अनुज वर्मा
दिल्ली की उमस भरी गर्मी की दोपहर में नेहा शर्मा जब पुरानी दिल्ली की तंग गलियों से होकर उस हवेली की तरफ़ बढ़ी, तो उसके दिल में हल्का-सा डर और अजीब-सी उत्सुकता एक साथ उभर आई। हवेली का नाम उसने कई बार सुना था, अख़बारों में उसकी तस्वीरें भी देखी थीं, पर सामने खड़े होकर उसकी जर्जर दीवारों को देखना जैसे किसी पुराने ज़ख्म की परत हटाने जैसा था। टूटी हुई जालीदार खिड़कियाँ, ऊपर से झूलती बेलें और लोहे का ज़ंग खाया बड़ा सा दरवाज़ा — सब कुछ जैसे समय के थपेड़ों से थक कर झुक गया था। अंदर कदम रखते ही उसे सड़े हुए लकड़ी की गंध और सीलन की नमी ने घेर लिया; हर दीवार पर अजीब-सी नमी की परत जमी हुई थी, जो बरसों से वहां की हवा में शामिल हो चुकी थी। नेहा ने अपने कैमरे से कुछ तस्वीरें लीं, पर अंधेरे और घुटन भरी गंध के बीच उसकी उंगलियाँ काँप गईं; पहली बार उसे यह एहसास हुआ कि शायद यह जगह महज़ एक इमारत नहीं, कोई अनकही कहानी की कब्र है।
नेहा को लेने के लिए हवेली की देखभाल करने वाली अमृता आंटी बाहर आईं। झुर्रियों से भरा उनका चेहरा, सफ़ेद साड़ी और बुझी-बुझी आँखें किसी पुराने चित्र की तरह लग रही थीं। “बहुत लोग आए, बिटिया… पर टिके नहीं,” उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, जैसे हवेली की दीवारों से डरती हों कि कहीं वो सुन ना लें। नेहा ने हल्की मुस्कान से डर को छुपाने की कोशिश की और उनके पीछे-पीछे अंदर चली गई। हवेली के लंबे गलियारों से गुज़रते हुए हर कोने से पुरानी लकड़ियों की कराह, चूहों की दौड़ और सीलन टपकने की आवाज़ें आ रही थीं। एक बड़े से हॉल में पहुंचकर अमृता आंटी ने कहा, “यहीं ठहरना है तुम्हें… पर याद रखना, रात को दीवारों की तरफ़ कम देखना… कई बार ये दीवारें कहती भी हैं और सुनती भी हैं।” उनकी ये बात जैसे किसी ठंडी हवा की लहर की तरह नेहा की रीढ़ तक उतर गई, पर उसने खुद को संभालकर सामान रख दिया और तय कर लिया कि चाहे जो हो, वह इस हवेली की सच्चाई ज़रूर निकालेगी।
रात होते-होते हवेली में अजीब सन्नाटा पसर गया था; बाहर गलियों से भी कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, बस हवेली की पुरानी दीवारों से टपकती सीलन की बूँदों की धीमी आवाज़ सुनाई दे रही थी। नेहा ने खिड़की के पास खड़े होकर कैमरे से बाहर का एक दृश्य कैद करना चाहा, तभी उसकी नज़र उस दीवार पर गई जहां सीलन के धब्बे कुछ इस तरह उभर आए थे, मानो कोई परछाईं बन रही हो। वह ठिठककर देखने लगी, और उसे ऐसा लगा जैसे वह आकृति धीरे-धीरे किसी की शक्ल लेने की कोशिश कर रही है — डर, गुस्से और बेबसी से भरी हुई शक्ल। उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई, और उसने जल्दी से कैमरा उठाकर तस्वीर खींची, पर तस्वीर में कुछ भी साफ़ नहीं आया। नेहा समझ नहीं पा रही थी कि यह उसकी थकान का असर था या सचमुच दीवार में कोई परछाईं थी, जो उसे घूर रही थी। उसी पल हवेली की हवा थोड़ी और भारी हो गई, और नेहा ने पहली बार महसूस किया कि ये जगह सिर्फ़ पुरानी ईंटों और लकड़ियों से नहीं बनी, बल्कि अतीत की ऐसी कहानियों से बनी है, जिनका बोझ अब भी इसकी दीवारों में सांस ले रहा है।
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अगली सुबह नेहा की नींद देर तक टूटी, कमरे में धूप की पतली सी लकीर खिड़की के टूटी जाली से अंदर आ रही थी, पर हवेली के भीतर की हवा अब भी नम और भारी थी। उसने रात का कैमरा चेक किया, उम्मीद थी कि शायद उसमें वो परछाईं कैद हो गई होगी, लेकिन तस्वीरों में सिर्फ़ धुंधले धब्बे और दीवार की दरारें दिख रही थीं। कुछ भी साफ़ नहीं। नेहा को थोड़ा झुंझलाहट हुई, पर उसका जिज्ञासु मन अब और बेचैन हो चुका था। उसने कमरे की दीवारों को फिर से देखा, सीलन के निशान अब भी वैसी ही अजीब बनावट में उभर रहे थे, जैसे कोई अनकहा शब्द या छुपा हुआ संकेत। नाश्ता करते वक्त उसने अमृता आंटी से इसके बारे में पूछा, पर आंटी की आँखों में डर का साया गहरा गया। “मत देखो बिटिया, इन दीवारों को ज्यादा मत देखो… जो दिखता है, वो ही सच नहीं होता,” आंटी ने काँपती आवाज़ में कहा और नज़रें चुराकर चली गईं। नेहा का मन और उलझ गया; उसे समझ नहीं आ रहा था कि आंटी सिर्फ़ डरी हुई हैं या सचमुच कुछ जानती भी हैं।
शाम होते-होते हवेली का सन्नाटा फिर घना होने लगा। नेहा अपने कैमरे और नोटबुक के साथ फिर उसी हॉल में गई, जहां पिछली रात उसे परछाईं दिखी थी। इस बार उसने दीवार को ध्यान से देखा, उंगलियों से सीलन की गीली परत को हल्के से छुआ, तो जैसे ठंडी सिहरन पूरे शरीर में दौड़ गई। अचानक उसे लगा कि सीलन की रेखाएँ धीरे-धीरे मिलकर एक आकृति बना रही हैं — किसी का चेहरा, जिसमें डर और दर्द का अजीब मेल था। नेहा की साँसें थम गईं; वह उस चेहरे की आंखों में देखती रही, जो जैसे उससे कुछ कहने की कोशिश कर रहा था। दिल की धड़कन इतनी तेज़ थी कि कानों में उसकी आवाज़ गूंजने लगी। नेहा ने कैमरा उठाकर फिर तस्वीर खींची, और तस्वीर देखते ही उसकी आँखें फैल गईं — इस बार तस्वीर में वो आकृति सचमुच दिख रही थी, हल्की-सी धुंधली परछाईं के रूप में, पर इतनी साफ़ कि सिर्फ़ कोई धब्बा नहीं कही जा सकती थी।
नेहा का डर और जिज्ञासा अब एक-दूसरे से टकरा रहे थे। रात गहराने लगी, हवेली की दीवारों से सीलन की बूँदें टपकती रहीं, जैसे हर टपकती बूँद कोई कहानी कह रही हो। अचानक हवेली की छत से हल्की आवाज़ आई — लकड़ी की चरमराहट, या किसी के चलने की धीमी आहट। नेहा ने ऊपर देखा, कुछ नहीं था, पर दिल कह रहा था कि वो यहाँ अकेली नहीं है। उसने कैमरा बंद कर के अपनी नोटबुक में सब कुछ लिखना शुरू किया, हर धब्बा, हर आवाज़, हर अहसास। लेकिन लिखते-लिखते भी उसे लगा जैसे कोई उसके पीछे खड़ा है, धीमी साँसें उसके बहुत पास महसूस हो रही थीं। वह पलटी, वहाँ कुछ भी नहीं था — सिर्फ़ वही पुरानी दीवार, वही सीलन, और उसी में छुपी हुई अनकही परछाइयाँ, जो अब नेहा को डराने से ज़्यादा उसे अपनी ओर खींच रही थीं, मानो किसी पुराने ज़ख्म की तरह जो अपना सच कहे बिना चैन नहीं पाता।
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सुबह की पहली किरण नेहा के लिए राहत की तरह आई, लेकिन रात की परछाइयाँ उसके ज़हन से गई नहीं थीं। वह जानती थी कि सिर्फ़ दीवारें देखने से सच्चाई नहीं मिलेगी; उसे हवेली के इतिहास तक पहुँचना होगा। उसने अपना सामान समेटा और सीधे दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर विक्रांत मेहता से मिलने पहुँची, जिनका नाम अमृता आंटी ने भी लिया था। विक्रांत की उम्र चालीस के करीब रही होगी, हल्की दाढ़ी, गहरी आँखें और किताबों से ढका कमरा, जिसमें धूप की पतली सी लकीर किताबों पर गिरकर अजीब-सी गरिमा पैदा कर रही थी। नेहा ने अपनी डायरी, तस्वीरें और अनुभव उसे दिखाए; विक्रांत कुछ देर ध्यान से देखता रहा, फिर बोला, “ये हवेली इतिहास की किताबों में सिर्फ़ एक पुरानी इमारत नहीं है, इसके पीछे एक दबी हुई चीख़ है, जो कभी सबके सामने नहीं आई।”
नेहा की उत्सुकता और बढ़ी। विक्रांत ने अपनी अलमारी से कुछ पुरानी फाइलें निकालीं, जिन पर धूल जमी थी और कागज़ की किनारियाँ पीली पड़ चुकी थीं। उसने बताया कि हवेली के आख़िरी मालिक विजयनाथ चौधरी की हत्या आज से करीब सत्तर साल पहले हवेली के तहखाने में हुई थी। पुलिस को लाश तहखाने में मिली थी, गला घोंटकर मारा गया था, पर कातिल का कभी पता नहीं चला। केस अचानक बंद कर दिया गया, मानो किसी ने ऊपर से दबाव डलवाया हो। नेहा ने फाइल के पन्ने पलटे; एक में हवेली के तहखाने का नक़्शा बना था, जिसमें एक कमरा लाल स्याही से गोल घेरा बनाकर दिखाया गया था — “Closed” लिखा हुआ। विक्रांत ने कहा कि ये कमरा कभी किसी को नहीं दिखाया गया, और कहते हैं, वहीं से सीलन की असली शुरुआत हुई थी। नेहा की उंगलियाँ नक़्शे पर उस घेरे पर अटक गईं, जैसे उसकी आँखों के सामने तहखाने की गंध, सीलन और उस चेहरे की परछाई फिर से उभर आई हो।
विक्रांत की बातें अधूरी थीं; वह बार-बार रुककर कुछ सोचता और फिर बात बदल देता। नेहा को लगा कि या तो वह कुछ छुपा रहा है, या फिर खुद भी किसी डर में जी रहा है। जाने से पहले नेहा ने उससे पूछा, “क्या आपको सच में लगता है कि दीवारों पर उभरती आकृतियाँ सिर्फ़ सीलन हैं?” विक्रांत की नज़रें कुछ पल के लिए गहरी हो गईं, फिर उसने धीमे से कहा, “कभी-कभी ईंट और पत्थर भी दर्द को अपने भीतर कैद कर लेते हैं… और वक़्त आने पर वो दर्द बाहर दिखने लगता है।” नेहा ने उसकी बात नोटबुक में लिख ली; उसके सवाल बढ़ते जा रहे थे, पर जवाब हवेली की दीवारों की तरह चुप और ठंडी परतों में छुपे हुए थे। बाहर निकलते वक़्त, नेहा ने महसूस किया कि हवेली की सीलन सिर्फ़ ईंटों में नहीं, बल्कि उन कहानियों में भी है, जो अधूरी रह गईं, दबा दी गईं — और अब किसी के इंतज़ार में हैं कि कोई उन्हें फिर से सुने, फिर से कहे।
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नेहा वापस हवेली लौटी तो उसके कदम अब और भी तेज़ थे, जैसे प्रोफेसर विक्रांत की फाइलों ने उसमें किसी छुपी हुई आग को हवा दे दी हो। हवेली के लंबे गलियारों से गुज़रते हुए उसकी आँखें बार-बार दीवारों पर जातीं, जहाँ सीलन के धब्बे अब और गहरे लग रहे थे, मानो परछाइयाँ उससे कुछ कहने के लिए उतावली हो रही हों। अमृता आंटी के बार-बार मना करने के बावजूद नेहा ने तहखाने का रास्ता ढूँढने का निश्चय कर लिया। सीढ़ियाँ नीचे अंधेरे में उतरती गईं, हवा में सड़े हुए पत्थरों और नमी की गंध तेज़ होती गई, और हर कदम के साथ नेहा का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। टॉर्च की हल्की रोशनी में उसे सामने वो पुराना दरवाज़ा दिखा, जिसके बारे में फाइल में लिखा था “Closed” — मोटी लकड़ी का बना हुआ, लोहे की जंग लगी कुंडियों से बंद।
नेहा ने दरवाज़े को हाथ से छूकर धकेलने की कोशिश की, पर दरवाज़ा हिला तक नहीं। उसने अपनी टॉर्च की रोशनी दरवाज़े की दरारों पर डाली, तो सीलन की परत पर कुछ उकेरे हुए निशान दिखे, जैसे किसी ने नाखूनों से खुरचकर कुछ लिखने की कोशिश की हो — पर शब्द साफ़ नहीं थे, बस टूटी हुई लकीरें, जिनमें डर और बेताबी दोनों झलक रहे थे। अचानक उसे लगा जैसे भीतर से किसी की धीमी साँसें सुनाई दे रही हों, ठंडी और कांपती हुई। उसने जल्दी से कान दरवाज़े से लगा दिए — और उसकी रूह काँप उठी; साँसों के साथ-साथ जैसे कोई दबे गले से कुछ कहने की कोशिश कर रहा था, कोई आवाज़ जो शब्दों में नहीं थी, सिर्फ़ दर्द में थी। नेहा ने डर के बावजूद दरवाज़े को ज़ोर से धक्का देने की कोशिश की, लेकिन फिर भी वो टस से मस न हुआ।
उसने पीछे हटकर गहरी साँस ली, टॉर्च को ऊपर उठाया और तहखाने की दीवारों पर देखा; सीलन की परतें वहाँ भी अजीब आकृतियों में सजी हुई थीं। एक जगह उसे फिर वही चेहरा दिखा — वही डर, वही घुटन, वही अधूरी चीख़। उसकी आँखें उस पर जम गईं, और उसे ऐसा लगा जैसे वो चेहरा उससे मदद माँग रहा हो। नेहा का दिल तेज़ी से धड़कने लगा; उसने जल्दी से कैमरा निकाला और तस्वीर लेने लगी, पर कैमरे की स्क्रीन पर कुछ भी साफ़ नहीं आया। उसी पल हवा और ठंडी हो गई, जैसे तहखाने की साँसें और भारी हो गई हों। नेहा को लगा कि वो बस दीवारें नहीं देख रही, वो किसी कैद की गई आत्मा को देख रही है, जो आज भी सच कहने के लिए दरवाज़े के उस पार साँस ले रही है — और बाहर की दुनिया तक पहुँचने का रास्ता ढूँढ रही है।
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तहखाने से लौटकर नेहा का दिल अब भी ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था, और उसकी हथेलियों में पसीना जम गया था। हवेली की ऊपरी मंज़िल पर पहुँचकर उसने लंबी साँस ली, पर घबराहट कम नहीं हुई। वो सीधे अमृता आंटी के पास गई, जो अपने पुराने लकड़ी के पलंग पर बैठी ऊन का गोला लपेट रही थीं। नेहा ने बिना भूमिका के पूछा, “आंटी, आप मुझे सच क्यों नहीं बतातीं? ये दीवारें कुछ कहती हैं, कोई चेहरा है, कोई घुटन है… आखिर ये सब क्या है?” अमृता आंटी के हाथ काँपने लगे, ऊन का गोला नीचे गिरकर ज़मीन पर लुढ़क गया। उनकी धुँधली आँखों में जैसे बरसों पुराना डर फिर से जाग उठा। उन्होंने काँपती आवाज़ में कहा, “बिटिया, कुछ बातें कहने से नहीं, सुनने से भी डर लगता है… पर तू आई ही है सुनने के लिए, तो सुन।”
आंटी की आवाज़ में एक थरथराहट थी, पर वो बोलती रहीं। उन्होंने बताया कि बरसों पहले विजयनाथ चौधरी अपने ही घर के तहखाने में मारे गए थे। रात के अंधेरे में हवेली के कुछ लोगों ने कुछ देखा, कुछ ने कुछ सुना, पर किसी ने सच्चाई नहीं बताई। विजयनाथ के भाई पर हवेली की मिल्कियत हथियाने का शक था, पर पुलिस ने केस को जल्दी बंद कर दिया, जैसे किसी ने दबा दिया हो। “उस रात के बाद से ही ये सीलन यहाँ रहने लगी, जैसे उस तहखाने की गीली दीवारों में किसी की आखिरी साँसें बस गई हों,” अमृता आंटी की आवाज़ धीमी होती गई, “मुझे लगता है, वो आज भी किसी को पुकारती हैं… पर कोई सुनता नहीं।” नेहा की आँखों में सवाल थे, “पर वो चेहरा जो मैं देखती हूँ, वो कौन है?” आंटी ने पलकें झुका लीं, “शायद वही… जो मरते वक़्त किसी को पुकार रहा था, पर कोई नहीं पहुँचा।”
नेहा की साँसें अब और भारी हो गईं, जैसे हवेली की नमी उसके दिल में भी घर कर गई हो। उसी रात उसने प्रोफेसर विक्रांत को कॉल किया, और सारा किस्सा बताया। विक्रांत की आवाज़ में भी एक पल के लिए चुप्पी छाई, फिर धीरे से कहा, “नेहा, इतिहास सिर्फ़ तारीख़ें नहीं होते, कभी-कभी ज़िंदा दर्द भी होते हैं… तुम सच के काफ़ी करीब हो।” उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा था, मानो वो कुछ और भी जानते हों पर कह नहीं रहे। नेहा ने फोन काटते हुए मन ही मन तय कर लिया — चाहे जो हो, तहखाने के उस बंद कमरे का रहस्य वो ज़रूर खोलेगी, क्योंकि ये सिर्फ़ एक पुरानी हवेली की कहानी नहीं थी, ये किसी की अधूरी चीख़, किसी की दबी हुई सच्चाई की लड़ाई थी, जो अब उसकी अपनी कहानी बन चुकी थी।
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सुबह का उजाला हवेली की पुरानी दीवारों पर उतरा तो नेहा को लगा जैसे रात की परछाइयाँ थोड़ी देर के लिए पीछे हट गई हैं, पर उसका मन अब और बेचैन हो गया था। अमृता आंटी की बातों और तहखाने के बंद कमरे की सच्चाई ने उसमें एक डर से भी बड़ा जिद पैदा कर दिया था। उसी जिद में वो फिर से प्रोफेसर विक्रांत के पास पहुँची, इस बार उसका चेहरा कुछ ज़्यादा गंभीर था। विक्रांत के कमरे में वही पुरानी किताबों की महक, वही गहराई से देखने वाली आँखें, पर इस बार उनके चेहरे पर हल्की थकान भी थी। नेहा ने बिना रुके पूछा, “सर, आप कुछ छुपा रहे हैं… हवेली की वो फाइलें, तहखाने का वो बंद कमरा, और आपके दादा का नाम उस केस में क्यों था?”
विक्रांत की पलकें कुछ पल के लिए थमीं, फिर उन्होंने लंबी साँस ली, जैसे बरसों से दबा हुआ बोझ निकालने जा रहे हों। “हाँ, नेहा… मेरे दादा उस रात हवेली में मौजूद थे,” उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा। “वो गवाह थे… उन्होंने विजयनाथ को मरते देखा, पर कभी असली कातिल का नाम नहीं बताया। कहते हैं, उन्होंने कातिल को पहचान लिया था, पर डर या किसी दबाव में सच छुपा लिया।” नेहा के दिल की धड़कन तेज़ हो गई, “और वो असली कातिल कौन था?” विक्रांत की नज़रें कुछ पल को डगमगाईं, फिर वो बोले, “मेरे दादा के डायरी के कुछ पन्ने मुझे मिले थे, उसमें सिर्फ़ इतना लिखा था — ‘रक्त ने रक्त को धोखा दिया।’” नेहा का मन कांप उठा; इसका मतलब कि कातिल विजयनाथ का कोई अपना ही था।
नेहा की आँखों में आंसू और गुस्सा एक साथ थे, “आपने ये सच अब तक क्यों नहीं बताया?” विक्रांत की आवाज़ टूटी हुई थी, “मैं डरा हुआ था… इतिहास सिर्फ़ किताबों में नहीं होता, नेहा। कभी-कभी वो खून में भी बहता है। मेरे दादा भी मरने से पहले बहुत घबराते थे… कहते थे, हवेली की दीवारें सब देखती और सुनती हैं।” नेहा को अब यक़ीन हो गया कि तहखाने के बंद कमरे में कोई बड़ा सच छुपा है। बाहर निकलते हुए उसकी नज़र हवेली के उस नक़्शे पर पड़ी, जिस पर लाल घेरे में लिखा था ‘Closed’। उसकी उंगलियाँ नक़्शे पर ठहर गईं, और दिल ने कहा कि उस दरवाज़े के उस पार कोई अधूरी कहानी उसका इंतज़ार कर रही है — एक ऐसी कहानी, जिसे शायद हवेली की दीवारों ने भी बरसों से अपने सीने में कैद कर रखा है।
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नेहा ने तहखाने से मिली विजयनाथ की डायरी और अंगूठी को लेकर हवेली से बाहर की दुनिया में कदम रखा, उसके दिल में एक डर था कि सच्चाई बताना आसान नहीं होगा, पर उससे बड़ा एक हल्का-सा सुकून भी था, जैसे बरसों से दबी हुई सासें आज खुल कर ली हों। उसने अपने लेख में सारी बातें लिखीं: हवेली का इतिहास, तहखाने का रहस्य, अमृता आंटी की अधूरी कहानियाँ और प्रोफेसर विक्रांत के परिवार का सच। उसने वो सब कुछ लिखा जो दीवारें कहती थीं, वो भी जो दीवारों से कोई सुनना नहीं चाहता था। लेख प्रकाशित हुआ, तो दिल्ली में हलचल मच गई; अख़बारों में हवेली की तस्वीरें छपीं, और पहली बार विजयनाथ की हत्या की असली सच्चाई सामने आई।
अमृता आंटी ने सालों बाद हवेली छोड़ दी; जाते वक़्त उन्होंने नेहा को आशीर्वाद दिया, “अब दीवारें चुप रहेंगी, बिटिया।” विक्रांत ने हवेली पर किताब लिखी, जिसमें नेहा की जिज्ञासा और साहस का ज़िक्र किया; उसने माना कि सच्चाई को दबाकर रखने की सबसे बड़ी सजा डर है, और सच्चाई बताकर ही दिल हल्का होता है। हवेली की दीवारों से सीलन की परछाइयाँ अब भी उभरती थीं, पर अब वो डराती नहीं थीं — वो गवाही देती थीं कि किसी ने उन्हें सुना, किसी ने उनकी दबी हुई आवाज़ को शब्दों में बदल दिया।
नेहा कई बार हवेली के सामने खड़ी होती, पुरानी दीवारों को देखती, सीलन की लकीरों को पढ़ती और महसूस करती कि कहानियाँ सिर्फ़ किताबों में नहीं रहतीं, वो ईंटों, लकड़ी, सीलन और परछाइयों में भी साँस लेती हैं। हवेली अब भी वही थी — पुरानी, टूटी, नमी से भरी — पर अब वो सिर्फ़ एक डरावनी इमारत नहीं थी; वो एक अधूरी कहानी की कब्र से बदलकर, सच्चाई के बाहर आ जाने की जगह बन चुकी थी, और परछाइयाँ जो कभी घुटी हुई थीं, अब आज़ाद होकर हवाओं में घुल चुकी थीं।
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