Hindi - सामाजिक कहानियाँ

काँच का घर

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सुनिधि पटेल


सुबह के साढ़े छह बज रहे थे। शिवानी अपने छोटे से रसोईघर में चाय का भगौना चूल्हे पर चढ़ाकर चुपचाप खड़ी थी। स्टील की कटोरियों और कपों के टकराने की आवाज़ रसोई की दीवारों से टकराकर जैसे उसकी चुप्पी को चुनौती दे रही थी। रसोई की खिड़की से आती धूप की पतली लकीर उसके चेहरे को छूकर सरक जाती थी, लेकिन उसका चेहरा भावहीन था — न मुस्कान, न तनाव, न थकान — बस एक आदत से पैदा हुई स्थिरता। गैस पर चाय खौलने लगी तो उसने दूध की थैली फाड़ी, दो ब्रेड टोस्टर में डाले, और बाहर बैठे अपने पति रमेश को आवाज़ दी — “चाय बन गई है।” दूसरी तरफ़ कमरे से उसके ससुर श्यामलाल की खाँसी गूँजी, जैसे हर सुबह उसी क्रम से उसका संसार बंधा हुआ हो। बगल के कमरे से उसकी सातवीं कक्षा की कॉपियाँ झाँक रही थीं, जिन्हें वह कल रात ठीक से देख नहीं पाई थी। स्कूल की घंटी तो दस बजे बजेगी, लेकिन उससे पहले घर की सेवा-टहल, नाश्ता, पोछा, पति की झुंझलाहट, ससुर की शिकायत और पड़ोसन की चुगली सब कुछ निपटाना जरूरी था — क्योंकि शिवानी एक टीचर होने से पहले ‘घर की बहू’ थी।

उसने चाय की ट्रे लेकर रमेश के सामने रख दी, जो मोबाइल पर किसी शेयर मार्केट ग्रुप की चैट पढ़ रहा था, और बिना उसकी ओर देखे बोला, “आज इंटरव्यू है, प्रिंटर का पेपर निकाल देना। और अगर घर में कुछ अच्छा बनाना है तो देख लो, दोपहर में मेरे दोस्त आ सकते हैं।” शिवानी चुपचाप सिर हिला देती है। वह जानती है, रमेश के ये दोस्त कभी भी आ सकते हैं, और फिर उसकी बनाई चाय-पकोड़ी में कोई न कोई कमी निकालकर हँसी-मज़ाक का विषय भी वही बनती है। फिर भी वह हर बार पूरी मेहनत से सब कुछ करती है — शायद यह उसकी आदत बन गई है, या शायद समाज ने उसे यही सिखाया है। ससुर जी फिर खाँसते हैं — “बहू, अखबार मिल गया क्या? और चाय में अदरक डाला था ना?” शिवानी फिर मुस्कराहट ओढ़कर हाँ में सिर हिलाती है। इन सवालों में कहीं किसी ने उससे नहीं पूछा कि तुम कैसी हो? तुम्हारे सपने क्या हैं? कॉलेज के ज़माने में जो कविता की डायरी उसकी आत्मा थी, वह अब रसोई की किसी दराज़ में बन्द है — और उसका मन भी उसी के साथ। जब उसने अपनी माँ से कहा था कि वो लेखिका बनना चाहती है, माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था — “बहू बनके पहले घर संभालो, फिर दुनिया संभालना।” और उसने मान लिया था।

दिन के दस बजे शिवानी ने स्कूल का अपना साधारण बैग उठाया, जो कहीं से फट चुका था और जिसमें चॉक, रजिस्टर, और पुरानी मार्कर की गंध बसी थी। ऑटो पकड़ते समय उसे जैसे सुकून मिला — घर की चिल्ल-पों से दूर, कुछ समय अपने बच्चों के साथ बिताने का, जहाँ उसे ‘मैम’ कहकर पुकारा जाता है। कक्षा सात ‘बी’ में दाख़िल होते ही बच्चे खड़े होकर बोले — “गुड मॉर्निंग, मैम।” शिवानी ने मुस्कराकर कहा — “गुड मॉर्निंग, सिट डाउन।” आज उसने बच्चों को आत्मकथा लिखने को कहा था — “अगर आप अपने जीवन के बारे में कुछ लिखना चाहें तो क्या लिखेंगे?” क्लास में कुछ बच्चे सोच में डूब गए, कुछ ने तुरंत लिखना शुरू कर दिया। तभी नीलम, एक शांत स्वभाव की लड़की, धीरे से हाथ उठाकर बोली — “मैम, क्या एक औरत अपने लिए भी कुछ सोच सकती है?” यह सवाल सुनते ही शिवानी ठिठक गई। जैसे किसी ने उसकी आत्मा के उस कोने को छू लिया हो, जो सालों से निष्क्रिय पड़ा था। वह कुछ पल नीलम को देखती रही, फिर मुस्कराकर बोली — “हाँ नीलम, बिल्कुल सोच सकती है। पर कई बार सोचने के लिए भी हिम्मत चाहिए होती है।” उस पल में कक्षा की सारी दीवारें शिवानी को काँच की बनी हुई लगीं — पारदर्शी, पर ठोस। उसने पहली बार महसूस किया कि वह खुद भी उन काँच की दीवारों में बंद है — जिसमें सब कुछ दिखता है, पर जहाँ से बाहर निकलना लगभग असंभव होता है।

शिवानी घर लौट आई थी, लेकिन उसके मन में स्कूल का वो एक वाक्य बार-बार गूंज रहा था — “क्या एक औरत अपने लिए भी कुछ सोच सकती है?”। रसोई में सब्ज़ी काटते हुए उसका ध्यान बार-बार उसी ओर भटकता रहा। आलू की जगह उसने एक बार अदरक काटना शुरू कर दिया, फिर झेंपकर चाकू अलग रख दिया। रमेश आज देर से आया था, उसके साथ दो दोस्त भी थे — वही पुरानी बातें, वही टीवी पर हँसी-मज़ाक और वही उसकी बनाई चाय पर बेकार की टिप्पणी, “थोड़ी और चीनी होती तो बात बनती।” शिवानी मुस्कराकर सब सहती रही, लेकिन उसके भीतर कहीं कुछ फुसफुसा रहा था — जैसे उसके अंदर कोई बहुत पुराना दरवाज़ा धीरे-धीरे खुल रहा हो। रात को जब सब सो चुके थे, और घर के कोने-कोने में नींद की आवाज़ें गूंज रही थीं, तब शिवानी चुपचाप अपनी अलमारी की नीचे की दराज़ से एक पुराना कपड़े में लिपटा पैकेट निकाल लाई।

वह डायरी थी — नीले कवर वाली, जिसकी जिल्द अब हल्की सी उधड़ी हुई थी। उस पर छोटे अक्षरों में लिखा था — “शिवानी की कविताएँ।” ये वही डायरी थी जो उसने कॉलेज के दिनों में लिखा करती थी, जब वो हिन्दी साहित्य की छात्रा थी, जब उसने पहली बार मंच पर कविता पढ़ी थी — और अपनी माँ की आँखों में डर देखा था, गर्व नहीं। उसने धीरे से पहला पन्ना खोला, जहाँ लिखा था — “हर औरत के भीतर एक दरवाज़ा होता है, जो सिर्फ़ वो जानती है। कोई उसमें झाँक नहीं सकता, लेकिन उसे खुलने में पूरी ज़िंदगी लग जाती है।” शिवानी की आँखें उस वाक्य पर अटक गईं। उसने सालों बाद पहली बार खुद से मुलाक़ात की — उस शिवानी से जो लिखती थी, जो सोचती थी, जो महसूस करती थी। उसने पन्ने पलटे — वहाँ उसकी अधूरी कविताएँ थीं, समाज पर, रिश्तों पर, औरत की चुप्पी पर। एक कविता थी — “मैं हूँ, पर जैसी तुम चाहते हो / मैं दिखती हूँ, पर जैसी तुम देखते हो / मैं सोचती हूँ, पर कहना मना है…” शिवानी की आँखों में नमी भर आई। वह देर तक उस डायरी को अपने सीने से लगाए बैठी रही — जैसे कोई बिछड़ा दोस्त वापस लौट आया हो।

अगले दिन स्कूल में नीलम फिर धीरे से उसके पास आई। उसकी आँखों में वही सवाल था — अधूरा, लेकिन जीवित। शिवानी ने पहली बार नीलम के सिर पर हाथ रखा और कहा — “तुम जो सोच रही हो, वह बहुत कीमती है। उसे संभाल कर रखना। और जब दुनिया तुम्हें कहे कि तुम नहीं कर सकती, तो उसी वक़्त खुद से कहना — मैं ज़रूर करूँगी।” नीलम की आँखें चमक उठीं। कक्षा की खिड़की से आती हवा शिवानी के बालों को छू रही थी, जैसे बहुत दिनों बाद उसने खुलकर साँस ली हो। उस शाम घर लौटकर उसने पहली बार रमेश से कहा — “मुझे शाम को स्कूल के बाद एक क्लास लेनी है — साहित्य की। कुछ लड़कियाँ सीखना चाहती हैं।” रमेश ने अख़बार से नजरें नहीं हटाईं, बस सिर हिलाकर कुछ अनमना सा बोला — “देख लो, घर के काम में दिक्कत न हो।” शिवानी जानती थी, यह ‘अनुमति’ नहीं थी, लेकिन उसे अब किसी अनुमति की ज़रूरत नहीं थी। उसने उसी रात अपनी डायरी में एक नई कविता लिखी — “मैंने खुद से एक वादा किया है, कि अब मैं ख़ुद को नहीं छोड़ूँगी…”

स्कूल की छुट्टी के बाद, शिवानी अपने रजिस्टर और दो पुराने कविता-संग्रह लेकर लाइब्रेरी रूम की ओर बढ़ी, जहाँ वह पहली बार अपनी स्वयं की साहित्य-कक्षा लेने जा रही थी। कक्षा औपचारिक नहीं थी — कोई बोर्ड नहीं, कोई घंटी नहीं — सिर्फ़ चार-पाँच जिज्ञासु लड़कियाँ और एक अध्यापिका, जो अब फिर से खुद को पहचानने की राह पर थी। नीलम, रोशनी, सुषमा और तान्या — ये वे लड़कियाँ थीं जिनकी आँखों में सवाल थे, और शब्दों में सिहरती हुई आवाज़। शिवानी ने पुराने अख़बार से कवर किया हुआ ‘महादेवी वर्मा’ का संग्रह टेबल पर रखा और कहा — “कविता सिर्फ़ शब्द नहीं होती, यह आपके भीतर की आह होती है, जिसे आप बोल नहीं सकते तो लिख देते हैं।” पहली बार शिवानी का चेहरा पढ़ाने के दौरान नहीं, जीने के दौरान चमक रहा था। उसने लड़कियों को लिखा हुआ कुछ भी लाने को कहा — डायरी, कविता, कुछ भी। नीलम ने अपनी एक अधूरी कविता पढ़ी — “माँ कहती है औरत को सब सहना पड़ता है / पर मैं पूछती हूँ — क्यों?” शिवानी ने बिना कुछ कहे ताली बजाई, और बाकी लड़कियों ने उसका अनुसरण किया।

उस शाम जब वह घर लौटी तो रमेश मोबाइल पर वीडियो देख रहा था, और ससुर जी अपनी चाय के साथ टीवी पर न्यूज़ सुन रहे थे। कोई नहीं जानना चाहता था कि शिवानी कहाँ गई थी, क्या किया, किससे मिली। लेकिन इस बार उसे फर्क नहीं पड़ा। उसने खाना बनाया, चुपचाप खाया, और फिर वही पुरानी डायरी उठाकर बैठ गई। इस बार उसने एक नई कविता शुरू की — “हर बार जब मैं खुद को देखती हूँ / आईने में नहीं, कविता में / तब मैं खुद को सच्चा पाती हूँ…”। कविता पूरी नहीं हुई थी, लेकिन एक आत्मविश्वास उग आया था। रात को सासू माँ का फ़ोन आया, जिनसे महीनों बात नहीं हुई थी। वे बोलीं — “अरे बहू, मोहल्ले की बुआ कह रही थी कि तुम स्कूल में कुछ पढ़ा रही हो अलग से? तुम तो बहुत बदल गई हो!” शिवानी मुस्कराई और शांति से बोली — “हाँ माँजी, थोड़ा-थोड़ा बदल रही हूँ। शायद अब मैं वही बन रही हूँ, जो मुझे बनना था।” फ़ोन कटने के बाद वह देर तक खिड़की से बाहर देखती रही, जैसे रात की हवा भी आज उसका साथ दे रही थी।

अगले हफ्ते स्कूल में साहित्य सप्ताह मनाने की घोषणा हुई। शिक्षकों से कहा गया कि अगर कोई ‘संस्कृतिक प्रस्तुति’ हो तो उसका प्रस्ताव दें। पहले शिवानी ने चुपचाप बैठने का सोचा, लेकिन फिर कुछ भीतर से बोला — “अब नहीं, अब चुप मत रहो।” उसने प्रिंसिपल ऑफिस जाकर कहा — “मेरी कुछ छात्राएँ कविताएँ लिखती हैं। हम एक मंचीय कविता प्रस्तुति करना चाहते हैं — विषय होगा: ‘औरत की आवाज़’।” प्रिंसिपल थोड़ी हैरान हुईं, फिर बोलीं — “आप करवाइए, लेकिन वक्त पे तैयार हो जाए।” शिवानी ने सिर हिलाया, और बाहर निकलते वक्त उसकी चाल कुछ और सीधी हो गई थी। लड़कियाँ जब ये सुनकर उछलीं कि वे स्कूल प्रोग्राम में हिस्सा लेंगी, तो सबसे ज़्यादा नीलम की आँखों में चमक थी। उसने कहा — “मैम, पहली बार ऐसा लग रहा है कि मेरी आवाज़ सुनी जाएगी।” शिवानी ने उसकी पीठ पर हाथ रखा और मुस्करा कर कहा — “और ये आवाज़ अब कभी नहीं रुकेगी।”

साहित्य सप्ताह की तैयारी पूरे जोश से चल रही थी। लाइब्रेरी रूम अब एक अस्थायी रिहर्सल हॉल बन चुका था, जहाँ शिवानी और उसकी चार छात्राएँ रोज़ स्कूल खत्म होने के बाद मिलती थीं। कमरे की खामोशी में उनकी कविताएँ गूंजती थीं — कुछ अधूरी, कुछ टूटी हुई, लेकिन हर एक में एक सच की पुकार थी। शिवानी ने सबकी कविताओं को एक-एक करके जोड़ना शुरू किया, ताकि मंच पर ये एक पूरी कहानी की तरह लगे — एक ऐसी कहानी, जो हर औरत की चुप्पी के भीतर गूंज रही थी। जब नीलम बोलती — “मैं लड़की हूँ, और मैं सवाल करती हूँ…”, तो रोशनी आगे बढ़ती — “हर बार जब जवाब नहीं मिला, मैंने कविता लिखी…”, और फिर तान्या की पंक्तियाँ आतीं — “मेरी चुप्पी मेरे घर की दीवारों पर टंगी है…”। इन आवाज़ों को दिशा देने में शिवानी ने खुद को भी पाया — जैसे वह खुद को एक-एक शब्द में जोड़ रही थी, और हर शब्द में सालों से दबाई अपनी सिसकियाँ ढूंढ रही थी।

लेकिन घर में यह बदलाव धीरे-धीरे शोर पैदा करने लगा। एक रात जब रमेश घर आया, तो उसने देखा कि शिवानी की डायरी टेबल पर खुली पड़ी थी। उसने बिना अनुमति उसे उठाकर देखा — कुछ कविताएं पढ़ीं, फिर खीजकर बोला, “अब ये सब क्या है? घर पर ध्यान देने की बजाय तुम बच्चों के साथ कविता बना रही हो? तुम्हें पता भी है, पड़ोसी क्या कह रहे हैं?” शिवानी ने पहली बार पलटकर कहा — “अगर पड़ोसी मेरी आवाज़ से डरते हैं, तो शायद आवाज़ सही दिशा में जा रही है।” रमेश चौंक गया। उसने कुछ देर तक देखा, फिर गुस्से में बाहर चला गया। शिवानी की धड़कनें तेज़ थीं, लेकिन चेहरे पर पहली बार एक दृढ़ता थी। अगले दिन ससुर ने अखबार के नीचे से आँख उठाकर कहा — “बहू, रमेश कह रहा था कि तुम स्कूल में नाटक-तमाशा कर रही हो?” शिवानी ने हाथ में कप की ट्रे संभालते हुए कहा — “हाँ बाबूजी, लेकिन ये तमाशा नहीं है। ये पढ़ाई का हिस्सा है। और लड़कियाँ जब अपने बारे में लिखती हैं, बोलती हैं, तो ये भी शिक्षा होती है।” कमरे में कुछ पल की चुप्पी छाई रही, जैसे दीवारें खुद को समेट रही हों।

स्कूल में आखिरी रिहर्सल के बाद शिवानी ने लड़कियों से कहा — “मंच पर जाने से पहले एक बात याद रखना — ये सिर्फ़ प्रस्तुति नहीं है, ये तुम्हारी आवाज़ है। इसे कोई कमजोर मत समझने देना।” नीलम ने धीरे से कहा — “मैम, आप मंच पर भी हमारे साथ रहेंगी ना?” शिवानी ठिठकी। मंच — जहाँ वह कभी खड़ी थी, जहां से समाज ने उसे धकेल दिया था। फिर उसने सिर हिलाया — “हाँ, मैं रहूंगी। और इस बार मैं भी पढ़ूंगी — तुम्हारे साथ, तुम्हारी तरह।” उस शाम जब वह घर लौटी, तो भीतर एक नयी ऊर्जा थी। उसने डायरी से वह कविता निकाली जो उसने कॉलेज में पढ़ी थी, और फिर कभी दोहराई नहीं थी। कविता के आखिरी शब्द थे — “मुझे मत बताओ कि मैं क्या बन सकती हूँ, मैं खुद तय करूंगी कि मुझे क्या बनना है।”। उसने वो कविता अपने रजिस्टर में पन्ने के बीच रखा — अगले दिन मंच पर पढ़ने के लिए तैयार।

साहित्य सप्ताह का मुख्य दिन आ गया था। स्कूल का सभागार बच्चों, शिक्षकों और अभिभावकों की उपस्थिति से भरा हुआ था। मंच पर रंगीन पर्दे झूल रहे थे, कुर्सियाँ करीने से सजी थीं और सामने लगे बैनर पर लिखा था — “हम बोलते हैं क्योंकि अब चुप रहना मना है”. यह वाक्य शिवानी ने स्वयं सुझाया था, जो अब पूरे स्कूल की थीम बन चुका था। लड़कियाँ मंच के पीछे उत्साह और घबराहट के मिश्रित भावों के साथ तैयार हो रही थीं। शिवानी ने अपनी हल्की नीली साड़ी पहनी थी — वही जो उसने कॉलेज के आखिरी कवि-सम्मेलन में पहनी थी, जहाँ उसने अंतिम बार खुद के लिए लिखा था। उसके हाथ में वही पुरानी डायरी थी, और दिल में एक अजीब सी शांति — जैसे वर्षों की उलझनों को शब्दों में बदलकर वह आज पहली बार अपने लिए मंच पर खड़ी होने जा रही थी।

कार्यक्रम की शुरुआत कुछ औपचारिक भाषणों से हुई, फिर कत्थक नृत्य, फिर एक नाटक। उसके बाद अनाउंसर ने माइक से घोषणा की — “अब प्रस्तुत है विशेष कविता प्रस्तुति — ‘आवाज़ें’, जिसे निर्देशन दिया है हमारी हिंदी शिक्षिका — शिवानी मैम ने।” सभागार में एक धीमा तालियाँ का स्वर उठा, और मंच की रोशनी धीमी हो गई। फिर एक-एक करके चारों लड़कियाँ सामने आईं। नीलम ने सबसे पहले बोलना शुरू किया — उसकी आवाज़ थोड़ी कांप रही थी, लेकिन शब्द ठोस थे — “जब मैंने पहली बार सवाल पूछा, माँ ने कहा — चुप रहो। जब दूसरी बार पूछा, समाज ने कहा — शर्म करो। तीसरी बार मैंने जवाब नहीं माँगा — मैंने कविता लिखी।” तालियाँ गूंजीं। फिर रोशनी ने अपनी कविता पढ़ी — “हमने नहीं चुना था चुप्पी को, वो हमें सौंपी गई थी — दहेज की तरह।” पूरे सभागार में सन्नाटा था — शब्द जैसे दिलों पर दस्तक दे रहे थे। और अंत में, शिवानी मंच पर आई।

मंच की रोशनी अब सीधे उस पर थी। पहली बार इतने वर्षों बाद, उसने अपनी डायरी खोली और बिना हिचक के पढ़ना शुरू किया — “मुझे मत बताओ कि मैं क्या बन सकती हूँ / मैं खुद तय करूंगी कि मुझे क्या बनना है / मेरी चुप्पी एक अपराध नहीं, एक इतिहास है / जिसे मैं मिटा नहीं सकती, लेकिन दोहरा भी नहीं सकती।” एक-एक शब्द उसके गले से निकलकर जैसे उसकी आत्मा को मुक्त कर रहा था। पूरे हॉल में सन्नाटा पसरा था, फिर अचानक किसी ने ताली बजाई — फिर और लोग, और फिर पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा। शिवानी की आँखों में आँसू थे, लेकिन वह रो नहीं रही थी — वह मुस्करा रही थी, पहली बार पूरी तरह। स्टाफ़रूम में जब वह लौटी तो कुछ शिक्षिकाओं ने गले लगाकर बधाई दी, और प्रिंसिपल ने कहा — “शिवानी, आपने आज कुछ बदल दिया। हम सबके लिए।” उसी वक्त पीछे से नीलम आई, और धीमे से बोली — “मैम, आप जैसी बनना है।” शिवानी ने मुस्कराकर कहा — “मैं जैसी थी, उसे मैं भी आज पहली बार देख पाई हूँ।”

तालियों की गूंज धीरे-धीरे शिवानी के भीतर बस चुकी थी, जैसे कोई सपना उसकी हड्डियों में पिघल गया हो। स्कूल में अगले कुछ दिनों तक छात्र और शिक्षक उससे मंच पर की गई प्रस्तुति के बारे में बात करते रहे — कई लड़कियाँ उससे मिलने आईं, अपनी कविताएँ दिखाईं, तो कुछ शिक्षक जो पहले उससे दूरी बनाकर रखते थे, अब मुस्कान के साथ सराहना करने लगे। लेकिन यही बदलते रंग, घर के भीतर चुभने लगे। रमेश अब पहले से ज्यादा चुप था, लेकिन उसकी चुप्पी अब अस्वीकार की थी। एक रात जब शिवानी ने अपनी डायरी के कुछ नए पन्ने मेज़ पर रखे, रमेश ने उन्हें उठाकर बिना पढ़े फाड़ डाला। “अब यह सब बंद करो, बहुत हो गया। मोहल्ले में बातें बन रही हैं। लोग कह रहे हैं — शिवानी अब औरतों को विद्रोह सिखा रही है।” उसकी आवाज़ में गुस्से से ज़्यादा डर था — उस बदलाव का डर, जो अब उसके घर की दीवारों से टकरा रहा था। शिवानी पहली बार चीखी नहीं, बस शांत स्वर में बोली — “लोगों को आदत है चुप औरतें देखने की, जब वे बोलती हैं तो विद्रोह लगता है।” रमेश हँस पड़ा — “तुम्हें लगता है कविताओं से ज़िंदगी बदल जाती है?” शिवानी बोली — “कम से कम मेरी ज़िंदगी तो बदल ही रही है।”

अगली सुबह जब वह स्कूल जाने को तैयार हो रही थी, ससुर ने अख़बार से नज़र हटाकर कहा — “बहू, तुम्हारे नाम की शिकायत आई है शिक्षा विभाग से। कहा गया है कि तुम लड़कियों को भड़काती हो।” शिवानी को जैसे किसी ने ठंडे पानी में डुबो दिया हो। उसने पूछा — “किसने शिकायत की?” श्यामलाल ने कंधे उचकाए — “कौन करेगा? बाहर वाले ही होंगे, कुछ लोगों को औरत की आगे बढ़ती आवाज़ नहीं पचती।” शिवानी चुप रही, लेकिन उसका मन सुलग उठा। स्कूल पहुंचने पर उसे प्रिंसिपल ऑफिस बुलाया गया। वहाँ एक जिला अधिकारी पहले से मौजूद थे — औपचारिक जांच, सवाल-जवाब, और ढकी-छुपी भाषा में ये कह देना कि ‘समाज की मर्यादा’ का ख्याल रखना होगा। प्रिंसिपल ने धीमे स्वर में कहा — “शिवानी, हम आपके साथ हैं, लेकिन स्कूल की छवि भी देखनी होती है।” वह जानती थी कि समर्थन शब्दों तक सीमित है, असल में वह अब अकेली खड़ी थी — एक ऐसी जगह जहाँ उसके पाँव मजबूत थे, लेकिन ज़मीन खिसक रही थी।

रात को उसने डायरी नहीं खोली, ना कविता लिखी। वह खिड़की के पास बैठी रही — बाहर बारिश हो रही थी, लेकिन उसके भीतर कुछ सूख चुका था। तभी नीलम का मैसेज आया — “मैम, आज कविता नहीं पढ़ी गई, आपकी बहुत याद आई।” वह एकटक उस स्क्रीन को देखती रही, और फिर पहली बार उस खामोशी से डरने लगी जो पहले उसकी आदत थी। उसने सोचा — क्या यह सब छोड़ दे? क्या फिर से वही चुप शिवानी बन जाए, जो सिर्फ़ रोटियाँ सेंकती थी और सवालों को तकिए के नीचे दबाकर सो जाती थी? लेकिन फिर भीतर कहीं एक जानी-पहचानी आवाज़ गूंजी — “मैं जैसी थी, उसे मैं भी आज पहली बार देख पाई हूँ।” उसने मोबाइल का नोटपैड खोला और लिखा — “अगर आवाज़ डराने लगे, तो समझो वह ज़िंदा है। और अगर कोई उसे दबाना चाहता है, तो समझो वह ज़रूरी है।” अगले दिन वह फिर स्कूल जाएगी — इस बार किसी सफाई या सफ़र के लिए नहीं, बल्कि इस यकीन के साथ कि आवाज़ों को डरने नहीं देना है, उन्हें ज़िंदा रखना है।

शिवानी ने अपने भीतर उठती आवाज़ को फिर से थाम लिया था। शिक्षा विभाग की जाँच के बाद भी उसने स्कूल जाना बंद नहीं किया। वह जानती थी, डर को मारने का सबसे अच्छा तरीका होता है — लगातार चलते रहना। लेकिन भीतर कहीं एक कसक थी — क्या वह अब भी सिर्फ़ स्कूल की चारदीवारी में ही सीमित रह जाएगी? तभी एक दिन स्कूल के नोटिस बोर्ड पर एक पोस्टर चिपका देखा — “राज्य स्तरीय शिक्षक-कवि प्रतियोगिता: ‘नई सदी की नारी’ थीम पर कविता प्रस्तुति।” उसकी नज़रें वहीं रुक गईं। पास खड़ी इतिहास शिक्षिका ने मुस्करा कर कहा, “शिवानी, तुम्हारे लिए ही तो है यह मंच। जाओ, अपनी कविता लेकर पहुँचो।” कुछ देर के लिए वह चुप रही — जैसे कोई भूली हुई सीढियाँ याद कर रही हो। फिर धीमे से उसने कहा — “हाँ, शायद अब वक्त आ गया है।” उस शाम उसने वही पुरानी डायरी निकाली और हर वो कविता दोबारा पढ़ी, जिसे उसने समाज के डर से कभी मंच तक नहीं पहुँचाया था। उसने उन पंक्तियों को चुना जो चुप्पी से निकलती स्त्री की कहानी कहती थीं — ना सिर्फ़ दर्द, बल्कि आग की भी। उसने लिखा — “मैं दीया नहीं, चिनगारी हूँ / मुझे बुझाओगे तो भी मैं धुआँ बनकर जिंदा रहूँगी।”

राज्य स्तरीय प्रतियोगिता पटना में आयोजित होनी थी — एक बड़े सभागार में, सैकड़ों लोगों के सामने। शिवानी ने वहाँ जाने का निर्णय बिना रमेश से पूछे किया, बस सूचना दी — “मैं पटना जा रही हूँ, एक कविता प्रतियोगिता में भाग लेने। वापस आकर बताऊँगी कि क्या हुआ।” रमेश ने कुछ नहीं कहा, पर उसकी आँखों में कुछ नया था — झुंझलाहट नहीं, बल्कि अनिश्चितता। यह वही औरत थी जिसने शादी के बाद सिर्फ़ चुपचाप सेवा की थी, और अब बिना पूछे जा रही थी — कविता लेकर, आत्मविश्वास लेकर। ट्रेन में बैठते वक्त उसके मन में बार-बार वही सवाल घूम रहा था — क्या यह मेरी जगह है? क्या यह मंच मेरा है? लेकिन जब उसने मंच देखा — विशाल हॉल, प्रकाश से भरा हुआ, और एक शांत माइक — तो उसके भीतर जैसे कोई नदी बहने लगी। उसका नाम पुकारा गया — “शिवानी श्रीवास्तव, शिक्षक वर्ग, जिला भोजपुर।” उसने साड़ी की कोर ठीक की, डायरी थामी और माइक तक पहुँची।

उसकी आवाज़ धीमी थी शुरू में, लेकिन हर शब्द के साथ उसमें आत्मा उतरती गई — “मैं थाली नहीं, जिसमें भूख परोसी जाती है / मैं तालाब नहीं, जिसमें समाज अपने प्रतिबिंब देखे / मैं बहती हूँ — नियमों के विरुद्ध, पर अपनी धुन में।” एक पंक्ति आई — “औरत सिर्फ़ माँ, बहन, पत्नी नहीं होती / वह खुद भी एक पूरी कहानी होती है” — और तालियाँ गूंज उठीं। कुछ लोग चुपचाप सुनते रहे, कुछ ने आँखें पोंछीं, और कुछ — जो शायद अपने घरों की किसी शिवानी को पहचानते थे — सिर झुकाकर मुस्कराए। कविता खत्म हुई तो सन्नाटा था, फिर एक बड़ी, गरजती हुई तालियों की लहर। शिवानी खड़ी रही, जैसे वह अपने आप को फिर से देख रही हो — एक ऐसा रूप, जिसे दुनिया ने दबा दिया था, लेकिन जो अब मंच से लौटने वाला नहीं था।

पटना की प्रतियोगिता में कविता पढ़ने के दो दिन बाद ही, शिवानी की एक तस्वीर वायरल हो गई — उसके हाथ में डायरी, आँखों में आत्मविश्वास और पीछे मंच पर बड़े अक्षरों में लिखा था: “नई सदी की नारी”। कुछ स्थानीय अखबारों में छोटा-सा लेख छपा: “आरा की शिक्षिका ने मंच से पढ़ी नारी की चेतना की कविता”. कुछ लोगों के लिए यह गर्व की बात थी, तो कुछ के लिए असहनीय। स्कूल में शिक्षक साथियों ने बधाई दी, लड़कियाँ फिर से उत्साहित हो गईं, और नीलम ने तो बाकायदा एक नया पोस्टर बनाकर लाइब्रेरी रूम में चिपका दिया — “शब्दों से भी क्रांति होती है”. लेकिन घर में हालात धीरे-धीरे बदलने लगे। पड़ोस की एक महिला ने आकर ताना मारा — “बहू अब टीवी में आने लगी हैं, अब तो खाना बनाना भी छोटा काम लग रहा होगा।” रमेश देर रात तक चुप रहा, लेकिन जब शिवानी ने उससे कोई प्रतिक्रिया माँगी, तो उसने कहा — “अब बस करो। इतना काफी है। तुम अब घर से बाहर का नाम बन गई हो, लेकिन यहाँ तुम्हारा घर है। यहाँ जो नाम चलाना चाहिए, वो मेरा है — और तुम उसमें दखल दे रही हो।” यह शब्द शिवानी के भीतर किसी हथौड़े की तरह लगे — जैसे उसने किसी की सीमा पार कर ली हो।

शिवानी ने धीमे स्वर में कहा — “अगर मेरी आवाज़ से तुम्हारा नाम छोटा लगने लगा है, तो शायद तुम्हारा नाम कभी बड़ा था ही नहीं।” रमेश ने क्रोध में आकर उसका हाथ पकड़कर कहा — “तुम्हें ये सब छोड़ना होगा, वरना यह घर तुम्हारा नहीं रहेगा।” उस रात शिवानी बहुत देर तक खिड़की के पास बैठी रही — बाहर बारिश नहीं थी, लेकिन भीतर बहुत कुछ बह रहा था। उसकी डायरी उसी मेज़ पर खुली थी, और एक अधूरी पंक्ति हवा में काँप रही थी — “मैं घर नहीं, आत्मा बनाना चाहती हूँ…”। सुबह उठकर वह स्कूल गई, जैसे कुछ नहीं हुआ हो — लेकिन भीतर कुछ तय हो चुका था। प्रिंसिपल ने बताया कि शिक्षा विभाग की एक प्रतिनिधि शिवानी से मिलने आना चाहती हैं — उन्हें उसकी कविता बहुत पसंद आई है, और राज्य स्तरीय ‘नारी सशक्तिकरण अभियान’ में उसे बतौर वक्ता शामिल किया जाएगा। यह एक ऐसा आमंत्रण था, जो किसी एक महिला का नहीं, एक पूरी पीढ़ी की चुप्पियों का प्रतिनिधित्व करता था।

उस शाम, शिवानी ने पहली बार अपने ससुर के सामने डायरी खोली और बोली — “बाबूजी, आप हमेशा कहते थे कि बहू घर की इज्ज़त होती है। अगर बहू घर से बाहर जाकर इज्ज़त कमा रही हो, तो क्या वह अपमान है?” श्यामलाल ने कुछ देर उसे देखा, फिर धीमे स्वर में कहा — “बहू, मैंने तुम्हारी माँ जैसी बहू देखी थी — चुप, सीधी। तुम अलग हो। पहले डर लगता था, अब शायद समझ में आने लगा है।” रमेश उस कमरे में नहीं था। वह अब तक नहीं लौटा था। शिवानी ने उस रात डायरी में लिखा — “जब नाम चुभने लगे, तब समझो कि तुम्हारी पहचान तेज हो रही है। और जब पहचान से डर लगने लगे, तो समझो कि तुम सही रास्ते पर हो।”

राज्य स्तरीय ‘नारी सशक्तिकरण मंच’ का आयोजन पटना के ऐतिहासिक रविंद्र भवन में होना था। कई जिलों से चुनी गई महिलाएँ वहाँ अपने अनुभव, विचार और कविताओं के माध्यम से मंच साझा करने वाली थीं। शिवानी अब पहले जैसी नहीं थी — अब उसके कदम हिचकते नहीं थे, उसकी आवाज़ अब शब्दों में नहीं, आँखों में बोलती थी। मंच से पहले उसे एक मीटिंग में बुलाया गया — जहाँ आयोजकों ने विषय बताया: “परंपरा और नारी — संघर्ष और समर्पण”। शिवानी को अपनी डायरी सौंपने को कहा गया, ताकि स्क्रिप्ट पहले से स्क्रीनिंग की जा सके। उसने पन्ने बढ़ाए, तो एक आयोजक ने पूछा — “आपके पति साथ नहीं आए?” शिवानी के चेहरे पर अजीब सा सन्नाटा था, फिर वह बोली — “मैं अकेली नहीं हूँ। मेरे साथ मेरी आवाज़ है, और यह अब अकेली नहीं चलती।” सब चुप हो गए।

कार्यक्रम शुरू हुआ — रंग-बिरंगे सूती परिधानों में सजी स्त्रियाँ, कुछ घबराई हुई, कुछ निडर, और कुछ जो पहली बार मंच पर बोलने वाली थीं। शिवानी की बारी सबसे अंत में थी — आयोजकों ने उसे “मुख्य वक्ता” के रूप में प्रस्तुत किया। माइक पर पहुँचते ही उसने सभा की ओर देखा — और पहली पंक्ति में नीलम को पाया। स्कूल ने उसे शिवानी का समर्थन करने के लिए भेजा था। लेकिन ठीक उसी पंक्ति के कोने में एक चेहरा और था — रमेश। उसकी आँखें भावहीन थीं। शायद पहली बार उसने शिवानी को उस मंच पर देखा जहाँ वह खुद कभी नहीं पहुँच पाया। शिवानी ने नज़रें नहीं चुराईं, बल्कि सीधी खड़ी हुई और बोलना शुरू किया — “जब एक औरत बोलती है, तो घर की दीवारें काँपती हैं — पर घर गिरता नहीं। गिरती है वह चुप्पी, जो पीढ़ियों से लिपटी थी।”

फिर उसने अपनी कविता पढ़ी — एक नई कविता, जो पिछले कई हफ्तों की आग से गढ़ी थी:
“मैं पायल नहीं, जो सिर्फ़ सजावट हो
मैं जंजीर नहीं, जो सिर्फ़ तौल दी जाए
मैं वह दीवार हूँ, जिस पर सपनों का रंग चढ़ता है
और वह खिड़की भी, जिससे रोशनी आती है।”

तालियाँ गूंजने लगीं। लेकिन मंच के पीछे आयोजकों में कुछ हलचल थी — एक बुज़ुर्ग अतिथि ने आपत्ति जताई कि “ये भाषा विद्रोह की है, मर्यादा की नहीं।” शिवानी ने स्पष्ट कहा — “अगर मर्यादा का अर्थ चुप रहना है, तो मैं उस मर्यादा को तोड़ती हूँ।” सभा खड़ी हो गई — और शिवानी के लिए तालियाँ और शोर से भरी एक लहर उमड़ पड़ी। लेकिन जैसे-जैसे रात गहराई, चुनौतियाँ और करीब आईं। लौटने पर शिवानी को स्कूल से एक पत्र मिला — “आपकी गतिविधियाँ विभागीय मूल्यांकन के तहत रखी जाएंगी।” वही शिकायत, वही आक्षेप, फिर से उठ खड़े हुए थे — इस बार स्कूल की ‘शासन व्यवस्था’ के नाम पर। रमेश ने घर लौटकर सिर्फ़ इतना कहा — “तुम्हारा नाम अब मेरे नाम से बड़ा हो गया है, और यह मुझे स्वीकार नहीं।”

शिवानी ने कुछ नहीं कहा। उसने सिर्फ़ एक फॉर्म भरा — “स्थानांतरण अनुरोध: मुख्यालय जिला शिक्षिका, महिला विकास अनुभाग”। और अपने स्कूल के प्रधानाचार्य को सौंप दिया। जब प्रिंसिपल ने पूछा, “तुम्हें डर नहीं लग रहा?” शिवानी ने मुस्कराकर कहा — “अब सच बोलते हुए काँपती नहीं मैं। काँपते हैं वो लोग, जिन्हें मेरी आवाज़ अपनी दीवारों में गूंजती सुनाई देती है।”

१०

स्थानांतरण के बाद शिवानी ने नया स्कूल ज्वॉइन किया — पटना के ही एक सरकारी बालिका विद्यालय में, जहाँ ज़्यादातर छात्राएँ निचले तबके से थीं, लेकिन उनकी आँखों में वही सवाल थे, जो नीलम की आँखों में थे, कभी शिवानी की भी। नई जगह, नया स्टाफ़, नए बच्चे — लेकिन अब शिवानी को अपने होने के लिए किसी ‘परिचय’ की ज़रूरत नहीं थी। उसकी डायरी, उसकी आवाज़ और उसके शब्द अब खुद उसके नाम के आगे खड़े थे। शहर के कुछ सामाजिक संगठनों ने उसे आमंत्रित करना शुरू कर दिया — ‘नारी संवाद’, ‘कविता चौपाल’, ‘टीचर ट्रेनिंग’ — हर मंच पर वह अब वही थी, जो बनने के लिए वह सालों तक अंदर ही अंदर पिघलती रही थी।

एक दिन अचानक उसके पुराने स्कूल से एक पत्र आया — नीलम की चिट्ठी थी, हाथ से लिखी हुई। उसमें लिखा था:
“मैम, अब मैं भी लिखती हूँ — आपसे सीखी हुई बातों पर। घर में अभी भी विरोध होता है, लेकिन अब मैं डरती नहीं। आपकी कविता वाली वह लाइन याद रहती है — ‘अगर चुप्पी गूंगी हो, तो वह अन्याय बन जाती है।’ मैंने अब अपनी चुप्पी को शब्द दे दिए हैं।”
शिवानी ने चिट्ठी को कई बार पढ़ा, फिर उसे डायरी में चिपका दिया — उन कविताओं के पास, जहाँ उसकी पहली आवाज़ दर्ज थी।

रमेश से अब कई हफ्तों से कोई संपर्क नहीं था। एक दिन वह स्कूल आया — पहली बार बिना अहंकार, बिना क्रोध। बोला — “मैं तुम्हें रोकना चाहता था, क्योंकि मुझे लगता था कि अगर तुम उड़ोगी, तो मैं छोटा पड़ जाऊँगा। लेकिन अब समझा हूँ — किसी को उड़ते देखना खुद को नीचा नहीं करता, अगर हम उड़ना सीख लें।” शिवानी ने उसकी ओर देखा — वर्षों से जमी बर्फ़ के नीचे कुछ पिघला था, पर शिवानी अब किसी के लौट आने की प्रतीक्षा में नहीं थी। वह मुस्कराई और बोली — “मैं अब किसी नाम से नहीं, अपने शब्दों से जानी जाती हूँ। अगर तुम मेरे साथ चल सको, तो चलो। वरना मैं अब रुकूंगी नहीं।”

स्कूल के वार्षिकोत्सव में शिवानी को ‘विशेष अतिथि’ के रूप में बुलाया गया — उसने वहाँ मंच से जो आखिरी कविता पढ़ी, वही थी जो उसने वर्षों पहले डायरी के पहले पन्ने पर लिखी थी:
“हर औरत के भीतर एक दरवाज़ा होता है,
जो सिर्फ़ वो जानती है।
कोई उसमें झाँक नहीं सकता,
लेकिन उसे खुलने में पूरी ज़िंदगी लग जाती है।”

तालियाँ नहीं, इस बार सन्नाटा गूंजा — वह सन्नाटा जो सम्मान से भरपूर था, जो समाज के भीतर एक नई समझ का उदय था।

उस रात जब वह घर लौटी, तो खिड़की के पास बैठी और डायरी बंद कर दी — पहली बार ऐसा लग रहा था कि उसके भीतर की यात्रा पूरी हुई है। अब कोई दरवाज़ा नहीं बचा था — सब कुछ खुला था, हवा की तरह।

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