठिकाना बनाया। वहां एक लड़की की अधजली चुनरी मिली थी, और पास ही राख में दबा हुआ चूड़ियों का एक काला जोड़ा। उसने उसे हाथ में उठाया, और अचानक एक ठंडी हवा बह चली। उसके कानों में एक नई आवाज़ गूंजी—मैं तो नाम की भी नहीं थी… मुझे बस जलाया गया था ताकि कोई सवाल उठाए…” प्राची समझ गई—ये सिर्फ एक और आत्मा की पुकार नहीं थी, ये एक प्रणाली के खिलाफ चेतावनी थी। उसने रिकॉर्डिंग शुरू की, गांव की स्त्रियों से बात की, लेकिन कोई भी उस लड़की को पहचानता नहीं था। “वो शायद मुसाफिर थी,” एक ने कहा, “या फिर कोई जिसे यहां लाया गया था।” लेकिन रात को जब प्राची सो रही थी, उसने झोपड़ी की दीवारों पर खरोंचों की आवाज़ सुनी। उठकर देखा, तो किसी ने दीवार पर राख से लिखा था—मैं जिन्दा जलती रही… और कोई रोया तक नहीं।” उसकी रूह कांप गई। अगले दिन उसने गांव के पास के पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई। लेकिन वहां के अधिकारी ने कहा, “ये कोई केस नहीं। ना लाश, ना गवाह, ना एफआईआर।” प्राची ने जवाब दिया, “पर आत्मा है। और वो अब चुप नहीं रहने वाली।” रात होते ही गांव में कुछ अजीब होने लगा। जिन घरों में उस झोपड़ी की राख को फेंका गया था, वहां खिड़कियाँ अपने आप खुलने लगीं। औरतों ने बताया कि चूड़ियों की आवाज़ अब अंदर तक सुनाई देती है—जैसे कोई उनकी नींद के पास आकर फुसफुसा रहा हो। एक वृद्धा ने कहा, “वो पूछती है—क्या अब भी मैं किसी की नहीं?” प्राची ने तुरंत उस राख को इकट्ठा किया और उसे महिला स्मारक नीलम की चौखट पर ले गई। वहीं, उसने वो काली चूड़ियाँ भी रखीं, और मोमबत्ती जलाकर कहा, “तुम्हारा नाम भले इस दुनिया में ना हो… पर अब तुम्हारी पुकार अकेली नहीं है।” उसी रात बारिश आई, लेकिन मोमबत्ती बुझी नहीं। लोग कहते हैं, स्मारक के ऊपर एक परछाई छाता लिए खड़ी थी—एक औरत, जिसकी चूड़ियाँ अब नीली और काली दोनों थीं।

परछाइयों का गठबंधन

उस रात स्मारक पर बारिश की बूंदें जैसे इतिहास को धो रही थीं। नीलम की चौखट पर रखी नीली और काली चूड़ियाँ अब साथ-साथ चमक रही थीं—मानो दो आत्माएं जो अलग-अलग जली थीं, अब एक संग जल चुकी थीं… और अब लड़ने को एकजुट हुई थीं। प्राची चुपचाप वहीं खड़ी रही। बारिश की फुहार में भी उसकी आंखों में एक सिहरन थी—न डर की, न थकान की, बल्कि एक ऐसे सच्चे गठबंधन की जो औरतों की आत्माओं ने खुद बनाया था, बिना किसी समाज की इजाज़त के। अगले दिन प्राची ने जो वीडियो पोस्ट किया, उसका शीर्षक था—जब दो आत्माएं एक सवाल पूछें—क्या तुम अब भी चुप रहोगे?” उस वीडियो में न तो डरावने म्यूजिक थे, न अफवाहों की सनसनी। बस राख पर लिखा एक वाक्य—“मैं किसी की नहीं थी… और इसलिए मुझे जलाना आसान था।” वो वीडियो वायरल हो गया। देश के अलग-अलग हिस्सों से महिलाएं प्राची को पत्र भेजने लगीं—कुछ में अपने बीते दर्द थे, कुछ में वो कहानियाँ जो कभी सुनी ही नहीं गईं। लेकिन इसी बीच, एक और फोन आया—इस बार एक स्कूल टीचर का, उत्तर प्रदेश के ही एक और कस्बे से। “मैम,” उसने कहा, “हमारे स्कूल की एक छात्रा दो हफ्ते से नहीं आई। उसका घर बंद है। गांववाले कह रहे हैं कि उसका बाप उसे कहीं बाहर भेज चुका है… लेकिन रात में उसके कमरे से अब भी चूड़ियों की आवाज़ आती है।” प्राची ने पूछताछ की तो पता चला कि वो लड़की—श्वेता—कई बार स्कूल में प्रिंसिपल से पिता की हिंसा के बारे में शिकायत कर चुकी थी। लेकिन कोई भी उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लेता था। प्राची जानती थी, अब समय नहीं बचा। अगर वो फिर देर करती, तो शायद एक और आत्मा “चूड़ियों की आवाज़” बन जाती। वो तुरंत उस गांव पहुँची, लेकिन इस बार उसने पुलिस और मीडिया को भी साथ लाया। जब वो श्वेता के घर पहुँची, तो दरवाज़ा बंद था, खिड़कियाँ सील थीं। उसके पिता ने कहा, “वो रिश्तेदारी में गई है।” लेकिन तभी एक पड़ोसन ने धीरे से बताया, “उस रात हम लोगों ने चीखें सुनी थीं… और फिर किसी के रोने की हल्की आवाज़… फिर सन्नाटा।” पुलिस ने घर की तलाशी ली। एक कमरे की फर्श पर हल्की जली हुई राख और टूटी चूड़ियों का ढेर मिला। दीवार पर खरोंच से लिखा था—अगर अब भी तुम चुप रहोगे, तो मैं हर खिड़की में लौटूंगी।” पूरे गांव में सनसनी फैल गई। प्राची ने उस रात मीडिया कैमरे के सामने सिर्फ एक वाक्य बोला—“हर वो घर, जहां एक बेटी जलती है, वो श्मशान है। और हर वो समाज, जो चुप रहता है, वो उसका जल्लाद।” अगले ही दिन राज्य महिला आयोग ने जांच बिठाई। और चौबीस घंटे में श्वेता का पिता गिरफ्तार हुआ। उसकी स्वीकारोक्ति ने सबको हिला दिया—“वो ज़िद्दी थी। पढ़ना चाहती थी। शादी से इनकार किया था… मैं रोज़ उसे पीटता था… और उस दिन…” वो रुक गया, और सिर्फ इतना बोला, “उसकी चूड़ियाँ अब भी मेरे कानों में बजती हैं।” प्राची ने उस बयान को कोर्ट में नहीं, लोगों के दिलों तक पहुँचाया। उसकी नई डॉक्युमेंट्री—चूड़ियों का विद्रोह”—भारत की पहली ऐसी श्रृंखला बनी जो आत्माओं की सच्ची कहानियों को न्याय के दस्तावेज़ में बदल रही थी। अब स्मारक पर सिर्फ नीलम या अनाम लड़की की चूड़ियाँ नहीं थीं—अब वहां चूड़ियों की माला बन रही थी। हज़ारों औरतें वहां अपने गहने छोड़ जातीं—एक वादा देकर, कि वे अब किसी के चुप रहने का हिस्सा नहीं बनेंगी। हर शनिवार को वहां महिलाएं इकट्ठा होतीं, दीप जलातीं, और वो गीत गाया जाता जिसे गांव की एक बच्ची ने लिखा था—हम जो राख में बदल दी गईं, अब धुआं नहीं, लपट बनेंगी।”

आखिरी दरवाज़ा

हर शनिवार जब नीलम की चौखट पर चूड़ियों की नई माला जुड़ती, तब वो जगह किसी स्मारक से ज़्यादा आंदोलन लगती—आत्माओं और औरतों का साझा विद्रोह। लेकिन जहां लोग प्राची को एक आंदोलन की अगुआ समझते थे, वहीं उसके भीतर एक चुप्पी थी, जो अब भी जवाब मांग रही थी। उसे अक्सर नींद के बीच नीली रौशनी से भरे गलियारे में खींच लिया जाता—जहां दीवारें राख की थीं, और हर दरवाज़े के पीछे कोई सिसकता था। पर एक दरवाज़ा अब भी बंद था—भारी, लोहे का, जिसके बाहर नीले अक्षरों में लिखा था: यहां वो हैं जो अब भी सुनी नहीं गईं।” एक रात प्राची ने नींद में ही उस दरवाज़े की ओर हाथ बढ़ाया—तभी किसी ने फुसफुसाकर कहा, “वो जो बोल नहीं पाई, उसकी आवाज़ तुम्हारे अंदर छुपी है।” प्राची चौंककर उठी। उसके माथे पर पसीना था, कमरे में झूटी चूड़ियों की सी आवाज़ गूंज रही थी। वह जानती थी कि एक और कहानी उसे पुकार रही है—शायद वह कहानी जो सबसे करीब थी… और सबसे अधूरी। उसने अपनी पुरानी डायरी निकाली, जिसमें उन औरतों के नाम दर्ज थे जिनसे वह कभी मिलना चाहती थी। लेकिन सबसे नीचे एक नाम बार-बार कट के लिखा गया था—मीरा मिश्रा”। उसकी माँ। एक नाम, एक घाव, एक मौन जो उसके बचपन से जुड़ा था। प्राची ने कभी किसी से खुलकर नहीं बताया था, लेकिन उसकी माँ ने भी एक दिन अचानक खुद को आग लगा ली थी। सबने कहा था—डिप्रेशन था, ससुराल का तनाव था। लेकिन प्राची हमेशा मानती आई थी कि उसकी माँ की आँखों में मरने से पहले जो चीख थी, वो कुछ और थी—जैसे वो कुछ कहना चाहती थी, पर वक़्त नहीं मिला। उस रात प्राची फिर उसी सपने में लौटी। इस बार दरवाज़ा धीरे-धीरे खुला। भीतर एक धुंधली आकृति खड़ी थी—नीली साड़ी, चेहरे पर राख, पर आंखें बिलकुल वैसी जैसी माँ की थीं। उसने धीरे से कहा, “मेरे पास कोई चूड़ियाँ नहीं थीं… इसलिए मेरी आवाज़ राख में ही घुल गई।” प्राची ने कांपते हुए पूछा, “माँ… आपने क्यों…?” “क्योंकि कोई सुनता नहीं था,” वो बोली, “और मैं नहीं चाहती थी कि तू भी राख में बदले। इसलिए तुझे आवाज़ दी… तेरी कलम में मेरी चीख़ छोड़ दी।” प्राची की आंखों से आंसू बह निकले। उसने माँ की आकृति के आगे हाथ फैलाया, लेकिन वो धीरे-धीरे पीछे हटने लगी—“अब मुझे पकड़ने की नहीं, मुझे सुनाने की ज़रूरत है।” अगले दिन प्राची ने माँ की फाइल निकाली—डॉक्टर की रिपोर्ट, पुलिस की रिपोर्ट, अखबार की कटिंग्स। सब जगह लिखा था—सुसाइड”, डिप्रेशन”, डोमेस्टिक डिस्प्यूट”। पर किसी ने नहीं पूछा कि मीरा मिश्रा ने मरने से पहले आखिरी बार किससे बात की थी, या उसकी आँखों में कैसा डर था। प्राची ने तय किया—अब वो अपनी माँ की कहानी भी उस स्मारक तक ले जाएगी। जब वह स्मारक पर पहुंची, वह जगह अब तीर्थ जैसा लगने लगा था। उसने वहाँ नीली कांच की दो चूड़ियाँ रखीं—जो अब तक उसने कभी नहीं पहनी थीं। “ये तुम्हारे लिए माँ,” उसने कहा, “अब तुम भी चूड़ियों की आवाज़ बनो। अब तुम भी सुनी जाओगी।” उसी रात, स्मारक पर रखे दीपकों की लौ एक पल को नीली हो गई। और गांववालों ने बताया कि उन्होंने पहली बार एक अलग आवाज़ सुनी—न चूड़ियों की झंकार, न चीख़—बल्कि एक औरत की हँसी

चूड़ियों का उजाला

उस रात स्मारक पर गूंजती हँसी कोई डरावनी नहीं थी, बल्कि किसी ऐसे भार से मुक्ति की थी जो बरसों से आत्माओं और औरतों की साँसों पर लदा था। प्राची उस हँसी को सुनकर कुछ पल तक स्तब्ध रही। उसे लगा जैसे उसकी माँ, नीलम, और उन तमाम अनाम आत्माओं ने मिलकर पहली बार मुस्कुराने का साहस किया हो। यह सिर्फ एक कहानी का अंत नहीं था, यह उस चुप्पी का टूटना था जिसने पीढ़ियों को दबा कर रखा था। अगले दिन प्राची ने चूड़ियों की आवाज़” शीर्षक से अपनी किताब की पांडुलिपि पूरी की—यह किताब सिर्फ रिपोर्टिंग नहीं थी, बल्कि उन आवाज़ों का दस्तावेज़ थी जिन्हें कभी इंसाफ नहीं मिला, लेकिन जिन्होंने इस दुनिया को बदल दिया। उसने भूमिका में लिखा—ये कहानी नीलम की नहीं, सिर्फ मेरी माँ की नहीं, बल्कि हर उस औरत की है जिसने आँच में अपना नाम खो दिया और फिर भी राख से उठकर चीख़ बन गई।” उस किताब का विमोचन उसी स्मारक पर हुआ। ना किसी पाँच सितारा होटल में, ना किसी टीवी स्टूडियो में। वहां आम औरतें थीं, स्कूल की बच्चियाँ थीं, कुछ बुजुर्ग जिन्होंने चुप्पी ओढ़ी थी, अब गहनों की जगह चूड़ियाँ लहराकर बोल रही थीं। उसी दिन राज्य सरकार ने घोषणा की—नीलम की चौखट अब सिर्फ एक स्मारक नहीं, एक राज्यस्तरीय महिला अधिकार केंद्र बनेगा। वहां अब हर ज़िले से आई अनसुनी आवाज़ें दर्ज की जाएंगी। प्राची को उस केंद्र की प्रमुख बनाया गया। मीडिया ने इस खबर को ‘Ghost Rights Movement’ कहा, लेकिन प्राची ने मुस्कराकर बस इतना कहा—यह आत्मा की बात नहीं, आत्मसम्मान की बात है।” लेकिन एक बात अब भी रह गई थी। प्राची ने एक कोना चुपचाप उस स्मारक के पास खुद के लिए बनाया। वहाँ वो हर महीने एक नया दीपक जलाती—बिना नाम के, बिना कैमरे के। बस एक सफेद कागज रखती जिस पर एक वाक्य लिखा होता—“क्या तुमने सुना?” एक दिन, कई महीने बाद, वह अकेली उस कोने में बैठी थी, तभी एक छोटी लड़की—करीब १२ साल की—आकर उसके पास बैठ गई। उसकी चूड़ियाँ नीली थीं, लेकिन नई नहीं—थोड़ी दरकी हुई, धूल से भरी। लड़की ने पूछा, “आप वही हो ना… जिनकी माँ चुप थी?” प्राची ने सिर हिलाया। लड़की बोली, “मेरी माँ अब भी चुप है… लेकिन मैं नहीं रहूँगी।” प्राची ने उसकी आँखों में देखा, वही आग थी जो एक ज़माने में उसकी अपनी आँखों में थी। उसने लड़की को पास खींचा और कहा, “तो तुम अगली आवाज़ हो… और अगली उम्मीद भी।” उस शाम जब स्मारक पर चूड़ियाँ टनकीं, तो पहली बार एक नई धुन में… कोई बच्ची उन्हें थिरका रही थी। हवा में कोई आत्मा नहीं, कोई चीख़ नहीं… बस कुछ शब्द गूंज रहे थे—हम राख नहीं, उजाला हैं।”

समाप्त

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