प्रताप श्रीवास्तव
१
लखनऊ विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की सबसे ऊपरी मंज़िल पर, जहाँ किताबों पर धूल की मोटी परत जम चुकी थी, वहीं एक कोने में बैठा था इतिहास विभाग का शोधार्थी विवेक मिश्रा। बाहर बारिश की बूँदें खिड़की की काँच पर थपकी दे रही थीं, लेकिन विवेक की आंखें जमी थीं उस पुराने नक्शे पर जिसे वह पिछले दो घंटे से उलट-पलट कर रहा था। नक्शा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय का था—लखनऊ की गलियाँ, कोठियाँ, और हवेलियाँ उसमें चिन्हित थीं। अचानक उसकी नज़र एक धुँधले से नाम पर पड़ी—”रौशन मंज़िल”। ना किसी इतिहास की किताब में इसका ज़िक्र था, ना किसी सरकार के अभिलेख में। उत्सुकता में उसने तुरंत पुराने दस्तावेज़ों की फाइलों में खोजबीन शुरू की, और अंततः एक भुरभुरी डायरी के पन्नों में उसे “रौशन मंज़िल” से जुड़ी एक रहस्यमयी इबारत मिली: “उसने अंतिम साँस दी, लेकिन दरवाज़ा कभी बंद नहीं हुआ…” यह वाक्य विवेक की चेतना में जैसे गूंजने लगा।
उसी समय, पास ही बैठे पुस्तकालय सहायक, एक वृद्ध व्यक्ति ने उसे घूरते हुए धीमी आवाज़ में पूछा, “तुमने किस हवेली का नाम पढ़ा?” विवेक ने सिर उठाकर जवाब दिया, “रौशन मंज़िल… कभी सुना है?” बूढ़ा व्यक्ति ठहर गया, फिर फुसफुसाकर बोला, “वो हवेली मत छेड़ो, बेटा। बहुत लोग गए थे, लेकिन लौटे नहीं। वो दरवाज़ा… अब भी खुला है।” विवेक को पहले तो यह सब अंधविश्वास लगा, लेकिन वृद्ध की आँखों की गहराई में कोई अजीब डर था—जैसे वह खुद उस अतीत को भोग चुका हो। उसी शाम विवेक ने निर्णय ले लिया कि वह “रौशन मंज़िल” की सच्चाई को सामने लाएगा। शोध के बहाने उसने एक टीम बनाई—अपने मित्र और फोटोग्राफर सोहम, इतिहास विशेषज्ञ रिया और लखनऊ के पुराने इलाकों का जानकार, गाइड इसरार मियाँ। अगली सुबह चारों लोग पुराने शहर के हुसैनाबाद मोहल्ले में पहुँचे, जहाँ नक़्शे के अनुसार हवेली होनी चाहिए थी।
भीगती गलियों और खामोश दुकानों के बीच, हुसैनाबाद के एक वीरान मोड़ पर खड़ी थी वह हवेली—टूटी हुई मीनारें, गिरी हुई जालियाँ और ऊपर लगे पीतल के ताले जिन पर वक्त की जंग उतर चुकी थी। हवेली के दरवाज़े पर कोई नाम नहीं था, बस एक मिट्टी में धँसा हुआ संगमरमर का पत्थर पड़ा था, जिस पर शायद कभी कोई नाम खुदा था, अब बस एक अधूरी “र” दिखाई देती थी। दरवाज़े के पास पहुँचते ही इसरार मियाँ रुके और कहा, “साहब, आप लोग अंदर जाइए, मैं बाहर ही रहूँगा। अंदर बहुत कुछ है… जो समझ से बाहर है।” विवेक ने हँसते हुए कहा, “इतिहास की किताबों में तो डर नहीं लिखा होता इसरार मियाँ।” लेकिन इसरार का चेहरा गंभीर था—वह एक क्षण को भी हवेली के दरवाज़े के पास नहीं जाना चाहता था। विवेक, सोहम और रिया ने धीरे से लोहे के ताले को धक्का दिया—जिसे उन्होंने जंग के कारण बंद समझा था, वह अपने आप खुल गया, जैसे किसी ने अंदर से दरवाज़ा खोला हो।
हवेली के अंदर घुसते ही एक अजीब सी ठंडक ने तीनों को घेर लिया, जबकि बाहर उमस भरी गर्मी थी। अंदर की दीवारें काई से भरी थीं, और हर कोने में धूप की रौशनी पहुंचने से पहले अंधेरा पसरा हुआ था। एक पुराना झूमर आधे से टूट चुका था, लेकिन उसकी कांच की बूंदों पर अब भी किसी अदृश्य हवा से झनझनाहट हो रही थी। कमरे के बीचोंबीच एक टूटी-फूटी कुरसी पड़ी थी, जिस पर बैठने की जगह घिसी हुई थी—जैसे कोई हर रात वहीं बैठता हो। विवेक दीवारों को छूते हुए एक पुराने कमरे की ओर बढ़ा, जहाँ की दीवार पर लिखा था उर्दू में: “शरफ़ुन्निसा, तुझे क़ैद किया गया, लेकिन तेरा इंतज़ार बाकी है…” रिया यह पढ़ते ही चौंक गई—इतिहास में कहीं भी इस नाम की कोई बेगम का उल्लेख नहीं था। तभी कमरे की खिड़की अपने आप खुल गई, और एक पुराना पर्दा हवा में उड़ने लगा—उसके पीछे कोई छाया खड़ी थी, मगर जब सोहम ने कैमरा उठाया, वहां कुछ भी नहीं था। लेकिन कैमरे के स्क्रीन पर… वो छाया अब भी उसे घूर रही थी।
२
रौशन मंज़िल के अंदर कदम रखते ही तीनों को लगा मानो समय ने अपने पाँव रोक लिए हों। दीवारों पर जमी धूल और जाले समय की लंबी अनुपस्थिति का प्रमाण थे, लेकिन हवा में तैरती नम गंध, जो न तो सिर्फ पुरानी थी और न ही सिर्फ सड़ी, किसी और दुनिया की दस्तक थी। विवेक ने अपना मोबाइल टॉर्च जलाया तो सामने के गलियारे में एक दरवाज़ा दिखाई दिया, जो आधा खुला था। दरवाज़े के किनारे पर लाल रंग का एक धब्बा था—सोहम ने मज़ाक में कहा, “पेंट होगा… शायद खून नहीं।” लेकिन जैसे ही रिया ने उस धब्बे को छुआ, उसकी उँगलियाँ लाल हो गईं, और एक हल्की सी सरसराहट उसके कान में गूंजने लगी—मानो किसी ने उसका नाम पुकारा हो, लेकिन बहुत धीमे में, लगभग फुसफुसाते हुए। उसने पीछे मुड़कर देखा, लेकिन विवेक और सोहम अभी उसी जगह थे—किसी ने कुछ नहीं कहा था।
वे धीरे-धीरे उस आधे खुले कमरे में दाख़िल हुए। यह शायद कभी बैठक हुआ करती थी—छत से लटकी मोमबत्तियों की जालीदार झालर अब सिर्फ जंग खाई धातु बन चुकी थी। फर्श पर एक पुराना पियानो पड़ा था, जिसकी चाबियाँ टूटी हुई थीं। रिया जैसे ही कमरे के अंदर गई, पियानो की एक टूटी चाबी अपने आप दब गई और एक बेसुरा सुर कमरे में गूंज उठा। “यह हवा से हुआ होगा,” विवेक ने खुद को समझाने की कोशिश की, लेकिन अंदर कुछ था जो सामान्य नहीं लग रहा था। तभी पीछे के दरवाज़े से एक धीमी खड़खड़ाहट की आवाज़ आई—वो दरवाज़ा, जिसे किसी ने अभी कुछ सेकंड पहले बंद किया था। सोहम ने डरते हुए कहा, “हम यहाँ अकेले नहीं हैं।” और तभी उन्हें फिर वही गुनगुनाने की आवाज़ सुनाई दी—धीमी, लयबद्ध और स्त्री स्वर में—जैसे कोई पुरानी नवाबी लोरी गा रहा हो। यह आवाज़ दीवार के उस पार से आ रही थी, जिस पर उर्दू में लिखा था: “वो जो चुन दी गई, उसका सुर अब हवेली का शोर है।”
अचानक हवा का झोंका आया और उस दीवार पर लटकी तस्वीर ज़मीन पर गिर गई—शीशा चटख गया, और उसके पीछे एक और खुफिया दरवाज़ा दिखाई दिया। विवेक ने अपने हाथ से दरवाज़े को धक्का दिया, लेकिन वो टस से मस नहीं हुआ। “किसी ने इसे अंदर से बंद किया है,” उसने कहा। तभी इसरार मियाँ की आवाज़ हवेली के बाहर से आई, जो उन्हें पुकार रहे थे, “साहब! लौट आइए, शाम हो गई है। अंदर का वक़्त नहीं होता…” लेकिन विवेक अब रुकने के मूड में नहीं था। वह उस छुपे दरवाज़े के पास झुककर नीचे देखने लगा, जहाँ से कुछ सफेद धुआं सा बाहर आ रहा था—गाढ़ा, सुगंधहीन और ठंडा। रिया ने उसे छूने की कोशिश की, लेकिन उसके हाथ की उंगलियाँ नीली पड़ने लगीं, मानो ठंड ने उसके खून को रोक दिया हो। डर के मारे उन्होंने दरवाज़े को छोड़ दिया और पीछे हट गए। सोहम ने कैमरा ऑन किया और उस धुंए के फुटेज लेने की कोशिश की, लेकिन स्क्रीन पर कुछ भी नहीं दिखा—सिर्फ काली पट्टी, और उस पर एक ही शब्द बार-बार उभरता—”वापस जाओ।”
जैसे ही वे वापस मुख्य हॉल की ओर लौटे, दरवाज़े अपने आप बंद होने लगे—एक के बाद एक। पीछे से आती आवाज़ें तेज़ होती जा रही थीं—पायल की छनछनाहट, किसी के रोने की आवाज़, और फिर वही गुनगुनाहट जो अब शोर में बदल चुकी थी। रिया का चेहरा पीला पड़ गया, और उसने विवेक का हाथ पकड़कर कहा, “हमें यहाँ से निकलना चाहिए… अभी।” लेकिन विवेक ने उसकी आँखों में देखा—डर के साथ एक जिज्ञासा भी थी। “इतिहास में झाँकने का यही मौका है,” उसने फुसफुसाते हुए कहा। हवेली के दरवाज़े के पास पहुँचे तो देखा कि जिस ताले को उन्होंने खोला था, वह फिर से बंद हो चुका था—लेकिन यह बिना किसी चाबी के, अपने आप बंद हो गया था। इसरार मियाँ बाहर खड़े काँप रहे थे। “मैंने कहा था, साहब… यह हवेली खुद अपने दरवाज़े खोलती है… और कभी-कभी खुद ही बंद कर लेती है। पर अब अगर वो ताला बंद हुआ है… तो शायद अंदर की कोई रूह जाग चुकी है।”
३
रात भर हवेली की घटनाएं विवेक की चेतना में गूंजती रहीं। वह बिस्तर पर पड़ा छत की ओर देखता रहा, मानो छत की प्लास्टर के पीछे कोई जवाब छुपा हो। सोहम ने अगली सुबह उसे फोन किया, “वीकू, मैंने कैमरे का फुटेज देखा… कुछ गड़बड़ है। एक फ्रेम में दरवाज़े के पीछे एक चेहरा था—नक़ाब में, आंखें लाल। लेकिन उस वक्त तो वहाँ कोई नहीं था।” विवेक की नींद वैसे भी पूरी नहीं हुई थी, और यह खबर सुनते ही उसकी बेचैनी और बढ़ गई। उसने तुरंत टीम को तैयार होने को कहा—आज वो हवेली की उस दीवार को फिर से जांचेंगे जिसके पीछे उन्हें रहस्यमयी दरवाज़ा मिला था। इस बार उन्होंने साथ में टॉर्च, उर्दू अनुवाद की किताबें और रिया के पुराने नोट्स लिए, जिसमें हवेलियों की बनावट, नवाबी रहन-सहन और उस काल की भाषायी शैली का जिक्र था।
सुबह-सुबह हवेली कुछ अलग लग रही थी। पिछली बार की तरह सर्द नहीं, बल्कि भीतर एक गर्मी सी महसूस हो रही थी—जैसे कोई उनका इंतज़ार कर रहा हो। अंदर घुसते ही विवेक सीधे उस दीवार के पास गया जिस पर लिखा था: “शरफ़ुन्निसा, तुझे क़ैद किया गया…”। रिया ने उर्दू शब्दों के छंद को ध्यान से पढ़ा और कहा, “यह किसी ग़ज़ल का हिस्सा नहीं… यह एक फतवा जैसा है, सज़ा का एलान।” सोहम ने दीवार पर हल्की थपथपाहट की—पीछे कुछ खोखला लगा। उन्होंने हथौड़ा निकाला और धीरे-धीरे दीवार को खुरचना शुरू किया। दीवार के अंदर से सूखी मिट्टी गिरने लगी, और फिर एक मोहर लगी ईंट निकली जिस पर नवाबी मुहर और तारीख़ थी—14 जून 1857। ईंट हटाते ही एक छोटी सी खाली जगह खुली, जिसमें एक लकड़ी का संदूक रखा था। विवेक ने कांपते हाथों से उसे बाहर निकाला। संदूक के अंदर एक लाल रंग की रेशमी ओढ़नी, एक पुराने तावीज़ का टूट चुका हिस्सा और एक पन्ना रखा था—जिस पर लिखा था: “मुझे ज़िंदा चुना गया… मेरी आवाज़ दीवार से बाहर है, लेकिन मेरा बदन अब भी कैद है।”
रिया का चेहरा जैसे स्याह हो गया। उसकी सांसें तेज़ होने लगीं, और उसने कहा, “ये उसकी लिखावट है… जो अंदर से आ रही है।” तभी हवेली की हवा फिर से भारी होने लगी, और वह गुनगुनाहट जो कल रात सुनाई दी थी, अब और साफ़ हो गई थी। आवाज़ दीवार के अंदर से आ रही थी—संगीत नहीं, कब्र से उठती आहों की लय थी। उसी समय, हवेली के पिछले हिस्से से एक भारी आवाज़ आई—जैसे किसी पुराने लोहे के दरवाज़े को खींचा गया हो। सोहम ने टॉर्च लेकर उस दिशा में देखा, तो दीवार के पीछे बनी एक सुरंगनुमा जगह का द्वार खुल चुका था। विवेक ने बिना सोचे समझे कदम आगे बढ़ा दिए। अंदर दाख़िल होते ही उन्होंने देखा कि यह हिस्सा कभी हवेली की ज़ेरे-ज़मीन तहखाना हुआ करता था—ठंडी दीवारें, तंग रास्ते, और कोनों में बिखरे गहनों के डिब्बे, जैसे किसी ने सब कुछ छोड़ दिया हो भागते वक्त।
सुरंग के आखिरी सिरे पर पहुंचकर उन्होंने देखा एक टूटा हुआ पलंग, जिस पर रेशम की चादर अब मिट्टी में बदल चुकी थी। उसके पास एक दीवार पर खून से लिखा था—“मैं अब भी गा रही हूँ, जब तक मेरा इंसाफ़ न हो।” उसी क्षण रिया अचानक कांपने लगी और ज़मीन पर गिर पड़ी। उसकी आंखें बंद थीं लेकिन होंठ कुछ बुदबुदा रहे थे—उर्दू में, लयबद्ध, वही गुनगुनाहट जो दीवार के उस पार से आ रही थी। हवेली में अचानक बत्तियाँ टिमटिमाने लगीं—हालाँकि वहां बिजली थी ही नहीं। रिया की आवाज़ अब शरफ़ुन्निसा की लगने लगी थी, जैसे उसकी आत्मा उसी के भीतर उतर आई हो। विवेक और सोहम ने उसे संभालने की कोशिश की, लेकिन तभी उस दीवार पर एक और शब्द उभर आया—“अब तुम भी हिस्सा हो।” हवेली अब सिर्फ अतीत नहीं थी, वह वर्तमान को भी अपनी गिरफ्त में लेने लगी थी।
४
रिया को उस रात विवेक ने किसी तरह घर पहुंचाया। उसका शरीर बुखार से तप रहा था, लेकिन उसकी आंखें बंद थीं, और होठों से धीमी आवाज़ों में वही उर्दू ग़ज़लें निकल रही थीं—जिन्हें वे पहले हवेली की दीवारों में उभरे शब्दों की तरह सुन चुके थे। डाक्टर को बुलाया गया, लेकिन मेडिकल रिपोर्ट सामान्य आई। “यह मानसिक थकान है,” डॉक्टर ने कहा, “या शायद कोई गहरा सदमा।” मगर विवेक को पता था, ये कोई साधारण थकावट नहीं थी। वह कमरे में बैठा रिया के पास ही सोहम के कैमरे से खींची गई पिछली रात की वीडियो फुटेज देखने लगा। फुटेज जैसे-जैसे आगे बढ़ती, चीजें अजीब होती जातीं। सुरंग में घुसने के पहले तक सब सामान्य था, लेकिन उसके बाद कैमरे की टाइमलाइन खुद-ब-खुद पीछे लौटने लगी। हर बार वही दृश्य—रिया की आँखें बंद, होंठों पर वही ग़ज़ल, और उसके सामने दीवार पर उभरते लहू के अक्षर। विवेक ने घबरा कर कैमरा बंद कर दिया, लेकिन स्क्रीन पर एक फ्रेम स्थिर रह गया—उस फ्रेम में एक औरत की धुँधली आकृति दिखाई दे रही थी, नक़ाब में लिपटी, उसकी आँखें विवेक की तरफ़ सीधी देख रही थीं।
सोहम को फोन मिलाया गया और दोनों अगले ही दिन विश्वविद्यालय की मीडिया लैब में वह फुटेज लेकर पहुँचे। उन्होंने वह दृश्य बार-बार देखा। हर बार कैमरा ऑटोमेटिकली उसी फ्रेम में वापस लौट आता—वही औरत, वही निगाह, वही स्थिरता। विवेक ने कंप्यूटर पर सॉफ्टवेयर से छवि को ज़ूम करने की कोशिश की, और जैसे ही चेहरा साफ़ होने लगा, कंप्यूटर की स्क्रीन ब्लैक हो गई। एक पल के लिए कमरे की बत्तियाँ बुझ गईं, और एक मद्धिम आवाज़ उभरी—“वो सब कुछ देख रही है।” सोहम काँप गया। “ये कैमरा नहीं, कोई खिड़की है उस दुनिया की तरफ़… और हमने उसे खोल दिया है,” उसने कहा। विवेक ने घड़ी की ओर देखा—बिलकुल 3:33 बजे थे। वही समय जब पिछली रात रिया ने बेहोश होकर वह ग़ज़ल गानी शुरू की थी। उसी वक्त लैब के खिड़की के बाहर एक साया गुज़रा। दोनों दौड़ कर बाहर निकले, लेकिन गलियारा सुनसान था।
अगले दिन विवेक अकेला हवेली की ओर लौटा। इसरार मियाँ बाहर ही खड़े थे, हाथ में एक धागे और तावीज़ का गुच्छा लिए। “साहब, ये ले जाइए। अंदर जो है वो हर बार और करीब आ रहा है। अब उसे आपकी तलाश है। आपको जवाब मिलेंगे, लेकिन उसकी शर्तों पर।” विवेक ने उस तावीज़ को जेब में डाला और अंदर घुसा। हवेली आज और भी अधिक जीवित लग रही थी—जैसे वो जानती थी कि वह लौट आया है। वह उसी तहखाने की ओर बढ़ा। दीवार पर अब कुछ और लिखा था—“तुमने मेरी आवाज़ सुन ली है… अब मेरी कहानी भी सुनो।” उसी क्षण एक ज़ोरदार झोंका उठा, और पीछे का दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। अंदर अंधेरा छा गया। विवेक की साँसें तेज़ होने लगीं। उसके सामने की दीवार पर परछाइयाँ बनती बिगड़तीं रहीं, और उसमें से एक आकृति उभरी—एक स्त्री, जो एक हाथ में दीपक और दूसरे में तस्बीह थामे हुए खड़ी थी। उसकी आँखें विवेक को चीर रही थीं।
आकृति ने बोलना शुरू किया—वह आवाज़ हवा में नहीं, विवेक के भीतर गूंज रही थी। “मैं शरफ़ुन्निसा हूँ… नवाब अली बख्श की बेटी। मैंने प्रेम किया एक फ़रंगी अफ़सर से, और उसकी सज़ा यह हवेली बनी। मुझे दीवारों में चुनवाया गया, लेकिन मेरी आत्मा को ज़िंदा रखा एक जिन्न ने। मेरा संगीत, मेरी दुआएं, सब छीन लिए गए… अब तुम मेरी कहानी पूरी करोगे।” फिर दीवार की परछाई एक चक्र में घूमने लगी, और विवेक को अपने अतीत की झलक दिखाई दी—एक नवाबी महफ़िल, एक अंग्रेज़ अफसर की मुस्कान, और फिर शरफ़ुन्निसा का रोता चेहरा दीवार में कैद होते हुए। दृश्य खत्म हुआ और हवेली में फिर से सन्नाटा छा गया। विवेक अपने घुटनों पर गिर गया—आंखें नम, मन अशांत। उसे समझ आ चुका था… ये सिर्फ आत्मा की पुकार नहीं, एक अधूरी कथा की मांग थी, जो अब उससे पूरी कराई जाएगी—चाहे उसकी कीमत जो भी हो।
५
रिया पिछले तीन दिनों से लगभग निर्वाक थी। वो घंटों छत की तरफ़ देखती रहती, होंठों पर वही पुराना तराना गुनगुनाते हुए—एक लय, जो हवेली की दीवारों से निकली थी और अब उसके भीतर समा चुकी थी। विवेक ने उसके कमरे की दीवारों पर अजीब निशान देखे—उर्दू की वो ही आयतें, जो हवेली के तहखाने में दीवारों पर खुदी थीं, अब यहां कोयले जैसे काले धब्बों में बदल चुकी थीं। रिया की माँ ने बताया कि वह आधी रात को नींद में उठकर दीवारों पर कुछ लिखती है और फिर खुद ही मिटा देती है। विवेक को अब पूरा यक़ीन हो गया था कि रिया सिर्फ हवेली से प्रभावित नहीं है—वह अब उसका माध्यम बन चुकी है। सोहम, जो अब तक इस सबको अंधविश्वास समझता था, उसने भी विवेक को बताया कि उसके कैमरे में उस रहस्यमयी स्त्री की आकृति खुद को बार-बार प्रकट कर रही है, जैसे किसी प्रेतात्मा ने डिजिटल ज़रियों को अपना वाहन बना लिया हो। उस दिन जब तीनों फिर से हवेली लौटे, इसरार मियाँ ने उन्हें एक काले रंग की कपड़े में लिपटी वस्तु सौंपी—“ये तावीज़ है शरफ़ुन्निसा का… इसे कभी एक फ़कीर ने बनवाया था, ताकि उसकी आत्मा को शांति मिले। लेकिन ये अधूरी रह गई… जैसे उसकी मौत अधूरी रही।”
हवेली के भीतर कदम रखते ही वो तावीज़ जलने लगा—धीमी आग में, बिना लपटों के, जैसे किसी आत्मा की सिसकी की तरह। रिया का शरीर कांपने लगा और वह ज़मीन पर बैठ गई, आँखें बंद, और होंठो पर वही ग़ज़ल—लेकिन अब आवाज़ में एक शिकवा था, एक बगावत थी। उसने धीमे स्वर में कहा, “मैंने सिर्फ मोहब्बत की थी… लेकिन मुझे गुनाहगार बना दिया गया।” विवेक और सोहम उसे पकड़कर हवेली के उसी तहखाने में ले गए, जहाँ से यह सब शुरू हुआ था। वहाँ दीवारों पर अब नई लिपियाँ उभर आई थीं, जिनका मतलब सिर्फ रिया ही समझ पा रही थी। उसने धीरे-धीरे एक छुपा कोना खोला, जहाँ मिट्टी के नीचे दबा एक और संदूक मिला। उस संदूक में एक मख़मली कपड़े में लिपटी अंगूठी थी—उस पर A. T. खुदा था। रिया ने जैसे ही उसे छुआ, हवेली की दीवारें कांप उठीं। हवेली के बाहर तेज़ आंधी उठी, और काँच की खिड़कियाँ खुद-ब-खुद बंद होने लगीं।
विवेक ने उस अंगूठी को अपने हाथ में लिया और रिया की आँखों में देखा—अब वहाँ कोई और था। उसकी पुतलियों में दर्द नहीं, एक शाही ठहराव था। रिया ने एक अजीब अंदाज़ में सिर उठाया और कहा, “अली ट्रेवर… वही था जिसने मुझे छल दिया। मेरे वजूद की कीमत नवाब की राजनीति में चुकाई गई। मेरी मोहब्बत को गद्दारी कहा गया।” तभी तहखाने की पीछे वाली दीवार खिसकने लगी और एक और तह खुला, जहाँ एक पत्थर की कब्र बनी थी—बिना नाम की, बिना तारीख़ की। विवेक ने अनुमान लगाया कि यह शरफ़ुन्निसा की वह कब्र हो सकती है जो कभी सार्वजनिक रूप से बनाई ही नहीं गई। उसी कब्र के पास वह अधूरा तावीज़ जलते हुए बुझ गया, और वहां से एक धुंआ निकला—जो धीरे-धीरे रिया के शरीर में समा गया। रिया अब पूरी तरह उसकी आवाज़ में बोल रही थी, “मैंने उसे हर रात गुनगुनाया… ताकि कोई सुने, कोई समझे, कोई मेरी दास्तान को पूरी करे।”
सोहम इस पूरे दृश्य को रिकॉर्ड कर रहा था, लेकिन उसकी आंखों में भय था। “ये डॉक्यूमेंट्री नहीं है अब,” उसने विवेक से कहा, “ये उसकी दुनिया है… और हम बस परछाइयाँ हैं।” तभी हवेली के बाहर से इसरार मियाँ की आवाज़ आई, “अब तुमने अंगूठी छु ली है साहब… मतलब तुम अब गवाह नहीं, हिस्सेदार हो। ये कहानी अब तुम्हारे खून में बहेगी।” विवेक ने रिया को उठाया और वापस बाहर लाया, लेकिन उसके मन में एक बात स्पष्ट हो चुकी थी—शरफ़ुन्निसा की आत्मा अब सिर्फ रिया में नहीं, बल्कि उसके अपने जीवन में प्रवेश कर चुकी है। अंगूठी, तावीज़, ग़ज़लें—ये सब सिर्फ प्रतीक नहीं थे… ये एक ऐसे मोहब्बत की निशानियाँ थीं, जिसे ज़िंदा दफ्न किया गया था। अब उसका कर्ज़ समय से वसूला जाएगा—हर उस इंसान से, जो उसे अनसुना कर चला गया।
६
विवेक की नींद रात के तीसरे पहर टूटी जब एक अस्पष्ट-सी आवाज़ उसके कमरे की खिड़की से आती प्रतीत हुई — जैसे कोई धीमी आवाज़ में कोई पुराना लखनऊवी तराना गुनगुना रहा हो। वह घड़ी की ओर देखता है — 3:07 AM। पूरे कमरे में सन्नाटा पसरा था, केवल उस गाने की मद्धम धुन उसके कानों में समा रही थी। विवेक ने झटपट खिड़की खोली, पर बाहर सिर्फ बर्फ़ीली हवा और घने कोहरे की चादर नज़र आई। हवेली अपने शाही लेकिन खंडहर जैसे रूप में सामने खड़ी थी, जैसे कोई मुर्दा जिन्दा होकर आँखें गड़ाए उसे देख रहा हो। अचानक, हवेली की तीसरी मंज़िल की एक टूटी खिड़की पर हल्की-सी हलचल हुई। कोई सफेद साया वहां खड़ा था — स्थिर, मौन, उसकी ओर ताकता हुआ। विवेक की साँस अटक गई। वह समझ गया — यह अब महज़ इतिहास की खोज नहीं, किसी आत्मा की दखलअंदाज़ी में बदल रही थी।
सुबह होते ही उन्होंने अपनी टीम के साथ एक मीटिंग बुलाई। सोहम, जिसकी पिछली रातों की नींद भी उड़ चुकी थी, बताता है कि उसकी कैमरा फीड में भी पिछली रात को एक सफेद धुंध सी आकृति नज़र आई थी जो रिकॉर्डिंग में से खुद को मिटा रही थी — जैसे कोई आत्मा कैमरे के डेटा को प्रभावित कर रही हो। रिया ने लखनऊ आर्काइव्स से एक दस्तावेज़ लाकर बताया कि नवाबी दौर में “रौशन मंज़िल” को गुप्त संदेशवाहियों का अड्डा माना जाता था। लेकिन उसी में एक नाम आया जिसे पढ़ते ही कमरे का तापमान जैसे गिर गया — “शरफ़ुन्निसा बेगम”। वही नाम जो हवेली के दरो-दीवार में कई बार उभरा था। इसरार मियाँ ने चुपचाप एक बात जोड़ी — “हुज़ूर, अगर बेगम का नाम आपके सपने में आए, तो समझिए कि वो आपको चुन चुकी हैं।” कमरे में सन्नाटा छा गया। सबने देखा कि विवेक का चेहरा पीला पड़ चुका था, क्योंकि उसने किसी को नहीं बताया था कि कल रात उसने सपना देखा था — और उस सपने में कोई औरत उसे नाम लेकर पुकार रही थी।
टीम ने तय किया कि अब उन्हें हवेली के तहखाने तक पहुँचना होगा — क्योंकि वहीं से बार-बार आवाज़ें आती थीं और जहां से किसी और की उपस्थिति का संकेत मिलता था। शाम को, जब धूप ढलने लगी और हवेली की छाया फिर से भयावह रूप लेने लगी, चारों ने टॉर्च और उपकरणों से लैस होकर अंदर कदम रखा। नीचे तहखाने की ओर जाने वाली सीढ़ियाँ धूल, जाले और समय के भार से जर्जर हो चुकी थीं। हर कदम पर हवा भारी होती जा रही थी। जैसे ही वे नीचे पहुँचे, एक भीगी सी खुशबू महसूस हुई — गुलाब जल, चंदन, और पुरानी मिट्टी की। तहखाने के एक कोने में लोहे का एक प्राचीन संदूक रखा था। सोहम जैसे ही उसके पास गया, टॉर्च की रोशनी बंद हो गई, कैमरा हैंग करने लगा और चारों ओर फिर वही गुनगुनाहट गूँज उठी। विवेक ने जैसे ही संदूक का ढक्कन खोला, उसमें से एक पुरानी डायरी, एक टूटा हुआ कड़ा और एक खून से सना रूमाल निकला। उसी वक्त हवा में किसी औरत की सिसकियों की आवाज़ स्पष्ट हो गई — “मुझे क्यों छोड़ा?”
जैसे ही उन्होंने डायरी पढ़नी शुरू की, उसमें लिखी पंक्तियाँ विवेक को सीधे संबोधित कर रही थीं — “वो इतिहासकार जो मेरी कहानी सुनने आया है, क्या वह मेरा इंसाफ़ करेगा?” पूरी टीम स्तब्ध रह गई। शरफ़ुन्निसा की आत्मा अब केवल हवेली की नहीं, उनकी ज़िंदगियों की भी हिस्सा बन चुकी थी। हवेली अब उनका रिसर्च प्रोजेक्ट नहीं, एक जीवित प्रेतलोक थी जो अपने रहस्य खुद बताने को तैयार हो चुकी थी — लेकिन एक शर्त पर: हर सच की कीमत होगी।
७
रात के अंधेरे में रौशन मंज़िल हवेली किसी परछाईं की तरह लखनऊ के चाँदनी में खड़ी थी, लेकिन उस रात हवेली कुछ ज्यादा ही शांत थी। विवेक, रिया और सोहम हवेली के भीतर एक रहस्यमय सुरंग की खोज कर चुके थे, जो उन्हें एक बंद तहख़ाने की ओर ले जाती थी। तहख़ाने का दरवाज़ा जंग लगा हुआ था, लेकिन इसरार मियां की बताई तावीज़ और कुंजी से वह खुल गया। दरवाज़ा खुलते ही एक सड़ी गली हवा का झोंका उनके चेहरे पर पड़ा – मानो सदियों से बंद किसी दर्द की चीख निकलकर बाहर आ गई हो। तहख़ाने में दाख़िल होते हुए विवेक को अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी, जैसे किसी पुराने अपराध की गवाही देने जा रहे हों। अंदर दीवारों पर उर्दू में कुछ लिखा हुआ था — “जो भी मेरी नींद तोड़ेगा, वो मेरी सज़ा पाएगा।”
तहख़ाने में एक बड़ी सी चौखट थी, जिसके पास मिट्टी और लकड़ी की दीवार में एक जगह ऐसी थी जो अलग दिखाई दे रही थी। रिया ने उसे खुरचकर देखा तो वहाँ से एक नक्काशीदार ईंट निकली — जैसे यह जगह कभी खुलती थी। अचानक, एक झनझनाहट की आवाज़ हुई और तहख़ाने की बत्ती बुझ गई। सोहम ने टॉर्च जलाया लेकिन कुछ दिखाई नहीं दिया। तभी दीवार के पीछे से किसी के कराहने की धीमी आवाज़ आई — “रौशन… मंज़िल…” विवेक ने पीछे मुड़कर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। वे अब समझ चुके थे कि यह सिर्फ कोई इतिहास नहीं, यह किसी आत्मा का बंद दरवाज़ा था, जो खुलने ही वाला था। और फिर, दीवार की दरारों से धीरे-धीरे लाल रोशनी टपकने लगी, जैसे लहू रिस रहा हो।
रिया की आँखें उस दीवार पर जमी रह गईं जहाँ किसी ने पुराने खून से एक नाम लिखा था — “शरफ़ुन्निसा।” यह वही नाम था जिसका ज़िक्र हुसैनाबाद की लोककथाओं में था। विवेक ने कांपते हाथों से वह ईंट दबा दी जो अलग दिख रही थी। दीवार एक भयानक आवाज़ के साथ हिली और एक गुप्त कमरा खुला, जिसमें एक पुरानी चारपाई, एक जंग लगा शीशा, और एक टूटी हुई पायल रखी थी। पायल को छूते ही हवेली में अज़ान की आवाज़ गूंजने लगी, लेकिन अजीब बात यह थी कि यह आवाज़ असली नहीं बल्कि किसी रिकॉर्ड की तरह दोहराई जा रही थी। कमरे की दीवारों पर चित्र बने थे — एक नवाब, एक लड़की जिसे दीवार में चुनवाया जा रहा है, और एक आदमी जिसकी शक्ल… बिलकुल विवेक से मिलती थी। रिया चौंक उठी, “ये… ये तुम हो विवेक?” विवेक स्तब्ध रह गया, उसकी सांसें रुकने लगीं — क्या उसका कोई रिश्ता इस हवेली से था?
तभी अचानक कमरे का तापमान गिरने लगा, साँसें जमने लगीं और दीवार से एक धुंधली आकृति उभरी — शरफ़ुन्निसा की आत्मा। उसकी आँखें विवेक को घूर रही थीं जैसे वह उसे पहचानती हो। उसने फुसफुसा कर कहा, “तुम लौटे हो… आखिरकार।” रिया और सोहम पीछे हट गए, लेकिन विवेक खड़ा रहा — उसके भीतर कोई अनजाना संबंध जाग उठा था। आत्मा ने धीरे से चारपाई की ओर इशारा किया जहाँ एक पुराने खतों का गट्ठर रखा था। विवेक ने वह उठाया — उनमें एक खत उस आदमी के नाम था जिसे वह अपने पिछले जन्म में भूल चुका था। खत में लिखा था, “अगर तुम कभी लौटे, तो मेरी आत्मा को मुक्त कर देना… मैं इंतज़ार करती रहूंगी।” विवेक की आँखों से आँसू बह निकले, और उसी क्षण एक हल्की सी रौशनी उस आत्मा के चारों ओर फैलने लगी — जैसे वर्षों बाद किसी ने उसे सुना हो। लेकिन क्या यह मुक्ति थी, या सिर्फ एक शुरुआत?
८
हवेली की दीवारें अब केवल ईंट और पत्थर नहीं रहीं—वो जैसे किसी पुराने ज़माने की सांसें ले रही थीं। हर कोना, हर दरवाज़ा जैसे खुद बयान करना चाहता था कि उसके भीतर जो दफ़न है, वो इतिहास नहीं बल्कि अधूरा प्रतिशोध है। उस रात विवेक, सोहम और रिया ने मिलकर तहखाने का दरवाज़ा खोला। जंग खाए लोहे की सीढ़ियाँ किसी पुराने मृतक की हड्डियों-सी चरमरा रही थीं। नीचे उतरते वक्त हर कदम पर अंधेरा और सन्नाटा एक साजिश-सा महसूस हो रहा था। हवा ठंडी थी, लेकिन किसी का गुस्सा उसमें मिला हुआ था। तहखाने में पुराने लकड़ी के संदूक, दीवारों पर उर्दू में लिखे कुछ रहस्यमय शेर, और एक पत्थर की छत के नीचे बना एक छोटा सा चबूतरा दिखा, जिस पर सूखे फूलों की एक परत जमी थी—शायद यही वो जगह थी जहाँ शरफ़ुन्निसा को जिंदा चुनवाया गया था।
रिया की नज़रें उस दीवार पर टिक गईं जहाँ हल्की-सी नमी और धुंधले खून के धब्बे अब भी मौजूद थे। विवेक ने धीरे से दीवार को छुआ और एकाएक उसे एक तीव्र झटका लगा—उसके दिमाग में किसी और की यादें कौंधने लगीं। उसने देखा—शरफ़ुन्निसा नवाब से ज़िद कर रही थी कि वो अंग्रेज़ों को हवेली न सौंपें, लेकिन नवाब को डर था कि बगावत के बाद उनका पूरा खानदान मिटा दिया जाएगा। बेगम की ज़िद और गुस्से से घबराकर, नवाब ने ही अंग्रेज़ों से मिलकर उसे दीवार में चुनवा दिया। विवेक चीख कर पीछे हट गया—उसकी आंखों में वह दर्द उभर आया जो एक जीवित इंसान ने अपने अपनों से मिले धोखे के कारण सहा था। रिया और सोहम उसे पकड़ कर बाहर लाए, लेकिन विवेक अब पूरी तरह बदल चुका था। उसकी आंखों में अब खुद शरफ़ुन्निसा की रूह उतर आई थी, जो अपनी अधूरी दास्तान को पूरा करना चाहती थी।
अगली रात हवेली की रौशन मंज़िल में कुछ ऐसा हुआ जो कभी नहीं होना चाहिए था। विवेक, अब पूरी तरह रूह के क़ब्ज़े में, रात के ठीक बारह बजे हवेली के उस चबूतरे पर एक दिया लेकर गया और वहाँ बैठकर एक अजीब-सी आरती गाने लगा—एक ऐसी ज़ुबान में जिसे रिया और सोहम ने पहले कभी नहीं सुना था। हवेली की खिड़कियाँ खुद-ब-खुद खुल गईं, पर्दे फड़फड़ाने लगे और हवाओं में इत्र की तेज़ महक फैल गई। अचानक हर दीवार पर रंगीन रोशनी चलने लगी—जैसे किसी मुग़ल दरबार में मुजरा होने वाला हो। एक क्षण के लिए वो तहखाना एक भव्य रंगमहल में बदल गया। हवा में संगीत था, नृत्य था, और बीच में शरफ़ुन्निसा बेगम की रूह थी—सजी धजी, सुंदर और भयावह। उसने मुस्कुराकर विवेक की ओर देखा और धीमे से कहा, “तुम लौट आए, नवाब साहब।” रिया और सोहम भयभीत हो उठे, लेकिन विवेक न किसी डर में था, न समय में—वो अब अतीत का एक कैदी बन चुका था।
अचानक दीवारें फिर से हिलने लगीं और वो रंगमहल टूटता चला गया—संगीत चीखों में बदल गया, और शरफ़ुन्निसा की आंखें खून से लाल हो उठीं। उसने विवेक की ओर देखा और कहा, “अब ताज पहनने की बारी मेरी है… और इस बार मैं अधूरी नहीं रहूंगी।” विवेक ज़मीन पर गिर गया, तड़पने लगा, और उसके शरीर से धुआँ उठने लगा। रिया ने डरते हुए तावीज़ निकाला और सोहम के साथ मिलकर उसे विवेक की छाती पर रखा। एक ज़ोरदार चीख हवेली में गूंजी और फिर सब कुछ शांत हो गया। दीवारें फिर से जम गईं, दरवाज़े खुद-ब-खुद बंद हो गए, और हवेली फिर से उस पुराने सन्नाटे में लौट आई। लेकिन विवेक की आंखें अब भी खुली थीं—और उनमें झलक रही थी शरफ़ुन्निसा की मुस्कान। रिया और सोहम समझ चुके थे—ये अंत नहीं था, ये तो सिर्फ़ रूह के रंगमहल की पहली रात थी।
९
हवेली की पुरानी अंधेरी कोठरी में अमन और अनन्या का सामना अब केवल आत्माओं से नहीं, बल्कि उनके खुद के भय और मानसिक संघर्षों से भी होने लगा था। जिस दरवाज़े के पीछे ‘फर्श की कब्र’ कही जाती थी, वह रात को अपने आप खुलने लगा था, और अंदर से किसी के कराहने की आवाज़ें आती थीं। अनन्या ने उस रात अमन से कहा, “ये कोई सामान्य आत्मा नहीं है… यह कोई ऐसा है जो अब भी यहीं बंधा है, जिसे किसी ने जिंदा गाड़ा है।” अमन को भी हवेली की पुरानी दीवारों से आते चीखों और काँच टूटने की आवाज़ें परेशान कर रही थीं। उन्होंने तय किया कि अगली सुबह वो लाइब्रेरी में मौजूद रियासत के पुराने कागज़ात खंगालेंगे। सुबह होने पर दोनों ने दीवानखाने की अलमारी खोली, जिसमें सालों पुराने दस्तावेज़, ज़मीन के नक्शे और एक लाल मोहर वाला पत्र मिला — उसमें लिखा था कि नवाब वसीम अली खान ने 1858 में अपने ही भाई को देशद्रोही मानकर ज़िंदा हवेली के तहख़ाने में दफ़ना दिया था।
पत्र पढ़कर अनन्या की आंखों में आंसू थे, “क्या हम उन्हीं की आत्मा से जूझ रहे हैं?” अमन ने गर्दन हिलाते हुए कहा, “अगर हम उन्हें मुक्ति नहीं दिलाएंगे, तो ये हवेली कभी शांत नहीं होगी।” उसी दिन रात में उन्होंने तहख़ाने का दरवाज़ा पूरी तरह खोला। एक अजीब सी सड़ांध और धूल भरी हवा बाहर आई, लेकिन साथ ही एक स्याह सी परछाई अमन के पास से गुज़री और उसकी साँसें तेज़ हो गईं। नीचे जाने वाली सीढ़ियाँ टूटी-फूटी थीं, लेकिन दोनों नीचे पहुँचे। वहाँ एक फर्श पर पत्थर की बनी कब्र दिखी, जिसके पास दीवारों पर खून से लिखा था — “वफ़ा का इनाम मौत?” अनन्या ने उस कब्र के पास बैठकर एक दीया जलाया और चुपचाप कुछ संस्कृत श्लोक बोले, जो उनकी दादी ने सिखाए थे। तभी कमरे का तापमान बदलने लगा, और हवेली के ऊपर वाले हिस्से में तेज़ आंधी चलने लगी, जैसे कोई अपनी रिहाई की माँग कर रहा हो।
उसी रात उन्हें सपना आया जिसमें एक बुज़ुर्ग आदमी सफेद अचकन में उन्हें बता रहा था कि जब तक वह कब्र खंडित नहीं होती और उसके भाई के असली अपराध को उजागर नहीं किया जाता, तब तक उसकी आत्मा यहाँ बंधी रहेगी। सुबह उठते ही अनन्या और अमन ने तहख़ाने की कब्र को खोलने का निर्णय लिया। कुछ पुराने मज़दूरों को बुलाकर उन्होंने फर्श तुड़वाया, तो उसके नीचे एक सड़ा-गला कंकाल और एक छोटा सा ताबीज़ मिला, जिस पर ‘असद अली’ लिखा था। पास में एक ताम्बे की तख्ती थी जिसमें उर्दू में लिखा था: “मेरी वफ़ादारी को सज़ा मिली।” अब सच्चाई उनके सामने थी — नवाब वसीम अली खान ने अपने भाई असद अली को अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत करने पर सज़ा दी थी, और वह भी ज़िंदा दफनाकर।
अमन ने स्थानीय रिकॉर्ड ऑफिस से पुराने दस्तावेज़ निकलवाए और स्थानीय अख़बार में पूरी कहानी प्रकाशित करवा दी। कहानी के छपते ही शहर में हंगामा मच गया — लोग हुसैनाबाद हवेली के सामने मोमबत्तियाँ जलाने लगे, कुछ धार्मिक लोग वहाँ प्रार्थना करने लगे और कई इतिहासकार वहाँ की जांच के लिए पहुँचे। अनन्या ने उस ताबीज़ को गंगा में प्रवाहित किया और कब्र पर फूल चढ़ाकर हाथ जोड़कर कहा, “अब आपकी सच्चाई सबको पता चल गई है, अब आप मुक्त हो जाइए।” जैसे ही उसने यह कहा, हवेली की सारी बत्तियाँ एक साथ जल उठीं, और एक मधुर पर छाया जैसी मुस्कान दीवार पर उभरी — वह असद अली की आत्मा थी, जो अब आज़ाद हो गई थी। लेकिन हवेली अब भी पूरी तरह शांत नहीं थी… जैसे कि किसी और को अब भी इंतज़ार था।
१०
हवा की सरसराहट अब एक स्थायी कानाफूसी बन चुकी थी, जैसे हवेली की हर दीवार, हर कोना अब बोलने लगा हो। वक़्त जैसे रुक गया था जब इंस्पेक्टर ज़मीर ने पुराने तहख़ाने की दीवार पर खून से लिखा आख़िरी नाम पढ़ा—”ज़ोया”। इस नाम का वहां होना सब कुछ बदल देने वाला था, क्योंकि ये वही नाम था जो हवेली की पहली मालकिन, नवाब सज्जाद अली की बेटी का था, जिसे सौ साल पहले हवेली में ज़िंदा दफन कर दिया गया था। एक ठंडी लहर सी उनके रोंगटे खड़े कर गई। तहख़ाने में अचानक उठी एक गंध—सड़ी हुई गुलाब की मिली-जुली सुगंध—ने माहौल को और भी डरावना बना दिया। ज़मीर ने जैसे ही पीछे मुड़कर देखा, दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया और सन्नाटे की गूंज में एक धीमी लड़की की हँसी गूँजने लगी—ठीक उनके कान के पास।
अनाया ऊपर हवेली के हॉल में खड़ी सब कुछ महसूस कर रही थी। उसे अब साफ़-साफ़ दिखने लगा था—वो परछाइयाँ जो अब तक धुंधली थीं, अब चेहरे लिए सामने आने लगी थीं। नवाब सज्जाद, उसकी पत्नी शाजिया, दासी रहीमा, और फिर छोटी ज़ोया—सबके सब अपने दर्द में सजे हुए भूत जैसे सामने खड़े थे। हवेली की कहानी अब किसी इतिहास के पन्ने नहीं बल्कि ज़िंदा आत्माओं का चीख़ता हुआ सच बन चुकी थी। तभी अचानक सब कुछ उजाला हो गया। चौंककर अनाया ने देखा कि उसके हाथ में रखा मिट्टी का दीया, जो हवेली में पहली बार जलाया गया था, वो अचानक जल उठा—बिना किसी बाती या तेल के। एक धीमी सी आवाज़ गूंजी—“अगर आख़िरी दीया बुझा, तो ये हवेली कभी चैन से नहीं सोएगी।” उसकी आंखों के सामने अब अतीत और वर्तमान एक हो चुके थे।
वहीं तहख़ाने में ज़मीर ने महसूस किया कि ज़मीन जैसे हिल रही है। दीवारें खिसकने लगी थीं, और सामने एक दरवाज़ा खुल गया—जिसके पीछे अंधकार नहीं, बल्कि उजाले की तेज़ रेखा थी। जैसे ही वो उस रेखा के पास गए, एक छोटा कमरा सामने आया, जहां ज़ोया की कंकाल जैसी देह अभी तक बैठी थी—हाथ में वही दीया लिए जो अब अनाया के पास था। ज़मीर ने आंखें बंद कीं और मन ही मन माफ़ी मांगी—समाज की गलती की, नवाब की गलती की, हर उस इंसान की जिसने एक बच्ची की मासूम आत्मा को कैद कर दिया था। अचानक एक ज़ोर का प्रकाश हुआ और दीवारें ढहने लगीं, तहख़ाना गिरने लगा। वो जैसे-तैसे भागकर ऊपर आए, तो देखा—अनाया ने दीया बालकनी से बाहर रख दिया था और हवा में एक तेज़ चीख़ गूंजी, “मुक्ति…”
अगली सुबह लखनऊ के अख़बारों में एक अजीब खबर थी—“हुसैनाबाद हवेली अब खंडहर नहीं, शांति का स्थान है।” हवेली के सारे अजीब घटनाएं रुक चुकी थीं। अनाया शहर छोड़कर वापस दिल्ली चली गई, लेकिन जाते-जाते उसने हवेली के दरवाज़े पर एक बोर्ड टांगा—“ये मकान अब आत्माओं का नहीं, आत्मा की मुक्ति का प्रतीक है।” और शायद पहली बार, हवेली के आंगन में सुबह की रौशनी बिना किसी छाया के पड़ी थी। मगर एक कोने में, दीवार की पुरानी ईंट के नीचे, कोई धीमी सी आवाज़ अब भी थी—“अगर फिर से कोई दीया बुझा…”
(समाप्त)




