Hindi - यात्रा-वृत्तांत

लौटते कदम

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प्रणव शुक्ला


दिल्ली की वो सर्द रात थी, जब शहर की इमारतें किसी नीरव कैदखाने जैसी लगती थीं। सड़कें रोशनी से जगमगा रही थीं, लेकिन उस रोशनी में भी अजीब-सा अंधकार फैला था — ऐसा अंधकार, जो दिल को चीरता चला जाए। आर्यन अपने ऑफिस की 25वीं मंज़िल की खिड़की से उस शहर को निहार रहा था, जो कभी उसके सपनों का हिस्सा था, और अब उसे सपनों का कफन जैसा लगने लगा था। एयरपोर्ट रोड की गाड़ियाँ, मेट्रो की गड़गड़ाहट, और दूर-दूर तक दिखती गगनचुंबी इमारतें — सब जैसे उसकी आत्मा पर बोझ बन गई थीं। दिन भर की मीटिंग्स, ईमेल्स, फाइलों का ढेर और स्क्रीन की नीली रोशनी ने उसकी आँखों में वो चमक छीन ली थी, जो कभी कॉलेज के दिनों में थी। ऑफिस का विशाल कमरा, जो कभी उसे सफलता की निशानी लगता था, अब किसी सुनसान जेल-से प्रतीत हो रहा था। घड़ी की सुइयाँ रात के साढ़े ग्यारह बजा रही थीं। कमरे में पसरे सन्नाटे के बीच एसी की धीमी आवाज़, कंप्यूटर के मॉनिटर की टिमटिमाहट और उसकी कुर्सी की चरमराहट ही शोर बन गए थे। उसने खुद को शीशे में देखा — सूट-बूट पहना एक आदमी, जिसे दुनिया सफल कहती थी, लेकिन उसकी आँखों में शून्यता थी। शहर की चमक के पीछे, वो खोया-खोया खुद को ही पहचान नहीं पा रहा था।

उसकी यादों में वो दिन बार-बार लौट रहा था जब उसने पहली बार दिल्ली की गलियों में कदम रखा था — आँखों में सपनों का संसार, दिल में उम्मीदों की दुनिया। वो आर्यन, जो हर नई चीज को देखकर रोमांचित हो जाता था, कहाँ खो गया? अब वो सिर्फ एक मशीन बन गया था — सुबह जल्दी उठना, जिम जाना, नाश्ता करना, ट्रैफिक में फँसना, ऑफिस की मीटिंग्स, रिपोर्ट्स, टारगेट्स, फिर देर रात घर लौटना। इन सबके बीच वो हँसना भूल गया था, जीना भूल गया था। एक सॉफ्टवेयर कंपनी में मैनेजर की कुर्सी पर बैठा वो हर दिन यही सोचता — क्या यही जीवन है? उसकी रातें अब नींद से नहीं, बेचैनी से भरी होतीं। खिड़की से दिखते शहर के शोरगुल में वो खुद को और भी अकेला पाता। सड़क पर दौड़ती गाड़ियों की आवाज़ें उसके दिल की धड़कनों को और बेचैन कर देतीं।

उस रात उसने अपनी ऑफिस डायरी उठाई और पन्नों पर बेतहाशा लिखना शुरू किया — “मैं क्यों जी रहा हूँ? क्या यही जीवन है? क्या ये रेस कभी खत्म नहीं होगी? क्या कोई रास्ता नहीं है जहाँ मैं सच में शांति पा सकूँ?” शब्द जैसे उसके दिल से निकलकर पन्नों पर बहते चले जा रहे थे। उसने अपनी आँखें बंद कीं और उन पहाड़ों की कल्पना की, जहाँ वो बचपन में गया था — वो खुला आसमान, वो ठंडी हवा, वो नदियों की कलकल ध्वनि। उसका दिल कसक उठा। और उसी क्षण, उसके भीतर एक निर्णय आकार लेने लगा — उसे अब भागना नहीं, लौटना है। लौटना है वहाँ, जहाँ जीवन का असली संगीत बजता है। लौटना है प्रकृति की गोद में, जहाँ हर श्वास में शांति बसती है।

आर्यन उस रात ऑफिस से निकला। सर्द हवा उसके चेहरे से टकराई और उसे जीने का अहसास दिलाया — एक ऐसा अहसास, जिसे वो कब से खो चुका था। सड़क पर कदम रखते ही उसने महसूस किया कि शहर की रफ्तार उसके भीतर की बेचैनी से होड़ लगा रही है। वो धीरे-धीरे चलता रहा, अंधाधुंध भागती गाड़ियों को देखता रहा। कारों के हॉर्न, ट्रैफिक लाइट्स की रंग-बिरंगी रोशनी और सड़कों की भागमभाग के बीच वो ठहर गया। एक पुल के नीचे उसे एक बूढ़ा भिखारी दिखा, जिसके तन पर सिर्फ एक फटी हुई चादर थी। वो कांप रहा था, लेकिन उसकी आँखों में अजीब-सी स्थिरता थी।

आर्यन ने खुद को उस बूढ़े की आँखों में देखा — वही खोखलापन, वही शून्यता। उसके कदम थम गए। वो उसके पास जाकर बैठ गया और कुछ देर यूँ ही उसे देखता रहा। भिखारी ने कोई भीख नहीं मांगी, बस चुपचाप आकाश की ओर निहारता रहा। उस रात चाँद भी जैसे किसी बादल की ओट में छुपा बैठा था, और सड़कों पर पसरी चांदनी भी धुंधली हो गई थी। आर्यन की आँखों में आँसू छलक आए। उसने पहली बार महसूस किया कि उसकी करोड़ों की दौलत, उसका आलीशान घर, उसकी महंगी घड़ी — सब बेकार हैं। वो बूढ़ा भिखारी उससे कहीं ज़्यादा स्वतंत्र था, क्योंकि वो अपने दुःख को स्वीकार चुका था।

आर्यन ने अपनी जेब से कुछ पैसे निकालकर उसके सामने रख दिए। भिखारी ने उन पैसों की ओर देखा भी नहीं। उसने सिर उठाया और धीमे से कहा — “पैसा तुझे बचा नहीं पाएगा बेटा, तुझे खुद को बचाना है। लौट जा, जब तक समय है।” आर्यन को लगा जैसे उसके भीतर की आवाज़ बोल उठी हो। वो काँप उठा। उसने उस बूढ़े को नमन किया और चुपचाप वहाँ से चल पड़ा। वो चलता रहा, देर रात तक, जैसे उसके कदम अब रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। सर्द हवा में उसके आँसू सूख गए, लेकिन उसके भीतर अब एक नई आग जल उठी थी — खुद को खोजने की आग।

आर्यन उस रात घर लौटा तो उसके कदम बोझिल नहीं थे। उसके दिल में जो हलचल थी, वो अब एक साफ-सुथरे इरादे में बदल चुकी थी। उसने अपना लैपटॉप खोला और कंपनी को एक ईमेल टाइप किया — “मैं कुछ समय के लिए छुट्टी पर जा रहा हूँ। कब लौटूँगा, नहीं जानता। मुझे खुद को खोजना है।” ईमेल भेजते ही जैसे उसके दिल का बोझ उतर गया। उसने अपनी अलमारी खोली, एक बैग निकाला और उसमें सिर्फ ज़रूरी कपड़े, एक डायरी, एक पुरानी किताब (रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि), और एक टॉर्च रखी। दीवार पर टंगी अपनी महंगी घड़ी को उतारकर मेज पर रख दिया। उसे अब समय की दौड़ से कोई लेना-देना नहीं था।

रात के सन्नाटे में वो अपनी बालकनी में खड़ा होकर दूर-दूर तक फैली रोशनी को देखता रहा। वो रोशनी, जो अब उसे कृत्रिम लग रही थी — जैसे किसी ने रात के अंधकार पर नकली चादर ओढ़ा दी हो। उसने आसमान की ओर देखा, जहाँ तारे धीमे-धीमे बादलों की ओट से झाँक रहे थे। उसी पल उसके दिल में आवाज़ आई — “लौट चल, पहाड़ तुझे पुकार रहे हैं। नदी तुझे पुकार रही है। हवा तुझे पुकार रही है। और सबसे बढ़कर — तेरा अपना दिल तुझे पुकार रहा है।”

सुबह होने से पहले ही वो अपने घर से निकल पड़ा। शहर अभी सो रहा था। गाड़ियों की आवाजें थम चुकी थीं। सड़कों पर सन्नाटा पसरा था। और उसी सन्नाटे में आर्यन के कदम गूंज रहे थे — लौटते कदम। उसने अपनी यात्रा शुरू कर दी थी — उस यात्रा की, जहाँ वो जीवन के असली अर्थ को तलाशेगा। शहर की सीमा पार करते ही उसने एक बार मुड़कर पीछे देखा। वो रोशनी, वो इमारतें, वो भीड़ — अब सब धुंधला पड़ चुका था। वो मुस्कुराया और आगे बढ़ गया, एक अनजानी डगर की ओर।

***

आर्यन की यात्रा का दूसरा दिन शुरू हो चुका था। शहर की सीमा लांघते ही उसने महसूस किया कि हवा का स्वाद बदल चुका है। अब वहाँ ट्रैफिक का शोर नहीं था, न मोबाइल टावरों की गूंज, न ही धुएँ की महक। चारों ओर खुला आसमान, हरियाली से सजे खेत और गाँवों की मिट्टी की खुशबू थी। सड़क पर चलते हुए उसके कदमों में एक नई ऊर्जा थी — मानो हर कदम के साथ वो बोझ उतरता जा रहा था। दूर पहाड़ियों की छाया उसे दिखाई देने लगी थी। वो धीरे-धीरे दिल्ली के आसपास के छोटे गाँवों और कस्बों की ओर बढ़ रहा था। हर मोड़ पर उसे कुछ नया दिखता — कभी बच्चों की टोली, जो नंगे पाँव धूल में खेल रही थी, कभी कोई औरत, जो सिर पर मिट्टी का घड़ा उठाए तालाब की ओर जा रही थी।

उसकी आँखें अब हर दृश्य को नए नजरिए से देख रही थीं। वो गाँव की टूटी-फूटी झोपड़ियों को देखता और सोचता, “कितनी सादगी है इनके जीवन में। न दिखावा, न भागमभाग। बस जीना, हर दिन को पूरी तरह जीना।” रास्ते में कई किसान अपने खेतों में हल चला रहे थे। एक किसान ने उसे रुकने का इशारा किया। आर्यन प्यास से बेहाल था, वो वहीं रुक गया। किसान ने मुस्कुराकर उसे अपने कुएँ का ठंडा पानी पिलाया। पानी की वो ताजगी उसके भीतर तक उतर गई। वो किसान बोला, “साहब, हम तो हर रोज धरती माँ की सेवा करते हैं। यही हमारा सुख है। आप शहर से भागे भागे क्यों आए?” आर्यन मुस्कुराया, लेकिन जवाब नहीं दे सका। कैसे बताता कि वो किस शांति की तलाश में भटक रहा था?

उस दिन आर्यन कई घंटों तक पैदल चलता रहा। सड़कें अब कच्ची हो गई थीं, पगडंडियों में बदल गई थीं। रास्ते में उसे कई पेड़ मिले — पीपल, बरगद, नीम। हर पेड़ की छांव में वो कुछ देर सुस्ताता, अपनी डायरी में दो-चार पंक्तियाँ लिखता। “यहाँ हर चीज जीवित है, हर पेड़, हर पत्ता मुझसे बातें करता है।” उसके लिखे शब्द हवा में उड़ जाते, और उसकी आत्मा को सुकून देते। शाम होते-होते वो एक छोटे से गाँव में पहुँचा। वहाँ के लोगों ने उसका स्वागत किया, जैसे कोई खोया हुआ बेटा लौट आया हो। गाँव की स्त्रियाँ चूल्हे पर रोटी सेंक रही थीं, बच्चे गली में खेल रहे थे, और बूढ़े बरगद की छांव में बैठे किस्से सुना रहे थे। उस रात आर्यन एक किसान के घर ठहरा। उसने पहली बार सच्ची नींद ली — धरती पर बिछी चटाई पर, खुले आकाश के नीचे, तारों की चादर ओढ़कर।

सुबह की ठंडी हवा में हरियाली की महक घुली हुई थी। आर्यन ने गाँव वालों के साथ खेतों में काम करने की ठानी। हल की मूठ पकड़कर जब उसकी हथेली पर छाले पड़े, तो उसे पहली बार महसूस हुआ कि असली परिश्रम क्या होता है। गाँव के बुजुर्ग रामनाथ ने उसे खेत की मेंड़ पर बैठाकर अपनी कहानी सुनाई — कैसे उसने अपनी ज़िंदगी खेतों को सींचते हुए गुज़ारी, कैसे सूखे और बाढ़ से लड़ा, और कैसे उसने हर मुश्किल में धरती का साथ नहीं छोड़ा। रामनाथ की आँखों में वो चमक थी, जो किसी शहरवासी की आँखों में नहीं दिखती। आर्यन ने सोचा, “ये लोग भले ही गरीब हों, लेकिन इनकी आत्मा अमीर है। ये असल में जीवन जीते हैं।”

आगे की यात्रा में आर्यन को कई और लोग मिले। एक बूढ़ी औरत, जो नदी के किनारे फूल चुन रही थी, उससे बोली — “बेटा, फूल चुनो, खुशबू को अपनी सांसों में भर लो। जीवन बहुत छोटा है। फूल की खुशबू की तरह गुजर जाता है।” उसकी बातें आर्यन के दिल में उतर गईं। वो हर मोड़ पर रुकता, लोगों से बातें करता, उनकी कहानियाँ सुनता। एक जगह उसने देखा कि गाँव के बच्चे कागज़ की नावें बनाकर तालाब में छोड़ रहे हैं। वो खुद भी उनके साथ बैठ गया और कागज़ की नावें बनाने लगा। बच्चों की मासूम हँसी में उसे वो आनंद मिला, जिसे वो बरसों से खो चुका था।

शाम ढलते-ढलते आर्यन फिर एक नए गाँव में पहुँचा। यहाँ उसका स्वागत करने कोई आगे नहीं आया। गाँव सुनसान था। उसे पता चला कि यहाँ के लोग रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर चले गए थे। खाली घरों की खिड़कियाँ और टूटी दीवारें किसी अनकहे दुःख की कहानी कह रही थीं। आर्यन देर तक उन खंडहरनुमा घरों के बीच बैठा रहा, सोचता रहा कि शहर की चकाचौंध के पीछे किस कीमत पर ये उजड़ता गाँव छुपा है। वो रात उसने गाँव के बाहर एक पुराने पीपल के नीचे बिताई। हवा की सरसराहट, पत्तों की खड़खड़ाहट और दूर कहीं किसी परिंदे की आवाज़ ने उसे सुला दिया।

तीसरे दिन सुबह जब सूरज की पहली किरणों ने उसकी आँखें खोलीं, तो उसने पहली बार हिमालय की धुंधली रेखाएँ देखीं। वो दूर-दूर तक फैले नीले और सफेद पहाड़, जो बादलों की गोद में सोए थे। उसकी आत्मा में जैसे बिजली-सी दौड़ गई। उसने उन पहाड़ों की ओर हाथ फैलाया और अपने भीतर एक पुकार सुनी — “आ जा, तेरा घर यही है। तेरी आत्मा की शांति यहाँ तेरा इंतज़ार कर रही है।” उसके कदम तेज हो गए। अब वो रुकना नहीं चाहता था। वो गाँवों की गलियों को पार करता, खेतों की मेंड़ों को लांघता, नदियों और झरनों को पार करता रहा।

रास्ते में उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। वो साधु नदी किनारे बैठा ध्यान में लीन था। आर्यन उसके पास जाकर बैठ गया। साधु ने आँखें खोलीं और बिना कुछ पूछे कहा — “तू भाग रहा है, लेकिन जान ले कि जहाँ जाएगा, खुद को पाएगा। रास्ते बाहर नहीं होते बेटा, रास्ते भीतर होते हैं।” ये सुनकर आर्यन की आँखों में आँसू आ गए। साधु ने उसे नदी का पानी पिलाया और आशीर्वाद दिया। उसने कहा — “इस यात्रा को साधना मान। हर कदम को तपस्या बना। तब तुझे अपने सवालों का जवाब मिलेगा।”

उस शाम जब सूरज पहाड़ों की ओट में छिप रहा था, आर्यन एक टीले पर बैठा हिमालय को निहार रहा था। दूर बादलों में छुपे सूरज की किरणें जैसे उसकी आत्मा को छू रही थीं। उसके भीतर एक नई शांति उतर रही थी। अब उसे लगा कि वो सही रास्ते पर है। वो जानता था कि ये यात्रा कठिन होगी, लेकिन वो तैयार था। उसने आसमान की ओर देखा, गहरी साँस ली और आगे बढ़ गया — उस अनजान राह पर, जहाँ हर मोड़ पर एक नई सीख, एक नई कहानी उसका इंतज़ार कर रही थी।

***

तीसरे दिन की दोपहर बीतते ही मौसम का मिज़ाज बदलने लगा। काले बादलों ने आसमान को ढक लिया और ठंडी हवाओं ने आर्यन के थके शरीर को सिहरन से भर दिया। अब वो एक कच्ची सड़क पर था, जहाँ दूर-दूर तक कोई बस्ती नजर नहीं आती थी। तभी आसमान गरजा, और मूसलधार बारिश शुरू हो गई। बारिश की बूँदें मानो धरती को झकझोर रही थीं, और आर्यन पूरी तरह भीग गया। वो अपनी टॉर्च जलाता, बुझाता, और कच्ची सड़क पर किसी आश्रय की तलाश करता रहा। दूर एक हल्की रोशनी दिखाई दी — एक छोटी-सी झोपड़ी जैसी जगह, जहाँ से धुएँ की लकीरें आसमान में उठ रही थीं। वो रोशनी की ओर भागा।

वो एक छोटा ढाबा था — मिट्टी की दीवारें, खपरैल की छत, और सामने एक लकड़ी की बेंच। ढाबे के भीतर एक बूढ़ा आदमी चूल्हे पर चाय चढ़ाए खड़ा था, और पास ही एक लड़की — करीब बीस साल की, सादे सलवार-कमीज़ में, भीगे बालों को झटकती हुई — मिट्टी पर जमा पानी को झाड़ू से बाहर निकाल रही थी। उसके चेहरे पर बारिश की बूँदों के साथ एक अनकही चमक थी, मानो वो इस तूफानी मौसम में भी खिली हुई हो। आर्यन ने लपक कर ढाबे की बेंच पर बैठते हुए राहत की साँस ली। बूढ़ा आदमी मुस्कुराया — “भीग गए बाबूजी? लो, चाय गरम-गरम मिल जाएगी।” लड़की ने बिना कुछ कहे उसके सामने स्टील का गिलास रख दिया।

उसने पहली चुस्की ली — चाय की गरमाहट उसके भीतर तक उतर गई। वो चाय नहीं, जैसे सुकून पी रहा था। बाहर बारिश अब भी बेरहमी से बरस रही थी, लेकिन ढाबे की उस छोटी सी जगह में उसे ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी मंदिर की शरण में आ गया हो। लड़की ने धीमे से कहा — “पहाड़ों की बारिश है साहब, कहीं रुक जाएँगे तो अच्छा। ये रास्ते रात में खतरनाक हो जाते हैं।” आर्यन ने पहली बार उस लड़की की आवाज़ पर ध्यान दिया। आवाज़ में सादगी थी, अपनापन था। उसके भीतर जैसे कोई तार हिल गया। वो सिर्फ चाय पीने नहीं, उस जगह की आत्मा को महसूस करने लगा था।

बारिश धीमी होने लगी थी, और ढाबे के भीतर अब सन्नाटा पसर गया था। बूढ़ा आदमी कोने में बैठा बीड़ी सुलगाने लगा और लड़की मिट्टी की दीवार से टेक लगाकर बाहर बारिश को निहारने लगी। आर्यन ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा — “तुम्हारा नाम क्या है?” लड़की ने हल्की मुस्कान के साथ कहा — “गुंजन। यहाँ लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं। आप तो शहर से आए लगते हो साहब?” आर्यन ने सिर हिलाया, और पहली बार दिल से कहा — “हाँ, भागा हूँ वहाँ से। जीना भूल गया था शायद।” गुंजन ने उसकी आँखों में देखा और बिना किसी सवाल के कहा — “यहाँ बारिश में भी जीना सीखते हैं लोग साहब। और शहर में भी, अगर दिल से चाहो, तो हर दिन नया हो सकता है।”

गुंजन की बातें आर्यन को अजीब लगीं। एक साधारण लड़की, जो इस ढाबे पर पिता की मदद करती है, कैसे इतनी गहराई से जीवन को समझती है? उसने पूछा — “तुम इतनी खुश कैसे रह लेती हो? यहाँ तो न रोशनी है, न आराम। न मोबाइल, न टीवी। तुम्हें कभी बाहर जाने का मन नहीं करता?” गुंजन हँसी — वो हँसी किसी ताजे फूल की खुशबू जैसी थी। उसने कहा — “साहब, खुशियाँ बाहर की चीज़ों से नहीं मिलतीं। जब तक दिल में संतोष न हो, बाहर की दुनिया चाहे जितनी रंगीन हो, आदमी दुखी ही रहेगा। मैं तो रोज़ सूरज को उगते देखती हूँ, चाय की महक में माँ की याद पाती हूँ, और इस बारिश की बूंदों में अपना साज बजता सुनती हूँ। इससे बड़ा सुख क्या होगा?”

उस रात आर्यन ने जाना कि जीवन के असली रंग सादगी में हैं। गुंजन ने उसे रोटियाँ परोसीं — मोटी-मोटी, हाथ से बनी, मिट्टी की खुशबू से भीगी हुई। वो रोटियाँ खाते हुए आर्यन की आँखों में नमी थी। न जाने क्यों, उसे माँ की गोद याद आ रही थी, वो दिन याद आ रहे थे जब छोटी-छोटी चीज़ों में वो खुशी पा लेता था। गुंजन की बातें, उसकी मुस्कान, उसकी आँखों की चमक — सब आर्यन के दिल में गहराई तक उतर गए।

बारिश थम चुकी थी। बाहर आसमान साफ होने लगा था और बादलों के बीच से आधा चाँद झाँक रहा था। ढाबे के पास बहती छोटी नदी की कलकल आवाज़ रात की शांति में संगीत भर रही थी। बूढ़ा आदमी एक कोने में लेट गया और खर्राटों में खो गया। आर्यन और गुंजन ढाबे के बाहर बैठे तारों को देख रहे थे। रात की ठंडी हवा में वो दोनों चुप थे, लेकिन उनकी चुप्पी में एक अनकहा संवाद चल रहा था। गुंजन ने अचानक कहा — “कल सूरज की किरणें इस रास्ते को सोने सा चमका देंगी। आप आगे बढ़ेंगे, लेकिन ये जगह, ये रात — याद रहेगी न?” आर्यन ने कहा — “मैं ये कभी नहीं भूलूँगा। तुम्हारी ये बातें मेरे साथ रहेंगी।”

रात गहराती रही। आर्यन को ऐसा लगा जैसे उसे अपनी यात्रा की मंज़िल का एक संकेत मिल गया हो। उसे ये समझ आने लगा था कि आत्म-खोज की राह पर सबसे बड़ी सीख वो होती है जो अनजाने रास्तों और साधारण लोगों से मिलती है। सुबह होते ही उसने बूढ़े आदमी और गुंजन से विदा ली। गुंजन ने उसे एक छोटी सी बाँसुरी दी — “जब मन बेचैन हो, तो इसे बजाना। ये पहाड़ों की हवा से बातें करती है।” आर्यन ने उस बाँसुरी को अपने सीने से लगा लिया। उसके लौटते कदम अब और मजबूती से बढ़ने लगे थे। हर कदम में अब एक नयी चेतना, एक नयी शांति समाई थी।

***

आर्यन की यात्रा अब गाँवों और पगडंडियों को पार कर एक नदी के किनारे जा पहुँची थी। यह नदी कोई बड़ी और विकराल धारा नहीं थी, बल्कि एक शांत, पतली लेकिन जीवनदायिनी धारा थी, जो पहाड़ों से उतर कर घाटी में अपना रास्ता बनाती थी। सुबह-सुबह की ठंडी हवा और नदी की सतह पर पड़ती सूरज की पहली किरणें उस दृश्य को किसी चित्रकला जैसा बना रही थीं। आर्यन ने अपने बैग को उतारा और एक पत्थर पर बैठ गया। उसके पैर पानी में डूबे हुए थे, और पानी की ठंडक उसके भीतर तक समा रही थी। उसने पहली बार महसूस किया कि यह ठंडक केवल शरीर को नहीं, आत्मा को भी सुकून दे रही थी। नदी की कलकल ध्वनि उसके कानों में किसी पुराने गीत की तरह बज रही थी। वो गीत जिसे वो पहचानता तो था, पर बरसों से भूला बैठा था।

वो देर तक वहीं बैठा, पानी को बहते देखता रहा। नदी की हर लहर जैसे उससे संवाद कर रही थी। वो अपनी डायरी निकाली और लिखा — “यह नदी मेरी तरह है। बह रही है, थकती नहीं। रास्ते में पत्थर आते हैं, वो उन्हें चूमकर निकल जाती है। कोई रुकावट उसे रोक नहीं सकती। काश, मैं भी इसी नदी की तरह बहना सीख जाऊँ।” नदी किनारे की उस नीरवता में केवल पक्षियों की चहचहाहट और हवा की सरसराहट थी। वो हर आवाज़ अब उसे किसी संदेश की तरह लग रही थी। जैसे प्रकृति अपने हर रंग में उसे कुछ सिखा रही थी।

दोपहर होते-होते आर्यन वहीं नदी किनारे एक पुराने पीपल के पेड़ की छाँव में सुस्ताने लगा। तभी उसकी नजर एक साधु पर पड़ी, जो नदी के बीच एक चट्टान पर ध्यान मग्न बैठा था। साधु का चेहरा शांत था, आँखें बंद थीं और शरीर स्थिर। जैसे वो साधु नहीं, नदी का ही हिस्सा हो। आर्यन देर तक उसे देखता रहा, फिर साहस कर उसके पास पहुँचा। साधु ने आँखें खोलीं और मुस्कराए। उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया, बस अपने पास बैठने का इशारा किया। आर्यन उनके पास बैठ गया। कुछ देर दोनों चुप रहे। फिर साधु बोले — “बेटा, नदी को देखता है? ये जीवन का पाठ पढ़ाती है। तू रुकना चाहे तो रुक, बहना चाहे तो बह। जो बहता है, वही जीता है।”

आर्यन ने धीरे से पूछा — “क्या बहना ही जीवन है?” साधु ने कहा — “हाँ, लेकिन बहाव में अपनी दिशा को न भूलना। जैसे नदी समंदर की ओर बहती है, तुझे भी अपनी आत्मा के सागर की ओर बहना है। रुकावटें आएँगी, लेकिन उनका सम्मान करना। पत्थरों को दोष मत देना। वो तेरे बहाव की परीक्षा लेते हैं।” साधु के शब्द सीधे आर्यन के दिल में उतरते चले गए। वो साधु का नाम पूछना चाहता था, पर साधु ने मुस्कुराकर कहा — “नाम में क्या रखा है? नदी का नाम भी सब जगह बदलता है, लेकिन वो नदी रहती है। तू भी अपना नाम भूल, अपनी धारा पहचान।”

उस दिन साधु ने उसे नदी के पानी से हाथ-मुँह धोने को कहा। पानी की ठंडक और शुद्धता ने आर्यन को भीतर से जगा दिया। साधु ने उसके माथे पर नदी की मिट्टी का तिलक लगाया और कहा — “अब तू बहना सीख गया। आगे का रास्ता तेरा इंतज़ार कर रहा है।”

रात होते-होते आर्यन नदी किनारे अपनी चटाई पर लेट गया। आसमान तारों से भरा था, और आधा चाँद नदी की सतह पर अपनी रोशनी बिखेर रहा था। हवा में ठंडक थी, लेकिन उसमें नदी की गंध मिली थी — एक अजीब सी सुकून देने वाली गंध। नदी की कलकल ध्वनि अब उसे गीत की तरह सुनाई दे रही थी। वो गीत जिसमें नदी कह रही थी — “मैं तेरा रास्ता हूँ, मैं तेरा सागर हूँ। तू थम मत, तू बहता चल।” आर्यन की आँखों से आँसू बह निकले। वो नहीं जानता था कि ये आँसू दुख के थे या सुकून के।

उसने अपनी बाँसुरी निकाली — वही बाँसुरी जो गुंजन ने दी थी। पहली बार उसने बाँसुरी को होंठों से लगाया और एक बेसुरा सुर निकला। लेकिन नदी की ध्वनि के साथ वो सुर भी सुंदर लगने लगा। वो देर तक बाँसुरी बजाता रहा — और बाँसुरी की आवाज़, नदी की ध्वनि, और हवा की सरसराहट मिलकर रात का संगीत रचने लगे। वो रात आर्यन के जीवन की सबसे सुंदर रात थी। वो जानता था कि उसकी यात्रा अभी लंबी है, लेकिन अब उसके भीतर बहने की हिम्मत जाग चुकी थी। वो सो गया — नदी के गीत को दिल में बसाए।

***

हिमालय की ओर बढ़ते-बढ़ते अब आर्यन का रास्ता और कठिन हो चला था। पथरीली पगडंडियाँ, गहरी खाइयाँ और आसमान छूती चट्टानें उसके साहस की परीक्षा ले रही थीं। पैर थककर जवाब देने लगे थे, पर मन में बहती नदी-सी चेतना उसे आगे बढ़ा रही थी। एक मोड़ पर पहुँचते ही उसे कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। वो चौंककर रुका। सामने तीन पथिक नजर आए — तीनों उम्र और व्यक्तित्व में अलग। एक अधेड़ आयु का साधु, एक युवा फकीर जैसा दिखने वाला युवक, और तीसरा एक विदेशी यात्री, जिसके गले में रुद्राक्ष की माला और माथे पर लाल तिलक था।

वे लोग एक पेड़ की छाँव में विश्राम कर रहे थे। साधु ने आर्यन को देखकर मुस्कुराते हुए कहा — “आ जा बेटा, यात्रा अकेले नहीं होती, राह में संग मिल जाए तो उसे स्वीकार करना चाहिए।” आर्यन उनके पास जा बैठा। वहाँ बैठते ही उसे ऐसा लगा मानो वर्षों से बिछड़े अपने लोग मिल गए हों। साधु ने अपनी झोली से गुड़ और मूँगफली निकाली और सबको बाँटी। पथिकों ने अपने-अपने जीवन की कहानियाँ सुनानी शुरू कीं। युवक ने बताया कि वो गंगा किनारे पैदा हुआ, लेकिन दुनिया की भीड़ से तंग आकर अब साधना के लिए पहाड़ों की ओर जा रहा है। विदेशी यात्री ने कहा कि उसने अपनी नौकरी और जीवन की सारी विलासिता छोड़ दी, अब वो शांति की खोज में भारत आया है।

आर्यन ने उन्हें अपनी कहानी सुनाई — कैसे वो दिल्ली की दौड़ से भागा और इस यात्रा पर निकला। सुनकर साधु ने कहा — “बेटा, हम सब एक ही यात्रा पर हैं। बस दिशा और गति अलग है। अंत में सबका धाम एक ही है — आत्मा का सागर।” आर्यन को ऐसा लगा जैसे उसकी आत्मा की थकान मिट रही है।

सूरज अब पहाड़ियों की ओट में डूब चुका था और ठंडी हवा बहने लगी थी। चारों पथिकों ने मिलकर सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी कीं और एक छोटा सा अलाव जलाया। अलाव की लौ की गर्माहट उनके थके शरीरों को सुकून दे रही थी। चारों उसके चारों ओर बैठ गए। पगडंडी पर पसरे अंधकार में केवल अलाव की रोशनी ही जीवन का चिह्न थी। साधु ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा — “इस अग्नि को देखो बेटा, ये अग्नि ही जीवन है। ये जलती रहे, यही प्रयत्न करना है। चाहे तू साधु हो, पथिक हो, या गृहस्थ — अग्नि बुझनी नहीं चाहिए।”

विदेशी यात्री ने धीमे स्वर में कहा — “मैंने अपनी धरती पर बहुत कुछ पाया, लेकिन शांति नहीं। यहाँ इस अग्नि के पास बैठकर पहली बार लगा कि मैं जीवित हूँ।” युवक ने कहा — “अग्नि सबको एक कर देती है। इस अग्नि में न जात-पात है, न रंग-रूप। बस जीवन का संगीत है।” आर्यन उनकी बातें सुनता रहा। वो समझ रहा था कि ये अलाव केवल लकड़ियों की आग नहीं थी — ये आत्माओं की आग थी, जो चार अलग-अलग यात्रियों को जोड़ रही थी। उसने अपने भीतर की अग्नि को महसूस किया — वो अग्नि जो वर्षों से बुझी पड़ी थी, और अब फिर से जल उठी थी।

उस रात चारों ने रोटियाँ सेंकीं, गुड़ खाया और अपनी यात्रा की कहानियाँ बाँटीं। रात के सन्नाटे में अलाव की चटकती लकड़ियों की आवाज़ किसी मंत्रोच्चार जैसी लग रही थी। आर्यन ने पहली बार महसूस किया कि अनजाने पथिक भी जीवन के शिक्षक बन सकते हैं।

सुबह की पहली किरण ने पहाड़ों की चोटियों को सुनहरा कर दिया। चारों पथिक उठ खड़े हुए। अलाव की राख को मिट्टी में मिलाकर साधु ने कहा — “हर रात की तरह हर यात्रा का भी अंत होता है। लेकिन राख से फिर अग्नि उठती है, जीवन चलता रहता है।” चारों ने एक-दूसरे को प्रणाम किया। साधु अपनी दिशा में बढ़ गया, युवक अपने गाँव की ओर लौट चला और विदेशी यात्री हिमालय की गहराइयों में खो गया। आर्यन अकेला रह गया, लेकिन उसका दिल अब अकेला नहीं था। वो जान चुका था कि ये यात्रा केवल बाहरी नहीं, भीतर की यात्रा है।

उसने अपनी बाँसुरी निकाली और एक मीठा सुर छेड़ा। पहाड़ों की हवा में वो सुर घुल गया। आर्यन के कदम फिर से चल पड़े — मजबूत, निडर और सच्चे। अब उसे डर नहीं था रुकावटों से, क्योंकि वो जान चुका था कि हर रुकावट एक शिक्षक है, और हर मोड़ एक नया पाठ। वो चल पड़ा — हिमालय की उन ऊँचाइयों की ओर, जहाँ शायद उसे अपने सवालों का उत्तर मिलेगा।

***

दिन ढलते-ढलते आर्यन एक ऐसे मोड़ पर पहुँच गया, जहाँ से हिमालय की ऊँचाइयाँ अपने पूरे वैभव में दिखाई देने लगीं। दूर-दूर तक फैले बर्फ से ढके शिखर, बादलों में लिपटे चोटियाँ, और हर ओर फैली खामोशी — यह दृश्य इतना भव्य था कि आर्यन की आँखें नम हो आईं। वो देर तक एक बड़े पत्थर पर बैठकर इस सौंदर्य को निहारता रहा। हवा अब पहले से कहीं ठंडी थी और उसमें बर्फ की गंध घुली थी। हर सांस जैसे हिमालय की पवित्रता उसके भीतर भर रही थी।

आर्यन ने अपनी डायरी में लिखा — “शब्द कम पड़ जाते हैं जब आँखें हिमालय को देखती हैं। ये सिर्फ पहाड़ नहीं, जीवन का सत्य हैं। ठंडे, कठोर, लेकिन भीतर जीवन की नदियों को संजोए हुए।” सूरज की किरणें बर्फ की चोटियों पर पड़कर सोने जैसा आभा बिखेर रही थीं। वो जानता था कि ये रास्ता आसान नहीं होगा, लेकिन अब वो भीतर से तैयार था। उसके कदम अब थके हुए नहीं थे। हिमालय की पुकार उसे अपनी ओर खींच रही थी — जैसे माँ अपनी संतान को गोद में बुला रही हो।

हिमालय की ओर चढ़ाई आसान नहीं थी। पथरीली पगडंडियाँ, उबड़-खाबड़ रास्ते, और हर ओर फैली वीरानी — आर्यन की हर सांस अब संघर्ष बन गई थी। ऑक्सीजन की कमी, तेज हवाओं की मार और ठंड की चुभन उसके शरीर को कमजोर कर रही थी। लेकिन मन की शक्ति उसे आगे बढ़ा रही थी। रास्ते में उसे एक टूटी हुई झोपड़ी मिली, जहाँ उसने कुछ देर आराम किया। वहाँ की दीवारों पर किसी अनजान यात्री के शब्द उकेरे थे — “कठिनाई जीवन की आग है। इसी में तपकर आत्मा उज्जवल होती है।” उन शब्दों ने आर्यन को नया साहस दिया।

रास्ते में अचानक बर्फबारी शुरू हो गई। बर्फ की मोटी परतें पगडंडी को ढकने लगीं। आर्यन की हर कदम पर फिसलने की आशंका थी, पर वो रुका नहीं। उसने महसूस किया कि प्रकृति की कठोरता भी एक तरह की शिक्षा है — धैर्य, साहस और आत्म-विश्वास की शिक्षा। वो बार-बार गिरा, उठा और आगे बढ़ा। उसके कपड़े गीले हो चुके थे, होंठ नीले पड़ने लगे थे, लेकिन उसकी आँखों में हिमालय की बुलाहट अब भी जिंदा थी।

शाम होते-होते मौसम थोड़ा साफ हुआ। आर्यन ने एक चट्टान की ओट में अलाव जलाया। वहाँ वो अकेला था — केवल सितारे, बर्फ से ढकी घाटियाँ और रात की खामोशी उसका साथ दे रहे थे। आकाश में असंख्य तारे टिमटिमा रहे थे, जैसे हर तारा उसकी यात्रा की गवाही दे रहा हो। उसने बाँसुरी निकाली और हल्की सी धुन बजाई। हवा में बाँसुरी की वो मीठी आवाज़ घुल गई — पहाड़ों की खामोशी को चीरती हुई। वो धुन मानो उसके भीतर के डर और थकान को बहा ले जा रही थी।

रात की उस नीरवता में आर्यन ने खुद से संवाद किया — “मैं क्यों भागा? क्या शांति पाना इतना कठिन है?” और भीतर से उत्तर आया — “शांति कोई जगह नहीं, शांति एक अवस्था है। जब तू खुद से मिल जाएगा, तब शांति तेरे भीतर होगी।” उस रात हिमालय की गोद में बैठा आर्यन खुद के सबसे करीब था। वो जान गया कि उसकी यात्रा बाहरी से ज़्यादा अंदरूनी थी। वो सो गया — तारों की चादर ओढ़कर, हिमालय की छाँव में, आत्मा की आवाज़ को दिल में बसाकर।

***

शिखर पर बिताई उस रात के बाद, जब सूरज की पहली किरणों ने बर्फ की चोटियों को सुनहरा किया, आर्यन ने अपने भीतर एक नई ऊर्जा महसूस की। वो जानता था कि यात्रा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अभी बाकी है — लौटने की यात्रा। शिखर पर पहुँचना एक उपलब्धि थी, लेकिन लौटना एक जिम्मेदारी थी। हर कदम जो अब वो नीचे की ओर बढ़ा रहा था, उसे खुद से एक नया संवाद करने का अवसर दे रहा था। नीचे उतरते हुए हर पत्थर, हर मोड़ उसे ये सिखा रहा था कि जीवन की ऊँचाइयों पर पहुँचना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उन ऊँचाइयों से विनम्रता के साथ लौटना।

रास्ते में जब वो उन्हीं बर्फीली पगडंडियों पर से गुजरता, जिनसे चढ़ते समय उसका शरीर थक गया था, अब वो उन्हें किसी पुराने मित्र की तरह देख रहा था। वो रास्ते की कठिनाइयों का आभार प्रकट कर रहा था, क्योंकि इन्हीं ने उसे उसकी असली शक्ति दिखाई थी। हवा अब भी ठंडी थी, लेकिन उसमें अब डर नहीं था, सिर्फ अपनापन था। वो समझ चुका था कि हिमालय की हर ठंडी हवा, हर बर्फीला पत्थर उसका शिक्षक था।

नीचे उतरते हुए वो एक छोटे पहाड़ी गाँव में पहुँचा। गाँव के लोग साधारण थे — मिट्टी की झोपड़ियाँ, लकड़ी की खिड़कियाँ, और आँगनों में खेलते बच्चे। एक वृद्ध महिला ने उसे अपने घर में रुकने का निमंत्रण दिया। वहाँ उसे गरम दूध और मक्के की रोटियाँ मिलीं। वो स्वाद शहर की किसी भी बड़ी दावत से कहीं बढ़कर था। उस साधारण भोजन ने उसे जीवन की सरलता का स्वाद चखा दिया।

वृद्ध महिला ने उससे पूछा — “बेटा, क्या पाया तूने उन पहाड़ों पर जाकर?” आर्यन कुछ देर चुप रहा, फिर मुस्कराकर बोला — “माँ, पाया तो यही कि असली सुख बाहर नहीं, भीतर होता है। ये ऊँचे पहाड़, ये ठंडी हवाएँ, ये सब तो आईना हैं। जो भीतर है, वही दिखाते हैं।” वृद्ध महिला ने उसकी ओर देखा और कहा — “ठीक कहा बेटा, इसी को जीवन की साधना कहते हैं।” उस रात वो गाँव में रहा और पहली बार महसूस किया कि लौटना भी उतना ही सुंदर हो सकता है, जितना शिखर पर पहुँचना।

अगली सुबह वो गाँव से विदा हुआ। अब उसके लौटते कदम थके हुए नहीं थे, बल्कि उन कदमों में आत्मविश्वास और शांति का संगम था। वो जानता था कि उसकी यह यात्रा अब सिर्फ उसका नहीं रही — वो जहाँ भी जाएगा, वहाँ शांति और प्रेम की हवा लेकर जाएगा। रास्ते में उसने अपने कंधे से बाँसुरी निकाली और एक मधुर धुन छेड़ी। वो धुन अब उसके भीतर की यात्रा की गवाही थी।

रास्ते पर हर पेड़, हर पत्थर, हर बहती धारा उसे जैसे कह रही थी — “अब तू हमारा अपना हो गया है। लौटते हुए भी तेरे कदम हमारे साथ हैं।” आर्यन अब जानता था कि उसकी असली यात्रा शुरू हो चुकी थी — वो यात्रा जो उसे लोगों के बीच ले जाएगी, उनके दिलों तक पहुँचाएगी। हिमालय ने उसे आत्मा का गीत सिखाया था, और अब वो गीत उसके हर कदम में गूँज रहा था। लौटते कदम अब केवल शरीर के नहीं थे, वो आत्मा के कदम थे — और उन कदमों में जीवन की सच्चाई बस चुकी थी।

***

आर्यन अब घाटियों के रास्ते लौट रहा था। हिमालय की ऊँचाइयों से उतरते हुए वो हर मोड़ पर रुकता, चारों ओर की हरियाली और नदियों को देखता और गहरी साँसें लेता। उसे अब हर पेड़, हर फूल, हर पत्ता जैसे अपना साथी लगता था। लौटते हुए रास्ते में गाँवों के बच्चे उसकी बाँसुरी की धुन पर दौड़ते चले आते और उसके इर्द-गिर्द घेरा बना लेते। उनके मासूम चेहरे पर जो मुस्कान थी, वो आर्यन के दिल में उतरती जाती। वो उनकी आँखों में देखता और खुद को देखता। वो समझ गया था कि जीवन की असली दौलत वही निश्छल मुस्कानें हैं, जो किसी को उसकी सच्चाई से जोड़ती हैं।

वो गाँवों के चौराहों पर रुकता, बूढ़े किसानों से बतियाता और उनकी कहानियाँ सुनता। वो सुनता कि कैसे ये लोग मौसम की मार झेलते हुए भी जीवन से शिकायत नहीं करते। वो देखता कि उनके चेहरे पर हर लकीर एक कहानी थी — संघर्ष की, संतोष की, और सच्चे सुख की। आर्यन ने महसूस किया कि जिन सवालों के जवाब वो शिखरों पर खोज रहा था, वे जवाब इन साधारण लोगों की सादगी में ही छुपे थे।

एक दिन दोपहर की गर्मी से बचने के लिए वो एक किसान की झोपड़ी में जा बैठा। किसान ने उसे नमक रोटी और छाछ दी। वो भोजन इतना स्वादिष्ट था कि आर्यन ने पहली बार जाना कि भूख मिटाने वाला भोजन ही अमृत होता है। किसान ने उससे कहा — “बाबूजी, भगवान ने हमें दो हाथ दिए हैं, खेत दिया है, मौसम दिया है। बाकी जो है, वो तो सब दिखावा है।” आर्यन ने उस किसान की आँखों में देखा — वो आँखें थकी हुई थीं, लेकिन उनमें चमक थी। वो चमक संतोष की थी।

किसान ने मुस्कुराकर कहा — “साहब, आप बड़े शहर से आए लगते हो। वहाँ तो सब दौड़ते हैं, यहाँ हम धीरे चलते हैं। पर देखो न, धीरे चलने में भी हम मंज़िल पा लेते हैं। आप क्यों दौड़कर थक आए हो?” आर्यन ने किसान के आगे सिर झुका लिया। उसके पास कोई उत्तर नहीं था। उसने महसूस किया कि इस साधारण किसान ने उसे जीवन का वो पाठ पढ़ा दिया था, जो शहर की किताबें और व्याख्यान न दे सके।

उस शाम वो किसान की झोपड़ी के बाहर बैठा रहा और सूर्यास्त को देखता रहा। उसने जाना कि जीवन को देखने की दृष्टि बदल जाए, तो वही पुराना सूरज नया लगता है।

रात का अंधकार घिर आया था। पहाड़ी रास्तों पर टिमटिमाते जुगनुओं की रोशनी और रात की नीरवता में आर्यन के लौटते कदम अब थके हुए नहीं थे। वो कदम अब हर मोड़ पर जीवन की सुंदरता को देखना सीख चुके थे। उसकी बाँसुरी की धुन अब और मधुर हो गई थी। अब वो धुन उसकी आत्मा की आवाज़ थी, जो रास्ते के हर पथिक, हर झोपड़ी, हर चिड़िया तक पहुँच रही थी।

उसने मन ही मन प्रण लिया — “अब जब मैं अपने शहर लौटूँगा, तो वहाँ भी यही दृष्टि लेकर जाऊँगा। मैं वहाँ की भागदौड़ में भी सादगी, प्रेम और शांति के बीज बोऊँगा।” उसके लौटते कदम अब किसी साधारण पथिक के नहीं थे — वे कदम अब हिमालय की शांति, गाँवों की सादगी और किसान की सीख लेकर लौट रहे थे। वो जानता था कि उसकी असली मंज़िल वही थी — लौटकर जीवन को नया अर्थ देना। रात की ठंडी हवा में उसकी बाँसुरी गूंजती रही और लौटते कदमों की कथा सुनाती रही।

***

आर्यन अब उन रास्तों पर चल रहा था, जो उसे वापस शहर की ओर ले जा रहे थे। लेकिन ये वही रास्ते नहीं थे, और न ही अब वही आर्यन था। जिस पगडंडी से वो कभी थककर गिरा था, अब वही पगडंडी उसे अपने साथी की तरह लगती थी। हर पत्थर, हर मोड़ पर उसकी नजर रुकती, वो उन्हें देखता और मन ही मन धन्यवाद कहता। पहाड़ों की ठंडी हवा अब उसके भीतर की आग को बुझाने नहीं, उसे जीवन देने लगी थी। सूरज की किरणें पहाड़ियों के पीछे से झाँकतीं और उसकी परछाईं को लंबा करतीं — मानो उसकी आत्मा अब पहले से कहीं बड़ी हो गई थी।

रास्ते में गाँव के कुछ लोग उससे मिले, जिन्होंने उसे उस रात अलाव के पास बाँसुरी बजाते देखा था। वे मुस्कुराकर बोले — “बाबूजी, अब तो आप अपने जैसे नहीं दिखते। आपकी आँखों में अब शांति है।” आर्यन ने विनम्रता से सिर झुका लिया। वो जानता था कि ये शांति उसे बाहर से नहीं, उसके भीतर से मिली थी। रास्ते भर वो बच्चों के साथ चलता, उनकी मासूम बातों में खो जाता, और जानता कि जीवन की असली शिक्षा इन्हीं सादगी भरे लम्हों में है।

दिन ढलते-ढलते आर्यन ने अपने शहर की पहली झलक पाई। दूर से दिखती इमारतें, धुआँ उगलते कारखाने, भागती गाड़ियाँ — वही शोर, वही भीड़। लेकिन अब ये सब उसे वैसा नहीं लगा जैसा वो छोड़कर गया था। अब इस शोर में भी वो एक संगीत सुन पा रहा था। वो जान गया था कि जीवन की भागदौड़ में भी शांति को पाया जा सकता है, यदि मन शांत हो।

उसने अपनी बाँसुरी निकाली और शहर की सीमा पर खड़े-खड़े एक धुन बजाई। वो धुन अब उसके भीतर की यात्रा की गवाही थी। वो धुन हवा में घुली, गाड़ियों के शोर से टकराई और फिर शहर की गलियों में बह चली। लोगों ने पलटकर देखा — उन्हें नहीं पता था ये बाँसुरी का स्वर है या किसी आत्मा की पुकार। आर्यन ने महसूस किया कि अब उसकी जिम्मेदारी केवल खुद तक सीमित नहीं। वो अब इस शहर के लिए भी शांति और प्रेम का दूत था।

रात का अंधेरा घिर आया, लेकिन आर्यन के दिल में सूरज की किरणें अब भी चमक रही थीं। वो जानता था कि हिमालय की ऊँचाइयाँ अब उसके भीतर थीं। वो शांति जो उसने शिखरों पर पाई, अब वो उसके हर शब्द, हर कर्म में बस चुकी थी। उसने मन ही मन कहा — “ये यात्रा पूरी नहीं हुई, ये तो अब शुरू हो रही है। अब मुझे लोगों तक वो संदेश पहुँचाना है, जो हिमालय ने मुझे दिया — प्रेम, धैर्य और सादगी का संदेश।”

उस रात वो अपने कमरे में लौटा — वही पुरानी खिड़की, वही शहर की रौशनी। लेकिन खिड़की से बाहर देखते हुए उसे वही सितारे दिखे, जो शिखर पर दिखे थे। उसने बाँसुरी को अपने तकिए के पास रखा और आँखें मूँद लीं। उसके लौटते कदमों ने अब अपनी मंज़िल पा ली थी — वो मंज़िल जो किसी पहाड़ की ऊँचाई पर नहीं, दिल की गहराई में थी। और उसी मंज़िल से उसकी नई यात्रा शुरू हुई — भीतर से बाहर की ओर, खुद से दूसरों की ओर।

***

आर्यन लौट आया था — शहर की उसी भीड़ में, उसी शोर में, उसी दौड़ में जहाँ से वो भागा था। लेकिन अब उसके भीतर एक नया संसार बस चुका था। वो जान गया था कि भागकर शांति नहीं मिलती, शांति तो वहीं होती है जहाँ मन शांत होता है। हिमालय की ऊँचाइयाँ अब उसकी यादों में नहीं, उसके हर साँस में बसी थीं। वो हर सुबह सूरज की पहली किरण को देखता और मन ही मन हिमालय को नमन करता। उसकी बाँसुरी की धुन अब उसकी आत्मा की आवाज़ बन चुकी थी — वो आवाज़ जो उसे हर क्षण जीवन की सुंदरता का स्मरण कराती थी।

आर्यन अब सिर्फ अपने लिए नहीं जीता था। उसने अपने अनुभवों को लोगों के साथ बाँटना शुरू किया। वो बच्चों को बाँसुरी बजाना सिखाता, गाँवों में जाकर किसानों की कहानियाँ सुनता, और शहर के शोर में भी सादगी के गीत गाता। लोग उसकी ओर खिंचे चले आते। उन्हें उसके शब्दों में, उसकी धुनों में एक ऐसा संगीत सुनाई देता जो उनके थके हुए दिलों को सुकून देता। वो जान गया था कि शांति कोई वस्तु नहीं, कोई स्थान नहीं — शांति एक दीपक है, जिसे हर दिल में जलाना पड़ता है। और आर्यन अब वही दीपक जलाने का काम कर रहा था।

वर्षों बीत गए। आर्यन की कहानी अब एक लोककथा की तरह गाँव-गाँव, नगर-नगर में सुनी जाती। बच्चे अलाव के पास बैठकर उसके लौटते कदमों की कथा सुनते — कैसे एक युवक भागा, पहाड़ों पर गया, खुद को खोजा और लौटकर सबको शांति का रास्ता दिखाया। आर्यन अब एक व्यक्ति नहीं, एक विचार बन चुका था — एक विचार जो हर उस दिल में गूँजता था जो सच्ची शांति चाहता था। और उसकी बाँसुरी की धुन हवाओं में गूँजती रहती — लौटते कदमों की अमर कथा सुनाती हुई, जो पीढ़ियों तक लोगों को प्रेरणा देती रहेगी।

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