Hindi - प्रेतकथा

हिमालय का काला साधु

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उत्तराखंड की बर्फ़ से ढकी चोटियाँ सर्दियों की ठंडी साँसों के साथ रहस्यों को भी संजोए रहती हैं। यहाँ की वादियों में हर सरसराती हवा, हर बहती धारा, हर देवदार का पेड़ किसी पुरानी कहानी की गवाही देता है। स्थानीय गाँवों में अक्सर रात की अलाव बैठकों में बूढ़े बुजुर्ग एक ही कथा बार-बार सुनाते हैं—“काले साधु” की। यह साधु कोई साधारण संन्यासी नहीं था, बल्कि ऐसा सन्यासी जिसने अमरत्व की चाह में अपने जीवन को काले तंत्र की ओर मोड़ दिया। कहते हैं कि सदियों पहले उसने एक बर्फ़ीली गुफा को अपनी साधना का स्थान चुना और वहाँ ऐसी साधना की जिसने उसके शरीर को मृत्यु से परे पहुँचा दिया। किंवदंती है कि वह साधु आज भी जीवित है, उसकी आँखें अंगारों की तरह जलती हैं और उसके चारों ओर मृत्यु की सर्द छाया रहती है। गाँववाले दावा करते हैं कि कई यात्री, कई चरवाहे और कुछ साहसी पर्वतारोही उस गुफा के आसपास से लापता हो गए और कभी लौटकर नहीं आए। लोग मानते हैं कि उनकी आत्माएँ साधु ने अपने जाल में फँसाकर कैद कर लीं। इस कहानी की सिहरन ऐसी है कि लोग रात को अकेले जंगल में निकलने से डरते हैं, और कोई भी उस गुफा का रास्ता दिखाने की हिम्मत नहीं करता।

इसी रहस्य की तह तक पहुँचने की ठानी थी अर्जुन मेहता ने। दिल्ली का रहने वाला अर्जुन तीस वर्षीय एक जिज्ञासु पर्वतारोही और शोधकर्ता था, जिसे लोककथाओं और ऐतिहासिक रहस्यों को सुलझाने का शौक़ था। उसके लिए पहाड़ सिर्फ़ रोमांच का साधन नहीं थे, बल्कि ज्ञान और अनुभव का भंडार थे। जब उसने पहली बार किसी शोध पत्रिका में “काले साधु” की कथा पढ़ी, तो उसके भीतर की जिज्ञासा और साहस ने उसे चैन से बैठने नहीं दिया। उसका मानना था कि हर किंवदंती के पीछे कोई न कोई सच्चाई छिपी होती है—कभी वह किसी प्राकृतिक घटना से जुड़ी होती है, तो कभी मानव मन के भ्रम से। किंतु सच सामने लाना ज़रूरी था। अर्जुन ने अपने शोध को और गहराई देने के लिए भारतीय पुरातत्व विभाग की विशेषज्ञ और प्राचीन ग्रंथों की विदुषी डॉ. इशिता सेन से संपर्क किया। इशिता, जो अपनी तर्कशीलता और प्राचीन संस्कृत ग्रंथों की गहन जानकारी के लिए जानी जाती थीं, पहले तो अर्जुन के विचारों को महज़ एक दंतकथा मानकर टालना चाहती थीं, परंतु जब उन्होंने अपने ग्रंथों में हिमालय की गुफाओं और काले तंत्र की गूढ़ साधनाओं का उल्लेख पढ़ा, तो उनकी भी जिज्ञासा जाग उठी। धीरे-धीरे दोनों ने मिलकर इस रहस्यमय यात्रा पर निकलने का निश्चय किया।

उनकी यात्रा ऋषिकेश से प्रारंभ हुई, जहाँ गंगा के तीव्र प्रवाह और घंटियों की ध्वनि ने वातावरण को आध्यात्मिक बना रखा था। लेकिन उस आध्यात्मिकता के बीच भी एक अजीब-सा भय व्याप्त था। स्थानीय लोग जब भी काले साधु का नाम सुनते, उनकी आँखों में डर की परछाई झलकने लगती। एक चाय की दुकान पर बैठे बूढ़े ने उन्हें चेतावनी दी—“बाबूजी, साधु के रास्ते पर मत जाना। वहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।” किंतु अर्जुन की आँखों में साहस की चमक और इशिता के चेहरे पर गंभीर दृढ़ता साफ़ झलक रही थी। वे जानते थे कि यह यात्रा आसान नहीं होगी, लेकिन उनके लिए यह सिर्फ़ एक कहानी नहीं, बल्कि इतिहास और सत्य की खोज थी। पहाड़ों की ठंडी हवा, बर्फ़ से ढके पथ और देवदार के जंगल उनकी परीक्षा लेने को तैयार थे। दोनों के दिलों में हल्की-सी घबराहट थी, लेकिन उस घबराहट से कहीं गहरी थी उनकी जिज्ञासा। यही जिज्ञासा उन्हें उस गुफा की ओर ले जा रही थी, जहाँ सदियों से काले साधु की छाया व्याप्त बताई जाती थी। इस तरह रहस्य और भय की पहली परत हटाने की शुरुआत हुई—हिमालय की दास्तान अब उनके सामने अपने असली रूप में खुलने वाली थी।

ऋषिकेश की सुबह का वातावरण हमेशा की तरह आध्यात्मिक ऊर्जा से भरा हुआ था। गंगा की कल-कल ध्वनि, आरती की गूँज और दूर-दूर से आए साधु-संतों की आवाज़ें वातावरण को जीवंत कर रही थीं। किन्तु अर्जुन और इशिता के मन में एक अलग ही उद्देश्य था। दोनों होटल की बालकनी से गंगा के प्रवाह को निहारते हुए मन ही मन अपनी योजना पर विचार कर रहे थे। इशिता बार-बार अपने बैग में रखे प्राचीन ग्रंथ को पलटतीं और उसमें दर्ज प्रतीकों व श्लोकों को समझने की कोशिश करतीं, जबकि अर्जुन मानचित्र और उपकरणों को व्यवस्थित कर रहा था। उसी समय उनकी मुलाकात स्थानीय लोगों से हुई, जिनसे बातचीत में बार-बार “भोलाराम” का नाम सामने आता। भोलाराम एक अनुभवी पर्वतीय गाइड था, जिसने कई विदेशी और देशी यात्रियों को कठिन रास्तों से पार कराया था, लेकिन उसके बारे में यह भी मशहूर था कि वह साधु की गुफा की कहानियाँ सुनाकर लोगों को डराता और उस ओर जाने से हमेशा मना करता। अर्जुन ने जब उससे मिलने की ठानी, तो चाय की दुकान पर बैठे एक दुबले-पतले, झुर्रियों से भरे चेहरे वाले आदमी ने धीरे-धीरे सिर उठाया। यही था भोलाराम। उसकी आँखों में गहरी थकान और हल्का भय झलक रहा था। उसने दोनों को देखते ही कहा—“बाबूजी, साधु का रास्ता कोई खेल नहीं है। जो गए हैं, लौटे नहीं।” अर्जुन ने दृढ़ता से कहा कि वे सिर्फ़ शोध करने आए हैं और उसकी मदद की ज़रूरत है। लंबे आग्रह और वादों के बाद भोलाराम ने अंततः हामी भरी, लेकिन उसकी आवाज़ में स्पष्ट डर था—“ठीक है, मैं रास्ता दिखा दूँगा, पर गुफा के पास नहीं जाऊँगा।”

अगली सुबह उनकी यात्रा का आरंभ हुआ। ऋषिकेश से आगे बढ़ते ही परिदृश्य बदलने लगा—समतल ज़मीन की जगह पथरीली चढ़ाई, खुली धूप की जगह घने देवदार और चीड़ के पेड़, और शांत बहाव की जगह गूँजती नदियाँ। भोलाराम हर मोड़ पर उन्हें चेतावनी देता कि यह इलाका जितना सुंदर है, उतना ही खतरनाक भी। रास्ते में उन्हें कई बार सँकरे पुल पार करने पड़े, जो लकड़ी और रस्सियों से बने थे और जिन पर चलने से दिल काँप उठता। नदियाँ नीचे प्रचंड वेग से बह रही थीं, उनकी आवाज़ इतनी प्रचंड कि मानो गर्जना कर रही हों। इशिता अक्सर ठहरकर अपने नोट्स लिखतीं, कभी पेड़ों की छाल पर बने अजीब प्रतीकों को देखतीं और उन्हें ग्रंथों से मिलाने की कोशिश करतीं। अर्जुन हर दृश्य को कैमरे में कैद करता, क्योंकि वह मानता था कि इन सबके पीछे कोई न कोई सुराग छिपा होगा। यात्रा जितनी आगे बढ़ती, ठंड उतनी ही बढ़ती जाती। हवा इतनी शीतल हो चुकी थी कि सांसें धुंध में बदल जातीं। पहाड़ों की ऊँचाई बढ़ने के साथ रास्ता भी और खतरनाक होता गया। कहीं-कहीं तो ऐसे ढलान थे जहाँ एक गलत कदम उन्हें गहरी खाई में गिरा सकता था।

जैसे-जैसे वे साधु की गुफा के इलाके के करीब पहुँचने लगे, वातावरण में एक अजीब-सी खामोशी फैलने लगी। जंगलों में पक्षियों की चहचहाहट बंद हो गई थी, और हवाओं की सीटी जैसी आवाज़ें कानों में अजीब भय जगाती थीं। भोलाराम बार-बार रुककर पीछे देखता, जैसे कोई उनका पीछा कर रहा हो। अर्जुन ने जब उससे पूछा तो वह धीरे से बोला—“ये पहाड़ जिंदा हैं बाबूजी। यहाँ हर कदम पर नज़र रखी जाती है।” उसकी इस बात से इशिता भी असहज हो उठीं। शाम तक वे एक छोटी सी पहाड़ी बस्ती में पहुँचे, जहाँ कुछ झोपड़ियाँ और लकड़ी के घर थे। वहाँ के लोग उन्हें देखकर चुप हो गए, मानो उनकी यात्रा की दिशा सबको पता थी। एक बूढ़ी औरत ने धीरे से कहा—“बेटा, रात में दीपक जलाकर सोना, वरना पहाड़ की आत्माएँ चैन से नहीं रहने देंगी।” अर्जुन और इशिता दोनों समझ गए कि वे अब उस क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं, जहाँ मिथक और वास्तविकता की सीमाएँ धुंधली हो चुकी थीं। उनके भीतर डर तो था, लेकिन उससे कहीं गहरा रोमांच भी था। यह यात्रा सिर्फ़ एक अभियान नहीं रह गई थी, बल्कि एक ऐसी दास्तान की शुरुआत थी, जहाँ हर मोड़ पर रहस्य उनका इंतज़ार कर रहा था।

भोर की हल्की किरणें जैसे ही पहाड़ की चोटियों से उतरकर जंगल की पगडंडियों पर फैलीं, अर्जुन, इशिता और भोलाराम ने अपनी अगली यात्रा शुरू की। ठंडी हवा चेहरे पर चाकू की धार जैसी लग रही थी, पर उनके कदम पीछे नहीं हट रहे थे। रास्ता सँकरा और खतरनाक होता जा रहा था, हर मोड़ पर खाई नीचे गहरी होती जाती और हर ऊँचाई पर चढ़ते ही साँसों की थकान बढ़ने लगती। तभी एक खुले मैदान जैसी जगह पर पहुँचने पर उन्होंने देखा, एक बूढ़ा चरवाहा अपनी भेड़ों को हांक रहा था। उसके बाल बर्फ़ की तरह सफेद थे और चेहरे पर गहरी झुर्रियाँ, मानो जीवन ने उसे कठिनाइयों से गढ़ा हो। उसने यात्रियों को देखकर धीरे-धीरे सिर उठाया और आँखों में एक अजीब चमक के साथ मुस्कुराया। भोलाराम ने धीमे स्वर में अर्जुन और इशिता को बताया—“ये बूढ़ा बद्रीनाथी है, कई सालों से यहाँ भेड़ें चराता है। इसके पास साधु की गुफा की कहानियाँ हैं, लेकिन सावधान रहना, कभी-कभी ये बातें सुनने वाले को रातों तक सोने नहीं देतीं।” अर्जुन और इशिता उत्सुक हो उठे और बूढ़े से बातचीत शुरू की। जब अर्जुन ने साधु के बारे में पूछा, तो बूढ़े का चेहरा सख़्त हो गया, आँखों की चमक बुझ सी गई। उसने कांपती आवाज़ में कहा—“मत पूछो बाबू, वो कहानी मेरे जीवन की सबसे बड़ी चोट है।”

धीरे-धीरे वह चरवाहा अपनी पीड़ा भरी दास्तान सुनाने लगा। उसने बताया कि उसका छोटा भाई किशन, पच्चीस साल पहले उन्हीं पहाड़ों में कहीं खो गया था। किशन जवान था, तेज़-तर्रार और साहसी। दोनों भाई अक्सर भेड़ों के साथ ऊँचाई तक जाया करते थे। एक दिन वे दोनों गुफा के इलाके के पास भटक गए। बद्रीनाथी ने डरते-डरते अपने भाई से कहा था कि इस इलाके से जल्दी निकल चलो, लेकिन किशन ने उसकी बात हंसी में उड़ा दी। रात का अंधेरा घिर आया और उन्होंने वहीं डेरा डाल दिया। तभी बद्रीनाथी ने पहली बार वह अजीब आवाज़ सुनी थी—“आ…ओ…मेरे पास आओ…”। उसने सोचा कि शायद हवा की गूँज होगी, लेकिन किशन जैसे सम्मोहित हो गया था। वह नींद से उठकर उस दिशा में चलने लगा। बद्रीनाथी ने उसे रोकने की कोशिश की, पर जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे खींच रही थी। किशन धुंध में गुम हो गया और उसके बाद उसका कोई अता-पता नहीं चला। कई दिनों तक गाँववाले ढूँढते रहे, लेकिन सिर्फ़ एक जली हुई लालटेन मिली, जिसमें लौ बुझ चुकी थी। बूढ़े चरवाहे की आँखें भर आईं, उसने काँपती आवाज़ में कहा—“वो साधु उसकी आत्मा ले गया। आज तक मुझे रात में उसके कदमों की आहट सुनाई देती है। कभी लगता है जैसे वो पुकार रहा हो, लेकिन जब मुड़कर देखो तो सन्नाटा।” उसकी कहानी सुनकर अर्जुन और इशिता दोनों सिहर उठे। हवा और ठंडी हो गई थी, मानो उस दर्दनाक किस्से ने वातावरण को और भी भारी कर दिया हो।

बद्रीनाथी की इस दास्तान ने अर्जुन के भीतर के संकल्प को और मजबूत कर दिया। उसे अब यह साफ़ लग रहा था कि यह केवल लोककथा या अंधविश्वास नहीं, बल्कि इसके पीछे कोई गहरी सच्चाई छिपी है। उसने मन ही मन ठान लिया कि चाहे कितनी भी कठिनाई क्यों न आए, वह इस रहस्य को उजागर करेगा और उन सभी आत्माओं को मुक्त करेगा जो साधु के जाल में फँसी हैं। इशिता ने भी महसूस किया कि यह सिर्फ़ शोध का विषय नहीं रहा, बल्कि इंसानी पीड़ा और न्याय से जुड़ा मामला बन चुका है। भोलाराम, जो अब तक सबसे ज़्यादा डरा हुआ था, भी पहली बार गंभीर होकर बोला—“बाबूजी, अब समझ आया कि आप क्यों आए हैं। ये साधु सच है, मैंने भी कई बार उसके मायाजाल की परछाइयाँ देखी हैं। लेकिन सावधान रहना, यह खेल मौत से खेलने जैसा है।” उनकी बातचीत के बाद वातावरण और भी गंभीर हो गया। अर्जुन ने दूर पहाड़ों की चोटियों की ओर देखा, जहाँ धुंध धीरे-धीरे गहराती जा रही थी। उसे ऐसा लगा मानो धुंध के पीछे कोई आँखें उन्हें घूर रही हों। इशिता ने अपने ग्रंथ के पन्ने पलटे और धीरे से कहा—“ये वही जगह है जहाँ सत्य और असत्य की लड़ाई होगी।” यात्रा अब सिर्फ़ गुफा तक पहुँचने की कोशिश नहीं रही, बल्कि आत्माओं की पुकार सुनने और उनके लिए इंसाफ़ दिलाने का संकल्प बन चुकी थी।

सूरज ढलते-ढलते पहाड़ों पर धुंध का चादर-सा फैलने लगा था। बर्फ़ीली हवा इतनी तीव्र थी कि पेड़ों की डालियाँ चीख़ रही हों, मानो वे भी यात्रियों को चेतावनी दे रही हों। अर्जुन, इशिता और भोलाराम अब उस क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे जिसे स्थानीय लोग “मौन घाटी” कहते थे—क्योंकि वहाँ न पक्षियों की आवाज़ सुनाई देती थी और न ही जानवरों की। सिर्फ़ हवाओं की गूँज और दिल की धड़कनें। भोलाराम बार-बार पीछे मुड़कर देखता और फुसफुसाकर कहता, “बाबूजी, अब हम बहुत करीब आ गए हैं।” उनकी थकी हुई देह ने एक समतल जगह देखकर रात के लिए डेरा डालने का निश्चय किया। ठंडी हवा के बीच अलाव जलाया गया, पर उसकी गर्मी भी जैसे उस सर्द खामोशी को भेद नहीं पा रही थी। अर्जुन, जो दिनभर की यात्रा से थका हुआ था, सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन जैसे ही उसकी आँखें भारी हुईं, कानों में एक अजीब-सी आवाज़ घुसने लगी—धीमी, दर्द से भरी और कांपती हुई: “बचाओ… बचाओ…”। पहले उसे लगा कि यह कोई सपना है, लेकिन आवाज़ बार-बार गूँज रही थी, कभी दूर से, कभी उसके बिल्कुल पास से। उसने अचानक आँखें खोलीं और इधर-उधर देखा, पर चारों ओर सिर्फ़ अंधेरा और धुंध ही था।

अर्जुन ने काँपते हाथों से इशिता को जगाया और धीमे स्वर में बोला, “क्या तुमने सुना? कोई मदद माँग रहा है।” इशिता ने ध्यान लगाया, लेकिन उसे सिर्फ़ हवा की सनसनाहट सुनाई दी। फिर भी अर्जुन का चेहरा देखकर उसने महसूस किया कि यह उसकी कल्पना मात्र नहीं हो सकती। उसने तुरंत अपना प्राचीन ग्रंथ खोला और उन पन्नों को पलटने लगी, जिनमें काले तंत्र और मायावी शक्तियों का वर्णन था। कुछ देर बाद उसने गंभीर स्वर में कहा, “अर्जुन, ये साधारण आवाज़ें नहीं हैं। ग्रंथों में लिखा है कि जो साधु काले तंत्र में सिद्ध हो जाता है, वह आत्माओं को अपने अधीन कर सकता है। उनकी चीखें और पुकार वह हवा के ज़रिए बाहर भेजता है, ताकि जीवित लोग उसकी ओर खिंच आएँ। यह उसके मायाजाल का हिस्सा है।” अर्जुन का दिल धड़कने लगा। क्या यह सचमुच उन गुमशुदा यात्रियों और चरवाहों की आत्माओं की आवाज़ थी, जिनका किस्सा उन्होंने सुना था? भोलाराम, जो अब तक चुप था, अचानक काँपते स्वर में बोला, “हाँ बाबूजी, मैंने भी ये आवाज़ें सुनी हैं… कई साल पहले। उसी के बाद से मैं इस इलाके से दूर रहने लगा।” उसकी आँखों में डर की परछाई साफ़ झलक रही थी। अलाव की लौ डगमगा रही थी, जैसे हवा भी इन आवाज़ों से विचलित हो रही हो।

रात का अंधेरा और गहराता गया और उन आवाज़ों की तीव्रता भी बढ़ने लगी। कभी एक महिला की चीख़, कभी बच्चे की सिसकी, कभी पुरुष की घुटी हुई पुकार—मानो सैकड़ों आत्माएँ एक साथ मदद के लिए पुकार रही हों। अर्जुन की आँखों में अब डर की जगह एक दृढ़ चमक आ गई। उसने मन ही मन ठान लिया कि चाहे यह मायाजाल हो या असली आत्माएँ, वह इस रहस्य की जड़ तक पहुँचेगा। इशिता ने ग्रंथ बंद किया और धीमे स्वर में कहा, “हमें सतर्क रहना होगा। यह साधु हमें हमारी कमजोरी दिखाकर फँसाना चाहता है। अगर हमने अपने मन पर काबू खो दिया, तो हम भी उसी के शिकार हो जाएँगे।” अर्जुन ने सिर हिलाया और अलाव की लौ को देखते हुए मन ही मन प्रतिज्ञा की। दूर पहाड़ों के बीच कहीं एक चमकदार रोशनी टिमटिमा रही थी—शायद वही गुफा, जहाँ सदियों से काले साधु का वास था। हवा और ठंडी हो गई थी, लेकिन उस ठंड के बीच अर्जुन के दिल में आग जल उठी थी। अब यह यात्रा सिर्फ़ जिज्ञासा नहीं, बल्कि सत्य और आत्माओं के उद्धार की लड़ाई बनने जा रही थी।

सुबह की हल्की धूप बर्फ़ से ढकी चोटियों पर चमक रही थी, लेकिन घाटी में उतरते ही धूप मानो गायब हो गई। वातावरण भारी और ठंडा हो गया था। पेड़ों की डालियों पर जमी बर्फ़ टपककर ज़मीन से टकरा रही थी, पर उसकी आवाज़ भी भयावह लग रही थी। अर्जुन, इशिता और भोलाराम कई घंटे पैदल चलते हुए आखिरकार उस जगह पहुँचे, जहाँ पहाड़ की चट्टानों के बीच काली दरार जैसी आकृति दिखाई दे रही थी। वही थी वह गुफा—“काले साधु का निवास।” गुफा का द्वार देखकर तीनों के कदम ठिठक गए। उसकी ऊँचाई और चौड़ाई किसी मंदिर जैसी थी, परंतु वहाँ देवत्व की कोई छाया नहीं थी। पत्थरों पर उकेरे गए अजीब निशान—त्रिकोण, उल्टे चिह्न और लाल रंग से बने तांत्रिक चक्र—स्पष्ट कर रहे थे कि यह स्थान साधारण गुफा नहीं, बल्कि तंत्र साधना की प्रयोगशाला था। द्वार के दोनों ओर अस्थियों से बनी संरचनाएँ खड़ी थीं—मानो वे प्रहरी हों। इंसानी खोपड़ियाँ पत्थरों में गड़ी हुई थीं और उनके बीच से बर्फ़ की बूंदें टपककर ऐसा आभास दे रही थीं जैसे वे खून के आँसू रो रही हों। हवा के साथ आती सड़ी गंध ने वातावरण को और भी डरावना बना दिया था। अर्जुन ने काँपते हाथ से दीवार को छुआ और धीमे स्वर में बोला, “यही है… सदीयों से छुपा हुआ सत्य का द्वार।”

भोलाराम का चेहरा पीला पड़ चुका था। उसकी आँखें खोपड़ियों और निशानों को देखकर भय से फैल गई थीं। उसके होंठ काँपते हुए बोल उठे, “बाबूजी… अब लौट चलो। ये जगह इंसानों के लिए नहीं है। यहाँ कदम रखना मौत को बुलाना है।” उसका स्वर इतनी घबराहट से भरा था कि वह खुद को सँभाल भी नहीं पा रहा था। उसने अर्जुन और इशिता के हाथ पकड़ने की कोशिश की, मानो उन्हें पीछे खींच लेना चाहता हो। लेकिन अर्जुन की आँखों में अब डर की जगह जिद और दृढ़ निश्चय साफ़ झलक रहा था। उसने भोलाराम की ओर देखते हुए कहा, “अगर हम यहाँ से लौट गए, तो ये रहस्य हमेशा अंधेरे में दबा रहेगा। उन आत्माओं का क्या जो मदद माँग रही हैं? क्या हम उनकी पुकार को अनसुना कर देंगे?” इशिता ने भी अपने स्वर में दृढ़ता लाते हुए कहा, “भोलाराम, मैं जानती हूँ यह जगह खतरनाक है। परंतु जो ज्ञान मैंने ग्रंथों में पढ़ा है, वो कहता है कि सत्य का सामना करना ही मुक्ति का मार्ग है। अगर हम यहाँ नहीं गए, तो काले साधु का आतंक कभी ख़त्म नहीं होगा।” उनके शब्दों ने अर्जुन की दृढ़ता को और मजबूत कर दिया, पर भोलाराम का डर भी उतना ही गहरा होता गया। उसने काँपते हाथों से माथे पर ताबीज़ को कसकर पकड़ लिया और पीछे हटने लगा।

गुफा का द्वार उनके सामने था—काला, मौन और भयावह। अंदर से आती ठंडी हवा में एक अजीब-सी गंध थी, जैसे किसी ने सदियों से मृत्यु को कैद कर रखा हो। गुफा के अंधेरे में झाँकने पर सिर्फ़ अनंत स्याही दिखाई देती थी, मानो वहाँ कोई प्रकाश कभी प्रवेश ही न कर सका हो। अर्जुन ने टॉर्च निकाली, लेकिन रोशनी अंदर जाते ही निगल ली गई, जैसे वहाँ का अंधेरा सामान्य अंधेरे से कहीं अधिक गाढ़ा और जीवित हो। इशिता ने प्राचीन मंत्रों का स्मरण करते हुए अपने कंधे पर झोला कसकर बाँधा और अर्जुन की ओर देखते हुए कहा, “अब हमें लौटने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह वही जगह है, जहाँ हमारी परीक्षा शुरू होगी।” अर्जुन ने एक गहरी साँस ली और आगे कदम बढ़ाया। भोलाराम पीछे खड़ा काँपता रहा, उसकी आँखों से आँसू बह निकले। उसने आखिरी बार कोशिश करते हुए कहा, “बाबूजी, मेरी मानो… वापस चलो। गुफा के अंदर जाने वाले कभी लौटे नहीं।” लेकिन अर्जुन और इशिता ने बिना जवाब दिए अपने कदम उस अंधकार की ओर बढ़ा दिए। गुफा का द्वार अब उनके सामने सिर्फ़ एक प्रवेश नहीं, बल्कि मृत्यु और सत्य के बीच खींची लकीर बन चुका था। उनकी परछाइयाँ बर्फ़ पर लंबी होती चली गईं और धीरे-धीरे वे उस गुफा के अनंत अंधेरे में विलीन हो गए।

गुफा में जैसे ही अर्जुन और इशिता ने कदम रखा, ठंडी हवाओं की तेज़ लहरें उनकी पीठ से टकराईं और भीतर का अंधकार मानो किसी जीवित प्राणी की तरह उन्हें निगलने लगा। दीवारों पर चमगादड़ों की आवाज़ें गूंज रही थीं, और सीलन से भरी हवा उनके सांसों को भारी बना रही थी। अर्जुन के हाथ में टॉर्च थी, पर उसकी किरणें इतनी गहरी काली धुंध में खो रही थीं कि सामने कुछ फीट से ज़्यादा दिखाई ही नहीं देता था। दोनों धीमे-धीमे आगे बढ़ रहे थे कि अचानक अर्जुन ठिठक गया—उसकी आंखें फैल गईं और होंठ कांपने लगे। अंधेरे में, एक चट्टान पर, उसे अपने मृत पिता खड़े नज़र आए। पिता की वही मुस्कान, वही गहरी आंखें, और वही हाथ का इशारा जैसे वह वर्षों पहले करते थे। अर्जुन के भीतर का सारा भय एक पल को पिघल गया और आंखों से आंसू छलकने लगे। वह आगे बढ़ना चाहता था, पर तभी इशिता ने उसका हाथ कसकर पकड़ा। इशिता की आंखें भी उसी क्षण भय से चौड़ी हो गईं—क्योंकि उसके सामने उसकी माँ का चेहरा उभर आया था, जो कई साल पहले एक दुर्घटना में चल बसी थी। माँ वही पुराना आसमानी रंग का सलवार-कुर्ता पहने, हाथ फैलाए उसे अपनी ओर बुला रही थी। इशिता का दिल धड़क-धड़क कर उसके कानों में गूंज रहा था। दोनों एक साथ समझ गए कि यह वास्तविक नहीं हो सकता, यह कोई छलावा है। गुफा की नमी और ठंडी हवा के बीच, दोनों ने महसूस किया कि कोई शक्ति उनके दिमाग से खेल रही है।

अर्जुन के पिता की छवि ने अचानक बोलना शुरू किया—“बेटा, मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था। मेरे पास आओ, मुझे मुक्त करो।” उनकी आवाज़ में वही स्नेह था जिसे अर्जुन बचपन से तरसता रहा। उधर इशिता की माँ ने कहा—“बेटी, तू क्यों अकेली भटक रही है? चल मेरे पास, मैं तुझे कभी दुखी नहीं होने दूंगी।” दोनों की आत्माएं जैसे सच में मौजूद थीं, उनकी हर बात अर्जुन और इशिता के दिल को चीर रही थी। लेकिन तभी गुफा की दीवारों से एक धीमी हंसी गूंज उठी—गहरी, खुरदरी, और डरावनी। वह आवाज़ साधु की थी, जो छिपकर उनके भावनाओं को नियंत्रित कर रहा था। हवा और भी ठंडी हो गई, और दीवारों पर छायाएं नाचने लगीं। अर्जुन ने महसूस किया कि उसके पिता की छवि धीरे-धीरे लंबी और भयानक होती जा रही है, आंखें लाल हो रही हैं, और चेहरा डरावने विकृत रूप में बदल रहा है। इशिता ने भी देखा कि उसकी माँ का चेहरा अचानक झुर्रियों से भर गया, आँखों से खून बहने लगा और हाथों की उंगलियाँ पंजों जैसी तेज़ हो गईं। दोनों को एहसास हुआ कि अगर वे इन माया-रूपों को सच मान बैठे, तो यह माया उन्हें निगल जाएगी। गुफा की छत से जल की बूंदें टपक रही थीं, जो अब उन्हें किसी घड़ी की टिक-टिक जैसी सुनाई दे रही थीं—जैसे समय तेजी से खत्म हो रहा हो।

अर्जुन ने जोर से आंखें बंद कीं और दबी आवाज़ में मंत्र-जैसे शब्द दोहराए, जो उसके पिता ने कभी उसे डर भगाने के लिए सिखाए थे। इशिता ने भी अपने कान बंद कर गहरी सांसें लीं और मन में यह दोहराने लगी—“ये सब छल है, ये सब छल है।” तभी साधु की हंसी और तेज़ हो गई, और पूरी गुफा मानो कांप उठी। हवा का दबाव इतना बढ़ गया कि टॉर्च जमीन पर गिर गई और उसकी रोशनी बार-बार टिमटिमाने लगी। लेकिन उसी टिमटिमाहट में अर्जुन और इशिता ने देखा कि माया-रूप धीरे-धीरे धुंध में बदल रहे हैं और उनका अस्तित्व मिट रहा है। साधु का जादू टूटने लगा था, क्योंकि वह जानता था कि जब तक इंसान डर के आगे झुकता है तभी उसकी माया काम करती है। अर्जुन और इशिता ने एक-दूसरे का हाथ कसकर पकड़ा और आगे बढ़ गए, जैसे अपने साहस से उस भ्रम को चीर रहे हों। गुफा के भीतर अब भी अंधकार था, लेकिन हवा का दबाव थोड़ा हल्का पड़ गया। दूर से अब भी साधु की आवाज़ आ रही थी—“तुम्हें लगता है कि तुम बच गए? ये तो बस शुरुआत है।” उनकी रूह कांप उठी, पर इस बार उनके कदम और भी दृढ़ थे। वे समझ चुके थे कि साधु का मायाजाल केवल भय और भावनाओं पर चलता है, और अगर उनका विश्वास अडिग रहा, तो कोई भी भ्रम उन्हें रोक नहीं पाएगा। गुफा की दीवारें अब भी रहस्यमयी थीं, लेकिन उनके दिलों में पहली बार हिम्मत की रोशनी जग चुकी थी।

गुफा के भीतर कदम रखते ही चारों ओर फैली नमी और घुप्प अंधेरे ने वातावरण को बोझिल बना दिया। पत्थरों से टकराकर लौटती हवा की सीटी मानो किसी अदृश्य चेतावनी की तरह गूँज रही थी। धीरे-धीरे जब उनकी आँखें अंधेरे की आदत डालने लगीं, तब उन्हें भीतर से आती हल्की-सी कराहें सुनाई दीं। वह आवाज़ किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि सैकड़ों गले से फूट रही थी, मानो कोई अदृश्य भीड़ उनके चारों ओर कैद हो। कराह के साथ-साथ धुंध की परतें गाढ़ी होने लगीं और अचानक उन परछाइयों ने आकार लेना शुरू किया। अधमरी रौशनी में उन आकृतियों के चेहरे दिखने लगे—कुछ बूढ़े, कुछ जवान, कुछ औरतें, तो कुछ बच्चे। उनकी आँखों में दर्द, बेबसी और असहायता की एक ही भाषा थी। वे आवाज़ें गूँजने लगीं, “हमें मुक्त करो… हमें इस श्राप से बाहर निकालो।” साहसी होकर अंदर घुसने वाले यात्रियों की रीढ़ में ठंडक दौड़ गई। किसी ने भय से काँपते हुए कहा, “ये सब तो यहाँ फँसी आत्माएँ हैं!” तभी एक धुंधली आकृति आगे बढ़ी, उसका चेहरा झुलसा हुआ था और आँखें गड्ढों में धँसी हुई। उसने काँपती आवाज़ में कहा, “साधु ने हमारे प्राण चूस लिए हैं, हमारी आत्माएँ इसी अंधेरे में कैद हैं। जब तक उसका ‘काला दीपक’ जल रहा है, तब तक उसका वध असंभव है। वही दीपक उसे शक्ति देता है, वही उसकी अमरता का कारण है। अगर तुममें साहस है, तो उस दीपक को बुझाओ।”

उन शब्दों के साथ ही गुफा के भीतर की हवा भारी हो गई। जैसे ही आत्माओं की भीड़ आगे-पीछे हिलने लगी, वातावरण में एक अजीब करुणा फैल गई। हर आत्मा किसी न किसी तरीके से अपनी व्यथा सुनाने लगी—किसी ने बताया कि वह एक साधारण ग्रामीण था जिसे साधु ने बलि में चढ़ा दिया, किसी ने कहा कि वह एक यात्री था जिसे गुफा के बाहर लुभाकर अंदर ले आया गया। हर कहानी रोंगटे खड़े कर देने वाली थी, और हर चेहरा इस बात का सबूत था कि साधु का आतंक वर्षों से इस धरती पर छाया हुआ है। यात्रियों ने समझ लिया कि यह साधु कोई साधारण तांत्रिक नहीं, बल्कि उस काले दीपक से मिली शक्ति के सहारे एक दानव बन चुका है। आत्माओं ने इशारा किया कि दीपक हमेशा गुफा की गहराई में एक चबूतरे पर रखा रहता है, जिसे कभी बुझाया नहीं गया। अगर कोई उसकी लौ तक पहुँचे, तो साधु की शक्ति क्षीण हो जाएगी और उसका वध संभव होगा। मगर, उसके पास पहुँच पाना आसान नहीं था। धुंध के बीच से आत्माओं ने यह भी बताया कि दीपक की रक्षा के लिए साधु ने अनेकों भ्रमजाल और भूतिया रक्षक बनाए हैं, जो हर उस व्यक्ति को भटका देते हैं जो उसके पास जाने की कोशिश करता है। तभी अचानक एक तेज़ हवा का झोंका गुफा में गूँजा और सभी आत्माएँ चीख उठीं। दीवारों पर परछाइयाँ काँपने लगीं, मानो किसी ने उनके रहस्य प्रकट कर दिए हों। यात्रियों को अहसास हुआ कि साधु को अब उनके इरादों की भनक लग चुकी है।

भय और साहस की इस घड़ी में उन्होंने तय किया कि आत्माओं की पुकार को अनसुना नहीं किया जा सकता। अगर वे पीछे हटे, तो यह गुफा हमेशा के लिए मृत्यु का कारागार बनी रहेगी। धीरे-धीरे उन आकृतियों ने यात्रियों को एक मार्ग दिखाया—एक सँकरी पगडंडी, जिस पर अंधेरा इतना गाढ़ा था कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था। आत्माओं ने कहा, “हम तुम्हारे साथ हैं, जब तक तुम दीपक तक पहुँचो।” उनकी करुण चीखें अब एक स्वर में बदलकर जैसे प्रार्थना बन चुकी थीं। गुफा की दीवारें काँप रही थीं, मानो भीतर की चुप्पी भी उस रहस्य को जानती हो। यात्रियों ने दिल थामकर आगे बढ़ना शुरू किया। हर कदम पर किसी अजनबी के रोने की आवाज़, किसी बच्चे की चीख, किसी औरत की विलाप सुनाई देती रही। यह भय का संसार था, मगर साथ ही उम्मीद का भी कि अगर दीपक बुझा, तो यह सब आत्माएँ मुक्त हो जाएँगी। अंधेरे के बीच चलते हुए उन्हें ऐसा लगा जैसे वे साधारण मनुष्य नहीं, बल्कि किसी अनदेखी युद्धभूमि के सैनिक बन चुके हैं। हर धड़कन, हर सांस में बस एक ही संकल्प था—उस काले दीपक को बुझाना ही होगा। तभी गुफा के एक मोड़ पर पहुँचकर उन्होंने दूर से पहली बार उस दीपक की हल्की झिलमिलाहट देखी। काली लौ मानो उन्हें ललकार रही थी, और गुफा की आत्माएँ अब और भी ज़ोर से पुकार रही थीं—“जल्दी करो, हमें मुक्ति दो!”

गुफा की गहराइयों से उतरते हुए अर्जुन, इशिता और भोलाराम एक चौड़े गर्भगृह में पहुँचे। वहाँ की हवा पहले से कहीं ज्यादा भारी और सड़ी-गली गंध से भरी थी, मानो सदियों से मृत आत्माओं की चीखें उसमें घुली हों। सामने अंधकार के बीच एक विशाल चबूतरा खड़ा था, जिस पर टिमटिमाता हुआ काला दीपक जल रहा था। उसकी लौ साधारण नहीं थी; वह काली और बैंगनी आभा में जल रही थी, और उससे निकलती ऊर्जा पूरे कक्ष में एक भयावह कंपन फैला रही थी। तभी अचानक पूरा गर्भगृह कांप उठा और धुएँ के बीच एक काली छाया उभरने लगी। धीरे-धीरे वह छाया एक भयानक साधु के रूप में बदल गई। उसका शरीर दुबला-पतला मगर लम्बा और हड्डियों से भरा था, उसकी आँखें अंगारों की तरह लाल जल रही थीं, और उसके शरीर पर राख और सूखी खाल लिपटी हुई थी। उसने गहरी हँसी हँसी, जिससे गुफा की दीवारें गूंज उठीं। उसकी आवाज़ गहरी और खुरदरी थी—“तुम्हें लगता है कि तुम मेरे दीपक तक पहुँच सकते हो? मैं अमर हूँ। कोई मनुष्य मुझे नहीं हरा सकता।” अर्जुन और इशिता ने एक-दूसरे की ओर देखा, उनके चेहरों पर भय तो था, मगर उसके नीचे संकल्प की लकीरें और गहरी हो गई थीं। परंतु भोलाराम का साहस टूट चुका था। उसने काँपते हुए कहा, “यह तो देवताओं के भी बस का नहीं… मैं नहीं रह सकता यहाँ।” और वह चीखते हुए बाहर की ओर भाग पड़ा, उसकी परछाईं जल्दी ही अंधेरे में गुम हो गई।

साधु ने अपनी आँखें आधी बंद कीं और हाथ हवा में उठाया। अचानक चारों ओर से काली धुंध उठने लगी और उसके बीच से विकृत आकृतियाँ निकलने लगीं—मानव जैसी लेकिन झुकी हुई पीठ, लंबे पंजे, और खून से लथपथ मुँह। ये साधु के बनाए हुए रक्षक थे, जो किसी भी इंसान की आत्मा को जकड़ सकते थे। वे दहाड़ते हुए अर्जुन और इशिता की ओर बढ़ने लगे। अर्जुन ने टॉर्च उठाई और उसकी तेज़ रोशनी उनके ऊपर डाली, जिससे कुछ क्षण के लिए वे पीछे हटे। इशिता ने अपने बैग से पुराना तांत्रिक ग्रंथ निकाला, जिसमें प्राचीन संस्कृत श्लोक लिखे थे। उसने कांपती आवाज़ में पढ़ना शुरू किया—“ॐ त्र्यम्बकं यजामहे…” साधु क्रोधित होकर गरजा, “ये मन्त्र मुझे रोक नहीं सकते, मेरी शक्ति इस लौ से है!” उसकी आँखों से आग की लपटें फूटीं और ज़मीन फटने लगी। अर्जुन को अपने पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती महसूस हुई, पर उसने इशिता का हाथ कसकर पकड़ लिया। साधु ने भ्रम पैदा करने की कोशिश की—उसने फिर से अर्जुन के पिता और इशिता की माँ के रूप धारण कर लिए। मगर इस बार दोनों तैयार थे। उन्होंने आँखें बंद करके मन ही मन आत्माओं की पुकार याद की, जिसने उन्हें सच्चाई बताई थी। अर्जुन ने जोर से कहा—“तेरी शक्ति दीपक से है, तुझसे नहीं। तू डर दिखाकर ही जीता है।” साधु एक पल के लिए हिचकिचाया, लेकिन तुरंत फिर गरजा और उनके चारों ओर आग का गोला फैला दिया।

अब युद्ध की घड़ी आ चुकी थी। गर्भगृह में साधु का अट्टहास गूंज रहा था और काला दीपक और भी प्रचंडता से जलने लगा। उसकी लपटें मानो जीती-जागती आत्माओं की तरह फड़फड़ा रही थीं। अर्जुन ने साहस बटोरा और साधु की ओर बढ़ते हुए कहा, “अगर तू अमर है, तो यह आत्माएँ क्यों चीख रही हैं? तू उनका मालिक नहीं, बल्कि उनका कैदी है।” साधु ने हाथ फैलाकर उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन तभी इशिता ने मंत्रोच्चार की गति तेज़ कर दी। उसके शब्द गुफा की दीवारों से टकराकर गूंजने लगे और साधु की शक्ति डगमगाने लगी। वह गरजते हुए बोला—“चुप रहो! ये आवाज़ें मुझे कमजोर कर रही हैं।” तभी दीपक की लौ और तेज़ चमकी और साधु उसके सामने खड़ा होकर बोला—“अगर यह बुझ गया, तो मेरा अंत हो जाएगा। लेकिन कोई मनुष्य इसकी लौ छूकर जिंदा नहीं रह सकता।” अर्जुन और इशिता का दिल धड़क उठा। उन्हें पता था कि अब फैसला उसी क्षण होगा। साधु उनके चारों ओर घेराव करने लगा, उसकी परछाइयाँ दीवारों पर फैलकर उन्हें जकड़ने लगीं। लेकिन दोनों के भीतर अब डर नहीं था। आत्माओं की करुण पुकार उनके कानों में गूंज रही थी—“हिम्मत करो, दीपक बुझाओ!” अर्जुन ने एक गहरी सांस ली और साधु की आँखों में देखते हुए आगे बढ़ा। इशिता उसके पीछे मंत्र पढ़ती रही। साधु ने अंतिम बार गरजकर कहा—“तुम मुझे नहीं हरा सकते, मैं अमर हूँ!” लेकिन गर्भगृह की हवा अब खुद उनके पक्ष में बह रही थी, मानो आत्माएँ उन्हें शक्ति दे रही हों। साधु और अर्जुन आमने-सामने खड़े थे, और उनके बीच में जल रहा था वह काला दीपक—जिस पर इस पूरे युद्ध का अंत निर्भर था।

अर्जुन ने साधु की आंखों में सीधे झांका, जहां एक गहरी काली ज्वाला सुलग रही थी। कमरे में केवल “काला दीपक” की लौ जल रही थी, जो भय और मृत्यु की ठंडी छाया फैला रही थी। हवा में धुएँ और गंधक की तीखी गंध भर गई थी, जैसे कोई अदृश्य शक्ति हर श्वास को रोकने पर आमादा हो। साधु ने अपनी झूठी मुस्कान के साथ अर्जुन पर वार किया—एक ऐसा वार जो हवा को चीरता हुआ सीधा उसके सीने की ओर आया। अर्जुन ने ढाल उठाई, और टकराते ही एक विस्फोट-सा हुआ, जिससे दीवारें कांप उठीं। उसी क्षण, इशिता ने कांपते हाथों से पुराने ग्रंथ खोले और उस मंत्र का उच्चारण शुरू किया जिसे उन्होंने घंटों खोजने के बाद समझा था। उसकी आवाज़ शुरू में धीमी और डर से भरी हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे वह गूंजने लगी, जैसे मंदिर की घंटियों की ध्वनि गहरी खामोशी को चीर रही हो। साधु चीखा—उसकी आवाज़ में घृणा और पीड़ा की मिलीजुली गूंज थी—“यह मंत्र मेरी शक्ति को नहीं रोक सकता!” लेकिन उसके शब्दों के पीछे एक डर साफ झलक रहा था। अर्जुन ने तुरंत अवसर लिया, तलवार को साधु की ओर घुमाते हुए आगे बढ़ा। साधु ने हाथ फैलाकर एक भयानक आभा पैदा की, जिससे अर्जुन का पूरा शरीर पीछे की ओर धकेल दिया गया। लेकिन इशिता का मंत्र लगातार तेज़ होता जा रहा था। हर अक्षर जैसे उस काले दीपक की लौ को हिलाने लगा, और हर शब्द साधु की शक्ति को कमजोर करने लगा।

दीपक की लौ अचानक डगमगाने लगी, जैसे हवा का झोंका उसे बुझा देने वाला हो। साधु की त्वचा पर दरारें दिखने लगीं, और उसका चेहरा एक विकृत, कुरूप रूप में बदलने लगा—उसकी असली पहचान प्रकट हो रही थी। वह अब इंसान नहीं दिख रहा था, बल्कि जैसे किसी अधजले राक्षस की आत्मा इंसानी शरीर में कैद हो। उसकी आंखें गड्ढों में धंस गईं, और उसका चेहरा पिघलती मोम की तरह टपकने लगा। उसने चीखते हुए इशिता की ओर छलांग लगाई, लेकिन अर्जुन ने पूरे जोर से तलवार का वार किया और उसे पीछे धकेल दिया। झगड़ा अब मौत और जीवन की आखिरी जंग में बदल चुका था। कमरे की दीवारें हिलने लगीं, छत से पत्थर टूटकर गिरने लगे। इशिता ने बिना रुके मंत्र पढ़ते हुए दीपक की ओर ध्यान केंद्रित किया। मंत्र के शब्द कमरे में गूंजते हुए बिजली की तरह गिरे, और दीपक की लौ हर बार कांपती रही। साधु का शरीर अब धीरे-धीरे राख की तरह टूटने लगा, उसकी शक्ति खत्म हो रही थी। लेकिन आखिरी कोशिश में उसने एक भयानक गर्जना करते हुए दोनों हाथ फैलाए, जिससे चारों ओर काले धुएँ का तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। अर्जुन ने अपनी आंखें ढक लीं, लेकिन अपने कदम पीछे नहीं खींचे। उसने उस अंधेरे को चीरते हुए आगे बढ़कर साधु पर वार किया, और उसी क्षण इशिता के मंत्र की गूंज अंतिम स्वर तक पहुंच गई।

दीपक अचानक ज़ोरदार धमाके के साथ बुझ गया। पूरे कमरे में अंधकार छा गया, लेकिन यह अंधकार अब शून्य और शांति का था—भय का नहीं। साधु की चीख अंतिम बार गूंजी और उसका शरीर राख की तरह बिखरकर हवा में विलीन हो गया। कमरे का कंपन थम गया, धूल और धुआं धीरे-धीरे बैठने लगा। अर्जुन हांफते हुए ज़मीन पर घुटनों के बल गिर पड़ा, उसकी तलवार अब मंद प्रकाश में चमक रही थी। इशिता ने कांपते हाथों से ग्रंथ बंद किया और दीपक की बुझी हुई राख को देखा, जैसे उसकी आंखों से विश्वास ही नहीं हो रहा हो कि इतना बड़ा शाप सचमुच खत्म हो चुका है। लेकिन उसकी आंखों में राहत और गर्व की झलक भी थी। अर्जुन ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा और कहा—“तुम्हारे बिना यह असंभव था।” इशिता ने बस हल्की मुस्कान दी, लेकिन उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। कमरे में अब एक अजीब-सी शांति थी, जैसे सदियों से दबी हुई कोई आत्मा आखिरकार मुक्त हो गई हो। दूर कहीं से सुबह की किरणें दरवाजे की दरार से अंदर आ रही थीं, जैसे यह बताने कि रात का अंधेरा सचमुच समाप्त हो चुका है। दोनों जानते थे कि उनकी लड़ाई आसान नहीं थी, लेकिन अब यह आखिरी संघर्ष जीतकर उन्होंने केवल अपने लिए नहीं, बल्कि पूरे गांव के लिए मुक्ति हासिल की थी।

१०

गुफा में दीपक बुझते ही एक अजीब-सी निस्तब्धता छा गई। साधु की चीख अचानक थम गई और उसका विशाल, विकृत शरीर राख बनकर ज़मीन पर बिखर गया। कुछ क्षण तक केवल पत्थरों के गिरने और धूल के बैठने की आवाज़ें सुनाई देती रहीं। फिर अचानक हवा बदलने लगी—जहाँ अभी तक ठंड और भय का जकड़न भरा माहौल था, वहाँ अब हल्की-सी गर्माहट और शांति उतरने लगी। धीरे-धीरे गुफा के अंधेरे में से धुंधली रोशन आकृतियाँ उभरने लगीं। ये वही कैद आत्माएँ थीं, जो वर्षों से साधु के मायाजाल में फँसी हुई थीं। उनके चेहरे पर अब भय की जगह राहत की झलक थी, उनकी आँखों में कृतज्ञता का उजाला चमक रहा था। वे अर्जुन और इशिता की ओर झुकीं, जैसे आशीर्वाद दे रही हों। उनकी कराहती आवाज़ें अब मधुर फुसफुसाहट में बदल गईं—“मुक्ति… अंततः मुक्ति…” और फिर एक-एक कर वे आत्माएँ आकाश में विलीन हो गईं। अर्जुन और इशिता उस दृश्य को स्तब्ध होकर देखते रहे, जैसे किसी स्वप्न से गुजर रहे हों। उनकी थकान और घावों के बावजूद उनके दिल में यह संतोष था कि उनका संघर्ष व्यर्थ नहीं गया। जब वे बाहर की ओर निकले तो देखा कि रात का अंधेरा छंट चुका है और पहाड़ों की चोटियों पर सूरज की पहली किरणें सुनहरी परत बिखेर रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति खुद उनकी जीत का स्वागत कर रही हो।

लेकिन उस विजय में एक अधूरापन था—भोलाराम का कोई पता नहीं था। जब वे गुफा के बाहर पहुँचे तो चारों ओर खोजबीन की, उसका नाम पुकारा, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। उसके पैरों के निशान भी बर्फ और धूल में गायब हो चुके थे। अर्जुन ने उदास स्वर में कहा, “शायद डर ने उसे पूरी तरह निगल लिया…” लेकिन इशिता चुप रही। उसके दिल में यह सवाल कौंध रहा था कि क्या भोलाराम साधु के मायाजाल का शिकार हो गया, या कहीं वही साधु की शेष शक्ति का नया वाहक तो नहीं बन गया। इन सवालों का कोई उत्तर नहीं था, और दोनों केवल गहरी चुप्पी में पहाड़ों की ओर देखते रहे। जब वे गाँव लौटे, तो लोगों ने उनका स्वागत ऐसे किया मानो देवताओं ने उन्हें भेजा हो। ढोल-नगाड़ों की आवाज़ गूंज उठी, और बच्चे उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। बुज़ुर्गों ने उन्हें माथे पर तिलक लगाया और कहा कि वे नायक हैं जिन्होंने गाँव को सदियों पुराने शाप से मुक्त किया है। लेकिन अर्जुन और इशिता दोनों जानते थे कि यह जीत जितनी चमकदार दिख रही है, उतनी सरल नहीं थी। उनके मन में सवाल और शंका अब भी जीवित थीं, जो शायद कभी पूरी तरह शांत नहीं होंगी।

गाँव में उत्सव की रात जब हर कोई उनके साहस का गुणगान कर रहा था, अर्जुन अकेले पहाड़ की ओर देख रहा था। उसके कानों में अब भी गुफा में गूंजती आत्माओं की चीखें सुनाई दे रही थीं। इशिता उसके पास आई और बोली, “कम से कम हमने एक लड़ाई जीत ली… लेकिन युद्ध शायद अभी पूरा नहीं हुआ।” अर्जुन ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में वही चिंता झलक रही थी जो अर्जुन के मन में थी। तभी अचानक, जैसे किसी ने उनके भय की पुष्टि कर दी हो, दूर पहाड़ की दूसरी गुफा से कराहती आवाज़ गूंज उठी—“बचाओ… बचाओ…” आवाज़ ठंडी हवा के साथ पूरे घाटी में फैल गई, और दोनों के दिल एक साथ धड़क उठे। क्या सचमुच साधु का अंत हो चुका था? या उसकी शक्ति किसी नए रूप में, किसी नए दीपक में, किसी नए साधन में जीवित थी? गुफाओं की अंधेरी गहराइयाँ जैसे उन्हें चुनौती दे रही थीं। गाँव की खुशियाँ अब उनके लिए एक नाजुक परत थीं, जिसके नीचे एक और भयावह रहस्य दबा हुआ था। पहाड़ की चोटियों पर बर्फ चमक रही थी, लेकिन उस चमक के भीतर कहीं गहरा अंधकार छिपा था। अर्जुन और इशिता जानते थे कि उनकी यात्रा अभी पूरी नहीं हुई—यह बस एक अध्याय का अंत था, और किसी नई दास्तान की शुरुआत।

समाप्त

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