शरद ठाकुर
लखनऊ के पुराने चौक मोहल्ले में एक लाल-ईंटों की हवेली है, जिसकी दीवारों पर वक़्त ने अपनी रेखाएँ खींच दी हैं। उसी हवेली के आँगन में, आम के पुराने पेड़ के नीचे रखी एक बेंत की कुर्सी पर हर सुबह विराजमान होते हैं—श्री बृजमोहन तिवारी, उर्फ़ बड़े बाबू। उम्र लगभग सत्तर पार, लेकिन चाल-ढाल में आज भी वह ‘पोस्ट ऑफिस के हेड क्लर्क’ की गरिमा बरकरार रखे हुए हैं। सुबह होते ही, जब मुहल्ले में दूधवाले की साइकिल की घंटी बजती है और नल से पानी टपकने लगता है, बड़े बाबू की नींद खुल जाती है। एक हाथ में चाय, दूसरे हाथ में ‘हिंदुस्तान’ अखबार और आंखों पर उनका सबसे प्रिय साथी—पुराना गोल फ्रेम वाला चश्मा, जिसकी एक डंडी पर लाल धागा बंधा हुआ है, जो पिछले 10 सालों से हर मरम्मत में बचा लिया गया है।
बड़े बाबू की सुबह की पहचान है—उनका नियमित अनुशासन और कटाक्ष से भरा रवैया। जैसे ही वह अखबार खोलते हैं, पूरा मोहल्ला एक अनौपचारिक “जजमेंट कोर्ट” बन जाता है। अखबार के किसी नेता की फोटो पर टिप्पणी करते हैं—”इसकी शक्ल में ही बेईमानी झलकती है!”—और किसी फिल्मी खबर पर कहते हैं—”अरे अब तो नाचने-गाने वाले भी राजनीति में आ गए!” पास बैठा उनका पोता श्यामू जब मोबाइल में वीडियो देख रहा होता है, तो एक तीखी नजर घूरते हुए कहते हैं—“तू देखता रह यही सब, जीवन में कुछ नहीं बनेगा। हम जब तुम्हारी उम्र में थे तो चिट्ठियों में शब्द गिन कर लिखते थे!” श्यामू चुपचाप मुस्कुराता है, क्योंकि उसे पता है—बिना चश्मे के दादाजी उसे सही से देख भी नहीं पाते।
लेकिन बात केवल इतनी नहीं है। बड़े बाबू का चश्मा सिर्फ उनकी दृष्टि नहीं, उनकी सोच, उनकी शान और उनकी साख है। मोहल्ले में सब जानते हैं कि चश्मा अगर नाक के ठीक बीच में सधा हुआ है, तो समझो बड़े बाबू का मूड ठीक है। लेकिन अगर चश्मा माथे पर चढ़ा हुआ हो, और वह अखबार को ऐसे देख रहे हों जैसे उसमें अपराधी छिपा है—तो समझ लीजिए कि आज कोई न कोई ज़रूर फँसेगा। सब्ज़ीवाला रमेश, दूधवाला गोविंदा, और यहां तक कि पास के स्कूल का चपरासी भी हर सुबह बड़े बाबू को सलाम ठोक कर निकलते हैं। स्कूल के बच्चे गली से गुजरते समय उनके आगे से बिना शोर किए, धीरे-धीरे पाँव रखते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है—अगर बड़े बाबू ने चश्मे के पीछे से देख लिया, तो घर में शिकायत ज़रूर जाएगी।
सबसे मज़ेदार बात यह है कि बड़े बाबू अपने चश्मे के बारे में एक अजीब किस्सा अक्सर दोहराते हैं—”जब तुम्हारी दादी से पहली बार मिला था, तो इसी चश्मे से देखा था। उस नज़र ने बता दिया था—यही लड़की मेरी जीवनसंगिनी बनेगी!” उस पर दादी आज भी चुटकी लेकर कहती हैं—”और मैंने तो यही चश्मा देखकर सोचा, ये आदमी पक्के सरकारी बाबू हैं!” यह सुनकर पोता श्यामू पेट पकड़ कर हँस पड़ता है, और बड़े बाबू ज़रा भी विचलित हुए बिना गर्व से कहते हैं—”फैशन नहीं, फंक्शन देखो बेटा। यह चश्मा है—आंखों का प्रहरी और समझ का आईना!”
***
सुबह के सात बज चुके थे। गली में दूधवाले की साइकिल की घंटी और सब्ज़ीवालों की टेर सुनाई दे रही थी, लेकिन आज हवेली के आँगन में एक अजीब-सी खामोशी थी। बड़े बाबू रोज़ की तरह उठे थे, लेकिन आज जैसे कुछ गड़बड़ थी। उन्होंने अपने सिरहाने हाथ डाला—नहीं मिला। तकिए के नीचे देखा—वहाँ भी नहीं। चटाई के कोने, अखबार के ढेर, दीवान के नीचे… हर जगह तलाशी ली, मगर चश्मा नदारद!
“श्यामू! ओ श्या-मू-ऊ-ऊ!!” बड़े बाबू की आवाज़ पूरे मोहल्ले में गूंज उठी। श्यामू हड़बड़ा कर दौड़ा आया, अभी तक नींद की चाय भी पूरी नहीं पी पाई थी।
“क्या हुआ, दादू?”
“मेरा चश्मा गायब है! पूरा घर छान मारा, कहीं नहीं मिला!”
श्यामू ने हँसते हुए पूछा, “दादू, आपने पहना तो नहीं हुआ है?”
“अबे बुद्धू! मैं पहनता तो तुम्हें दिखता नहीं क्या? और अखबार में नेता की शक्ल देखकर मेरी आवाज़ नहीं उठती?”
श्यामू मुस्कुरा कर चुप हो गया, लेकिन उसकी आँखों में शरारत झलक रही थी।
अब पूरे घर में हलचल मच गई। अम्मा ने रसोई से झाँकते हुए कहा—”कल रात दीवान पर सोते-सोते कहीं नीचे तो नहीं गिर गया?” दादी ने सिर पर आँचल ठीक करते हुए कहा—”मैंने तो उसे सिरहाने रखा देखा था!”
बड़े बाबू अब तक झुंझला चुके थे—“ये वही चश्मा है जिससे मैंने आज़ाद भारत के पहले चुनाव की वोटिंग की थी! तुम्हारे पापा के शादी में मैंने उसी से कन्यादान देखा था। और अब तुम लोग उसे खो बैठे!”
फिर क्या था—पूरा मोहल्ला एक जासूसी मोड में आ गया। छोटे बच्चे घर के नीचे जाकर “चश्मा-चश्मा” चिल्लाते हुए ढूंढने लगे। सब्ज़ीवाला रमेश एक बैग छोड़कर बोला—”बड़े बाबू, कल रात जो बिल्ली आपकी छत पर घूम रही थी, कहीं वह न गिरा गई हो!” बड़े बाबू ने घूर कर कहा—“बिल्ली को छोड़, तू लोकी में पानी कम डाल! चश्मा नहीं मिलेगा तो तेरी सब्ज़ियाँ मेरी नजर से हट जाएँगी!”
यह बात कुछ ही देर में पूरे मोहल्ले में फैल गई—“बड़े बाबू का चश्मा खो गया है!”
किराने वाले से लेकर स्कूल मास्टर तक चिंतित हो उठे। मोहल्ले के WhatsApp ग्रुप पर फोटो डाली गई—”गोल फ्रेम वाला पुराना चश्मा, बायीं डंडी में लाल धागा बंधा है। जिसने देखा हो, कृपया लौटाए!”
उधर बड़े बाबू बिना चश्मे के खुद को अधूरा महसूस कर रहे थे। अखबार की इबारत अब सिर्फ रेखाएँ लगती थीं, और श्यामू के TikTok वीडियो उन्हें मनोवैज्ञानिक हमले जैसे लगते थे। उन्होंने आंखें मींचते हुए धीरे से कहा—
“बिना चश्मे के ये दुनिया धुंधली है… जैसे लोकतंत्र में बिना संविधान के रहना!”
***
बड़े बाबू का चश्मा गायब हो चुका था, और मोहल्ले का संतुलन जैसे डगमगा गया था। चश्मा सिर्फ एक वस्तु नहीं था, वो मोहल्ले का नैतिक कम्पास था। उसकी अनुपस्थिति में अखबार बिना समीक्षा के पढ़ा जा रहा था, सब्ज़ी बिना घूरने के बेची जा रही थी, और मोहल्ले की बच्चियां स्कूल जाते समय ज़रा ज़्यादा ज़ोर से हँसने लगी थीं — क्योंकि उन्हें डराने वाली निगाहें अब छूट्टी पर थीं।
लेकिन श्यामू ने हार नहीं मानी। उसने एक सफ़ेद टोपी, प्लास्टिक की ऐनक और प्लेन टी-शर्ट पहन कर एक नोटबुक उठाई और बोला—
“ऑपरेशन चश्मा शुरू किया जा रहा है। एजेंट कोडनेम: श्यामू बॉण्ड। मिशन: ‘सर्च फ़ॉर द गोल्डन ग्लासेज़’!”
उसके साथ मोहल्ले के तीन और बच्चे जुड़ गए: मिंटू (जो बहुत तेज़ दौड़ता है), गुड्डी (जिसकी आंखें बाज़ की तरह तेज़ हैं), और छुटकी (जिसे सब ‘गूगल छुटकी’ कहते हैं, क्योंकि उसे हर चीज़ की जानकारी रहती है)। उन्होंने मिलकर मोहल्ले में चश्मे की तलाश के लिए चार ज़ोन बनाए:
1. बड़े बाबू का आँगन और आम का पेड़ के नीचे का इलाका
2. छत और पालतू बिल्ली के सारे रूट्स
3. पास वाली गली जहां कचरा वाला आता है
4. नन्ही चंपा की साइकिल का टोकरा (जिसमें कुछ भी हो सकता है!)
“बिल्ली को रात में छत पर जाते देखा गया था,” छुटकी ने अपनी फ़ाइल खोलते हुए कहा, “तो संभावना है कि चश्मा उसकी पूंछ से उलझकर नीचे गिरा हो!”
गुड्डी ने बोला—“मैंने मिंटू को कल रात चुपचाप दादाजी की कुर्सी पर बैठकर मोबाइल से वीडियो बनाते देखा था।”
मिंटू बोला—“मैं तो बस इंस्टा रील बना रहा था! मुझे क्या पता चश्मा कहाँ है!”
अब मिशन में असली थ्रिल तब आया जब छुटकी ने बड़े बाबू के पुराने अखबारों के ढेर से एक सुराग निकाला—एक पुराना चश्मे का कवर!
“देखो! शायद ये उसी ब्रांड का है, जिससे बड़े बाबू का चश्मा बना था। चलो, दुकानदार से पूछते हैं कि वह मॉडल अब भी मिलता है या नहीं।”
सब बच्चे भागते हुए बाजार की ओर चल पड़े।
उधर, बड़े बाबू बिना चश्मे के बैठे हुए, रेडियो से लता मंगेशकर का कोई धुंधला सा गाना सुनने की कोशिश कर रहे थे। हर बार किसी के पैर की आहट सुन कर कहते—“मिल गया?”
और हर बार जवाब आता—“नहीं दादाजी, लेकिन हम लगे हैं। किसी सीबीआई से कम नहीं!”
और तब, दिन के आखिरी पहर में एक धमाका हुआ—मिंटू की साइकिल की घंटी बजती है, और उसके पीछे छुटकी दौड़ते हुए चिल्लाती है—
“मिल गया! मिल गया! बड़े बाबू का चश्मा मिल गया!!”
बड़ा बाबू चौंकते हैं—“कहाँ था?”
श्यामू ने मुस्कुराते हुए कहा—
“आपके बिस्तर के नीचे रखा गया वो पुराना ‘रामायण’ का ग्रंथ… उसके अंदर छिपा हुआ था। शायद रात को पढ़ते-पढ़ते वहीँ रखकर भूल गए।”
बड़े बाबू कुछ देर मौन रहे, फिर धीरे-धीरे मुस्कराते हुए बोले—
“राम के नाम में ही शक्ति है बेटा… देखो, उसी ने मेरी दृष्टि लौटा दी!”
पूरा मोहल्ला हँसी से गूंज उठा।
***
बड़े बाबू के चेहरे पर जब चश्मा फिर से लौटकर सधा, तो ऐसा लगा जैसे कोई राजा अपना मुकुट वापस पा गया हो। पूरे मोहल्ले ने राहत की सांस ली।
“अब तो अखबार की समीक्षा फिर से शुरू होगी,” रमेश सब्ज़ीवाले ने कान खुजाते हुए कहा।
“और अब दादी की दोपहर की ताश पार्टी फिर से स्थगित होगी,” श्यामू ने मुस्कुरा कर कहा, क्योंकि चश्मे के साथ ही बड़े बाबू का ध्यान दोबारा मोहल्ले की नैतिकता पर केंद्रित हो गया था।
बड़े बाबू ने गंभीर आवाज़ में घोषणा की—
“इतना बड़ा संकट था। अगर बच्चे न होते, तो मैं आज भी धुंधली दुनिया में जी रहा होता। इसलिए, एक औपचारिक मोहल्ला सभा बुलाई जा रही है। मुद्दा—’नयी पीढ़ी की उपयोगिता और पुराने मूल्यों की रक्षा’।”
दादी ने धीरे से फुसफुसाया, “मतलब फिर से पुराने किस्सों की बारिश होगी।”
अगली शाम मोहल्ले की गली नं. 5 में बिछीं प्लास्टিক की कुर्सियों पर बड़े-बुजुर्ग और बच्चे जमा हुए। मिंटू, गुड्डी, छुटकी, और श्यामू को सामने बिठाया गया—मानो किसी स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने वाले वीर हों।
बड़े बाबू ने कुर्सी पर पीठ सीधी कर ली, चश्मा एकदम ठीक कोण पर रखा और बोले—
“ये चश्मा कोई आम चश्मा नहीं है। ये वर्षों की समझ, अनुभव और सरकारी फाइलों की निगाह से निकला हुआ आइना है। जब ये खो गया, तो लगा जैसे ज्ञान का प्रकाश बुझ गया हो।”
श्यामू ने धीरे से फुसफुसाया—“दादू, रो दोगे क्या?”
बड़े बाबू ने उसे घूरा, और फिर गंभीरता से बोले—
“लेकिन इस संकट में, जो बच्चे आगे आए, उन्होंने साबित कर दिया कि आज की पीढ़ी में भी जिम्मेदारी का बीज है। मैं प्रस्ताव रखता हूँ कि इन बच्चों को ‘गली के मानद जासूस’ का खिताब दिया जाए!”
चारों बच्चों के चेहरे खिल उठे। मिंटू तो खुशी में इतना झूम गया कि कुर्सी ही गिरा दी। दादी पीछे से बोली—”देखो, खिताब मिले नहीं कि कुर्सियाँ उड़ने लगीं!”
सभा के अंत में बड़े बाबू ने चश्मा पोंछते हुए कहा—
“हम सबको समझना होगा कि पुराने मूल्य और नई तकनीक साथ चल सकते हैं। अगर श्यामू की WhatsApp ग्रुप में फोटो न जाती, तो शायद मेरा चश्मा आज भी रामायण में सो रहा होता।”
मोहल्ले की बुज़ुर्ग महिलाएं ताली बजा-बजा कर बोलीं—“बिलकुल सही कहा! अब से हर सप्ताह मोहल्ला सभा होगी और बड़े बाबू भाषण देंगे।”
यह सुनते ही श्यामू, मिंटू, गुड्डी और छुटकी के चेहरे अचानक फीके हो गए।
श्यामू ने धीरे से कहा—”अब तो लगता है, चश्मा खो जाना ही बेहतर था।”
पूरा मोहल्ला ठहाकों से गूंज उठा।
***
जबसे चश्मा मिला है, बड़े बाबू की आंखों की चमक में एक अजीब-सी दिव्यता आ गई थी। पहले जहाँ वो केवल अखबार और बच्चों की शरारतें देखा करते थे, अब उन्हें हर चीज़ में कोई “संकेत”, कोई “साज़िश”, और कभी-कभी तो कोई “भविष्यवाणी” तक दिखने लगी।
एक दिन उन्होंने सुबह चाय पीते हुए अखबार में एक विज्ञापन देखा—”आज ही बनवाएं अपना भविष्य, हस्तरेखा और जन्मकुंडली विश्लेषण!”
चश्मे को ठीक करते हुए बोले—“इसकी शक्ल देखो… नकली ज्योतिषी है ये! और सुनो, मुझे लगता है… ये सामने वाले शर्मा जी के घर चोरी होने वाली है।”
दादी चौंक गईं—“आपको कैसे पता?”
बड़े बाबू गंभीर होकर बोले—“आज सुबह मैंने अपने इस चश्मे से शर्मा जी के घर की छत पर दो कौए देखे। दो कौए = दो आदमी = रात में घुसपैठ! ये गणित है, जिसे केवल अनुभवी आंखें समझती हैं।”
श्यामू ने धीरे से कहा—“या फिर दो कौए बस रोटी खा रहे होंगे?”
बड़े बाबू ने घूरते हुए जवाब दिया—“दिमाग़ से नहीं, दृष्टि से सोचो! ये चश्मा अब सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं है… ये देखने से ज़्यादा दिखाने लगा है!”
फिर शुरू हुआ “शंका का सिलसिला”—
• मोहल्ले के पप्पू को देख कर बोले—“इसका चेहरा बता रहा है, गणित में फेल हुआ है!”
• पोस्टमैन आया तो बोले—“इसकी चाल में आज गड़बड़ी है, ज़रूर कोई बिल लाया है!”
• दादी की सहेली मिसेज वर्मा पास आईं, तो बड़े बाबू फुसफुसाए—“कुछ छुपा रही हैं… शायद उनके बेटे की नौकरी लगी है और ये बताना नहीं चाह रहीं!”
मोहल्ले में धीरे-धीरे चर्चा फैल गई—”बड़े बाबू का चश्मा अब जादुई हो गया है!”
गुड्डी ने छुटकी से कहा—”अगर चश्मा इतना खास है, तो हम इससे अपना परीक्षा का पेपर क्यों नहीं देख सकते?”
श्यामू बोला—”हाँ! दादाजी को स्कूल ले चलें। उन्हें कक्षा में बैठा दें, हम सब टॉप कर जाएंगे!”
इस बीच, बड़े बाबू अब “दृष्टिदान” सेवा शुरू करने की सोचने लगे थे। एक बोर्ड बनवाया गया—
“दृष्टिवान तिवारी: भविष्य के संकेत केवल एक दृष्टि में!”
नीचे लिखा था—”सेवा मुफ्त, बशर्ते आप मेरी बात मानें!”
दादी ने माथा पीट लिया। मोहल्ले में लोग अब मज़े के लिए भी आने लगे।
“बड़े बाबू, कल मेरी बकरी खो गई, आपने देखा क्या?”
“हाँ देखा… लेकिन चश्मे ने बताया—वो बकरी किसी और से बेहतर जिंदगी जी रही है!”
पूरा मोहल्ला अब या तो भ्रमित था, या फिर मनोरंजन ले रहा था।
लेकिन इस मज़ेदार माहौल के बीच एक दिन अचानक चश्मे की काँच में एक दरार आ गई…
और बस यहीं से कहानी लेगी एक नया मोड़।
***
एक रविवार की दोपहर थी। मोहल्ला आम दिनों की तरह सुस्त था—बच्चे गर्मी से बेहाल, दादी लोग पंखे के नीचे जम कर, और बड़े बाबू अपनी मशहूर “दृष्टिवान तिवारी” कुर्सी पर विराजमान, चश्मा लगाए दुनिया को “सही” देख रहे थे।
तभी हवा का एक झोंका आया और उनके हाथ से गिरा चाय का कप, और साथ ही धप्प!
चश्मा ज़मीन से टकराया और “कच्च” की आवाज़ के साथ एक काँच में हल्की-सी दरार पड़ गई।
पूरा मोहल्ला थम गया।
श्यामू दौड़ते हुए आया—“दादू! आप ठीक हैं?”
बड़े बाबू हाथ उठाकर बोले—“मैं ठीक हूँ… लेकिन शायद अब दुनिया को पहले जैसा नहीं देख पाऊँगा।”
दरार ज़्यादा नहीं थी—बस बाएँ काँच के कोने पर एक पतली सी लकीर। लेकिन उसका असर बहुत बड़ा था। अब जब बड़े बाबू चश्मा पहनते, तो किसी का चेहरा दो भाग में कट जाता, कोई छोटा लगता, कोई लंबा… और कुछ लोगों को तो वो देख ही नहीं पाते!
वो बोले—“मुझे लग रहा है कि अब चश्मा मुझे धोखा दे रहा है। आज सुबह वर्मा जी को देखा, तो लगा जैसे वो दो अलग-अलग मूड में हैं। आधा चेहरा हँस रहा था, आधा गुस्से में!”
श्यामू हँसते हुए बोला—“दादू, वो उनके चेहरे का नहीं, चश्मे का असर है!”
बड़े बाबू गंभीर हुए—“या फिर ये दुनिया ही अब असल रूप दिखाने लगी है…”
अब शुरू हुई चश्मे और भ्रम की लड़ाई।
बड़े बाबू ने उस दरार को ही ‘दिव्य रेखा’ मान लिया। अब वह हर चीज़ को उसी दरार से देखना शुरू कर चुके थे।
• “इस दरार से देखो, तो शर्मा जी के घर का रंग पीला दिखता है… यानी कोई डर बैठा है।”
• “और उस तरफ देखो, रमेश की सब्ज़ियों का रंग बदला हुआ लगता है। मिलावट!”
• “और वो देखो, मिंटू के बाल नीले लग रहे हैं… जरूर उस पर कोई विदेशी प्रभाव है!”
दादी ने तंग आकर कहा—“चश्मे की दुकान चलाओ या सीरियस बीमारियों का क्लीनिक?”
बड़े बाबू बोले—“नहीं अम्मा, ये चश्मा अब मुझे भीतर तक देखने लगा है। ये दरार कोई साधारण टूटी काँच नहीं है, ये मेरे और सच्चाई के बीच का पर्दा है!”
उधर मोहल्ले वालों ने तय कर लिया—अब तो बड़े बाबू का चश्मा बदलवाना ही पड़ेगा। वरना वो आने वाले हर संकट को पहले ही घोषित कर देंगे—
“कल मोहल्ले में बिजली नहीं आएगी, मेरी दृष्टि ने देख लिया है।”
“बबलू का रिश्ता टूटने वाला है, चश्मा साफ बता रहा है।”
“टॉमी (कुत्ता) गली नं. 4 की कुतिया से शादी नहीं करेगा, उसकी चाल में झिझक है!”
आखिरकार, मोहल्ले की मीटिंग हुई। सभी बुज़ुर्गों और बच्चों ने मिलकर निर्णय लिया—
“बड़े बाबू को नया चश्मा बनवाया जाए, और पुराने को सम्मानपूर्वक ‘सेवानिवृत्त’ किया जाए।”
पर क्या बड़े बाबू अपने “दिव्य चश्मे” से इतना आसान विदा लेंगे?
क्या वो नया चश्मा अपनाएंगे या दरार में ही गहराई खोजते रहेंगे?
***
चश्मे की दरार अब पूरे मोहल्ले की परेशानी बन गई थी। बड़े बाबू हर किसी को दो हिस्सों में बाँट कर देखने लगे थे—आधा अच्छा, आधा संदिग्ध।
बबलू की माँ जब सब्ज़ी लेकर लौटीं, तो बड़े बाबू बोले—
“तोरई साफ नहीं धोई गई है, मुझे चश्मा बता रहा है।”
दादी ने झुंझलाकर कहा—“तोरई तो छोड़ो, अब तू खुद भी ठीक से नहीं दिखता!”
अंततः मोहल्ले की आपात बैठक बुलाई गई। बैठक का एक ही एजेंडा था—”पुराने चश्मे को अलविदा कहने की गरिमा कैसे निभाई जाए?”
मीटिंग में सबसे पहले छुटकी ने सुझाव दिया—
“क्यों न हम उसका अंतिम संस्कार करें?”
गुड्डी ने उत्साहित होकर कहा—“हाँ! एक छोटी सी विदाई सभा, चश्मे के सम्मान में।”
बड़े बाबू ने चौंककर कहा—“क्या? अंतिम संस्कार? चश्मे का?”
श्यामू धीरे से बोला—“दादू, आप तो हमेशा कहते थे कि ये चश्मा आपकी आँखें है… तो फिर उसे ठीक से विदा देना भी तो जरूरी है!”
बड़े बाबू थोड़े भावुक हुए। उन्होंने चश्मे को दोनों हाथों में उठाकर देखा—दरार में अब रोशनी का एक टुकड़ा अटक कर चमक रहा था।
“तूने मुझे दुनिया दिखाई, लोगों की चालाकियाँ, बबलू की नकल, और शर्मा जी की फुलझड़ी सी बातें… तूने मुझे वह भी दिखाया, जो नहीं था।”
फिर बोले—”ठीक है। इस चश्मे को पूरी गरिमा से विदा दी जाएगी।”
“चश्मा विदाई समारोह” अगले रविवार को तय किया गया। आयोजन स्थल: गली नं. 5 का नुक्कड़।
• एक स्टेज सजाया गया।
• पुराने अखबारों से बनी माला लाई गई।
• एक छोटा सा ‘चश्मा बॉक्स’ तैयार हुआ।
• बच्चों ने ‘दृष्टि पर कविता’ भी लिखी—
“वो दो काँच नहीं, वो दो आँखें थीं,
जिनसे बड़े बाबू ने देखी पूरी ज़िंदगी की स्क्रीन।”
बड़े बाबू ने मंच पर चढ़कर चश्मे को अंतिम बार आंखों के पास लाकर कहा—
“इस दरार ने मुझे दुनिया को टेढ़ा दिखाया… लेकिन शायद सच भी वही था। पर अब समय है नयी नज़र का, नई राह का।”
उन्होंने चश्मे को बॉक्स में रखा, और सभी ने मिलकर 2 मिनट का “नज़र मौन” रखा।
फिर शुरू हुआ प्रसाद वितरण: मिंटू ने समोसे बांटे, छुटकी ने गुलाब जामुन, और बड़े बाबू ने—मोमेंटो में “नकली चश्मे” बाँटे बच्चों को, यादगार के तौर पर।
लेकिन…
जैसे ही सब जाने लगे, बड़े बाबू ने आहिस्ता से एक छोटा सा बॉक्स निकाला, और फुसफुसाए—
“असली चश्मा तो मैंने अभी तक छुपा कर रखा है… वो ‘दिव्य दरार’ वाला… यही तो मेरी असली पहचान है।”
दादी ने पीठ पीछे से ताली बजाकर कहा—
“देखा! बोलती थी न, ये आदमी सुधरेगा नहीं!”
पूरा मोहल्ला एक बार फिर हँसी से गूंज उठा।
***
चश्मे के भव्य “श्रद्धांजलि समारोह” के बाद मोहल्ले में कुछ दिन की शांति छाई रही। बड़े बाबू थोड़े उदास दिखे—जैसे कोई बुज़ुर्ग राजा अपने प्रिय घोड़े के बिछोह में हों।
दादी ने टोका, “अब नाटक बंद करो। ये रहा तुम्हारा नया चश्मा, डॉक्टर साहब ने खुद चुना है।”
बड़े बाबू ने सन्देहभरी निगाहों से नये चश्मे को देखा। फ्रेम थोड़ा हल्का था, काँच साफ-सुथरा, और सबसे बड़ी बात—दरार नहीं थी!
उन्होंने धीरे-धीरे चश्मा पहना… और पहली बार सबकुछ बिल्कुल “सामान्य” दिखा।
कोई चेहरा टूटा नहीं, कोई सब्ज़ी ज़हरीली नहीं लगी, और कौए भी बस कौए ही लगे।
बड़े बाबू ने घबराकर कहा—
“दुनिया इतनी सीधी कैसे लग रही है? ये चश्मा कुछ छुपा तो नहीं रहा?”
श्यामू हँस पड़ा—“दादू, आप अभी तक डिटेक्टिव मोड में हैं!”
गुड्डी ने फुसफुसाया—“लगता है नया चश्मा उनके मन की आँखों पर पर्दा डाल दिया है।”
लेकिन फिर शुरू हुआ नये चश्मे का असली परीक्षण।
■ बड़े बाबू पार्क गए तो बोले—“अब ये गुलाब भी असली लग रहे हैं… पहले तो ये मुझे ‘जाली फूल’ लगते थे।”
■ सब्ज़ी मंडी में बोले—“अब रमेश का तराज़ू संतुलित दिखता है… पर मुझे उसपर अभी भी शंका है।”
■ और सबसे ज़्यादा दादी चौंकीं जब बड़े बाबू बोले—“तुम्हारी बातें अब मीठी लगने लगी हैं… शायद चश्मे का असर है!”
धीरे-धीरे, बड़े बाबू की दुनिया “नॉर्मल” होती जा रही थी।
मोहल्ले के लोग चैन की सांस लेने लगे। बच्चे अब खुलकर कंचे खेल पा रहे थे, दादी अब ताश में चीटिंग कर पा रही थीं, और टॉमी नामक कुत्ता बिना जासूसी निगाहों के दौड़ रहा था।
पर…
फिर एक दिन…
बड़े बाबू ने अखबार पढ़ते-पढ़ते आंखें मिचमिचाईं और बोले—
“अरे! इस चश्मे में नीचे की लाइनें हल्की दिखती हैं…”
श्यामू दौड़ता हुआ आया—“क्या हुआ?”
बड़े बाबू ने चश्मा उतारकर देखा—
“शायद… एक बाल जैसी महीन लकीर दिख रही है… फिर से दरार?!”
सबने घबराकर चश्मा देखा।
नहीं, वो दरार नहीं थी… बस एक बाल चिपक गया था।
लेकिन बड़े बाबू मुस्कराए और बोले—
“ये तो संकेत है… मुझे फिर से दृष्टिवान बनने का बुलावा मिल रहा है!”
मोहल्ला फिर से सिहर उठा।
दादी ने सिर पकड़ा—“हे भगवान! ये तो फिर शुरू हो गया!”
श्यामू बोला—“चलो छुटकी, गुड्डी… हमें फिर से जासूस बनना होगा।”
और इस तरह,
बड़े बाबू और उनका चश्मा एक बार फिर तैयार हो गए दुनिया को अपनी नज़र से देखने—इस बार नए चश्मे के साथ, लेकिन उसी पुराने जोश और जज्बे के साथ!
—समाप्त—