राहुल शुक्ला
भाग 1: धारावी का नया राजा
धारावी की तंग गलियाँ उस रात कुछ ज्यादा ही चुप थीं। हवा में बारूद की गंध घुली थी और पुलिस की सायरन की आवाज़ दूर से गूंज रही थी। साया — मुम्बई अंडरवर्ल्ड का एक नाम, जिसे सुनते ही लोगों के चेहरे पर पसीना छलक आता था — आज रात एक और खून के बाद माफिया की गद्दी पर पूरी तरह बैठ चुका था।
साया का असली नाम था रईस अली, लेकिन अब उसे कोई इस नाम से नहीं जानता। वो गुमनाम रहना चाहता था, पर उसकी कहानियाँ हर नुक्कड़-चाय की दुकान तक गूंजती थीं। लोग कहते थे कि उसने बचपन में ही पहली बार बंदूक चलाई थी — सिर्फ इसलिए कि उसके पिता को एक लोकल गुंडे ने पीटा था।
वो रात जब साया ने माफिया डॉन भाऊ ठाकरे के दाहिने हाथ गणेश पाटील को खुलेआम गोली मारी थी, तब मुम्बई के अंडरवर्ल्ड का संतुलन डगमगाया था। आज उसी संतुलन को खत्म कर उसने गद्दी हथिया ली थी।
पुलिस कमिश्नर राघव मिश्रा को जब खबर मिली कि गणेश पाटील मारा गया, तो उसने सिर्फ एक नाम सोचा — “साया।”
“उसे अब रोकना होगा,” मिश्रा ने अपने ऑफिस में बैठे-बैठे कहा, “वरना ये शहर फिर से खून की नदियों में डूब जाएगा।”
दूसरी ओर, साया अपने लोगों के साथ एक पुराने गोदाम में जश्न मना रहा था। उसके चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी, सिर्फ गंभीरता। उसके दाहिने हाथ मकबूल ने पूछा, “भाई, अब क्या आगे का प्लान?”
साया ने धीरे से कहा, “भाऊ ठाकरे अब अकेला है। अब उसका खेल खत्म करना है। लेकिन पुलिस भी पीछे लग गई है। सावधानी जरूरी है।”
धारावी की गलियों में साया को हीरो मानते थे। लोग कहते थे वो गरीबों को पैसे देता है, लड़कियों की रक्षा करता है, और पुलिस की रिश्वतखोरी के खिलाफ था। लेकिन क्या वो सच में हीरो था या सिर्फ एक और खूनी खिलाड़ी? यह सवाल हर किसी के मन में था, पर साया को फर्क नहीं पड़ता।
उधर, भाऊ ठाकरे अपने मलाड वाले फार्महाउस में बैठा सिगार पी रहा था। उसके पास खबर पहुंच चुकी थी — “गणेश गया। अब बारी तेरी है।”
भाऊ के साथ बैठे दीवानजी, जो उसका अकाउंट संभालते थे, बोले, “साया को खत्म करना ही होगा। नहीं तो वो सब कुछ ले जाएगा।”
भाऊ ने आंखें बंद कीं, “साया को मैंने ही बनाया था। उसे उठाया था सड़क से। पर अब वही मेरा तख्त छीनना चाहता है।”
दीवानजी ने धीरे से कहा, “राजनीति में भी कुछ लोग साया से डरे हुए हैं। अगर पुलिस ने उसे पकड़ लिया, तो राज खोल देगा। हमें पहले पहुंचना होगा।”
उस रात, मुम्बई में दो और हत्याएँ हुईं — एक बांद्रा के क्लब के बाहर, दूसरी घाटकोपर में। दोनों घटनाओं में एक ही संकेत मिला — साया की गोलियाँ। लेकिन पुलिस को कुछ और शक था। मिश्रा सोच में डूबा था — “इतना साफ काम साया का नहीं हो सकता… कोई उसे फंसा रहा है क्या?”
धारावी के अंधेरे में साया अपने पुराने दोस्त फैज़ी से मिल रहा था, जो अब एक पत्रकार था। फैज़ी बोला, “तू ये सब छोड़ दे भाई, तू अलग है।”
साया मुस्कुराया, “अब बहुत देर हो चुकी है, फैज़ी। जो रास्ता मैंने चुना, वहाँ से लौटने की कोई गली नहीं है।”
मुम्बई की गलियों में एक नया भूचाल आने वाला था। साया, भाऊ ठाकरे और पुलिस — तीनों एक खतरनाक खेल में उतर चुके थे।
और शहर… वो बस सांस रोक कर देख रहा था।
भाग 2: पुलिस की बिसात
धारावी की सुबह बाकी मुम्बई से अलग होती है। यहाँ सूरज की किरणें पहले नहीं पहुँचतीं—पहले पहुँचते हैं खौफ़ के अफवाह। आज सुबह भी कुछ वैसा ही था। एक चायवाले ने धीमे से कहा, “कल रात फिर से दो मर्डर हुए। दोनों में साया का नाम आ रहा है।”
लेकिन सच्चाई कुछ और थी।
कमिश्नर राघव मिश्रा की मीटिंग चल रही थी। सामने DCP विक्रम राठौड़, क्राइम ब्रांच चीफ़ लीना डिसूज़ा, और इंटेलिजेंस अफ़सर नमन खत्री।
“दो जगह मर्डर हुए,” विक्रम ने कहा, “लेकिन गन के कार्ट्रिज और सिग्नेचर साया के स्टाइल से मेल नहीं खाते।”
लीना बोली, “साया चालाक है, मगर वो बेवकूफ़ नहीं। वो जानता है कि पुलिस हर वक्त उसके पीछे है। वो इस तरह सरेआम खून नहीं करेगा।”
मिश्रा ने गहरी सांस ली, “तो सवाल ये है—क्या कोई साया के नाम पर मर्डर कर रहा है?”
नमन ने धीरे से कहा, “या फिर भाऊ ठाकरे ने चाल चली है।”
उसी समय, भाऊ ठाकरे ने अपने सबसे खतरनाक शूटर तपेश यादव को बुलाया। तपेश ने सिर झुकाया, “भाऊ, हुकुम दीजिए।”
“साया की छाया को ही खत्म कर दो,” भाऊ ने कहा, “इस शहर को फिर से मेरी जरूरत है।”
तपेश की आंखें चमकीं। उसे मालूम था कि मुम्बई में सिर्फ दो रास्ते होते हैं—राज करने का या खत्म हो जाने का।
वहीं दूसरी ओर, साया अपने अड्डे पर नक्सा फैलाए बैठा था। उस पर शहर की हर गली, हर चौराहा, और हर पुलिस स्टेशन मार्क किया हुआ था।
मकबूल ने पूछा, “भाई, अगला कदम क्या है?”
साया बोला, “पुलिस को बताना होगा कि जो कुछ हो रहा है, वो मेरा किया नहीं। मैं उन्हें सीधा मैसेज देना चाहता हूँ।”
फैज़ी, जो वहाँ मौजूद था, चौंका, “तू पुलिस से डील करेगा?”
साया ने आंखों में ठंडा सा सन्नाटा लिए कहा, “नहीं फैज़ी, डील नहीं… वार्निंग।”
कमिश्नर मिश्रा को उसी रात एक लिफाफा मिला। अंदर थी एक चिट्ठी, जिसमें सिर्फ दो लाइनें लिखी थीं:
“खून मैं नहीं कर रहा हूँ। जो खेल खेला जा रहा है, उसका असली चेहरा ढूँढो—वरना तुम भी मोहरा बन जाओगे।
– साया”
मिश्रा को पहली बार साया की बात में सच्चाई लगी। लेकिन क्या एक माफिया की बात पर यकीन किया जा सकता है?
भाऊ ठाकरे इस सब से बेखबर नहीं था। उसके आदमी हर जगह फैले हुए थे। उसने अपने सबसे पुराने दोस्त, मंत्री अरुण माने से बात की।
“अगर साया बच गया, तो तुम्हारा चुनाव भी डगमगा सकता है,” भाऊ ने कहा।
अरुण ने झल्ला कर फोन रखा, “मुझे नतीजा चाहिए, सफाई नहीं।”
उधर साया को पता चला कि सुदीप भोसले, एक पुराना कॉन्ट्रैक्टर जो पहले भाऊ के लिए काम करता था, अब भाऊ से नाराज चल रहा है। साया ने फैसला लिया—”उससे मिलना होगा।”
रात के अंधेरे में साया और मकबूल पहुँचे वडाला के एक पुराने बंद ऑफिस में। सुदीप ने डरते-डरते दरवाज़ा खोला।
“मैं कोई खेल नहीं खेल रहा, साया,” वो कांपते हुए बोला।
“मुझे खेल से मतलब नहीं,” साया बोला, “मुझे सिर्फ सच्चाई चाहिए। और अगर तू मेरे साथ है… तो ये शहर अब एक नई कहानी देखेगा।”
लेकिन उसी वक्त, एक छत से दूरबीन झाँक रही थी। उधर से तपेश यादव ने अपनी बंदूक लोड की।
“पहली गोली होगी चेतावनी… अगली होगी कहानी की आखिरी लाइन,” वो फुसफुसाया।
साया को अब हर दिशा से घिरा जाना शुरू हो चुका था। पर क्या वह सिर्फ भाग्य के सहारे बचेगा? या उसने भी कुछ सोचा है?
भाग 3: शिकार और शिकारी
मुम्बई की रातें जितनी रोशन दिखती हैं, उतनी ही अंधेरी होती हैं उनके भीतर। हर चमक के पीछे कोई साया छिपा होता है। और इस बार, उस साये पर खुद निशाना साधा जा रहा था।
साया वडाला की उस पुरानी बिल्डिंग से बाहर निकला ही था कि दीवार के ठीक सामने की छत से एक गोली चली। मकबूल ने झपटकर साया को पीछे खींच लिया। गोली दीवार में धँस गई — दो इंच और, और साया की छाती छलनी हो चुकी होती।
“भाई! किसी ने जानबूझकर मारने की कोशिश की,” मकबूल चीखा।
साया ने सिर घुमाकर ऊपर देखा — दूरबीन की चमक एक पल के लिए दिखी, फिर गायब हो गई।
दूसरी तरफ, गोली चलाने वाला तपेश यादव गुस्से में फनफना रहा था।
“कमबख्त बच गया!” उसने मोबाइल निकाला और भाऊ को कॉल किया।
“माफ करना भाऊ, आज नहीं हुआ।”
भाऊ की भारी आवाज़ फोन से निकली, “अब गलती की कोई गुंजाइश नहीं है तपेश। अगली बार या तो वो मरे, या तू।”
फोन कट गया।
कमिश्नर मिश्रा भी बैठा नहीं था। साया की चिट्ठी ने उसे परेशान कर रखा था। उसने लीना डिसूज़ा और नमन खत्री को बुलाया।
“हमें इस बात की तह तक जाना होगा,” मिश्रा ने कहा। “अगर वाकई कोई तीसरी ताकत इस शहर में खेल रही है, तो ये सिर्फ माफिया की लड़ाई नहीं रह जाती, ये पॉलिटिक्स और पुलिस की भी हार बन जाती है।”
नमन ने धीरे से कहा, “एक विचार है सर — क्यों न हम साया को ट्रैक करें? अगर वो सही कह रहा है, तो खुद हमारे पास आएगा। और अगर झूठ बोल रहा है, तो जल्द सामने आ जाएगा।”
साया ने भी अपने लोगों को इकट्ठा किया। एक छोटी सी गैरेज में छह आदमी बैठे थे — सब वफादार, सब सड़कों के बच्चे, जो अब उसका खून बन चुके थे।
“हमें सिर्फ बचना नहीं है,” साया ने कहा, “हमें पता लगाना है कि हमारे पीछे कौन है। और उसका नाम मैं किसी अखबार की हेडलाइन नहीं, उसकी कब्र पर लिखना चाहता हूँ।”
फैज़ी, जो हमेशा दो कदम दूर रहता था, अब और नज़दीक आ गया था।
“तेरा नाम अब भी दहशत है, रईस,” उसने कहा, “लेकिन क्या तू अब भी इंसान है?”
साया ने जवाब नहीं दिया। वो सिर्फ सामने पड़ी एक पुरानी बंदूक को साफ करता रहा — जैसे अपने अतीत को मिटा रहा हो।
मुम्बई पुलिस ने एक गुप्त ऑपरेशन शुरू किया — नाम था “शिकारी”। लक्ष्य था साया की लोकेशन ट्रेस करना और उसके हर एक मूवमेंट को रिकॉर्ड करना। लेकिन जो उन्हें नहीं पता था — साया खुद यह जान चुका था।
उसके लिए अब मुम्बई एक खुला शतरंज था — हर मोहरे की पहचान, हर चाल का अंदाज़।
उसने मकबूल से कहा, “भाऊ को मालूम नहीं, लेकिन उसका सबसे भरोसेमंद आदमी अब मेरा है।”
“कौन?” मकबूल चौंका।
साया मुस्कुराया, “दीवानजी।”
उधर दीवानजी, जो सालों से भाऊ ठाकरे का फाइनेंस संभालते थे, अब डरे हुए थे। उन्हें साया से एक चिट्ठी मिली थी:
“तुम्हारा हर हिसाब अब मेरे पास है। जो पाप छुपाया है, वो उजागर कर दूँ? या साथ दे दो और इतिहास बदलो?”
दीवानजी काँप उठे। उनके लिए अब कोई भी रास्ता सुरक्षित नहीं था।
रात के दो बजे, बांद्रा की एक सुनसान सड़क पर एक गाड़ी खड़ी थी। गाड़ी में बैठा था एक नकाबपोश — वो साया नहीं था, पर साया के भेजे आदमी से मिल रहा था।
“अगली डील का पैसा कल ट्रांसफर होगा,” उसने कहा, “सिर्फ इतना जान लो — जो खेल खेला जा रहा है, उसका राजा अब बदल चुका है।”
कमिश्नर मिश्रा को एक कॉल आया।
“सर, हमें साया के सबसे खास आदमी की लोकेशन मिली है — और वो दीवानजी से मिल रहा है।”
मिश्रा ने फोन नीचे रखा और कहा, “अब शिकारी हम नहीं… वो है। पर शिकार कौन है, यह तय करना बाकी है।”
भाग 4: बंद दरवाज़ों के पीछे
मुम्बई की बारिश उस रात बिना चेतावनी के आई — तेज़, बेमौसम और आक्रामक। जैसे आसमान भी इस शहर की उथल-पुथल में अपना हिस्सा जोड़ना चाहता था। सड़कें खाली हो गई थीं, पर धारावी के एक पुराने गोदाम के भीतर, एक गहरी बातचीत चल रही थी।
दीवानजी अपनी पूरी ज़िंदगी में कभी इतना पसीना नहीं बहाए थे, जितना उस रात बहा रहे थे। सामने बैठा था साया — चेहरे पर शांति, पर आंखों में सवाल।
“तो तुम तय कर चुके हो?” साया ने पूछा।
दीवानजी ने काँपती आवाज़ में कहा, “मुझे अपनी जान प्यारी है, और अपने पापों की माफी भी। भाऊ के सारे अकाउंट्स, हवाला डील्स, मंत्री कनेक्शन… सब दे दूँगा। लेकिन मुझे बाहर निकलने का रास्ता चाहिए।”
साया ने सिर झुकाया। एक पुरानी फाइल दीवानजी के सामने सरका दी।
“इसमें तेरे बेटे की फीस से लेकर तेरे फार्महाउस की लोन डिटेल तक है। तू अगर गिरा, तो सब तेरे साथ गिरेंगे। अब फैसला तेरा है — जीना है, या गिरना है।”
दीवानजी ने फाइल को देखा — और फिर चुपचाप अपना मोबाइल निकाल कर भाऊ की कॉल को काट दिया।
उधर, भाऊ ठाकरे अपने फार्महाउस में बेचैनी से इधर-उधर घूम रहा था। सिगार का धुंआ भी अब सुकून नहीं दे रहा था।
तपेश यादव अंदर आया। “साया के बंदे हर जगह फैल गए हैं। अब कुछ बड़ा करना होगा भाऊ।”
भाऊ ने खिड़की के बाहर झांकते हुए कहा, “वो एक सांप है। धीरे-धीरे लपेटता है, फिर एक बार में काटता है। हमें उससे पहले डसना होगा।”
“तो क्या करें?” तपेश ने पूछा।
“उसकी जड़ पर वार करो,” भाऊ गुर्राया। “उसके बचपन की गली, उसकी माँ की कब्र, उसके लोगों का ठिकाना — सब जला दो। उसे ऐसा दर्द दो जो गोली भी नहीं दे सकती।”
पुलिस कमिश्नर राघव मिश्रा को उसी वक्त एक इन्फॉर्मर से सूचना मिली: “भाऊ की अगली चाल सीधी साया की आत्मा पर है। वो उसके अतीत को मिटाने जा रहा है।”
मिश्रा अब असहाय महसूस कर रहा था — दो राक्षसों की लड़ाई में शहर को कोई नहीं बचा पा रहा था।
“लीना,” उसने कहा, “अब हमें तय करना होगा कि किसको कम खतरा मानें — साया को या ठाकरे को।”
लीना बोली, “दोनों को दुश्मन बनाकर चलेंगे, वरना हम खुद मोहरा बन जाएंगे।
धारावी में उस रात फिर से आग लगी।
साया की माँ की कब्र के पास रखा छोटा मंदिर जला दिया गया। एक पुराना लंगड़ा आदमी जो साया का पहला गुरू था — बाबा याकूब — उसे पीट-पीट कर अधमरा छोड़ दिया गया।
साया वहाँ पहुँचा तो बारिश थम चुकी थी, पर राख से उठता धुआं अब भी सुलग रहा था।
बाबा याकूब की टूटी हड्डियों के बीच से एक वाक्य निकला, “भाऊ… वो नहीं चाहता कि तू कुछ भी याद रखे।”
उस रात साया ने पहली बार खुद को अकेले बंद कमरे में रोते हुए पाया।
उसने दीवार पर टँगी अपनी पुरानी फोटो देखी — एक छोटा बच्चा, जिसकी आँखों में दुनिया को जीतने का सपना था।
पर अब… अब वो सिर्फ जीतना नहीं चाहता था, सब कुछ खत्म करना चाहता था।
फैज़ी ने साया से पूछा, “अब क्या करोगे?”
साया ने धीरे से जवाब दिया, “अब मैं माफ नहीं करूंगा। अब मैं बनूँगा वो साया… जो रात में भी डर बनकर घूमे।”
और दूसरी ओर, भाऊ ठाकरे ने अगले हमले की योजना बना ली थी।
“अगर वो सोचता है कि मैं उसे अपने से बड़ा बनने दूँगा, तो वो भूल रहा है कि मैं ही उसका पिता हूँ… और बाप का एक ही काम होता है — बेटे को गिरने से पहले खुद गिरा देना।”
भाग 5: जाल
मुम्बई के ऊपर आसमान साफ़ था, पर ज़मीन के नीचे गहराती चालें एक तूफ़ान की तैयारी कर रही थीं।
साया अब सिर्फ एक डॉन नहीं रहा था। वह बन चुका था एक मिशन — खुद के अतीत से लड़ने का, एक शहर को साफ़ करने का, और उन सभी चेहरों को बेनकाब करने का जो सत्ता के नकाब में लाशें छुपाए फिरते थे।
लेकिन आज की रात साया का गेम कुछ अलग था।
धारावी के भीतर एक सुनसान गैरेज में, पुरानी गाड़ियों के ढेर के बीच बैठे थे साया, मकबूल और दीवानजी।
“भाऊ की अगली मूव क्या है?” साया ने पूछा।
दीवानजी ने काँपते हुए कहा, “वो अब राजनीति को खुलकर इस्तेमाल करेगा। उसे मंत्री अरुण माने का पूरा सपोर्ट मिल चुका है। और अगले हफ्ते, वे लोग एक बड़ा ‘स्मार्ट सिटी’ प्रोजेक्ट लॉन्च करने वाले हैं — जहाँ से सारा पैसा निकलेगा।”
साया की आंखों में चमक आई।
“मतलब उसके पैसे का पेट वहीं भरा जा रहा है?”
दीवानजी ने सिर हिलाया, “लेकिन सिर्फ भाऊ नहीं, उस प्रोजेक्ट में तुम्हारी भी पुरानी दुश्मन है… रेहाना शेख।”
रेहाना — साया की पहली मोहब्बत। अब भाऊ के लिए काम करती थी। वो उसे सिर्फ ‘भाईजान’ नहीं कहती थी, बल्कि उसे सत्ता में भी भागीदार बन चुकी थी।
रेहाना तेज़ थी, खूबसूरत थी, और खतरनाक भी। जब रईस अली ने साया बनने की राह चुनी, तब रेहाना ने उसका साथ छोड़ा और ठाकरे से जुड़ गई।
अब वही रेहाना, मुम्बई के सबसे बड़े घोटाले की चाभी थी।
उधर, भाऊ ठाकरे अपने मलाड वाले फार्महाउस में बैठा अपने खास लोगों से बात कर रहा था।
“हमें साया को गेम से बाहर करना है,” उसने कहा।
रेहाना ने नज़रें चुराते हुए पूछा, “कैसे?”
भाऊ ने मंद मुस्कान के साथ जवाब दिया, “उसे भरोसे में लेकर। तुम उसकी कमजोरी हो — अब तुम ही उसकी मौत बनोगी।”
रेहाना के चेहरे पर एक लहर सी आई — दर्द की या संकोच की, कोई नहीं जान पाया।
साया को खबर मिल चुकी थी कि रेहाना अब उसकी ओर कदम बढ़ा रही है। मकबूल ने कहा, “भाई, वो अब तुम्हारे साथ खेल रही है। विश्वास मत करो।”
लेकिन साया शांत रहा। उसने सिर्फ एक बात कही, “अगर मैं अपने अतीत से डर जाऊं, तो फिर ये लड़ाई अधूरी रह जाएगी।”
रेहाना और साया की मुलाकात हुई — पुराने रेलवे स्टेशन के एक परित्यक्त रेस्ट हाउस में।
रेहाना हल्के काजल और ठंडी आँखों के साथ आई। वो वही महक थी, जो कभी रईस अली को इंसान बनाती थी।
“बहुत बदले हो,” उसने कहा।
“तुम नहीं,” साया बोला।
रेहाना ने धीरे से पर्स से एक छोटा पेंड्राइव निकाला।
“भाऊ की सारी लेंड डील्स और हवाला ट्रांज़ैक्शन इसमें हैं। लेना चाहो तो लो… या मुझे गोली मार दो।”
साया ने पेंड्राइव लिया और बोला, “अब हम दोनों ही वापसी नहीं कर सकते। लेकिन तुमने जो चुना, वो रास्ता भी आसान नहीं होगा।”
इधर पुलिस कमिश्नर मिश्रा को भी उस घोटाले की गंध मिल चुकी थी। नमन खत्री ने पेंड्राइव की एक कॉपी गुप्त रूप से उन्हें भेज दी थी।
मिश्रा ने कहा, “अब खेल सिर्फ साया और ठाकरे के बीच नहीं रहा — अब ये एक राज्य स्तर का राजनीतिक तूफान है। और हमें तैरना आना चाहिए, नहीं तो डूब जाएंगे।”
उधर भाऊ को जब पता चला कि रेहाना ने पेंड्राइव लीक कर दिया है, वो पागल हो गया।
“उसे ज़िंदा मत छोड़ना,” उसने तपेश यादव से कहा। “साया को मारने से पहले, उसकी आत्मा तोड़नी होगी।”
अब शहर के तीन कोनों पर खड़े थे तीन किरदार:
साया — जो बदले की आग में जल रहा था,
रेहाना — जो अपने अतीत से लड़ रही थी,
और भाऊ ठाकरे — जो अब अपनी सत्ता के लिए कुछ भी करने को तैयार था।
जाल बिछ चुका था। शिकार कौन होगा, यह तय करना अब वक्त का काम था।
भाग 6: धोखा
मुम्बई की सड़कों पर रात के तीसरे पहर की नीरवता कुछ अजीब सी थी — जैसे कोई तूफान कुछ देर के लिए रुका हो, सांस लेने के लिए। लेकिन साया जानता था, यह शांति सिर्फ तूफान के पहले की खामोशी है।
धारावी के अंदर, एक पुरानी बिल्डिंग की छत पर खड़ा था साया। उसके हाथ में रेहाना का दिया पेन ड्राइव था, और ज़हन में गूंज रही थी उसकी आवाज़ — “लेना चाहो तो लो… या मुझे गोली मार दो।”
मकबूल पास आया। “भाई, कुछ सही नहीं लग रहा। जिस तरह से रेहाना ने वो फाइल दी, और जिस वक्त दी… बहुत साफ़ है। जैसे किसी ने सारा सीन सेट किया हो।”
साया ने गहरी सांस ली। “मैं समझता हूँ मकबूल। पर हर धोखा जरूरी नहीं कि मौत लाए — कुछ धोखे चेतावनी होते हैं।”
उधर, भाऊ ठाकरे का गुस्सा अब नियंत्रण से बाहर हो चुका था। उसकी बैठक में केवल दो लोग थे — तपेश यादव और मंत्री अरुण माने।
“रेहाना ने जो किया है, वो बगावत नहीं, गद्दारी है,” भाऊ चीखा।
अरुण बोला, “अगर मीडिया तक ये फाइल पहुंच गई, तो हम दोनों का खेल खत्म है।”
भाऊ ने तपेश को देखा — “उस तक पहुँचो। लेकिन ध्यान रखना… उसका चेहरा सलामत रहे। मुझे उसकी आंखों में उसका पछतावा देखना है।”
रेहाना अब छिपी हुई थी — एक पुरानी फिजियोथेरेपी क्लिनिक में, जो बंद पड़ा था। साथ में बस एक मोबाइल, एक छोटा बैग और एक चुप्पी — जो सालों की सजा बन चुकी थी।
लेकिन उसे नहीं पता था कि उस क्लिनिक के बाहर एक बाइक पहले से खड़ी थी — तपेश यादव, भाऊ का सबसे खतरनाक शूटर, दूर से रेहाना की हर हरकत देख रहा था।
“सिग्नल दे दो,” उसने अपने कान में लगे वायरलेस में कहा।
इधर पुलिस कमिश्नर राघव मिश्रा को एक और लीक मिला — इस बार भाऊ की और भी गहरी फाइलें, जहाँ सिर्फ हवाला नहीं, बल्कि खून का कारोबार लिखा था। और ये सब किसी ‘X’ नाम के स्रोत से आ रहा था।
नमन खत्री बोला, “सर, लगता है साया का कोई आदमी सीधे सिस्टम में घुस चुका है।”
मिश्रा ने सोचा, “या फिर खुद साया ही अब सिस्टम बन चुका है।”
फैज़ी, जो साया का एकमात्र भरोसेमंद दोस्त था, रेहाना से मिलने गया।
रेहाना बोली, “मैं नहीं जानती ये सब कितना ठीक है। शायद मैं फिर गलत कर रही हूँ।”
फैज़ी ने हल्की मुस्कान से कहा, “तुम्हारी गलती ही अब तुम्हारी ताकत है। जब तक सच कहने की हिम्मत है, तब तक देर नहीं हुई।”
अचानक बाहर गोली की आवाज़ गूंजी।
क्लिनिक की खिड़की का शीशा चटख गया — एक गोली पास से गुज़री और सामने की दीवार में धंस गई।
तपेश अब अंदर घुस चुका था। एके-47 उसकी पीठ पर टंगी थी, और होंठों पर एक बेरहम मुस्कान।
“खेल बहुत हुआ, मैडम जी,” उसने कहा। “अब आप और आपका पेंड्राइव… दोनों मेरी जेब में जाएंगे।”
रेहाना पीछे हटने लगी, तभी पीछे से एक खिड़की खुली — और साया छलांग लगाकर अंदर आया।
उसके हाथ में रिवॉल्वर थी, और आंखों में बर्फ।
“तपेश!” उसने दहाड़ा।
दोनों के बीच कुछ सेकेंड्स की चुप्पी। फिर गोलियों की बौछार शुरू हुई।
तीन गोलियाँ चलीं।
एक — दीवार में।
दूसरी — तपेश की जांघ में।
तीसरी — रेहाना की बाँह में।
तपेश लड़खड़ाकर गिरा। साया उसके पास गया, उसका कॉलर पकड़ा और कहा, “तू मौत है, पर मैं अब ज़िंदा आग बन चुका हूँ।”
तपेश की सांसें तेज़ थीं, पर जुबान बंद।
रेहाना ज़मीन पर बैठी थी — लहूलुहान। साया ने उसकी ओर देखा। उसका चेहरा पीला था, पर आंखों में राहत थी।
पुलिस को जब खबर मिली, तब तक साया, रेहाना और फैज़ी वहां से जा चुके थे।
अब मुम्बई के अंडरवर्ल्ड में नया खेल शुरू हो चुका था — जहां कोई मासूम नहीं था, और हर रिश्ता या तो चाल था… या हथियार।
भाग 7: राख से उठता चेहरा
भोर की पहली किरणें मुम्बई की ऊँची इमारतों पर गिर रही थीं, लेकिन शहर अब भी रात की खौफनाक कहानी से कांप रहा था। एक घायल रेहाना, चुपचाप चलती एम्बुलेंस में थी। बगल में बैठा था साया—गहरे सोच में डूबा, खामोश, उसकी आंखों में अब खून नहीं… राख थी।
कमिश्नर मिश्रा अपने केबिन में खड़ा था। टेबल पर पड़ी फाइलें, पेन ड्राइव, और एक के बाद एक आती खबरें — भाऊ का नाम अब सिर्फ अंडरवर्ल्ड में नहीं, सियासत के गलियारों में भी गूंज रहा था।
“साया अब सिर्फ गैंगस्टर नहीं रहा,” लीना डिसूज़ा बोली, “वो सबके लिए गले की हड्डी बन चुका है।”
नमन खत्री ने जोड़ा, “और अगर हम अब भी दो नाव में पांव रखेंगे, तो डूबना तय है।”
मिश्रा ने शांत स्वर में कहा, “तो चलो, तय करें किसके साथ डूबना बेहतर है।”
उधर, भाऊ को जब पता चला कि तपेश जिंदा पकड़ा गया और अस्पताल में है, उसका खून खौल उठा।
“तपेश अब राज़ है — और अगर वो बोलेगा, तो हम सबकी कब्र खुद जाएगी।”
अरुण माने ने फुसफुसाया, “हमें अस्पताल से पहले पहुंचना होगा। उसके बाद सिर्फ एक चुप्पी बाकी रहनी चाहिए।”
धारावी के एक पुराने स्कूल के पीछे, साया ने रेहाना के जख्मों पर पट्टी की। वहां कोई डॉक्टर नहीं था, बस एक नर्सिंग स्टूडेंट, जो साया की मदद करती थी — बिना नाम, बिना पहचान।
“क्यों किया ये सब?” साया ने अचानक पूछा।
रेहाना ने पलटकर देखा, “क्योंकि तुम अब भी वही हो। साया तो बस एक नाम है, रईस अली अब भी जिंदा है। मैं उसी को बचाने आई हूँ।”
साया ने जवाब नहीं दिया, लेकिन उसकी उंगलियों की पकड़ थोड़ी धीमी हो गई — जैसे बरसों का बोझ एक झटके में टूटने को तैयार हो।
उसी समय, एक एम्बुलेंस अस्पताल से बाहर निकली — लेकिन यह असली एम्बुलेंस नहीं थी। उसमें भाऊ के दो आदमी थे, जो तपेश को मारने आए थे। लेकिन उन्हें नहीं पता था कि पुलिस पहले ही सतर्क हो चुकी थी।
DCP विक्रम राठौड़ ने खुद ऑपरेशन को लीड किया।
“तुम्हारा हर पत्ता अब खुल चुका है,” उसने कहा। “भाऊ के सारे राज अब फाइल में नहीं, गवाह में हैं।”
साया को कमिश्नर मिश्रा का एक मैसेज मिला — “तुम और मैं दोनों के दुश्मन अब एक हैं। चलो, एक बार ही सही, पर एक ही तरफ खड़े हो जाएं।”
फैज़ी ने साया को देखा, “भरोसा कर सकता है उसपर?”
साया बोला, “नहीं। लेकिन अब भरोसे से नहीं, नफरत से फैसले होंगे। और नफरतें हमेशा एक मोर्चे पर साथ लड़ती हैं।”
उसी रात, साया, रेहाना और मकबूल एक सीक्रेट मीटिंग में पहुंचे — जहां मिश्रा, लीना और नमन खत्री मौजूद थे।
कोई दस्तावेज़ नहीं था, कोई वादा नहीं। सिर्फ एक बात:
“भाऊ को गिराना है — एक झटके में, एक ही वार में।”
मिश्रा ने कहा, “तुम्हें पुलिस सुरक्षा नहीं मिल सकती, लेकिन वक्त मिलेगा — एक रात, जब सब कुछ बदला जा सकता है।”
साया ने अपनी जेब से एक पुराना लाइटर निकाला — जिस पर ‘R.A.’ खुदा हुआ था।
“उस रात… इस शहर को फिर से रईस अली मिलेगा।”
और ठीक उसी समय, मलाड फार्महाउस के तहखाने में भाऊ बैठा एक लाल किताब पढ़ रहा था — उसमें लिखा था हर उस आदमी का नाम, जिसने कभी उसका साथ छोड़ा।
उसने एक नाम पर उंगली रखी — “रेहाना।”
“तैयार हो जाओ,” उसने तपाक से कहा। “इस बार आग सिर्फ बाहर नहीं लगेगी… अंदर भी जलेगा।”
भाग 8: आखिरी रात से पहले
मुम्बई की सड़कों पर हलचल थी, पर वह वैसी नहीं जो ट्रैफिक या त्योहार से होती है — यह हलचल थी ख़ामोश तैयारियों की, आखिरी लड़ाई से पहले की।
धारावी के जिस गोदाम में एक समय कबाड़ रखा जाता था, वहां अब रणनीति बन रही थी। साया, रेहाना, मकबूल, फैज़ी और दो पुराने साथी बैठे थे, एक पुराने नक्शे को देखकर।
साया बोला, “भाऊ की फार्महाउस के नीचे एक तहखाना है — वहीं से सारा खेल चलता है। वहां ही हवाला की रजिस्टर, वीडियो रिकॉर्डिंग्स, और ब्लैकमेल की क्लिप्स रखी हैं।”
रेहाना ने जोड़ा, “उसी तहखाने में वो वो फाइल है जो मंत्री अरुण माने और भाऊ ठाकरे दोनों को एकसाथ गिरा सकती है। अगर हम उस फाइल तक पहुँच जाएं, तो पूरा सिस्टम हिल जाएगा।”
मकबूल ने पूछा, “लेकिन अंदर कैसे जाएं? भाऊ का फार्महाउस अब किला बन चुका है — सीसीटीवी, गार्ड्स, और एके-47 से लैस लोग।”
फैज़ी मुस्कुराया, “तो हमें कोई छेद ढूंढना होगा। हर किले में एक दरार होती है — और हर दरार किसी भूले हुए इंसान से जुड़ी होती है।”
उधर, भाऊ ठाकरे को मिश्रा और साया की संभावित गठबंधन की खबर लग चुकी थी। वो गुस्से से दहाड़ा, “अब पुलिस भी उसके साथ है? तो फिर कानून को भी आग में झोंकना होगा।”
अरुण माने बोले, “अब हमें पब्लिक इमेज की चिंता छोड़नी होगी। प्रेस, सोशल मीडिया, पुलिस — सबको कंट्रोल करना होगा।”
भाऊ ने तपाक से जवाब दिया, “नहीं… अब मुझे कंट्रोल नहीं चाहिए। मुझे अब सिर्फ तबाही चाहिए। कल रात — सब खत्म कर दो। साया, रेहाना, मिश्रा… कोई नहीं बचे।”
कमिश्नर मिश्रा ने भी अपनी तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। पुलिस की कुछ यूनिट्स को बिना नाम और बिना यूनिफॉर्म के भाऊ के फार्महाउस के आसपास तैनात किया गया।
“हम कोई युद्ध नहीं छेड़ेंगे,” मिश्रा बोला, “हम सिर्फ समय देंगे — ताकि जो लोग उसे गिराना चाहते हैं, वो गिरा सकें।”
नमन खत्री ने पूछा, “अगर साया पीछे हट गया तो?”
मिश्रा ने गहरी आवाज़ में कहा, “तो फिर हम सब मारे जाएंगे — सिर्फ गोलियों से नहीं, सच्चाई से भी।”
रात का समय तय हुआ:
रात 2:00 बजे — जब फार्महाउस की गार्ड शिफ्ट बदलती है।
2:07 पर — बिजली बंद होगी, साया के एक आदमी के जरिए।
2:12 पर — रेहाना कोड डालकर तहखाने का दरवाज़ा खोलेगी।
2:20 पर — मकबूल और फैज़ी दस्तावेज़ लेकर बाहर निकलेंगे।
2:30 तक — मिश्रा की टीम तैयार रहेगी, ताकि सारा डेटा सीधा मीडिया और कोर्ट तक पहुंचे।
साया बोला, “उसके बाद… मैं रहूं या न रहूं, फर्क नहीं पड़ता।”
रेहाना ने कहा, “लेकिन अगर तुम मरे, तो शहर फिर से उसी गंदगी में डूब जाएगा। तुम्हारा रहना जरूरी है।”
साया ने मुस्कराते हुए कहा, “मैं अब सिर्फ एक इंसान नहीं… मैं उस डर का चेहरा हूँ, जो माफ़िया को उसकी कब्र तक ले जाएगा।”
अगली रात —
भाऊ ठाकरे को खबर मिली कि बिजली सप्लाई में कोई तकनीकी गड़बड़ी आने वाली है।
उसने तपेश से कहा, “आज कोई गलती नहीं चाहिए। मैं अब मौत देखना चाहता हूँ — और वो भी मेरी आंखों के सामने।”
धारावी के लोगों को उस रात कुछ अजीब महसूस हुआ। उनकी गलियों से कुछ परछाइयाँ निकलीं — साया के लोग।
किसी को नहीं पता चला कि कब ये परछाइयाँ मलाड की ओर बढ़ीं, कब उन्होंने सड़कें पार कीं, और कब उन्होंने फार्महाउस के बाहर डेरा जमा लिया।
क्योंकि जब शहर सोता है, तभी साया जागता है।
अब सिर्फ कुछ घंटे बाकी थे।
एक तरफ फाइलें थीं, जिनमें सच्चाई की आग थी।
दूसरी तरफ गोलियाँ थीं, जो सब कुछ जला सकती थीं।
और बीच में था एक नाम… जो अब सिर्फ डर नहीं, क्रांति बन चुका था।
साया।
भाग 9: उस रात की चीख
रात के ठीक दो बजे, मलाड फार्महाउस की दीवारों पर हल्का अंधेरा छाया था। आसमान में बादल जमा हो रहे थे, और बिजली सप्लाई की लाइनें जैसे पहले से कांप रही थीं।
फार्महाउस के अंदर भाऊ ठाकरे अपनी कुर्सी पर बैठा था। सामने विशाल स्क्रीन पर सीसीटीवी कैमरों की लाइव फीड चल रही थी। उसके हाथ में सिगार नहीं था, बल्कि एक रिवॉल्वर था — पूरी तरह लोडेड।
“आज सब खत्म करना है,” उसने खुद से कहा।
2:06 AM
धारावी से निकले साया के लोग अब फार्महाउस की सीमा के भीतर पहुँच चुके थे — हर दिशा से, हर कोने से। वे सड़कों से नहीं, पानी की पाइपलाइन, ड्रेनेज, और पेड़ के पीछे से रेंगते हुए अंदर घुस रहे थे।
2:07 AM
एक झटका। पूरे फार्महाउस की बिजली चली गई।
सीसीटीवी की स्क्रीनें अंधेरे में डूब गईं।
भाऊ उठा, “तैयार हो जाओ। मेहमान आ चुके हैं।”
2:10 AM
तहखाने का रास्ता दिखाने वाली लाइट भी बंद थी। रेहाना ने अंधेरे में अपने मोबाइल की टॉर्च जलाकर, दीवार के कोने में लगे एक गुप्त बटन को दबाया।
एक धीमी ‘क्लिक’ की आवाज़ — और छिपा हुआ दरवाज़ा खुल गया।
“यही है वो जगह,” उसने फुसफुसाया।
2:12 AM
तहखाने के भीतर कदम रखते ही एक कंपकंपी दौड़ गई — पुराने फाइलों की गंध, सीलन, और लोहे की अलमारियाँ… जैसे सालों की सड़ी सच्चाइयाँ यहां कैद थीं।
मकबूल और फैज़ी ने फौरन दस्तावेज़ निकालने शुरू किए — अकाउंट बुक्स, जमीन के कागज़, फोटो, वीडियो सीडी, और सबसे जरूरी — एक फोल्डर, जिस पर लिखा था:
“Political Clients – Confidential.”
उसी समय, ऊपर भाऊ ने जनरेटर चालू कर दिया। रोशनी लौट आई। और कैमरे में फिर से छवि उभरी — पर इस बार, एक परछाई दिखी सीढ़ियों पर।
“नीचे घुस चुके हैं,” भाऊ दहाड़ा। “अब बाहर कोई नहीं निकलेगा।”
2:18 AM
तहखाने का मुख्य गेट अपने आप लॉक हो गया। सायरन बज उठा। रेड लाइट फ्लैश करने लगी।
“भाई! हम फँस गए हैं!” मकबूल चिल्लाया।
रेहाना तेजी से सामने की कांच की अलमारी की ओर भागी और एक छोटा मेटल बॉक्स निकाला। उसने कोड डाला: 0819 — साया का जन्मदिन।
लॉक खुल गया।
अंदर से निकली एक और चाबी — तहखाने का मेन कंट्रोल।
“ये प्लान बी था। भाऊ को नहीं पता, मैंने ये पासवर्ड कभी बदला नहीं।”
2:22 AM
बाहर मिश्रा की टीम तैयार थी। नमन खत्री के हाथ में था लाइव ट्रैकर — जैसे ही फाइल ट्रांसफर होती, पुलिस फोर्स अंदर घुसती।
2:25 AM
एक गोली की आवाज़ गूंजी। तहखाने की सीढ़ियों पर तपेश यादव खड़ा था — चेहरे पर खून, बदन पर गोलियाँ से भरा जैकेट, पर आँखों में बदला।
“कहीं नहीं जाओगे। आज तुम्हारी कहानी यहीं खत्म।”
पर पीछे से एक परछाई फिसली।
साया।
उसने तपेश पर छलांग मारी। दोनों गिरे, लड़खड़ाए। गोली चली — दीवार से टकराई। फिर एक और — और इस बार… तपेश के सीने में धंसी।
तपेश की साँसे टूटने लगीं।
“भाऊ… को… मत… छोड़ना…” आखिरी शब्दों में नफरत की आग थी।
2:28 AM
रेहाना, मकबूल और फैज़ी बाहर निकले, फाइल लेकर।
साया पीछे आया, एक हाथ से कंधे में चोट दबाए।
बाहर कमिश्नर मिश्रा और टीम तैयार थी।
फाइलें पुलिस को दी गईं। मिश्रा ने कहा, “अब तुम्हारा काम हो गया। बाकी अब कानून करेगा।”
साया ने सिर्फ इतना कहा — “कानून तब तक ज़िंदा रहेगा, जब तक सच को कोई जला न दे।
2:31 AM
भाऊ ठाकरे के फार्महाउस में रेड पड़ी। कंप्यूटर जब्त, सर्वर सील, और खुद भाऊ को हथकड़ी लगी।
उसने मिश्रा को देखा और कहा, “तू मुझे गिरा नहीं सकता था। किसी और ने ये काम किया है।”
मिश्रा ने जवाब दिया, “जिसे तुम साया कहते थे… वो अब रईस अली बन चुका है। और यही तुम्हारी हार है।”
अगली सुबह मुम्बई की अखबारों की हेडलाइन थी:
“भाऊ ठाकरे गिरफ्तार — अंडरवर्ल्ड की फाइलें उजागर, सियासी कनेक्शन चौंकाने वाले”
लेकिन एक चीज़ गायब थी — साया।
वो अब शहर में नहीं था।
वो फिर साया बन गया था — पर इस बार डर नहीं… चेतावनी।
भाग 10: रौशनी की परछाई
भाऊ ठाकरे अब जेल की कोठरी में बंद था। उसके चेहरे पर वो पुरानी अकड़ नहीं थी — सिर्फ थकान और हार की परछाई। मुम्बई का सबसे खतरनाक नाम अब एक सरकारी नंबर बन चुका था।
लेकिन इस कहानी का अंत अभी नहीं हुआ था।
कमिश्नर मिश्रा मीडिया से घिरे हुए थे। हर चैनल, हर रिपोर्टर सिर्फ एक ही सवाल पूछ रहा था:
“साया कौन है? उसने पुलिस को मदद क्यों दी? और अब वो कहाँ है?”
मिश्रा ने हमेशा की तरह मुस्कुरा कर कहा, “कुछ सवालों का जवाब कानून से नहीं, वक़्त से मिलता है।”
धारावी के एक पुराने घर की छत पर, एक औरत कपड़े सुखा रही थी। पास ही एक लड़का किताब पढ़ रहा था। कोई नहीं जानता था कि उसी घर की छाया में अब भी रह रहा था एक आदमी — जिसका नाम कभी शहर की हर दीवार पर खून से लिखा गया था।
रईस अली।
साया अब फिर से इंसान बन गया था। बाल छोटे, दाढ़ी साफ़, आंखों में नफरत की जगह अब खालीपन। उसने अब कोई बंदूक नहीं पकड़ी, न ही कोई आदेश दिया। बस हर सुबह उठता, घर के सामने बैठता, और चुपचाप अपने बीते जीवन को देखता — जैसे कोई राख में बची चिंगारी की तलाश कर रहा हो।
रेहाना अब मुम्बई में नहीं थी। वो दिल्ली चली गई थी — एक एनजीओ के साथ काम करने। उसके आखिरी मैसेज में बस इतना लिखा था:
“मैंने अपना हिस्सा चुका दिया। शायद अब मेरी आत्मा कुछ हल्की हो गई है। और तुम? क्या अब खुद को माफ कर पाओगे?”
साया ने उस मैसेज का कोई जवाब नहीं भेजा।
मिश्रा ने एक शाम नमन खत्री से कहा, “तू जानता है, मैंने रईस को जाने क्यों दिया?”
नमन बोला, “क्यों, सर?”
“क्योंकि कुछ लोग अगर मर जाएं, तो अपराध खत्म होता है। पर अगर वे ज़िंदा रहें, तो अपराध डरता है।”
लेकिन डर… कभी मरता नहीं।
तीन महीने बाद, मुम्बई की एक सरकारी फाइल में एक नाम उभरा — “देव मल्होत्रा”।
एक नया बिल्डर, जिसने धारावी की झुग्गियों को हटाने के लिए करोड़ों का प्रोजेक्ट पास करवाया था। लेकिन अंदरूनी जांच में पता चला, उसके पीछे वही पुरानी फाइलें थीं — वही मंत्री, वही साज़िश, वही माफिया।
इस बार नाम बदला था — चेहरा भी।
पर साया की परछाई उन्हें अब भी देख रही थी।
एक रात, देव मल्होत्रा के ऑफिस की खिड़की पर एक सफेद कागज़ मिला।
कोई दस्तख़त नहीं।
बस चार शब्द:
“मैं अब भी हूँ — साया”
उस रात मिश्रा अपने टेबल पर बैठे, उस नोट की कॉपी देख रहे थे।
लीना डिसूज़ा ने पूछा, “क्या फिर से वही दौर लौटेगा?”
मिश्रा ने सिर हिलाया, “नहीं… लेकिन अगर कभी लौटा, तो शायद हमें फिर उसी साया से मदद मांगनी पड़े।”
साया अब गुमनाम है।
वो सड़कों पर चलता है, पर कोई पहचानता नहीं।
वो गाड़ियों के शीशे में देखता है, पर खुद को नहीं देख पाता।
वो ज़िंदा है… पर अब किसी का नाम नहीं है।
और मुम्बई?
वो जानती है — एक चेहरा जो साया था… अब शहर की आत्मा बन गया है।
(जारी… नहीं। क्योंकि कुछ कहानियाँ वहाँ खत्म होती हैं जहाँ शहर फिर से सांस लेना शुरू करता है।)
समाप्त




