Hindi - प्रेम कहानियाँ

वो बारिश की आखिरी बूँद

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अन्वी शर्मा


मसूरी की वादियाँ उस दिन कुछ ज़्यादा ही ख़ामोश थीं। हल्की बारिश की बूँदें पेड़ों की पत्तियों से फिसलती हुई ज़मीन को चूम रही थीं, और दूर-दूर तक एक धुंधली सी चादर फैल चुकी थी। लाइब्रेरी की पुरानी लकड़ी की खिड़की से टिककर बैठी आव्या वही किताब फिर से पढ़ रही थी—‘निराला की कविताएं’। हर महीने कम से कम एक बार वो इस किताब को उठाती, जैसे किसी पुराने दोस्त से मिलने जाती हो।

किताबों के उस शांत कमरे में हर चीज़ व्यवस्थित थी—टेबल पर रखे पुराने रिकॉर्ड कार्ड, आलमारी की चाभियों का गुच्छा, और दीवार पर टंगी निराला की एक धुंधली तस्वीर, जिस पर कभी-कभी धूल जम जाती थी। लेकिन आज की सुबह कुछ अलग थी।

दरवाज़े की घंटी बजी, और वो एक ठिठकते हुए कदमों की आवाज़ के साथ धीरे से खुला। उसके भीतर दाखिल हुआ एक अधपकी दाढ़ी वाला लंबा, दुबला-पतला आदमी। उसके कंधे से लटका एक चमड़े का झोला था, जिसमें किताबें कम, और शायद कहानियाँ ज़्यादा थीं। बारिश से उसके बाल गीले हो चुके थे, और आँखों में कोई थका हुआ सवाल तैर रहा था।

“क्या यह सार्वजनिक लाइब्रेरी है?” उसने पूछा, आवाज़ धीमी लेकिन साफ़ थी।

“जी हाँ,” आव्या ने किताब बंद कर दी और कुर्सी से उठकर सीधा खड़ी हो गई।

“मैं कुछ दिनों के लिए मसूरी आया हूँ। शांति चाहिए थी… और कुछ पढ़ने को भी।”

“यहाँ आपको दोनों मिल जाएगा,” आव्या ने मुस्कुराकर कहा, फिर एक पुराना कार्ड रजिस्टर उसकी ओर बढ़ाया, “नाम दर्ज कर लीजिए।”

“राहुल…” उसने रजिस्टर पर नाम लिखा, थोड़ी देर ठहरकर। फिर धीरे से जोड़ा, “राहुल मल्होत्रा।”

वो नाम सुनते ही जैसे एक पल के लिए कमरे की हवा बदल गई। आव्या ने हल्के से सिर झुकाया, लेकिन उसके मन में एक लहर सी उठी—यह वही लेखक था, जिसने कुछ साल पहले ‘शब्दों की दूरी’ नामक उपन्यास से तहलका मचा दिया था। पर फिर अचानक वो गायब हो गया, जैसे कोई लेखक अपने ही पन्नों में खो गया हो।

“आपका नाम?” राहुल ने पूछा, चुप्पी तोड़ते हुए।

“आव्या। बस… आव्या।”

उस दिन राहुल ने सिर्फ दो किताबें उठाईं—एक प्रेमचंद का ‘निर्मला’, और दूसरी टैगोर की कविताओं की अंग्रेज़ी अनुवादित प्रति। आव्या ने नोटिस किया कि उसने किताबों को छूते वक्त बहुत धीरे से, लगभग श्रद्धा के भाव से उठाया था—जैसे शब्दों को चोट न लगे।

जब वो चला गया, तो बारिश फिर से तेज़ हो गई थी। खिड़की से झांकते हुए आव्या ने देखा, राहुल बिना छतरी के ही सड़क पर चल पड़ा था। शायद कुछ लोग भीगना पसंद करते हैं, ख़ासकर जब उनके भीतर भी कोई मौसम भीगा हुआ हो।

अगले दिन, राहुल फिर आया। इस बार, एक खाली डायरी और पेन के साथ। उसने एक कोना चुना—लाइब्रेरी के सबसे शांत कोने में, जहाँ एक पुरानी खिड़की बाहर पहाड़ियों की ओर खुलती थी। वहीं बैठकर वो कुछ लिखने लगा। आव्या को उसकी आदतें धीरे-धीरे समझ आने लगी थीं—वो लिखते वक्त होंठों को थोड़ा सा दबाता, माथे पर हल्की सी लकीर उभरती, और कभी-कभी उसकी कलम रुक जाती, जैसे कोई याद रुकावट बनकर सामने खड़ी हो।

कुछ दिनों बाद, उसने पहली बार किताब के बारे में पूछा।

“आपको निराला क्यों पसंद हैं?” राहुल ने पूछा।

“क्योंकि वो चुप रहते हुए भी बहुत कुछ कह जाते हैं,” आव्या ने जवाब दिया, अपनी नज़रें किताब पर टिकाए हुए।

“और क्या आपने कभी कुछ लिखा है?”

“नहीं… सिर्फ सोचा है।”

“सोच लेना भी एक तरह का लेखन होता है, अगर दिल से किया जाए।”

उन पलों में दोनों के बीच कुछ न बोला गया, फिर भी बहुत कुछ कह दिया गया। शब्दों के बिना पनपती जो निकटता होती है, वह सबसे गहरी होती है।

एक शाम, बारिश फिर से हुई। राहुल ने आव्या के लिए एक कविता की कुछ पंक्तियाँ छोड़ दीं—किसी किताब के पन्नों के बीच।

“एक धुंध थी, जो पिघलती नहीं थी /
एक ख़ामोशी थी, जो पूछती थी—तुम कौन हो?”

आव्या ने पंक्तियाँ पढ़ी, फिर बहुत देर तक उन्हें देखा, जैसे किसी पुराने चिट्ठी को देखा जाता है जो कभी मिली ही नहीं थी।

उस रात उसने पहली बार राहुल के बारे में कुछ सोचा—एक ऐसा आदमी, जो खोया हुआ भी है और खोज रहा है। और खुद आव्या? क्या वो भी किसी इंतज़ार में थी? या सिर्फ बारिश से मोहब्बत थी?

***

मसूरी की उस लाइब्रेरी में अब एक आदत सी बन चुकी थी—हर सुबह राहुल ठीक ग्यारह बजे आता, अपनी खिड़की वाली जगह पर बैठता, और बिना किसी अतिरिक्त शब्दों के आव्या को सिर हिला कर नमस्ते करता। धीरे-धीरे वो दोनों किसी अनकहे समझौते का हिस्सा बन चुके थे। उनके बीच शब्द कम थे, लेकिन मौन की भाषा गहराती जा रही थी।

उस दिन बादल कुछ ज़्यादा ही नीचे उतर आए थे। पूरा पहाड़ी इलाका एक सफेद धुंध में लिपटा था, जैसे समय खुद को छुपा लेना चाहता हो। राहुल अपनी डायरी में कुछ लिख रहा था, और आव्या एक पुराने बुकशेल्फ़ को साफ कर रही थी—वही कोना जहाँ टेगोर, प्रेमचंद, निराला और महादेवी वर्मा एक-दूसरे से सटे रहते थे, जैसे पुराने दोस्तों की तरह।

“आप किताबों को यूँ छूती हैं जैसे कोई ज़ख्म छूता है,” राहुल ने अचानक कहा।

आव्या की उँगलियाँ रुक गईं।

“ज़ख्म?” उसने मुस्कुराते हुए पूछा, “या शायद कोई सपना?”

“सपनों से ज़्यादा चोटें लगती हैं,” राहुल ने कहा, बिना उसे देखे।

कुछ देर बाद, वो उठा और आव्या के पास आया। “आपको कुछ दिखाना चाहता हूँ,” उसने कहा।

आव्या थोड़ी चौंकी, लेकिन उसके साथ चल पड़ी। राहुल उसे उसी बुकशेल्फ़ के उस कोने में ले गया जहाँ वो अक्सर बैठता था। वहाँ उसने अपनी डायरी की एक पंक्ति पढ़कर सुनाई:

“कुछ खामोशियाँ वो होती हैं, जो हमें पढ़ लेती हैं। और कुछ लोग… जो हमारे मौन को भाषा बना देते हैं।”

“यह किसके लिए लिखा?” आव्या ने पूछा, उसकी नज़रें अब राहुल की डायरी पर नहीं, बल्कि उसकी आँखों पर थीं।

“शायद… तुम्हारे लिए।” राहुल की आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें एक अजीब यकीन था।

वो पल, जब दो लोग पहली बार एक-दूसरे को महसूस करते हैं, शब्दों के बिना, सिर्फ एक धड़कन से, वह उसी लाइब्रेरी में घटा। लेकिन ठीक तभी, जैसे किसी पुराने घाव पर कोई खंजर चल गया हो, आव्या पीछे हट गई।

“माफ़ कीजिए,” उसने कहा, और तुरंत वापस अपनी टेबल पर चली गई।

राहुल वहीं खड़ा रहा, थोड़ी देर तक। फिर चुपचाप अपनी डायरी समेटी और चला गया, बिना उस दिन एक भी किताब लिए।

उस शाम, आव्या बहुत देर तक खाली बैठी रही। वो जानती थी कि उसने कुछ तोड़ा है, लेकिन उसे यह भी मालूम था कि अगर वो कुछ कहती, तो शायद कुछ और टूट जाता। राहुल की आँखों में वो भाव था, जो उसे परेशान करता था—क्योंकि उसमें एक उम्मीद थी। और आव्या को उम्मीदों से डर लगता था।

उस रात वो अपने कमरे में बैठी एक पुरानी डायरी पलट रही थी। उसमें कुछ अधूरी कविताएँ थीं, कुछ भूले हुए सपनों की चिट्ठियाँ, और एक नाम — “आरव”।

आरव… वही नाम जिससे वह आज भी डरती थी। एक समय था, जब वो भी कविता लिखती थी, बारिश से बातें करती थी, और प्रेम पर यकीन करती थी। लेकिन आरव ने सब कुछ बदल दिया था। एक अधूरी चिट्ठी, एक बिना कहे अलविदा और एक गहरी चुप्पी—जिसे उसने अब तक किसी से साझा नहीं किया था।

क्या राहुल भी ऐसा ही कोई नाम छोड़ जाएगा उसके हिस्से?

अगले दिन, राहुल नहीं आया।

और उससे अगला दिन भी खाली रहा।

लाइब्रेरी के कोने अब सूने लगने लगे थे। आव्या अपनी किताबें खोलती, पर कुछ पढ़ न पाती। खिड़की से आती हवा अब उस जैसी नहीं लगती थी। वह जानती थी कि राहुल नाराज़ नहीं था—वो सिर्फ समझ गया था।

पर क्या वो खुद को समझा पाई थी?

तीसरे दिन, एक छोटी सी कागज़ की पुर्ज़ी उसके टेबल पर मिली। शायद किसी किताब के पन्नों में से गिर गई थी।

उसमें सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी:

“मैं इंतज़ार कर लूँगा… जब तक तुम्हारी चुप्पी बोलना चाहे।”

राहुल की लिखावट थी।

उस दिन पहली बार, आव्या की आँखें नम हुईं—क्योंकि किसी ने उसके मौन को पहचान लिया था। और यह दुनिया में सबसे मुश्किल चीज़ होती है।

***

बारिश अब कम होती जा रही थी, लेकिन मसूरी की सर्द हवाएँ अब भी वैसी ही थीं—ठंडी, हल्की और भीतर तक चुभ जाने वाली। लाइब्रेरी के खिड़की वाले कोने में फिर वही खालीपन था, जहाँ कभी राहुल की डायरी और उसकी उंगलियों की थाप सुनाई देती थी। तीन दिन हो गए थे—राहुल नहीं लौटा।

लेकिन चौथे दिन… वह आया।

हवा की तरह, बिना आहट के।

दरवाज़ा हल्के से खुला, और वो भीतर दाखिल हुआ। चेहरे पर वही थकी मुस्कान, हाथों में वही चमड़े का झोला, और आँखों में… कुछ नया। कुछ ऐसा, जिसे आव्या ने पहले नहीं देखा था—एक दृढ़ता।

“मुझे लगा तुम नहीं आओगे,” आव्या ने कहा। पहली बार उसने खुद बातचीत की शुरुआत की थी।

“मुझे भी लगा,” राहुल ने जवाब दिया, “लेकिन कुछ अधूरी बातें पूरी किए बिना नहीं जातीं।”

उस दिन उन्होंने एक साथ चाय पी। लाइब्रेरी के बाहर एक पुराना वेंडर था, जो मिट्टी के कुल्हड़ों में अदरक वाली चाय देता था। बरामदे की बेंच पर बैठकर, दोनों ने बारिश की कुछ आखिरी बूँदों को देखा—जैसे मौसम भी उन्हें धीरे-धीरे समेटने दे रहा था।

“तुम्हें किसी से डर लगता है, ना?” राहुल ने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा।

“हाँ,” आव्या ने बिना हिचक के कहा।

“किससे?”

“भूतकाल से। एक नाम से… आरव से।”

राहुल ने कुछ नहीं कहा। वो बस सुनता रहा।

“हम कॉलेज में मिले थे। वो कविताएँ लिखता था, मैं उन्हें पढ़ती थी। हमारा रिश्ता किताबों से शुरू हुआ और वादों पर जाकर टूटा। उसने कहा था कि वो हमेशा रहेगा… लेकिन एक दिन, वो सिर्फ एक चिट्ठी छोड़कर चला गया। बिना वजह, बिना अलविदा।”

“क्या उस चिट्ठी में कुछ लिखा था?”

“हाँ,” आव्या की आवाज़ कांप गई, “लिखा था—’तुम्हारा प्रेम बहुत सच्चा है… इसलिए मैं उसे ख़राब नहीं करना चाहता। मुझे जाने दो।'”

एक लंबी चुप्पी हुई।

फिर राहुल ने धीरे से कहा, “कुछ लोग प्रेम से नहीं डरते… वे खुद से डरते हैं। और जब उन्हें कोई सच में समझता है, तो वो उसे खोने के डर से भाग जाते हैं।”

“और तुम?” आव्या ने पूछा, “तुम किससे भाग रहे हो?”

राहुल का चेहरा कुछ क्षणों के लिए सख्त हो गया।

“मैं भी एक चिट्ठी छोड़कर भागा था,” उसने कहा, “मेरे जीवन में भी कोई थी—नैना। वो मेरी पहली पाठिका, मेरी सबसे बड़ी आलोचक और मेरी पत्नी थी। हमने साथ में लेखन शुरू किया, लेकिन धीरे-धीरे, मेरी सफलता मेरे रिश्ते से बड़ी हो गई। मैंने अपनी पहचान बचा ली, लेकिन उसे खो दिया। एक दिन वो चली गई… सिर्फ एक पन्ना छोड़कर—’तुम्हारे शब्दों में अब मेरा नाम नहीं रहता।'”

आव्या उसकी ओर देखती रही—उसकी आँखों में कोई भी आँसू नहीं थे, लेकिन आवाज़ में एक ऐसी दरार थी जो वक़्त ने बनाई थी।

“और अब?” उसने धीरे से पूछा।

“अब मैं सिर्फ लिखता हूँ… और माफ़ी तलाशता हूँ। हर नई कहानी में मैं उसे वापस लाने की कोशिश करता हूँ, लेकिन हर अंत वैसा ही होता है… अधूरा।”

उस शाम, दोनों ने एक ही बात समझी—उनके बीच कुछ था जो सिर्फ प्रेम नहीं था। यह उन जख्मों की संगति थी जिन्हें किसी ने समझा था, पर भरने की कोशिश नहीं की। वे दोनों घावों के साथ जीना सीख चुके थे… लेकिन अब शायद वे किसी और के घाव पर हाथ रख सकते थे, बिना दर्द दिए।

अगले दिन राहुल ने आव्या को एक कविता दी। इस बार खुलकर।

तुम्हारे मौन में जो बात थी, वो किसी शोर में नहीं थी।
तुम्हारे डर में जो गहराई थी,
वो मेरी कहानियों से कहीं ज़्यादा थी।

आव्या ने कुछ नहीं कहा। वह बस मुस्कराई… और पहली बार, अपनी डायरी उसके हाथ में रख दी।

“कभी फुर्सत में पढ़ लेना,” उसने कहा।

राहुल ने डायरी खोली—पहले पन्ने पर लिखा था:

“कुछ चुप्पियाँ सिर्फ़ उनके लिए होती हैं, जो उन्हें सुनने का हौसला रखते हैं।”

***

उस दिन बारिश ज़रा अलग थी। ना तेज़ थी, ना रुक-रुक कर। जैसे कोई धीमा राग बज रहा हो—बहुत धीरे, बहुत भीतर। लाइब्रेरी के बाहर चीड़ के पेड़ों पर टपकती बूंदें संगीत जैसी लग रही थीं। अंदर, दीवार की घड़ी की टिक-टिक और पन्नों की खरखराहट के बीच, आज एक और आवाज़ शामिल थी—राहुल और आव्या की साँझी ख़ामोशी।

राहुल ने अपनी डायरी में लिखना बंद कर दिया था। अब वो बस पढ़ता था—धीरे-धीरे, ध्यान से। लेकिन वो पढ़ रहा था आव्या की डायरी, जो उसने पिछले दिन दी थी।

कई पन्नों में अधूरी कविताएं थीं। कुछ में गुस्से के धब्बे थे, कुछ पर आँसुओं के निशान। कहीं “आरव” नाम एक तीर की तरह उभरा था, और कहीं एक लड़की की हिम्मत जिसने खुद को समेटना नहीं सीखा।

“तुमने कभी ये छपवाने का सोचा?” राहुल ने पूछा।

“नहीं,” आव्या ने कहा, “ये सिर्फ मेरे लिए था… और अब तुम्हारे लिए।”

राहुल ने डायरी को एक गहरी नज़र से देखा—जैसे कोई मंदिर की मूर्ति को देखता है, सिर झुकाए हुए।

“ये सिर्फ डायरी नहीं है, आव्या,” उसने कहा, “ये तो एक जीवन है… टूटे हुए शब्दों से बना हुआ, लेकिन असल।”

वो दिन उनके बीच पहली बार ऐसा था, जब किताबें बीच में नहीं थीं। सिर्फ वे दो थे—कभी खामोश, कभी गहराइयों से भरे। लाइब्रेरी की खिड़की के पास बैठकर उन्होंने दो कप चाय पी, और बहुत देर तक बस बारिश को देखा।

“क्या तुमने कभी आरव से संपर्क किया?” राहुल ने अचानक पूछा।

“नहीं,” आव्या ने कहा, “कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। क्योंकि कुछ लोग हमें छोड़कर जाते हैं, ताकि हम खुद को खोज सकें।”

राहुल ने सिर हिलाया। “और जब कोई हमें पाकर खुद को पाता है?”

“तो शायद उसे जाने नहीं देना चाहिए।”

यह वाक्य राहुल के भीतर कहीं गूंजा। वह उसे सुनकर चुप रह गया।

तभी आव्या उठी, और एक छोटा-सा डिब्बा लाई—लकड़ी का, नक्काशीदार।

“ये मेरे पिताजी की घड़ी थी,” उसने कहा। “जब वो बीमार थे, तब मैं इस घड़ी को रोज़ चढ़ाती थी… जैसे हर सुबह के साथ उनके लिए वक़्त नया हो जाए।”

“वो अब नहीं हैं?” राहुल ने धीरे से पूछा।

“नहीं। और जब वो गए… घड़ी भी रुक गई।”

राहुल ने घड़ी को हाथ में लिया। उसमें अब भी टिक-टिक की faint गूंज थी, जैसे वक़्त अब भी थमा नहीं था, बस धीमा चल रहा था।

“तुम बहुत कुछ सँभाल कर रखती हो, आव्या,” राहुल ने कहा। “शब्द, रिश्ते, घड़ियाँ… और खुद को भी।”

“शायद इसलिए कि मुझे खुद को टूटने से डर लगता है।”

“और मुझे डर है… कि मैं हमेशा अधूरा रह जाऊँगा।”

बरामदे में बैठकर दोनों ने बहुत देर तक कुछ नहीं कहा। फिर आव्या ने उसकी ओर देखा।

“क्या तुम सच में वापस जाने वाले हो, दिल्ली?”

“नहीं जानता,” राहुल ने मुस्कराकर कहा। “शब्दों का कोई पता नहीं होता, वे जहाँ अर्थ मिलें… वहीं रुक जाते हैं।”

उस रात पहली बार राहुल ने आव्या के लिए एक पूरी कविता लिखी—बिना रोक के, बिना काटे।

तुम बारिश की वो आखिरी बूँद हो /
जो मिट्टी को पूरा करती है।
जिसके बाद सब शांत हो जाता है /
जैसे कुछ कहना बाकी नहीं रहा।

रात ढल गई। बारिश थम गई।

लेकिन उनके भीतर कोई मौसम अब भी चल रहा था।

***

मसूरी की हवाओं में हल्की सी गरमी घुलने लगी थी, लेकिन एक शाम आई—अजीब सी खामोशी लेकर।

लाइब्रेरी में उस दिन कम लोग आए। धूप के पीले टुकड़े खिड़कियों से अंदर आकर लकड़ी के फर्श पर टिके थे, और राहुल एक कोने में बैठा था, उसके सामने फैली थी कुछ पुरानी चिट्ठियाँ और एक छोटा मटमैला लिफाफा।

आव्या धीरे से उसके पास आई। उसने देखा—राहुल आज बिल्कुल अलग था। उसके चेहरे की नर्मी में एक पुरानी थकान थी, और उसकी उंगलियाँ चिट्ठी के कागज़ को ऐसे छू रही थीं जैसे वह किसी ज़ख्म को फिर से कुरेद रहा हो।

“सब ठीक है?” उसने पूछा।

राहुल ने बिना उसकी ओर देखे सिर हिलाया। फिर धीरे-धीरे, उसने चिट्ठी उसके हाथ में थमा दी।

“नैना की आखिरी चिट्ठी थी। कल मुझे पोस्ट से मिली। दो साल पुरानी तारीख़ है। शायद इसलिए क्योंकि मैंने अपना पता बदला था। किसी तरह वो अब पहुँची है।”

आव्या ने वो चिट्ठी पढ़नी शुरू की:

“राहुल,
मुझे नहीं पता ये तुम्हें कब और कैसे मिलेगी।
लेकिन अगर मिले, तो समझना… कि मैंने तुम्हें कभी माफ़ नहीं किया।
क्योंकि तुमने जो छीना, वो सिर्फ़ प्रेम नहीं था… वो मेरी पहचान थी।

फिर भी, एक बात बताना चाहती हूँ—तुम्हारी सबसे बेहतरीन कहानी… अभी लिखी नहीं गई है।

वो कहानी तब लिखना, जब तुम्हारे शब्दों में किसी और की साँसें शामिल हो जाएँ।
तब शायद, मैं भी तुम्हें माफ़ कर सकूँ।

— नैना”_

आव्या की उंगलियाँ काँप गईं।

“उसने तुम्हें दोषी ठहराया?” उसने धीमे से पूछा।

“हाँ,” राहुल की आवाज़ टूटी हुई थी। “और सही भी किया। मैंने उसे उस वक़्त छोड़ दिया जब उसे मेरी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। मैं एक किताब के लिए बाहर गया था… और रिश्ते को पीछे छोड़ आया। मैं coward था, selfish था… और अब भी हूँ शायद।”

आव्या बहुत देर तक चुप रही। फिर पूछा, “तुम्हें अब क्या लगता है—क्या तुम किसी और की साँसों को अपने शब्दों में शामिल कर सकते हो?”

राहुल की आँखें उसकी आँखों से मिलीं।

“शायद… अगर तुम चाहो तो।”

ये शब्द आव्या को भीतर तक छू गए। लेकिन उसके भीतर अब भी एक डर था—क्या वो किसी अधूरे आदमी की अधूरी कहानी का हिस्सा बन पाएगी?

“मैं अब किसी ऐसे रिश्ते में नहीं जाना चाहती जो टुकड़ों में लिखा गया हो,” उसने साफ़ कहा। “या तो तुम पूरे हो… या हम फिर से अधूरे रह जाएँगे।”

राहुल ने उसकी बात सुनी, गहराई से, और एक पेन निकालकर डायरी के पहले पन्ने पर लिखा:

“अब से जो भी कहानी लिखूंगा… उसमें हम दोनों होंगे। पूरे। बिना भागे, बिना छुपे।”

उस रात, आव्या बहुत देर तक सोचती रही—क्या वो फिर से खुद को एक प्रेम में डाल सकती है? क्या वो सचमुच पुराने डर को छोड़ सकती है? क्या वो फिर भरोसा कर सकती है?

सुबह होते ही, जब लाइब्रेरी खुली, राहुल अंदर आया और देखा—उसकी जगह पर एक नया कागज़ पड़ा था।

आव्या की लिखावट में लिखा था:

> _”अगर तुम्हारे शब्द अब साँस लेने लगे हैं…
तो मैं पढ़ने को तैयार हूँ।

– आव्या”_

और नीचे एक छोटी सी लाइन:

P.S. तुमने जो कविता लिखी थी… वो अब मेरी सबसे पसंदीदा चीज़ है।

राहुल ने मुस्कुरा दिया।

सच के बाद भी कुछ बचता है—वो होता है प्रेम का फिर से जन्म लेना।

***

मसूरी की सुबह आज शांत थी, लेकिन भीतर कुछ थिरक रहा था—जैसे एक धीमी धुन जो अब तक केवल सपनों में बजती थी, आज असल ज़िंदगी में सुनाई देने लगी हो। राहुल लाइब्रेरी पहुँचा, लेकिन पहली बार किसी किताब की तलाश में नहीं। उसके हाथ में था एक छोटा-सा पत्र, और मन में एक साहस—जिसका जन्म सिर्फ प्रेम कर सकता है।

वो वही खिड़की वाला कोना था, जहाँ से बरसात की हर बूँद ने उन्हें कभी पास लाया था। अब बारिश थम चुकी थी। आज धूप अंदर आई थी—सुनहरी और साफ़। और उसी रोशनी में बैठी थी आव्या, एक किताब में गुम, लेकिन उसकी उंगलियाँ बता रही थीं कि वो राहुल की आहट को पहचान चुकी है।

“तुम्हें लगता है कहानी शुरू हो चुकी है?” राहुल ने पूछा।

आव्या ने किताब बंद की। उसकी आँखों में कोई हलचल नहीं थी—बस एक गहराई थी, जैसे वो अब डर से नहीं, भरोसे से देख रही हो।

“शायद… कहानी पहले से ही चल रही थी। हमें अब सिर्फ उसका नाम देना है।”

राहुल ने मुस्कुराकर वो पत्र उसे थमाया।

प्रिय आव्या,
कभी किसी ने मुझसे कहा था—‘जब तुम्हारे शब्दों में किसी और की साँसें शामिल हो जाएँ, तब तुम्हारी सबसे सच्ची कहानी जन्म लेगी।’
मैंने बहुत सालों तक सिर्फ अपने लिए लिखा। अब पहली बार किसी के साथ के लिए लिखना चाहता हूँ—हर वाक्य, हर विराम, तुम्हारे लिए।

मैं कोई वादा नहीं करता, सिवाय इसके कि इस बार अधूरा कुछ नहीं रहेगा।

पत्र खत्म होते ही आव्या की आँखें थोड़ी सी चमकीं—वो आँसू नहीं थे, लेकिन उसमें एक साफ़ जवाब था। उसने राहुल का हाथ थामा।

“चलो,” उसने कहा।

“कहाँ?” राहुल थोड़ा चौंका।

“जहाँ कहानी लिखनी शुरू होती है—ज़िंदगी में। इस लाइब्रेरी से बाहर। किताबों से बाहर। एक कप चाय, एक लंबी सैर… और एक साधारण-सी शुरुआत।”

वो साथ बाहर निकले। मसूरी की गलियाँ धीरे-धीरे पीछे छूटने लगीं। किताबों की दुनिया से बाहर निकलकर अब वे असल ज़िंदगी की पंक्तियों में थे।

रास्ते में राहुल ने एक सवाल पूछा जो उसके मन में बहुत दिनों से था।

“अगर आरव लौट आए, और तुमसे कहे कि उसे माफ़ कर दो, तो क्या तुम कर पाओगी?”

आव्या कुछ देर चुप रही।

फिर बोली, “हो सकता है मैं उसे माफ़ कर दूँ। लेकिन वो जगह अब खाली नहीं है। किसी और ने उसे अपनी साँसों से भर दिया है।”

राहुल ने उसकी ओर देखा। “मैं?”

“हाँ,” उसने धीमे से कहा, “और मुझे नहीं लगता अब कोई अधूरापन बाकी है।”

वे पहाड़ी रास्तों पर चलते गए। चाय की दुकान पर बैठे, बादलों को नीचे देखते हुए, किसी कविता की अंतिम पंक्ति की तरह।

वो बारिश की आख़िरी बूँद
अब मिट्टी में उतर चुकी थी—
और वहाँ से कुछ नया जन्म ले चुका था।

***

कई महीने बीत चुके थे। मसूरी अब गुलाबी सर्दियों में ढल चुकी थी। पहाड़ियों पर बर्फ की हल्की चादर बिछी थी, और लाइब्रेरी की खिड़कियों पर अब भी वह पुराना कोना था—जहाँ दो लोगों ने शब्दों में साँस लेना सीखा था।

राहुल अब दिल्ली नहीं लौटा। उसने लाइब्रेरी के पास एक छोटा-सा घर किराए पर ले लिया, जहाँ खिड़की से बादल नीचे बहते दिखते थे। वहाँ उसने अपना पहला उपन्यास लिखा—”वो बारिश की आख़िरी बूँद”—जिसे उसने “आव्या के नाम” समर्पित किया।

आव्या ने फिर से अपनी कविताएँ लिखनी शुरू कर दी थीं, लेकिन अब वे चुप दर्द की नहीं, गहराई से जुड़े प्रेम की थीं।

हर रविवार वे साथ बैठते—एक चाय का कप, एक डायरी, और एक नई पंक्ति।

उन्होंने कभी औपचारिक प्रेम का इज़हार नहीं किया। ना “आई लव यू”, ना अंगूठी, ना वादा।
बस एक धीमी समझ थी, कि अब ये दोनों अकेले नहीं हैं।

एक दिन राहुल ने कहा,
“तुम्हारे बिना भी सब था… लेकिन तुम्हारे साथ सबकुछ अर्थपूर्ण हो गया।”

आव्या ने मुस्कराकर जवाब दिया,
“तुम बूँद थे, मैं मिट्टी थी—अब दोनों से खुशबू आती है।”

और वहाँ, मसूरी की उस सुबह में, जब धूप ने बर्फ को हल्का सा छुआ—कुछ वैसा ही हुआ,
जैसे धूप ने बारिश को चूमा हो।

कहानी समाप्त नहीं हुई थी—
वो अब ज़िंदगी बन गई थी।

[समाप्त]

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