Hindi - क्राइम कहानियाँ

साया

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शाम के साढ़े नौ बज रहे थे। शहर के सबसे पॉश इलाके, वसंत विहार के बंगला नंबर 47 में एक अजीब सी शांति फैली हुई थी। बाहर तेज़ बारिश हो रही थी, और भीतर की दुनिया किसी रहस्य को अपने अंदर समेटे चुप थी। इस घर के मालिक, विवेक मल्होत्रा, एक नामचीन उद्योगपति थे जिनके व्यापारिक साम्राज्य का विस्तार देश के कई हिस्सों में था। उनका नाम अक्सर बिजनेस मैगज़ीन के पहले पन्ने पर छपता था, लेकिन आज उनकी एक और पहचान सामने आने वाली थी — एक मृतक की। घर का दरवाज़ा भीतर से बंद था, खिड़कियाँ हल्की-हल्की हवा से सरसराती थीं। सब कुछ सामान्य लग रहा था, जब तक कि अचानक एक खौफनाक चीख़ हवाओं को चीरते हुए बाहर आई। “विवेक!” — वो चीख़ थी सोनिया मल्होत्रा की, विवेक की पत्नी, जो बेडरूम के दरवाज़े पर खड़ी कांप रही थी। उसके सामने फर्श पर विवेक का लहूलुहान शरीर पड़ा था, आंखें खुली हुईं और चेहरा पीला, शरीर के बीचोंबीच चाकू धंसा हुआ था।

कुछ ही मिनटों में घर के बाकी सदस्य भी वहाँ पहुंच गए — 22 वर्षीय बेटा आदित्य, जो ऊपर के कमरे में हेडफोन लगाकर लैपटॉप पर गेम खेल रहा था, और घर का पुराना नौकर रघु, जो किचन में रात के खाने के बर्तन समेट रहा था। आदित्य पहले तो स्तब्ध खड़ा रहा, फिर मोबाइल से पुलिस को कॉल किया। उसकी आवाज़ कंपकंपा रही थी, पर चेहरा अजीब तरह से शांत था — जैसे वो पहले से जानता था कि ऐसा कुछ होने वाला है। रघु ने तुरंत कमरे की सारी लाइट्स जलाईं, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सोनिया बेहोश होकर फर्श पर गिर चुकी थी। पुलिस करीब 18 मिनट में पहुँची, और क्राइम ब्रांच की ओर से केस सौंपा गया इंस्पेक्टर आस्था राठी को — तेज़ दिमाग, बिना लाग-लपेट के सवाल पूछने वाली और अपराधियों को उनकी नज़रों में झांककर तोड़ देने वाली महिला, जिसने अपने 8 साल के करियर में दर्जनों मर्डर केस सुलझाए थे। आस्था के आते ही पूरा घर जैसे एक जांच के मैदान में बदल गया — कोना-कोना खंगाला जाने लगा, कैमरे की फ्लैश चमकने लगी, और हर चेहरा शक के घेरे में आ गया।

पहली नज़र में मामला सीधा-सा लग सकता था — एक पति की हत्या, घर के भीतर, बिना किसी ज़बरदस्ती के निशान के, यानी कि कातिल घर के अंदर का ही था। लेकिन जितनी आसानी से बातें सतह पर दिख रही थीं, हकीकत उतनी ही गहरी और धुंधली थी। आस्था ने सबसे पहले बेडरूम का मुआयना किया — एक सजावटी कमरे की तरह सजा हुआ था, लेकिन उस रात की कहानी को बयान करता हुआ वो बिस्तर अस्त-व्यस्त था, पास ही शराब का आधा भरा गिलास और ज़मीन पर एक टूटा हुआ फोटो फ्रेम पड़ा था — शायद हत्या से पहले कोई बहस या झगड़ा हुआ था। सोनिया के कपड़े खून से सने थे, पर उसने साफ कहा कि जब वह कमरे में दाखिल हुई, तब तक विवेक मर चुका था। “मैं नहाकर आई थी… और जैसे ही दरवाज़ा खोला, उसे इस हालत में देखा,” उसकी आवाज़ कांप रही थी, आँखें नम थीं, मगर आस्था ने गौर किया — उसमें डर था, पर दुख उतना नहीं जितना होना चाहिए। आदित्य, जो अपने कमरे में था, ने कहा कि उसे किसी तरह की चीख़ या हलचल सुनाई नहीं दी, जबकि हत्या के समय खिड़की और दरवाज़े खुले थे। रघु ने बताया कि वो किचन में था और कुछ सुनाई नहीं दिया, लेकिन जब सोनिया चीखी, तभी वो भाग कर आया।

क्राइम टीम ने पूरे घर की तलाशी ली — किसी तरह की जबरदस्ती का कोई संकेत नहीं था। दरवाज़ों पर कोई टूट-फूट नहीं, अलमारियों से कुछ गायब नहीं, और सबसे चौंकाने वाली बात — घर के सभी CCTV कैमरे की फुटेज उस रात की 9:00 बजे के बाद से डिलीट पाई गई। DVR सिस्टम मैनुअली रिस्टार्ट किया गया था, यानी किसी ने जानबूझकर सबूत मिटाए थे। आस्था के लिए अब यह स्पष्ट हो गया कि यह हत्या गुस्से में उठाया गया कदम नहीं था, बल्कि योजनाबद्ध मर्डर था — और कातिल ने तकनीकी सबूत हटाने की पूरी तैयारी की थी। शुरुआती पूछताछ में आदित्य ने बताया कि पिता से उसका रिश्ता “सामान्य” था, मगर कुछ पुराने मैसेजेस और चैट्स ने दिखाया कि पिता-पुत्र के बीच गंभीर मतभेद थे। रघु का बर्ताव सामान्य था, लेकिन वो आस्था की निगाहों से बचता रहा, उसकी आँखों में एक अजीब सा डर और बेचैनी थी — जैसे कुछ छुपा रहा हो। सोनिया, अब तक शांत बैठी थी, अचानक उठकर बोली — “आपको क्या लगता है, मैंने मारा है उन्हें?” उसकी आवाज़ में कड़वाहट थी, और आस्था जानती थी — ऐसा प्रश्न कोई निर्दोष भी पूछता है, और कोई अपराधी भी।

आस्था ने तय कर लिया कि वह इस केस को सतही तौर पर नहीं लेगी। उसके लिए यह सिर्फ एक हाई-प्रोफाइल मर्डर नहीं था, बल्कि किसी ऐसे सच तक पहुँचने का रास्ता था, जो कई चेहरों के पीछे छिपा था। उसने सभी के मोबाइल जब्त करवाए, फॉरेंसिक टीम को विस्तृत रिपोर्ट बनाने का आदेश दिया और रघु को अस्थायी रूप से हिरासत में ले लिया। आदित्य को नजरबंद रखा गया, जबकि सोनिया से अलग से गहन पूछताछ की योजना बनाई गई। जाते-जाते आस्था ने एक बार फिर शव की ओर देखा — विवेक का चेहरा अब भी खुली आँखों के साथ दीवार की तरफ देख रहा था, जैसे मरते वक्त भी उसे यकीन नहीं हुआ कि उसे वही लोग मार रहे हैं जिन पर वो सबसे ज़्यादा भरोसा करता था। यह महज एक हत्या नहीं थी — यह उस घमंड का अंत था जो ताकतवर लोगों को यह यकीन दिलाता है कि उनके गुनाह कभी सामने नहीं आएंगे। आस्था जानती थी — यह केस उतना आसान नहीं है, जितना लग रहा है, और यह भी जानती थी कि यह हत्या एक ऐसी परछाईं की शुरुआत है, जो पूरे घर को निगलने वाली है।

इंस्पेक्टर आस्था राठी उस रात घर नहीं गई। जब अधिकांश अफसरों ने केस को रूटीन हत्या मानकर फाइलें बंद करनी चाहीं, आस्था अपनी नोटबुक खोलकर हर विवरण को जोड़ने में लग गई। विवेक मल्होत्रा की हत्या कोई आवेश में उठाया गया कदम नहीं था, इसमें साफ-साफ प्लानिंग झलक रही थी। CCTV फुटेज डिलीट की गई थी, फर्श पर खून के छींटे गहरे थे लेकिन छिटपुट, जिससे साफ था कि हमला सिर्फ एक बार हुआ और बहुत नज़दीक से किया गया। आस्था जानती थी कि एक प्रोफेशनल कातिल की तरह कोई अपनों में से ही था जिसने खून किया और सबूत मिटाए। उस रात का सबसे बड़ा सवाल यही था — आखिर किसे पता था कि CCTV कहाँ से बंद करना है, DVR कैसे रिस्टार्ट करना है, और खून बहने के बाद भी कैसे पूरा घर शांत रखा जाए? यह कोई बाहर का चोर नहीं था; यह कोई ऐसा था जो इस घर के हर कोने से वाक़िफ़ था। उसने घर में घुसकर नहीं मारा, बल्कि घर के अंदर रहकर हमला किया — और इसी वजह से संदेह की सुई सीधे घर के तीनों सदस्यों की ओर घूम रही थी: सोनिया, आदित्य, और रघु।

आस्था ने अगले दिन सुबह-सुबह सबका अलग-अलग इंटरव्यू लिया। सबसे पहले रघु को बुलाया गया, जो पिछले 15 सालों से इस घर में काम कर रहा था। उसकी उम्र लगभग 45 होगी, दुबला-पतला, चालाक आँखें और बोलने में झिझक। उसने बताया कि रात 8 बजे डिनर तैयार हो चुका था। विवेक साहब ने नीचे आने से मना कर दिया, कह दिया कि “डिस्टर्ब मत करना”। रघु ने कहा कि उसने आदित्य को खाना पहुंचाया, फिर खुद बर्तन समेटने चला गया। 9:15 तक वो किचन में था, और ठीक उसी वक्त सोनिया की चीख़ सुनाई दी। आस्था ने उससे DVR सिस्टम के बारे में पूछा — रघु ने कहा कि उसे तो यह तक नहीं पता कि कैमरा कहाँ रिकॉर्ड करता है। लेकिन जब आस्था ने पुराने DVR सिस्टम के रीस्टार्ट टाइम की टाइमस्टैम्प दिखायी — ठीक 8:59 PM — तो रघु सकपका गया। वह कहने लगा, “मैं तो सिर्फ किचन में था, मैडम जी… आप चाहें तो चूल्हे की हीट देख लो… मैं तो खाना ही गर्म कर रहा था।” लेकिन आस्था जानती थी — कोई तो है जिसने उस समय का फायदा उठाकर सबूतों को मिटा दिया।

दोपहर होते-होते, आस्था ने आदित्य को बैठाया। 22 साल का लड़का, मॉडर्न कपड़ों में, आंखों में नींद और चेहरे पर अजीब सूनापन। “पिता से आपके संबंध कैसे थे?” — आस्था ने सीधा सवाल दागा। आदित्य ने कुछ पल चुप रहकर कहा, “जैसे एक बिजनेस डील होती है, वैसा था सब कुछ। उन्होंने मुझे बेटा नहीं, इन्वेस्टमेंट समझा।” उसने बताया कि उसके पिता चाहते थे कि वह फैमिली बिज़नेस में शामिल हो, जबकि आदित्य का मन था संगीत में — वह म्यूजिक प्रोड्यूसर बनना चाहता था। आस्था ने उससे पूछा कि हत्या के समय वह क्या कर रहा था, तो आदित्य ने बताया कि वह अपने कमरे में गेम खेल रहा था, और हेडफोन लगाए हुए था, इसलिए चीख़ नहीं सुनी। लेकिन कमरे की विंडो ओपन थी, और बारिश की आवाज़ के बीच भी चीख़ इतनी तेज़ थी कि बाहर तक सुनाई दी — तो उसे सुनाई क्यों नहीं दी? यह एक ऐसा झूठ था जो आधे सच में डूबा था। जब आस्था ने पूछा कि क्या उसे शक है किसी पर, तो आदित्य ने चौंकते हुए कहा, “मुझे क्या पता, आप लोग तो कहते हो घरवाले ही कातिल हैं — तो मम्मी से पूछो।” आस्था जानती थी कि ये जवाब एक बचाव भी हो सकता है, और एक इशारा भी।

आखिर में बारी आई सोनिया मल्होत्रा की — पीली साड़ी, हल्की सजावट, चेहरे पर थकान, पर अब संयमित। आस्था ने कोई भावनात्मक सवाल नहीं किया, सीधा मुद्दे पर आई: “आपका और आपके पति का रिश्ता कैसा था?” सोनिया ने कुछ पल आंखें मूंदकर जवाब दिया, “जैसे सबके सामने था, वैसा नहीं था।” उसने कहा कि विवेक एक सफल आदमी थे लेकिन बहुत सख्त, और कभी-कभी हिंसक भी। “कभी आपने पुलिस से शिकायत की?” आस्था ने पूछा। “नहीं, समाज और नाम दोनों का डर था,” सोनिया ने जवाब दिया। आस्था ने धीरे से कहा, “मगर हत्या के समय आप बाथरूम में थीं, CCTV बंद था, DVR डिलीट, खून आपके कपड़ों पर, और आप बेहोश मिलीं — यह सब इत्तेफाक कैसे हो सकता है?” सोनिया की आंखों में नमी आ गई, लेकिन वह चुप रही। आस्था को यह चुप्पी बहुत कुछ कहती दिख रही थी — कभी-कभी मौन खुद ही गवाही देता है। उसने उठकर सोनिया की कुर्सी के पास से एक छोटा बैग उठाया, जिसमें विवेक की जेब से निकला एक मोबाइल था — डुअल सिम वाला, और उसमें एक सिम पूरी तरह अनट्रेस्ड। आस्था ने सोनिया से पूछा, “क्या आपको इस फोन के बारे में जानकारी है?” और सोनिया ने हकलाते हुए कहा, “नहीं… ये… ये उनके बिज़नेस का होगा शायद…” लेकिन आस्था ने फोन खोला — उसमें एक महिला के साथ चैट्स थे, और बातचीत बेहद निजी थी।

इस खुलासे ने केस को एक नया मोड़ दे दिया। अब यह सिर्फ घरेलू झगड़े या संपत्ति की लड़ाई नहीं रह गई थी, इसमें एक तीसरा चेहरा भी शामिल था — एक अनजान औरत, जो शायद इस कहानी में सबसे खतरनाक मोहरा थी। उस मोबाइल से निकले चैट्स से पता चला कि विवेक किसी महिला से महीनों से लगातार मिल रहा था, उसे पैसे भेज रहा था, और उसे एक अलग फ्लैट तक दिलवाया था। अब आस्था की टीम उस महिला की तलाश में लग गई थी। यह केस अब सिर्फ तीन लोगों की दुनिया नहीं था — अब यह एक चौथा चेहरा ढूंढने की दौड़ बन चुका था। और आस्था को यकीन था — जिस दिन वह उस चेहरे तक पहुँचेगी, उसी दिन यह हत्या अपना असली चेहरा दिखाएगी।

इंस्पेक्टर आस्था राठी उस मोबाइल की स्क्रीन पर देर तक देखती रही। व्हाट्सएप की बातचीत की भाषा बेहद निजी थी — एक पुरुष की तरह नहीं, बल्कि एक अपराधबोध से भरे प्रेमी की तरह विवेक उस महिला से माफी मांग रहा था। संदेशों में कुछ खास तारीखें, एक फ्लैट नंबर और हर महीने किए जाने वाले पैसों की चर्चा थी। आखिरी संदेश तीन दिन पहले का था — “प्लीज़ मुझसे एक बार मिल लो। मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ कि मैंने जो किया, वो क्यों किया…” — इस वाक्य ने आस्था को जगा दिया। यह एक ऐसे रिश्ते का इशारा था जिसमें न सिर्फ भावनाएं, बल्कि कोई अधूरा सच भी छिपा था। लोकेशन ट्रेस करने पर पता चला कि महिला को भेजे गए पैसे दिल्ली के एक दूरदराज़ इलाके, संगम विहार स्थित एक फ्लैट में ट्रांसफर किए जाते थे। टीम उसी दिन वहाँ निकल पड़ी। फ्लैट पहुंचने पर दरवाज़ा बंद था, मगर पड़ोसियों ने बताया कि वहाँ एक महिला लगभग छह महीनों से रह रही थी — शांत, अकेली, किसी से ज्यादा बात न करने वाली। नाम? उन्होंने बताया — “नीलिमा।”

फ्लैट की खिड़की थोड़ी खुली थी। आस्था ने दस्तक दी, मगर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। आखिरकार, पुलिस को मजबूरन दरवाज़ा तोड़ना पड़ा। अंदर जो माहौल था, वह एक आम फ्लैट से अलग था — दीवारों पर पेंटिंग्स थीं, अलमारी में सिर्फ एक-दो कपड़े, और टेबल पर बहुत सारी दवाइयाँ। नीलिमा मौजूद नहीं थी, मगर एक डायरी, लैपटॉप और कुछ पुराने फोटो मिले। डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था — “मैं उसे माफ़ नहीं कर सकती, लेकिन मैं उसे छोड़ भी नहीं सकती। जो उसने मेरी बहन के साथ किया, वो मेरी नींदें तोड़ता है।” अब कहानी की परतें खुलने लगी थीं। पुराने फोटो में दो लड़कियाँ थीं — एक नीलिमा, और दूसरी… एक युवा लड़की, मुस्कुराते हुए। पीछे की तारीखें लगभग दस साल पुरानी थीं। आस्था ने फोटो स्कैन कराए और पहचान खोजने की कोशिश की। कुछ घंटों बाद फाइल मिली — काजल मिश्रा, उम्र 17, 2015 में एक बिल्डिंग की छत से गिरकर मारी गई थी। केस को “दुर्घटना” घोषित किया गया था। लेकिन अब उस ‘दुर्घटना’ की डायरी में लिखा था — “उसने उसे धक्का दिया… मैंने देखा था…”

2015 की वो फाइल आस्था ने ध्यान से पढ़ी। रिपोर्ट के अनुसार काजल दिल्ली आई थी पढ़ाई के लिए, और एक कंपनी में इंटरर्नशिप कर रही थी — वही कंपनी जो विवेक मल्होत्रा की थी। आखिरी बार उसे एक “क्लाइंट पार्टी” में देखा गया था, जिसके बाद वो दो दिन तक गायब रही और फिर उसकी लाश एक फ्लैट के बाहर पाई गई। पुलिस ने केस को आत्महत्या मानते हुए बंद कर दिया था। लेकिन अब नीलिमा की डायरी ने उस बंद केस को एक बार फिर जिन्दा कर दिया था। आस्था समझ गई — नीलिमा वही महिला थी जिससे विवेक का संबंध था, लेकिन उनका रिश्ता प्रेम का नहीं, पछतावे और अधूरे न्याय का था। क्या विवेक सचमुच काजल की मौत के लिए जिम्मेदार था? अगर हां, तो क्या नीलिमा ने उससे बदला लेने के लिए उसे ब्लैकमेल किया? या फिर वह अब भी इंसाफ चाहती थी? आस्था को शक था कि इसी ब्लैकमेल के कारण विवेक ने उसे पैसे देने शुरू किए थे, और शायद यही उसकी मौत का कारण भी बना।

आस्था ने अब नीलिमा की तलाश तेज़ कर दी थी। उस फ्लैट से मिले लैपटॉप को जब्त कर लिया गया, और फॉरेंसिक टीम ने उसमें से एक वीडियो फाइल रिकवर की — धुंधला सा मोबाइल फुटेज, जिसमें एक आदमी किसी लड़की को जोर से धक्का देता दिख रहा था। वीडियो में चेहरा पूरी तरह साफ नहीं था, मगर शरीर की बनावट, चाल-ढाल और आवाज़ — सब कुछ विवेक से मेल खा रहा था। और सबसे चौंकाने वाली बात? यह वीडियो किसी और ने रिकॉर्ड किया था। कैमरा की हलचल, सांसों की तेज़ी — यह किसी छुपे हुए गवाह की रिकॉर्डिंग थी। आस्था को यकीन था कि यह गवाह कोई और नहीं, रघु था। घर का नौकर, जिसे सबने नज़रअंदाज़ किया, वही इस केस की सबसे अहम कड़ी बन सकता था। क्या रघु ने ये वीडियो खुद देखा था? क्या उसने विवेक को ब्लैकमेल किया? और अगर हाँ, तो क्या उसी वजह से विवेक को मारने का फैसला हुआ? या रघु ने ही किसी को उकसाया? इतने सारे सवालों के जवाब अब रघु के पास थे — लेकिन वो गायब था।

इधर, सोनिया मल्होत्रा इस सारे तूफान से अंजान, घर में नजरबंद थी। जब आस्था ने उसे काजल की मौत, नीलिमा की डायरी और वीडियो के बारे में बताया, तो सोनिया का चेहरा पीला पड़ गया। उसने कुछ देर तक कुछ नहीं कहा, फिर धीरे से बोली — “मैं जानती थी कि उसके जीवन में कोई और है, पर ये नहीं जानती थी कि वो कातिल है।” आस्था को लगा, वह सच बोल रही है — उस चेहरे पर अब डर से ज़्यादा घृणा थी। सोनिया ने स्वीकारा कि उसने कुछ दिनों पहले ही वो गुप्त मोबाइल देखा था, और चैट्स भी पढ़ी थीं। उसे शक था कि विवेक का अतीत कोई बड़ा रहस्य छुपा रहा है, लेकिन उसे यह नहीं पता था कि मामला किसी लड़की की मौत से जुड़ा है। आस्था को सोनिया पर अब पहले जितना शक नहीं था, लेकिन शक से ज्यादा जरूरी था उस कड़ी को ढूंढ़ना जो इस सबको जोड़ती है — नीलिमा और रघु। दोनों गायब थे, दोनों के पास सच था, और शायद दोनों ही अब तक इस ‘इंसाफ’ को अपने तरीके से पूरा करने की तैयारी कर चुके थे।

तीन दिन बीत चुके थे, और रघु अब भी लापता था। उसकी मोबाइल लोकेशन अंतिम बार शहर से बाहर, सूरजकुंड के जंगलों के पास की पाई गई थी। वह जगह अजीब थी — न कोई घर, न कोई सड़क, सिर्फ सूखी ज़मीन और वीरानी। आस्था ने फौरन अपनी टीम को उस क्षेत्र में सर्च ऑपरेशन शुरू करने को कहा, लेकिन वहां न रघु मिला, न उसका मोबाइल। बस एक अधजला मोबाइल चार्जर और एक प्लास्टिक की थैली मिली जिसमें कुछ पुराने कपड़े और एक टिफिन बॉक्स था — ऐसा लगा जैसे किसी ने वहां कुछ देर रुककर अचानक कहीं भागने का फैसला लिया हो। अब यह साफ था — रघु किसी से डर रहा है। लेकिन वह किससे भाग रहा है? पुलिस से? या किसी ऐसे इंसान से जिसने उसे चुप रहने के लिए धमकाया था? या शायद, वह खुद किसी योजना का हिस्सा था और उसका “गायब होना” उसी का हिस्सा था? आस्था को अब लगने लगा था कि यह केस एक जटिल जाल है, जिसमें हर शख्स एक मकड़ी की तरह फंसा है — खुद अपनी ही चालों में उलझा हुआ।

इसी बीच, लैब रिपोर्ट आ गई थी — वीडियो फाइल पूरी तरह से छेड़छाड़ रहित पाई गई थी। उसमें जो आवाज़ें थीं, उनमें एक पुरुष की धीमी, गुस्से भरी आवाज़ सुनाई देती थी, और एक लड़की की घबराई हुई चीख। आखिर में एक तेज़ “धप” की आवाज़ — और फिर सन्नाटा। उस सन्नाटे में एक सांस की तेज़ी थी, जो वीडियो रिकॉर्ड कर रहा था — और आस्था को पूरा यकीन था कि वो सांसें रघु की थीं। लेकिन सवाल यह था — अगर रघु ने सच देखा था, तो उसने 10 साल तक चुप्पी क्यों साधे रखी? जवाब शायद उसी वीडियो में छिपा था — क्लिप के आखिर में, एक क्षण के लिए कैमरा पलटा और पास के शीशे में एक चेहरा झलक गया, अस्पष्ट, परंतु साफ इतना कि वह रघु ही था। अब शक की सुई केवल उसके ऊपर टिक गई थी। क्या रघु ने वीडियो को सबूत के रूप में संजो कर रखा? या उसने इसे ब्लैकमेल के लिए इस्तेमाल किया? अगर ब्लैकमेल किया, तो क्या नीलिमा भी उस योजना का हिस्सा थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि दोनों ने मिलकर विवेक को मौत के दरवाज़े तक पहुँचाया?

आस्था ने अब फोकस सोनिया पर वापस किया। वह जानती थी कि जब किसी घर में हत्या होती है, तो सबसे पहले हिलता है — विश्वास। और विश्वास की सबसे पहली परत पति-पत्नी के रिश्ते में होती है। सोनिया के हाव-भाव अब बदल रहे थे। पहले वह डरी हुई थी, अब वह सन्न, चुप और स्थिर थी — जैसे अंदर कुछ टूट चुका हो, और अब डरने के लिए कुछ बचा न हो। आस्था ने उससे पूछा, “अगर आपको यह पहले से पता होता कि आपके पति की मौत किसी गहरे राज से जुड़ी है, तो क्या आप सच बतातीं?” सोनिया ने उसकी ओर देखा, एक लंबी साँस ली, और धीरे से कहा, “मैंने उस मोबाइल में वो वीडियो देखा था… जिस दिन वो मिला, उसी दिन मेरा विवेक से विश्वास खत्म हो गया था। मुझे समझ नहीं आया कि वो कैसा इंसान था जिसके साथ मैंने बीस साल बिताए। मैं कुछ नहीं कर सकी… लेकिन हां, मैं चाहती थी कि वो सज़ा पाए।” यह बयान सीधा था — और खतरनाक भी। आस्था ने पूछा, “क्या आपने रघु से बात की?” — सोनिया कुछ पल चुप रही, फिर कहा, “रघु ने खुद वो वीडियो मुझे दिखाया था… लेकिन वो कह रहा था कि वो इसे पुलिस को देने वाला है।” अब कहानी का एक और पहलू खुला — रघु के पास वह वीडियो वर्षों से था, और उसने इसे सही वक्त पर उपयोग करने का फैसला लिया।

इस खुलासे ने पूरी जांच को एक नया रंग दे दिया। अब यह तय हो गया था कि रघु इस कहानी में सिर्फ एक गवाह नहीं, बल्कि घटनाओं को नियंत्रित करने वाला पात्र था। उसने 10 साल तक वीडियो को छुपाया, शायद विवेक से पैसे भी वसूले, और जब विवेक ने उसे देना बंद किया या किसी को सब कुछ बताने की धमकी दी, तब रघु ने योजना बदल दी — या तो वह खुद या फिर किसी को उकसाकर, विवेक को खत्म करने का रास्ता तैयार किया। लेकिन अब असली सवाल यह था — विवेक की हत्या किसने की? रघु के पास सबूत था, पर हाथ नहीं; नीलिमा के पास कारण था, पर अवसर नहीं; सोनिया के पास अवसर था, और अब शायद कारण भी। और आदित्य? वह अब भी जांच से बाहर बैठा था, लेकिन आस्था जानती थी — ऐसे मामलों में कभी-कभी सबसे चुप्पा इंसान ही सबसे गहरा खेल खेल रहा होता है। शक की सुई अब हर तरफ घूम रही थी — और हर एक पर टिकने से पहले एक सवाल छोड़ रही थी: “अगर सबको कारण था, तो आखिर वार किया किसने?”

रघु अब पूरे पुलिस महकमे के लिए एक प्राथमिक लक्ष्य बन चुका था। लापता हुए उसे चार दिन हो चुके थे, और उसकी तलाश शहर के बाहर तक फैल चुकी थी। उस बीच एक नई सूचना मिली — रघु के नाम से एक ईमेल पुलिस के साइबर क्राइम विभाग को भेजा गया था, एक एनक्रिप्टेड मेल, जिसमें लिखा था: “मैंने मारा नहीं, पर मरवाने का रास्ता ज़रूर दिखाया है। सच्चाई अब आप पर है।” साथ ही मेल के साथ एक और वीडियो अटैच था — वो ही पुराना फुटेज, मगर इस बार इसमें कुछ सेकंड ज्यादा थे। कैमरे की एंगल थोड़ा बदला था, और इसमें काजल के गिरने के ठीक बाद, विवेक का चेहरा साफ दिखता है — वह बालकनी के किनारे खड़ा था, उसकी आँखों में कोई पछतावा नहीं था। उसके चेहरे पर बस एक झुंझलाहट थी, जैसे कोई कीड़ा पैर के नीचे आ गया हो। वीडियो में उसके होंठ कुछ कहते दिखे — और जब विशेषज्ञों ने उसे पढ़ा, तो एक लाइन निकली: “अब भाग, सब मुझ पर डाल देगी।” यह संकेत था कि विवेक उस रात अकेला नहीं था — और शायद काजल की बहन नीलिमा भी वहीं मौजूद थी। अब मामला और भी उलझ गया था। यह एक हत्या नहीं थी, यह एक षड्यंत्र था — और रघु उसकी एक चुप गवाही।

नीलिमा की तलाश अब और तेज़ हो चुकी थी। आस्था ने उसके पुराने बैंक ट्रांजैक्शन, ट्रैवल रिकॉर्ड्स और फोन कॉल हिस्ट्री खंगाल डाली। एक नंबर बार-बार उभरा — एक PCO से कॉल किया गया था, और उसी PCO में जाकर पूछताछ करने पर पता चला कि एक महीन-सी आवाज़ वाली महिला अक्सर वहाँ कॉल करने आती थी, सिर्फ एक नंबर पर — और वह नंबर सोनिया का था। अब मामला पूरी तरह से उलझ चुका था। क्या नीलिमा और सोनिया एक-दूसरे को जानती थीं? क्या दोनों ने मिलकर विवेक को खत्म करने की कोई योजना बनाई थी? या यह सिर्फ इत्तेफाक था कि दो टूटे हुए लोग एक ही वक्त पर एक ही दिशा में देखने लगे थे? उसी शाम नीलिमा को आखिरकार फरीदाबाद के एक क्लिनिक से ढूंढ़ निकाला गया, जहां वह इलाज के नाम पर छुपी हुई थी। उसे हिरासत में लिया गया और आस्था ने उससे वही पूछा जो कई दिनों से वह खुद से पूछ रही थी — “तुमने क्या देखा था, और अब तक क्यों चुप थीं?” नीलिमा का जवाब आया — “क्योंकि उस रात अगर मैंने कुछ कहा होता, तो अगली लाश मेरी होती।”

नीलिमा का बयान केस की असली गवाही बन गया। उसने बताया कि काजल जब उस पार्टी से लौटी थी, तो डरी हुई थी। उसने कहा कि विवेक ने उसे छूने की कोशिश की थी, और जब उसने विरोध किया तो उसे धमकाया गया। अगले दिन, नीलिमा उसे लेने ऑफिस पहुंची, लेकिन वहाँ बताया गया कि काजल तो घर ही नहीं आई। जब वह फ्लैट पहुंची, तो देखा — काजल छत पर थी, विवेक के साथ। और फिर… सब कुछ बहुत तेज़ हुआ। काजल चिल्लाई, “दीदी को सब बता दूंगी!” और अगली ही पल — उसका शरीर हवा में लहराता हुआ नीचे गिर गया। नीलिमा की सांसें थम गई थीं। विवेक नीचे झुका भी नहीं — बस उसे देखकर बड़बड़ाया और चला गया। नीलिमा चिल्लाना चाहती थी, पुलिस को बुलाना चाहती थी, पर विवेक की ताकत, पैसे और रिश्तों ने उसकी आवाज़ को गला दिया। उसी रात, एक और ने भी सब देखा — रघु, जो किसी काम से वहां आया था और बालकनी से सब रिकॉर्ड कर गया था। उसने नीलिमा को बाद में वो वीडियो दिखाया और कहा — “जिंदगी बर्बाद कर दी इसने… लेकिन अभी वक्त नहीं है, पहले खुद को बचाओ।” यही डर और शर्म की गठरी थी जो नीलिमा ने सालों तक अपने अंदर दबा रखी थी — और विवेक को वही धीरे-धीरे ब्लैकमेल करके जलाने लगी थी।

अब आस्था के पास सारे मोहरे थे — नीलिमा की गवाही, रघु का मेल, वीडियो सबूत, और विवेक का अतीत। लेकिन फिर भी हत्या किसने की, ये सवाल अब भी अनुत्तरित था। नीलिमा ने साफ कहा, “मैंने उसे नहीं मारा… मैंने सिर्फ सच्चाई दिखाई। वो क्या करता है, यह उसका बोझ था।” लेकिन क्या सिर्फ सच्चाई दिखा देना काफी था किसी को मारने के लिए? या फिर यह किसी और ने उस वक्त उठाया कदम था, जिसे अब तक सभी नजरअंदाज कर रहे थे? सोनिया पर शक अब और गहरा गया था — उसने वीडियो देखा था, जान गई थी कि उसका पति एक कातिल था, और रघु ने उसे मौका दिया था न्याय का — या शायद बदले का। और आदित्य? उसकी चुप्पी अब खतरनाक लगने लगी थी। आस्था ने महसूस किया कि इस घर में केवल एक हत्या नहीं हुई थी — यहाँ रिश्ते, वफादारी, भरोसे — सब मारे गए थे, और अब इन सबकी राख से सच्चाई की लौ निकलने ही वाली थी। परछाइयाँ अब बोल रही थीं — सवाल यह था कि कौन उन्हें सुनने की हिम्मत रखता था।

विवेक मल्होत्रा की मौत का कारण चाकू का गहरा वार था, यह तो शुरू से तय था, लेकिन जिस हथियार से वार हुआ था — वह अब तक बरामद नहीं हुआ था। ऐसे मामलों में हत्या का हथियार अक्सर हत्यारे की कमजोरी होता है, जिसे या तो घबराहट में छोड़ा जाता है या बहुत सोची-समझी जगह छुपाया जाता है। लेकिन इस बार मामला थोड़ा अलग था — आस्था को एक अज्ञात स्रोत से एक USB ड्राइव भेजी गई, बिना प्रेषक के नाम के। जब उसे लैपटॉप से जोड़ा गया, तो उसमें एक ही फाइल थी — नाम था: “Final Justice.mp4″। फाइल खुलते ही वीडियो की शुरुआत एक शांत रसोई से होती है — वही रसोई, जहां रघु अक्सर खाना बनाता था। कैमरा एक जगह पर रखा हुआ था, शायद छुपा हुआ। कुछ ही देर में कैमरे के दायरे में सोनिया आती है, और फिर रघु। दोनों के बीच फुसफुसाकर कुछ बातें होती हैं। फिर, रघु कुछ दिखाता है — शायद मोबाइल पर वो ही पुराना वीडियो — और सोनिया सन्न रह जाती है। वह कुर्सी पर बैठ जाती है, सिर दोनों हाथों में थाम लेती है, और रघु कुछ कहता है — “अब या तो तुम कुछ करो, या फिर ये पुलिस के पास जाएगा।” सोनिया का चेहरा धीरे-धीरे कठोर हो जाता है। वीडियो कट होता है।

दूसरा हिस्सा वीडियो का सबसे खतरनाक था। कैमरा अब विवेक के बेडरूम में रखा गया था — फिर से छुपा हुआ। रात के करीब 8:45 का समय था। विवेक कमरे में अकेले बैठा था, शराब का गिलास हाथ में, सामने अपनी ही तस्वीर देखता हुआ — जैसे खुद से सवाल कर रहा हो। तभी दरवाज़ा खुलता है, सोनिया अंदर आती है। दोनों के बीच कुछ तीखी बहस होती है — आवाज़ें अस्पष्ट हैं, लेकिन इशारे और चेहरों का तनाव बहुत कुछ बयां करता है। विवेक गुस्से में कुछ चिल्लाता है, गिलास ज़मीन पर फेंकता है, और फिर सोनिया को धक्का देता है। सोनिया लड़खड़ाकर दीवार से टकराती है — और फिर शांत। कुछ सेकंड रुककर वह उठती है, बिस्तर के पास जाती है, और तकिए के नीचे से कुछ निकालती है — वही चाकू, जो बाद में विवेक की छाती में धंसा हुआ पाया गया। लेकिन… वह उस चाकू को लेकर पल भर के लिए ठिठकती है, और तभी विवेक उसकी ओर बढ़ता है — जैसे फिर से उसे धक्का देने वाला हो — और तभी सोनिया वार करती है। एक तेज़ चीख़, फिर फर्श पर गिरने की आवाज़, और अंत में वही सन्नाटा जो मौत के बाद फैलता है। कैमरा अभी भी रिकॉर्ड कर रहा था। सोनिया बस खड़ी रही, बुत की तरह — जैसे वो खुद तय नहीं कर पा रही हो कि उसने हत्या की है या आज़ादी पाई है।

आस्था ने ये वीडियो अकेले देखा। कोई और उस कमरे में नहीं था — क्योंकि अब फैसला उसे लेना था, कानून की किताब से या इंसाफ के तराजू से। यह वीडियो न केवल सबूत था, बल्कि इरादे की गहराई को भी दिखाता था। यह हत्या गुस्से में की गई थी, हाँ — लेकिन वह गुस्सा एक झूठ पर नहीं, एक पूरे जीवन की धोखेबाज़ी पर था। सोनिया ने जब चाकू उठाया, तब वह हत्या के इरादे से नहीं, आत्मरक्षा और प्रतिशोध के उस दोराहे पर खड़ी थी जहाँ कानून मौन हो जाता है और दिल फैसले लेने लगता है। लेकिन नियम नियम होते हैं — और हत्या, हत्या। आस्था जानती थी कि कोर्ट इस वीडियो को देखकर सोनिया को दोषी मानेगा, लेकिन वो यह भी जानती थी कि इस हत्या का जन्म एक और हत्या से हुआ था — वो हत्या, जो 10 साल पहले की गई थी, और जिसके लिए अब तक कोई सज़ा नहीं मिली थी। आस्था के सामने एक ऐसा पल था जहाँ वह खुद को सिर्फ एक पुलिस अफसर नहीं, एक इंसान की तरह देख रही थी — जो सिर्फ गुनाह नहीं, उसका कारण भी समझना चाहती थी।

फिर भी, उसने वीडियो को केस फाइल में सबूत के तौर पर जमा कराया। सोनिया को हिरासत में लिया गया। पूछताछ में जब उसे बताया गया कि उसका सब कुछ कैमरे में कैद है, तो उसने सिर्फ एक बात कही — “मैंने उसे मारा क्योंकि वो पहले ही कई ज़िंदगियाँ मार चुका था। मैं अगली बनने को तैयार नहीं थी।” यह बयान मीडिया में आग की तरह फैल गया। कुछ लोगों ने उसे “मॉडर्न सत्यवती” कहा, कुछ ने “संवेदनहीन हत्यारिन।” लेकिन सच्चाई सिर्फ सोनिया जानती थी — और शायद आस्था भी, जिसने उस वीडियो को केवल कानूनी नजरिए से नहीं, एक औरत की आंखों से देखा था। रघु अब भी फरार था, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे वह अपनी भूमिका पूरी करके ग़ायब हो गया हो — एक ऐसा परछाईं वाला पात्र जो कहानी को दिशा देता है, पर अंत से पहले पर्दे के पीछे चला जाता है। अब कोर्ट तय करेगा कि मौत का ये वीडियो “हत्या” की कहानी कहता है या “न्याय” की — लेकिन एक बात तय थी… सच अब छुपा नहीं था, वो खुले मैदान में खड़ा था — लहूलुहान, पर निर्वस्त्र।

तीन हफ्तों की खामोशी के बाद, एक सुबह आस्था के ऑफिस में एक अनाम मेल आया। मेल का सब्जेक्ट था — “मैंने मारा नहीं… पर मरवाया ज़रूर।” साथ में एक अटैचमेंट थी — एक प्राइवेट क्लाउड लिंक, जिसे खोलते ही एक फोल्डर खुला: “SACH – FINAL PROOF”. वीडियो फाइलें, ऑडियो रिकॉर्डिंग्स और टाइमस्टैम्प वाले चैट्स थे — सबकुछ व्यवस्थित, जैसे किसी ने महीनों नहीं, सालों तक तैयारी की हो। सबसे पहले वीडियो में वही चेहरा था जो महीनों से गायब था — रघु, विवेक मल्होत्रा का पुराना घरेलू नौकर। उसकी आँखें थकी हुई थीं, लेकिन आवाज़ में ऐसा संतुलन था, जैसे किसी ने अपने भीतर सुलग रही आग को ठोस शब्दों का आकार दे दिया हो। उसने कैमरे की तरफ देखते हुए कहा, “मैंने हत्या नहीं की, लेकिन मैंने उसे जिंदा छोड़ने का हक किसी को नहीं दिया था। विवेक मल्होत्रा की मौत सिर्फ एक वार नहीं था, वो एक योजना थी — जो मैं, सोनिया मैडम और एक तीसरी परछाईं मिलकर रच चुके थे।”

वीडियो में रघु ने बताया कि उसने सालों से विवेक के सारे काले कारनामों के सबूत इकट्ठा किए थे। वो जानता था कि काजल की मौत एक दुर्घटना नहीं थी। उस रात की सारी ऑडियो रिकॉर्डिंग उसके पास थी — जब काजल मदद के लिए चिल्ला रही थी और विवेक ने दरवाज़ा बंद कर दिया था। “मैंने उस वक्त डर के मारे कुछ नहीं किया,” रघु बोला, “लेकिन डर ने मुझे सिखाया कि इंतकाम कैसे लिया जाता है।” उसने बताया कि कैसे उसने सोनिया को धीरे-धीरे विवेक के असली चेहरे से रूबरू करवाया, कैसे उसने ही वो वीडियो क्लिप उसे दिखाया जिसमें विवेक किसी अनजान लड़की को धमका रहा था। “सच दिखाने के लिए कभी-कभी एक चिंगारी लगानी पड़ती है — और मैं वही चिंगारी था।” रघु ने बताया कि उसने सोनिया को कभी हत्या के लिए नहीं उकसाया, लेकिन उसे सारी जानकारी दी ताकि अगर वो कुछ करे, तो उसके पास विकल्प हो।

रघु ने अपने बयान में एक तीसरे व्यक्ति का भी ज़िक्र किया — नीलिमा, काजल की बड़ी बहन, जिसे पहले केवल आस्था के एक रिपोर्ट में अनौपचारिक संदर्भ में देखा गया था। अब सच सामने था — सोनिया और नीलिमा एक-दूसरे से मिल चुकी थीं, और दोनों ने विवेक के खिलाफ सबूतों को साझा किया था। “मैंने सिर्फ मिलाया, बाक़ी फैसला उनका था,” रघु ने कहा। लेकिन उसका मकसद साफ था — न्याय। उसने बताया कि उसने खुद को पूरी तरह मिटा दिया था, ताकि सिर्फ सच्चाई बचे। उसके मेल में GPS कोडिनेट्स भी थे — जहां उसने सारे भौतिक सबूत छुपा रखे थे: पुराने लेटर, काजल की डायरी, कुछ USB ड्राइव्स जिनमें विवेक के ब्लैकमेलिंग चैट्स थे। यह सब इतने साफ ढंग से व्यवस्थित था, कि कोर्ट में ये सबूत एक पूरी केस की रीढ़ बन सकते थे। पर सवाल उठता है — अगर रघु ये सब उजागर कर सकता था, तो उसने खुद को क्यों छुपाया?

आस्था उस पूरी रात सो नहीं सकी। एक तरफ रघु का बयान था, जो विवेक के खिलाफ सबूतों का ढेर बन चुका था, दूसरी ओर कानून था — जो हत्या के दोषियों को पकड़ना चाहता था। सोनिया ने जो किया, वो अब खुद एक अपराध था, भले ही उसने उसे विवेक के पापों के कारण किया हो। लेकिन रघु? उसने हत्या नहीं की, पर उसने हत्या को एक दिशा दी। क्या वो दोषी था या सिर्फ एक गवाह, जिसने कानून पर भरोसा न करके इंसाफ खुद गढ़ा? GPS लोकेशन से जब दस्तावेज़ वाकई मिले, तो आस्था को विश्वास हो गया कि रघु ने सब सच कहा था। मगर वो अब कहां था? मेल से उसका लोकेशन ट्रेस करना मुश्किल था — उसने वीपीएन और फेक आईपी का इस्तेमाल किया था। पुलिस ने इसे केस का “आधिकारिक पुनर्जागरण” घोषित किया, और अब यह केस केवल विवेक की हत्या नहीं, बल्कि उस पूरे तंत्र की तह तक जा पहुंचा था जिसने सालों तक सच को दफन किए रखा।

दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट की अदालत नंबर 14 में उस दिन गहमागहमी कुछ ज़्यादा ही थी। मीडिया की भीड़, कैमरे की चमक और जनता की उत्सुक निगाहें — सभी की नजरें उस महिला पर थीं, जिसने देश के एक नामचीन उद्योगपति की हत्या की थी। सोनिया मल्होत्रा, सफेद सलवार-कुर्ते में, बिना किसी मेकअप के, शांत चेहरे और दृढ़ आँखों के साथ कठघरे में खड़ी थी। उसका वकील, एक तेज़-तर्रार महिला अधिवक्ता संध्या मेहरा, जो अपने तर्कों और संवेदनशील अप्रोच के लिए जानी जाती थी, सामने बैठी थी। दूसरी ओर, सरकारी वकील राजीव छिब्बर, जो वर्षों से हत्या के मामलों में सख्त रुख रखने के लिए मशहूर था। आस्था राठी, जो अब तक केस की जाँच अधिकारी रही थी, आज गवाह की कुर्सी पर बैठने जा रही थी — लेकिन उसके चेहरे पर पहली बार असमंजस दिख रहा था। केस का सारा फोकस अब उस वीडियो पर था — जिसे अदालत में “निर्णायक सबूत” माना जा रहा था। लेकिन अदालतें सबूतों से नहीं, उनके संदर्भ से फैसले सुनाती हैं — और यही संदर्भ आज सबसे बड़ा सवाल था।

राजीव छिब्बर ने मुकदमा एक बेहद सीधा केस मानते हुए शुरू किया। “माननीय न्यायालय, एक पत्नी ने अपने पति की छाती में चाकू घोंपा। कैमरे में कैद, गवाह मौजूद नहीं, लेकिन वीडियो ही काफी है। हत्या है — प्रथम दृष्टया हत्या है। चाहे कारण कुछ भी हो, कानून भावना से नहीं चलता।” उसकी आवाज़ में विश्वास था और उसकी भाषा में स्पष्टता। उसने वीडियो को अदालत में चलाने की अनुमति मांगी और जज ने सिर हिलाकर इजाज़त दे दी। कमरे में अजीब-सी खामोशी छा गई जब स्क्रीन पर वही दृश्य दोहराया गया — सोनिया चाकू उठाती है, विवेक उसकी ओर बढ़ता है, और फिर एक झटका… खून… गिरता हुआ शरीर… और एक स्तब्ध चेहरा। सब कुछ दो मिनट में खत्म हो गया। कई चेहरों पर हैरानी थी, कुछ पर सहानुभूति, पर जज का चेहरा निर्विकार था। जैसे एक पुरानी फिल्म का ट्रेलर फिर से देख रहे हों — भावनाओं से परे। राजीव ने वीडियो खत्म होते ही एक वाक्य कहा, “यह न्याय नहीं, कानून की हत्या है। अगर इसे बरी किया गया, तो देश में हर कोई अपनी लड़ाई चाकू से लड़ेगा, अदालत से नहीं।”

अब बारी थी संध्या मेहरा की — जिसने अदालत में खड़े होकर एक अलग ही रुख अपनाया। उसने वही वीडियो फिर चलवाया — लेकिन इस बार उसने वीडियो को रिवाइंड करवाया और उस क्षण पर रुकवाया, जब विवेक सोनिया की ओर हाथ उठाता है। “माननीय न्यायालय, यदि यह हत्या थी, तो ये वार क्यों तब हुआ जब आरोपी खतरे में थी? क्या विवेक मल्होत्रा एक फरिश्ता था, जो निर्दोष रूप से मारा गया?” फिर उसने नीलिमा की गवाही पढ़ी, काजल की मौत की फाइल रखी, और रघु द्वारा भेजे गए मेल की प्रति प्रस्तुत की। “ये एक महिला की अंतिम रक्षा थी — जब हर संस्थान, हर कानून, हर रिश्ते ने उसका साथ छोड़ दिया था।” उसकी बातों में तर्क भी था और जज़्बा भी। आस्था को गवाह बॉक्स में बुलाया गया — और जब उससे पूछा गया कि क्या वह मानती है कि यह हत्या पूर्व नियोजित थी, तो वह कुछ सेकंड चुप रही। फिर बोली, “अगर आत्मरक्षा का कोई चेहरा होता, तो वो सोनिया होता। मैंने उस रात केवल एक इंसान नहीं मरा देखा… मैंने इंसाफ की चुप चीख सुनी थी।” ये बयान जैसे पूरे कोर्ट में फैल गया — दीवारों में, लोगों की आंखों में, और सबसे ज़्यादा — जज की कलम में।

लेकिन मामला अब भी अधूरा था। जज ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया — तीन दिन के भीतर निर्णय सुनाया जाएगा। कोर्ट से बाहर आते हुए सोनिया की आँखें भावनाओं से खाली थीं, जैसे सब कुछ कहने के बाद अब कहने को कुछ बचा नहीं। आस्था उससे नजरें मिलाकर बस इतना कह पाई — “तुम अकेली नहीं हो।” मीडिया ने इस मुकदमे को “पति की हत्या या न्याय की जीत?” के रूप में पेश किया। लेकिन हर कोई जानता था, कि यह मामला सिर्फ कानून के पन्नों पर दर्ज नहीं होगा, बल्कि समाज की सोच में भी गूंजेगा। अदालत का अंधेरा उस दिन सिर्फ बिजली की कमी से नहीं था — वह उन रिश्तों, पीड़ाओं और मजबूरियों का अंधेरा था जिसे कोई भी गवाही पूरी तरह नहीं बता सकती। अब बस सबकी निगाहें उस दिन पर थीं, जब न्याय की मूर्ति के तराजू में भावनाएँ और तथ्य एक साथ तौलें जाएंगे — और सच्चाई को एक नाम मिलेगा।

अदालत के उस दिन की सुबह बेहद भारी थी। सोनिया ने अदालत की कस्टडी से सीधा काले रंग का सूती सलवार-कुर्ता पहना था, बाल खुले थे, चेहरे पर कोई घबराहट नहीं थी, और आँखों में वही चुप्पी जो अक्सर तूफ़ान के बाद बचती है। मीडिया अदालत परिसर के बाहर कतार में खड़ा था, हर रिपोर्टर अपने चैनल को सबसे पहले “ब्रेकिंग” देने की होड़ में था। आस्था एक कोने में खड़ी थी, वर्दी में नहीं — सिविल ड्रेस में, एक आम नागरिक की तरह। आज वह इंस्पेक्टर नहीं थी, सिर्फ एक इंसान थी जो कानून से भी ऊपर उस ‘अनदेखे’ न्याय की गवाही देने आई थी। कोर्टरूम नंबर 14 के भीतर हर सीट भरी हुई थी, कुछ चेहरे पुराने थे — जैसे सोनिया की पुरानी दोस्तें, और कुछ नए — जो सिर्फ हेडलाइन बनने आए थे। जज साहब ने जैसे ही कोर्ट शुरू होने की घोषणा की, पूरा हॉल सन्नाटे में डूब गया। हवा भी जैसे थमी हुई थी, मानो उसे भी फैसले का इंतज़ार हो।

जज ने फैसला सुनाने से पहले एक लंबा वक्तव्य पढ़ा — जो भारतीय कानून की आत्मा और समाज की सच्चाई दोनों को सामने लाने का प्रयास था। “यह अदालत इस तथ्य से अवगत है कि आरोपी ने एक हत्या की है। वीडियो सबूत, परिस्थितियाँ और घटना की पुष्टि करते हैं कि विवेक मल्होत्रा की मृत्यु एक चाकू के वार से हुई जो उसकी पत्नी सोनिया मल्होत्रा ने किया। लेकिन… अदालत यह भी समझती है कि हर हत्या एक जैसी नहीं होती।” इसके बाद जज ने घटनाओं की श्रृंखला का जिक्र किया — 10 साल पुराना काजल कांड, नीलिमा की गवाही, सोनिया पर हुए मानसिक और शारीरिक अत्याचार, और सबसे निर्णायक — वो वीडियो फुटेज जिसमें विवेक सोनिया पर हमला करता हुआ साफ दिखता है। जज ने आगे कहा, “यह अदालत मानती है कि सोनिया की क्रिया आत्मरक्षा की श्रेणी में आती है, और उसका कोई पूर्वनियोजित इरादा हत्या करने का नहीं था। कानून नीयत को देखता है, और यहाँ नीयत, सिर्फ बचने की थी… नहीं तो मारी जाने की थी।”

सारे कोर्टरूम में जैसे किसी ने सांस छोड़ दी हो। “इसलिए, इस अदालत का निर्णय है — सोनिया मल्होत्रा को भारतीय दंड संहिता की धारा 100 के तहत आत्मरक्षा का अधिकार मानते हुए, हत्या के आरोप से बरी किया जाता है।” संध्या मेहरा की आँखों में जीत से ज़्यादा राहत थी, और आस्था ने अपने होंठ भींचकर आकाश की ओर देखा — जैसे ऊपर कहीं कोई अब मुस्कुरा रहा हो। लेकिन सबसे अधिक चौंकाने वाला दृश्य था सोनिया का — जो बिल्कुल शांत खड़ी रही, कोई खुशी, कोई आंसू नहीं। जैसे उसके भीतर का कोई हिस्सा मर चुका हो, या शायद आज पहली बार ज़िंदा हुआ हो। कोर्ट से बाहर निकलते ही पत्रकारों ने घेर लिया, माइक उसके चेहरे पर तान दिए — “आपको कैसा लग रहा है?” सोनिया ने सिर्फ एक वाक्य कहा, “यह मेरी जीत नहीं, उन सभी की आवाज़ है, जो अब तक चुप थीं।” और वह चुपचाप पुलिस की गाड़ी में बैठ गई, घर लौटने — जहाँ अब एक नया जीवन उसका इंतज़ार कर रहा था, या शायद कोई भी जीवन नहीं।

इस फैसले ने पूरे देश में बहस छेड़ दी। कुछ लोगों ने कहा कि यह फैसला खतरा बन सकता है — लोग कानून को अपने हाथ में लेने लगेंगे। वहीं, बहुतों ने इसे एक साहसी मिसाल माना — एक औरत जिसने अपने लिए लड़ना चुना, डर के बजाय हिम्मत को। टीवी डिबेट्स में कानूनी विशेषज्ञों और समाजशास्त्रियों ने रातों तक बहस की — पर सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि हजारों महिलाओं ने इस केस के बाद पहली बार घरेलू हिंसा के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई। जैसे सोनिया का निर्णय एक चिंगारी बन गया था, जिसने वर्षों से दबे हुए घावों को बोलने की हिम्मत दी। रघु का अब तक कोई सुराग नहीं मिला था, लेकिन पुलिस मानती थी कि वह देश से बाहर भाग चुका है — या शायद किसी और कहानी को अंजाम देने की तैयारी में है। आस्था ने एक दिन अकेले में कहा था, “रघु एक नाम नहीं, एक चेतावनी है… कि सायों को हल्के में मत लो।” और यही बात पूरे केस में बार-बार साबित होती रही।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। एक महीने बाद, आस्था को एक लिफ़ाफ़ा मिला — कोई नाम नहीं, कोई पता नहीं। उसमें एक छोटा सा चिट्ठा था — “उसका खून सिर्फ सोनिया ने नहीं बहाया… मैंने सिर्फ तुम्हें देखा, क्योंकि तुम्हारी आँखों में इंसाफ था, डर नहीं। अगली बार, जब तुम किसी और के साये में जाओ, तो खुद को भी मत खो देना।” साथ में एक पुराना पेंड्राइव था — उसमें सिर्फ एक फोल्डर, नाम: “Kajal_Truth.” आस्था ने गहरी सांस ली। शायद न्याय एक चेहरा नहीं, एक रास्ता होता है — और वह रास्ता अभी खत्म नहीं हुआ था। “साया” अब भी ज़िंदा था — किसी की छाया में, किसी की आँखों में, और किसी की यादों में… इंसाफ की तलाश में।

१०

उस सुबह दिल्ली की हवाओं में एक अजीब-सी ठंडक थी, जैसे गर्मियों के बाद कोई भूला-बिसरा सावन अचानक लौट आया हो। आस्था राठी, जो अब औपचारिक रूप से केस से अलग हो चुकी थी, पुलिस मुख्यालय की छत पर अकेले बैठी थी। उसके हाथ में वही पेंड्राइव था, जो पिछले महीने उसे बिना किसी नाम के लिफ़ाफ़े में मिला था — “Kajal_Truth.” उस फोल्डर में छुपे वीडियो, दस्तावेज़ और ईमेल रिकॉर्ड्स ने एक ऐसी परतें खोल दी थीं, जिन्हें न कानून ने कभी छुआ था, न समाज ने। काजल की मौत, जिसे एक हादसा कहकर बंद कर दिया गया था, असल में एक सुनियोजित हत्या थी — जिसमें सिर्फ विवेक नहीं, बल्कि उसके करीबी दोस्त और व्यापारिक पार्टनर रघु का भी सीधा हाथ था। पेंड्राइव में एक वीडियो था — रघु का रिकॉर्ड किया हुआ इकबालिया बयान। कैमरे की ओर देखता वह आदमी, जो कभी सिर्फ एक वफादार नौकर माना गया, अब एक चुपचाप जलते विद्रोही की तरह बोल रहा था: “काजल सिर्फ मालकिन नहीं थी, वो मेरी बहन जैसी थी। जब मैंने उसकी चीखें सुनी थीं उस रात, मैंने पुलिस नहीं बुलाई… क्योंकि मुझे पता था, पुलिस क्या करेगी। तब मैंने फैसला किया — मैं खुद न्याय बनूंगा।”

रघु के बयान में कोई घबराहट नहीं थी। उसने बताया कैसे उसने वर्षों तक चुपचाप सब कुछ रिकॉर्ड किया — घर के भीतर छुपे कैमरों से लेकर व्यापारिक कागज़ात तक, कैसे उसने सबूत जमा किए, और कैसे सोनिया की हिम्मत ने उसे आखिरी कदम उठाने की ताकत दी। उसने विवेक और उसके दोस्तों की उन पार्टियों का जिक्र किया जहाँ महिलाओं को ‘उपयोग की वस्तु’ माना जाता था — और समाज बस खामोश तमाशबीन बना रहता था। “मैं कोई हीरो नहीं हूँ,” रघु ने कहा, “मैं बस वो आवाज़ हूँ, जो कभी किसी ने सुनी नहीं।” इस वीडियो के अंत में उसने कहा कि वह देश छोड़ रहा है — “क्योंकि यहाँ कानून केवल मरे हुए लोगों की सुनता है, ज़िंदा लोग यहाँ गुनहगार होते हैं।” आस्था को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस वीडियो को कानून को सौंपे या नहीं। लेकिन एक बात साफ थी — रघु अब कहीं भी हो, वो साया बन चुका था। एक ऐसा साया जो अंधेरे में रहकर उजाला खोज रहा था।

कुछ हफ्तों बाद, आस्था ने सोनिया से मुलाकात की। अब वह एक NGO चला रही थी — “साया ट्रस्ट”, जहाँ घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को आश्रय, सलाह और कानूनी मदद दी जाती थी। ऑफिस एक पुराने बंगले में था — वही घर जहाँ कभी विवेक मरा था, आज पुनर्जीवित हो चुका था। वहाँ दीवारों पर नारे थे: “चुप्पी अब जवाब नहीं है”, “डर से लड़ो, साया बनो।” सोनिया की आँखों में थकान थी, पर साथ ही एक दृढ़ता भी — जो सिर्फ दर्द से नहीं, पुनर्जन्म से आती है। आस्था ने जब रघु का वीडियो उसे दिखाया, वह कुछ मिनटों तक चुप रही। फिर बोली, “वो मेरा रक्षक नहीं था, पर वो वही बना जो ये समाज किसी को बनने नहीं देता — एक आदमी जो औरत के लिए खड़ा हो।” दोनों औरतें, जो कभी एक-दूसरे के रास्ते पर खड़ी थीं, आज एक ही रास्ते पर थीं — और यह रास्ता इंसाफ से भी बड़ा था… यह रास्ता बदलाव का था।

“साया ट्रस्ट” धीरे-धीरे चर्चाओं में आने लगा। हर राज्य से केस आने लगे — कभी एक पत्नी, जो तीस साल से मार खा रही थी, कभी एक बेटी, जिसे उसके ही पिता ने ग़लत तरीके से छुआ था, कभी एक माँ, जो सब जानकर भी चुप थी, आज बोलना चाहती थी। सोनिया अब किसी की पत्नी नहीं थी, न किसी की विधवा — वो अब एक पहचान बन चुकी थी, एक आवाज़, एक चेतावनी और एक उम्मीद। और आस्था, जिसने पुलिस की वर्दी पहनकर सिस्टम से लड़ाई शुरू की थी, अब सिविल लाइफ में कानून को इंसानियत से जोड़ने का काम कर रही थी। दोनों ने मिलकर रघु के वीडियो को सार्वजनिक नहीं किया — लेकिन उसके आधार पर पुराने मामलों को दोबारा खुलवाया, फाइलें फिर से जांच के लिए भेजीं, और जो बचा हुआ था, उसे भी रोशनी में लाने की ठानी।

कहानी का अंत कोई पटाखों भरा क्लाइमेक्स नहीं था — न कोई रघु की गिरफ्तारी, न कोई रोमांचक पीछा। यह एक असली अंत था — जहाँ हर किरदार अपने भीतर से लड़ता है, समाज से नहीं, खुद से। और इस कहानी का साया अब सिर्फ डर का नहीं था, चेतना का बन चुका था। जैसे एक औरत की चुप्पी अब गूंज बन चुकी थी, और उसका अकेलापन — एक आंदोलन। “साया” अब कोई डर नहीं था… वो हर उस इंसान का प्रतिबिंब था जो अंधेरे में रोशनी की उम्मीद लेकर जीता है — और अंत में, अपने साए से लड़कर, खुद को बचा लेता है।

-समाप्त-

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