निरंजन पाठक
राजीव शर्मा एक तेज़-तर्रार और तर्कशील पत्रकार था। वह हमेशा से उन कहानियों के पीछे भागता था, जिनमें रहस्य, सनसनी और थोड़ा खतरा हो। दिल्ली के एक प्रमुख न्यूज़ पोर्टल में काम करते हुए उसने कई बार विवादास्पद रिपोर्टों पर काम किया था, लेकिन अब वह कुछ अलग करना चाहता था — ऐसा कुछ, যা सिर्फ ख़बर न होकर, अनुभव बन जाए।
एक दिन जब वह अपने पुराने कॉलेज के प्रोफेसर से मिलने गया, तब बातचीत में हिमाचल के एक छोटे से गाँव ज्योरीधार का ज़िक्र आया। प्रोफेसर बोले, “वहाँ एक पुरानी हवेली है, जिसे लोग ‘हवलदार की हवेली’ कहते हैं। कहते हैं वहाँ आज भी कोई भूत घूमता है।”
राजीव हँस पड़ा। “सर, ये बातें तो लोगों की कल्पना होती हैं। कोई मरे हुए आदमी की आत्मा कैसे वापस आ सकती है?”
प्रोफेसर ने मुस्कराते हुए कहा, “सच क्या है, ये जानने के लिए कभी-कभी वहाँ जाना पड़ता है जहाँ लोग जाने से डरते हैं।”
बस वही राजीव के दिमाग में बैठ गया।
अगले ही सप्ताह, वह एक छोटा सा बैग, कैमरा, रेकॉर्डर और नोटबुक लेकर हिमाचल की बस में बैठ गया। ठंडी हवाओं और पहाड़ी रास्तों से गुजरते हुए वह दो दिन में ज्योरीधार पहुँचा — एक ऐसा गाँव जहाँ मोबाइल सिग्नल नहीं था, और लोगों के चेहरे पर कुछ अनकहा डर छिपा था।
गाँव की सीमा पर एक पत्थर की पट्टी पर लिखा था —
“स्वागत है ज्योरीधार में — प्रकृति और रहस्य का संगम।”
गाँव छोटा था, मुश्किल से सौ-दो सौ घर। ज़्यादातर लोग खेती और लकड़ी के काम में लगे थे। राजीव गाँव के सरपंच, बूढ़े बालकिशन जी से मिलने गया। बालकिशन एक गहरी नज़र वाले इंसान थे, जिनके चेहरे पर अनुभव की झुर्रियाँ थीं।
“तुम किसलिए आए हो, बेटा?” उन्होंने पूछा।
“मैं पत्रकार हूँ। सुना है यहाँ एक हवेली है… जिसमें कोई हवलदार की आत्मा भटकती है?”
बालकिशन की आँखें सिकुड़ गईं। वे कुछ देर तक चुप रहे, फिर बोले —
“लोग भूल चुके हैं उसे… पर वो नहीं भूला। अब भी हर पूर्णिमा को उसकी चाल की आवाज़ हवेली से आती है। बहुतों ने देखी है उसकी छाया।”
राजीव ने मोबाइल ऑन करने की कोशिश की — नेटवर्क नहीं। वह मुस्कराया, “मैं सब रेकॉर्ड करूँगा। आपकी हवेली को टीवी पर लाऊँगा।”
बालकिशन गंभीर हो गए।
“बेटा, कुछ दरवाज़े बंद ही अच्छे लगते हैं। वो जो वहाँ रहता है… वह मरा नहीं, बस छिपा है।”
राजीव ने ठहरने के लिए सरपंच की मदद से एक पुराना गेस्ट हाउस ले लिया। उस रात गाँव के कुछ युवक उससे मिलने आए — देव, विशाल और रघु। वे उत्सुक थे कि कोई शहर से आया है और ‘हवेली’ के बारे में खुलकर बात कर रहा है।
विशाल ने कहा, “हम लोग उस हवेली के पास भी नहीं जाते। दो साल पहले गाँव का एक लड़का — मनोज — जिज्ञासा में चला गया था। आज तक नहीं मिला। पुलिस भी कुछ न कर सकी।”
राजीव ने रिकॉर्डर ऑन कर दिया।
“क्या आपने कुछ देखा?”
देव ने फुसफुसाकर कहा, “हमने सुन रखा है कि रात में वहाँ एक आदमी मार्च करता है, जैसे फौज की चाल… और कभी-कभी ‘भारत माता की जय’ की गूंज आती है। पर आवाज़ एकदम जलती हुई सी होती है।”
राजीव ने मुस्कराते हुए कहा, “मैं तो चाहता हूँ मैं उसे देख सकूँ।”
सभी लड़कों की आँखों में डर था। रघु ने धीरे से पूछा, “क्या आप सच में वहाँ रात बिताएंगे?”
राजीव ने सिर हिलाया, “हाँ। कल रात।”
गाँव के लोग जान चुके थे कि कोई बाहर वाला हवेली में जाने वाला है। कुछ ने उसे समझाने की कोशिश की, कुछ ने सिर्फ चुपचाप देखा। लेकिन राजीव का आत्मविश्वास अडिग था। वह मानता था कि भय मन का भ्रम है, और वह इस भ्रम को तोड़ना चाहता था।
अगली सुबह, वह हवेली का बाहरी इलाका देखने गया। यह गाँव से थोड़ी दूरी पर एक छोटी पहाड़ी पर स्थित था। पत्थरों से बना वह खंडहर, काई और घास से ढका हुआ था। एक विशाल फाटक था जिस पर जंग लगे हुए अक्षरों में लिखा था —
“प्रताप सिंह – हवलदार, 1947”
राजीव ने तस्वीरें खींची, हवा की गंध को महसूस किया — जैसे कुछ बहुत पुराना अब भी जीवित है।
उसने तय कर लिया, कि अगली रात — पूर्णिमा की रात — वह उस हवेली के अंदर जाएगा।
गाँव में हलचल थी। लोग दरवाज़े बंद कर रहे थे, जानवर बाँध रहे थे, और जैसे कोई आपदा आने वाली हो।
राजीव अकेला गेस्ट हाउस में बैठा था, कैमरा, टॉर्च, रिकॉर्डर और एक पेनड्राइव तैयार रखे। उसकी डायरी में आखिरी लाइन लिखी गई थी —
“अगर मैं लौट न सका, तो समझ लेना कि डर सिर्फ कहानियों में नहीं होता।”
रात गहराने लगी। चाँद निकल आया था — पूर्णिमा का उज्ज्वल, सफेद चाँद। हवाएं ठंडी पड़ने लगीं। दूर किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आई, और फिर सब कुछ शांत।
राजीव ने दरवाज़ा बंद किया, और अपनी पीठ पर बैग टाँगकर हवेली की ओर बढ़ा। उसके कदम आत्मविश्वास से भरे थे, लेकिन जंगल के पेड़ और अजीब सी सन्नाटा कुछ और कह रहा था।
उस रात, ज्योरीधार की फिज़ा में कुछ बदल गया था।
एक परछाई… जाग रही थी।
***
सर्द रात की हवा हड्डियों तक चुभ रही थी। राजीव अपनी टॉर्च जलाए, कंधे पर बैग लटकाए, कैमरा गले में लटकाकर हवेली की ओर बढ़ रहा था। गाँव पीछे छूट चुका था, और अब सिर्फ जंगल की सरसराहट, पत्तों की खड़खड़ाहट, और उसके जूतों की आवाज़ बची थी।
हवेली का प्रवेशद्वार दूर से ही दिखाई दे रहा था — पत्थरों से बना, टूटा-फूटा, लेकिन अब भी किसी अजीब शक्ति से अडिग। जैसे समय ने उसे छोड़ा ही नहीं।
राजीव ने एक गहरी साँस ली और लोहे के फाटक को धक्का दिया।
चरररर…
दरवाज़ा इतनी तेज़ी से खुला जैसे किसी ने भीतर से खींचा हो।
उसका दिल एक पल के लिए धड़कना भूल गया।
“शायद हवा थी,” वह बुदबुदाया, खुद को शांत करते हुए।
भीतर घुप्प अंधेरा था। टॉर्च की रोशनी आगे बढ़ी — एक बड़ी सी ड्योढ़ी, पुरानी लकड़ी की सीढ़ियाँ, फर्श पर धूल और कहीं-कहीं लाल रंग के धब्बे।
राजीव ने कैमरा ऑन कर लिया और रिकॉर्डर चालू कर दिया।
“रात 11:42 बजे। मैं अभी ‘हवलदार की हवेली’ में प्रवेश कर चुका हूँ। फिलहाल कोई असाधारण गतिविधि नहीं दिखी है।”
उसकी आवाज़ रिकॉर्डर में दर्ज हो रही थी।
वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। हर कदम के साथ फर्श चरमराता — जैसे पुरानी यादें उसके पैरों के नीचे कुचली जा रही हों। दीवारों पर फटी हुई तस्वीरें, जली हुई वर्दियाँ और एक बंद कमरा।
उसने पहला दरवाज़ा खोला — अंदर एक बड़ी बैठक थी। दीवार पर अब भी एक आधा जला झंडा लटका हुआ था। फर्श पर बिखरे कागज़, जिन पर अंग्रेज़ी और उर्दू में कुछ सैन्य आदेश लिखे थे।
एक पुराना ट्रंक पड़ा था — लोहे का। उसने उसे खोला। भीतर एक घड़ी, एक जंग लगी बंदूक और एक काले रंग की टोपी थी — जिस पर लिखा था:
“Hav. P. Singh”
राजीव की साँसें भारी हो गईं।
“ये वही हवलदार है…” उसने धीमे से कहा।
उसने टोपी को उठाया — जैसे ही उसने हाथ लगाया, कमरे में अचानक हवा तेज़ हो गई।
टॉर्च की रोशनी डगमगाने लगी।
और फिर… कमरे के कोने से धीमी-धीमी मार्च की आवाज़ें आने लगीं।
ठक… ठक… ठक…
जैसे कोई भारी जूते पहने फर्श पर चलता हुआ पास आ रहा हो।
राजीव ने घबरा कर टॉर्च उस दिशा में घुमाई — वहाँ कोई नहीं था।
पर आवाज़ें बढ़ रही थीं — ठक… ठक… ठक…
“ये क्या है…”
उसने कैमरा उस दिशा में घुमाया और रिकॉर्डर पर बोला,
“मैं कुछ सुन सकता हूँ, पर देख नहीं पा रहा… कोई मार्च कर रहा है। हवा अचानक भारी लग रही है… साँस लेना मुश्किल हो रहा है…”
उसी पल, कमरे की दीवार पर लटकती एक पुरानी तस्वीर अपने आप गिर पड़ी।
राजीव ने टॉर्च की रोशनी नीचे फेंकी —
तस्वीर हवलदार प्रताप सिंह की थी — गंभीर चेहरा, मूँछें, वर्दी, और आँखों में अग्नि।
उसने तस्वीर उठाई — पीछे कुछ लिखा था:
“देश के लिए जले… पर ज़िंदा हूँ अब भी…”
राजीव का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा।
वह तेज़ी से बाहर निकला और हवेली के दूसरे हिस्से में पहुँचा — जहाँ एक सीढ़ी नीचे तहखाने की ओर जाती थी।
वहाँ अंधेरा और भी घना था। टॉर्च की रोशनी जैसे वहाँ जाते ही डर से काँपने लगी।
राजीव ने खुद को संभाला —
“मुझे जानना है… यही तो करने आया हूँ,” उसने मन में कहा।
जैसे ही वह पहली सीढ़ी पर उतरा, एक भारी आवाज़ आई —
“वापस जा…”
राजीव ठिठक गया।
“क… कौन है?”
कोई उत्तर नहीं।
वह आगे बढ़ा। तहखाने में उतरते ही उसे एक पुराना फर्श दिखा — वहाँ जली हुई लकड़ियाँ थीं, राख थी, और दीवारों पर नाखूनों के निशान।
एक कोने में जली हुई वर्दी का ढेर था — और उसके बीचोंबीच एक इंसानी कंकाल।
उसकी पसलियों में अब भी आग की कालिमा थी।
राजीव कांपने लगा।
उसने रिकॉर्डर को पास किया —
“यहाँ… यहाँ एक मानव कंकाल है… वर्दी के साथ… शायद यही हवलदार प्रताप है।”
तभी कमरे में एक झोंका आया — इतना तेज़ कि उसका कैमरा गिर गया। रिकॉर्डर हाँफने लगा — उसमें एक दरार सी पड़ी।
और तभी… कमरे की दीवार पर खुद-ब-खुद खून से कुछ लिखा जाने लगा।
राजीव की आँखें फटी की फटी रह गईं —
“सच जानना है…? तो मरने को तैयार हो जा…”
उसने घबरा कर अपना बैग उठाया और बाहर की ओर भागा। सीढ़ियाँ चरमरा रही थीं, हवेली अब जैसे ज़िंदा हो गई थी।
जैसे ही वह दरवाज़े तक पहुँचा, वह अपने आप बंद हो गया।
धड़ाम!!
राजीव चिल्लाया, “कोई है? दरवाज़ा खोलो!”
कोई उत्तर नहीं।
हवेली की दीवारों से अब एक साथ कई आवाज़ें गूंज रही थीं —
“भारत माता की जय… जय हिंद… जय हिंद…”
पर ये आवाज़ें इंसानों की नहीं थीं — वे जलती हुई आत्माओं की तरह गूंज रही थीं।
राजीव ने अपनी पूरी ताकत से दरवाज़ा धक्का दिया — एक बार, दो बार — पर वह नहीं खुला।
फिर… सब शांत हो गया।
एकदम सन्नाटा।
वह घुटनों पर बैठ गया, टॉर्च गिर गई, और अब बस अंधकार… और एक धीमी-धीमी परछाई जो दीवारों पर घूम रही थी।
***
कमरे में अंधेरा अब और गहरा हो चुका था। राजीव दरवाज़े से टिककर साँसें सम्हालने की कोशिश कर रहा था, पर हवा जैसे कहीं ग़ायब हो गई थी। चारों ओर घना सन्नाटा, और बीच-बीच में दीवारों पर सरसराहट — मानो कोई नाखून से धीरे-धीरे खरोंच रहा हो।
उसका हाथ अब भी काँप रहा था, लेकिन पत्रकार का जिद्दी स्वभाव अब भी बाकी था। उसने जेब से छोटा टॉर्च निकाला और दोबारा उसे जलाया। रोशनी मद्धम थी, लेकिन पर्याप्त।
दीवार पर अब भी वह खून से लिखा वाक्य चमक रहा था —
“सच जानना है…? तो मरने को तैयार हो जा…”
राजीव ने खुद को संभाला। “नहीं… मुझे डरना नहीं है। मैं यहाँ कहानी के पीछे की सच्चाई जानने आया हूँ, और मैं लेकर ही रहूँगा।”
उसने धीरे-धीरे फाटक की ओर फिर से देखा — अचानक एक आवाज़ आई —
“क्यों आया है तू यहाँ? तेरा क्या लेना इस धरती से?”
राजीव चौंक गया। यह कोई सामान्य आवाज़ नहीं थी — भारी, गूंजती हुई, और भीतर तक उतर जाने वाली।
“क… कौन है? क्या तुम… हवलदार प्रताप हो?” उसने हिम्मत करके पूछा।
कुछ क्षणों तक सन्नाटा रहा, फिर दीवार पर एक परछाईं उभरी — लंबी, वर्दी पहने, सिर सीधा, और छाती पर एक वीरता का तमगा। लेकिन चेहरे पर आँखें नहीं थीं — वहाँ सिर्फ जलती हुई राख सी रोशनी थी।
राजीव की आँखें फटी रह गईं। उसका कैमरा उस वक्त फ़र्श पर पड़ा हुआ था — लेकिन टॉर्च की हल्की रोशनी से वह छाया पूरी स्पष्ट दिख रही थी।
“मैं मरा नहीं था… मुझे जलाया गया।”
राजीव ने धीरे से पूछा, “किसने? और क्यों?”
छाया धीमे-धीमे उसके इर्दगिर्द घूमने लगी। दीवारें काँपने लगीं। फर्श पर कदमों की आवाज़ फिर से गूंजने लगी।
“देश के लिए कुर्बानी दी थी… पर अपनों ने ही धोखा दिया। स्वतंत्रता की लड़ाई के बाद, मैं लौटकर आया… लेकिन गांव वालों ने मुझे गद्दार समझा। अंग्रेज़ों के साथ जासूसी का आरोप लगाया… मेरी वर्दी जलाई गई… और मुझे…”
एक क्षण को छाया थम गई।
“…मुझे ज़िंदा जला दिया गया।”
राजीव का सिर चकरा गया। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि कहानी इतनी भयावह होगी।
“लेकिन… गाँव वालों ने क्यों ऐसा किया? क्या आप सच में…”
छाया ने बीच में ही कहा,
“मैंने देश से गद्दारी नहीं की। पर उस रात… सरपंच शिवदत्त और उसके लोग… मुझे हवेली में बंद कर के आग लगा दी। वे खुद डरते थे कि मेरी लोकप्रियता उन्हें दबा देगी।”
राजीव कांप गया।
“सरपंच शिवदत्त…? लेकिन अब सरपंच तो बालकिशन जी हैं।”
छाया की आँखें अब और जलने लगीं —
“बालकिशन… वही शिवदत्त का बेटा है। वही असली वारिस… वही झूठ फैलाता आया है सालों से।”
अब तक राजीव की सारी तर्कशीलता टूट चुकी थी। वह जिस अंधविश्वास का मजाक उड़ाता था, वह अब उसके सामने जलती आत्मा के रूप में खड़ा था।
“आप क्या चाहते हैं मुझसे?” उसने काँपते हुए पूछा।
छाया की आवाज़ धीमी हुई —
“मैं चाहता हूँ कि मेरी सच्चाई दुनिया के सामने आए। कि मेरा अपमान मिटे। कि जो जिंदा हैं, उनके झूठ का पर्दाफाश हो।”
राजीव अब भी कांप रहा था, पर उसकी पत्रकारिता की आत्मा फिर से जाग रही थी।
“मैं तुम्हारी कहानी दुनिया को सुनाऊँगा। सबूत दूँगा। लेकिन उसके लिए मुझे निकलना होगा यहाँ से।”
हवलदार की आत्मा थोड़ी शांत हुई। कमरे का तापमान भी सामान्य होने लगा।
“मैं दरवाज़ा खोल दूँगा… लेकिन सिर्फ एक रात के लिए। अगली पूर्णिमा तक अगर मेरी कहानी लोगों ने नहीं सुनी… तो यह हवेली फिर तुझे नहीं छोड़ेगी।”
राजीव ने सिर हिलाया —
“मैं वादा करता हूँ।”
तभी दरवाज़े से एक हल्की रोशनी आई, और वह धीरे-धीरे चरमरा कर खुल गया।
राजीव भागते हुए बाहर आया। हवेली से दूर जाकर वह जमीन पर गिर पड़ा — साँसे तेज़, आँखें नम, पर हाथों में कैमरा और रिकॉर्डर अब भी सुरक्षित।
गाँव के किनारे, चाँदनी में वह अकेला बैठा था — पर अब वह वह अकेला नहीं था। अब उसके पास एक आत्मा की सच्चाई थी।
***
राजीव की आँख खुली तो सुबह की हल्की रोशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। वह गाँव के किनारे एक पीपल के पेड़ के नीचे लेटा हुआ था। पिछली रात की घटनाएँ किसी दुःस्वप्न की तरह उसके ज़हन में घूम रही थीं—हवेली, आत्मा, जलता हुआ कंकाल, दीवार पर खून से लिखे अक्षर, और वह परछाई जिसने उसे जीवित छोड़ दिया।
उसने सबसे पहले अपनी जेब टटोली। रिकॉर्डर वहीं था। कैमरा भी बैग में था, और सौभाग्य से उसकी बैटरी अब भी काम कर रही थी। उसने कैमरे को ऑन किया—सारी रात की रिकॉर्डिंग अब भी मौजूद थी।
राजीव ने राहत की साँस ली, लेकिन साथ ही भीतर एक बोझ सा महसूस हुआ। उसने हवलदार प्रताप सिंह की आत्मा से वादा किया था कि वह उसकी सच्चाई दुनिया को बताएगा। मगर वह जानता था—इतना आसान नहीं होगा।
वह गाँव की ओर लौटा। रास्ते भर उसे अजीब नज़रों से देखा गया—कुछ लोग फुसफुसा रहे थे, कुछ उसकी तरफ देखकर रास्ता बदल रहे थे। एक बूढ़ी औरत ने उसके पास से गुजरते हुए मुँह पर आँचल रख लिया। गाँव वालों को शायद पता चल गया था कि वह हवेली में रात गुजार चुका है।
राजीव सीधे सरपंच बालकिशन के घर पहुँचा। दरवाज़ा खुला था। भीतर से खाँसी की आवाज़ आ रही थी।
“सरपंच जी?” राजीव ने पुकारा।
बालकिशन, जो अब करीब सत्तर साल के होंगे, बाहर आए। उनकी आँखें लाल थीं और चेहरा बुझा हुआ।
“तुम वापस आ गए?” उन्होंने धीमी आवाज़ में पूछा।
“जी। और मैं खाली हाथ नहीं लौटा,” राजीव ने जवाब दिया। “मुझे हवलदार प्रताप सिंह की सच्चाई पता चल गई है।”
बालकिशन की आँखें सिकुड़ गईं।
“क्या बकवास कर रहे हो?”
“बकवास नहीं, सच्चाई। उन्होंने मुझे खुद बताया… उन्होंने बताया कि उन्हें गद्दार ठहराकर जिंदा जला दिया गया था… और इसमें आपके पिता, शिवदत्त जी, का हाथ था।”
कुछ पल तक दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा। फिर बालकिशन ने कुर्सी पर बैठते हुए गहरी साँस ली।
“जो बातें तुमने सुनीं, वो आधी सच हैं, आधी ज़हर,” उन्होंने कहा। “प्रताप सिंह बहादुर था, इसमें कोई शक नहीं। पर आज़ादी के बाद वो बदल गया था। उसके पास जो ताकत थी, वो गाँव की राजनीति को चुनौती दे रही थी। मेरे पिता ने जो किया, वो शायद ज़रूरी था… उस वक्त के लिए।”
राजीव की मुट्ठियाँ भींच गईं।
“ज़रूरी? एक सच्चे सैनिक को जिंदा जला देना ज़रूरी था?”
बालकिशन चुप रहे।
उनकी आँखें अब पश्चाताप में डूबी थीं।
“मैं नहीं जानता कि सही क्या था और ग़लत क्या… लेकिन ये गाँव अब भी डरता है उस आत्मा से। इसलिए हवेली को वीरान छोड़ दिया गया है। इसलिए आज तक कोई नहीं गया वहाँ।”
राजीव ने रिकॉर्डर निकाला।
“ये सब अब रिकॉर्ड पर है, सरपंच जी। अब ये गाँव ही नहीं, पूरी दुनिया ये सच्चाई जानेगी।”
बालकिशन ने कोई जवाब नहीं दिया।
राजीव वापस अपने गेस्टहाउस की ओर गया और तुरंत अपने लैपटॉप पर वीडियो एडिट करना शुरू किया। उसने कैमरे से सारी फुटेज निकाली—हवेली का भीतर का दृश्य, जलता हुआ कंकाल, दीवार पर खून से लिखी इबारतें, और सबसे मुख्य—हवलदार की परछाई। भले ही छाया अस्पष्ट थी, लेकिन उसका आकार, आवाज़ और ध्वनि स्पष्ट रूप से कैमरे में कैद थे।
उसने रिपोर्ट तैयार की—“वापसी: एक हवलदार की कहानी” के नाम से। उसने उसमें इतिहास के दस्तावेज़, स्वतंत्रता संग्राम के स्थानीय नायक प्रताप सिंह का संक्षिप्त जीवन परिचय और बालकिशन के कबूलनामे का अंश भी जोड़ा।
वह जानता था कि यह रिपोर्ट चैनल पर चलने के बाद तहलका मचा सकती है।
उस रात, उसने वीडियो को ऑनलाइन अपलोड किया और चैनल हेड को मेल किया।
लेकिन जैसे ही अपलोडिंग पूरी हुई, उसके कमरे की खिड़की अपने आप खुल गई।
तेज़ हवा भीतर घुसने लगी। बल्ब झपकने लगे।
फिर वही आवाज़ गूंजी—
“तेरा वादा अभी अधूरा है…”
राजीव चौंक कर खड़ा हो गया।
“मैंने वीडियो अपलोड कर दिया है! अब सब जानेंगे तुम्हारे बारे में!”
दीवार पर एक बार फिर खून से लिखा गया—
“सच का भार सहना भी पड़ता है… तैयार रह।”
राजीव की साँसे तेज़ हो गईं। क्या सिर्फ कहानी सुनाना काफ़ी नहीं था? क्या हवलदार अब भी कुछ चाहता था?
वह खिड़की तक गया—बाहर सड़क सुनसान थी, लेकिन सड़क के कोने पर एक परछाई खड़ी थी। उसी जैसी—वर्दी में, सिर ऊँचा, लेकिन चेहरा अब भी राख से ढंका।
राजीव को अब समझ आने लगा था—यह सिर्फ बदला नहीं, यह न्याय की एक लंबी यात्रा थी।
***
राजीव की रात अब भी समाप्त नहीं हुई थी। खिड़की के बाहर खड़ी वह परछाई कुछ नहीं कह रही थी—सिर्फ उसे निहार रही थी। बिना शब्द, बिना हरकत, सिर्फ जली हुई आँखों से उसे घूरती हुई। राजीव धीरे-धीरे खिड़की बंद कर वापस कुर्सी पर बैठ गया। उसका शरीर थक चुका था, लेकिन दिमाग़ और आत्मा किसी और ही युद्ध में उलझी थी।
अगले दिन सुबह होते ही चैनल से कॉल आया। रिपोर्ट वायरल हो चुकी थी। वीडियो को महज़ 6 घंटे में पाँच लाख से अधिक लोग देख चुके थे। सोशल मीडिया पर बहस छिड़ चुकी थी—“क्या सच में कोई वीर सिपाही इस तरह भूला दिया गया?”, “क्या आत्माएँ इंसाफ़ माँगती हैं?”, “क्या हमें अपनी इतिहास पुस्तकों पर पुनः विचार करना चाहिए?”
राजीव को लगा उसकी मेहनत सफल हो रही है। लेकिन साथ ही उसे एक असहज सी अनुभूति हो रही थी—उसने जो दरवाज़ा खोला था, वो शायद इतना आसानी से बंद नहीं होने वाला था।
गाँव में अब हलचल बढ़ गई थी। कुछ ग्रामीण उसे ‘हीरो’ मानने लगे थे, लेकिन कुछ अब भी आँखें चुराते थे। खासकर सरपंच बालकिशन का परिवार अब मीडिया के घेरे में आ गया था। चैनल ने तय किया कि वह राजीव के साथ एक “Follow-up Investigative Documentary” बनाएंगे और राजीव को गाँव में कुछ दिन और रहना होगा।
उस शाम राजीव ने गाँव के मंदिर के पुजारी से मिलने का निर्णय लिया। पुजारी हरिदेव जी करीब अस्सी वर्ष के थे, लेकिन उनकी स्मृति तेज थी। वह वही व्यक्ति थे जिन्होंने प्रताप सिंह की अंतिम क्रिया होते हुए देखी थी—कम से कम लोगों की बातों के अनुसार।
राजीव ने पूछा, “पंडित जी, क्या आप मुझे प्रताप सिंह की अंतिम रात के बारे में कुछ बता सकते हैं? सच्चाई, जो किसी ने अब तक नहीं बताई।”
पंडित जी ने कुछ क्षण मौन रहकर कहा, “बेटा, तू सच जानना चाहता है, लेकिन सच भारी होता है। उस रात मैंने उसे आखिरी बार देखा था… हाथ बँधे हुए, मुँह पर कपड़ा बाँधा हुआ। गाँव के बीच चबूतरे पर बाँध कर उसे जलाया गया।”
राजीव का गला सूख गया।
“तो यह गाँव के लोग थे जिन्होंने—”
“नहीं,” पंडित जी ने बीच में कहा, “यह पाँच लोग थे—सरपंच शिवदत्त, उसका बेटा बालकिशन, और तीन और… जो अब जीवित नहीं हैं। बाकी गाँव वाले तो डर से चुप थे। कोई बोल नहीं सका।”
“और आपने… आप कुछ नहीं बोले?”
पंडित जी की आँखें डबडबा गईं।
“मैं पुजारी था, मेरा धर्म था शांति बनाए रखना। लेकिन हर रात जब शिवलिंग पर जल चढ़ाता था, उसकी राख की गंध अब भी मेरी उँगलियों से नहीं जाती।”
राजीव के पास अब सारे टुकड़े थे—आत्मा की पुकार, बालकिशन का मौन स्वीकार, और पंडित की गवाही।
लेकिन फिर भी उसे ऐसा लग रहा था कि यह कहानी अब भी अधूरी है।
रात होते ही वह दोबारा हवेली की ओर गया—कैमरा और रिकॉर्डर के साथ। वह डरता नहीं था अब—या शायद डर की सीमा पार कर चुका था।
जैसे ही वह हवेली के भीतर पहुँचा, हवा स्थिर हो गई। दीवारें अब पहले जैसी नहीं थीं—वे ठंडी थीं, जैसे वह चीख अब थक चुकी हो।
लेकिन तभी—क़दमों की आहट। फर्श पर राख के चिह्न बनने लगे। दीवार पर फिर एक नया वाक्य उभरा—
“अब तू जान गया… लेकिन क्या दुनिया मानेगी?”
राजीव ने कहा, “मैं दुनिया को न सिर्फ दिखाऊँगा… मैं अदालत में केस भी चलाऊँगा। हवलदार प्रताप का नाम सम्मान से इतिहास में लिखा जाएगा।”
दीवार हिली। हवा तेज़ हुई। और फिर आत्मा की वही परछाई सामने प्रकट हुई—इस बार उसके चेहरे पर कोई ग़ुस्सा नहीं था। सिर्फ एक थकान, एक शांति की चाह।
“मेरी अस्थियाँ अब भी हवेली के नीचे दबी हैं। उन्हें शांति दो।”
राजीव ने सिर झुका दिया।
अगले ही दिन पुलिस को सूचित किया गया। खुदाई करवाई गई। कैमरों की मौजूदगी में हवेली के पीछे की ज़मीन से एक पुरानी वर्दी, आधे जले हड्डियाँ और एक वीरता पदक निकाला गया—जिसे शायद किसी ने राख के ढेर में दफ़ना दिया था।
इस प्रमाण ने पूरे देश को हिला दिया। सरकार ने स्वतः संज्ञान लेते हुए हवलदार प्रताप सिंह को मरणोपरांत “शौर्य चक्र” देने की घोषणा की। स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों की सूची में उसका नाम जोड़ा गया।
गाँव में एक छोटा स्मारक भी बना, और हवेली को “वीर स्मृति स्थल” के रूप में घोषित किया गया।
लेकिन सबसे अहम बात—उस रात हवेली में पहली बार कोई आवाज़ नहीं गूंजी।
दीवारें शांत थीं। दरवाज़ा बिना आवाज़ के खुला और बंद हुआ। और राजीव ने महसूस किया—कोई था, जो अब मुक्त हो चुका है।
***
गाँव की मिट्टी उस सुबह कुछ अलग सी लग रही थी — जैसे उसमें कोई भार उतर गया हो। हवेली की पिछली दीवार के पास जहाँ खुदाई कर हवलदार प्रताप सिंह की अस्थियाँ निकाली गई थीं, वहीं अब एक छोटा-सा चबूतरा बना दिया गया था। ईंटों से बने उस चबूतरे पर सफेद चूने से एक पंक्ति उकेरी गई थी — “वीर मृत्यु से नहीं डरता, पर भुलाया जाना सबसे बड़ा अन्याय है।”
राजीव उस चबूतरे के सामने खड़ा था। हाथों में फूल थे और आँखों में एक थकी हुई संतोष की चमक। आसपास गाँव वाले जमा थे — अब वे चुप नहीं थे। अब वे फुसफुसा नहीं रहे थे। अब वे खुद को उस सच्चाई के हिस्सेदार मानने लगे थे जो सालों तक दबी रही।
स्मारक के उद्घाटन के दिन बालकिशन नहीं आया। वह बीमार था, या शायद अपने पापों के बोझ से दबा हुआ था। लेकिन उसने राजीव को एक चिट्ठी भिजवाई थी — कांपते हाथों से लिखी एक चुपचाप स्वीकृति।
“राजीव,
तुमने जिस सच्चाई को उजागर किया, वो वर्षों से हमारे खून में घुली चुप्पी को तोड़ने का साहस था। मैंने अपने पिता के अपराध को ढँकने की कोशिश की — लेकिन अब लगता है कि जितना हम छुपाते हैं, आत्माएँ उतनी ही बेचैन होती हैं।
मैं अपने हिस्से के पाप के लिए क्षमा चाहता हूँ।
— बालकिशन”
राजीव ने चिट्ठी को फूलों के साथ उस चबूतरे पर रख दिया। उसने देखा — उस पल हवा धीरे से चली। फूलों की पंखुड़ियाँ हिलने लगीं, और चिट्ठी उड़कर चबूतरे के ऊपर एक कोने में टिक गई — मानो किसी अदृश्य हाथ ने उसे थाम लिया हो।
रात आई — स्मारक पर तेल का दीया जलाया गया। राजीव अब गाँव छोड़ने की तैयारी में था। उसकी रिपोर्ट ने देशभर में हलचल मचा दी थी। बड़े-बड़े न्यूज़ चैनलों ने उस पर शो किए थे — “हवलदार की पुकार,” “मरे हुए बोलते हैं,” “सच की राख” जैसी हेडलाइंस अब हर जगह छाई हुई थीं।
पर राजीव को पता था, यह सिर्फ एक रिपोर्ट नहीं थी। यह एक ऋण था, जो उसने चुकाया।
उसने अपना कैमरा समेटा। बैग कंधे पर डाला, लेकिन निकलने से पहले एक बार फिर हवेली के सामने गया।
हवेली अब बदली हुई थी — वीरान लेकिन शांत। कोई कँपकँपी नहीं, कोई दरवाज़ा अपने आप बंद नहीं हो रहा था, और न ही दीवारें कुछ कह रही थीं। लेकिन जैसे ही वह हवेली के सामने पहुँचा, हवा में एक ख़ास सुगंध थी — चंदन और राख की मिली-जुली खुशबू।
राजीव खड़ा रहा।
और तभी — वह परछाई एक बार फिर दिखी।
पर इस बार वह जली हुई नहीं थी।
वह पूरी वर्दी में था — साफ़, तेज़, सीना ताना हुआ, आँखों में अब रोशनी थी — न जली हुई राख, न डरावना अंधकार। उसके होंठ हिले — इस बार कोई शब्द नहीं, लेकिन राजीव ने महसूस किया — धन्यवाद।
परछाई ने सलामी दी — जैसे एक सिपाही अपने देश को आखिरी बार नमन करता है।
फिर वह धीरे-धीरे हवा में विलीन हो गया।
राजीव की आँखें नम हो गईं, लेकिन उसके होंठों पर मुस्कान थी।
—
कई साल बाद…
राजीव अब एक वरिष्ठ पत्रकार है। उसके ऑफिस की दीवार पर एक बड़ा फ़्रेम टंगा है — जिसमें हवलदार प्रताप सिंह की तस्वीर है, नीचे शौर्य चक्र की एक प्रतिकृति लगी है, और साथ में वो वाक्य जो उसने स्मारक पर पढ़ा था:
“वीर मृत्यु से नहीं डरता, पर भुलाया जाना सबसे बड़ा अन्याय है।”
राजीव अक्सर नए पत्रकारों को वह रिपोर्ट दिखाता है। वह कहता है, “कभी-कभी हम जो देखते हैं, वो खबर होती है। पर जो नहीं दिखता, वही इतिहास बनता है।”
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