राकेश मिश्र
ऊँचे बर्फीले पर्वतों के बीच, जहाँ हवा में देवताओं की सांसें महसूस होती थीं, एक पुरानी पत्थर की गुफा थी — भीतर सन्नाटा, बाहर प्रकृति का मधुर संगीत। गुफा के भीतर विराजमान थे साधु बाबा, जिनका वास्तविक नाम किसी को नहीं मालूम था; सब उन्हें ‘बाबा’ कहकर ही बुलाते थे। वर्षों से इस गुफा में वे ध्यान, जप और प्रकृति की साधना में लीन थे। उनके आसपास न कोई मंदिर था, न कोई मूर्ति, न ही कोई सेवक या शिष्य—सिर्फ एक चटाई, एक कमंडल, और एक जलपात्र। उनके शरीर पर एक मोटी जटा-जूट की लहराती पगड़ी, चेहरा समय की लकीरों से भरा पर शांत और तेजस्वी, और उनकी आंखों में वह चमक थी जो मनुष्य को भीतर तक झाँकने पर मजबूर कर दे। हर सुबह वे सूर्य को नमन करते, पर्वत की ओर देखते हुए एक गहरी श्वास लेते, मानो इस ब्रह्मांड के स्वर को अपने भीतर भर लेना चाहते हों। वे दिन भर मौन रहते, लेकिन उनका मौन भी ऐसा था जैसे खुद ब्रह्मा उनसे फुसफुसाकर कोई रहस्य साझा कर रहे हों। पास के गाँव से कुछ छोटे बच्चे प्रतिदिन आते—कभी खेलते हुए, कभी चुपचाप उन्हें ताकते हुए। बाबा उन्हें मुस्कान से निहारते, और फिर कुछ कहानी, कोई किस्सा, कोई छोटी-सी बात उन्हें नीति की भाषा में सुना देते। बच्चे मंत्रमुग्ध होकर सुनते—उन्हें न ज्ञान की परिभाषा मालूम थी, न दर्शन की भाषा, लेकिन बाबा की कहानियाँ उनके दिलों में उतर जातीं।
उन बच्चों में एक था माधव—तेरह साल का, नटखट, पर भीतर से बेहद जिज्ञासु। एक दिन वह बाबा से पूछ बैठा, “बाबा, आपके पास कुछ नहीं है, तो आप इतने खुश कैसे रहते हैं? मेरे पिताजी रोज़ काम करके भी हमेशा चिंता में रहते हैं।” बाबा कुछ क्षण शांत रहे, फिर उन्होंने पत्थर से उठी एक छोटी घास को दिखाया और बोले, “बेटा, यह घास हर साल कटती है, फिर भी हर बार उगती है। इसे शिकायत नहीं, विश्वास होता है कि सूरज उसे फिर से जीवन देगा। जब जीवन पर विश्वास हो, तो चिंता का कोई स्थान नहीं रहता।” माधव यह बात समझ नहीं पाया, पर उसने वह घास जेब में रख ली। अगले दिन गाँव में उसने अपनी माँ से कहा कि उसे खेतों में काम करना है क्योंकि “बाबा कहते हैं, मेहनत ही विश्वास है।” धीरे-धीरे गाँव के लोग यह जानने लगे कि वह बाबा कोई साधारण साधु नहीं, बल्कि एक ऐसे ज्ञानी हैं जिनका ज्ञान किताबों से नहीं, अनुभव और मौन से निकला है। कुछ वृद्धजन भी अब उनके पास आने लगे—अपने दुख, हानि, और थकान को लेकर। बाबा किसी को समाधान नहीं देते थे, वे केवल शांति देते थे, और शांति में ही वे सब अपने उत्तर खुद ढूंढ़ लेते थे।
एक दिन एक बूढ़ा लकड़हारा थका-मांदा आया और बोला, “बाबा, मेरी कमर अब पेड़ काटने लायक नहीं रही, पेट कैसे पालूँ?” बाबा ने अपनी झोपड़ी की दीवार पर टिके एक पुराने लकड़ी के टुकड़े की ओर इशारा किया और बोले, “जिस लकड़ी को कोई काम का नहीं समझता, वही अगर धूप में रखा जाए तो महक देती है।” यह कह कर उन्होंने उसे वही लकड़ी दी और कहा, “इससे चूल्हे जलाओ, पर याद रखो, अग्नि केवल जलाने के लिए नहीं होती, प्रकाश देने के लिए भी होती है।” लकड़हारा बिना पूरी तरह समझे वह लकड़ी लेकर चला गया, लेकिन उस रात जब उसकी झोंपड़ी में पहली बार लकड़ी की गंध के साथ भोजन बना, तो उसकी पत्नी ने कहा, “आज घर में किसी मंदिर जैसी सुगंध है।” तब उसे बाबा की बात का अर्थ समझ आया। धीरे-धीरे वह बाबा की बातें दूसरों को सुनाने लगा, और गाँव में साधु बाबा का नाम ‘शब्दों के बिना उपदेश देने वाले संत’ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। गुफा की परछाईं में ज्ञान का ऐसा दीप जल रहा था जो सिर्फ आँखों से नहीं, हृदय से देखा जा सकता था। वहाँ न किताबें थीं, न शास्त्र, न प्रवचन—केवल मौन, जो स्वयं गूँज बनकर नीति बन जाता था।
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दूर शहर में, जहाँ धन और वैभव का बोलबाला था, वहीं रहता था सेठ रघुनाथदास—एक नामी व्यापारी, जिसकी हवेली संगमरमर की थी, घोड़े सोने की नालों से जड़े हुए थे, और नौकर इतने कि कभी किसी सेठ ने अपने ही नाम की गिनती भूल जाए। रघुनाथदास के लिए जीवन का एक ही मंत्र था—“जिसके पास ज़्यादा है, वही श्रेष्ठ है।” उसने हमेशा यही देखा था कि धन से लोग झुकते हैं, सत्ता सिर नवाती है, और संसार स्वयं चरणों में आ बैठता है। परंतु भीतर ही भीतर उसे एक अशांति खाए जा रही थी—एक ऐसा खालीपन जो रात को नींद में भी आवाज़ देता, मगर उसका उत्तर कहीं नहीं मिलता। इसी बेचैनी को दूर करने के लिए जब उसने व्यापार से कुछ दिन का विराम लिया, तो एक व्यापारी मित्र ने सलाह दी, “हिमालय जाओ सेठजी, वहाँ एक साधु हैं जिनसे मिलकर बड़े-बड़े राजा भी लौटते हैं बदल कर।” रघुनाथदास ने सोचा—“क्यों न इस ‘मौन महात्मा’ की असलियत देखी जाए? देखूँ कैसे बिना कुछ पाए कोई शांति की बात करता है?” और इसी विचार के साथ उसने अपने साथ एक सेवक, कुछ मिठाई, कीमती वस्त्र और उपहास की मुस्कान साथ ली और निकल पड़ा पहाड़ों की ओर।
तीन दिनों की यात्रा के बाद रघुनाथदास की पालकी उस चट्टानी मार्ग पर पहुँची जहाँ साधु बाबा की गुफा थी। वह जगह जहाँ न कोई मन्दिर का घण्टा था, न कोई तीर्थयात्रियों की भीड़, बस एक गुफा, कुछ फूलों की बेलें, और दूर-दूर तक फैला नीरव मौन। बाबा धूप में आँखें मूँदे बैठे थे, उनके पास केवल एक जलपात्र और एक टूटी माला थी। सेठ जैसे ही वहाँ पहुँचा, उसके पाँव ठिठक गए—शायद वातावरण में कुछ ऐसा था जो उसके धन की चकाचौंध को फीका कर रहा था। उसने ज़ोर से खाँसकर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की, फिर बोला, “हे बाबा! मैं रघुनाथदास हूँ, शहर का सबसे बड़ा व्यापारी। सुना है आपके पास कुछ है, जो बड़े-बड़े पंडितों के पास भी नहीं। पर अभी तक तो मुझे कुछ भी नहीं दिखा—न पुस्तकें, न शिष्य, न वैभव। क्या सच में आपके पास कुछ है?” बाबा ने आँखे खोलीं और केवल मुस्कराए। उनके चेहरे पर न तो क्रोध था, न व्यंग्य—बस एक ऐसा मौन जो किसी शब्द से अधिक भारी था। सेठ को यह खामोशी असहज कर गई। उसने आगे बढ़कर कुछ मिठाई और वस्त्र बाबा की ओर बढ़ाए, जैसे किसी गरीब को दान दे रहा हो। बाबा ने सिर झुका कर मिठाई ग्रहण कर ली, लेकिन वस्त्र लौटाते हुए बोले, “धन्य हैं वे जो देने का भाव रखते हैं, पर उससे भी अधिक वे जो कुछ भी बिना दिये शांत रहना जानते हैं।”
यह सुनते ही सेठ की भौंहें तन गईं। “तो आप कहना चाहते हैं कि जो मेरे पास है, वो व्यर्थ है? क्या धन, वैभव, सफलता सब मोह है?” वह झुँझलाते हुए बोला। बाबा ने कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि पास की एक सूखी पत्तियों की ढेरी से एक कागज की नाव निकालकर धीरे से पास की धार में छोड़ दी। वह नाव कुछ दूर बहती रही और फिर एक पत्थर से टकराकर डूब गई। बाबा बोले, “जो चीज़ पानी को नहीं समझती, वो उस पर अधिक देर नहीं ठहरती।” सेठ कुछ न समझ सका। वह अंदर ही अंदर खीझ उठा—“यह साधु बातों में मुझे उलझा रहा है।” उसने कहा, “आपकी ये पहेलियाँ मेरे व्यापार में काम नहीं आएँगी। मुझे बताइए, क्या आपके पास ऐसा कोई ज्ञान है जो मुझे वह सुख दे सके जो मेरा सोना भी नहीं दे सका?” तब बाबा ने चुपचाप एक छोटी थैली निकाली और बोले, “यह मेरी दौलत है। इसे लेकर जाओ और सात दिन बाद लौट कर बताओ कि तुम्हें क्या मिला। फिर हम बात करेंगे।” सेठ उस थैली को ऐसे उठा रहा था जैसे वह उसमें कोई रत्न या राजकीय रहस्य हो। उसकी आँखों में अब उत्सुकता भी थी और अविश्वास भी। बाबा ने उसकी आँखों में झाँका, जैसे बिना कहे ही पढ़ लिया हो कि यह व्यक्ति जवाब से नहीं, स्वयं से डरता है। और उस पल से एक नई यात्रा की शुरुआत हुई—जहाँ अमीरी और ज्ञान की परिभाषाएँ आमने-सामने खड़ी थीं।
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सेठ रघुनाथदास ने जैसे ही वह छोटी-सी थैली अपने हाथ में ली, उसे एक विचित्र भाव ने घेर लिया। थैली देखने में साधारण थी—गहरे भूरे रंग की, किनारे से थोड़ी घिसी हुई, और हल्की। इतनी हल्की कि रघुनाथदास को लगा जैसे इसमें कुछ है ही नहीं। फिर भी वह मन ही मन सोचता रहा कि बाबा जैसा व्यक्ति कोई खेल तो नहीं कर सकता। क्या यह थैली किसी चमत्कारी तत्व से भरी है? क्या इसमें कोई गुप्त मंत्र या रत्न छिपा है? क्या यह उस शांति की कुंजी है जिसकी वह इतने वर्षों से तलाश कर रहा था? इन्हीं सवालों और बेचैनी के साथ वह पहाड़ से नीचे उतरने लगा। रास्ते में वह थैली को बार-बार उलटता-पलटता रहा, कान लगाकर हिलाता, सूंघता, परंतु उसमें कोई विशेष गंध या ध्वनि नहीं थी। उसे लगने लगा कि यह साधु कोई चालाकी कर रहा है। उसकी आँखों में शक उतर आया, और हृदय में क्रोध पनपने लगा—“मैंने अपना समय बर्बाद किया… एक भिक्षुक के फेंके हुए जाल में फँस गया!” परंतु किसी अदृश्य शक्ति के वश में, वह उस थैली को फेंक नहीं सका। शायद उसकी आत्मा के एक कोने में विश्वास की एक हल्की-सी लौ अभी भी जल रही थी।
तीन दिनों की यात्रा के बाद जब रघुनाथदास अपने आलीशान हवेली में पहुँचा, वहाँ उसका स्वागत नौकरों ने किया, पर पहली बार उसे लगा कि यह सब किसी कठपुतली नाटक की तरह बनावटी है। उसने सीधे अपने कमरे का रुख किया, दरवाजा बंद किया, और गहरी साँस लेकर वह थैली खोली। थैली के भीतर मात्र दो चीजें थीं—एक सपाट, चिकना-सा कंकड़ और एक हरा ताज़ा पत्ता। बस! रघुनाथदास का माथा घूम गया। “क्या यह मज़ाक है?” वह चिल्लाया। उसने दोनों चीजों को मेज़ पर पटका और गुस्से से कमरे में टहलने लगा। इतने वर्षों का व्यापार, अनुभव, गणना और चतुराई—सब मिलकर भी वह इस “दौलत” का अर्थ नहीं निकाल पाया। उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसकी बुद्धि का अपमान हुआ है। उसने थैली को एक ओर फेंक दिया, परंतु पत्ता नीचे गिरकर उसकी किताबों के बीच अटक गया और कंकड़ ज़ोर से गिरा—एक भारी सी आवाज़ के साथ, मानो वह केवल पत्थर नहीं, कोई प्रश्न था। उस रात रघुनाथदास सो नहीं सका। उसके मन में बार-बार वह साधु की आँखें घूमती रहीं—वो शांत, लेकिन सब कुछ जानने वाली दृष्टि। उसके आसपास सोने के बर्तन, चाँदी की सजावटें और कीमती कालीन तो थे, लेकिन उस पत्ते और कंकड़ जैसी सादगी और गूढ़ता उनमें कहीं नहीं थी।
अगली सुबह रघुनाथदास थका हुआ, पर कुछ शांत दिख रहा था। उसने उस पत्ते और कंकड़ को फिर से उठाया और उन्हें गौर से देखने लगा। कंकड़ पूरी तरह गोल और समय की धूप से चमकदार था, जैसे वर्षों से किसी नदी में बहता आया हो। और पत्ता ताज़ा था, हरा-भरा, जैसे अभी-अभी किसी वृक्ष से टपका हो। तभी उसके छोटे बेटे ने आकर पूछा, “पिताजी, ये क्या है?” सेठ ने चुपचाप कहा, “शायद यह किसी साधु की दौलत है।” बेटा मुस्कराया और बोला, “तो फिर ये अमूल्य है!” सेठ चौंक गया—क्या ये बात इतनी सरल थी? उसने अपने सेवक को बुलाया और पुछा, “तुम क्या सोचते हो इस पत्ते के बारे में?” सेवक बोला, “बाबूजी, ये तो जीवन का प्रतीक लगता है—जब तक हरा है, तब तक जीवित है, ताज़ा है।” फिर किसी और ने कहा, “पत्थर तो नदी में धैर्य और बहाव का प्रतीक होता है।” हर किसी की अपनी व्याख्या थी। सेठ अब समझने लगा था कि साधु ने उसे दौलत नहीं दी, बल्कि दृष्टि दी है—हर वस्तु को अर्थ देने वाली दृष्टि। अब उसे वह पत्थर मात्र पत्थर नहीं लगा, बल्कि अपने अहं को रगड़-रगड़ कर सम बना देने वाला संकेत लगा। और पत्ता—जिसे वह पहले फेंकना चाहता था—अब उसे प्रतीक लगा एक सरल, सजीव और सुंदर जीवन का। उसके भीतर कुछ बदलने लगा था। वह पहली बार खामोशी से मुस्कराया और निर्णय लिया—“मैं सातवें दिन उस साधु के पास फिर जाऊँगा। लेकिन इस बार, जवाब माँगने नहीं… समझने के लिए।”
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रघुनाथदास के जीवन में पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी चीज़ को न तो वह मूल्यांकित कर पा रहा था, न उपयोग में ला पा रहा था, और न ही बेचकर कोई लाभ कमा सकता था। वह पत्थर और पत्ता जो एक साधु ने उसे “अपनी सम्पूर्ण दौलत” कहकर सौंपे थे, अब उसके लिए गले की हड्डी बन चुके थे। उसकी व्यापारी बुद्धि चीख-चीखकर कहती थी—”यह सब ढोंग है। यह तिरस्कार है। साधु ने तुम्हारे जैसे समृद्ध व्यक्ति का उपहास किया है।” दूसरी ओर, उसकी आत्मा—जो कभी किसी व्यापार में नहीं झाँकी थी—धीरे-धीरे कुछ असहज मौन में डूबती जा रही थी। रघुनाथदास अपने हवेली के सबसे भव्य कमरे में बैठा, जहां चारों ओर महंगी पेंटिंग्स, विदेशी पर्दे, चाँदी की दीवार घड़ियाँ, और चमचमाते फर्श थे, पर उसकी निगाहें बार-बार उसी साधारण कंकड़ और पत्ते पर टिक जातीं। कभी वह उन्हें मेज़ पर सजाकर देखता, कभी दीवार की ओर फेंकता, फिर उठाकर अपने हाथ में लेकर घूरता रहता, मानो उनमें से कोई रहस्य अचानक फूट पड़ेगा। यह वह व्यापारी नहीं था जिसे दुनिया जानती थी—यह एक उलझा हुआ, पर भीतर से टूटता हुआ व्यक्ति था, जो अब अपने ही बनाए साम्राज्य की दीवारों में बंद हो चुका था।
दूसरे दिन रघुनाथदास ने अपनी कोठी में आने वाले कुछ विद्वानों और पंडितों को बुलवाया और उन्हें वह थैली दिखाकर कहा, “बताइए, इसका क्या अर्थ है? एक साधु ने इसे अपनी सबसे बड़ी दौलत कहा है।” विद्वानों ने ग्रंथ खोले, मंत्रों की व्याख्या की, किसी ने पत्थर को “धैर्य का प्रतीक” कहा, किसी ने पत्ते को “जीवन चक्र का संकेत” बताया। पर रघुनाथदास की बेचैनी और बढ़ गई। वह बोला, “ये बातें मैं भी कह सकता हूँ! लेकिन उस साधु की मुस्कान, उसकी खामोशी, उसकी आँखें कुछ और कह रही थीं—जो मुझे नहीं सुनाई दे रहा।” वह तिलमिलाकर खड़ा हुआ, “क्या यह मेरी परीक्षा है? क्या मेरा अहंकार इतना बड़ा है कि मैं एक साधु की बात समझने के योग्य नहीं?” उसके नौकर और परिवारजन डर गए, क्योंकि उन्होंने कभी सेठ को इस तरह बात करते नहीं देखा था—वह अब क्रोध में नहीं, बल्कि पीड़ा में डूबा हुआ था। उसी रात उसने वह थैली कमरे की खिड़की से बाहर फेंक दी और ज़ोर से चिल्लाया, “मैं ठगा गया हूँ! वो साधु मुझे धोखा दे गया…!” लेकिन कुछ ही पलों बाद, जैसे कोई अदृश्य ध्वनि उसे भीतर से झकझोर गई—और वह चुपचाप बालकनी से उतरकर उस थैली को ढूँढ़ने लगा। पत्थर की चमक रात के चाँदनी में साफ़ दिख रही थी और पत्ता अब भी हरा था, ताज़ा, मानो वह कोई साधारण पत्ता नहीं, एक जीवंत प्रश्न हो।
तीसरे दिन, उसने अपने आप को आईने में देखा। आँखों के नीचे गहरे काले घेरे थे, चेहरा थका हुआ और माथे की लकीरें जैसे वर्षों की चिंता का चित्र बन गई थीं। वह अपनी आलीशान कोठी की उस विशाल आईने वाली दीवार के सामने खड़ा था, जहां कभी उसने खुद को दुनिया का सबसे सफल आदमी समझा था। अब वह सोच रहा था—“क्या मैं असफल हो गया हूँ?” ठीक उसी समय उसके बेटे माधव ने आकर कहा, “पिताजी, वो पत्ता तो अब भी नहीं सूखा… वो कुछ कह रहा है।” सेठ चौंक गया। उसके बेटे की मासूम बातों में वो गहराई थी जो पंडितों की पोथियों में नहीं थी। उसने पत्ते को फिर से हाथ में लिया और आँखें बंद कर लीं। कुछ ही क्षणों में उसे वह गुफा, वह शांत मौन, और साधु की आँखों का धीरज याद आया। उसने गहरी साँस ली और पहली बार जीवन में अपने भीतर झाँकने की कोशिश की—वहाँ उसे शोर मिला, लालच, घमंड, भय, और भ्रम… लेकिन उसी कोने में एक छोटा-सा द्वार था—एक रौशनी, जो बाबा की मुस्कान की तरह शांत थी। रघुनाथदास ने मन ही मन निश्चय किया—“मैं लौटूँगा… मैं समझने जाऊँगा, लड़ने नहीं। अब मैं उत्तर नहीं लूँगा, मैं मौन सुनूंगा।” और उसी क्षण से, उसका बदलना शुरू हो गया।
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रघुनाथदास की हवेली अब भी उतनी ही विशाल थी, वैभवशाली थी, सेवकों की कतारें लगी थीं, भोजन के पत्तल अब भी चाँदी के थे, लेकिन उसकी दृष्टि में सब कुछ बदलने लगा था। वह अब चीजों को देखने के लिए आँखों का नहीं, मन का उपयोग कर रहा था। उसे अब वे दीवारें सिर्फ सजावट नहीं लगीं—उन्हें देखने पर लगता मानो वे उससे कुछ कह रही हैं, उसके भीतर दबी उन इच्छाओं और संकल्पों का चित्रण कर रही हैं जो सालों से दबे पड़े थे। उस पत्थर और पत्ते ने उसकी चेतना की खिड़की खोल दी थी। वह दिन में कई बार बैठता, उन्हें अपनी हथेली पर रखकर घूरता, और हर बार कोई नया अर्थ, कोई नई परत, कोई नया संदेश सामने आता। उसे अब समझ में आने लगा था कि वह साधु बाबा उसे कोई भौतिक वस्तु नहीं, बल्कि एक दृष्टिकोण दे गए हैं—सोचने की, देखने की, और सबसे बड़ी बात, महसूस करने की दृष्टि। एक दिन उसने अपनी कोठी के कोने में बैठे एक बुज़ुर्ग नौकर से पूछा, “तुम इस पत्ते को देखो… क्या तुम इसे जीवन कह सकते हो?” नौकर ने हँसते हुए कहा, “सेठजी, जीवन तो हर उस चीज़ में है, जिसे हम प्रेम से देखें। यह पत्ता जब पेड़ से गिरा, तब भी हरा था… इसका अर्थ है, उसने अंत तक जीवन को थामा।” सेठ की आँखें नम हो गईं—यह बात किसी धर्मग्रंथ में नहीं, एक साधारण इंसान के दिल से निकली थी।
उस दिन से रघुनाथदास ने धीरे-धीरे अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना शुरू कर दिया। वह जो पहले हर चीज़ को ‘मूल्य’ से तौलता था, अब वह उसमें ‘अर्थ’ ढूँढ़ने लगा। जब वह अपने दुकान पर गया, तो देखा कि एक बूढ़ा ग्राहक चप्पलें घिसे हुए पहनकर खड़ा था। पहले होता तो वह सेवक से कहता, “इससे दूर रखो, खरीदार नहीं है।” लेकिन अब वह खुद उठकर उसके पास गया और मुस्कराकर बोला, “बाबाजी, आपको किस चीज़ की ज़रूरत है?” वह व्यक्ति चौंका, बोला, “सेठजी, आप मुझसे…?” सेठ ने हाथ जोड़कर कहा, “आपसे नहीं, स्वयं से बात कर रहा हूँ। आपको सामान देना मेरे लिए व्यापार नहीं, सेवा है।” वह बूढ़ा व्यक्ति बिना कुछ खरीदे चला गया, लेकिन उसकी आँखों में जो सम्मान था, वह रघुनाथदास के जीवन की सबसे बड़ी कमाई बन गया। फिर एक दिन, एक छोटा लड़का—कुली का बेटा—सेठ की हवेली के सामने झाँकता मिला। पहले तो गार्ड ने उसे भगाने की कोशिश की, पर सेठ ने रोका। वह बच्चे के पास गया, और पूछा, “क्या देख रहा है?” बच्चे ने कहा, “आपके बगीचे में बहुत सारे फूल हैं… क्या मैं एक तोड़ सकता हूँ?” सेठ ने उसकी आँखों में झाँककर देखा—वहाँ कोई लालच नहीं, सिर्फ सरलता थी। उसने बच्चे को बगीचे में बुलाया, एक गुलाब खुद तोड़कर दिया और बोला, “फूल तभी खिलता है जब उसे देखकर किसी का मन भी मुस्कराए… जैसे तुम।” वह बच्चा चला गया, लेकिन सेठ वहीं देर तक बैठा रहा, सोचता रहा कि इतने वर्षों तक वह क्या-क्या चूक गया।
अब हर दिन उसके लिए एक नया पाठ था। वह अपने बेटे के साथ खेतों में बैठकर मिट्टी छूता, गाय के चारा डालने में हाथ बँटाता, मंदिर की सीढ़ियाँ खुद धोता, और कभी-कभी अकेले में बैठकर फिर से उस पत्थर और पत्ते को उठाता। वह अब उन दोनों को केवल प्रतीक नहीं, संवाद समझने लगा था। पत्थर उसे कहता—“तू रुका रहा, तू घिसा, पर तू सधा”—और पत्ता कहता—“तू टूटा, फिर भी ताज़ा रहा।” उसे अब यह ज्ञान नहीं लगता था कि उसे किसी ने दिया है, बल्कि यह तो हमेशा उसके भीतर था, जिसे एक साधु ने बस उजागर कर दिया। उसने अब तय कर लिया कि सातवें दिन वह फिर उस गुफा की ओर लौटेगा—लेकिन इस बार, सवालों से नहीं, विनम्रता और मौन से। और वह मुस्कराया—वही मुस्कान जो पहली बार भीतर से निकली थी। उसकी पत्नी ने उसे देखा, और आश्चर्य से बोली, “आज तुम्हारा चेहरा बहुत शांत है।” सेठ ने जवाब दिया, “मैंने पहली बार जीवन को देखा है—सिर्फ कमाई के बाहर भी दुनिया है।” और इसी के साथ उसका सोचने का तरीका नहीं, उसका पूरा जीवन बदलने लगा।
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सातवां दिन जैसे ही आया, सेठ रघुनाथदास ने भोर होते ही अपने पुराने रेशमी वस्त्र नहीं, एक हलका सफेद कुर्ता पहन लिया। उसे आज न अपनी पालकी चाहिए थी, न सेवकों की भीड़। वह अकेले निकल पड़ा, उसी रास्ते पर, जहाँ से सात दिन पहले वह एक अहंकारी मुद्रा के साथ उतरा था। लेकिन इस बार उसकी चाल में कोई उतावला भाव नहीं था, कोई दिखावा नहीं—उसके कंधों पर अब स्वर्ण की गरिमा नहीं, विनम्रता का भार था। रास्ते में हर वृक्ष, हर पहाड़ी मोड़, हर बहती धारा उसे जैसे कुछ सिखा रही थी। जहाँ पहले वह उन दृश्यों को केवल ‘पर्यावरण’ समझकर अनदेखा कर देता था, अब वहीं उसे जीवन के संकेत मिलते। एक जगह उसने देखा—एक पेड़ की जड़ें सूखी थीं, लेकिन उसकी शाखाओं पर अभी भी नए पत्ते निकल रहे थे। वह वहीं बैठ गया, और कुछ पल आंखें बंद कर सोचता रहा—“शायद यही है जीवन का रहस्य, सूखे में भी हरा रहना।” रास्ते भर कई ग्रामीण उसे नमस्कार करते, लेकिन अब उनका अभिवादन व्यापारिक सम्मान नहीं, एक आत्मीयता से भरा होता—क्योंकि अब उनका सेठ बदल चुका था।
जैसे ही वह बाबा की गुफा के निकट पहुँचा, उसे दूर से ही साधु बाबा उसी स्थान पर ध्यानस्थ दिखाई दिए—जैसे वे हर समय वहीं होते हैं, समय के पार, भावनाओं के पार, शांति के मूल में। लेकिन रघुनाथदास को अब उनका मौन पहले जैसा रहस्यमय नहीं लगा—बल्कि वह जानता था कि यही मौन उसका उत्तर है। उसने धीरे से जाकर उनके चरणों में सिर झुका दिया और थैली बाबा को लौटाते हुए बोला, “मैं समझ नहीं पाया कि यह पत्ता और पत्थर दौलत क्यों हैं… लेकिन मैंने जीवन भर जितना कमाया, उसमें इतनी शांति कभी नहीं मिली जितनी मुझे इन सात दिनों में मिली।” बाबा ने आँखें खोलीं और मुस्कराए—वही मुस्कान, जो ना न्याय करती है, ना गर्व, बस स्वीकार करती है। उन्होंने थैली को फिर से सेठ की ओर बढ़ाते हुए कहा, “अब यह तुम्हारी है। यह पहले भी तुम्हारी ही थी—पर अब तुम इसे पहचानने योग्य बन गए हो।” सेठ ने दोनों चीज़ों को अपनी छाती से लगाया, जैसे कोई भक्त प्रसाद को हृदय में भर ले। उस क्षण, उसके मन में किसी संपत्ति, किसी तिजोरी, किसी सम्मान की इच्छा नहीं बची थी—वह केवल मौन चाहता था, शांति चाहता था, वह साधु का नहीं, उस मौन का शिष्य बन गया था।
बाबा ने फिर कहा, “तुम्हें जो दिया गया था, वह दौलत नहीं, दृष्टि थी। पत्थर तुम्हें स्थिरता सिखाता है, जो हर व्यस्त जीवन को चाहिए। पत्ता तुम्हें सरलता सिखाता है, जो हर भरे हुए जीवन में खो जाती है। जब तुमने इन्हें पकड़कर नहीं, समझकर देखा… तब तुम्हें सच्ची दौलत मिली।” रघुनाथदास ने सिर झुकाया और कुछ नहीं कहा—क्योंकि अब उसके पास कोई सवाल नहीं था, बस स्वीकृति थी। कुछ देर बाद, बाबा ने उसे गुफा के भीतर बैठने को कहा। उन्होंने कोई श्लोक नहीं पढ़ाया, कोई उपदेश नहीं दिया, बस चुपचाप एक दीपक जलाया और सामने रख दिया। उस लौ में जो कंपकंपाहट थी, वही उसका पाठ बन गई—शांति का, आत्मज्ञान का, संतोष का। उस दिन जब वह नीचे लौटा, गाँव के लोग हैरान थे। सेठ पहले की तरह नहीं, बेहद हल्का, शांत और सरल प्रतीत हो रहा था। उसने अपने सेवकों से कहा, “आज से इस हवेली का एक कमरा स्कूल बनेगा, एक रसोई गरीबों के लिए खुलेगी, और एक पुस्तकालय हर उस व्यक्ति के लिए जो ज्ञान को खोज रहा है।” उस दिन हवेली का रंग नहीं बदला, पर उसकी आत्मा बदल गई थी।
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गुफा के भीतर वह क्षण एक अमूर्त शांति से भरा हुआ था। कोई वेदपाठ नहीं, कोई मंत्रोच्चार नहीं, कोई साज-सज्जा नहीं—फिर भी उस पल की गरिमा किसी राजसभा से कम नहीं थी। साधु बाबा उस पत्थर की तरह स्थिर थे जिसे समय भी नहीं हिला सकता, और रघुनाथदास उस पत्ते की तरह नम्र हो चुका था, जो टूट कर भी सौम्यता से धरती को चूम ले। कुछ क्षण दोनों मौन बैठे रहे—एक ऐसा मौन जिसमें शोर नहीं, पर उत्तर था। आखिर बाबा ने अपनी गहरी, शांत आँखों से उसकी ओर देखा और पहली बार कहा, “तुम लौटे… लेकिन अब वही नहीं रहे।” रघुनाथदास ने सिर झुका लिया और धीमे स्वर में बोला, “मैं खोजने गया था दौलत… और पा गया खुद को।” बाबा मुस्कराए—“तुमने सात दिन में वह जाना जो लोग सात जन्म में नहीं जान पाते।” फिर उन्होंने पूछा, “उस पत्थर में क्या देखा तुमने?” सेठ बोला, “मैंने देखा कि वह किसी नदी में बहते-बहते घिस गया होगा… पर फिर भी सुंदर हो गया। मैंने जाना कि घिसना अपमान नहीं, परिष्कार है। यह वही है जो मुझे भीतर से करना था।” बाबा की आँखों में चमक आई। “और पत्ता?” बाबा ने पूछा। सेठ ने कहा, “वह टूटा था, फिर भी हरा था। मैंने जाना कि टूटना भी जीवन का हिस्सा है… लेकिन हरा रहना, ताज़ा रहना, यही सच्चा साहस है।”
बाबा अब चुप थे, लेकिन उनके भीतर जैसे कोई लहर उठ रही थी। उन्होंने एक छोटा सा प्रश्न और किया—“और अब तुम्हारे पास क्या है?” रघुनाथदास ने उत्तर दिया, “अब मेरे पास वह है जो कभी किसी तिजोरी में नहीं रखा जा सकता—संतोष, दृष्टि और मौन की समझ। मैं अब खुद को देखकर डरता नहीं… अब मैं कमाकर नहीं, जीकर खुश होता हूँ।” बाबा ने उस पत्थर को अपनी हथेली में रखा और कहा, “यह अब किसी गहने में नहीं जड़ेगा… यह अब किसी को चुभेगा नहीं… यह अब स्थिर है। जैसे तुम्हारा मन। और यह पत्ता… अब किसी शाखा पर नहीं, किसी ज्ञान के पृष्ठ पर रहेगा।” रघुनाथदास की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। वर्षों तक उसने करोड़ों के व्यापार किए थे, पर पहली बार किसी ने उसके भीतर का खाता देखा था। कोई उसे ग्राहक नहीं, आत्मा समझ रहा था। उसने बाबा के चरणों में सिर रख दिया और कहा, “मैं अब लौटूँगा, लेकिन केवल अपने लिए नहीं। अब मेरा जीवन उन लोगों के लिए होगा जो यह समझ नहीं पाए कि दौलत वास्तव में क्या होती है। मैं अब दौलत बाँटूँगा—पर वह जो आँखों से नहीं, हृदय से दिखाई देती है।”
बाबा ने अपने कमंडल से थोड़ा जल निकाला और पत्थर पर छिड़का। बोले, “यह अब पवित्र हो चुका है। जैसे तुम हो। जाओ, तुम्हारी साधना पूरी हुई नहीं… अब शुरू हुई है।” सेठ ने दोनों वस्तुएं पुनः अपनी थैली में रखीं और गुफा से बाहर निकलते हुए देखा—आकाश का रंग अब पहले जैसा नहीं था। पेड़, हवा, सूर्य—सब कुछ परिचित होते हुए भी नया लग रहा था। जैसे उसे अब पहली बार वह दृष्टि मिली थी जो संसार को भीतर से देखती है। गाँव के रास्ते में जब वह एक भिखारी के पास से गुज़रा, तो उसने उसे केवल ‘दाता’ की दृष्टि से नहीं देखा, बल्कि एक यात्री की तरह देखा, जो उसी यात्रा में है—बस पड़ाव अलग है। उस दिन रघुनाथदास ने किसी को कुछ देकर प्रसन्नता नहीं पाई, बल्कि कुछ न देकर भी साथ खड़ा होकर शांति अनुभव की। यही वह संवाद था जो साधु ने सिखाया—बिना बोले, बिना उपदेश, केवल मौन और प्रतीक से। वह संवाद अब केवल दो लोगों का नहीं था—वह अब समाज, आत्मा, और समय के बीच गूँज बन गया था।
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समय बीत गया, लेकिन रघुनाथदास अब वही व्यक्ति नहीं रहा। उसकी हवेली की दीवारें अब वैभव से नहीं, बच्चों की हँसी से गूँजती थीं। वह जिसे कभी ‘धंधा’ कहा करता था, अब ‘सेवा’ कहता था। उसने एक स्कूल की स्थापना की, जिसका नाम रखा — “सच्ची दौलत पाठशाला”, जहाँ केवल गणित, विज्ञान नहीं, जीवन का ज्ञान भी सिखाया जाता था। वहाँ बच्चों को पत्थर और पत्ते की कहानी सुनाई जाती, और हर विद्यार्थी को प्रवेश के दिन एक कंकड़ और एक पत्ता दिया जाता — यह कहकर कि “जब तक तुम इनमें कुछ नया देख पाओ, तब तक सीखना जारी है।” उस स्कूल में शिक्षक कोई डिग्रीधारी नहीं, जीवन के साधक होते थे — कोई किसान, कोई वृद्ध दादी, कोई साधारण नाविक। रघुनाथदास अब हर दिन एक साधु की भांति जीवन जीता। सुबह अपने बेटे के साथ बगीचे में बैठता, पेड़ों से बातें करता, और हर शाम स्कूल के प्रांगण में बच्चों को कोई नीति-कथा सुनाता। जो सेठ कभी दान देता था, अब अनुभव बाँटता था। उसे अब लोग सेठ नहीं, “बाबा रघुनाथ” कहकर पुकारने लगे थे। जीवन की सबसे बड़ी कमाई यही थी — सम्मान जो डर से नहीं, प्रेम और सीख से मिलता है।
परिवर्तन की सबसे बड़ी परीक्षा तब आई जब उसके छोटे बेटे माधव ने एक दिन पूछा — “पिताजी, क्या मैं भी साधु बाबा से मिल सकता हूँ?” रघुनाथदास कुछ क्षण मौन रहा, फिर बोला, “बेटा, वे जहाँ हैं, वहाँ कोई पगडंडी नहीं जाती… पर अगर तेरी दृष्टि साफ हो, मन शांत हो, तो तुझे वे हर जगह मिलेंगे।” फिर उसने वही थैली जो वर्षों पहले उसे बाबा ने दी थी — जिसमें पत्थर और पत्ता थे — वह थैली माधव को सौंप दी। “यह अब तेरी है। लेकिन यह कोई संपत्ति नहीं, यह एक प्रश्न है। इसे लेकर चलना, और जब कभी तुम उत्तर पाओ, लौट आना।” माधव ने थैली को माथे से लगाया, पर कुछ नहीं पूछा। वह जानता था — कुछ उत्तर शब्दों में नहीं, यात्रा में मिलते हैं। उसी दिन माधव गाँव से बाहर निकल पड़ा — कोई खोज नहीं, कोई घोषणा नहीं — बस उस थैली के साथ, जिस पर अब उम्र की धूल थी लेकिन अनुभव की चमक थी। रघुनाथदास ने उसे जाते देखा और मुस्कराकर आसमान की ओर देखा — मानो वही साधु बाबा उस नीले आकाश के बीच बैठे हों और कह रहे हों, “अब यह उत्तराधिकार आगे बढ़ गया है।”
वर्षों बीते… हवेली अब एक खुली पाठशाला बन गई थी, जिसमें उम्र की कोई सीमा नहीं थी। वहाँ छोटे बच्चे सीखते थे, बूढ़े लोग सिखाते थे, और रघुनाथदास एक पेड़ के नीचे बैठकर जीवन का अर्थ सुनाता था — मौन में, प्रतीकों में। एक दिन एक युवक वहाँ आया — लंबा, तेजस्वी, लेकिन विनम्र। उसने चुपचाप आकर वही थैली रघुनाथदास के हाथ में रख दी और बोला, “मैं समझ गया बाबा। अब यह मैं किसी और को दूँगा।” रघुनाथदास की आँखें भर आईं। वह जानता था — यही है सच्ची दौलत। जिसे जो मिला हो, वह बाँटे — लेकिन शब्दों में नहीं, जीवन में। उस दिन कोई उत्सव नहीं हुआ, कोई माला नहीं चढ़ी, कोई घण्टा नहीं बजा — परन्तु एक परंपरा जीवित हो गई, जो सिर्फ एक पत्थर और पत्ते के माध्यम से युगों तक बहती रहेगी। यह कहानी वहीं समाप्त नहीं होती… वह हर उस व्यक्ति में जीवित रहती है जो किसी दौलत को थैली में नहीं, दृष्टि में खोजता है। और जब भी कोई थका हुआ, खोया हुआ या भ्रमित व्यक्ति पहाड़ों की ओर जाता है — कोई न कोई मौन साधु उसे एक पत्ता और पत्थर ज़रूर देता है।
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