Hindi - रहस्य कहानियाँ

अधूरी तस्वीर

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असिम बर्मा


वाराणसी की उस पुरानी गली में जहां मकान सड़ चुके थे, दीवारें सीलन से भरी थीं और खिड़कियों से झाँकता धूप भी मानो थक हार कर लौट जाना चाहती थी, वहीं एक मोड़ पर खड़ा था वह मकान, जो न तो पूरी तरह खंडहर था, न ही पूरी तरह जीवित। मकान नंबर ३२। तीन मंजिला पर पुराना, ईंट से बना, और उसकी दीवारों पर चिपकी परतें समय की कहानी बयाँ करती थीं। मैं, राघव शास्त्री, उस दिन अपना सामान लेकर उस मकान के तीसरे माले की ओर बढ़ रहा था, जैसे कोई पुराना रिश्ता फिर से मिलने को बुला रहा हो।

मुझे अभी शहर में आए दो दिन ही हुए थे। दिल्ली की भागदौड़ से थककर मैं वाराणसी लौटा था, न चाहते हुए भी। कला में स्नातक करने के बाद बहुत कोशिशें कीं—प्रदर्शनियाँ, गैलरी, ऑनलाइन पोर्टफोलियो—पर न मेरा नाम बना, न पेट भरा। एक सहपाठी की सलाह पर मैं यहां आया था, ताकि सस्ता किराया मिले, और कुछ महीने अकेले बिताकर शायद मैं फिर से पेंटिंग की ओर लौट सकूं।

जब मकान मालिक श्रीमान मिश्रा जी मुझे कमरा दिखा रहे थे, तब ही कुछ असहज लगा था। उन्होंने सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बिना पूछे ही कहा था, “ऊपर की मंज़िल थोड़ी अलग है… पुराना है। कोई रहता नहीं बहुत समय से। अगर कोई आवाज़ सुनो तो समझना, दीवारों का रोना है।”

मैं मुस्कुराया था—कला की दुनिया में रहकर मैंने ऐसे ‘ड्रामा’ बहुत देखे थे। लेकिन जब मैंने उस कमरे का दरवाज़ा खोला, तो पहली बार कुछ ठिठका। कमरे में घुसते ही एक अजीब सी ठंडी हवा का झोंका मुझे छू गया, मानो कोई बीते ज़माने की सांसें अब भी दीवारों में जमी हों। लकड़ी की फर्श चटक रही थी, और कोनों में मकड़ियों ने महीनों से जमी जाले बुने थे।

कमरे का मुख्य भाग बड़ा था—एक खिड़की घाट की ओर खुलती थी, जहां से गंगा के दर्शन होते थे, और दूसरी खिड़की पर मोटा पर्दा लटका था, जिसे खींचने पर सामने एक छोटी-सी कोठरी दिखती थी। कोठरी का दरवाज़ा बंद था, और उस पर जंग लगा ताला पड़ा था।

“वो मत खोलना,” मिश्रा जी ने तुरंत कहा था, “नीचे से आवाजें आती थीं पहले। हमने बंद कर दिया। कोई ज़रूरत नहीं।”

मैंने गर्दन हिलाई, मगर भीतर कुछ चुभा। कलाकार की प्रवृत्ति होती है—जिसे मना किया जाए, वहीं रचनात्मक खिंचाव बढ़ता है।

रात को जब मैं बिस्तर पर लेटा, तो बाहर की दुनिया शांत थी, पर कमरे के भीतर समय की कोई घड़ी टिक-टिक कर रही थी। अलमारी के ऊपर रखी एक पुरानी पेंटिंग फ्रेम में जमी धूल मेरे मन को खींच रही थी। मैंने उठकर देखा—एक कोरा कैनवस था, जिस पर हल्के रेखाचित्र बने हुए थे। परंतु उसमें चेहरा अधूरा था। जैसे किसी ने आँखें बनाईं, होंठों की शुरुआत की, पर बीच में ही रुक गया हो।

क्या वह कोठरी में से आया था? या यह यहीं पड़ा था हमेशा से?

मैंने अगली सुबह दीवारों पर सफेदी की कुछ कोटिंग की, पुराने जाल हटाए, और अपने ब्रश, रंग, व कैनवस को व्यवस्थित किया। लेकिन भीतर-भीतर एक आवाज़ गूंज रही थी—वही अधूरी तस्वीर। ऐसा लगा जैसे वह मुझे देख रही हो। मेरी सांसें कुछ भारी होने लगीं। मैंने तस्वीर को एक कोने में रख दिया, पर उसकी आँखें… वे जैसे पीछा कर रही थीं।

तीसरे दिन एक अजीब बात हुई। सुबह-सुबह मैंने कमरे में हल्का संगीत बजाया और चित्र बनाने बैठा। मेरे ब्रश स्वतः उसी अधूरी तस्वीर की ओर मुड़ गए। मैंने आंखों के चारों ओर हल्के रंग भरे, होंठों के छोर को और तीखा किया, और कुछ ही पलों में चेहरा और स्पष्ट होता गया। मैं रुकना चाहता था, लेकिन एक अनजानी शक्ति मुझसे वह करवा रही थी।

तभी खिड़की के पास से कोई परछाईं गुज़री। मैं चौंका। नीचे झांका—घाट पर एक स्त्री खड़ी थी, लाल रंग की साड़ी में, उसका चेहरा धुंधला था। जैसे ही मैंने नज़रें टिकाईं, वह पलटकर ओझल हो गई।

मैंने सिर झटका, यह सोचते हुए कि नींद की कमी है। लेकिन उस रात, जब मैंने चित्र की ओर देखा, तो मुझे लगा, होंठ कुछ और खिंच गए हैं, जैसे कोई हल्की मुस्कान उभर रही हो।

एक कलाकार के लिए कल्पना और यथार्थ के बीच की दीवार बहुत पतली होती है। लेकिन तब भी मैं जानता था—मैंने वह मुस्कान नहीं बनाई थी।

आधी रात को फिर एक आवाज़ आई—जैसे किसी ने कोठरी का ताला हिलाया हो। मैं उठा, और दीवार से कान सटाकर सुना। अंदर कोई धीमे सुर में गा रहा था—पुरानी बनारसी ठुमरी की धुन में।

“मोरे नयनवा में बसे नंदलाल…”

मेरा रोंगटा खड़ा हो गया। मैंने रजिस्टर उठाया और नोट करने लगा, “यह महज़ भ्रम है। अकेलेपन का असर है।”

परंतु जब अगली सुबह ताले पर ताज़ा खरोंच मिले, और दीवार पर पेंट के धब्बे दिखे जो मैंने नहीं बनाए थे, तब समझ आ गया—इस कमरे में कोई और भी है।

या शायद कोई था, जो अधूरा रह गया था।

***

कमरे की दीवारों पर जो पहले सीलन की बदबू थी, वह अब कुछ और हो गई थी—जैसे किसी पुराने इत्र की हल्की सी महक, जो वक्त के साथ और रहस्यमय हो जाती है। खिड़कियों से छनती धूप उस अधूरी तस्वीर पर ऐसे गिरती, जैसे किसी पुराने रहस्य पर समय की परतें खुलने लगी हों।

मैंने जब पेंटिंग को फिर से ध्यान से देखा, तो कुछ बदला-बदला सा लगा। चेहरे की आँखें अब थोड़ी अधिक गहराई से बनी थीं—मानो उनमें अब एक स्मृति जीवित हो उठी हो। मैंने स्वयं को समझाया कि यह मेरा ही काम था, पर मन नहीं माना।

अगले दिन जब मैं घाट पर गया, तो गंगा के किनारे बैठकर मैंने स्केच बुक में कुछ चित्र बनाने शुरू किए। भीड़भाड़ के बीच भी मेरा ध्यान बार-बार एक ही चेहरे पर जा टिकता—एक स्त्री, लाल रंग की साड़ी में, बालों में चमेली का गजरा, और वह ठुमरी की धुन में कुछ गुनगुना रही थी।

मैंने स्केचिंग शुरू कर दी—तेज़, बेचैन रेखाएँ। उसी समय एक वृद्ध फकीर पास आकर बैठा और बोला, “उसका चेहरा मत बनाओ, बेटा। वह तुम्हारा चेहरा छीन लेगी।”

मैं चौंक गया। “कौन?”

“वो जो अधूरी है। अधूरी चीज़ें सबसे खतरनाक होती हैं। उन्हें पूरा करते-करते इंसान खुद अधूरा हो जाता है।”

मैं कुछ बोल नहीं पाया। फकीर उठकर चला गया, जैसे वह सिर्फ ये बात कहने आया था।

रात को कमरे में लौटकर मैं ब्रश उठाकर उसी तस्वीर के सामने बैठ गया। अब चित्र बनाना मेरी इच्छा नहीं, ज़रूरत बन गई थी। जैसे मेरे हाथ किसी और के नियंत्रण में थे। मैंने उसकी आँखों में और गहराई भरी, पलकों पर हल्के शेड्स डाले, और होंठों की वो स्मित रेखा खींची, जो स्मृति और व्यथा का मिश्रण थी।

घड़ी की सुइयाँ रुकी सी लगती थीं, और समय जैसे बह रहा था, मेरे ब्रश की धाराओं में। तभी एक आवाज़ आई—जैसे कोई मेरी पीठ के पीछे खड़ा हो और हल्के स्वर में कहे, “ठीक बना रहे हो, राघव…”

मैंने पलटकर देखा—कोई नहीं था।

कमरे की खिड़की खुली थी, और पर्दा हवा में हल्के से लहरा रहा था। बाहर वही स्त्री घाट की ओर जाती दिखाई दी। लेकिन जैसे ही मैंने आँखें टटोल कर फोकस कीं, वह गायब हो गई—पूरा दृश्य फिर से सामान्य हो गया।

मैंने खुद को शांत करने के लिए एक गिलास पानी पिया और फिर वापस चित्र की ओर देखा। एक नई रेखा दिखी—गाल पर एक काली बिंदी। यह मैंने नहीं बनाई थी।

मैं डर गया। किसी चित्र में खुद ब खुद परिवर्तन होना कोई सामान्य बात नहीं।

अगली सुबह मैंने पास की पुरानी किताबों की दुकान से वाराणसी के पुराने रहस्यों और स्थानीय किस्सों पर किताबें खरीदीं। एक किताब में एक अध्याय था—“नीलिमा वर्मा: एक नर्तकी का रहस्यपूर्ण अंत”।

नीलिमा—यह वही चेहरा था! किताब में दी गई तस्वीर और मेरे बनाए चित्र की समानता स्पष्ट थी। लेख में लिखा था कि वह एक प्रसिद्ध कथक नर्तकी थी, जो वर्षों पहले लापता हो गई थी। उसकी आखिरी परफॉर्मेंस उसी इलाके में थी जहां अब मैं रह रहा था। उसके गायब होने के बाद पुलिस ने उसकी तलाश की, लेकिन सबूत के अभाव में केस बंद कर दिया गया।

उसके बाद से वह इलाका “मनहूस” घोषित कर दिया गया था।

मेरे हाथ कांपने लगे। क्या मैं उसी स्त्री की तस्वीर पूरी कर रहा हूँ जो मर चुकी है? या फिर वह अब भी किसी रूप में जीवित है?

शाम होते-होते मुझे कोठरी के पास से हल्की सी गंध आने लगी—जैसे चंदन और इत्र की मिली-जुली सुगंध। दरवाज़े पर रखे ताले की चाभी अचानक दरवाज़े के पास फर्श पर मिली, जैसे किसी ने जानबूझकर वहां रख छोड़ी हो।

मैंने ताला खोलने की कोशिश की, पर मेरा हाथ रुक गया। अंदर से जैसे कोई सांस ले रहा हो।

मैं पीछे हटा और दीवार के सहारे बैठ गया। और तभी… चित्र के होंठ हिले—हल्की सी फुसफुसाहट मेरे कानों में पड़ी—”मुझे पूरा करो…”

मैंने आंखें बंद कर लीं।

पर अब यह खेल शुरू हो चुका था। और मैं जानता था, पीछे लौटना अब संभव नहीं।

***

घड़ी की सुइयों ने जब रात के तीन बजने की घोषणा की, तो मेरे कमरे की खामोशी घनीभूत हो चुकी थी। बाहर गंगा की लहरें अपनी लय में थीं, लेकिन भीतर कुछ स्थिर और भयावह था—जैसे दीवारें खुद अपनी सांसें रोककर मेरे अगले कदम का इंतज़ार कर रही थीं। अधूरी तस्वीर अब लगभग पूरी हो चुकी थी। चेहरे के नयन, नाक, होंठ, और माथे की लाल बिंदी—सब कुछ एकदम स्पष्ट था। केवल पृष्ठभूमि बची थी। लेकिन यह कोई साधारण चित्र नहीं था। यह अब एक जीवंत चेहरा बन चुका था।

मेरे भीतर एक बेचैनी थी, जो सामान्य डर से परे थी। कलाकार के रूप में यह मेरे जीवन की सर्वश्रेष्ठ कृति थी—और मनुष्य के रूप में, यह मेरा सबसे बड़ा डर।

मैंने तय किया कि मुझे इस स्त्री के बारे में और जानना ही होगा। अगले दिन, मैं पेंटिंग का छोटा स्केच बनाकर सीधे बनारस के पुरातत्व विभाग और फिर वहाँ के एक वरिष्ठ आर्ट डीलर राजीव तिवारी के पास पहुँचा, जिनसे पहले भी मेरा परिचय हो चुका था।

राजीव ने स्केच को देखते ही घबराकर अपनी कुर्सी पीछे खिसका दी। “तुमने… यह कहाँ देखा?” उसने कांपती आवाज़ में पूछा।

“मेरे कमरे में… एक पुरानी अधूरी तस्वीर मिली थी। मैं उसे पूरा कर रहा था। क्या आप जानते हैं यह कौन है?”

राजीव की आँखों में भय की परछाई थी। उसने धीमे स्वर में कहा, “यह चेहरा… यह नीलिमा वर्मा का है।”

“नीलिमा वर्मा?” मैंने जानबूझकर अनभिज्ञता जताई।

“हाँ, वाराणसी की सबसे खूबसूरत कथक नर्तकी थी। लगभग सात साल पहले एक शाम को अचानक लापता हो गई थी। आखिरी बार उसे उस इलाके में देखा गया था, जहाँ अब तुम रह रहे हो।”

मेरी साँसें रुक गईं।

“तुम्हें पता है,” राजीव आगे बोला, “उसका मामला पुलिस ने आत्महत्या मानकर बंद कर दिया। लेकिन कोई शव नहीं मिला। कोई चश्मदीद नहीं। सिर्फ कुछ धुंधली अफवाहें।”

“क्या अफवाहें?” मैंने पूछा।

“कहा जाता है कि उसका एक अफेयर था एक बुज़ुर्ग कलाकार से—बहुत प्रसिद्ध, बहुत ताकतवर। वो नहीं चाहता था कि नीलिमा उसे छोड़ दे। कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि उसने नीलिमा को अपने स्टूडियो में बंद कर दिया था… शायद हमेशा के लिए। लेकिन किसी के पास कोई प्रमाण नहीं था।”

मैंने पेंटिंग का पूरा विवरण उन्हें नहीं बताया। सिर्फ यह कहा कि मुझे वह तस्वीर मेरे फ्लैट में मिली थी। लेकिन जैसे ही मैंने अपना पता बताया, राजीव चौंक गया।

“३२ नंबर मकान?”

“हाँ।”

“वही मकान जहाँ नीलिमा आखिरी बार देखी गई थी। जहां से वो कभी बाहर नहीं आई।”

अब सब कुछ जुड़ता जा रहा था।

रात को मैं पेंटिंग के सामने बैठा रहा। मैंने उसमें कुछ और रंग भरे—उसके बालों में चमेली के फूलों की आकृति, पृष्ठभूमि में एक हल्का लाल परदा। पर चित्र के साथ-साथ मेरी कल्पनाएँ अब यथार्थ से टकरा रही थीं।

उस रात मैंने फिर सपना देखा—लेकिन यह कोई सपना नहीं था, एक पूर्ण दृश्य था, एक कथा, जिसमें मैं दर्शक नहीं, पात्र था। मैं खुद को एक पुराने स्टूडियो में खड़ा देख रहा था, और सामने नीलिमा नाच रही थी। उसकी आँखों में भय था। पीछे से कोई पुरुष की आवाज़ आ रही थी—”तुम मेरी हो, नीलिमा। कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। यही तुम्हारी मंज़िल है।”

नीलिमा ने पलटकर मुझे देखा—सीधा मेरी आँखों में—”राघव, मुझे बचाओ…”

मैं पसीने में डूबा उठा। मेरी हथेलियों में रंग लगा था, पर मैं रात को नहीं उठा था—तो ये रंग कहाँ से आए?

तभी खिड़की के बाहर हलचल हुई। मैंने देखा—वही लाल साड़ी, वही चमेली का गजरा। औरत घाट की ओर जा रही थी। मैंने पेंटिंग की ओर देखा—उसके होंठों पर अब एक अस्पष्ट मुस्कान थी, जैसे वह जानती हो कि मैंने उसे पहचान लिया है।

मैं अब जानता था—यह केवल एक चित्र नहीं, एक दस्तावेज़ था। किसी छिपे अपराध, किसी अधूरी पुकार, किसी रूह की अदृश्य चीख़ का दस्तावेज़। और मैं, अनजाने में, उस अधूरी कहानी को पूरा करने का ज़रिया बन गया था।

अब सवाल यह था—क्या मैं नीलिमा की आत्मा को उसकी पूरी कहानी वापस दे सकता हूँ? या मैं भी उसी मकान में, उसी तस्वीर में, एक नया चेहरा बनकर रह जाऊँगा—अधूरा?

***

वाराणसी की सड़कों पर चलते हुए जिस अजीब-सी सिहरन का अनुभव होता है, वह केवल ठंडी हवाओं या मंदिर की घंटियों से नहीं होती—वह उस इतिहास की उपज है, जो हर ईंट, हर गली, हर दरवाज़े में छुपा बैठा है। अब मुझे स्पष्ट समझ आने लगा था कि मैं सिर्फ एक किरायेदार नहीं हूँ, बल्कि किसी बीते पाप की उलझन में अनजाने फँस चुका हूँ।

नीलिमा की तस्वीर अब पूरी हो चुकी थी, लेकिन उसके साथ-साथ कुछ और भी मेरे कमरे में पूर्ण रूप ले रहा था—एक कहानी, जो दबी हुई थी, और अब फूटना चाहती थी। मेरी खिड़की की सलाख़ों पर अब हर रात एक परछाईं बैठती, और हर सुबह मैं वही धुन सुनता—”मोरे नयनवा में बसे नंदलाल…” धीरे-धीरे, लगभग फुसफुसाहट में।

मैंने मिश्रा जी से उस बंद कोठरी के बारे में फिर से बात की। वह पहले झिझके, फिर बोले, “बाबूजी, उस कमरे में कभी कोई कलाकार रहता था। बहुत साल पहले। उसके पास पैसे नहीं थे, लेकिन एक बड़ी नर्तकी आती थी उससे मिलने। लोग बातें करते थे… फिर एक दिन सब बंद हो गया। ना वो रहा, ना वो औरत। तब से वो कमरा ताले में बंद है। हम उसमें नहीं झाँकते।”

“नाम क्या था उसका?” मैंने पूछा।

मिश्रा जी कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, “नाम कोई नहीं जानता… पर कुछ पुराने कागज़ात होंगे नीचे गोदाम में।”

मैंने तुरंत गोदाम की सफाई का प्रस्ताव रखा। अगली दोपहर, गर्मी और धूल के बीच, मुझे कुछ पुरानी डायरी के पन्ने और दो पोस्टकार्ड मिले—जिन पर सिग्नेचर था: “प्रभात रॉय”।

प्रभात रॉय… यह वही नाम था, जो राजीव तिवारी ने उल्लेख किया था—एक वृद्ध कलाकार, जिसके बारे में अफवाह थी कि वह नीलिमा से प्रेम करता था।

डायरी के पन्ने टुकड़ों में थे, लेकिन उनमें स्पष्ट संकेत थे कि प्रभात नीलिमा को अपने चित्रों में अमर करना चाहता था। पर एक स्थान पर उसकी लिखावट अचानक बदल गई थी—कांपती हुई, अस्थिर—

> “वो मुझे छोड़कर जा रही है। लेकिन वह नहीं जानती कि मैं उसे कहीं और रोक लूँगा… कैनवस में। अगर शरीर छूट जाए, तो क्या आत्मा को भी मुक्त किया जा सकता है?”

 

यह वाक्य मेरे रोंगटे खड़े कर गया। क्या प्रभात ने वाकई नीलिमा को अपने चित्र में बाँध दिया था? क्या यही कारण था कि वह अब मेरी तस्वीर में प्रकट हो रही थी—क्योंकि वह कभी मुक्त हो ही नहीं पाई?

उस रात मैंने कोठरी का ताला खोलने का फैसला किया। चाबी वही पुरानी थी, जो पहले मिल चुकी थी। दरवाज़ा चरमराया, और जैसे ही खुला, एक बासी इत्र और गीले रंग की गंध मेरे चेहरे से टकराई।

कमरा छोटा था, पर एक कोना साफ-सुथरा रखा गया था। दीवार पर एक बहुत बड़ा कैनवस झुका हुआ था, और पास ही एक टूटी हुई आइवरी की चूड़ियाँ पड़ी थीं। कैनवस पर अस्पष्ट चित्र था—नीलिमा की अधूरी आकृति, उसके चारों ओर धुंध-सी फैली थी।

तभी मुझे एक पुराने संदूक में लिपटा हुआ रिकॉर्ड प्लेयर मिला। मैंने जब उसे चालू किया, तो उसी कथक धुन की आवाज़ गूँजी—जो मैं कई रातों से सुन रहा था। इसका मतलब था, वह संगीत कोई कल्पना नहीं, यथार्थ था।

और तभी, मेरे पीछे की दीवार पर जैसे कोई परछाईं चलती हुई गुज़री। मैं पलटा—कोई नहीं था। पर कमरे की हवा बदल चुकी थी। कुछ पुराना जाग गया था।

मैं वापस अपने कमरे में लौटा, और देखा—मेरी तस्वीर में एक नया रंग भर गया था। नीलिमा के कंधों के पीछे एक छाया। प्रभात की आकृति। मैंने वह रंग नहीं भरा था।

अब मुझे पूरा यकीन था—यह तस्वीर खुद को पूरा कर रही है। और यह प्रक्रिया तब तक नहीं रुकेगी, जब तक प्रभात का पाप उजागर नहीं होता।

अगले दिन मैं वाराणसी विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी पहुँचा और वहाँ की आर्टिस्ट आर्काइव्स खंगालने लगा। एक लेख में प्रभात रॉय की अंतिम प्रदर्शनी का जिक्र था, जिसका नाम था: “अंतिम नृत्य”। और उसमें प्रमुख चित्र—”बंद दरवाज़े की स्त्री”।

विवरण में लिखा था—”एक चित्र जिसमें नर्तकी अधूरी है, और दरवाज़े की छाया लम्बी होती जाती है।”

क्या यह वही चित्र था जो अब मेरे कमरे में पूरा हो चुका था?

मुझे अब एक निर्णय लेना था। या तो मैं यह प्रक्रिया यहीं रोक दूँ—तस्वीर को नष्ट कर दूँ, या फिर अंत तक जाऊँ, और उस आत्मा को मुक्ति दिलाऊँ, जो सालों से एक कोठरी में बंद रही—शब्दों में नहीं, रंगों में।

लेकिन क्या मैं बच पाऊँगा? क्योंकि अब मुझे एहसास हो गया था—यह तस्वीर सिर्फ नीलिमा की नहीं… यह तस्वीर मेरी भी बनती जा रही है।

***

जैसे-जैसे दिन बीतते गए, मुझे लगने लगा था कि मेरी आत्मा का एक हिस्सा अब उस तस्वीर में बसने लगा है। रेखाएं अब मेरे हाथ नहीं, मेरे अवचेतन से निकल रही थीं। मेरे ब्रश के हर स्ट्रोक में कोई अदृश्य ऊर्जा प्रवेश कर चुकी थी—जो मुझे खींचती, घसीटती, और फिर मेरी चेतना से बाहर जाकर कुछ ऐसा रचती, जो मैं स्वयं नहीं समझ पाता।

नीलिमा की आंखें अब पूरी तरह जीवंत हो चुकी थीं। उनके पीछे कोई गहराई थी—एक प्रतीक्षा, एक प्रश्न, एक कसक। जब मैं उन्हें देखता, तो वे मुझे सीधे घूरतीं नहीं थीं; वे मुझे पुकारती थीं।

मैंने उसी रात को कोठरी के फर्श पर लेटे-लेटे एक सपना देखा—या कहूँ एक स्मृति। प्रभात रॉय, सफेद दाढ़ी वाला एक बूढ़ा चित्रकार, खींचता जा रहा है रेखाएं। उसके सामने नीलिमा बैठी है—खामोश, निर्वस्त्र, आंखों में डर। वो बोलती है, “प्रभात जी, यह अंतिम चित्र है… फिर मैं चली जाऊँगी।” और प्रभात धीरे से कहता है, “चित्र से कोई नहीं जाता, नीलिमा।”

मैं चीखते हुए उठ गया। मेरी हथेली में ब्रश की पकड़ इतनी कसी हुई थी कि नाखून त्वचा में धँस गए थे।

अब यह चित्र केवल एक कहानी नहीं थी। यह मेरी आत्मा को घिसकर खा रहा था। और मैंने तय किया—मुझे उस आत्मा से बात करनी होगी।

मैं शहर के दक्षिण में स्थित एक तांत्रिक विद्वान त्रिलोचन बाबा के पास पहुँचा, जिन्हें लोग “चित्र-तांत्र” का जानकार मानते थे।

त्रिलोचन बाबा ने जैसे ही मेरी तस्वीर की कॉपी देखी, उनका चेहरा गंभीर हो गया।

“यह चित्र आत्मा नहीं, इच्छा है। यह उस स्त्री की अधूरी आकांक्षा है, जो अब रंगों में जिंदा है।”

“तो क्या मैं उससे बात कर सकता हूँ?”

“हाँ, पर यह सरल नहीं होगा। तुम्हें चित्र के भीतर उतरना होगा। एक ध्यान की प्रक्रिया के ज़रिए। पर एक बार भीतर चले गए, तो लौटने की गारंटी नहीं।”

मैंने कहा, “मैं लौटना नहीं चाहता, जब तक उसे मुक्त न कर दूँ।”

त्रिलोचन बाबा ने एक विशेष ‘रंग-मंत्र’ की प्रक्रिया बताई, जिसमें रात्रि के तीसरे प्रहर में, दीपक, चंदन और एक विशिष्ट ‘कामदगंध’ का धुआँ जरूरी था।

मैंने सब तैयारियाँ कीं।

उस रात, कमरे में बस दीपक की लौ थी, पृष्ठभूमि में कथक की रागिनी धीमे बज रही थी, और मेरे चारों ओर रंग बिखरे थे। मैं ध्यान में बैठ गया।

कुछ ही देर में मुझे महसूस हुआ कि मेरी चेतना चित्र के भीतर खिंच रही है। अचानक मैं एक बंद कोठरी में था—नीलिमा वहां खड़ी थी। वही लाल साड़ी, वही नर्म जूड़ा, आंखों में आंसू।

“तुम आ गए…”

“मैं तुम्हें मुक्त करने आया हूँ।”

उसने धीरे से अपनी चूड़ियाँ उतारीं और मुझे पकड़ाई।

“ये उसकी कैद हैं। जब तक ये टूटेंगी नहीं, मैं मुक्त नहीं हो सकती।”

मैंने चूड़ियाँ फोड़ दीं। एक तेज़ प्रकाश फैला और उसकी आकृति धुएँ की तरह ऊपर उठी।

“प्रभात ने मुझे मारा नहीं था, राघव… उसने मुझे बंद कर दिया था, अपने कैनवस में। उसने मेरी आत्मा को बाँध लिया था। मैं वर्षों तक यहीं थी, चुप, अधूरी। तुमने मुझे सुना… देखा… और अब पूरा किया।”

“तुम जा सकती हो अब,” मैंने कहा।

“और तुम?”

“मैं चित्रकार हूँ। मुझे अधूरी रेखाएँ पूरी करनी हैं, लेकिन किसी आत्मा की कीमत पर नहीं।”

और अचानक मैं वापस कमरे में था। दीपक बुझ चुका था, धूप समाप्त, और तस्वीर की आकृति अब धुंधली हो गई थी—नीलिमा की मुस्कान अब नहीं थी, पर आँखें बंद थीं—शांत।

अब वह चित्र केवल चित्र था—आत्मा नहीं।

पर मेरे भीतर एक स्थायी परिवर्तन हो चुका था।

***

जिस रात नीलिमा की आत्मा ने विदा ली, मेरे कमरे की दीवारें जैसे कुछ कहकर शांत हो गईं। वो परछाइयाँ जो खिड़की पर नाचती थीं, अब लुप्त थीं। हवा स्थिर थी, और मेरी आत्मा भी।

लेकिन भीतर कुछ बचा था—जैसे एक रेखा चित्र में रह गई हो अधूरी, जैसे एक रंग रह गया हो बिना घुला।

तस्वीर अब फीकी लगने लगी थी। पहले जहां चेहरे के भावों में ज्वालामुखी-सी ऊर्जा थी, अब वहाँ खालीपन था। यह रंगों की मृत्यु नहीं थी—बल्कि उनका तर्पण था। नीलिमा अब कैनवस में नहीं थी। पर कैनवस अब भी था। और मैं? मैं अब पहले जैसा कलाकार नहीं रहा।

मैंने पेंटिंग को खोलकर अपने स्टूडियो के सामने घाट की सीढ़ियों पर ले जाकर रख दिया। बनारस की सुबह का सूरज धीमे-धीमे उतर रहा था। घाट पर कुछ साधु, कुछ स्नान करते लोग, और एक वृद्ध महिला बैठी थीं।

उस वृद्ध महिला ने पेंटिंग को देखा और चौंक गई।

“ई… नीलिमा है?”

“आप जानती हैं इन्हें?”

“अरे बेटा, मैं उसी नृत्यशाला की चौकीदारिन थी जहाँ वह नाचती थी। जब वो ग़ायब हुई, सबने कहा कि उसने आत्महत्या की। पर मैंने हमेशा महसूस किया कि वो कहीं रुकी है… अधूरी।”

मैंने कुछ नहीं कहा। मैं सिर्फ मुस्कराया।

महिला बोली, “अब चेहरा बदल गया है। उसकी आँखें अब रोती नहीं हैं। लगता है जैसे उसने कोई शांति पा ली हो।”

“हाँ,” मैंने धीमे से कहा, “अब वो मुक्त है।”

मैंने उस चित्र को घाट की सीढ़ियों पर बहते जल के पास रख दिया। कोई भी इसे उठाकर ले जा सकता था—पर यह अब केवल एक तस्वीर थी, आत्मा नहीं।

रात को मैं फिर पेंटिंग कर रहा था। एक नया चित्र, नई आकृति। लेकिन हाथ रुक रहे थे। जैसे रंग मेरी आत्मा से पूछ रहे हों—”क्या तुम तैयार हो फिर किसी और की दुनिया में उतरने के लिए?”

मैं अब पहले जैसा कलाकार नहीं था। मैं अब एक चित्रकार नहीं—एक साक्षी बन गया था। मैंने अब रंगों को केवल भरना नहीं, महसूस करना सीख लिया था।

अगले दिन जब मैं पुराने कमरे को खाली कर रहा था, दीवार के पीछे से एक और छोटी-सी तस्वीर मिली—बिल्कुल छोटी, 5×7 की—नीलिमा की वही आँखें, लेकिन इस बार प्रभात के कंधे पर सिर रखे मुस्कराती।

क्या यह सच था? क्या उन्होंने एक समय में प्यार किया था, और फिर वह प्यार ही बंधन बन गया था?

मैंने उस तस्वीर को भी वहीं कमरे में छोड़ दिया—वह उनकी स्मृति थी, और मेरी नहीं।

कुछ महीने बाद, मैं एक कला प्रदर्शनी में गया। वहाँ एक आलोचक ने मुझसे पूछा—”आपकी कला में जो गहराई है, वो किस प्रेरणा से आती है?”

मैंने कहा, “एक अधूरी तस्वीर से… जो अब पूरी हो चुकी है।”

***

कभी-कभी कला स्वयं एक दरवाज़ा होती है—जो अगर एक बार खुल जाए, तो वह न केवल दर्शक को बदल देती है, बल्कि कलाकार को भी। और मैं अब उस दरवाज़े के पार जा चुका था।

नीलिमा की आत्मा को शांति दिलाने के बाद, मेरे भीतर कुछ ऐसा टूट गया था जो पहले मुझे बाँधकर रखता था। रंग अब मेरे नियंत्रण में नहीं थे, बल्कि मैं उनके नियंत्रण में आ गया था। मैं दिन-रात कैनवस के सामने बैठा रहता, लेकिन अब वह चेहरा नहीं था जिसे मैं चित्रित करता—वह तो एक आकृति थी जिसे मैं जानता ही नहीं था।

वह स्त्री मेरे किसी अतीत का हिस्सा नहीं थी, न वर्तमान का। लेकिन फिर भी उसकी आँखों में एक अद्भुत समानता थी—उस पीड़ा की जो नीलिमा में थी, लेकिन अब और भी गहरी, जैसे आत्मा की किसी दूसरी परत से निकली हो।

मैंने उसे “श्वेत-रेखा” नाम दिया—एक चित्र जो केवल काले और सफेद रंग में था, लेकिन उसके भीतर इतनी तीव्रता थी कि देखने वाले कुछ देर तक श्वास ही नहीं ले पाते थे।

एक रात, जब मैं उसी चित्र पर काम कर रहा था, बिजली चली गई। खिड़की के बाहर घना कोहरा था, और कमरे में सिर्फ एक दीपक टिमटिमा रहा था। उस समय मेरी नज़र कैनवस पर गई—और मुझे लगा कि चित्र की आँखें अचानक मेरी तरफ घूम गई हैं।

मैंने पलकें झपकाईं। शायद थकान थी। पर जैसे ही मैं दीवार की ओर मुड़ा, मुझे उस स्त्री की परछाई अपने पीछे महसूस हुई।

“तुम क्यों आए हो?”

वह आवाज़ न नर थी, न नारी। वह रंगों से बनी हुई थी।

“क्योंकि तुमने मुझे बुलाया,” मैंने कहा।

“तुमने मेरी आँखें बनाई हैं, लेकिन मेरा नाम नहीं। तुमने मेरी छाया उकेरी है, लेकिन मेरी स्मृति नहीं।”

“मैंने तुम्हें कभी देखा नहीं। तुम कौन हो?”

“मैं वह हूँ जिसे नीलिमा के बाद जन्म लेना था। मैं वह आकृति हूँ, जो अधूरी नहीं, लेकिन अनाम है। अगर मुझे नाम नहीं दोगे, तो मैं उस नाम को खोज लूँगी—किसी और के जीवन से।”

अगली सुबह मेरी गली के पास एक अखबार की खबर थी—“स्थानीय कॉलेज की एक छात्रा ने आत्महत्या की। उसने अपनी अंतिम पेंटिंग में खुद को सफेद आँखों और काले होंठों के साथ चित्रित किया था—चित्र का नाम: श्वेत-रेखा।”

मैं कांप उठा।

क्या मेरी कल्पना अब वास्तविकता में प्रवेश कर चुकी थी?

मैंने वह चित्र जलाने का निर्णय लिया। लेकिन जैसे ही मैंने उस पर अग्नि डाली, चित्र में से एक अजीब-सी चीख़ निकली। लौ नीली हो गई। और फिर चित्र राख नहीं हुआ—बल्कि धुंए में बदलकर कमरे की दीवार पर उभर गया।

अब मैं जान चुका था—नीलिमा की मुक्ति अंतिम नहीं थी। वह सिर्फ एक शुरुआत थी। मैं एक ऐसे द्वार से गुज़र चुका हूँ जहाँ हर अधूरी आत्मा मुझे अपने चित्रकार के रूप में देखती है।

कला अब मेरे लिए स्वतंत्रता नहीं रही—वह एक पुकार बन चुकी थी। हर चित्र अब एक कथा है, और हर कथा एक आत्मा।

मैं सोचता हूँ, शायद मुझे इस कला से विराम लेना चाहिए।

पर क्या कला कभी विराम लेती है? या क्या रंग के पार भी एक चित्र अधूरा पड़ा होता है… मेरे इंतज़ार में?

***

“तुम्हारे ब्रश की धार अब सिर्फ रंग नहीं उड़ेलती, वह रास्ते खोलती है,” त्रिलोचन बाबा ने कहा था, जब मैं उनके पास दोबारा गया।

“कौन-से रास्ते?” मैंने पूछा।

“जिन्हें देखने की हिम्मत बहुत कम कलाकारों में होती है।”

अब मेरी बनाई हर पेंटिंग में कोई चेहरा उभर आता था—कभी परिचित, कभी अपरिचित। लेकिन उनमें एक समानता थी: सबकी आँखों में कुछ अधूरा था, जैसे वे मुझे खोज रही हों।

मैंने अपने कमरे को एक आत्मिक प्रयोगशाला में बदल दिया। दीवारें काली कर दीं, खिड़कियाँ बंद कर दीं, और केवल एक विशाल सफेद कैनवस को केंद्र में रखा। यह मेरा सबसे बड़ा कैनवस था, और शायद अंतिम भी।

मैंने ब्रश उठाया, पर रंगों ने मेरा साथ छोड़ दिया।

तो मैंने अपनी उंगलियों से चित्र बनाना शुरू किया—बिना रेखा, बिना पूर्व योजना के।

हर रेखा जैसे किसी और ने चलाई हो। हर आकर, हर छाया, मेरे भीतर के एक अलग द्वार को खोल रही थी। जब चित्र आधा हुआ, तो उसमें एक दरवाज़ा स्पष्ट रूप से उभर आया—एक भित्ति-द्वार, जिसके भीतर अंधकार था।

और तभी कुछ ऐसा हुआ, जिसकी मुझे कल्पना नहीं थी—कैनवस से एक हवा उठी, ठंडी और सीली।

मैं आगे झुका… और दरवाज़ा खुल गया।

नहीं, यह कोई मानसिक भ्रम नहीं था। कैनवस के भीतर एक वास्तविक गहराई थी—एक रास्ता।

और फिर, न जाने कैसे, मैं उस कैनवस के भीतर चला गया।

अंदर अंधेरा नहीं था, बल्कि एक धीमा नीला उजाला था। वहाँ चित्र तैर रहे थे—नीलिमा की छवि, श्वेत-रेखा की आँखें, और कई ऐसे चेहरे जिन्हें मैंने कभी नहीं उकेरा था।

वे सभी मुझे देख रहे थे।

“तुम अब हमारे चित्रकार नहीं रहे,” एक आवाज़ गूंजी।

“फिर क्या हूँ?”

“तुम अब हमारा माध्यम हो।”

“मैंने तुम्हें बनाने की कोशिश की, पर मैंने कोई बंधन नहीं बाँधा।”

“लेकिन जो चित्र अधूरे होते हैं, वे सबसे खतरनाक होते हैं। क्योंकि वे पूर्ण होने के लिए किसी की चेतना में प्रवेश कर जाते हैं।”

मैं भागना चाहता था, पर कैनवस का वह द्वार अब बंद हो चुका था।

“अगर मैं यहीं फँस गया तो?”

“तो तुम्हारे शरीर की जगह इस संसार में एक और कलाकार जन्म लेगा। और वह तुम्हारा चित्र बनाकर तुम्हें वापस लाएगा।”

“तो क्या मैं भी किसी का चित्र था?”

कोई उत्तर नहीं आया—बस चारों तरफ़ रेखाएं फैलने लगीं। मुझे लगा, मैं स्वयं कैनवस बन गया हूँ।

अगली सुबह, जब पड़ोसी ने मेरे कमरे का दरवाज़ा खुला देखा, तो भीतर कोई नहीं था। सिर्फ एक विशाल चित्र पड़ा था—जिसमें एक व्यक्ति दरवाज़े के भीतर कदम रखता दिख रहा था।

उसकी पीठ दिख रही थी, और सिर पर वही स्कार्फ जो मैं पहना करता था।

चित्र के नीचे कुछ शब्द खुदे थे—”कभी-कभी चित्र भी चित्रकार खोजते हैं।”

***

मैं अब रंगों से नहीं बना था। मैं रंग था।
जब मैं कैनवस के भीतर गया, तो मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि वहां भौतिक देह का कोई अस्तित्व नहीं होता। मैं न दृष्टा था, न दृश्य—मैं वह मध्य-रेखा बन चुका था, जो ब्रह्मांड के सबसे सूक्ष्म रंगों को जोड़ती है।

“तुम अब चौखट के भीतर हो,” एक स्वर गूंजा—नारी नहीं, पुरुष नहीं—वह स्वर चित्रित था।
“यह चौखट क्या है?” मैंने पूछा।

“जहाँ हर अधूरी आकृति एक-दूसरे में समाहित होती है। यहाँ समय रुक जाता है, और रेखाएं चलती हैं।”

मैंने चारों ओर देखा—कई कैनवस हवा में तैर रहे थे। कुछ अधूरी आँखें थीं, कुछ अधूरी मुस्कानें, कुछ तो केवल खाली फ्रेम। पर हर फ्रेम से एक भाव निकलता था—प्रतीक्षा।

मैं आगे बढ़ा, और देखा एक कैनवस, जिसमें मेरा ही चेहरा अधूरा बना हुआ था।
पर यह चित्र मैंने कभी नहीं बनाया।

“यह किसने बनाया?”

“जिसे तुम अपना उत्तराधिकारी कहोगे,” वह स्वर बोला। “वह जिसे रंगों ने चुना है तुम्हारे बाहर जाने के लिए।”

“तो बाहर जाने का रास्ता है?”

“है। लेकिन केवल तब, जब तुम किसी और को अपनी जगह लेने दो।”

मैं चुप हो गया। मैं किसी और को नहीं फँसाना चाहता था। लेकिन उसी समय मेरे सामने एक और दृश्य उभरा—वह वृद्ध महिला, जो घाट पर नीलिमा को पहचान गई थी, अब मेरे पुराने स्टूडियो में खड़ी थी। उसके हाथ में मेरा स्केचबुक था।

वह बुदबुदाई, “राघव… तू कहाँ चला गया…”

और तभी उसके पीछे खड़ा हुआ एक किशोर, लगभग सत्रह वर्ष का, मेरी स्केचबुक को उठा कर खोलने लगा। उसमें उसने श्वेत-रेखा की आंखें देखीं—और अचानक, उसकी अपनी आंखों में वही रेखा उतर आई।

मैं चिल्लाना चाहता था, “नहीं!” लेकिन मेरी आवाज़ उस आयाम से बाहर नहीं जा सकती थी।

“यह नियम है,” वह स्वर फिर गूंजा। “कला कभी बंद नहीं होती। हर चित्रकार अपने चित्र के भीतर समा जाता है, और नया कलाकार बाहर से उसकी कहानी पूरा करता है।”

मैंने कहा, “अगर मैं यहीं रहा, तो क्या ये चित्र अधूरे रहेंगे?”

“नहीं। वे तुमसे नहीं, चेतना से जुड़े हैं। पर जो अधूरा छोड़ गए हो, वह तब तक अधूरा रहेगा जब तक तुम स्वीकार न कर लो कि तुम अब स्वयं चित्र हो चुके हो।”

अब मुझे समझ में आने लगा था—हर वह चित्र, जो मैंने अधूरे मन से बनाया, वह अब मेरी आत्मा में जीवित था। और जब तक मैं उन्हें स्वीकार न करूं, मैं मुक्त नहीं हो सकता।

मैंने आंखें मूँदीं और पहला चित्र याद किया—नीलिमा।
फिर श्वेत-रेखा।
फिर वह अनाम आकृति जो कभी पूरी न हो सकी।

और अचानक मेरे सामने एक उज्ज्वल प्रकाश फूटा।
चौखट का वह दरवाज़ा फिर खुलने लगा।

“क्या मैं बाहर जा सकता हूँ?”

“हाँ,” स्वर बोला, “पर अब तुम्हारे रंग बदल चुके हैं।”

मैंने देखा, मेरी देह अब केवल रंगों की रेखा नहीं, बल्कि एक तरल प्रकाश बन चुकी थी।
मैंने चौखट पार की…

कमरे में, वर्षों बाद, एक नई पेंटिंग प्रदर्शनी लगी थी—“द मैन बियॉन्ड द कैनवस”।
और एक चित्र के नीचे लिखा था—
“यह राघव नहीं है। यह वह है, जो राघव की आत्मा में अब भी चित्र बना रहा है।”

***

“हर रंग की एक विरासत होती है,” यह बात मैंने पहली बार अपने गुरु अमरेश बाबू से सुनी थी, जब मैं कला का विद्यार्थी था। लेकिन आज, जब मैं देह और समय की सीमाओं से परे था, वह वाक्य किसी सत्य की तरह मेरे भीतर गूंज रहा था।

मैं अब जीवित नहीं था, पर मरा भी नहीं था। मैं एक चित्र था—एक चेतना, जो रंगों के माध्यम से जीवित रहती थी। मैं चौखट के पार आ चुका था, लेकिन अब मैं किसी और के ब्रश में, किसी और के हाथों में प्रवेश कर चुका था।

वह किशोर—वही जिसने मेरी स्केचबुक उठाई थी, अब बनारस की गंगा के घाट पर चित्र बना रहा था।
उसका नाम था अनुग्रह।
वह अनजाने में मेरी अधूरी तस्वीरों को पूरा करने लगा था। नीलिमा, श्वेत-रेखा, और उस अनाम स्त्री की आकृति—जो केवल मेरी कल्पना थी—अब उसकी रेखाओं में ढलने लगी थी।

पर वह जानता नहीं था कि क्यों उसके चित्रों में इतना दर्द है।
क्यों हर चेहरा उसकी आत्मा को भीतर तक थका देता है।

वह पागल नहीं था, पर उसका मन अब सामान्य नहीं रहा।
उसकी माँ कहती थी, “बेटा, तुझे किसकी नज़र लग गई है?”
वह कहता, “मैं किसी को भीतर से देखता हूँ, माँ।”

एक दिन अनुग्रह अपने चित्र लेकर ललित कला अकादमी पहुँचा, जहाँ प्रदर्शनी थी “गुमनाम रेखाएं” नाम से।
उसे बुलाया गया, और उसके चित्रों को देखकर कला समीक्षकों ने चुप्पी साध ली।
एक वृद्ध समीक्षक ने धीरे से कहा,
“ये रेखाएं परिचित लगती हैं… ये वही ‘राघव’ की शैली है जो वर्षों पहले ग़ायब हो गया था।”

अनुग्रह चौंक गया।
“राघव कौन?”

“एक चित्रकार… जिसके चित्र आत्माओं से बात करते थे। उसकी अधूरी पेंटिंग्स आज भी लोगों के सपनों में आती हैं।”

उसी रात अनुग्रह को सपना आया।
एक धुँधली सी सीढ़ी… गंगा के घाट की ओर जाती हुई… और वहीं, एक चित्र टंगा हुआ… जिसमें राघव मुस्करा रहा था।
लेकिन वह मुस्कराहट कोई साधारण नहीं थी—वह विरासत की स्वीकृति थी।

“क्या तुम मुझे चुन रहे हो?” अनुग्रह ने पूछा।
उस चित्र से केवल एक स्वर निकला—
“नहीं… तुमने खुद को चुना है।”

सुबह उठते ही अनुग्रह ने एक नई पेंटिंग शुरू की।
बिना संदर्भ, बिना स्केच, बिना योजना।

पर वह पेंटिंग जैसे खुद बन रही थी—और जब वह पूरी हुई, तो उसमें एक युवक घाट की सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था, और उसके सामने खड़ा था एक चित्र—एक चौखट—जिसके भीतर सैकड़ों रंगों की आत्माएं तैर रही थीं।

उस चित्र का शीर्षक था:
“विरासत”

कला अब केवल रंगों का खेल नहीं रही।
वह एक आत्मा थी, जो पीढ़ियों में बहती थी—जैसे कोई रेखा, जो कागज़ से ज़्यादा किसी चेतना की ज़रूरत महसूस करती थी।

अब अनुग्रह हर चित्र बनाते समय राघव के नाम का एक छोटा ‘R’ नीचे कोने में लिखता था।
किसी को पता नहीं था क्यों।
पर वह जानता था—कुछ विरासतें हस्ताक्षर की नहीं, आत्मा की होती हैं।

***

“हर चित्र में एक और चित्र छिपा होता है,” अनुग्रह अक्सर खुद से कहता था।
अब वह केवल एक चित्रकार नहीं था—वह एक माध्यम बन चुका था।

राघव की स्मृति अब स्वप्न नहीं थी, वह हर ब्रश स्ट्रोक में बसी हुई थी।
हर रात वह कुछ चित्र बनाता—उन्हें देखकर वह खुद भी समझ नहीं पाता कि ये दृश्य उसकी कल्पना के हैं या किसी और चेतना की याद के।

एक दिन, जब वह अपने पुराने स्केचबुक को पलट रहा था, उसे एक सफेद पन्ना मिला—जिस पर कुछ भी नहीं था।
पर जैसे ही उसने उसे छुआ, उस पन्ने पर आकृतियाँ उभरने लगीं—धीरे-धीरे, धुंधली रेखाओं की तरह।

और फिर, उसे पहली बार दिखा…
वह चित्र, जो न राघव ने कभी पूरा किया, न वह।

एक स्त्री, गंगा के किनारे बैठी, आँखें बंद, और उसकी हथेलियों पर रंग बह रहे थे।
उस चित्र में कुछ था जो श्वेत-रेखा, नीलिमा, और सभी पुराने चित्रों से परे था।

वह चित्र जब पूरी तरह उभर गया, अनुग्रह की सांसें थम गईं।
वह स्त्री उसकी माँ थी।

पर उस चित्र में वह तीस साल की युवती के रूप में थी—बिलकुल वैसी, जैसी कभी उसने अपने पिता की तस्वीरों में देखी थी।

“यह कैसे संभव है?” उसने बुदबुदाकर कहा।

और उसी रात, माँ ने पहली बार अपने अतीत की कहानी सुनाई—
कि कैसे वह कभी एक चित्रकार से मिली थी, जिसका नाम ‘राघव’ था।
कि कैसे एक चित्र बनाते समय उनकी नज़दीकियाँ बढ़ीं, पर फिर वह व्यक्ति अचानक ग़ायब हो गया।
कि कैसे वह अपने भीतर एक दर्द लिए ज़िंदा रही…

अनुग्रह अब स्तब्ध था।
क्या वह राघव का पुत्र था?
क्या उसका जन्म ही उस विरासत को पूर्ण करने के लिए हुआ था?

“माँ, क्या राघव मेरे पिता थे?”

उसने कोई उत्तर नहीं दिया—सिर्फ आँखों से आँसू बहते रहे।

अब अनुग्रह के सामने जीवन का सबसे बड़ा कैनवस था—
वह कैनवस जिसमें रंग नहीं थे, बल्कि इतिहास था।
स्मृति थी।
और एक अंतहीन रेखा, जो पीढ़ियों को जोड़ती थी।

उसने एक आखिरी चित्र बनाना शुरू किया—
एक दीर्घ चित्र, जिसमें घाट, चौखट, राघव, उसकी माँ, और वह स्वयं—सभी एक बहते रंग की रेखा में जुड़े हुए थे।

और उस चित्र के ऊपर उसने लिखा—
“चित्र कभी समाप्त नहीं होते। वे बस रचयिता बदलते हैं।”

***

कहते हैं, जब कोई चित्र पूर्ण होता है, तो उसमें कोई आवाज़ नहीं होती—बस मौन की एक ऐसी लहर होती है, जो चित्र के बाहर खड़े हर व्यक्ति को भीतर से बदल देती है।
अनुग्रह के आखिरी चित्र को देखकर भी कुछ ऐसा ही हुआ।

ललित कला अकादमी के मुख्य हॉल में वह चित्र अब प्रदर्शित था—नाम था “विरासत की अंतिम रेखा”।
यह कोई आम चित्र नहीं था—यह लगभग एक भित्तिचित्र था, विशाल, परंतु अद्भुत रूप से संतुलित।

उसमें घाट था…
गंगा की हल्की तरंगें थीं…
एक युवती जिसकी हथेलियों से रंग बह रहे थे…
एक वृद्ध चित्रकार, जिसकी आँखों में खालीपन नहीं, बल्कि शांत स्वीकृति थी…
और एक युवा बालक, जो उन्हीं रंगों से एक नया संसार बना रहा था।

लोग घंटों उस चित्र के सामने खड़े रहते।
कुछ की आँखें भर आतीं।
कुछ को अपनी ही अधूरी स्मृतियाँ याद आ जातीं।

पर किसी को नहीं पता था, कि यह चित्र उस ‘अधूरी तस्वीर’ का अंतिम भाग था, जो वर्षों पहले एक पुराने किराए के कमरे में अधूरी रह गई थी।

अनुग्रह अब चित्र बनाना छोड़ चुका था।
उसने अपने घर की दीवारों को सफेद छोड़ दिया था।
अब वह सिर्फ देखता था—पेड़ों की छाया, पानी की हलचल, और लोगों की अधूरी मुस्कानें।

एक दिन वह घाट पर बैठा था, जब एक छोटी बच्ची उसके पास आई।
उसने पूछा, “आपने इतने सुंदर चित्र कैसे बनाए?”

अनुग्रह मुस्कराया, “मैंने नहीं बनाए। उन्होंने मुझे चुना था।”

“कौन उन्होंने?”

“जो कभी पूरी नहीं हो पाए। जो अब भी किसी के ब्रश में अपने अस्तित्व की तलाश कर रहे हैं।”

बच्ची ने कहा, “मैं भी चित्र बनाना चाहती हूँ। आप सिखाएँगे?”

अनुग्रह ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में वही चमक थी—जो कभी राघव की आँखों में थी, जो कभी उसकी माँ की स्मृतियों में तैरती थी।

“हाँ,” उसने कहा, “लेकिन पहले तुम ये समझो कि हर चित्र में एक कहानी होती है। और हर कहानी में एक अधूरी रेखा।”

वर्षों बाद, कला के इतिहास में जब ‘भारत के रहस्यमय चित्रकारों’ पर एक किताब प्रकाशित हुई, उसमें अनुग्रह और राघव दोनों का नाम एक ही अध्याय में दर्ज किया गया।
उस अध्याय का नाम था:
“अधूरी तस्वीर: एक उत्तराधिकार”

रात को, अनुग्रह ने अपने कमरे में एक कैनवस खोला।
उस पर उसने सिर्फ एक रेखा खींची।
बहुत हल्की, लगभग अदृश्य।

फिर नीचे छोटे अक्षरों में लिखा:

“अब कोई और इसे पूरा करेगा।”

और कमरे की दीवार से एक धीमी हवा चली।
कैनवस की सतह पर एक हल्की सी कंपन हुई।
और फिर… मौन।

एक पूर्ण मौन।
जिसमें हर रंग की आत्मा समा गई।

समाप्त

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