Hindi - प्रेम कहानियाँ

उस रात जब चाँद मुस्कुराया

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वेदिका शर्मा


बमुश्किल शाम के साढ़े सात बजे होंगे जब आयरा सेन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुँची। प्लेटफॉर्म पर हलचल थी, लेकिन वह खुद किसी दूसरी लय में थी—धीमी, शांत और थोड़ी खोई हुई। पीठ पर कैमरा बैग और हाथ में एक काले रंग की डायरी थामे वो आगे बढ़ रही थी, जैसे किसी दृश्य को नहीं, बल्कि किसी याद को पकड़ना चाहती हो। उसकी ट्रेन—काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस—रात 8:00 बजे रवाना होने वाली थी। वह S3 कोच तक पहुँची और अपनी खिड़की वाली सीट पर बैठ गई। खिड़की का शीशा टूटा हुआ था, लेकिन उसे कोई शिकायत नहीं थी। बल्कि उसे वो टूटी खिड़की और बाहर से आती ठंडी हवा बहुत भली लग रही थी। बाहर रात उतरने लगी थी, हल्का चाँद निकल आया था और प्लेटफॉर्म की हल्की नारंगी रौशनी उस चाँदनी में घुलती जा रही थी। आयरा के अंदर भी कुछ हल्का-सा घुल रहा था—एक अधूरी बात, एक टूटा रिश्ता, और खुद से मिलने की बेचैनी। वह अभी हाल ही में एक गंभीर रिश्ते से बाहर निकली थी। उसने उस रिश्ते में बहुत कुछ दिया था—समय, सपने, कविताएँ और खुद का एक हिस्सा। लेकिन आखिर में जो बचा, वह था सन्नाटा। शायद इसलिए यह यात्रा—अकेली, अनियोजित, लेकिन ज़रूरी—उसकी अपनी आत्मा को फिर से पन्नों पर उतारने की एक कोशिश थी।

ट्रेन धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म से खिसकने लगी। आयरा ने खिड़की से बाहर देखा—लोग दूर होते जा रहे थे, स्टेशन की रौशनी पीछे छूट रही थी। तभी अचानक सामने की सीट पर कोई आकर बैठा। उसने चुपचाप एक बैग ऊपर रखा, जैकेट उतारी, और अपनी सीट पर बैठकर किताब खोल ली। आयरा ने एक झलक में देखा—गहरी भूरी आँखें, हल्की दाढ़ी, और हाथ में टैगोर की ‘गीतांजलि’। उसकी उपस्थिति से डिब्बे में एक अजीब-सी शांति फैल गई थी। कोई शब्द नहीं बोले गए, लेकिन हवा में कुछ बदलाव आ गया था। आयरा ने सिर झुका लिया और अपनी डायरी खोली। वो उसमें कोई पुरानी कविता पढ़ रही थी जब सामने वाले ने हल्की मुस्कान के साथ आँखें उठाईं, और कुछ सेकेंड के लिए दोनों की नज़रें मिलीं। कुछ कहा नहीं गया, लेकिन जैसे कोई संवाद हो चुका था—अनकहा, अस्पष्ट, पर गहरा। वो फिर अपनी किताब में खो गया, और आयरा ने खिड़की से बाहर चाँद को देखा, जो अब और साफ नज़र आ रहा था। ये वही चाँद था जो उसने कई बार देखा था—रातों में, अकेलेपन में, सिसकियों में। लेकिन आज वो कुछ अलग लग रहा था। शायद इसलिए कि कोई अनजाना उसे उस चाँद की रोशनी में देख रहा था, बिना कोई सवाल किए।

घंटे बीतते गए। ट्रेन अब उत्तर प्रदेश की सीमाओं की ओर बढ़ रही थी, बाहर खेतों की काली लकीरें गुजर रही थीं। डिब्बे में अधिकतर यात्री सो चुके थे, लेकिन आयरा की नींद कोसों दूर थी। उसके अंदर कुछ हिल रहा था—पुराने सपनों की राख में नई चिंगारियाँ। सामने बैठा व्यक्ति अब भी पढ़ रहा था, लेकिन उसकी आँखें अब शब्दों पर नहीं, विचारों में उलझी हुई लग रही थीं। अचानक उसने किताब बंद की, और खिड़की की ओर देखा। फिर जैसे खुद से बुदबुदाया, “कुछ रातें सिर्फ देखने के लिए होती हैं, जीने के लिए नहीं।” आयरा ने पहली बार बात की, “या शायद…कुछ रातें होती हैं भूलने के लिए।” वो थोड़ा चौंका, फिर मुस्कुराया। “मुमकिन है,” उसने कहा। आवाज़ गहरी थी, थोड़ी थकी हुई, लेकिन ईमानदार। वो मुस्कुराहटों की नहीं, अनुभवों की आवाज़ थी। दोनों फिर चुप हो गए, पर अब चुप्पी में अजनबीपन नहीं था। बस ट्रेन की गति थी, चाँद की ठंडी रोशनी थी, और दो अनजान दिल—जो एक अधूरी रात में, टूटे हुए खिड़की से झांकती उम्मीद में, एक-दूसरे की ओर धीरे-धीरे खिंच रहे थे। शायद यही तो था उस रात का जादू, जब चाँद मुस्कुराया—बिना शोर के, बिना वादा किए।

रात और गहरी हो चुकी थी। ट्रेन अब शहरी कोलाहल को पीछे छोड़ देहातों की गोद में सरक रही थी। बाहर कभी-कभी बिजली के खंभे झपकते हुए गुजर जाते, फिर सब कुछ काले कैनवास में डूब जाता। डिब्बे की बत्तियाँ मंद थीं, और ज़्यादातर यात्री गहरी नींद में। पर आयरा की आँखें अब भी खुली थीं—जैसे किसी संगीत की प्रतीक्षा में। सामने बैठा वह अजनबी—जिसके चेहरे पर ठहराव था, और आँखों में कोई धूल जमा सपना—अब किताब से बाहर निकल कर चुपचाप खिड़की के पास बैठा था। उसने एक बार फिर आयरा की ओर देखा, लेकिन अब उसकी नज़र में जिज्ञासा नहीं, सहज स्वीकृति थी। जैसे कोई समझ चुका हो कि सामने वाला कोई हल्का पड़ाव नहीं, एक पूरा आकाश है। आयरा ने भी उसे देखा, लेकिन बिना किसी बनावटीपन के। वो कुछ पल चुप रहे, फिर उसने अपनी डायरी खोली और एक कविता की कुछ पंक्तियाँ बुदबुदाई—“हर सफर में एक अजनबी ऐसा मिलता है, जिससे बिछड़ने का डर सबसे ज़्यादा होता है।” विक्रांत—उसका नाम उसने अभी तक नहीं जाना था—थोड़ा मुस्कुराया, जैसे वो पंक्तियाँ उसके लिए लिखी गई हों। उसकी आँखें आयरा पर ठहर गईं, और दोनों की चुप्पियाँ एक अनकहा संवाद बनकर बहने लगीं।

कुछ देर बाद चाय वाला डिब्बे में आया। दोनों ने एक साथ “एक कप चाय” कहा, और फिर मुस्कराहटों में एक पल की साझेदारी हो गई। कागज़ के गिलासों में भाप उठ रही थी, और बाहर हवा अब ठंडी हो चली थी। विक्रांत ने किताब बंद कर दी, और पहली बार उसकी आवाज़ आयरा के कानों में साफ-साफ पड़ी। “तुम कविताएँ लिखती हो?” उसने पूछा। आयरा ने सिर हिलाया—न ‘हाँ’ में, न ‘ना’ में—बस एक गहराई में डूबा हुआ इशारा। “मैं बस खुद को समझने की कोशिश करती हूँ,” उसने कहा। विक्रांत ने सिर झुकाया, “खुद को समझने का सबसे ईमानदार तरीका है खुद से बात करना… और शायद दूसरों से नहीं।” दोनों हँसे, बहुत हल्के से। ऐसा लगा जैसे एक दरवाज़ा खुल गया हो—कोई ऐसा कमरा जिसमें दोनों कभी गए नहीं थे, लेकिन जिसकी दीवारें जानी-पहचानी सी थीं। वो किताबों की बात करने लगे—आयरा ने “मिर्ज़ा ग़ालिब” की पंक्तियाँ सुनाईं, तो विक्रांत ने “अल्बेयर कामू” की सोच को साझा किया। रात अब सिर्फ समय नहीं रही थी, वो एक पुल बन चुकी थी—दो व्यक्तित्वों के बीच, दो कहानियों के बीच।

ट्रेन धीमी हो रही थी, शायद कोई छोटा स्टेशन आने वाला था। बाहर अंधेरे में दूर कहीं गाँव की बत्तियाँ झिलमिल कर रही थीं। आयरा ने पहली बार उस अजनबी से पूछा, “क्या तुम्हें सफर पसंद है?” उसने जवाब में कहा, “मंज़िलें कभी रोचक नहीं होतीं, रास्तों में ही सारा जादू छिपा होता है।” उसके शब्दों में एक गहराई थी, जो किसी किताब की तरह पढ़ी नहीं जा सकती थी, महसूस की जाती थी। आयरा को उसकी आवाज़ अब अच्छी लगने लगी थी—शांत, स्थिर, और थोड़ी-सी टूटी हुई। शायद टूटी आवाज़ों में ही सबसे ज्यादा सच्चाई होती है। विक्रांत ने फिर एक बात कही जो सीधी उसके दिल तक पहुँची, “कुछ लोग ज़िंदगी में देर से मिलते हैं, पर जब मिलते हैं, तो समय के मायने बदल जाते हैं।” आयरा ने चुपचाप उस बात को अपनी डायरी में लिख लिया—किसी याद की तरह, जो कभी नहीं मिटनी थी। स्टेशन आ चुका था, लेकिन दोनों वहीं बैठे रहे, चुपचाप, जैसे डर हो कि कोई हिलने से यह जादू टूट जाएगा। ट्रेन फिर से चल पड़ी, और खिड़की के उस पार चाँद अब थोड़ा और साफ़ नज़र आने लगा था। वो मुस्कुरा रहा था—शायद इसलिए नहीं कि दो लोग मिल रहे थे, बल्कि इसलिए कि दो आत्माएँ एक ही मौन भाषा में बोल रही थीं।

ट्रेन अब रात के गाढ़े सन्नाटे में सरकती चली जा रही थी। खिड़की से आती हवा में अब शीत की चुभन थी, और भीतर दो यात्रियों के बीच धीरे-धीरे गरम होती एक अनकही बातचीत। आयरा अब तक जान चुकी थी कि उस अजनबी के भीतर एक गहरा समुंदर छिपा है—ऐसा समुंदर जो शांत है, लेकिन भावनाओं से लबालब। उसने अब तक उसका नाम नहीं पूछा था, पर नाम की ज़रूरत महसूस नहीं हो रही थी। बातचीत अब किताबों से निकल कर जीवन की पगडंडियों तक पहुँच चुकी थी। आयरा ने अपनी डायरी उसे दी और कहा, “इसे पढ़ना चाहो तो पढ़ सकते हो।” वह थोड़ी झिझकी, लेकिन उसकी आँखों में ईमानदारी थी। उसने धीरे से डायरी के कुछ पन्ने पलटे, और एक जगह रुक गया। वहाँ एक कविता थी—“मैंने तुम्हें पाया है नींद के उस कोने में, जहाँ सपने भी डर कर नहीं आते।” उसने पढ़ा, फिर डायरी बंद कर दी। “ये लिखा नहीं गया… ये जिया गया है,” उसने धीरे से कहा, जैसे किसी राज़ को छू लिया हो। दोनों फिर कुछ देर चुप रहे, लेकिन वो चुप्पी अब बोझिल नहीं थी—वो थी दो आत्माओं की वो संगत, जो शब्दों के बिना भी समझ जाती है।

विक्रांत—अब आयरा को उसका नाम भी जानना जरूरी लगा। “तुम्हारा नाम?” उसने पूछा। उसने मुस्कराते हुए जवाब दिया, “विक्रांत मेहरा।” कुछ परिचित-सा लगा आयरा को यह नाम, जैसे कोई पुराना किरदार किसी अधूरी कहानी से बाहर निकल आया हो। चाय वाला फिर से डिब्बे में आया—उसकी थाली में स्टील के छोटे गिलास खनक रहे थे। दोनों ने फिर एक साथ “एक कप चाय” कहा और इस बार मुस्कराहट थोड़ी लंबी ठहरी। विक्रांत ने गिलास को हाथ में लेकर कहा, “चाय… कुछ रिश्तों की शुरुआत इससे बेहतर कुछ नहीं।” उन्होंने अपनी चाय धीरे-धीरे पीते हुए मौसम, शहरों और उन किताबों की बात की जिनके किरदार ज़िंदगी से भी ज़्यादा सच्चे लगते हैं। आयरा ने कहा उसे “वर्जीनिया वुल्फ़” और “महादेवी वर्मा” बेहद पसंद हैं, क्योंकि उनकी लेखनी में अकेलापन फूल बनकर खिलता है। विक्रांत ने बात बढ़ाई—“मुझे वो किरदार पसंद हैं जो अधूरे हैं… क्योंकि अधूरे लोग ही पूरी कहानियाँ बनते हैं।” चाय की भाप उनके हाथों से उठकर हवा में घुल रही थी, और बीच-बीच में ट्रेन की सीटी इस सन्नाटे को संगीत जैसा बना रही थी। दोनों अब आमने-सामने नहीं, एक साथ बैठे थे—जैसे किसी किताब के दो पन्ने जो अलग-अलग हों, पर एक ही अध्याय कहें।

आधी रात बीत चुकी थी, लेकिन नींद किसी के भी पास नहीं थी। विक्रांत ने बैग से एक पुराना कविता संग्रह निकाला—“गुलज़ार की नज़्में”—और एक पन्ना खोलकर पढ़ना शुरू किया। उसकी आवाज़ में कुछ ऐसा था, जो कविता से ज़्यादा एक अनुभव बन जाती थी—“रात चुप है, मगर नींद कहां आती है… तेरी याद है, जो हर करवट पे सवाल करती है।” आयरा उसे सुनते-सुनते कहीं और चली गई—शायद अपने उस बीते प्यार की गलियों में, जहां न लौटना चाहती थी, न ही पूरी तरह भूलना। उसने अपनी नज़रों को उससे चुराया नहीं, बल्कि और गहराई से देखा—जैसे उस कविता के हर शब्द में विक्रांत की अपनी कहानी भी छिपी हो। “तुमने कभी किसी से कुछ अधूरा छोड़ कर जाना चाहा है?” उसने पूछा। विक्रांत ने एक लंबी साँस ली और कहा, “हाँ, लेकिन कभी कोई अधूरा नहीं छूटता… वो कहीं न कहीं हमारे साथ चलता रहता है।” आयरा ने अपनी डायरी फिर से खोली और कुछ पंक्तियाँ लिखीं, इस बार विक्रांत को सामने रखते हुए—“तुम जैसे लोग, रातों में मिलते हैं… चाय के साथ, कविता के नीचे, और खामोश मुस्कान के भीतर।” ट्रेन उस वक्त कहीं थी, कोई स्टेशन शायद अभी नहीं आया था, पर दोनों जान चुके थे—ये सफर बस बाहरी नहीं, भीतर भी हो रहा है।

खिड़की के बाहर अब रात अपनी सबसे गहरी चादर ओढ़ चुकी थी। खेतों, पेड़ों और बिजली के खंभों की आकृतियाँ बस धुंधली परछाइयों जैसी दिख रही थीं—जैसे अतीत की कुछ यादें, जिनसे दूर तो भागा जा सकता है, पर पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। ट्रेन की लय एक धीमा साज़ बन गई थी, और उसकी धुन में डूबे दो अजनबी अब एक-दूसरे को अजनबी नहीं मानते थे। आयरा ने चुपचाप अपनी डायरी के पन्नों को उलटते हुए एक पुरानी कविता निकाली—वह कविता जो उसने अपने पिछले रिश्ते के खत्म होने के बाद लिखी थी। “कभी-कभी हम किसी को इतना चाह लेते हैं कि खुद को ही खो देते हैं,” वह बुदबुदाई। विक्रांत ने उसकी ओर देखा, लेकिन कुछ नहीं कहा। चुप रहकर सुनना, शायद यही उसकी सबसे बड़ी खूबी थी। आयरा ने धीरे से कहा, “मैं उससे तब दूर हुई जब उसने कहा कि मेरी खामोशी बोझ है। पर क्या खामोशी बोझ होती है?” उसकी आँखें भर आई थीं, पर उसने पलकें नहीं झुकाईं। विक्रांत कुछ देर सोचता रहा, फिर धीरे से बोला, “जो लोग खामोशी की भाषा नहीं समझते, वो सबसे ऊँची आवाज़ में भी सिर्फ शोर सुनते हैं।” वह बात आयरा के भीतर कहीं उतर गई—जैसे किसी पुरानी गाँठ पर ठंडा स्पर्श रख दिया गया हो।

विक्रांत ने पहली बार खुद के बारे में कुछ कहा, जो उसके लहजे में अब तक छिपा रहा था। “मैंने भी किसी को खोया है… नहीं, सही कहूँ तो, मैंने खुद को ही कहीं पीछे छोड़ दिया है,” वह मुस्कराने की कोशिश करता है, लेकिन उसकी मुस्कान अधूरी रह जाती है। उसने बताया कि उसका रिश्ता दो साल चला—साहित्य से जुड़ी एक लड़की, जिसे ज़िंदगी बहुत तेज़ चाहिए थी, जबकि विक्रांत को ठहराव भाता था। “मैं उसे समझना चाहता था, लेकिन मैं उसके लिए एक किताब बन गया, जिसे वो सिर्फ़ पढ़ना चाहती थी, महसूस नहीं।” आयरा ने उसके हाथों की उंगलियाँ देखीं—थोड़ी थकी हुई, लेकिन भीतर से मजबूत। वो सोचने लगी कि हम जिन लोगों को चुनते हैं, क्या वो वाकई हमें चुनते हैं या सिर्फ हमारे भीतर के अकेलेपन को भरने के लिए आते हैं? ट्रेन उस पल किसी छोटे पुल को पार कर रही थी, नीचे कोई सूखी नदी बहती थी—जैसे उनके भीतर भी कुछ समय से सूखा पड़ा हो, और अब यह मुलाकात एक धीमी बूँद बनकर उस सूखे पर गिर रही हो। अतीत की परछाइयाँ अब भी उनके साथ चल रही थीं, लेकिन इस क्षण में, वो परछाइयाँ कम भयानक लगने लगी थीं—क्योंकि अब वो अकेले नहीं थीं।

सन्नाटा फिर से कुछ देर के लिए उनके बीच आ बैठा—वो सन्नाटा जो असहज नहीं था, बल्कि गहराई वाला था। विक्रांत ने अपनी किताब फिर से खोली, लेकिन पढ़ नहीं पाया। आयरा ने उसकी ओर देखा और कहा, “हम दोनों शायद अधूरे हैं… लेकिन क्या दो अधूरे लोग मिलकर एक पूरा पल बना सकते हैं?” विक्रांत ने धीरे से जवाब दिया, “पल पूरे हो सकते हैं, लोग नहीं… लेकिन कभी-कभी पल ही काफ़ी होते हैं।” उसने जेब से एक पुराना पोस्टकार्ड निकाला—जिस पर बस एक चाय के कप की तस्वीर थी, और लिखा था: “कभी मिलो, तो सिर्फ बातों के लिए।” आयरा ने पूछा, “ये किसने भेजा?” उसने जवाब नहीं दिया, बस मुस्कराया। बाहर चाँद अब पूरी तरह खिड़की में उतर आया था—जैसे वो गवाह हो उस रात की, जो अधूरी कहानियों को अपने उजाले में थामे हुए थी। ट्रेन अब कहीं पास के स्टेशन की ओर बढ़ रही थी, और उस स्टेशन की तरह ही दोनों के भीतर भी कुछ ठहराव आ रहा था। अतीत की परछाइयाँ अभी भी थीं, लेकिन इस बार उनके पीछे खड़े दो लोग थे, जो उन्हें बस अंधेरे में गुम होते हुए देख रहे थे—बिना डर के, बिना अफ़सोस के।

स्टेशन गुजर चुका था और ट्रेन अब फिर से गति में थी, लेकिन डिब्बे के भीतर समय थम-सा गया था। बाहर आसमान अब एकदम साफ था, चाँद अपनी पूरी उजास में खिड़की से अंदर झाँक रहा था—जैसे वो दोनों की बातचीत का मूक साक्षी हो। आयरा अब खिड़की के पास बैठी थी, और विक्रांत उसकी बाईं ओर, पास लेकिन स्पर्श से दूर। उन्होंने अब तक एक-दूसरे को नहीं छुआ था, लेकिन उनके बीच जो संवाद हुआ था, वह किसी भी स्पर्श से अधिक अंतरंग था। विक्रांत की उंगलियाँ किताब के पन्नों से दूर थीं और अब डायरी के एक खाली पन्ने पर कुछ लिखने में व्यस्त थीं। आयरा ने झाँककर देखा, लेकिन उसने पन्ना तुरंत पलट दिया। “अब आपकी बारी है,” उसने कहा, और डायरी उसकी ओर बढ़ा दी। आयरा ने मुस्कराते हुए कलम पकड़ी, लेकिन लिख नहीं पाई। वह बाहर चाँद को देखने लगी—उसका गोल, चमकता चेहरा उस सफर की तरह था जो अंजान था, लेकिन अपनापन लिए हुए। “क्या चाँद भी मुस्कराता है?” उसने धीरे से पूछा, जैसे खुद से ही। विक्रांत ने कहा, “जब दो अजनबी दिल से बात करें, तो चाँद मुस्कराता है… और ये देखो, आज वो तुम्हारे लिए ही तो चमक रहा है।”

वो रात अब सिर्फ रात नहीं रही थी—वो एक कहानी बन रही थी, जिसे दोनों बिना कहे लिख रहे थे। विक्रांत ने अपनी आवाज़ में एक नई कविता पढ़नी शुरू की—उसकी खुद की लिखी हुई, जिसमें शब्द नहीं, भाव बहते थे। “तुम जब आई, तो खामोशी भी बोलने लगी… और चाँद ने सीखा, मुस्कराना क्या होता है।” आयरा उसकी ओर देखती रही, और वो कविता उसके भीतर उतरती रही, जैसे किसी बहुत पुराने ज़ख्म पर कोई शीतल मरहम। दोनों को अब एक-दूसरे की ज़रूरत नहीं थी, बल्कि एक-दूसरे की उपस्थिति में खुद को पहचानने की क्षमता मिल रही थी। वो क्षण—जिसमें कोई वादा नहीं था, कोई नाम नहीं माँगा गया, कोई भविष्य नहीं माँगा गया—बस एक अब था, जो पूरी तरह से उनका था। आयरा ने चुपचाप उसकी डायरी पर कुछ पंक्तियाँ जोड़ीं—“ये जो चाँद है, आज इसका चेहरा वैसा है जैसा तुम्हारा… शांत, उजला, और बस देखने भर से मन भर जाए।” विक्रांत ने वो पंक्तियाँ पढ़ीं, फिर अपनी आँखें बंद कर लीं। कभी-कभी शब्द नहीं, मौन भी थाम लेते हैं दिल की धड़कनें।

ट्रेन की सीटी फिर से गूँजी—इस बार थोड़ी दूर तक गूंजती रही। रात का समय था, लेकिन उस डिब्बे में उजाले जैसा कुछ था। शायद वो उजाला भीतर से आ रहा था—दो लोगों की आँखों से, जो अब अजनबी नहीं थे, और न ही पूरी तरह जानकार। एक अलग किस्म की पहचान बन चुकी थी, जिसमें नाम गौण था और अनुभव प्रधान। आयरा ने पहली बार अपने कंधे को उसके कंधे के पास आने दिया—न जाने अनजाने में या बस यूँ ही। विक्रांत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन उसकी साँसों की लय हल्की सी बदल गई। बाहर चाँद अब ट्रेन के साथ-साथ चलता प्रतीत हो रहा था—जैसे वो नहीं चाहता था कि ये रात कभी खत्म हो। दोनों ने चुपचाप खिड़की से बाहर देखा, और उस खामोश मुस्कान को साझा किया जो शब्दों से परे थी। ये वो मुस्कान थी जो सिर्फ एक रात के लिए थी, लेकिन शायद पूरी उम्र की स्मृति बन जाने वाली थी—क्योंकि कुछ रातें वाकई चाँद के मुस्कराने के लिए ही लिखी जाती हैं।

रात अब अपने सबसे गहरे रंग में थी। खिड़की के बाहर सब कुछ धुंधला, धीमा और मौन था—जैसे पूरी दुनिया किसी गहन निद्रा में चली गई हो, लेकिन इस डिब्बे में एक जागती हुई ऊर्जा थी, जिसे समझा नहीं जा सकता था, केवल महसूस किया जा सकता था। आयरा और विक्रांत अब दोनों खिड़की की ओर देख रहे थे, जैसे बाहर की चाँदनी उनके भीतर के अंधेरे को छू रही हो। कोई कुछ नहीं कह रहा था, फिर भी हर पल शब्दों से भरा हुआ लग रहा था। विक्रांत ने धीरे से कहा, “तुम्हें कभी ऐसा लगा है कि तुम किसी अजनबी से वो सब कह सकते हो जो अपने सबसे करीब वालों से भी नहीं कह पाए?” आयरा ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखें अब बिल्कुल शांत थीं—जैसे कोई तूफ़ान थककर बैठ गया हो। उसने कहा, “हाँ, अभी… इस वक्त।” उनके बीच की दूरी अब सिर्फ सीट की नहीं रही थी—वो दोनों भावनाओं की उस पटरी पर थे, जहाँ न कोई समय की परवाह होती है, न मंज़िल की। ट्रेन सरकती रही, लेकिन उनकी दुनिया अब स्थिर थी।

कुछ ही देर बाद आयरा ने धीरे-धीरे अपनी हथेली विक्रांत की हथेली के पास सरकाई। कोई जल्दबाज़ी नहीं थी, कोई नाटकीयता नहीं—बस एक धीमा, सच्चा और मौन स्पर्श। विक्रांत ने उसकी उंगलियों को धीरे से छू लिया, जैसे वो किसी पुरानी याद को थाम रहा हो—नाज़ुक, लेकिन भरोसे से भरी हुई। बाहर आसमान अब भी वही था, पर अब चाँद ने अपना उजाला उनके भीतर उतार दिया था। आयरा ने अपनी आँखें बंद कर लीं और धीमे स्वर में कहा, “मैं चाहती हूँ कि ये रात कभी खत्म न हो।” विक्रांत ने जवाब नहीं दिया, बस उसकी उंगलियाँ और मजबूती से थाम लीं—जैसे कह रहा हो, “मैं भी यही चाहता हूँ।” उनके बीच का मौन अब डरावना नहीं था, बल्कि ऐसा जैसे कोई गहरी नदी हो, जिसमें दोनों तैरना जानते थे। उस पल में, किसी परिचय की ज़रूरत नहीं थी, किसी भविष्य की चिंता नहीं थी—बस एक अहसास था, एक साथ साँस लेने का, एक साथ चुप रहने का, और सबसे ज़रूरी… एक साथ महसूस करने का।

डिब्बे में अब कोई और आवाज़ नहीं थी—सिर्फ ट्रेन की धीमी लय और उनके भीतर की धड़कनों का संगीत। विक्रांत ने फिर से डायरी उठाई, और कुछ पंक्तियाँ लिखीं—फिर डायरी को आयरा की ओर सरका दिया। पंक्तियाँ थीं: “हम शायद फिर कभी न मिलें, पर इस रात ने मुझे कुछ ऐसा दे दिया है जिसे मैं उम्र भर अपनी नींद के सिरहाने रखूँगा।” आयरा की आँखों में नमी थी, लेकिन मुस्कान गहरी थी—जैसे वो जानती थी कि ये क्षण हमेशा के लिए रहेगा, भले ही आगे का रास्ता अलग हो। विक्रांत ने कहा, “कभी-कभी दो लोग मिलते हैं सिर्फ एक रात के लिए… लेकिन उस एक रात में पूरी ज़िंदगी की तसल्ली छुपी होती है।” बाहर चाँद अब थोड़ा ढलने लगा था, जैसे समझ गया हो कि उसने अपना काम पूरा कर लिया है। दोनों एक-दूसरे की आँखों में डूबे रहे, न पास आने की ज़रूरत थी, न कुछ कहने की। उनकी खामोशी ही उनका सबसे सुंदर संवाद थी—और उसी खामोशी में रात की गहराई से दिल की नज़दीकी पूरी हो चुकी थी।

ट्रेन अब एक सुनसान, छोटे से स्टेशन पर धीरे-धीरे रुक रही थी। बाहर कोई शोर नहीं था, न भीड़, न ऊहापोह—बस एक टूटा-सा प्लेटफॉर्म, जंग लगे साइनबोर्ड पर लिखा नाम, और एक पीली बल्ब की रोशनी जो किसी पुराने समय की तरह कांपती खड़ी थी। विक्रांत और आयरा अब तक उस मौन में डूब चुके थे, जहाँ शब्दों की कोई जगह नहीं थी—सिर्फ भाव, साँसें, और वो चुपचाप बहती समझ। आयरा ने कहा, “चलो, कुछ देर प्लेटफॉर्म पर चलते हैं।” विक्रांत ने कुछ नहीं पूछा—बस खड़ा हुआ, और उसके साथ बाहर उतर आया। ट्रेन रुक चुकी थी, लेकिन उनकी चाल में अब भी गति थी—मन की गति, जो किसी स्टेशन पर नहीं रुकती। बाहर हल्की ठंडक थी, हवा में कुछ पुराना-सापनापन, और दूर कहीं एक पुरानी हिंदी फ़िल्म का गाना धीमे स्वर में बह रहा था—“वो शाम कुछ अजीब थी…” दोनों सुनते-सुनते मुस्कराए, फिर एक साथ बोल पड़े—“ये गाना तो जैसे आज की रात के लिए ही बना है।”

प्लेटफॉर्म पर चलना वैसा ही लग रहा था, जैसे ज़िंदगी की किसी भूली हुई गली में लौट आना। वो दोनों साथ-साथ चल रहे थे, कदम ताल मिलाते हुए—बिना कुछ तय किए, बिना कुछ माँगे। अचानक आयरा एक पुराने बेंच के पास रुक गई। विक्रांत ने उसकी ओर देखा—उसकी आँखों में चाँद की उजास थी, और होंठों पर वही चुप मुस्कान। “कभी सोचा था, एक रात… एक अजनबी… और ये सब?” उसने पूछा। विक्रांत ने सिर हिलाया, “नहीं, लेकिन शायद यही तो ज़िंदगी है—जो कभी सोची नहीं जाती, वही सबसे ज़्यादा जी जाती है।” वे दोनों वहीं बैठ गए—वो बेंच अब किसी स्टेशन का नहीं, एक कहानी का हिस्सा बन चुका था। विक्रांत ने जेब से एक छोटा-सा नोट निकाला—सालों पुराना, मुड़ा हुआ, जैसे कोई भूली हुई चिट्ठी। उसने वो आयरा को थमाया—उसमें सिर्फ एक लाइन लिखी थी: “अगर फिर कभी किसी मोड़ पर मिलो, तो एक चाय पी लेंगे साथ।” आयरा ने वो पंक्ति पढ़ी, और उसकी आँखें भर आईं—क्योंकि शायद उसने भी अपने भीतर कुछ ऐसा ही संभाल कर रखा था, बिना शब्दों के।

ट्रेन ने हॉर्न दिया—धीमा, लंबा और गूंजता हुआ। वे दोनों खामोश खड़े हो गए, जैसे ये आवाज़ उन्हें वापस समय की ओर खींच रही हो। फिर बिना किसी हड़बड़ी के डिब्बे की ओर लौटने लगे—लेकिन अब वो पहले जैसे यात्री नहीं थे। लौटते समय, उनके बीच कोई स्पर्श नहीं था, फिर भी वो सबसे गहरा जुड़ाव था जो दो इंसानों के बीच हो सकता है। डिब्बे में वापस लौटकर उन्होंने अपनी-अपनी जगह ली, पर अब वो जगहें परिभाषित नहीं थीं—वो बस एक पल के हिस्से बन गई थीं। चाँद अब धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था—मानो उसे भी जाना हो, लेकिन जाते-जाते वह उन दोनों पर अपनी चुप उजास छोड़ जाना चाहता था। ट्रेन फिर चल पड़ी—स्टेशन पीछे छूट गया, लेकिन उस स्टेशन पर बीता वो कुछ मिनटों का ठहराव उनके भीतर हमेशा के लिए बस चुका था। विक्रांत ने अंतिम बार आयरा की ओर देखा—गहरी, स्थिर नज़र से—और वो दोनों जान गए कि कुछ जगहें कभी नहीं छूटतीं… जैसे कुछ स्टेशन ऐसे होते हैं जहाँ भले ही ट्रेन ना रुके, पर दिल ज़रूर ठहर जाता है।

रात अब अपनी अंतिम सांसे ले रही थी। खिड़की के पार अंधेरा उतना घना नहीं था जितना कुछ घंटे पहले था—दूर पूरब में एक बेहद हल्का नीला रंग फैलने लगा था, जैसे आसमान धीरे-धीरे जागने लगा हो। लेकिन ट्रेन के भीतर, खासकर उस डिब्बे में, समय अब भी थमा हुआ था। विक्रांत और आयरा अब बहुत देर से एक-दूसरे को देख नहीं रहे थे, न ही कुछ बोल रहे थे। दोनों को पता था कि जो कुछ कहा जाना था, वो रात के साथ कह दिया गया। अब जो बचा था, वो था विदा का इंतज़ार—वो पल जो हमेशा सबसे ज़्यादा चुभता है, क्योंकि वह बिना कुछ कहे भी बहुत कुछ छीन लेता है। आयरा अब खिड़की से बाहर देखने लगी थी—जैसे वो आसमान के नीले होते रंगों में अपने मन की उलझनें बिखेर देना चाहती हो। विक्रांत अपने बैग को धीरे से ठीक कर रहा था, लेकिन उसकी उंगलियों की गति बता रही थी कि मन अभी तैयार नहीं है।

“हमने कुछ भी तय तो नहीं किया,” आयरा ने अचानक कहा—नज़रें खिड़की पर टिकी थीं, लेकिन आवाज़ सीधी विक्रांत की आत्मा तक पहुँची। उसने पलटकर उसकी ओर देखा, और एक छोटी सी मुस्कान दी—थोड़ी थकी, थोड़ी संकोच में डूबी। “कुछ बातें तय नहीं होतीं… बस घट जाती हैं। और जो घट जाए, वो कभी खोता नहीं,” उसने धीरे से कहा। दोनों फिर चुप हो गए, जैसे ये जानकर कि कोई भी जवाब अब शब्दों से नहीं आएगा। आयरा ने अपनी डायरी से एक पन्ना फाड़ा और विक्रांत की ओर बढ़ाया—उस पर बस एक वाक्य लिखा था: “तुम्हारा होना, मेरी सबसे सुंदर कविता बन गया है।” विक्रांत ने वो पन्ना हाथ में लिया, बहुत देर तक उसे देखा, फिर बिना कोई प्रतिक्रिया दिए, उसे अपने किताब के बीच रख दिया—जैसे कोई प्रेमपत्र, जो कभी खुलेगा नहीं, लेकिन हमेशा साथ रहेगा। उस क्षण में दोनों जानते थे—यह सिर्फ एक मुलाकात नहीं थी, यह एक भावनात्मक अध्याय था जो उम्र भर दो आत्माओं के बीच अनकहा जुड़ा रहेगा।

ट्रेन अब अंतिम स्टॉप की ओर बढ़ रही थी। सूरज की हल्की किरणें अब खिड़की से छनकर अंदर आने लगी थीं—बाहर की हवा बदल चुकी थी, जैसे शहर की रफ़्तार सांसों में उतरने लगी हो। आयरा ने अब अपने बाल पीछे बाँध लिए थे, चेहरा शांत था—जैसे वह खुद को भीतर से समेट चुकी हो। विक्रांत ने सीट से उठते हुए अपनी किताब, डायरी, और चाय के दो खाली गिलासों को देखा—वो चाय जो कभी साथ शुरू हुई थी, अब सिर्फ यादों में रह गई थी। स्टेशन के नाम की घोषणा हुई, और धीरे-धीरे ट्रेन की रफ़्तार कम होने लगी। बाहर अब भीड़ थी, आवाज़ें थीं, पर उन दोनों के भीतर सिर्फ एक मौन था—गहरा, सुंदर, और कभी न टूटने वाला। जब ट्रेन रुकी, तो विक्रांत ने बिना कुछ कहे अपना बैग उठाया, और एक आखिरी बार आयरा की ओर देखा। आयरा ने मुस्कुरा कर सिर हिलाया—जैसे कह रही हो, “जाओ, लेकिन मेरी कविताओं में रह जाना।” विक्रांत ने कुछ कदम आगे बढ़ाए, फिर रुका, और कहा, “अगर कभी फिर से कोई टूटी खिड़की वाली सीट मिले, तो समझ लेना… शायद मैं पास ही बैठा हूँ।” और फिर वो भीड़ में गुम हो गया—लेकिन उस खामोशी में, वो सुबह से पहले की खामोशी में, कुछ ऐसा रह गया था जो किसी सुबह की चकाचौंध भी मिटा नहीं सकती थी।

स्टेशन की भीड़ धीरे-धीरे चारों ओर फैलने लगी थी, लेकिन आयरा वहीं सीट पर बैठी रही—उसी टूटी खिड़की के पास, उसी उजाले में, जो अब चाँद की नहीं, सूरज की देन थी। बाहर विक्रांत जा चुका था, मगर उसके जाने के बाद जो बचा था, वो न खालीपन था, न दुःख—बल्कि एक अजीब-सी मिठास, एक गुनगुनी सी याद, जैसे किसी गर्म चाय के आखिरी घूंट की तरह। आयरा ने खिड़की से बाहर देखा—लोग अपने गंतव्यों की ओर दौड़ रहे थे, स्टेशन का शोर ज़िंदगी की लय में बदल चुका था, और उसकी आँखों में सिर्फ एक रात की तस्वीर थी—वो टूटी खिड़की, वो किताबें, वो मौन बातचीत, और वो मुस्कराता चाँद। वो अब जानती थी कि कुछ रिश्ते हमें पूरे नहीं करते, लेकिन हमें नया कुछ लिखने की ताकत ज़रूर दे जाते हैं। उसने अपने बैग से डायरी निकाली, और आखिरी पन्ने पर एक पंक्ति लिखी: “कुछ रातें, सुबह की शुरुआत नहीं होतीं… वो बस एक एहसास बनकर जीती हैं।” फिर उसने गहराई से साँस ली, सीट से उठी, और धीमे-धीमे ट्रेन से बाहर निकल गई—बिना पीछे देखे।

स्टेशन से बाहर निकलते ही ठंडी हवा ने उसके चेहरे को छुआ, जैसे उसे फिर से ज़िंदा होने का एहसास दिला रही हो। उसने देखा, सामने प्लेटफॉर्म पर एक चायवाला खड़ा था—बिलकुल वैसा ही, जैसे ट्रेन में था। शायद कोई और रहा हो, या शायद वही—लेकिन वो कप, वो भाप, वो गंध… सब वैसी ही थी। उसने बिना सोचे एक चाय ली, और पास की बेंच पर बैठकर धीरे-धीरे पीने लगी। उस हर घूंट में विक्रांत की आवाज़ थी, उसकी किताबों की महक, और उसकी वो आँखें जिनमें रात गहराई से बसती थी। आयरा ने महसूस किया कि वो कोई अधूरा प्रेम नहीं था—वो एक पूरा अनुभव था, जो शायद हमेशा अधूरा ही रहना था। उसने चाय का आखिरी घूंट लिया और खाली कप को बहुत ध्यान से देखा, जैसे उसमें किसी कविता की अंतिम पंक्ति दर्ज हो। वहाँ कुछ नहीं लिखा था, लेकिन आयरा ने महसूस किया—उस कप की दीवारों पर विक्रांत की बातों की परछाई आज भी टिकी थी। वो उठी, कप को वहीं रखा, और एक आखिरी बार आसमान की ओर देखा—अब चाँद नहीं था, लेकिन उसकी मुस्कान अब भी बाकी थी।

स्टेशन से बाहर निकलते वक्त उसने सोचा, क्या कभी फिर मिलेंगे? क्या कभी वो फिर किसी टूटी खिड़की के पास बैठेगा, किताब में खोया हुआ, और वो फिर सामने की सीट पर होगी—डायरी लेकर? हो सकता है नहीं… और हो सकता है, बहुत संभव। लेकिन जो निश्चित था, वो ये कि उस एक रात ने उसे फिर से जीवित कर दिया था—उसकी कलम को, उसकी सोच को, उसकी संवेदना को। आयरा ने फिर एक नई डायरी खरीदी—उसके कवर पर कुछ नहीं लिखा था, लेकिन पहले पन्ने पर उसने वही पंक्ति दोहराई: “उस रात जब चाँद मुस्कुराया…”। वो जानती थी, ज़िंदगी में कई और लोग आएँगे, कई और स्टेशन रुकेंगे, कई और यात्राएँ होंगी—पर वो एक रात, वो एक कप चाय, वो टूटी खिड़की, और वो अजनबी… हमेशा उसकी आत्मा के सबसे शांत कोने में जिंदा रहेंगे। जैसे कोई कविता जो अधूरी नहीं होती—बस हर बार नए अर्थ में जीती है।

वक़्त बीत गया। उस रात की मुलाकात अब महीनों पुरानी बात हो चुकी थी। लेकिन आयरा की ज़िंदगी में वो रात किसी बीते कल जैसी नहीं थी, बल्कि किसी जीवित स्मृति की तरह हर दिन उसके भीतर साँस लेती रही। उसने फिर से लिखना शुरू किया—और इस बार सिर्फ खुद के लिए नहीं, बल्कि उस “एक रात” के लिए, जिसने उसकी चेतना को छू लिया था। वो डायरी अब पूरी हो चुकी थी, और उसमें हर पन्ने पर विक्रांत की कोई न कोई झलक थी—कभी उसकी आँखों की खामोशी, कभी उसके शब्दों की गर्माहट, कभी बस एक टूटी खिड़की की छाया। वह अब जान चुकी थी कि कुछ मुलाक़ातें जीवन में ठहरने नहीं आतीं, बल्कि हमें चलना सिखाने आती हैं। हर बार जब वह चाय बनाती, दो कप रखती, और फिर मुस्कराकर एक कप वापस रख देती—जैसे जानती हो, वो अदृश्य साथी कहीं आसपास ज़रूर है। और जब भी चाँद आसमान में झलकता, वो थोड़ा झुककर पूछती—“क्या आज भी तुम मुस्कुरा रहे हो?” और उसका दिल हल्का-सा धड़क उठता।

इधर, किसी दूसरे शहर में, किसी दूसरी सर्द रात में, विक्रांत भी बदल चुका था। वो अब उतना चुप नहीं रहा था, लेकिन उसकी बातें अब भी धीमी और सधी हुई थीं। वह भी अक्सर ट्रेन के सफर करता, और हर बार टूटी खिड़की वाली सीट तलाशता—कभी-कभी मिल जाती, कभी नहीं। उसकी किताबों के बीच अब एक छोटा कागज़ दबा रहता था—वही जो आयरा ने उसे दिया था: “तुम्हारा होना, मेरी सबसे सुंदर कविता बन गया है।” वो पंक्तियाँ उसे हमेशा याद दिलाती थीं कि भावनाएँ समय की गुलाम नहीं होतीं। उसने उस रात की डायरी भी पूरी की—लेकिन उसका अंतिम पृष्ठ खाली छोड़ा, जैसे मानता हो कि कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई है। वो जानता था, अगर कभी दोबारा मुलाकात हुई, तो उस पन्ने पर सिर्फ एक पंक्ति लिखेगा। और तब तक, वो उस सफर को जीता रहेगा—जिसमें कोई गंतव्य नहीं, बस स्मृति की पगडंडियाँ थीं। वो अक्सर अपनी आँखें बंद कर आयरा की आवाज़ सुनने की कोशिश करता, और जब कभी कोई चाय की भाप उसकी उंगलियों को छूती, वह उसी रात में लौट जाता—बिना टिकट, बिना स्टेशन।

एक साल बाद, एक शाम, किसी पुस्तक मेले में, आयरा अपनी नई किताब “उस रात जब चाँद मुस्कुराया” के कवर के पास बैठी थी। उसके हाथ में वही टूटी खिड़की की तस्वीर वाली डायरी थी, और पास ही दो कप चाय। लोग उसकी किताब को पढ़ रहे थे, हस्ताक्षर ले रहे थे—पर उसका ध्यान बार-बार भीड़ के उस पार जा रहा था। तभी एक परिचित-सी आवाज़ आई, “क्या ये सीट खाली है?” उसने चौंक कर देखा—वो वहीं था। विक्रांत। वही मुस्कराहट, वही आँखे, और हाथ में गुलज़ार की वही किताब। कोई आँसू नहीं थे, कोई नाटकीय दृश्य नहीं—बस दो कप चाय, दो थकी मुस्कुराहटें, और बीच में वो चाँद, जो आज दिन में भी जैसे चमक रहा था। विक्रांत ने डायरी खोली और उसके अंतिम पृष्ठ पर एक पंक्ति लिखी: “कभी अगर फिर मिले तो… वही चाय, वही खामोशी, और वही चाँद साथ हो।” आयरा ने सिर झुकाया और कहा, “आज सब कुछ फिर से पूरा हो गया।” और शायद यही था उस कहानी का असली अंत—या शायद एक नई शुरुआत, उसी टूटी खिड़की के पार।

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