समीर त्रिपाठी
भाग 1: एक लाश, एक सवाल
बारिश की बूंदें जैसे अदालत की खिड़कियों से टकरा रही थीं, वैसी ही बेचैनी आज सत्र न्यायाधीश आरव मल्होत्रा के चेहरे पर थी। कोर्ट रूम नंबर ३ में उस दिन एक ऐसा मामला पेश हुआ था जो पिछले चार महीने से पूरे शहर में चर्चा का विषय बना हुआ था — ‘पारुल मर्डर केस’। पारुल वर्मा, 28 वर्ष की स्वतंत्र पत्रकार, जिसकी लाश पुराने पुल के नीचे मिली थी, चेहरे पर ज़ख़्म, गर्दन पर खरोंचें और हाथ में एक टूटी हुई रबर बैंड।
अभियुक्त था — अर्णव चोपड़ा, पारुल का पूर्व प्रेमी, एक प्रतिष्ठित वकील का बेटा, और अब खुद एक आपराधिक कानून का छात्र। पुलिस का दावा था कि पारुल और अर्णव के बीच दो दिन पहले तीखी बहस हुई थी, और उसी रात पारुल लापता हो गई थी।
“मिलॉर्ड,” सरकारी वकील प्रतिभा सिंह ने कहा, “यह केवल प्रेम प्रसंग का अंत नहीं था, यह एक योजनाबद्ध हत्या थी। अभियुक्त ने पारुल के फोन कॉल्स को ट्रेस किया, उसका पीछा किया, और जब उसने सच्चाई उजागर करने की धमकी दी, तो उसे खत्म कर दिया।”
वकील प्रतिभा की आवाज़ तेज़ थी, लेकिन उसकी आँखों में एक गहरी पीड़ा छुपी थी। अदालत में बैठे लोग कुछ पन्ने पलट रहे थे, कुछ मोबाइल चेक कर रहे थे, लेकिन न्यायाधीश आरव सिर्फ एक ही चीज़ पर केंद्रित थे — अर्णव चोपड़ा की आँखें।
अर्णव शांत खड़ा था, जैसे उसे अपने भाग्य पर कोई यकीन न हो। उसके वकील, प्रशांत मिश्रा, एक अनुभवी और चतुर आदमी थे, जिन्होंने अब तक पचास से अधिक हाई-प्रोफाइल केस जीते थे।
“मिलॉर्ड,” प्रशांत बोले, “मेरे मुवक्किल के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है। मोबाइल लोकेशन सामान्य है, हथियार गायब है, गवाह कोई नहीं। सिर्फ अटकलें और अनुमान।”
न्यायाधीश ने इशारा किया, “मामला सुनवाई के लिए उपयुक्त है। अभियोजन और बचाव पक्ष दोनों को साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाती है। अगली सुनवाई सोमवार को होगी।”
बाहर बारिश तेज हो गई थी। पत्रकार रिया बख्शी कोर्ट से बाहर आते ही अपने कैमरा मैन को इशारा करती है — “रिकॉर्ड ऑन करो। आज से हम बताएंगे ‘कौन है पारुल का हत्यारा?’”
दूर किसी कैफे में, एक बूढ़ा आदमी अख़बार की पुरानी कटिंग देख रहा था। उसपर लिखा था — “पत्रकार पारुल वर्मा: खुलासों की रानी।” और नीचे एक फोटो — पारुल की मुस्कान, जिसमें कहीं कोई दर्द छुपा था।
रात को जब अर्णव जेल की कोठरी में बंद था, तो उसने एक नोटबुक निकाली — उसमें कुछ पन्ने थे, जो पारुल ने कभी उसे दिए थे। आखिरी पन्ने पर एक कविता थी:
“शब्दों से कहीं तेज़ चलती है चुप्पी की चीख़,
जिसे सुनना हो, वो कान नहीं, दिल से सुने।”
अर्णव की आंखों में आंसू नहीं थे, लेकिन उसकी उंगलियां कांप रही थीं।
“क्या तुम सच में निर्दोष हो?” खुद से पूछा, और फिर किसी अदृश्य दीवार से कहा —
“अगर मैं दोषी नहीं हूँ, तो असली कातिल कौन है?”
तभी जेलर ने दरवाज़ा खोला — “कल तुम्हारा क्रॉस एग्ज़ामिनेशन है। सोच लो, कुछ छुपा रहे हो तो सबके सामने आ जाएगा।”
अर्णव ने कोई जवाब नहीं दिया। वो जानता था, कोर्ट रूम में सिर्फ कानून नहीं चलता, वहां इंसान की नीयत की परछाई भी तौल दी जाती है।
रात के एक बज रहे थे। बाहर बारिश थम गई थी, लेकिन केस की उलझनें अब शुरू होने वाली थीं।
भाग 2: सबूतों की सीढ़ियाँ
कोर्ट रूम नंबर ३ में आज सुबह से ही हलचल थी। पत्रकार, कैमरा क्रू, पुलिस अधिकारी और आम दर्शक — सबकी निगाहें एक ही चीज़ पर टिकी थीं: क्या आज कुछ नया सामने आएगा? न्यायाधीश आरव मल्होत्रा समय से दस मिनट पहले पहुंच चुके थे। उनकी आंखों में नींद की कमी थी लेकिन चेहरे पर वही सख्त संतुलन।
जैसे ही अर्णव चोपड़ा को पुलिस की निगरानी में कोर्ट रूम में लाया गया, कुछ फुसफुसाहटें उठीं। आज उसकी शक्ल पहले से भी ज़्यादा थकी हुई लग रही थी। उसके बाल बिखरे थे, आंखों के नीचे गहरे काले घेरे, और होंठ सूखे। लेकिन जैसे ही वह वकील प्रशांत मिश्रा के पास बैठा, उसने हल्का सिर हिलाकर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई।
“सरकारी वकील साहिबा, आज आप किन साक्ष्यों के साथ शुरू करना चाहती हैं?” न्यायाधीश ने पूछा।
“मिलॉर्ड,” प्रतिभा सिंह उठीं, “हम सबसे पहले फॉरेंसिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना चाहेंगे। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, मृतिका की मृत्यु गला दबाने से हुई है। मौत की समय-सीमा रात 11 से 12 के बीच की है, और दिलचस्प बात ये है कि अर्णव चोपड़ा का मोबाइल लोकेशन उस समय घटनास्थल से केवल 400 मीटर दूर था।”
प्रशांत मिश्रा तुरंत खड़े हुए, “मिलॉर्ड, 400 मीटर कोई सबूत नहीं होता कि वो वहां मौजूद था। हमारे पास यह साबित करने के लिए कैफे की बिल है, जहां अर्णव उस रात अपने मित्रों के साथ डिनर पर था।”
“हम वो बिल कोर्ट में प्रस्तुत कर चुके हैं, लेकिन एक गवाह की गवाही बाकी है,” प्रतिभा बोलीं। “और आज हम वो गवाह पेश करेंगे।”
न्यायाधीश ने सिर हिलाया।
काठी की खटखट के साथ कोर्ट रूम में प्रवेश किया एक नई गवाह — नाम: वैशाली मेहरा, उम्र 31, कैफे में वेट्रेस।
उसने हल्की कांपती आवाज़ में कहना शुरू किया, “जी, मैं 14 मई की रात को रात्रि ड्यूटी पर थी। अर्णव चोपड़ा, उनके साथ दो और लोग आए थे। उन्होंने 9:30 बजे ऑर्डर दिया, 10:15 तक बैठे, फिर चले गए। लेकिन 11 बजे के बाद अर्णव अकेले वापस आए।”
“क्या?” प्रशांत चौंके।
“हां सर। उन्होंने कहा कि मोबाइल चार्जर भूल गए हैं। पर अंदर काफी देर तक रुके। 11:45 बजे तक वो अकेले कैफे में बैठे रहे।”
प्रतिभा सिंह मुस्कराईं। “तो क्या आप ये कह सकती हैं कि उस समय वो घटनास्थल से बाहर नहीं थे?”
“सर,” वैशाली ने कहा, “कैफे और पुल के बीच एक संकरी गली है। अगर कोई 10 मिनट के लिए भी निकले और वापस आए, तो किसी को पता नहीं चलेगा।”
अदालत में सन्नाटा छा गया।
प्रशांत मिश्रा ने तुरंत क्रॉस एग्ज़ामिनेशन शुरू किया। “मिस वैशाली, क्या आपके पास CCTV फुटेज है जो ये सब साबित करे?”
“नहीं सर। उस दिन CCTV खराब था। रिपोर्ट भी पुलिस को दी थी।”
“तो आप सिर्फ अपनी स्मृति पर निर्भर हैं?” प्रशांत ने तंज कसा।
“हां सर,” वैशाली ने साहस के साथ कहा।
“क्या आपने पहले कभी अर्णव चोपड़ा को देखा था?”
“जी हां, कई बार। पारुल दीदी के साथ भी आते थे।”
“और क्या आपने उन्हें कभी झगड़ते देखा था?”
वो रुकी, फिर बोली, “एक बार… हां। पारुल दीदी ने उन्हें जोर से कुछ कहा था। शायद ‘तुम मुझे रोक नहीं सकते’ जैसा कुछ।”
अदालत में एक और लहर दौड़ गई।
प्रशांत मिश्रा ने देखा, अर्णव के माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं।
जैसे ही गवाही खत्म हुई, न्यायाधीश ने अगली तारीख घोषित की — “कल अभियोजन पक्ष एक और गवाह पेश करेगा — मृतिका की बहन, पायल वर्मा।”
बाहर निकलते वक्त रिया बख्शी ने अपना कैमरा ऑन किया। “आज का दिन था चौंकाने वाला। एक गवाह ने अर्णव की वापसी को साबित किया, लेकिन CCTV नहीं था। सवाल वही — क्या यही आदमी पारुल का हत्यारा है?”
दूसरी तरफ, अर्णव की कोठरी में उस रात एक नई बेचैनी थी। उसने जेल के एक कोने में बैठे कैदी महेश से पूछा, “कभी किसी ने तुम्हें गलत समझा है?”
महेश हंसा, “यहाँ हर कोई कहता है ‘मैं बेगुनाह हूँ’। क्या तुम भी वही कहानी सुनाना चाहते हो?”
“नहीं,” अर्णव फुसफुसाया, “मैं सच में नहीं जानता कि उस रात क्या हुआ था… मुझे बस इतना याद है कि मैं गुस्से में था। बहुत गुस्से में।”
महेश ने सिर झुकाया। “गुस्सा आदमी से सब कुछ करवा सकता है… यहां तक कि उसे भूल भी जाती है कि उसने क्या किया।”
अर्णव की आंखें अब खुली की खुली रह गईं। क्या ये संभव है? क्या उसने…?
कहीं दूर, पायल वर्मा अपने घर में पारुल की डायरी के पन्ने पलट रही थी। आखिरी पन्ने पर लिखा था —
“सच सबको नहीं चाहिए, क्योंकि सच में वो चेहरा दिखता है जो हम खुद से भी छुपाते हैं।”
अगले दिन कोर्ट में क्या होगा, ये कोई नहीं जानता था। लेकिन एक बात तय थी — न्याय की आख़िरी दस्तक अब ज़ोर से गूंजने लगी थी।
भाग 3: डायरी के पन्नों से
अगली सुबह कोर्ट रूम में जैसे कोई अदृश्य घड़ी उलटी दिशा में चल रही थी। सब कुछ धीमा लग रहा था—कागज़ों की सरसराहट, टाइपराइटर की टक-टक, गवाहों के आने-जाने की आवाज़ें। लेकिन लोगों की निगाहें तेज़ थीं, और दिलों की धड़कनें तेज़।
अदालत में आज सबसे महत्वपूर्ण गवाह आने वाली थी—पारुल की छोटी बहन, पायल वर्मा। जैसे ही वह गवाही के लिए खड़ी हुई, पूरा कोर्ट रूम एकदम चुप हो गया। वह बेहद शांत, लेकिन दृढ़ता से चलती हुई गवाही के डब्बे तक पहुंची। उसके हाथ में एक पुरानी डायरी थी—नीली जिल्द वाली, किनारों से थोड़ी घिसी हुई।
जज आरव मल्होत्रा ने नज़रों से इशारा किया।
सरकारी वकील प्रतिभा सिंह ने बोलना शुरू किया, “मिलॉर्ड, हम पायल वर्मा को बतौर गवाह प्रस्तुत करते हैं। ये न केवल मृतिका की बहन हैं, बल्कि उनके सबसे नज़दीकी व्यक्ति भी। इनके पास कुछ निजी दस्तावेज़ हैं जो इस केस में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।”
“पायल जी,” प्रतिभा ने पूछा, “क्या आपको अपनी बहन के किसी ऐसे डर, किसी दुश्मन या ऐसी चीज़ के बारे में जानकारी थी जो उन्हें परेशान कर रही हो?”
पायल ने हल्के से सिर हिलाया, फिर गहरी सांस लेकर बोली, “जी हां। पारुल दीदी पिछले कुछ महीनों से बहुत बेचैन थीं। उन्होंने कई बार कहा था कि वो एक बड़ा खुलासा करने जा रही हैं। उन्होंने कहा था कि यह किसी का ‘चेहरा बेनकाब’ कर देगा।”
“क्या उन्होंने बताया था कि किसके बारे में?”
पायल ने डायरी खोली। “उन्होंने नाम नहीं लिखा था, लेकिन इशारे ज़रूर थे।”
उसने पढ़ना शुरू किया —
“अगर कोई तुम्हें प्यार करे, लेकिन तुम्हारी आज़ादी से नफरत करे, तो वो प्यार नहीं, कैद है। मैं बहुत जल्द उसका सच बाहर लाऊंगी। फिर चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े।”
पूरा कोर्ट रूम सिहर उठा।
प्रतिभा ने फिर पूछा, “क्या पारुल और अर्णव का रिश्ता ऐसा था?”
पायल ने चुपचाप कहा, “हां। उन्होंने ब्रेकअप के बाद भी उसे फोन पर कई बार धमकी दी थी। उसने उनके हर कदम पर नजर रखना शुरू कर दिया था। एक बार तो दीदी ने पुलिस में शिकायत दर्ज करानी चाही, लेकिन…”
“लेकिन क्या?”
“अर्णव के पिता बहुत बड़े वकील हैं। दीदी ने कहा, कोई मानेगा नहीं। उल्टा उन्हें ही दोषी बना देंगे।”
अब बचाव पक्ष के वकील प्रशांत मिश्रा उठे। “मिस पायल, क्या ये डायरी की लिखावट पारुल की ही है?”
“जी हां।”
“आप ये कैसे कह सकती हैं?”
“वो हमेशा मुझे चिट्ठियां लिखा करती थीं। उनकी लिखावट मुझे पहचानने में कभी गलती नहीं हो सकती।”
प्रशांत मुस्कराए। “आप भावनात्मक रूप से जुड़ी हैं, इसका असर आपकी निष्पक्षता पर हो सकता है। क्या आप जानती हैं कि अर्णव और पारुल का ब्रेकअप आपसी सहमति से हुआ था?”
“शुरुआत में, हां। लेकिन बाद में दीदी ने कहा था कि वो पीछा कर रहा है।”
“क्या आपने कभी देखा?”
“नहीं। लेकिन सुना ज़रूर था।”
“तो आप ‘सुनी-सुनाई’ बातों पर आधारित गवाही दे रही हैं?”
पायल कुछ पल के लिए चुप रही। फिर डायरी का एक और पन्ना खोला —
“मुझे लगता है, वो मुझे देख रहा है… हर मोड़ पर, हर छत से, हर सिग्नल पर। जैसे मेरी परछाई बन गया हो। अगर कुछ हो जाए, तो इस डायरी को सुरक्षित रखना। शायद ये किसी और लड़की को बचा सके।”
इस बार पूरा कोर्ट रूम सन्नाटे में डूब गया।
जज आरव ने डायरी को देखने के लिए मंगवाया। उन्होंने हर शब्द ध्यान से पढ़ा, और फिर अभियोजन व बचाव पक्ष से कहा, “इस डायरी को केस के मुख्य सबूत के रूप में दर्ज किया जाएगा। साथ ही, लेखनी की फॉरेंसिक जाँच भी कराई जाएगी।”
उसके बाद न्यायाधीश ने कोर्ट स्थगित कर दिया।
बाहर बारिश की फुहार फिर से शुरू हो चुकी थी। पायल सीढ़ियों पर बैठी थी, और रिया बख्शी उसके पास आकर बोली, “तुम बहुत साहसी हो।”
पायल मुस्कराई नहीं। “मैं बस ये चाहती हूँ कि मेरी बहन को न्याय मिले। और अगर कोई और लड़की ऐसे रिश्ते में फंसी हो, तो उसे डर से आज़ादी मिले।”
दूसरी ओर, जेल की कोठरी में अर्णव फिर उसी नोटबुक के पन्ने पलट रहा था। उसने खुद से कहा, “क्या ये सच में सब मेरी वजह से हुआ? क्या मेरा प्यार इतना ज़हरीला था कि उसने उसे खत्म कर दिया?”
महेश, उसके साथ की कोठरी से बोला, “सवाल यही नहीं कि तूने मारा या नहीं… सवाल ये है कि तू क्या उस हालात को वहाँ तक ले गया?”
अर्णव की उंगलियां उस नोटबुक के पन्नों पर कांपने लगीं।
इसी बीच, प्रशांत मिश्रा अपने चैंबर में बैठे कुछ पुराने केस फाइल्स देख रहे थे। एक पन्ने पर अचानक उनकी नज़र अटक गई — 2018 में अर्णव के खिलाफ एक शिकायत दर्ज हुई थी — मानसिक प्रताड़ना का आरोप। लेकिन शिकायत बाद में वापस ले ली गई थी।
उन्होंने बुदबुदाया, “ये तो केस की दिशा ही बदल सकती है…”
अगले दिन कोर्ट में क्या होगा, कोई नहीं जानता था। लेकिन अब लगने लगा था कि यह केस सिर्फ एक मर्डर केस नहीं, बल्कि एक औरत की आवाज़ बन चुका है — जो मरकर भी बोल रही थी, पन्नों से, गवाही से, और हर उस लड़की की तरफ से जो चुप रही थी।
भाग 4: अदालत की तर्जनी
कोर्ट रूम नंबर ३ की घड़ी की सुइयाँ जैसे रुक गई थीं, लेकिन अंदर समय की नब्ज़ तेज़ी से चल रही थी। पारुल की डायरी ने पूरे मामले की तस्वीर ही बदल दी थी। जज आरव मल्होत्रा की दृष्टि अब और भी गंभीर हो गई थी। सामने जो फैला था, वो अब केवल हत्या नहीं, बल्कि रिश्तों, ईगो, और नियंत्रण की जटिल गाँठें थीं।
अगली सुबह, जैसे ही कार्यवाही शुरू हुई, सरकारी वकील प्रतिभा सिंह ने कहा, “मिलॉर्ड, आज हम एक और गवाह को पेश करना चाहते हैं—प्रिया राठी, पारुल की करीबी मित्र और सहकर्मी।”
दरवाज़ा खुला और एक तीखी नज़रों वाली युवती कोर्ट में प्रवेश करती है। कंधे पर बैग, हाथ में एक पुराना नोटपैड, और चेहरे पर एक अजीब तरह का संयम।
“नाम?”
“प्रिया राठी।”
“आप पारुल वर्मा को कब से जानती हैं?”
“चार साल से। हम एक साथ एक न्यूज़ पोर्टल में काम करते थे। बाद में पारुल ने फ्रीलांस करना शुरू किया, लेकिन हम संपर्क में बने रहे।”
“क्या आप उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ जानती हैं?”
“हां। उन्होंने अर्णव से ब्रेकअप के बाद भी उसे लेकर बहुत डर महसूस करना शुरू कर दिया था। कई बार उन्होंने कहा था कि अर्णव उनकी ज़िन्दगी पर नज़र रखता है—उनके सोशल मीडिया पोस्ट, कॉल्स, और लोकेशन तक।”
“क्या उन्होंने कभी आपको कोई साक्ष्य दिखाया?”
प्रिया ने अपना नोटपैड खोला। “ये एक स्क्रीनशॉट है जो पारुल ने मुझे भेजा था। इसमें दिखता है कि अर्णव ने एक फेक इंस्टाग्राम अकाउंट से उसे फॉलो कर रखा था। और ये उनके मैसेज—’तुम भाग नहीं सकती, पारुल। जो मेरा है, वो मेरा ही रहेगा।’”
पूरे कोर्ट रूम में सरगोशियाँ गूंजने लगीं।
बचाव पक्ष के वकील प्रशांत मिश्रा तुरंत खड़े हुए, “आप कह रही हैं कि ये स्क्रीनशॉट असली है? क्या आपने कभी उस अकाउंट की जांच करवाई?”
“नहीं, लेकिन पारुल ने कहा था कि वो जानती हैं, ये अर्णव ही है।”
“जानती थीं… या मानती थीं?”
“मानना भी कभी-कभी सच से ज़्यादा सटीक होता है,” प्रिया ने बिना हिचक कहा।
“क्या आप यह कह सकती हैं कि पारुल मानसिक रूप से अस्थिर नहीं थीं?”
“नहीं। वे बहुत सशक्त थीं। लेकिन डर कोई कमज़ोरी नहीं, सर। औरतें डरती हैं क्योंकि समाज उन्हें डरने की ट्रेनिंग देता है।”
प्रशांत एक क्षण के लिए चुप रहे। पहली बार, कोर्ट रूम की दीवारों पर कुछ सच टकराया था—जो कानून की किताबों में नहीं था।
गवाही पूरी होने के बाद, न्यायाधीश ने कहा, “अगली कार्यवाही में फॉरेंसिक एक्सपर्ट को बुलाया जाएगा जो डायरी की लेखनी की पुष्टि करेगा।”
अदालत स्थगित हुई, लेकिन लोगों के मन में एक झनझनाहट रह गई।
बाहर रिया बख्शी लाइव रिपोर्ट कर रही थी—
“हमने देखा कि अब यह केस सिर्फ एक हत्या की कहानी नहीं रहा। ये रिश्तों में दम घुटने, एक औरत की आवाज़ दबाने और आज़ादी को डर में बदलने की गवाही है।”
दूसरी ओर, अर्णव अपनी कोठरी में बैठा, बार-बार पारुल के पुराने मैसेज पढ़ रहा था। एक मैसेज उसकी आंखों में अटक गया:
“अगर तुम मुझसे प्यार करते हो, तो मुझे आज़ाद क्यों नहीं छोड़ सकते?”
उसने खुद से पूछा, “क्या ये प्यार था या मेरी असुरक्षा?”
साथ वाली कोठरी से महेश की आवाज़ आई, “कभी-कभी हम प्यार के नाम पर कब्ज़ा करते हैं। और जब वो पिंजरे से उड़ जाए, तो उसे दोष देते हैं।”
अर्णव चुप रहा। पहली बार उसने किसी को दोष नहीं दिया।
उधर, वकील प्रशांत मिश्रा अब गंभीर हो चुके थे। उन्होंने अपने जूनियर से कहा, “जाओ, अर्णव के पुराने मामलों की सारी फाइलें निकालो। और ध्यान दो, कहीं कोई ऐसा सच न छिपा हो जो हमें भी नहीं पता।”
जूनियर कुछ घंटों बाद लौटा। हाथ में एक पुरानी फाइल थी—साल 2018 में अर्णव की एक पूर्व प्रेमिका, नेहा जैन, ने उसके खिलाफ मानसिक उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई थी।
प्रशांत के चेहरे पर पसीना आ गया।
उन्होंने बुदबुदाया, “अगर ये अदालत में आ गया, तो पूरा केस टूट सकता है…”
इसी बीच, पायल अपने घर में बैठी पारुल की डायरी के बाकी पन्ने पलट रही थी। एक पन्ने पर लिखा था—
“मुझे नहीं लगता कि ये आदमी मुझे मार डालेगा। लेकिन मैं इतना ज़रूर जानती हूँ—वो चाहेगा कि मेरी आवाज़ मर जाए। और इसलिए मुझे बोलते रहना होगा। चाहे मैं ज़िंदा रहूं या नहीं।”
पायल ने डायरी बंद की और कहा, “दीदी, तुम्हारी आवाज़ अब अदालत की गूंज बन चुकी है।”
अब सबकी निगाहें अगले दिन पर थीं, जब कोर्ट में डायरी की लेखनी की पुष्टि होगी। अगर लेखनी असली निकली, तो पारुल की आत्मा शायद पहली बार शांत हो पाएगी।
लेकिन एक और रहस्य था, जो अभी तक सामने नहीं आया था। एक ऐसा गवाह, जो अब तक छुपा था।
और शायद… अगले दिन वो गवाह खुद अदालत में दस्तक देने वाला था।
भाग 5: अनकहे गवाह की दस्तक
कोर्ट रूम नंबर ३ की खिड़की से आज तेज़ धूप अंदर आ रही थी, लेकिन उसके बावजूद कमरे में एक ठंडक सी फैली हुई थी। मानो दीवारें जानती हों कि आज कोई ऐसा मोड़ आने वाला है, जो अब तक के सारे गवाहों और दलीलों से अलग होगा।
जज आरव मल्होत्रा अपनी सीट पर बैठे डायरी के पन्ने एक-एक करके उलट-पलट रहे थे। लेखनी की फॉरेंसिक जांच रिपोर्ट सामने रखी थी—“लेखनी पूरी तरह से पारुल वर्मा की ही है।” ये पंक्ति अब केस को पूरी तरह से बदल चुकी थी।
सरकारी वकील प्रतिभा सिंह उठीं।
“मिलॉर्ड, फॉरेंसिक रिपोर्ट हमारे पक्ष में है। अब यह साबित हो चुका है कि मृतिका की डायरी, जिसमें अर्णव चोपड़ा द्वारा मानसिक उत्पीड़न और पीछा करने की बात की गई है, पूरी तरह से प्रमाणिक है। अभियोजन पक्ष यह मानता है कि यह डायरी मृतिका की अंतिम इच्छा और बयान के रूप में स्वीकार की जाए।”
प्रशांत मिश्रा उठे, लेकिन उनकी आवाज़ में अब पहले जैसी मजबूती नहीं थी। “मिलॉर्ड, हम ये नहीं मानते कि एक डायरी ही पूरा सच बता सकती है। इसमें व्यक्ति विशेष की भावनाएं, डर और कल्पनाएँ भी हो सकती हैं। कोई प्रत्यक्ष गवाह नहीं है जो ये साबित कर सके कि अर्णव ही वहाँ था, उस रात।”
ठीक उसी समय, कोर्ट रूम का दरवाज़ा खुला। एक बुज़ुर्ग व्यक्ति अंदर आया। झुकी हुई पीठ, लेकिन चाल में स्थिरता थी। उसकी आँखों में एक भारी रहस्य दबा हुआ था।
“मिलॉर्ड,” उसने कहा, “मुझे गवाही देनी है।”
जज ने भौंहें उठाईं, “आप कौन हैं?”
“मेरा नाम है शंभूनाथ चौबे। मैं पुल के पास एक चाय की टपरी चलाता हूँ। उसी पुल के नीचे, जहाँ पारुल की लाश मिली थी।”
प्रतिभा सिंह चौक गईं। “आपको पहले क्यों नहीं बुलाया गया?”
शंभूनाथ ने कहा, “मुझे डर था, बिटिया। अर्णव चोपड़ा एक वकील का बेटा है। मैं गरीब आदमी हूँ। लेकिन अब मैं और नहीं छुप सकता। सच छुपाने से ज्यादा डरावना होता है—उसे रोज़ याद करके जीना।”
जज ने गवाही की अनुमति दी। कोर्ट रूम की हवा अब और भारी हो गई थी।
“क्या आप उस रात घटनास्थल के पास थे?”
“हां, मिलॉर्ड। बारिश हो रही थी। मैं रात की आखिरी चाय समेट रहा था। तभी मैंने एक लड़की की चीख सुनी।”
पूरे कोर्ट में सन्नाटा।
“आपने देखा क्या?”
“मैं डर के मारे तुरंत झाड़ियों के पीछे छिप गया। लेकिन मैंने देखा कि एक लड़का, जिसकी कद-काठी अर्णव जैसी थी, उस लड़की को धक्का दे रहा था। वो लड़की—उसी की तरह थी, जैसा मैंने अखबार में पारुल की तस्वीर में देखा।”
“क्या आपने उसका चेहरा देखा?”
“अंधेरा था, बारिश थी। लेकिन एक चीज़ देखी—लड़के ने जाते-जाते एक रबर बैंड उठाया और अपनी जेब में डाल लिया।”
जज ने चौंक कर पूछा, “क्या आप उस रबर बैंड की पहचान कर सकते हैं?”
“हां मिलॉर्ड। वो सफेद रंग का था, उस पर एक छोटा सा लाल मोती था। पारुल जब मेरी टपरी पर आती थी, तो वही बांधती थी बालों में।”
अब तक शांत बैठा अर्णव अचानक बोल पड़ा, “वो रबर बैंड मेरे पास नहीं है!”
प्रतिभा सिंह तुरंत बोलीं, “मिलॉर्ड, हमने अभियुक्त की कोठरी की तलाशी पहले ली थी। कुछ नहीं मिला। लेकिन क्या अदालत अनुमति देगी कि उसके घर की दोबारा तलाशी ली जाए?”
जज ने कहा, “इस गवाही के आलोक में, अदालत तलाशी की अनुमति देती है। लेकिन इसके साथ ही मैं एक और सवाल पूछना चाहता हूँ—अर्णव, क्या आप उस रात पुल के पास गए थे?”
अर्णव चुप। उसका चेहरा सफेद हो गया था। होंठ सूखे और गला जैसे सूख गया हो।
“जवाब दीजिए,” जज की आवाज़ सख्त हुई।
“मैं…” उसने धीरे से कहा, “मैं गया था। लेकिन मैं उसे मारने नहीं गया था।”
पूरा कोर्ट रूम हक्काबक्का।
“फिर क्या हुआ?”
“मैं उससे बात करना चाहता था। वो मुझे बार-बार नजरअंदाज कर रही थी। मैं गुस्से में था। बहुत गुस्से में। मैंने उसे रोकने की कोशिश की। वो चिल्लाई। मैंने उसका हाथ पकड़ा। उसने मुझे थप्पड़ मारा।”
“फिर?”
“फिर… मुझे कुछ याद नहीं। सिर्फ ये याद है कि वो गिर पड़ी। और मैं वहाँ से भाग गया। मुझे लगा… मैं… मैं उसे धक्का नहीं देना चाहता था। लेकिन… शायद… मेरे हाथ से वो…”
अदालत में हर चेहरा स्तब्ध।
जज ने धीरे से फैसला सुनाया, “इस स्वीकारोक्ति के बाद, अदालत अभियोजन पक्ष को दोबारा सबूतों की पुष्टि करने का निर्देश देती है। और बचाव पक्ष को अपने अंतिम तर्क प्रस्तुत करने की तिथि तय करने का समय दिया जाएगा।”
कोर्ट स्थगित हुआ। बाहर एक भीड़ उमड़ पड़ी, जैसे किसी नाटक का पहला दृश्य खत्म हुआ हो।
रिया बख्शी बाहर आकर रिपोर्ट करती है—
“आज अदालत में एक नया मोड़ आया। एक अनजान गवाह, एक अधूरी स्वीकारोक्ति, और एक पुराना रबर बैंड—शायद अब ये केस अपने अंतिम मुकाम की ओर बढ़ रहा है।”
पायल, जो पीछे बैठी थी, फूट-फूटकर रो रही थी। प्रिया राठी ने उसका हाथ थामा।
और अर्णव? वो अकेला कोठरी में बैठा था। अब उसमें बचाव का कोई शब्द नहीं बचा था। केवल अपराधबोध का एक सन्नाटा।
भाग 6: अपराधबोध का सन्नाटा
कोर्ट रूम में आज कोई सुनवाई नहीं थी, लेकिन फिर भी भीतर एक बेचैनी तैर रही थी। टेबल पर रखे कागज़ों की फड़फड़ाहट भी जैसे किसी मुक़दमे का हिस्सा बन चुकी थी। बाहर धूप थी, लेकिन अर्णव चोपड़ा की कोठरी में अंधेरा पसरा हुआ था—ऐसा अंधेरा जो किसी जेल की दीवारों से नहीं, आत्मा के भीतर से उठता है।
उस दिन दोपहर को, वकील प्रशांत मिश्रा पहली बार अर्णव से मिलने जेल आए, बिना केस फाइल के, बिना लॉ बुक के, सिर्फ एक चेहरा लेकर—जिसमें चिंता थी, थकान थी, और एक ऐसा डर जिसे वकील भी शब्दों में नहीं ढाल पाते।
“तुमने मुझे बताया क्यों नहीं?” प्रशांत ने कहा।
अर्णव चुप। उसकी आँखें नीचे गिरीं, मानो जवाब देने की भी ताकत खत्म हो गई हो।
“एक बार भी कहा होता कि तुम वहाँ गए थे, तो हम बचाव की दूसरी रणनीति बना सकते थे। अब तुमने सबके सामने स्वीकार किया कि तुम घटनास्थल पर थे—और वो भी उस वक़्त, जब लड़की की चीख़ सुनी गई थी।”
“मैंने उसे मारने की नीयत से कुछ नहीं किया,” अर्णव फुसफुसाया। “मैं बस चाहता था कि वो मेरी बात सुने। लेकिन जब उसने मुझे थप्पड़ मारा… कुछ पल के लिए जैसे सब कुछ धुंधला हो गया। वो गिर पड़ी। मैंने भागने का फैसला किया… क्योंकि मुझे लगा लोग मेरी बात नहीं सुनेंगे।”
प्रशांत गहरी सांस लेकर बोले, “लोग सुनते हैं, अगर तुम सच समय पर बोलो। अब देर हो चुकी है। अभियोजन पक्ष इस स्वीकारोक्ति को हत्या के इरादतन सबूत के रूप में पेश करेगा।”
अर्णव का चेहरा सफेद हो गया।
उसी शाम, पुलिस एक बार फिर अर्णव के घर पहुंची। तलाशी शुरू हुई। कई अलमारी, ड्रॉअर, डेस्क और पुराने बैग खंगाले गए। और आखिर में, एक किताबों के पुराने बक्से में, एक छोटी मेटल बॉक्स मिली। उसके अंदर एक सफेद रबर बैंड—जिस पर लाल मोती जड़ा हुआ था।
इंस्पेक्टर ने गहरी सांस ली। “यही है। यही रबर बैंड पारुल हर वक्त पहनती थी।”
रबर बैंड को सबूत के तौर पर सील किया गया। और उसके साथ ही कोर्ट में एक नया मोड़ आ गया। अब अभियोजन पक्ष के पास एक गवाह था, एक प्रत्यक्ष स्वीकारोक्ति, और अब—मौके से जुड़ा भौतिक साक्ष्य।
अगले दिन, कोर्ट में फिर से भीड़ उमड़ी। पायल वर्मा, जो अब तक चुप थी, आज उसकी आंखों में दृढ़ता थी। वो जानती थी—यह लड़ाई अब आखिरी मोड़ पर है।
जज आरव मल्होत्रा ने कार्यवाही शुरू की।
प्रतिभा सिंह उठीं, “मिलॉर्ड, अभियोजन पक्ष के पास अब स्पष्ट साक्ष्य है। अर्णव चोपड़ा की स्वीकारोक्ति, गवाह शंभूनाथ की गवाही, और अब यह रबर बैंड जो मृतिका की पहचान से जुड़ा है। अभियोजन यह साबित करना चाहता है कि यह हत्या पूर्व नियोजित भले न रही हो, लेकिन यह स्पष्ट रूप से एक इरादतन हमला था।”
प्रशांत मिश्रा खड़े हुए, “मिलॉर्ड, अभियुक्त ने पहले दिन से हत्या से इनकार किया है। उसने केवल गुस्से में आकर उसकी कलाई पकड़ने की बात मानी है। यह हत्या नहीं, एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना है। अभियुक्त को हत्या के बजाय, गैर इरादतन हत्या की धारा में माना जाए।”
जज ने गहरी दृष्टि से अर्णव को देखा। फिर बोले, “अदालत अंतिम सुनवाई के लिए दो दिन का समय देती है। दोनों पक्षों को अपने-अपने अंतिम तर्क तैयार करने की अनुमति दी जाती है।”
कोर्ट स्थगित हुआ। भीड़ धीरे-धीरे बाहर निकली। लेकिन एक चेहरा अब भी कोर्ट की दीवारों के पास रुका था—प्रिया राठी का।
पायल उसके पास आई। “क्या तुम ठीक हो?”
प्रिया बोली, “आज जब मैंने अर्णव को देखा… मुझे पहली बार उस पर गुस्सा नहीं आया। सिर्फ दुख हुआ। कैसे कोई इतना पढ़ा-लिखा लड़का, जो कानून का छात्र था, ये नहीं समझ पाया कि प्यार में ज़बरदस्ती अपराध बन जाती है?”
पायल ने सिर झुकाया। “कभी-कभी लोगों को सज़ा अदालत नहीं देती। उनकी खुद की आत्मा उन्हें रोज़ सज़ा देती है।”
उस रात जेल में अर्णव ने पहली बार अपनी माँ को चिट्ठी लिखी।
“माँ, मैं अच्छा बेटा नहीं था। मैंने कभी आपसे खुलकर बात नहीं की। मैं सोचता था कि अगर मैं हार जाऊं, तो आप मुझसे नफरत करेंगी। लेकिन अब समझ आया, सच्चाई छुपाने से इंसान जीतता नहीं—खुद को खोता है। मैंने पारुल से प्यार किया, लेकिन प्यार को अपनी ज़िद बना लिया। अब मैं हर रात उसकी चीख सुनता हूँ। हर रात।”
अगले दिन अर्णव ने वकील प्रशांत से कहा, “सर, अब केस मत लड़िए। मैं अदालत से सिर्फ एक मौका चाहता हूँ, अपनी गलती को स्वीकार करने का। अगर सज़ा भी मिले, तो कम से कम मैं चैन की नींद तो सो सकूंगा।”
प्रशांत पहली बार भावुक हो उठे। “तुम्हें बहुत देर में समझ आया, लेकिन फिर भी… शायद यही समझ इंसान को इंसान बनाती है।”
अगले दो दिन बाद कोर्ट में अंतिम सुनवाई होनी थी।
फैसला चाहे जो भी हो, अब यह केस केवल पारुल के लिए नहीं था।
यह उन सभी के लिए था—जो आज भी किसी रिश्ते में कैद हैं, जो सोचते हैं कि “न” कहना प्यार का अपमान है, और जो अब भी ये नहीं समझ पाए कि प्यार जब जबरदस्ती बन जाए, तो वो अपराध होता है।
भाग 7: अंतिम तर्कों की घड़ी
कोर्ट रूम नंबर ३ की दीवारें जैसे आज सांसें ले रही थीं। बाहर सुबह की धूप सोने की तरह चमक रही थी, लेकिन भीतर जो कुछ था, वो तपता हुआ लोहा था—न्याय, पछतावा, पीड़ा और अंतिम फैसला सुनने की बेचैनी।
हर कुर्सी भरी हुई थी, हर आँख चौकस। आज मुक़दमे का अंतिम दिन था, जब दोनों पक्ष अपने अंतिम तर्क अदालत के सामने रखेंगे। और फिर—फैसला।
जज आरव मल्होत्रा ने जैसे ही दस्तावेज़ों की ओर झुककर हल्की खांसी के साथ सिर उठाया, पूरा कोर्ट रूम खड़ा हो गया।
“अभियोजन पक्ष से निवेदन है कि वह अपने अंतिम तर्क प्रस्तुत करे।”
सरकारी वकील प्रतिभा सिंह उठीं। उनकी चाल में नर्मी थी, लेकिन आवाज़ में लोहे की धार।
“मिलॉर्ड,” उन्होंने कहा, “हमारे सामने एक मामला है, जो सिर्फ एक हत्या की नहीं, बल्कि एक मानसिक शोषण, एक आत्मसम्मान को कुचलने, और एक स्त्री की आवाज़ को चुप कराने की कहानी है। पारुल वर्मा, एक निर्भीक पत्रकार थी। उन्होंने रिश्ते में भी वही सच्चाई चाही, जो अपने पेशे में चाहती थीं। लेकिन उनके प्रेमी अर्णव चोपड़ा ने उस सच्चाई को अपना अपमान समझा।”
कोर्ट रूम में सन्नाटा था। हर शब्द पत्थर की तरह गिर रहा था।
“हमारे पास प्रत्यक्ष स्वीकारोक्ति है। अभियुक्त ने स्वीकार किया कि वह घटनास्थल पर मौजूद था, और पारुल से झगड़ा हुआ। उसने यह भी माना कि वह गुस्से में था, और उस क्षण में वह सब भूल गया।
हमारे पास एक गवाह है—शंभूनाथ चौबे—जिसने लड़की की चीख़ सुनी, और उस जैसे युवक को वहां से जाते देखा। हमारे पास सबूत है—वही रबर बैंड जो मृतिका हर रोज़ पहनती थी, जो अभियुक्त के घर से बरामद हुआ।
और हमारे पास है मृतिका की डायरी—जिसे फॉरेंसिक जांच ने प्रमाणित किया है। उसमें साफ लिखा है कि अभियुक्त ने उनका पीछा किया, धमकी दी, और उनकी आज़ादी को खामोश करने की कोशिश की।
मिलॉर्ड, यह मामला भले पूर्व नियोजित हत्या न हो, लेकिन यह इरादतन हमला था। यह उन लाखों लड़कियों की तरफ से आवाज़ है, जो आज भी चुप रहती हैं। अदालत से निवेदन है कि अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अंतर्गत दोषी ठहराया जाए।”
प्रतिभा सिंह बैठीं। उनकी आंखों में संतोष था, लेकिन चेहरा एकदम स्थिर।
अब बचाव पक्ष की बारी थी। प्रशांत मिश्रा खड़े हुए। उनके बाल हल्के बिखरे थे, चश्मे के पीछे थकी आंखें, लेकिन स्वर अब भी संयमित।
“मिलॉर्ड, इस मुक़दमे ने समाज की एक गहरी सच्चाई उजागर की है। लेकिन मैं आज केवल कानून की भाषा में बात करूंगा, क्योंकि अदालत भावनाओं से नहीं, तथ्यों से चलती है।
अर्णव चोपड़ा ने अपनी गलती स्वीकार की है—वो घटनास्थल पर था, उसने पारुल से झगड़ा किया, और उस झगड़े में वह खुद को काबू में नहीं रख सका। लेकिन उसने जानबूझकर उसे मारने का इरादा नहीं रखा।
मिलॉर्ड, यह घटना एक दुर्भाग्यपूर्ण पल की है, एक भावनात्मक विस्फोट की।
हमारे संविधान में धारा 304—गैर इरादतन हत्या—का प्रावधान ऐसे ही मामलों के लिए है। अभियुक्त को उम्रकैद की सज़ा न देकर, उसे उस धारा के अंतर्गत दंडित किया जाए जो उसके अपराध की प्रकृति के अनुकूल हो।
इसके अलावा, मैं अदालत से यह भी निवेदन करता हूँ कि अर्णव की उम्र, उसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड न होना, और उसका पूर्ण आत्मस्वीकृति का भाव—इन सब बातों को ध्यान में रखकर निर्णय दिया जाए।”
प्रशांत मिश्रा बैठ गए।
अब अदालत की गूंज धीरे-धीरे शून्य में बदल रही थी। जज आरव मल्होत्रा ने कुछ पल आंखें बंद कीं, फिर बोले, “अदालत फैसला सुरक्षित रखती है। कल दोपहर 2 बजे फैसला सुनाया जाएगा।”
कोर्ट स्थगित हुआ।
बाहर की दुनिया अचानक बहुत तेज़ लगने लगी। मीडिया रिपोर्टर्स, पुलिस अधिकारी, और आम लोग—सभी के पास अनुमान थे, पर उत्तर किसी के पास नहीं था।
रिया बख्शी ने कैमरे के सामने कहा,
“अब मामला उस अंतिम घड़ी पर है, जहाँ इंसाफ़ और इंसान दोनों आमने-सामने खड़े हैं। कल फैसला आएगा। क्या अदालत सज़ा देगी या राहत? क्या पारुल को न्याय मिलेगा? या अर्णव को दूसरा मौका?”
उस रात, पायल वर्मा छत पर बैठी पारुल की डायरी का आख़िरी पन्ना पढ़ रही थी। उसमें लिखा था—
“अगर मेरी आवाज़ मर भी जाए, तो मेरी बहन ज़रूर बोलेगी। वो चुप नहीं रहेगी।”
पायल ने आंखें बंद कीं। उसकी बहन की याद एक बारिश की तरह आई—ठंडी, लेकिन भीतर तक भिगोने वाली।
जेल में, अर्णव एक कोने में बैठा था। पास में महेश चुपचाप लेटा था।
“कल फैसला आएगा,” अर्णव बुदबुदाया।
महेश ने बिना आँख खोले कहा, “तेरा सच बोल देना ही बहुत है। अब जो भी सज़ा मिलेगी, वो कम से कम सच्चाई के साथ होगी।”
“मुझे उससे माफ़ी मांगनी है…” अर्णव ने कहा।
“मरने वालों से माफ़ी नहीं मांगी जाती। उनके लिए जीकर कुछ अच्छा किया जाता है।”
सुबह पास थी, और उस सुबह की रौशनी फैसला लेकर आने वाली थी।
भाग 8: फैसले की दोपहर
दो पहर का वक्त, और अदालत की घड़ी जैसे हर पल एक इतिहास लिख रही थी। कोर्ट रूम नंबर ३ में खचाखच भीड़ थी—मीडिया, वकील, आमजन, कुछ आंखों में उम्मीदें, कुछ में गुस्सा, और कुछ में डर। सबकी निगाहें सिर्फ एक तरफ थीं—जज आरव मल्होत्रा की कुर्सी पर, जो अभी खाली थी, लेकिन उन सबके फैसले की प्रतीक्षा से भरी हुई।
काले कोट में जज जैसे ही अंदर आए, पूरा कोर्ट रूम उठ खड़ा हुआ। एक झटका सा सन्नाटा पसर गया। हर आवाज़ भीतर थम गई। जज ने कुर्सी पर बैठते हुए कागजों के एक सेट को देखा, और हल्की खांसी के साथ अपना निर्णय सुनाना शुरू किया।
“अदालत में प्रस्तुत सभी साक्ष्यों, गवाहों, और अभियुक्त की स्वीकारोक्ति के आधार पर, यह सिद्ध हो चुका है कि अर्णव चोपड़ा घटनास्थल पर मौजूद था, उसने मृतिका से झगड़ा किया और उस झगड़े के दौरान जो घटना घटी, उससे पारुल वर्मा की मृत्यु हुई।”
कोर्ट रूम की हवा ठहर गई।
“सरकारी पक्ष ने गवाही, फॉरेंसिक रिपोर्ट और अभियुक्त की स्वीकारोक्ति द्वारा यह स्थापित किया कि यह घटना इरादतन थी। हालांकि, बचाव पक्ष ने इस घटना को एक भावनात्मक विस्फोट और दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना कहा।”
जज का स्वर धीमा हो गया, लेकिन स्पष्ट था।
“अदालत मानती है कि यह हत्या पूर्वनियोजित नहीं थी, लेकिन यह भी स्वीकार करती है कि अभियुक्त ने जिस स्थिति में पारुल वर्मा से हाथापाई की, वह स्थिति सामान्य झगड़े की श्रेणी में नहीं आती। यह उस मानसिक हिंसा की परिणति थी, जो महीनों से चल रही थी। एक स्त्री की निजता, स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के विरुद्ध लगातार किया गया मानसिक अत्याचार, और जब उसने विरोध किया—तो उसका अंत।”
कई आँखों में आँसू आ गए। पायल वर्मा की उंगलियाँ कांप रही थीं, लेकिन चेहरा स्थिर था।
“इसलिए, अदालत अभियुक्त अर्णव चोपड़ा को भारतीय दंड संहिता की धारा 304 भाग (1) के अंतर्गत दोषी मानती है—गैर इरादतन हत्या, लेकिन उस स्थिति में की गई जिसमें अभियुक्त को इस बात का पूर्वज्ञान था कि उसका कृत्य जानलेवा साबित हो सकता है।”
अब कोर्ट रूम में कुछ फुसफुसाहटें उभरीं।
“अदालत अभियुक्त को दस वर्षों के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाती है। साथ ही, पारुल वर्मा के परिवार को पांच लाख रुपये का मुआवज़ा देने का निर्देश देती है, जो अभियुक्त के परिवार की संपत्ति से दिया जाएगा।”
अब कमरे में चुप्पी टूट चुकी थी। कोई संतुष्ट था, कोई व्यथित। लेकिन सबने एक-दूसरे की ओर नज़रें डालनी शुरू कर दी थीं—जैसे अपने-अपने दिल में न्याय का हिसाब जोड़ने लगे हों।
अर्णव खड़ा रहा, सिर झुका हुआ। चेहरे पर कोई गुस्सा, विरोध या अपील नहीं थी। बस, एक गहरी थकान थी—जैसे आत्मा ने खुद को सौंप दिया हो।
पायल जज की तरफ देखे बिना बाहर निकल गई। उसके कदम तेज़ थे, लेकिन आँखों से बहती लकीरें धीमी थीं।
बाहर रिया बख्शी रिपोर्ट कर रही थी—
“पारुल वर्मा केस में आखिरकार फैसला आ गया है। अदालत ने अर्णव चोपड़ा को दोषी ठहराते हुए 10 साल की सज़ा सुनाई है। यह केवल एक सज़ा नहीं, बल्कि एक संदेश है—कि किसी भी रिश्ते में ज़बरदस्ती, मानसिक उत्पीड़न और नियंत्रण को अब नजरअंदाज नहीं किया जाएगा।”
उसी शाम, जेल की कोठरी में अर्णव ने अपनी नोटबुक खोली और पहला पन्ना लिखा—
“पारुल,
मैंने तुझे खो दिया। खुद को भी।
अब मैं सज़ा नहीं काटूंगा, मैं खुद को फिर से समझने की कोशिश करूंगा।
अगर अगली जिंदगी हो, तो शायद तू मेरी बात सुने, और मैं तुझे सुन पाऊं।
माफ कर सको, तो कर देना।
— अर्णव”
जेलर चुपचाप कोठरी के बाहर खड़ा था। वो जानता था—कुछ सज़ाएं अदालती नहीं होतीं, और कुछ पछतावे कभी नहीं मिटते।
उधर, पायल वर्मा शाम को अपनी बहन की राख की तस्वीर के पास एक मोमबत्ती जलाकर खड़ी रही। कोई शब्द नहीं, बस एक मौन।
तभी प्रिया राठी पास आई और धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा।
पायल ने फुसफुसाकर कहा, “तूने कहा था न, दीदी कभी चुप नहीं रहेंगी? आज वो बोले बिना भी बोल गईं।”
और फिर दो औरतें एक साथ खड़ी रहीं—जिन्होंने आवाज़ उठाई, सच्चाई को सामने लाया, और एक ऐसी कहानी को खत्म किया जिसे समाज अक्सर ‘प्यार की गलतफहमी’ कहकर टाल देता है।
लेकिन इस बार नहीं।
इस बार अदालत की तर्जनी ने रिश्तों की सीमाएं तय कीं।
भाग 9: दीवारों के उस पार
समय कभी रुकता नहीं, लेकिन कुछ फैसले वक्त को एक लंबी सांस में थाम लेते हैं। अर्णव चोपड़ा को सज़ा हुए आज दो सप्ताह हो चुके थे। जेल की उस कोठरी की दीवारें अब उसकी आदत बन चुकी थीं। जिन दीवारों को वह पहले कैद समझता था, अब वही उसके लिए आईना बन चुकी थीं—हर दिन, हर रात, वही सवाल पूछतीं: “तू कौन है, अर्णव? वो जिसने प्यार किया या वो जिसने प्यार को क़ैदख़ाना बना दिया?”
वह अब जेल में सबसे अलग-थलग रहता। खाने की पंक्ति में सबसे पीछे, काम में सबसे चुप, और रात में सबसे देर तक जागता। साथ में कैदियों को लगता था कि वो घमंडी है, मगर हकीकत यह थी कि अर्णव अब खुद से नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
एक दिन जेल की लाइब्रेरी में उसे एक पुरानी किताब मिली—“Letters from a Prison Cell.” वह किताब असल में एक अपराधी की आत्मगाथा थी, जिसने जेल में रहकर अपने भीतर का आदमी फिर से ढूंढा था। अर्णव उसे पढ़ते-पढ़ते सोचने लगा, क्या मैं भी फिर से इंसान बन सकता हूँ?
उसी शाम, जेलर सोमेश रॉय उसके पास आए। उम्रदराज़ लेकिन गहरी समझ वाले व्यक्ति।
“तुम्हारा आवेदन मिला है, अर्णव,” जेलर ने कहा। “तुम सुधारात्मक कार्यक्रम में भाग लेना चाहते हो?”
अर्णव ने सिर हिलाया। “मैं सीखना चाहता हूँ—कैसे किसी को सिर्फ छूने से नहीं, समझने से प्यार किया जाता है।”
जेलर थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले, “सच्चा पछतावा सज़ा नहीं घटाता, लेकिन आत्मा को भारी होने से बचा सकता है। कल से तुम काउंसलिंग सत्र में शामिल हो जाओगे।”
अगले दिन अर्णव पहली बार जेल के ‘मनोज्ञान सत्र’ में बैठा। वहां एक महिला काउंसलर थीं—डॉ. गीतांजलि। उन्होंने किसी अपराध की बात नहीं की, किसी सज़ा की चर्चा नहीं की। सिर्फ पूछा—
“जब तुम चुप होते हो, क्या सुनते हो अपने भीतर?”
अर्णव ने धीमे से कहा, “उसकी आवाज़। पारुल की। गुस्से में नहीं—बस, खामोश होकर मुझे देखती हुई।”
“और तुम क्या कहना चाहते हो उस आवाज़ से?”
वो चुप रहा, फिर बोला, “मैं चाहता हूँ कि वो मुझे माफ कर दे। लेकिन ये भी जानता हूँ, माफ़ी मांगने के लिए जीवित होना ज़रूरी नहीं।”
गीतांजलि मुस्कराईं। “माफ़ी मांगना नहीं, बदलना ज़रूरी होता है।”
हर हफ्ते के साथ अर्णव अपने भीतर उतरता गया। उसने कागज़ पर अपने अपराध को फिर से लिखा—बिना किसी बचाव के, बिना किसी बहाने के। फिर उसने उसी डायरी के अगले पन्नों पर पारुल के लिए खत लिखना शुरू किया—हर दिन एक।
“आज मैं कैदी नहीं, पाठक हूँ—तेरे शब्दों का।
कल मैं पाठक नहीं, लेखक बनूंगा—तेरी यादों का।”
उधर, पायल वर्मा ने अपने शहर को छोड़कर एक नया शहर चुना। उसने एक फाउंडेशन शुरू किया—‘आवाज़’—जहाँ वह उन लड़कियों की मदद करती जो रिलेशनशिप में मानसिक उत्पीड़न का सामना कर रही थीं। वह हर सेशन की शुरुआत एक वाक्य से करती—
“प्यार, अगर डर पैदा करे, तो वह प्यार नहीं, हिंसा है।”
प्रिया राठी उसकी इस मुहिम में साथ थी। दोनों अब पारुल को किसी एक कमरे की तस्वीर में नहीं, हर उस लड़की की हिम्मत में देखतीं जो अब चुप नहीं रहती।
एक दिन पायल को जेल से एक लिफाफा मिला। उसपर न कोई नाम, न पता। सिर्फ एक चिह्न था—एक लाल मोती। उसने लिफाफा खोला। उसमें एक कागज़ था—सफेद, सादा, और सिर्फ एक पंक्ति लिखी हुई थी—
“अगर मेरी आवाज़ अब भी तुम्हारे कानों तक पहुंचे, तो मुझे बता देना कि मैंने तुम्हें अब भी चोट पहुंचाई या थोड़ा-सा ठीक किया।”
पायल ने कोई जवाब नहीं दिया। सिर्फ वो कागज़ अपनी बहन की डायरी के अंदर रख दिया—जहाँ अब वो भी एक पन्ना बन गया था।
जेल में, अर्णव ने अपना एक नया काम शुरू किया—जेल की लाइब्रेरी में कैदियों को पढ़ना और लिखना सिखाना। वह कहता—
“शब्द हथियार नहीं होते, अगर तुम उन्हें समझकर लिखो।”
महेश, जो अब भी पास की कोठरी में था, एक दिन बोला, “सुन, तू अब बदल गया है। मगर लोग तुझे क्या नाम देंगे, यह उनके हाथ में है। तू बस अपने नाम का मतलब फिर से गढ़।”
अर्णव मुस्कराया। “अब मुझे कोई नाम नहीं चाहिए, महेश। बस, एक शांत रात चाहिए—जिसमें वो चीख़ न गूंजे।”
महेश चुप रहा, लेकिन भीतर से उसे लगा—शायद यह लड़का अब सचमुच बदल गया है।
फैसले के बाद की ये दुनिया दो तरह की थी। एक जिसमें न्याय हुआ था। और दूसरी जिसमें पश्चात्ताप हुआ था।
और कभी-कभी, दोनों दुनिया एक ही रास्ते पर चलती हैं—धीरे-धीरे, बिना शोर किए।
भाग 10: नई शुरुआत की गवाही
समय बीतता गया। अर्णव चोपड़ा को सज़ा सुनाए अब डेढ़ साल हो चुका था। जेल की दीवारें उसके लिए अब केवल सीमाएं नहीं थीं, वे आईना बन चुकी थीं—हर दिन, हर रात, उसे उसकी गलती याद दिलाने का एक तरीका।
लेकिन उस आईने में अब एक बदला हुआ चेहरा दिखता था। वह चेहरा जो पश्चाताप में पिघला, किताबों में ढला, और अब सेवा में ढल रहा था।
अर्णव अब जेल की लाइब्रेरी का प्रमुख बन चुका था। वह हर हफ्ते नए कैदियों के लिए “मौन संवाद” नाम का एक लेखन सत्र आयोजित करता, जहाँ लोग अपने अपराधों के बारे में लिखते—बिना डर, बिना बहाने।
वह कहता, “शब्दों से इंसान खुद को फिर से बना सकता है।”
एक दिन जेल में एक युवा वकील का दल आया—कानूनी सहायता और मनोवैज्ञानिक पुनर्वास का कार्यक्रम लेकर। उन्हीं में से एक थी अदिति चौधरी—तेज़, शांत, और साफ़ नज़र रखने वाली।
जब उसने अर्णव को देखा, तो फाइल देखते-देखते अचानक ठिठक गई। “आप वही हैं… पारुल वर्मा केस वाले?”
अर्णव ने सिर झुकाया। “हां, वही हूँ।”
“आपको देखकर लगा नहीं था…” वह रुक गई।
“लगेगा भी नहीं। क्योंकि जो मैंने किया, वह कोई दिखने वाली चीज़ नहीं थी। वो भीतर से सड़न थी—जो बाहर प्यार जैसी लगती थी।”
अदिति चुप हो गई। फिर बोली, “मैं उस केस की इंटर्न रिपोर्टिंग टीम में थी। हम सबने आपको एक राक्षस मान लिया था।”
“और शायद मैं था भी। लेकिन अब मैं सिर्फ एक इंसान बनने की कोशिश कर रहा हूँ—शायद पहली बार सही मायनों में।”
अदिति ने उस दिन जेल के कार्यक्रम में भाग लिया और अर्णव के सत्र को देखा। वह बाहर निकली तो उसकी आंखों में सोच थी। एक कैदी भी किताबों से कैसे बदलाव ला सकता है—यह उसने पहली बार देखा था।
दूसरी ओर, पायल वर्मा की संस्था ‘आवाज़’ अब एक राष्ट्रीय नेटवर्क बन चुकी थी। कई शहरों में उसकी शाखाएं थीं। वह अब सरकार के साथ मिलकर “डेटिंग वायलेंस अवेयरनेस” कार्यक्रम चला रही थी।
एक दिन उसे एक समारोह में बुलाया गया—जहाँ सुधारित कैदियों की कहानियों को प्रस्तुत किया जाना था। जब उसका नाम मंच से पुकारा गया, वह धीमे कदमों से माइक तक गई।
“मैं एक बहन हूँ। मेरी बहन ने अपनी आवाज़ को किताबों में दर्ज किया, और मैंने उसे लोगों की चेतना में बदलने की कोशिश की।
मैंने न्याय माँगा—और वह मिला।
लेकिन समय के साथ मैंने यह भी सीखा, कि सज़ा से ज़्यादा ज़रूरी होता है—बदलाव।
हर अपराधी राक्षस नहीं होता। कुछ बस भटके हुए इंसान होते हैं—जो अगर सही दिशा पाएँ, तो दूसरों की ज़िंदगी बदल सकते हैं।
मुझे आज गर्व है कि मेरी बहन की मौत केवल एक खबर नहीं रही—वह एक चेतावनी बनी, एक आंदोलन बनी। और अगर कोई आज, अपने अपराध को समझकर खुद को बदल रहा है… तो शायद, मेरी बहन उसे माफ कर सकती है।”
उस शाम जब वह मंच से नीचे उतरी, आयोजकों ने उसे एक विशेष फ़ाइल दी। उसमें अर्णव द्वारा लिखे गए 52 पत्र थे—हर सप्ताह एक पत्र, जो उसने पारुल को लिखा था।
पायल फाइल खोल नहीं सकी। लेकिन उसने आयोजक से कहा, “उसे कहिए, मैं जानती हूँ कि वो अब भी पछता रहा है। यही बहुत है।”
जेल के भीतर, अर्णव अब एक नई किताब लिख रहा था। शीर्षक था: “तुम्हारा नाम, मेरी खामोशी में”
यह किताब उन रिश्तों की थी, जहाँ प्यार का लिबास ओढ़कर नियंत्रण किया गया, और उन लोगों की, जिन्होंने देर से सही, पर खुद को पहचान लिया।
जब किताब पूरी हुई, जेल प्रशासन ने विशेष अनुमति दी कि अर्णव किताब को एक बार खुद पढ़े, अंतिम संपादन से पहले।
उसने किताब की अंतिम पंक्तियाँ इस तरह लिखीं:
“मैंने तुम्हें एक बार खो दिया, पारुल,
लेकिन अब मैं हर उस लड़की की आज़ादी में तुम्हें फिर से ढूंढता हूँ।
अगर मेरा नाम मिट जाए, तो भी चलेगा—
बस तुम्हारा नाम फिर कभी चीख़ बनकर न गूंजे।”
अंत में, वह कोठरी की दीवार पर अपने हाथ से सिर्फ एक शब्द उकेरता है—मुक्ति।
उसी दिन, जेलर सोमेश रॉय ने उसे चुपचाप एक खबर दी—“तुम्हारी किताब को एक प्रमुख प्रकाशक छापना चाहता है।”
अर्णव ने कुछ नहीं कहा। बस हल्के से मुस्कराया।
“अब शायद मैं सचमुच कुछ अच्छा कर रहा हूँ।”
तीन साल बाद, अर्णव को “सुधार और पुनर्वास मॉडल कैदी” के रूप में सशर्त रिहाई दी गई।
जेल से बाहर निकलते ही, सबसे पहले वह एक छोटे स्कूल गया—जहां वह बच्चों को “सम्मानजनक रिश्तों” और “संवेदनशीलता” पर शिक्षण देने लगा।
किसी ने उसे मंच पर बुलाया, तो उसने कहा—
“मैं एक हत्यारा था। लेकिन अब मैं सिर्फ एक चेतावनी हूँ—जो चाहती है कि कोई और उस गलती को दोहराए नहीं, जो मैंने की थी।”
और पारुल?
वह अब किताबों में ज़िंदा थी, संस्थाओं में, लड़कियों की हिम्मत में, और हर उस पल में, जब कोई यह कहने की हिम्मत करता था—
“नहीं। मैं चुप नहीं रहूंगी।”
समाप्त




