वह रास्ता और वह लड़की
चाँदनी रात थी, लेकिन आकाश में बादलों की हल्की परतें तैर रही थीं। समय था रात के साढ़े नौ, जब राहुल और कबीर नैनीताल की ओर अपनी मारुति कार में चल रहे थे। दोनों दोस्त दिल्ली से वीकेंड ट्रिप पर निकले थे। हाईवे पर ट्रैफिक ज्यादा होने की वजह से कबीर ने एक शॉर्टकट लेने का सुझाव दिया—एक पुरानी, कम इस्तेमाल होने वाली सड़क जो जंगल के किनारे से होकर गुजरती थी।
“GPS तो यही दिखा रहा है, भाई। दस किलोमीटर बाद फिर से हाईवे पकड़ लेंगे,” कबीर ने आत्मविश्वास से कहा।
“तेरा GPS हमें यमराज के घर न पहुँचा दे,” राहुल ने मज़ाक किया, लेकिन उसकी आवाज़ में थोड़ी झिझक भी थी।
गाड़ी धीरे-धीरे उस संकरी और वीरान सड़क पर बढ़ने लगी। दोनों तरफ ऊँचे पेड़ जैसे रास्ते को निगल रहे थे। हेडलाइट की रोशनी पेड़ों की डालियों पर पड़ती तो अजीब-सी परछाइयाँ बनतीं, जो कभी-कभी मानवी आकृतियों जैसी लगती थीं।
“तूने नोटिस किया हवा अचानक ठंडी हो गई?” कबीर ने पूछा।
“और बहुत चुप भी,” राहुल ने जवाब दिया। “ना कोई जानवर, ना झींगुर की आवाज़।”
तभी गाड़ी में झटका लगा। इंजन गड़गड़ाया और फिर एकदम से बंद हो गया।
“अबे क्या हुआ?” कबीर घबरा गया।
राहुल ने कई बार चाबी घुमाई, लेकिन इंजन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। लाइटें जल रही थीं, लेकिन कार आगे बढ़ने से इंकार कर रही थी।
और तभी… सामने की सड़क पर एक आकृति दिखाई दी।
एक लड़की। सफेद लहंगा, खुले बाल, हाथ में फूलों की माला। वह एकदम स्थिर खड़ी थी, जैसे समय उसके चारों ओर थम गया हो। कोई हलचल नहीं, कोई घबराहट नहीं।
“ये कहाँ से आ गई?” कबीर की आवाज़ फुसफुसाहट में बदल गई।
“तू देख रहा है न वही जो मैं देख रहा हूँ?” राहुल की आवाज़ कांप रही थी।
लड़की की आँखें सीधे उनकी तरफ देख रही थीं, लेकिन उनमें कुछ भी नहीं था। न भाव, न डर, न उम्मीद। बस एक अजीब सी शून्यता।
फिर उसने धीरे-से हाथ उठाया और इशारा किया—“आओ…”
“चलो यहां से!” कबीर ने राहुल की बाजू पकड़ी। लेकिन राहुल, जैसे उस इशारे में बंध गया हो, कार से उतर गया।
“राहुल! पागल हो गया है?” कबीर भी पीछे-पीछे भागा।
लड़की जंगल की तरफ मुड़ी और चलने लगी। उसके कदम जमीन को छूते नहीं दिखते थे, जैसे हवा में बह रही हो। राहुल पीछे-पीछे चला और कबीर को भी मजबूरी में उसके साथ जाना पड़ा।
जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए, जंगल और घना होता गया। हरे पेड़ों की जगह अब काले-सफेद सूखे तने थे। पत्तियाँ नहीं थीं, सिर्फ शाखाएं थीं जो हवा में कांप रही थीं।
कुछ दूर जाकर लड़की एक पुराने पत्थर के कुएं के पास रुक गई। उसके चारों ओर काई जमी थी, पानी का कोई निशान नहीं था, लेकिन एक अजीब सड़ांध की गंध हवा में भर गई थी।
लड़की ने राहुल की ओर देखा।
“मैं नीरा हूँ…”
उसकी आवाज़ किसी पुराने टेप की तरह थी—धीमी, खड़खड़ाती हुई। जैसे कोई बात कई बार दोहराई गई हो।
“मेरा वादा अधूरा है…”
“कौन-सा वादा?” राहुल ने पूछा। उसकी आँखें अब भी लड़की में जमी थीं। जैसे उसकी चेतना पर कोई और नियंत्रण कर रहा हो।
“उसने कहा था वो लौटेगा… मैं इंतज़ार करती रही… और फिर… मैंने छोड़ दिया खुद को…”
कबीर ने राहुल को खींचा, “देख उसके पैर… वो जमीन पर नहीं है!”
नीरा के पैर सचमुच हवा में झूल रहे थे। और तभी, उसके चेहरे पर बदलाव आया।
उसकी आँखें अचानक काली हो गईं, होंठ नीले, और गालों पर काले धब्बे। बाल हवा में उड़ने लगे, और कुएं से एक भयानक चीख गूंजी।
कबीर चिल्लाया, “भाग!”
राहुल जैसे नींद से जागा। दोनों उल्टे पाँव दौड़े। पीछे-पीछे नीरा की कराहती आवाज़ आती रही—“तुमने वादा किया था… तुमने मुझे छोड़ा…”
जब वे वापस कार तक पहुँचे, तो अजीब बात हुई—कार अपने आप स्टार्ट थी। बिना कोई बटन दबाए, इंजन चल रहा था। जैसे कोई अदृश्य शक्ति उन्हें छोड़ रही थी।
वे चुपचाप कार में बैठे और जितनी तेज़ हो सके, वहाँ से निकल गए।
रास्ते भर न कोई बोला, न किसी ने म्यूज़िक ऑन किया। सिर्फ नीरा की आवाज़ उनके दिमाग में गूंजती रही।
“वो लौटेगा… वो जरूर लौटेगा…”
अधूरी दुल्हन की कहानी
राहुल और कबीर दोनों शहर लौट आए। लेकिन सड़क पर जो हुआ था, वह उनके ज़ेहन से मिट नहीं रहा था।
राहुल दिन-ब-दिन चुप रहने लगा। ऑफिस जाना छोड़ दिया। उसका ध्यान हर समय भटका रहता। रातों को वह खिड़की से बाहर एकटक देखता रहता, मानो कोई उसे पुकार रहा हो।
कबीर ने कई बार उससे बात करने की कोशिश की, लेकिन राहुल अक्सर कहता:
“मैंने उसे पहचान लिया था। वो कोई अनजान नहीं थी…”
कबीर जानता था कि कुछ करना होगा, वरना राहुल इस मानसिक खाई में खो जाएगा।
उसी हफ्ते, कबीर अकेले उस गाँव गया जो उस सुनसान सड़क के पास था। उसका नाम था चंद्रपुर। गाँव छोटा था, पर हर घर में एक कहानी थी—डर की, भूतों की, और सबसे ज़्यादा… नीरा की।
गाँव के मंदिर के पुजारी, पंडित वशिष्ठ, बूढ़े लेकिन सतर्क थे। उन्होंने कबीर को बैठाया और लंबी साँस लेकर कहा—
“तुम लोग नीरा को देख आए हो, है न?”
कबीर चौंका, “आपको कैसे पता?”
पंडित मुस्कराए नहीं। उनका चेहरा कठोर हो गया।
“हर पूर्णिमा की रात, जब चाँद पूरा होता है, नीरा उस कुएं के पास लौटती है। उसका इंतज़ार अब भी पूरा नहीं हुआ।”
कबीर ने पूछा, “वो कौन थी?”
● नीरा की कहानी:
नीरा त्रिपाठी, गाँव की सबसे सुंदर और पढ़ी-लिखी लड़की थी। उसके पिता, गोविंद त्रिपाठी, स्थानीय स्कूल के हेडमास्टर थे। नीरा बचपन से ही बड़ी समझदार, शांत और कला प्रेमी थी। उसका सपना था—शहर जाकर कॉलेज में पढ़ना और एक दिन खुद का स्कूल खोलना।
फिर गाँव में आया एक लड़का—अद्वैत कपूर। शहर से, अंग्रेज़ी बोलता, कैमरा लेकर घूमता। कहता था कि वो एक फोटोग्राफर है और गाँव की संस्कृति पर एक प्रोजेक्ट कर रहा है।
नीरा और अद्वैत की मुलाकातें हुईं। नीरा उसे गाँव घुमाने लगी। स्कूल, घाट, मंदिर, कुएं—हर जगह अद्वैत उसका साथ चाहता।
धीरे-धीरे उनके बीच दोस्ती, फिर प्रेम पनपा।
अद्वैत ने कहा—“तुमसे शादी करूंगा, नीरा। दिल्ली ले चलूँगा।”
नीरा ने मान लिया। उसका सपना था बाहर की दुनिया देखना, और अद्वैत ने मानो वो दरवाज़ा खोल दिया।
फिर एक रात—पूर्णिमा की ही रात—नीरा दुल्हन बनी। चुपचाप, छिपकर, वह कुएं के पास अद्वैत का इंतज़ार कर रही थी।
उसके हाथों में फूलों की माला थी। आँखों में सपना। दिल में वादा।
पर अद्वैत कभी नहीं आया।
● धोखा
अगले दिन गाँव में खबर फैली—नीरा कुएं में कूद गई।
कहते हैं, कुएं से निकलती थी एक कराह, एक चीख। लेकिन नीरा का शरीर कभी नहीं मिला। बस उसकी माला, और सफेद दुपट्टा।
गाँव के लोगों का मानना था कि नीरा अब चेतना नहीं, छाया बन चुकी थी।
एक अधूरी आत्मा, जो अब भी वादों का इंतज़ार कर रही है।
हर साल पूर्णिमा की रात, वो उसी रूप में दिखती—लहंगे में, माला लिए, और आँखों में वही सवाल—
“तुम लौटे क्यों नहीं?”
● वर्तमान में
कबीर यह सब सुनकर काँप उठा। लेकिन पंडित ने कहा—
“अगर कोई उसे मुक्त कर सके… तो वो है जिसने उसका वादा तोड़ा। या फिर, कोई जो वादों को निभाने का साहस रखता हो।”
कबीर लौट आया, राहुल को यह सब बताने।
पर राहुल घर में नहीं था।
उसका फोन बंद था। दीवार पर कुछ पेंट किया गया था—एक लड़की का स्केच। नीरा का।
टेबल पर एक चिट्ठी पड़ी थी:
“कबीर, मैं लौट रहा हूँ। शायद वो मुझसे कुछ कह रही थी, जो मैं उस रात समझ नहीं पाया। शायद… मैं ही वो हूँ जो लौटने वाला था।” कबीर समझ गया—राहुल उस सड़क पर वापस गया है।
लौटना और मोक्ष
राहुल की कार फिर उसी सुनसान सड़क पर जा रही थी।
आकाश में पूर्णिमा का चाँद चमक रहा था, लेकिन जंगल के ऊपर उसकी रोशनी जैसे डर से काँप रही थी। पेड़ों की परछाइयाँ सड़क पर नाच रही थीं। हवा अब भी भारी थी, ठंडी नहीं—गहरी। जैसे किसी के सांस लेने की आवाज़ उसके भीतर घुल रही हो।
राहुल अब डर में नहीं था। उलझन में था, मगर अंदर कहीं एक अजीब-सा सुकून भी। जैसे वो अपने किसी अधूरे हिस्से से मिलने जा रहा हो।
कार उसी जगह आकर अपने आप रुक गई।
इंजन बंद। हेडलाइटें बुझ गईं। और सामने खड़ी थी—नीरा।
वही लहंगा। वही माला। लेकिन इस बार उसकी आँखें नम थीं।
राहुल कार से उतरा और धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा। उसके हाथ काँप रहे थे, लेकिन कदम स्थिर थे।
“नीरा…” राहुल की आवाज़ थरथराई।
लड़की ने धीरे से सिर झुकाया।
“तुम क्यों बुला रही हो मुझे बार-बार?”
नीरा ने कुछ नहीं कहा। बस पीछे मुड़ी और वही पुराना रास्ता पकड़ लिया—जंगल की ओर।
राहुल भी चुपचाप उसके पीछे हो लिया।
पत्तियों की सरसराहट नहीं थी। सिर्फ पाँवों की हल्की आहटें। और फिर—वही कुआँ।
अब वह और भी पुराना लग रहा था, जैसे समय भी उसे भूल गया हो।
नीरा उसके पास खड़ी हुई और पहली बार मुस्कराई।
“तुम नहीं आए थे उस रात… लेकिन तुम लौटे हो।”
राहुल की आँखों से आँसू बहने लगे।
“मैं नहीं था वो… लेकिन फिर भी… पता नहीं क्यों, ऐसा लगता है जैसे मैं ही था। जैसे… कोई रिश्ता था तुमसे, बहुत पुराना।”
नीरा की आँखों में चमक थी।
“हर आत्मा अपना अधूरापन लेकर लौटती है। शायद तुम्हारे ज़रिए मुझे वो उत्तर चाहिए था।”
राहुल आगे बढ़ा, और वह माला उठाई जो कुएं की मुंडेर पर रखी थी।
“इस माला का क्या करूँ?” उसने पूछा।
नीरा ने कहा, “इस माला को जलाओ। और मेरा नाम लेकर मोक्ष मांगो। तब शायद मैं जा सकूँ।”
राहुल ने जेब से माचिस निकाली—अजीब बात थी, उसे खुद याद नहीं था कि वो कब लाई। लेकिन शायद कुछ बातें पहले से तय होती हैं।
उसने माला में आग लगाई। आग नीली थी। और जैसे ही उसका धुआँ उठने लगा, नीरा की आकृति हल्की होने लगी।
उसका चेहरा शांत हो गया। आँखों में करुणा, पर कोई पीड़ा नहीं।
“अब तुम जा सकते हो,” उसने कहा।
राहुल ने बढ़कर उसके माथे को छूने की कोशिश की, लेकिन उसकी उंगलियाँ हवा से टकराईं।
“हम फिर मिलेंगे?” राहुल ने पूछा।
नीरा ने मुस्कराकर कहा—
“जहाँ वादे पूरे होते हैं, वहाँ आत्माएँ नहीं लौटतीं।”
और फिर—वो धुएँ में विलीन हो गई।
● कुछ घंटे बाद:
कबीर दौड़ता हुआ उस स्थान पर पहुँचा। उसे डर था कि कहीं राहुल को कुछ हो न गया हो।
लेकिन वहाँ एक जलता हुआ दिया था, एक राख की माला, और पास में राहुल बैठा था—शांत, जैसे सैकड़ों साल का बोझ उसके कंधों से उतर गया हो।
“तू ठीक है?” कबीर ने पूछा।
राहुल ने सिर हिलाया।
“अब नींद आएगी… शायद पहली बार सुकून से…”
● दो महीने बाद:
कबीर ने नीरा की कहानी पर एक डॉक्युमेंट्री बनाई—“Sunsaan Sarak: Ek Dastaan Adhoori Mohabbat Ki”
यह फिल्म यूट्यूब पर वायरल हो गई। लोगों ने उसे हॉरर कहा, फिक्शन कहा। पर राहुल और कबीर जानते थे—ये सच था।
राहुल अब अपनी ज़िंदगी में वापस लौट आया था। लेकिन उसने आज भी उस माला की राख एक कांच की शीशी में सहेज कर रखी थी।
और उस सुनसान सड़क पर…
अब भी हवा चलती
है।
अब भी पेड़ फुसफुसाते हैं।
लेकिन अब नीरा नहीं आती।
क्योंकि…
कुछ आत्माएँ लौटती हैं बस एक वादे को निभाने।
[समाप्त]



