अन्वी शुक्ला
बंद कमरा और अधूरी कविता
इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग, समय की परतों से ढका हुआ, उन इमारतों में से एक था जहाँ दीवारें भी शेर सुनाती थीं। पुराने बरामदे, लोहे के गेट, और बरगद के नीचे लगे बेंच — सबमें कोई ना कोई दास्तान अटकी हुई थी। प्रोफेसर यतीन भटनागर, जिन्हें सब आदर से ‘यतीन सर’ कहते थे, हर दिन सुबह नौ बजे ठीक उसी बेंच पर बैठकर अपनी चाय पीते, मानो वक़्त को अपनी हथेली में थामे बैठे हों।
उस दिन भी कुछ अलग नहीं था, सिवाय इसके कि हवा में कुछ अजीब था—जैसे कोई धुआँ… जो दिखता नहीं था, पर साँसों में चुभता था।
“कमरा नंबर 206 कबसे बंद है?” उन्होंने विभाग के चपरासी रमेश से पूछा।
रमेश ने चौंककर कहा, “सर, उस कमरे में तो पिछले पाँच साल से कोई क्लास नहीं हुई। ताले में जंग लग गया होगा अब तक।”
पर यतीन को यकीन था—आज सुबह जब वो बरामदे से गुज़रे थे, उस कमरे के अंदर से किसी कविता की गूंज सी सुनाई दी थी। वो आवाज़, वो लय… जैसे किसी ने उनकी ही अधूरी कहानी को कागज़ पर उतार दिया हो।
कुंजी रमेश के पास थी। थोड़ी ना-नुकुर के बाद, दोनों ने मिलकर दरवाज़ा खोला। कमरा धूल और यादों से भरा था। एक कोने में टूटी कुर्सियाँ थीं, दीवार पर चिपकी पुरानी पोस्टरें, और ठीक ब्लैकबोर्ड के नीचे एक पुराना एश-ट्रे।
एश-ट्रे में सिगरेट के कुछ जले टुकड़े थे। और उनके नीचे… एक मुड़ा-तुड़ा, आधा जला हुआ कागज़। यतीन ने उसे उठाया। उसपर लिखी इबारत धुंधली थी, लेकिन साफ़ दिख रहा था—
“तेरी आँखों में जो ठहराव है,
वो किसी नदी की मौत जैसा लगता है।
तू पढ़ाता है प्रेमचंद, पर खुद को कभी पढ़ा नहीं…”
नीचे सिर्फ एक अक्षर था — “A”।
यतीन का गला सूख गया। कोई तो था जिसने उसे इतने करीब से देखा था। इतनी गहराई से लिखा था, जैसे उसका मन पढ़ लिया हो। पर कौन?
कमरे में धूप की एक पतली रेखा फर्श पर खिंची हुई थी। उस धूप में जलती हुई कविता अब एक दर्पण बन चुकी थी—जो यतीन को उसी के भीतर झाँकने पर मजबूर कर रही थी।
वो कागज़ जेब में रखकर बाहर निकल आए। रमेश ने धीरे से पूछा, “सर, सब ठीक तो है?”
“नहीं,” यतीन ने पहली बार बिना सोचे कहा, “कुछ भी ठीक नहीं है।”
उन्हें अब याद आया—कुछ हफ़्तों से एक लड़की अक्सर उनके विभाग के बाहर खड़ी दिखती थी। आँखों में सवाल, होंठों पर सिगरेट का धुआँ। उसका नाम क्या था? आ… आर्या?
वो पीएचडी की छात्रा थी, लेकिन उनके अंडर नहीं। उसके लेख विभाग में चर्चा का विषय रहते थे—तेज़, तीखे, और कहीं-कहीं भावुक भी। उसने यतीन से कभी कुछ नहीं कहा। लेकिन अब लगता था, शायद उसकी चुप्पी में ही कविता थी।
उस शाम, प्रोफेसर यतीन ने पहली बार अपने घर की अलमारी का वह पुराना बक्सा खोला जिसमें उनकी जवानी के खत, डायरी और सिगरेट की पुरानी डिब्बियाँ थीं। उनमें से एक चिठ्ठी हाथ में आई—जिसपर लिखा था, “तुम्हारे जाने के बाद शब्द धुआँ हो गए हैं।” हस्ताक्षर—”अनया”।
वो नाम जैसे वर्षों बाद उनके सीने पर वापस दस्तक देने आया हो।
आर्या… अनया… कविता… धुआँ… अधूरापन…
कभी-कभी लगता है, कोई चीज़ सच नहीं होती। लेकिन फिर, वो आपके भीतर इतना गहराई से उतर जाती है कि आप खुद से पूछने लगते हैं—क्या मेरी याद ही मेरी सच्चाई है?
अगली सुबह यतीन फिर से उसी कमरे के पास गए। इस बार दरवाज़ा खुला था।
और अंदर, आर्या खड़ी थी।
आर्या और उसकी चुप्पी
कमरा नंबर 206 की दरवाज़ा खुला देखकर यतीन ठिठक गए। भीतर वही पुराना फर्नीचर, धूल और दीवारों पर सीलन, पर कमरे के एक कोने में खड़ी थी वह लड़की—आर्या। वही आँखें, जिनमें हमेशा कुछ पूछने की हिम्मत और छिपाने की आदत एक साथ होती थी।
उसने सादे सलवार-कुर्ते के ऊपर एक काली शॉल लपेट रखी थी, हाथ में वही नीली डायरी जिसे वह हर लेक्चर के दौरान बंद रखती थी। उसके चेहरे पर कोई संकोच नहीं था, लेकिन एक ठहरी हुई उदासी ज़रूर थी, जैसे कुछ कहना चाहती हो लेकिन लफ्ज़ों से डरती हो।
“कमरा खुला था,” यतीन ने कहा, उसकी तरफ बिना देखे। आवाज़ संयमित थी, पर भीतर हलचल थी।
आर्या ने धीमे से कहा, “कुछ चीज़ें बंद दरवाज़ों में ज्यादा गूंजती हैं, सर।”
यतीन कुछ क्षण खामोश रहे। फिर पूछा, “तुम यहाँ क्या कर रही हो?”
“आप ही की कविता ढूंढ रही थी,” उसने कहा, मानो किसी राज़ को छू रही हो।
यतीन का दिल एक क्षण के लिए बैठ गया। “कविता मेरी नहीं थी।”
“अधूरी चीज़ें किसी की नहीं होती, सर। वो बस इंतज़ार करती हैं… कोई उन्हें पूरा कर दे,” उसकी आवाज़ मुलायम थी, लेकिन उसकी आँखें सीधा यतीन के भीतर झाँक रही थीं।
यतीन ने उसकी ओर एक लंबी नज़र डाली। “ये कविता…” वो रुक गए, “…क्या तुमने लिखी?”
आर्या मुस्कुराई, हल्के से। “मैंने नहीं लिखा। लेकिन शायद मैंने महसूस किया।”
उसका ये उत्तर कोई स्पष्ट जवाब नहीं था, फिर भी यतीन को लगा कि जवाब यहीं कहीं है। उसने एश-ट्रे की ओर देखा—अब वहाँ कुछ नहीं था, जैसे सब कुछ पहले ही जल चुका हो।
“तुम सिगरेट पीती हो?” यतीन ने अचानक पूछा।
आर्या हँसी नहीं, न चौंकी। “कभी-कभी। जब शब्द ज़्यादा हो जाएँ और पन्ने कम लगें।”
“इस उम्र में शब्द ज़्यादा कैसे हो सकते हैं?” यतीन ने ठंडी आवाज़ में कहा, “तुम्हारी तो ज़िंदगी शुरू ही हुई है।”
आर्या ने उस नीली डायरी को अपने सीने से और कसकर लगा लिया। “कभी-कभी ज़िंदगी शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाती है, सर। बस चलती रहती है—जैसे ट्रेनों में बैठा कोई मुसाफ़िर, जिसे पता नहीं स्टेशन कहाँ है।”
ये बात सीधे यतीन के भीतर उतर गई। बहुत साल पहले, जब अनया ने उसे छोड़ा था, उसने भी ठीक ऐसा ही कुछ लिखा था—”मैं चलती रहूँगी, लेकिन अब मेरी मंज़िलें नहीं होंगी।”
“क्या तुमने कभी अनया का नाम सुना है?” यतीन ने सावधानी से पूछा।
आर्या की पलकें एक बार काँपीं। फिर उसने गर्दन हिलाई, “नहीं। पर शायद सुना है किसी की डायरी में। किसी की साँसों में।”
अब यतीन को यकीन हो चला था—ये लड़की सिर्फ छात्रा नहीं है। ये कोई कड़ी है उस भूले हुए अतीत की, जिसे वो सालों से अपने दिल की कोठरी में बंद कर चुके थे।
“क्या तुम जानती हो कि इस कमरे में कभी क्या हुआ था?” यतीन ने पूछा।
“कहा जाता है कि यहाँ कभी एक प्रेम हुआ था जो कविता में बदल गया… फिर कविता धुएं में…” आर्या ने कहा, फिर रुक गई। “लेकिन मैं अफवाहों पर नहीं, खामोशियों पर भरोसा करती हूँ।”
“तुम्हारी डायरी में क्या है?” यतीन ने सीधा पूछा।
आर्या ने डायरी को कुछ सेकंड देखा। फिर बोली, “वो सब जो कहा नहीं जा सकता।”
एक लंबा सन्नाटा कमरे में उतर आया। बाहर पीपल के पत्ते हवा में फड़फड़ा रहे थे, मानो अतीत फुसफुसा रहा हो।
“मैं पढ़ना चाहता हूँ तुम्हारी डायरी,” यतीन ने कहा, खुद को चौंकाते हुए।
आर्या कुछ नहीं बोली। धीरे से मुस्कराई, फिर बोली, “तो आपको इंतज़ार करना होगा, सर। हर कविता को उसके वक़्त पर ही पढ़ा जाना चाहिए।”
वो कहकर बाहर निकल गई। और यतीन को लगा जैसे धुएं के साथ-साथ अब एक और कविता उसके इर्द-गिर्द घूमने लगी है।
कमरा नंबर 206 अब यतीन के लिए सिर्फ एक खाली क्लासरूम नहीं था। वह एक स्मृति-पिंजरा बन चुका था—जहाँ हवा में धुएं की महीन रेखाएँ अभी भी लिपटी थीं, जैसे कोई अधूरी कविता अभी भी छिपी बैठी हो, बस कुछ शब्दों से दूर।
आर्या के जाने के बाद वह देर तक वहीं खड़े रहे। उस कमरे की दीवारें, जिन पर सीलन और पुराने पोस्टरों के निशान थे, अचानक बोलने लगी थीं। उन्हें महसूस हुआ, किसी ने उनकी आत्मा को छू लिया है। और वह कोई अजनबी नहीं था। या शायद, सबसे बड़ा अजनबी वही था—जो खुद को कभी पूरी तरह जान ही नहीं पाया।
उसी शाम, अपने घर लौटते हुए यतीन रास्ते में रुके। स्टेशन रोड के उस पान की दुकान पर, जहाँ आज भी ‘चारमिनार’ ब्रांड की सिगरेट मिलती थी—वही ब्रांड जो अनया पीती थी।
“एक पैकेट,” उन्होंने कहा।
दुकानदार ने उन्हें देखा और पूछा, “सर, सिगरेट? पहली बार देख रहा हूँ आपको।”
यतीन मुस्कुराए नहीं। बस पैसे दिये और आगे बढ़ गए।
रात में, अपनी पुरानी किताबों की अलमारी से उन्होंने अज्ञेय की कविताओं की एक पीली पड़ चुकी कॉपी निकाली। अंदर एक जगह उनकी अपनी हस्तलिपि में लिखा था—
“मैंने प्रेम को न कविता बनाया,
न ग़ज़ल, न कहानी।
मैंने उसे चुपचाप जिया,
जैसे कोई दुख जिसे बया करना गुनाह हो।”
नीचे तारीख थी—17 जुलाई 1997।
उसी साल अनया अचानक विभाग छोड़कर चली गई थी। कोई विदाई नहीं, कोई पत्र नहीं—बस एक दोपहर कमरे नंबर 206 में एक चुप्पी छोड़कर।
अब इतने सालों बाद, उसी कमरे से वही धुएँ की गंध, वही कविता की गूंज, और एक लड़की—जो उस गुमनाम प्रेम की परछाई जैसी महसूस होती थी।
क्या यह महज़ संयोग था?
अगले दिन विभाग में किसी ने चाय के दौरान कहा, “वो नई पीएचडी वाली लड़की, आर्या, बहुत कुछ पढ़ती है प्रोफेसर साहबों के बारे में। कहती है, कहानियों के पीछे भी कहानियाँ होती हैं।”
यतीन ने सिर झुकाकर चाय में शक्कर मिलाई। उसकी आँखें दूर, खिड़की से बाहर किसी पुराने पीपल को देख रही थीं, लेकिन मन भीतर गूँजते सवालों से लड़ रहा था।
वह सीधे लाइब्रेरी गए। पुराने छात्रों और पीएचडी स्कॉलर्स की फाइलें निकालीं। और वहीं, अनया सेन का नाम फिर सामने आया। 1996-97, थीसिस का विषय: ‘भारतीय कविता में अनकहे प्रेम की अभिव्यक्ति।’ गाइड: प्रो. यतीन भटनागर।
फिर कुछ अजीब दिखा—उस फ़ाइल के पृष्ठों में एक पुराना, हाथ से लिखा हुआ पन्ना था। वही हस्तलिपि, वही लहजा—
“कभी-कभी, प्रेम सिर्फ इतना चाहता है—
कि कोई उसे अधूरा ही पढ़े।
क्योंकि जो अधूरा है,
वो कभी ख़त्म नहीं होता।”
नीचे एक ‘A’ लिखा था। और स्याही अब तक फीकी नहीं हुई थी।
उनकी उँगलियाँ काँप गईं। उन्होंने एक कुर्सी पर बैठकर अपनी साँसें थामीं।
क्या अनया गई नहीं थी? या शायद, किसी रूप में अब भी यहीं थी?
उसी रात उन्होंने आर्या को विभागीय मेल पर एक संक्षिप्त ईमेल लिखा:
“तुम्हारी डायरी पढ़ने की उत्सुकता बढ़ती जा रही है। अगर कभी शब्द इजाज़त दें, तो मुझे भी हिस्सा बनाना।”
— प्रो. यतीन भटनागर
जवाब सुबह आया—सिर्फ एक पंक्ति:
“डायरी तैयार है। पर आप क्या तैयार हैं?”
— A.
“A.” अब एक नाम नहीं, एक सवाल बन चुका था।
आर्या ने मिलने के लिए जो जगह चुनी, वह न तो विभाग का कमरा था, न लाइब्रेरी का कोई कोना। वह एक पुराना, छत पर बना छोटा सा स्टाफ रूम था जो अब उपयोग में नहीं आता था। वहाँ जाने के लिए संकरी सीढ़ियाँ थीं, जिन पर सालों से कोई नहीं चढ़ा था। यतीन जब वहाँ पहुँचे, तो देखा—एक टूटी खिड़की से हल्की धूप अंदर आ रही थी, और कमरे के बीच में पड़ी एक लोहे की मेज़ पर नीली डायरी रखी थी।
आर्या खिड़की के पास बैठी थी, हवा में कुछ लिखती-सी।
“आ गए, सर?” उसने बिना देखे पूछा।
“तुम्हें कैसे पता मैं आ रहा हूँ?”
“कुछ लोग जब चुप होते हैं, उनकी आहट ज़्यादा गूंजती है,” उसने कहा और डायरी की ओर इशारा किया। “आप इसे पढ़ सकते हैं, लेकिन एक शर्त है।”
“क्या?”
“आप हर कविता को ज़ोर से पढ़ेंगे। मेरे सामने।”
यतीन को यह अजीब लगा, लेकिन उन्होंने हामी भर दी।
उन्होंने डायरी खोली। पहला पृष्ठ खाली था। दूसरे पन्ने पर लिखा था—
“कविता नंबर एक: धुएँ में उलझे अक्षर”
उन्होंने पढ़ना शुरू किया—
**”जब तुम चुप रहते हो,
तो दीवारें बोलती हैं।
कमरा नंबर 206 में
हर दीवार पर तुम्हारा नाम लिखा है—
स्याही से नहीं, धुएँ से।
तुमने जो प्रेम अधूरा छोड़ा,
वो अब शब्द बन गया है।
हर बार जब मैं सिगरेट बुझाती हूँ,
एक अक्षर जलता है—
और उस अक्षर में तुम्हारा अक्स बनता है।”**
यतीन की आवाज़ पढ़ते-पढ़ते काँप गई। आर्या उन्हें अपलक देख रही थी, लेकिन बिना किसी सवाल के।
“ये कविता…” यतीन रुक गए, “ये तुम्हारी है?”
आर्या ने सिर हिलाया नहीं। बस धीमे से बोली, “कभी-कभी कविता किसी की नहीं होती, सर। वो बस समय की होती है। और समय, हम सबको थोड़ा-थोड़ा लिखता है।”
“तुम जानती हो तुम क्या कर रही हो?” यतीन की आवाज़ में भय था—या शायद झिझक।
“शायद नहीं। लेकिन जो आप छिपा रहे हैं, वो क्या मैं समझ रही हूँ?” आर्या ने पलटकर पूछा।
कमरे में एक क्षण को खामोशी छा गई। धूप अब डायरी के ऊपर थी, अक्षर चमक रहे थे।
“क्या अनया तुम्हारी माँ थी?” यतीन ने अचानक पूछ लिया।
आर्या की पलकें एक क्षण को झपकीं, फिर स्थिर हो गईं।
“नहीं,” उसने कहा, “वो मेरी माँ नहीं थीं। पर शायद होतीं, अगर आपने उन्हें अधूरा न छोड़ा होता।”
यतीन के भीतर कुछ टूट गया।
“वो कहती थीं, अगर कभी मेरे जाने के बाद कोई तुम्हारे शब्द चुरा ले, तो समझना—वो अधूरे प्रेम की चिट्ठियाँ थीं।”
“क्या तुम… उनकी कोई छात्रा रही हो? या कोई रिश्तेदार?” यतीन ने जैसे खुद से ही पूछा।
“मैं बस एक पाठक हूँ,” उसने मुस्कुराकर कहा, “जो हर बार तुम्हें पढ़ती है—तुम्हारे अपने अक्षरों में।”
और फिर उसने दूसरी कविता वाला पन्ना खोलकर कहा, “अब इसे पढ़िए, सर। ये कविता अनया ने नहीं, मैंने लिखी है। लेकिन विषय वही है—आप।”
यतीन ने डायरी को देखा—किसी गहरी नदी की तरह, जिसके किनारे वह भूल चुका था।
और पहली बार, उसने महसूस किया—कविता केवल भाव नहीं होती, वह एक दर्पण होती है। जिसमें कभी-कभी लेखक खुद भी अपना अक्स नहीं पहचान पाता।
कविता में कैद अतीत
यतीन ने अगला पन्ना पलटा, उसकी उंगलियाँ जैसे किसी पुराने घाव पर फिर से चल रही हों।
“कविता नंबर दो: चश्मे के पीछे छुपा चेहरा”
उन्होंने पढ़ना शुरू किया—
“तुम्हारे चश्मे के पीछे
एक चेहरा है जो हँसना भूल गया है।
तुम्हारी जेब में हमेशा एक रूमाल रहता है,
जिसमें आँसू नहीं, अधूरी कविताएँ छुपी हैं।
तुम्हारे हाथों की थरथराहट
हर बार कुछ लिखने से पहले डरती है—
शायद कहीं कोई अनया फिर से पढ़ न ले।”
पंक्तियाँ खत्म होते ही यतीन की साँसें लड़खड़ा गईं। यह कोई सामान्य छात्रा की कल्पना नहीं थी। ये शब्द भीतर तक चीर देने वाले थे—इतने निजी, इतने सटीक।
आर्या ने चुपचाप कहा, “क्या आपने कभी सोचा था कि कोई आपकी चुप्पियों को पढ़ेगा?”
“नहीं,” यतीन की आवाज़ में एक थकी हुई सच्चाई थी।
“आपने उन्हें क्यों नहीं रोका था? अनया को?” उसने पूछ लिया, सीधा, बेबाक।
यतीन ने खिड़की से बाहर देखा—सूरज डूबने को था, लेकिन उसकी रोशनी अब भी कमरे में टिकी हुई थी, जैसे यह दृश्य अधूरा छोड़ने को तैयार नहीं।
“मैं डर गया था,” उन्होंने कहा।
“किससे?”
“अपने ही शब्दों से,” यतीन का गला भारी हो गया, “उस वक्त मैं खुद को समझ नहीं पा रहा था। अनया बहुत तेज़ थी, आग जैसी। मैं… सिर्फ राख था।”
“तो आपने राख को ही चुपचाप रहने दिया?”
“हाँ,” उन्होंने स्वीकृति में सिर झुका दिया।
आर्या कुछ देर खामोश रही, फिर बोली, “आपकी चुप्पी से जो प्रेम बचा था, वह अब कविता में बदल गया है। मैं बस उसे पढ़ रही हूँ।”
“तुम क्यों? क्यों पढ़ रही हो ये सब?” यतीन की आवाज़ में अब एक कँपकँपी थी।
“क्योंकि कोई तो हो जो अधूरी कहानियों को खत्म करे, या कम से कम समझे,” वह बोली।
“क्या यह समझना ही काफी होता है?” यतीन ने पूछा।
“शायद नहीं। लेकिन कभी-कभी, समझना ही प्रेम होता है,” उसने कहा।
फिर वह उठी, और एक पुराना कागज़ उसके सामने रख दिया।
“यह अनया का आखिरी पत्र है। मुझे एक पुराने पुस्तकालय की किताब में मिला था। आपको शायद इसे पढ़ना चाहिए।”
यतीन ने काँपते हाथों से पत्र खोला।
कागज़ थोड़ा जला हुआ था, लेकिन शब्द अब भी जीवित थे—
“प्रिय यतीन,
तुम्हारी चुप्पियाँ बहुत ऊँची थीं। मैं उन्हें फाँद नहीं पाई।
लेकिन अगर कभी तुम्हें लगे कि कोई तुम्हें फिर से पढ़ रहा है,
तो समझना—प्रेम कभी खत्म नहीं होता। वह बस दूसरे शरीर में कविता बन जाता है।
— अनया”
यतीन के लिए वह क्षण समय के ठहर जाने जैसा था। एक अधूरी कविता, एक अधूरी स्त्री, और अब एक अधूरी छात्रा—सभी उसके चारों तरफ घूम रहे थे।
आर्या ने धीरे से पूछा, “अब आप समझे कि वो अधूरी कविता आप पर क्यों थी?”
“हाँ,” उन्होंने कहा, “और अब लगता है… मुझे भी कुछ लिखना होगा।”
“तो लिखिए,” उसने मुस्कुराकर कहा, “शायद इस बार धुआँ नहीं, रोशनी निकले।”
एक सिगरेट, एक कविता, एक कबूलनामा
उस रात यतीन ने सिगरेट जलाई। बरसों बाद। पहली कश लेते ही खाँसी का एक झटका लगा, लेकिन फिर साँसें जैसे किसी पुराने सुर की तरह बहने लगीं। सिगरेट की राख धीरे-धीरे नीचे गिर रही थी, ठीक वैसे ही जैसे उनके भीतर की सालों पुरानी गहराइयाँ अब सतह पर आ रही थीं।
डेस्क पर नीली डायरी खुली रखी थी, और सामने खाली पन्ना। हाथ में एक कलम थी, लेकिन शब्द अब तक भीतर ही भटके हुए थे।
“क्या सच में अब लिखना चाहिए?” उन्होंने खुद से पूछा।
फिर उन्होंने धीमे से एक वाक्य लिखा—
“प्रिय अनया, मैंने तुम्हें कभी छोड़ा नहीं। मैंने बस खुद को बंद कर लिया था।”
तभी मोबाइल पर मेल की रिंग आई। आर्या का मेल था—सिर्फ एक पंक्ति:
“कल विभाग में वही पुराना कमरा, 3 बजे। लाना मत भूलिएगा—वो पन्ना जो अब खाली नहीं है।”
अगले दिन, वह नियत समय पर कमरे नंबर 206 में पहुँचे। दरवाज़ा खुला था, भीतर एक मेज़ पर चाय के दो कुल्हड़ और एक अगरबत्ती जल रही थी। हवा में तुलसी और धुएँ की मिली-जुली गंध थी—शांत, पुरानी और गहरे अर्थ वाली।
आर्या पहले से वहाँ थी, सादी नीली साड़ी में। बाल खुले, आँखों में धैर्य।
“लिखा आपने?” उसने पूछा।
यतीन ने डायरी का पन्ना उसे थमाया। वह पढ़ती गई—धीरे-धीरे, जैसे हर शब्द को आत्मा से छू रही हो। पढ़ने के बाद उसने डायरी बंद कर दी और कहा, “अब आप समझ पाए हैं न, प्रेम का सबसे कठिन रूप क्या है?”
“मौन,” यतीन ने कहा।
“नहीं,” उसने पलटकर कहा, “प्रेम का सबसे कठिन रूप है—कबूलनामा। अपने भीतर की गलती, अपनी छुपी हुई भावनाओं, और अपने पलायन को शब्द देना। आपने वह किया है। अब आप प्रेम के योग्य हैं।”
“क्या इतनी आसानी से सब बदल जाता है?”
“कभी-कभी नहीं भी,” आर्या बोली, “लेकिन कम से कम अब वह कविता अधूरी नहीं रहेगी।”
यतीन ने चाय का कुल्हड़ उठाया। उसकी भाप सीधी उनके चेहरे को छू गई, जैसे किसी पुराने एहसास ने फिर से दस्तक दी हो।
“तुम ये सब क्यों कर रही हो, आर्या?” उन्होंने एक बार फिर पूछा।
“क्योंकि अनया चाहती थी कि आपकी कविता पूरा हो,” वह बोली।
“पर वह तो…”
“मर चुकी हैं, हाँ,” आर्या ने कहा, “लेकिन कविताएँ नहीं मरतीं, सर। और जो प्रेम में लिखा गया है, वह तो बिल्कुल नहीं।”
उसने अपनी डायरी से एक पन्ना फाड़ा और यतीन को थमाया।
“जब धुएं से कोई प्रेम निकले,
तो उसे दोष मत दो।
धुआँ बस उस आग की कहानी है,
जो खुद को शब्द नहीं बना पाई।”
यतीन की आँखें भर आईं। पहली बार उन्होंने अपने अतीत को छुआ, समझा, और अब शायद स्वीकार भी किया।
उस कमरे में, सिगरेट की बुझती गंध और चाय की गर्माहट के बीच, दो कविताओं ने एक-दूसरे को पूरा किया।
अनया की आख़िरी रेकॉर्डिंग
कमरे नंबर 206 में उस दिन जो सन्नाटा था, वो किसी शोक का नहीं, बल्कि किसी अधूरे राग के समापन का था। यतीन और आर्या के बीच कोई संवाद नहीं हुआ अगले कई दिनों तक। लेकिन भीतर कुछ बदल चुका था—जैसे शब्दों की कोई जड़ टूट गई हो, और अब भावनाएँ बेल की तरह ऊपर चढ़ने लगी हों।
एक शाम, विभाग से लौटते समय यतीन को विश्वविद्यालय के पुराने रिकॉर्ड सेक्शन से फोन आया।
“भटनागर सर, एक पुरानी टेप आपके नाम पर निकली है। लगता है 1997 की है। शायद कोई छात्रा छोड़ गई थी आपके लिए।”
उनके पैर थम गए।
“नाम?”
“बस ‘A’ लिखा है उसपर।”
उस क्षण जैसे समय पीछे चला गया। यतीन टेप लेने गए और उसे घर ले आए। उनके पास अब भी एक पुराना टेप प्लेयर था, जो उन्होंने अनया के साथ कविताएँ रिकॉर्ड करने के लिए लिया था।
उन्होंने टेप डाला। कुछ सेकंड खामोशी। फिर एक धीमी सांसों की आवाज़, और फिर… अनया की जानी-पहचानी आवाज़, हल्की थरथराती हुई, लेकिन स्पष्ट:
“यतीन,
अगर ये टेप तुम्हारे पास पहुँचता है, तो इसका मतलब है कि तुमने मेरी कविता को एक बार फिर ढूंढ़ा।
मैं जानती थी तुम चुप रहोगे। लेकिन मैं ये भी जानती हूँ कि तुम्हारी चुप्पी शब्दों से ज़्यादा बोलती है।
मेरे जाने के बाद अगर कोई तुमसे पूछे कि हम क्या थे… तो कह देना—हम एक कविता थे, जो सिर्फ एक बार बोली गई, लेकिन कभी खत्म नहीं हुई।
और हाँ, मैंने तुम्हें कभी दोष नहीं दिया।
मैंने तुम्हें पढ़ा था… और मैं चाहती थी कोई और भी तुम्हें पढ़े।
शायद इसीलिए, आर्या…”
यहाँ रेकॉर्डिंग रुक जाती है। एक अचानक से आई चुप्पी, जिसमें टेप की पटरियाँ घूमती रहती हैं, लेकिन आवाज़ नहीं आती।
यतीन ने टेप बंद कर दिया। उनकी उंगलियाँ काँप रही थीं।
तो यह सब आर्या को पता था। शायद उसने यह रेकॉर्डिंग बहुत पहले ही सुन ली थी। और शायद, वही इस कहानी को अंतिम कविता तक लाने वाली कड़ी बन गई थी।
उसी रात, यतीन ने पहली बार खुद को आईने में देखा—बिना शर्म के, बिना झिझक के।
सुबह होते ही उन्होंने आर्या को बुलाया। वह आई, शांत, स्थिर।
“तुम्हें यह टेप पहले से पता था, है न?”
आर्या मुस्कराई, “हाँ। पर मैं चाहती थी आप खुद सुनें। जब आप तैयार हों।”
“क्या अनया ने तुम्हें कहा था यह सब करने को?”
“नहीं। अनया ने बस अपनी कविता अधूरी छोड़ी थी। पूरा करना मेरा चुनाव था।”
“तुम क्यों करती आई हो ये सब? कोई रिश्ता…?”
“नहीं। कोई रिश्ता नहीं। बस एक समझ। और शायद थोड़ा प्रेम—कविता से, आपसे नहीं।”
यतीन ने एक गहरी साँस ली।
“फिर भी, तुम्हारा धन्यवाद। तुमने मुझे मेरी ही कहानी दोबारा पढ़ाई।”
आर्या ने डायरी उठाई और बोली, “अब आप इस कहानी का आख़िरी पन्ना लिखिए, सर। जो कभी कोई और अधूरा छोड़ जाए… तो शायद कोई और उसे फिर से पढ़ सके।”
अधूरी कविता का आखिरी पन्ना
उस सुबह इलाहाबाद की गलियों में हल्की कोहरा था, लेकिन यतीन के भीतर एक साफ़ आकाश जैसा कुछ खुल रहा था। सालों की चुप्पियाँ, जमी हुई परतें, और न कहे गए वाक्य जैसे एक-एक करके बहने लगे थे।
कमरे नंबर 206 अब उनके लिए एक श्मशान नहीं, एक मंदिर बन गया था—जहाँ एक अधूरी कविता को अंततः मुक्ति मिलने वाली थी।
उन्होंने लकड़ी की पुरानी मेज़ पर नीली डायरी खोली, जिसमें पहली बार उन्होंने नहीं, बल्कि आर्या ने लिखा था। अब बारी थी यतीन की।
“कविता नंबर दस: अधूरी कविता का आख़िरी पन्ना”
**”तुमने कहा था, प्रेम को अधूरा ही रहने दो—
कि जो अधूरा है, वो कभी मरता नहीं।
पर मैंने देखा है, अधूरा प्रेम जड़ें भी नहीं पकड़ता,
वो हवा में तैरता है, धुएं की तरह।
अब जब मैं तुम्हें समझ चुका हूँ,
जब मैं खुद को स्वीकार चुका हूँ,
तो मैं कहना चाहता हूँ—
अनया, तुम सही थीं।
कविता को कोई पूरा नहीं करता,
वो खुद ही अपने अंत तक पहुँचती है।
और इस बार, वो अंत मैं हूँ।
तुम्हारे जाने के बाद जो छाँव रह गई थी,
उसे अब धूप मिली है।
अब मैं अधूरा नहीं हूँ।
अब कविता पूरी है।”**
पन्ना पूरा हुआ। यतीन ने कलम रख दी। आँखों से आँसू नहीं निकले, लेकिन एक तरह की शांति उनके भीतर फैल गई।
उसी समय आर्या कमरे में आई।
“क्या आपने लिखा?”
“हाँ,” यतीन बोले, “और शायद पहली बार कुछ खत्म किया है।”
आर्या ने डायरी हाथ में ली, आख़िरी पन्ना पढ़ा। फिर उसने किताब बंद की और उसे अपने बैग में रख लिया।
“अब ये किसकी है?” यतीन ने पूछा।
“अब ये किसी की नहीं है,” आर्या ने कहा। “अब ये वक़्त की है। जैसे अनया थी, जैसे आप हैं। जैसे मैं शायद हो जाऊँ।”
“क्या तुम अब जा रही हो?”
“हाँ,” उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “कभी-कभी कुछ कविताओं को नए पाठकों की तलाश होती है। मुझे वो ढूंढ़नी है।”
“क्या हम फिर कभी मिलेंगे?”
आर्या ने एक क्षण ठहर कर कहा—
“शायद नहीं। लेकिन अगर किसी दिन आप एक खाली कमरे में सिगरेट की गंध पाएं,
और कोई अधूरी कविता आपकी तरफ देखे—तो समझिए, मैं वहीं हूँ।”
वो चली गई। बिना पीछे देखे।
यतीन कमरे में अकेले रह गए, लेकिन इस बार अकेलापन भारी नहीं था। वो एक स्पेस जैसा था—जिसमें शब्द, धुआँ और प्रेम तीनों समा गए थे।
उन्होंने खिड़की खोली। ठंडी हवा अंदर आई, और कहीं दूर, जैसे कोई धीमे स्वर में कविता पढ़ रहा हो—
“प्रेम वो नहीं जो पूरा हो,
प्रेम वो है जो पढ़ा जाए—
बार-बार, हर बार… किसी नई आवाज़ में।”
धुएं के पार की खामोशी
समय आगे बढ़ता गया, लेकिन कमरे नंबर 206 की खिड़की अब हर रोज़ खुली रहती थी। प्रोफेसर यतीन भटनागर अब भी उसी बेंच पर चाय पीते थे, पर अब उनकी निगाहें ज़मीन पर नहीं, आसमान में होती थीं—जैसे वो किसी अदृश्य उपस्थिति से बात कर रहे हों।
आर्या के जाने के बाद विभाग में कोई ज़्यादा नहीं पूछता था उसके बारे में। बस इतना कहते—”कविताएँ लिखती थी, अजीब थी… लेकिन उसमें कुछ था।” और यतीन उस ‘कुछ’ को मुस्कुरा कर चुपचाप पी जाते थे—जैसे चाय का आख़िरी घूँट।
एक दिन विभाग की नोटिसबोर्ड पर एक सफेद लिफ़ाफा चिपका मिला—बिना किसी नाम के। अंदर एक हस्तलिखित पंक्ति थी—
“कभी किसी धुएँ को पढ़ा है?
वो किताबों से अलग होते हैं—
वहाँ शब्द नहीं होते, पर भाव जलते हैं।
और हर भाव की राख में कोई नाम लिखा होता है।”
कोई दस्तख़त नहीं। बस वही ‘A’।
यतीन मुस्कुराए। वो अब जान गए थे—आर्या कभी किसी व्यक्ति का नाम नहीं थी। वो एक ‘स्थिति’ थी। एक पाठक, एक दर्पण, एक अध्याय।
उनकी कक्षा में अब एक नया पाठ पढ़ाया जाने लगा—“कविता और स्मृति: शब्दों के पीछे की चुप्पियाँ”।
छात्र अक्सर पूछते, “सर, चुप्पियाँ कविता कैसे हो सकती हैं?”
और यतीन बस इतना कहते, “जब कोई तुम्हें पढ़ता है बिना बोले, तब जो बचता है… वही असली कविता है।”
रातों में जब हवा ठंडी होती, और खिड़की के बाहर पीपल का पत्ता फड़फड़ाता, यतीन अपने पुराने टेप प्लेयर में अनया की रेकॉर्डिंग चला देते। अब वो शब्द उन्हें दुख नहीं देते थे, वो शब्द उनके भीतर घर बना चुके थे।
एक शाम उन्होंने डायरी का एक आख़िरी पन्ना लिखा—न प्रकाशित करने के लिए, न पढ़ाने के लिए—बस अपने लिए।
**”मैंने तुम्हें कभी कहा नहीं,
पर अब जानता हूँ,
तुमने सुना था मेरी हर चुप्पी।
तुम चली गई,
पर मुझे पढ़ने के लिए
किसी और को भेज दिया।
आर्या, तुम कौन थी—एक छात्रा, एक कवि, या बस एक रहस्य?
मुझे फर्क नहीं पड़ता।
तुम मेरी अधूरी कविता का आख़िरी अक्षर बन चुकी हो।
अब सब कुछ पूरा है।”**
उस रात उन्होंने सिगरेट नहीं जलाई। बस खिड़की खोली, आँखें बंद कीं और सांस भरी—जैसे किसी ने उनके भीतर कोई कविता फिर से पढ़ दी हो।
प्रेम का पुनर्पाठ
शरद की हल्की धूप में इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग कुछ ज़्यादा ही पुराना लग रहा था—जैसे किसी किताब की वह जिल्द, जिसे बार-बार पढ़ा गया हो और फिर भी आख़िरी पन्ना बाकी रह गया हो। यतीन भटनागर अब भी उसी बेंच पर बैठते थे, पर उनके हाथ में किताब नहीं, नीली डायरी की फोटोकॉपी रहती थी।
उस दिन वे कक्षा में पहुँचे तो छात्रों को एक विशेष व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया था। विषय था—‘शब्दों के उस पार का प्रेम’।
कक्षा भरी हुई थी। युवा चेहरे, उत्सुक आँखें, नोटबुक खोलकर बैठे सब। यतीन ने बोर्ड पर सिर्फ एक वाक्य लिखा—
“कुछ प्रेम कहे नहीं जाते, पढ़े जाते हैं।”
और फिर उन्होंने बोलना शुरू किया—धीमे, स्थिर स्वर में, जैसे खुद से भी बातें कर रहे हों।
“हम मानते हैं कि प्रेम को कहने से वह साकार होता है। पर कभी-कभी प्रेम अपने मौन में ही परिपूर्ण होता है। वर्षों पहले मैं एक प्रेम में था—अनकहा, अधूरा, और बेहद जीवित।”
छात्रों की आँखों में जिज्ञासा थी, और अब यतीन की आँखों में भी कोई डर नहीं था।
“कभी आपने किसी कागज़ पर वो लिखा है जिसे कोई पढ़े न? फिर भी आप जानें कि कोई कहीं, उसे पढ़ रहा है? यही हुआ मेरे साथ।”
उन्होंने एक कागज़ निकाला—अनया की चिट्ठी की प्रतिलिपि।
“यह चिट्ठी मुझे मिली नहीं थी जब उसे मिलनी चाहिए थी। लेकिन जब मिली… तो उसने मुझे बदल दिया।”
फिर उन्होंने आर्या की कविता पढ़ी—वो पंक्तियाँ जिनमें उनके भीतर के धुएँ की परतें थीं।
कक्षा में सन्नाटा था—ना कोई फुसफुसाहट, ना कोई पेन की आवाज़। सिर्फ यतीन की आवाज़ और उसके पीछे बहती भावनाओं की नदी।
“आर्या,” उन्होंने कहा, “शायद अब इस विश्वविद्यालय में नहीं है। शायद वह कहीं और किसी को पढ़ रही होगी। लेकिन उसने मुझे दोबारा जीना सिखाया। उसने मुझे सिखाया कि प्रेम एक विषय नहीं, एक पाठ है—जिसे जितना पढ़ो, उतना खुलता है।”
छात्रों में से एक ने हिम्मत करके पूछा, “सर, क्या आपने फिर प्रेम किया?”
यतीन रुके, मुस्कुराए।
“हाँ,” उन्होंने कहा, “लेकिन किसी से नहीं—खुद से। और फिर से उन शब्दों से, जिन्हें मैं भूल चुका था।”
कक्षा खत्म हुई। छात्र धीरे-धीरे निकले, और यतीन खिड़की के पास खड़े होकर आसमान को देख रहे थे।
हवा में हल्की सी गंध थी—जैसे किसी पुरानी सिगरेट की राख अब भी ज़िंदा हो, पर उसमें कोई आग बाकी नहीं।
उन्होंने डायरी को बंद किया और आख़िरी बार उसके कवर पर हाथ फेरा।
नीली स्याही में लिखा था—
“धुंआ और शब्दों के बीच बचा रह गया प्रेम — आर्या त्रिपाठी”
अब यह कविता अधूरी नहीं रही। अब यह एक पूरी कहानी बन चुकी थी—प्रेम की, पछतावे की, पुनर्पाठ की।
और शायद यही था जीवन का सबसे सुंदर पाठ—
कि हर धुएँ के पीछे कोई आग नहीं होती, कभी-कभी वो बस एक कविता होती है…
जिसे बस सही वक़्त पर पढ़ा जाना होता है।
समाप्त




