मिथिला शर्मा
भाग 1: पहले शो का दीवाना
पंकज को शहर के पुराने सिनेमाघर “रूपसागर टॉकीज” से बेहद प्यार था। वो वही सिनेमाघर था जहां उसकी पहली फिल्म लगी थी — शाहरुख खान की “कुछ कुछ होता है।” उम्र तब सिर्फ नौ साल थी, लेकिन उस दिन से जो रिश्ता बना परदे से, वो आज भी टूटा नहीं।
हर शुक्रवार की सुबह, जब बाकी लोग ऑफिस या कॉलेज की तैयारियों में उलझे होते, पंकज अपने बैग में पानी की बोतल, एक पुराना टिकट का कवर और एक छोटी सी डायरी लेकर रूपसागर की ओर निकल पड़ता। उसका सपना था — एक दिन वो भी ऐसी फिल्म बनाएगा जो लोगों को रुलाए, हँसाए और उनका दिल छू जाए।
उसका कमरा फिल्मों के पोस्टर से भरा हुआ था। दिवार पर गुरुदत्त, मृणाल सेन, सत्यजीत रे से लेकर अनुराग कश्यप तक की तस्वीरें थीं। माँ अक्सर कहती, “पढ़ाई-लिखाई छोड़कर तू ये फिल्मी भूत क्यों पाल रहा है?” पंकज हँस देता, “माँ, यही तो असली ज़िंदगी है। बाक़ी सब तो इंटरवल से पहले की बोरियत है।”
उसके पापा स्कूल में हिंदी पढ़ाते थे। चाहते थे कि बेटा कुछ ‘स्थिर’ करे। पर पंकज के दिमाग में सिर्फ कैमरे, क्लैपबोर्ड और डायलॉग चलते रहते।
शुक्रवार का दिन उसके लिए त्योहार जैसा होता। आज भी वही दिन था। वो सात बजे ही तैयार हो गया था — नीली जींस, सफेद शर्ट, और आंखों में चमक। टिकट खिड़की पर हमेशा की तरह वो सबसे पहले खड़ा था।
“एक पहली शो, बालकनी,” उसने कहा।
बूढ़ा टिकट काउंटर वाला शंभू काका मुस्कुराया, “पंकज बाबू, आज कौनसी नई फिल्म देख रहे हैं?”
“बिजनेस ऑफ ड्रीम्स — सुना है डॉक्यूमेंट्री है, लेकिन जब कहानी सपनों की हो, तो फिल्म कैसी भी हो, देखनी चाहिए।”
थियेटर की पुरानी कुर्सियां चरमराती थीं, स्क्रीन पर दाग था, लेकिन पंकज को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी नजरें सिर्फ स्क्रीन पर होतीं, दिल उसकी हर धड़कन के साथ ताल मिलाता।
फिल्म शुरू हुई — एक लड़का, जो छोटे शहर से मुंबई आता है और कैमरे के पीछे अपनी पहचान बनाता है। पंकज को लगा जैसे फिल्म उसके लिए ही बनी है।
बीच में, अचानक उसकी नजर एक लड़की पर पड़ी — दो सीट छोड़कर बैठी थी। उसकी आंखों में भी वही दीवानगी थी, जो पंकज अपनी आंखों में लेकर चलता था। फिल्म खत्म होते ही वो उठकर जाने लगी।
पंकज की हिम्मत नहीं हुई कुछ कहने की। लेकिन फिर अचानक, वो लड़की पलटी और मुस्कुराकर बोली, “डायरेक्टर बनना है?”
पंकज चौंका। “हाँ… पर आपको कैसे पता?”
“आपके चेहरे पर लिखा है,” उसने कहा और चली गई।
पंकज वहीं खड़ा रहा — हाथ में पुराना टिकट, दिल में नया सपना।
उस दिन के बाद सिनेमा उसके लिए और भी ज़्यादा खास हो गया।
उसके सपनों में अब सिर्फ फिल्में नहीं थीं, बल्कि वो अजनबी लड़की भी थी — जिसकी आँखों में उसने अपना प्रतिबिंब देखा था।
भाग 2: उस अनजान मुस्कान का नाम
पंकज पूरे दिन उसी मुस्कान के बारे में सोचता रहा। वो लड़की, जो चुपचाप बैठी फिल्म देख रही थी, और जाते-जाते उसे सिर्फ एक सवाल पूछकर उलझा गई — “डायरेक्टर बनना है?”
शाम को जब वो घर लौटा, तो माँ ने दरवाजे पर ही टोका, “आज फिल्म कैसी थी?”
“अच्छी थी माँ… बहुत अच्छी,” उसने धीमे से कहा। लेकिन माँ को लगा, आज उसके चेहरे पर फिल्म से ज़्यादा कुछ और छपा हुआ है।
पंकज अपने कमरे में गया और अपनी डायरी निकाली। उसमें वो हर देखी हुई फिल्म के बाद एक नोट लिखता था — उसका नाम, निर्देशक, कोई खास डायलॉग, और उसका असर। लेकिन आज, फिल्म से पहले उसने एक लाइन लिखी:
“कभी-कभी सिनेमा से ज़्यादा कहानी उन चेहरों में छुपी होती है जो हमारे बगल में बैठते हैं।”
अगले कुछ दिनों तक पंकज की जिंदगी जैसे किसी अलग ही रील पर चल रही थी। कॉलेज में पढ़ाई चल रही थी, दोस्त चाय की दुकान पर मज़े कर रहे थे, लेकिन पंकज बस उसी दिन की फ्रेम में अटका हुआ था।
क्या वो लड़की फिर आएगी? कौन थी वो? कहीं बाहर से आई थी क्या? या उसी शहर की थी? और अगर थी, तो क्या उसने भी पंकज को उतना ही याद रखा जितना पंकज ने उसे?
अगले शुक्रवार, पंकज पहले से ज़्यादा उत्साहित था। फिल्म कोई खास नहीं थी — एक हल्की-फुल्की कॉमेडी — लेकिन आज का मकसद फिल्म नहीं था। आज वो चेहरा ढूंढ़ना था।
रूपसागर के बाहर वो देर तक खड़ा रहा। हर लड़की को गौर से देखता। लेकिन नज़रें उसे नहीं मिलीं जिनकी तलाश थी। वो बैठा, परदे पर फिल्म शुरू हुई, लेकिन दिमाग कहीं और था।
फिल्म खत्म होने के बाद वो एक कोने में खड़ा हो गया — जैसे किसी उम्मीद में। तभी शंभू काका बोले, “किसी को ढूंढ रहे हो पंकज बाबू?”
पंकज मुस्कुरा दिया, “हाँ… शायद।”
“फिल्म में नहीं मिला क्या?”
“नहीं… असली कहानी तो परदे के बाहर है काका।”
अगले तीन हफ्ते ऐसे ही बीते। हर शुक्रवार को वो जाता, बैठता, देखता, लौट आता। और हर बार उसके साथ उसकी डायरी होती, जिसमें अब फिल्मों के बजाय एक लड़की का स्केच बनने लगा था — यादों के आधार पर।
फिर एक दिन, बुधवार की शाम को, कॉलेज की लाइब्रेरी में बैठा पंकज रिसर्च कर रहा था — भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद पर। तभी बगल की कुर्सी पर कोई आकर बैठा। वो लड़की।
उसने मुस्कुराकर कहा, “इस बार तुमने नहीं पहचाना?”
पंकज सन्न। “तुम…?”
“हाँ, मैं। उस दिन की फिल्म, डायरेक्टर वाला सवाल, याद है?”
पंकज का चेहरा खिल उठा। “तुम यहाँ क्या कर रही हो?”
“यही कॉलेज है मेरा। सेकेंड ईयर मास कम्युनिकेशन। और तुम?”
“थर्ड ईयर हिंदी लिटरेचर। लेकिन सिनेमा मेरा सबकुछ है।”
लड़की ने हाथ बढ़ाया, “मैं आर्या।”
उसने हाथ मिलाया, “पंकज।”
उस दिन पहली बार, उनकी बातों का इंटरवल नहीं हुआ। किताबें बंद हो गईं, और एक नई स्क्रिप्ट खुल गई — दोस्ती की।
अब पंकज को शुक्रवार का इंतज़ार नहीं करना पड़ता था। हर दिन आर्या उसके साथ होती — लाइब्रेरी में, कैंटीन में, और हाँ, रूपसागर टॉकीज में भी।
लेकिन कहानी तो बस शुरू हुई थी।
भाग 3: रूपसागर की सीट नंबर G-7
अब शुक्रवार का मतलब सिर्फ नई फिल्म नहीं था — अब वो आर्या के साथ बिताया गया एक पवित्र दिन बन गया था। रूपसागर टॉकीज में सीट नंबर G-7 और G-8 पर अब दो दीवाने बैठते थे — एक सिनेमा का, एक कहानी का।
आर्या के साथ पंकज को लगा जैसे कोई उसका सपना साझा कर रहा हो। दोनों की बातचीत फिल्मों से शुरू होकर जीवन तक जाती। एक दिन आर्या ने पूछा, “तुम्हारी पसंदीदा फिल्म कौन सी है?”
पंकज ने मुस्कुरा कर कहा, “प्यासा। क्योंकि गुरुदत्त ने खुद को खोकर भी एक अमर कहानी बनाई।”
आर्या ने कहा, “मेरी रंग दे बसंती है। क्योंकि उस फिल्म ने मुझे सिखाया कि कहानी सिर्फ मनोरंजन नहीं, बदलाव का ज़रिया हो सकती है।”
उस दिन पंकज को एहसास हुआ कि आर्या सिर्फ फिल्में देखने नहीं आई थी — वो फिल्मों को जीती थी, महसूस करती थी।
कॉलेज खत्म होते ही दोनों सीधे रूपसागर पहुँचते। पंकज के पास अब एक स्केचबुक भी थी — जिसमें वो हर फिल्म के बाद कुछ न कुछ बनाता। आर्या उसकी कहानियों को पढ़ती और सुझाव देती।
“एक कहानी क्यों नहीं लिखते हम दोनों?” एक दिन आर्या ने पूछा।
पंकज ने चौक कर उसकी तरफ देखा, “साथ में?”
“हाँ। तुम्हारी स्क्रिप्ट और मेरी विज़न। एक लघु फिल्म — कॉलेज प्रोजेक्ट के लिए।”
पंकज को लगा जैसे उसके भीतर कुछ जाग उठा हो। अब वो केवल दर्शक नहीं रहना चाहता था। वो भी एक निर्माता बनना चाहता था — कहानियों का, किरदारों का, सपनों का।
रातें अब और छोटी लगती थीं। दिन निकलता स्क्रिप्ट से, रात ढलती एडिटिंग टेबल पर। पंकज का छोटा-सा मोबाइल कैमरा अब उनकी दुनिया का सिनेमैटोग्राफर बन गया था।
स्क्रिप्ट का नाम रखा गया: “छोटे शहर की बड़ी बात” — एक लड़का और लड़की जो फिल्मों के जरिए अपने शहर को कुछ नया दिखाना चाहते हैं।
शूटिंग शुरू हुई। उनके दोस्त बने कैरेक्टर, कॉलेज की कैंटीन बनी लोकेशन, और रूपसागर टॉकीज बना कहानी का क्लाइमेक्स।
एक दिन जब शूटिंग खत्म हुई, पंकज और आर्या रूपसागर की खाली बालकनी में बैठे थे। स्क्रीन पर कोई फिल्म नहीं चल रही थी, लेकिन उन्हें लगा जैसे पूरी ज़िंदगी उनके सामने चल रही है।
आर्या ने कहा, “पता है, यहाँ आकर मुझे समझ आया कि असली कहानी वो होती है जो हम खुद जीते हैं।”
पंकज ने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में चमक थी — वैसी ही जैसी पहली बार उसे सिनेमाघर में दिखी थी।
“तो अब आगे क्या?” आर्या ने पूछा।
“अब?” पंकज मुस्कुराया, “अब कहानी जारी है। पर शायद इंटरवल पास आ रहा है।”
आर्या ने उसे चौंककर देखा, “मतलब?”
पंकज की आँखें गहरी हो गईं, “कॉलेज खत्म होने वाला है आर्या। तुम दिल्ली जाओगी मास्टर्स के लिए, मैं यहीं रहूँगा। रूपसागर के बाहर शायद अब हम साथ न खड़े हों…”
आर्या कुछ नहीं बोली। बस धीरे से उसका हाथ थामा और बोली, “कुछ कहानियाँ इंटरवल के बाद और खूबसूरत हो जाती हैं।”
पंकज को नहीं पता था ये बात तसल्ली थी या अलविदा।
पर वो जानता था — G-7 की वो सीट कभी अब खाली नहीं रहेगी। वहाँ एक सपना बैठा रहेगा — एक डायरेक्टर और उसकी कहानी का।
इंटरवल के बाद की ज़िंदगी
कॉलेज का आखिरी दिन भी किसी फिल्म के आखिरी दृश्य जैसा था — आंखों में नमी, दिल में भारीपन, और लिपटी हुई यादों की रील जो हर फ्रेम में आर्या और पंकज को वापस घुमा रही थी।
आर्या को दिल्ली जाना था — मास कम्युनिकेशन में मास्टर्स के लिए। उसके पास स्कॉलरशिप थी, सपनों की दुनिया बुला रही थी। पंकज को अपने शहर में ही रुकना था — पापा की तबीयत अब पहले जैसी नहीं रही थी, और परिवार को उसकी ज़रूरत थी।
विदा के दिन, रेलवे स्टेशन पर, आर्या ने पंकज को एक छोटा-सा पैकेट दिया। “खोलना तब, जब बहुत ज़्यादा अकेला महसूस करो।”
पंकज कुछ बोल नहीं पाया। ट्रेन चली, और आर्या का चेहरा धीरे-धीरे भीड़ में खो गया — पर उसकी मौजूदगी पंकज की धड़कनों में बसी रह गई।
रूपसागर टॉकीज अब भी वही था, लेकिन G-7 की सीट अब सूनी लगती थी। हर शुक्रवार, पंकज फिल्म देखने जाता — पर अब स्क्रीन पर किरदारों से ज़्यादा आर्या की आवाज़ सुनाई देती।
एक दिन, बहुत देर रात, जब मन बेहद खाली लग रहा था, उसने वो पैकेट खोला। अंदर एक डायरी थी — आर्या की लिखी हुई। हर पन्ने पर उसके ख्याल, फिल्म के बारे में सोच, और पंकज के लिए कुछ खास शब्द।
एक पन्ने पर लिखा था —
“कभी तुम्हें लगे कि तुम्हारा सपना बिखर रहा है, तो याद रखना — मैं कहीं न कहीं तुम्हारी बनाई फिल्म के पोस्टर के सामने खड़ी होकर मुस्कुरा रही होऊंगी।”
पंकज की आंखें भीग गईं। वो जानता था कि उसका सपना दूर गया है, लेकिन मरा नहीं है।
अब पंकज ने नौकरी ढूंढ़नी शुरू की — कुछ जो कैमरे से जुड़ा हो, कहानी से जुड़ा हो। लेकिन छोटे शहर में कहानी कहने वाले को अक्सर मज़ाक समझा जाता है।
वो एक स्थानीय न्यूज़ चैनल में वीडियो एडिटर की नौकरी करने लगा। सैलरी कम थी, लेकिन हर फ्रेम में वो अपनी कला डालने की कोशिश करता।
रात को वो एक नई स्क्रिप्ट पर काम करता — “रूपसागर” नाम से। कहानी एक सिनेमाघर की थी, जो पुराने दौर का था, लेकिन वहाँ आने वाले लोग नए सपनों से भरे थे।
आर्या से अब सिर्फ चैट पर बात होती थी — कभी हँसी, कभी उदासी, कभी खामोशी।
एक दिन, आर्या ने लिखा, “दिल्ली में एक फिल्म फेस्टिवल हो रहा है। क्यों न अपनी बनाई शॉर्ट फिल्म भेज दो?”
पंकज चौंका। “हमारी वो पुरानी स्क्रिप्ट?”
“हाँ। एडिट करके, थोड़ा सजाकर भेज दो। शायद कोई देखे, समझे।”
पंकज ने वही किया। पुराने फुटेज निकाले, G-7 की धुंधली क्लिप्स जोड़ दीं, और रातों की मेहनत से एक नई फिल्म बनाई: “छोटे शहर की बड़ी बात – Director’s Cut”
फेस्टिवल में भेजी, फिर भूल गया। लेकिन सपनों की दुनिया में कभी-कभी चमत्कार भी होते हैं।
दो हफ्ते बाद, एक मेल आया: “Your short film has been selected for screening at Delhi Indie Film Festival.”
पंकज रो पड़ा। शायद पहली बार, किसी ने उसके सपने को सच समझा था।
अब वो दिल्ली जाने की तैयारी करने लगा — इस बार दर्शक नहीं, निर्देशक बनकर।
दिल्ली का वो बड़ा परदा
दिल्ली। एक शहर जहां सपने बसते हैं, टूटते हैं, और फिर भी दुबारा आकार लेते हैं। पंकज पहली बार इस शहर में आया था — एक निर्देशक की तरह, अपने बनाए सपने को लेकर।
दिल्ली इंडी फिल्म फेस्टिवल का माहौल एकदम अलग था। चारों ओर युवा चेहरे, कैमरा थामे लोग, भाषा, शहर, और दुनिया के कोनों से आए फिल्म प्रेमी।
पंकज एक कोने में खड़ा होकर सबको देख रहा था — उसकी आँखों में वही चमक थी जो रूपसागर टॉकीज़ की बालकनी से परदे की ओर देखते वक़्त होती थी।
फिल्म की स्क्रीनिंग शाम छह बजे थी। उससे पहले कई शॉर्ट फिल्में दिखाई जा रही थीं — कुछ हास्य, कुछ गंभीर, कुछ experimental। पंकज बेचैनी से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था।
आर्या आई नहीं थी अभी तक। उसने सिर्फ इतना कहा था, “मैं आऊँगी। लेकिन वक्त पर।”
जब स्क्रीन पर उसकी फिल्म का नाम आया — “छोटे शहर की बड़ी बात – Director’s Cut” — पंकज की सांसें थम गईं। भीड़ में बैठे दर्शकों की आँखें स्क्रीन पर थीं।
फिल्म शुरू हुई। कैमरे का काम भले ही प्रोफेशनल ना हो, लेकिन कहानी दिल से निकली थी। लोग मुस्कुरा रहे थे, कहीं-कहीं भावुक हो रहे थे, और पंकज की हथेलियाँ भीग रही थीं।
क्लाइमेक्स में जब रूपसागर की G-7 सीट का क्लोज़अप आया और आवाज़ आई —
“कुछ सपनों को परदे पर देखना बाकी रह जाता है, लेकिन वो दिल में पहले ही अमर हो चुके होते हैं…”
तो पूरा हॉल शांत हो गया।
फिल्म खत्म होते ही तालियाँ बजने लगीं।
पंकज एक क्षण के लिए खुद को रोक नहीं सका — आँखें भीग गईं, लेकिन चेहरा गर्व से चमक रहा था।
तभी पीछे से एक आवाज़ आई — “शानदार था, डायरेक्टर साहब।”
वो पलटा — आर्या खड़ी थी। वही पुरानी मुस्कान, लेकिन आज उसमें आत्मीयता थी, अपनापन था।
“तुम… तुम आई?”
“कहा था न, इंटरवल के बाद कहानी और खूबसूरत हो जाती है।”
दोनों एक-दूसरे की ओर देख कर मुस्कुरा दिए। वहाँ सैकड़ों लोग थे, लेकिन उस क्षण, वो सिर्फ दो थे — एक कहानी, एक सपना।
रात को जब अवॉर्ड अनाउंस हुआ, तो उनकी फिल्म को “Audience Choice Award” मिला।
स्टेज पर पंकज गया, ट्रॉफी ली, और माइक के सामने सिर्फ एक बात कही —
“ये कहानी उस लड़की के लिए है जिसने मेरे सपनों को सिर्फ देखा नहीं, उनमें खुद को शामिल कर लिया।”
उस दिन, पंकज ने पहली बार एक भीड़ के सामने अपनी सिनेमा वाली आत्मा को स्वीकार किया।
लेकिन असली कहानी तो अभी बाकी थी।
अब सवाल था — क्या ये फिल्मी पल रील तक ही सीमित रहेगा, या रियल ज़िंदगी की स्क्रिप्ट भी लिखी जाएगी?
स्क्रीनप्ले ऑफ लव
फिल्म फेस्टिवल के अगले दिन, पंकज और आर्या दिल्ली की एक पुरानी किताबों की दुकान में बैठे थे — जहाँ पुराने सिनेमा स्क्रिप्ट्स, फिल्मी पोस्टर और डायरेक्टरों की आत्मकथाएँ बिकती थीं।
पंकज ने धीरे से पूछा, “कल जब स्टेज पर था, तुमने क्या सोचा?”
आर्या हँसी, “सोचा कि जिस लड़के को रूपसागर की टूटी कुर्सियाँ भी जन्नत लगती थीं, वो आज दिल्ली में स्टेज पर खड़ा है — और उसका सपना अब सिर्फ सपना नहीं, हकीकत बन गया है।”
पंकज चुप रहा। वो जानता था कि उस जादुई शाम का जिक्र जितना कम किया जाए, उतना ही उसका असर रहता है।
आर्या किताबों की अलमारी के सामने रुक गई, और एक स्क्रिप्ट की कॉपी निकाली — “मौसम और चाय”।
“ये मेरी अगली फिल्म की स्क्रिप्ट है,” उसने कहा।
“क्या?” पंकज ने चौंक कर पूछा।
“हाँ। मैंने तुम्हारे साथ स्क्रिप्टिंग के दौरान खुद भी लिखना शुरू किया। मेरी प्रोफेसर ने इसे एक प्रोड्यूसर को दिखाया। उन्होंने हाँ कह दिया।”
पंकज के भीतर एक अजीब सा तूफान उठा — खुशी, गर्व और हल्की सी बेचैनी।
“तो अब तुम डायरेक्टर बन रही हो?”
“हाँ… और चाहती हूँ कि तुम मेरी पहली फिल्म के को-डायरेक्टर बनो।”
पंकज कुछ पल तक कुछ नहीं बोल सका। इतने वर्षों का संघर्ष, अकेलेपन की आदत, और फिर अचानक ये प्रस्ताव।
“लेकिन मैं तो दिल्ली में नहीं रहता…”
“तो किसने कहा तुम नहीं रह सकते?”
पंकज ने एक लंबी सांस ली।
वो जानता था — ये सिर्फ फिल्म का प्रस्ताव नहीं था, ये आर्या का साथ मांगा गया था — जिंदगी के स्क्रीनप्ले में एक स्थायी किरदार बनने का मौका।
वो मुस्कुरा दिया, “चलो, एक और कहानी साथ में बना ही लेते हैं।”
**
पंकज ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। पापा से बात की। माँ से आशीर्वाद लिया। और दिल्ली आ गया।
आर्या के साथ फिल्म की तैयारियाँ शुरू हुईं। लेकिन प्रोड्यूसर का दबाव था — कुछ सीन बदलने के लिए, कुछ संवाद ‘कमर्शियल’ बनाने के लिए।
पंकज को खटका। “अगर ये कहानी आर्या की है, तो उसमें आर्या की आवाज़ होनी चाहिए, प्रोड्यूसर की नहीं।”
आर्या उलझन में पड़ गई। पहली फिल्म थी, जोखिम उठाना आसान नहीं था।
एक रात, दोनों इंडिया गेट के पास बैठे थे। हवा हल्की ठंडी थी, और सड़क की रौशनी में पंकज का चेहरा गंभीर दिख रहा था।
“हम ये फिल्म अपने नाम से क्यों न बनाएं?” पंकज बोला।
“मतलब?”
“Independent production। खुद फंड जुटाएँ। थोड़ी कम क्वालिटी होगी, लेकिन हमारी होगी। प्रोड्यूसर के कहने पर चलने से अच्छा है, कुछ महीनों की मेहनत और करें — लेकिन फिल्म हमारी बने।”
आर्या की आँखों में आत्मविश्वास लौटा।
“तुम हमेशा मेरे स्क्रीनप्ले में ट्विस्ट लेकर आते हो,” उसने कहा।
“क्योंकि मैं जानता हूँ — कहानी वहीं खत्म होती है जहाँ हम हिम्मत छोड़ते हैं। और हम अभी नहीं छोड़ सकते।”
उस रात, दोनों ने एक वादा किया — अब जो भी फिल्म बनेगी, वो उनकी होगी, उनकी शर्तों पर।
और उनके प्यार की कहानी भी।
क्योंकि अब, सिनेमा वाला सपना सिर्फ परदे पर नहीं, दिलों में भी उतर चुका था।
भाग 7: शूटिंग के पीछे की कहानी
पंकज और आर्या ने मिलकर एक नया सफर शुरू किया। फिल्म का नाम रखा गया — “मौसम और चाय”। एक सादा लेकिन दिल को छूने वाली कहानी, जिसमें प्यार था, संघर्ष था, और उन छोटे-छोटे पलों की मिठास थी जो अक्सर अनकहे रह जाते हैं।
अब सब कुछ उनके अपने हाथ में था — स्क्रिप्ट, डायरेक्शन, लोकेशन, और सपनों की दिशा भी।
दोनों ने अपने कॉलेज के पुराने दोस्तों को जोड़ा — कोई कैमरा संभालता, कोई लाइटिंग, कोई साउंड। सबने बिना पैसे लिए काम करने का वादा किया, क्योंकि सबको पंकज और आर्या की कहानी में अपना सपना दिख रहा था।
पहला सीन शूट हुआ — पुरानी हवेली की छत पर, दो किरदार एक चाय की प्याली बाँटते हुए मौसम की बातें करते हैं। बारिश की बूंदें नहीं थीं, लेकिन टीम ने स्प्रे बॉटल से छत को भिगोकर माहौल बनाया।
पंकज कैमरे के पीछे था, आर्या स्क्रिप्ट के आगे।
हर दिन की शूटिंग एक नई चुनौती लेकर आती। कहीं किराए की जगह वक्त पर नहीं मिलती, कहीं लाइट चली जाती, तो कहीं एक्टर ही गायब हो जाता।
लेकिन हर बार, दोनों हँसते हुए एक-दूसरे से कहते, “यही है असली सिनेमा।”
एक दिन, जब शूटिंग के बाद दोनों थककर एक चाय की दुकान पर बैठे थे, आर्या ने अचानक पूछा, “कभी सोचा है कि हम एक-दूसरे से ऐसे क्यों जुड़ गए?”
पंकज ने चाय का घूंट लेते हुए जवाब दिया, “क्योंकि हम दोनों ने सिनेमा को सिर्फ देखा नहीं, जिया है। और शायद इसलिए भी क्योंकि तुमने मेरी कहानी में रंग भरे हैं।”
आर्या मुस्कुरा दी, “और तुमने मेरी आवाज़ को पर्दे पर लाने की हिम्मत दी है।”
धीरे-धीरे शूटिंग खत्म हुई। एडिटिंग शुरू हुई — कंप्यूटर की स्क्रीन पर किरदारों के चेहरे, संवाद, बैकग्राउंड म्यूजिक सब एक नई दुनिया बना रहे थे।
फिल्म तैयार हुई। उन्होंने उसे यूट्यूब पर रिलीज़ करने का निर्णय लिया, क्योंकि थिएटर रिलीज़ के लिए पैसे नहीं थे।
लेकिन उन्होंने एक चीज़ की कीमत लगाई — इमानदारी की।
**
रिलीज़ वाले दिन, पंकज और आर्या एक साथ रूपसागर टॉकीज के बाहर खड़े थे — अब वहाँ पुरानी फिल्में नहीं चलती थीं, लेकिन पंकज की यादें अब भी वहाँ थीं।
“अगर यह सब यहीं से शुरू हुआ था, तो यहीं से एक नई शुरुआत क्यों नहीं हो सकती?” आर्या ने कहा।
उन्होंने अपने दोस्तों को बुलाया, एक प्रोजेक्टर लाया, और रूपसागर की दीवार पर “मौसम और चाय” का पहला शो शुरू हुआ — ओपन एयर स्क्रीनिंग।
पास के लोग, रिक्शावाले, बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक आकर बैठ गए।
किसी ने टिकट नहीं माँगा। सबने कहानी सुनी, देखी, महसूस की।
फिल्म खत्म होते ही तालियाँ बजीं।
पंकज और आर्या ने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया।
“हमने कर दिखाया,” आर्या ने कहा।
“नहीं,” पंकज बोला, “हमने बस शुरुआत की है।”
क्योंकि जब सिनेमा सपना बन जाए, और वो सपना दो दिलों में जिए, तो कहानी कभी खत्म नहीं होती — वो हर दर्शक के दिल में फिर से शुरू होती है।
भाग 8: सपनों की स्क्रीनिंग
“मौसम और चाय” की ओपन एयर स्क्रीनिंग ने जैसे शहर में हलचल मचा दी। अखबारों ने खबर छापी — “छोटे शहर में बड़ा सिनेमा”। सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल हो गया — एक पुराने सिनेमाघर की दीवार पर सपनों की फिल्म चलती दिखी और लोगों ने कमेंट किया, “ये कहानी हम सबकी है।”
पंकज और आर्या को यकीन नहीं हो रहा था। कुछ ही दिनों में फिल्म को लाखों व्यूज़ मिल गए। दिल्ली, मुंबई, पुणे, बंगलौर — हर शहर से लोग लिखने लगे।
“ऐसे प्योर सिनेमा की जरूरत थी।”
“पहली बार चाय और बारिश को इतना खूबसूरत किसी ने दिखाया।”
“ये फिल्म नहीं, एहसास है।”
कुछ हफ्तों बाद, उन्हें मुंबई से एक मेल आया — एक ओटीटी प्लेटफॉर्म की ओर से।
“We loved your work. We’d like to discuss future projects. Let us know if you are interested.”
आर्या ने उत्साह में पंकज को कॉल किया, “ये तो फिल्मी सीन है!”
पंकज मुस्कुराया, “तुम्हारी ज़िंदगी ही सिनेमा है। और शायद अब हम उसका पार्ट 2 शुरू करने वाले हैं।”
मुंबई का टिकट बुक हुआ। दोनों हाथ में वही डायरी और स्क्रिप्ट लिए सपनों की नगरी में उतरे। सिनेमा की चमक वहाँ थी, लेकिन उनके पास जो था वो और गहरा था — खुद का अंदाज़, अपनी आवाज़।
ओटीटी की टीम ने उनका आइडिया सुना — अगली फिल्म: “स्टेशनवाली चिट्ठियाँ”, जो छोटे शहर के रेलवे स्टेशन पर एक चायवाले की ज़िंदगी और उसकी अधूरी प्रेम कहानी पर आधारित थी।
टीम इम्प्रेस हुई। तीन महीने की तैयारी और फंडिंग का वादा मिला।
मुंबई के स्टूडियो में बैठकर पंकज को लगा — वही लड़का जो रूपसागर टॉकीज़ की G-7 सीट पर बैठकर फिल्मों में खो जाता था, आज कैमरे के पीछे बैठा है।
एक शाम, शूटिंग के बाद आर्या ने पंकज से पूछा, “अगर तुम्हें अब कहें कि तुम्हारा सपना पूरा हो गया है, तो तुम क्या कहोगे?”
पंकज ने शांत होकर जवाब दिया,
“सपने कभी पूरे नहीं होते। वो सिर्फ नई कहानियों की शक्ल में सामने आते हैं। जैसे तुम आईं। जैसे ये फिल्म बनी। जैसे ये सफर शुरू हुआ।”
आर्या ने उसकी ओर देखा — वो वही लड़का था जो एक बार डायरी में लिखा करता था, “फिल्में सिर्फ देखने की चीज़ नहीं होतीं, वो जीने की वजह होती हैं।”
अब पंकज की जिंदगी में फिल्में ही नहीं, आर्या भी वजह बन गई थी।
एक रात, चुपचाप मुंबई की समुद्र-किनारे बैठकर पंकज ने जेब से एक पुराना टिकट निकाला — रूपसागर टॉकीज, पहली फिल्म: कुछ कुछ होता है।
आर्या ने उसका हाथ थामा और बोली, “अब ये कुछ कुछ वाला एहसास, हर दिन होता है न?”
पंकज मुस्कुरा उठा, “हाँ। और इस बार, मैं इंटरवल के बाद हॉल से बाहर नहीं जा रहा।”
कहानी अब सिर्फ पर्दे पर नहीं थी। वो उनकी रगों में बह रही थी — एक फिल्म, जो हर रोज़ बन रही थी, हर रात एडिट हो रही थी, और हर सुबह रिलीज़ हो रही थी — उनके अपने सिनेमा में।
भाग 9: वो कहानी जो परदे से बाहर निकली
“स्टेशनवाली चिट्ठियाँ” की शूटिंग खत्म हुई। पोस्ट-प्रोडक्शन के दौरान पंकज और आर्या दिन-रात एक कर चुके थे। साउंड मिक्सिंग, कलर ग्रेडिंग, बी-रोल, बैकग्राउंड म्यूज़िक — हर छोटी चीज़ में दोनों की उंगलियों के निशान थे।
जब फिल्म पूरी हुई, उन्होंने महसूस किया कि ये सिर्फ किरदारों की कहानी नहीं थी, ये उनकी अपनी भी थी — अधूरी चिट्ठियाँ, छूटे हुए स्टेशन, और वो खामोशी जो सिर्फ सच्चे प्यार में होती है।
ओटीटी पर फिल्म रिलीज़ हुई और पहले ही हफ्ते में Top 5 regional originals की लिस्ट में आ गई।
फोन बजने लगे। इंटरव्यू के कॉल्स, फिल्म स्क्रीनों के आमंत्रण, और कुछ तो पंकज को ‘नए दौर का ऋषिकेश मुखर्जी’ तक कहने लगे।
एक रात, जब वे दोनों अपने छोटे से मुंबई फ्लैट की बालकनी में चाय पी रहे थे, आर्या ने कहा,
“अब जब सब कुछ बदल रहा है… हमें भी कुछ कह देना चाहिए ना?”
पंकज ने कप रखा और धीरे से पूछा, “क्या?”
आर्या हँस दी, “वो जो फिल्मों में होता है। बारिश, प्रपोजल, म्यूजिक…”
पंकज ने उसके हाथ में अपना पुराना डायरी थमाया।
“पढ़ो आखिरी पन्ना।”
आर्या ने पढ़ा —
“मैंने जो भी कहानी लिखी, उसमें तुम थी। जो फ्रेम लिया, उसमें तुम्हारी मुस्कान। अब जिंदगी की अगली स्क्रिप्ट में, मैं तुम्हारा नाम क्रेडिट में नहीं, मेरे नाम के साथ चाहता हूँ। क्या तुम मेरी को-डायरेक्टर… और को-लाइफ पार्टनर बनोगी?”
आर्या के होंठ काँपे, “तुम्हें तो फिल्में भी ऐसे बनानी थीं कि लोग रो दें…”
पंकज मुस्कुराया, “और ज़िंदगी भी।”
वो रात, बिना कैमरा, बिना क्लैपबोर्ड, सबसे सुंदर सीन बन गई।
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शादी साधारण सी थी — एक पुरानी सिनेमा हॉल में, जहां दोस्तों ने मिलकर सजावट की थी। बैकग्राउंड में वही क्लासिक गाने बज रहे थे, और गेस्ट्स को टिकट के बदले इन्विटेशन दिया गया था।
मंडप के सामने एक पोस्टर टंगा था —
“Coming Soon: हमारी ज़िंदगी — एक सच्चा प्रेम कथा।”
शादी के बाद, दोनों ने एक छोटा प्रोडक्शन हाउस खोला — G-7 Films — नाम रखा उस सीट के नाम पर, जहां से ये पूरी कहानी शुरू हुई थी।
हर शुक्रवार वे एक छोटी फिल्म बनाते — बिना बड़े स्टार्स, बिना भारी बजट — बस दिल से बनी कहानियाँ।
लोग अब G-7 Films के नए रिलीज़ का इंतज़ार करते।
और पंकज?
वो अब भी डायरी लिखता था। हर फिल्म के बाद, हर कहानी के बाद, लेकिन अब वो अकेले नहीं था। उसकी हर लाइन में आर्या थी।
क्योंकि सिनेमा वाला सपना अब ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका था।
भाग 10: अंतिम सीन, नई शुरुआत
कुछ साल बीत चुके थे। G-7 Films अब सिर्फ एक प्रोडक्शन हाउस नहीं, एक आंदोलन बन गया था — सिनेमा को दिल से बनाने का, छोटे शहरों से बड़े पर्दे तक पहुँचने का, और सच्ची कहानियों को आवाज़ देने का।
पंकज और आर्या अब भी उसी जोश से फिल्में बनाते थे, जैसे पहली बार बनाई थी। उनके स्टूडियो की दीवारों पर उनकी हर फिल्म का पोस्टर टँगा था — और सबसे ऊपर था वो पुराना टिकट, रूपसागर टॉकीज, सीट G-7।
एक दिन, पंकज को एक चिट्ठी मिली — उसके ही शहर के एक स्कूल से।
“हमारे बच्चे फिल्मों में रुचि रखते हैं। क्या आप एक वर्कशॉप ले सकते हैं?”
वो मुस्कुरा उठा। एक छोटा बैग भरा, कैमरा लिया, और ट्रेन में बैठ गया — उसी स्टेशन से जहाँ उसने पहली बार आर्या को अलविदा कहा था।
स्कूल में बच्चों की आँखों में वही चमक थी, जो कभी पंकज की हुआ करती थी।
“फिल्म क्यों बनाते हैं?” एक बच्चे ने पूछा।
पंकज ने बोर्ड पर एक वाक्य लिखा —
“क्योंकि कुछ बातें दिल से निकलती हैं, परदे तक पहुँचती हैं, और वहाँ से वापस दिलों में घर कर जाती हैं।”
शाम को वो रूपसागर गया। अब वहाँ सिनेमा नहीं चलता था, जगह बंद थी, खिड़कियाँ जंग लगी हुईं। लेकिन उसकी आत्मा अब भी वहाँ थी।
वो बालकनी में बैठ गया, G-7 की वही टूटी कुर्सी पर। आँखें बंद कीं और सब कुछ फिर से जी लिया — पहली फिल्म, पहली मुलाकात, पहली मुस्कान, पहला सपना।
आर्या का फोन आया, “बच्चों को सिखा आए हीरो?”
“हाँ। और खुद भी कुछ याद कर आया।”
“क्या?”
“कि फिल्में कभी नहीं मरतीं, बस एक किरदार से दूसरे तक चलती रहती हैं।”
कुछ महीने बाद, G-7 Films ने एक नई फिल्म लॉन्च की —
“सिनेमा वाला सपना”
कहानी एक ऐसे लड़के की, जो फिल्में देखने से शुरू करता है और फिल्में बनाने तक पहुँचता है।
यह उनकी अपनी कहानी थी।
रिलीज़ के दिन, थिएटर हाउसफुल था। परदे पर जब पंकज का किरदार पहली बार रूपसागर की सीट पर बैठता है, तो दर्शकों की तालियाँ रुकती नहीं।
फिल्म खत्म होने के बाद क्रेडिट रोल में लिखा था —
“Dedicated to every dreamer sitting on seat G-7.”
पंकज और आर्या पीछे की सीट पर बैठे मुस्कुरा रहे थे।
पंकज ने धीरे से कहा,
“कट।”
आर्या हँसी, “अभी नहीं। अब तो ज़िंदगी का सीक्वल शुरू हुआ है।”
और इस तरह, सिनेमा वाला सपना एक फिल्म नहीं, एक एहसास बन गया।
एक याद, एक यात्रा, एक यकीन —
कि अगर सपने सच्चे हों, और साथ सच्चा हो,
तो परदे से बाहर भी कहानी जी जाती है।
— समाप्त —
				
	

	


