Hindi - क्राइम कहानियाँ

साँझ के साए

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शिवांगी वर्मा


सूर्य अस्त होते-होते बनारस की गलियों में साँझ की परछाइयाँ उतरने लगी थीं, और अस्सी घाट की सीढ़ियाँ रोज़ की तरह शांत और उदास थीं। गंगा की लहरों में हल्की-सी चांदी की चमक थी, लेकिन उस शाम घाट पर कुछ अजीब-सा सन्नाटा पसरा था। स्थानीय नाविक सोमू जब पानी से लौट रहा था, तभी उसने घाट के तीसरे पत्थर पर एक अधेड़ उम्र के आदमी को पड़ा देखा—गर्दन झुकी हुई, आँखें खुली पर निष्प्राण, गले में तुलसी की माला, और हाथ में एक फटा हुआ कागज़ जिसमें कोई संस्कृत श्लोक लिखा हुआ था। “श्रीमान जी…?” सोमू ने डरते हुए पास जाकर देखा, पर आदमी की नब्ज थमी हुई थी। कुछ देर बाद घाट पर पुलिस आ गई और भीड़ धीरे-धीरे इकट्ठी होने लगी, हर कोई कानाफूसी कर रहा था—“ये तीसरी बार है इसी घाट पर…”, “पिछली बार भी शव के पास संस्कृत में कुछ लिखा था…”। लाश को जब उठा कर ले जाया गया, तब शशांक त्रिपाठी की कार घाट की सीढ़ियों से सटी, और खाकी वर्दी में वो उतरा — शांत, गंभीर और भीतर से कुछ टूटा हुआ। यह केस अब उसकी ज़िम्मेदारी था, लेकिन भीतर से वो जानता था — यह सिर्फ एक केस नहीं था, बल्कि एक बार फिर उस अंधेरे रास्ते पर लौटने का दरवाज़ा, जहाँ उसका अपना अतीत उसे घसीट लाना चाहता था।

शशांक ने शव की रिपोर्ट ध्यान से पढ़ी — कोई संघर्ष नहीं, कोई चोट नहीं, शरीर में नींद की दवा की मात्रा अधिक थी, और फिर हार्टफेल की पुष्टि हुई। पर वह श्लोक? “मृत्योर् मा अमृतं गमय…” — यह तो उपनिषद से लिया गया था, लेकिन क्यों? एक सामान्य हत्यारा ऐसे संदेश क्यों छोड़ेगा? या फिर, क्या यह हत्यारा था ही नहीं — कोई सनकी, कोई धार्मिक उन्मादी? लेकिन तब माला का क्या मतलब? कुछ पुरानी फाइलों को टटोलते हुए शशांक को याद आया — दो साल पहले इसी घाट पर एक और लाश मिली थी, ठीक इसी अंदाज़ में। वह केस ‘आत्महत्या’ कहकर बंद कर दिया गया था, लेकिन शशांक को वह घटना बहुत निजी तौर पर चुभती थी, क्योंकि उसी साल उसके बेटे आरव की लाश भी इन्हीं घाटों के पास मिली थी — वही तुलसी की माला, वही फटा कागज़, वही बेबसी। उसे लगा जैसे उसकी छाती में कुछ धँस रहा है — क्या यह सब उसी चेन का हिस्सा है? क्या उस समय वह कुछ समझ नहीं पाया था? उस रात अपने छोटे से फ्लैट में बैठकर उसने आरव की पुरानी डायरी खोली — पीले पड़ चुके पन्नों पर उसके लिखे कुछ शब्द अब भी सांस ले रहे थे — “पापा कहते हैं धर्म रक्षा करता है… पर क्या धर्म इंसानों से ऊपर हो गया है?” शशांक का दिल कांप गया, जैसे आरव अब भी उससे सवाल कर रहा हो।

अगली सुबह प्रेस कांफ्रेंस में रागिनी मिश्रा की उपस्थिति ने माहौल बदल दिया — तेज़ आवाज़, तीखे सवाल और आंखों में एक पुराना परिचय जो अब अजनबी लगने लगा था। “इंस्पेक्टर त्रिपाठी, क्या आपको नहीं लगता कि ये सब हत्याएं किसी धार्मिक थीम पर आधारित हैं?”, “क्या बनारस के घाट अब अपराध की प्रयोगशाला बन चुके हैं?” शशांक ने कोई जवाब नहीं दिया, बस उसकी तरफ देखा — वही चेहरा, वही आत्मविश्वास, जो उसने वर्षों पहले देखा था… उस रिश्ते में, जो बिना शुरू हुए ही खत्म हो गया था। रागिनी को सूचना मिली थी कि शव के पास मिला श्लोक वेदांत संप्रदाय के कुछ पुराने ग्रंथों से मेल खाता है, और कुछ स्थानीय लोगों ने बताया कि मृतक हाल ही में एक आश्रम में जाया करता था — “वेदानंद आश्रम”, जो शहर से बाहर, गंगा के किनारे एक प्राचीन किले के अवशेषों के पास स्थित था। रिपोर्टिंग के बाद रागिनी ने अकेले में शशांक से कहा, “तुम अब भी उन्हीं किताबों में जवाब ढूंढ़ रहे हो?” और शशांक ने धीमे से जवाब दिया, “कभी-कभी किताबें ही सच्चाई बताती हैं, लोग नहीं।” घाट की सीढ़ियों पर फिर शाम उतरने लगी थी, और गंगा के पानी में आरव की मुस्कुराहट जैसे अब भी तैर रही थी — मौन, लेकिन बहुत कुछ कहती हुई।

***

अगली सुबह बनारस की भीड़भाड़ भरी सड़कों से दूर, राजघाट के एक पुराने हिस्से में फिर एक शव मिला — वही तुलसी की माला, वही फटा हुआ कागज़, और इस बार लिखा हुआ था: “न कर्मणा न प्रजया धनेन…”। इस बार मृतक की उम्र कुछ कम थी — कोई पैंतीस के आसपास, नाम था डॉ. कमलेश मिश्रा — बीएचयू का एसोसिएट प्रोफेसर, जो वैदिक साहित्य में शोध कर रहा था। पुलिस की शुरुआती जांच में फिर वही निष्कर्ष आया — नींद की दवा, कोई जबरदस्ती नहीं, और कोई गवाह नहीं। शशांक त्रिपाठी घटनास्थल पर पहुँचा, घाट की उन सीढ़ियों को ध्यान से देखने लगा जैसे वहाँ की दरारों में कोई छिपा संकेत हो। पास खड़ा कांस्टेबल बोला, “साहब, ये प्रोफेसर साहब हर हफ्ते इसी घाट पर ध्यान लगाने आते थे… बोलते थे कि गंगा के पास ही मोक्ष का मार्ग मिलता है…”। शशांक ने माला को हाथ में लिया, फिर फटे कागज़ को — उसकी उंगलियाँ काँपीं नहीं, लेकिन उसकी आत्मा जरूर काँप गई, क्योंकि ये वही कागज़ था जैसा उसके बेटे आरव के पास मिला था — पीले किनारे, नीली स्याही, और शब्दों में गहराई से छिपी कोई प्यास, जो केवल वही समझ सकता था जिसने अपनों को खोया हो।

शाम को जब वह अपने केबिन में अकेला बैठा था, तभी दरवाज़ा धड़धड़ाया — रागिनी मिश्रा बिना इजाज़त भीतर आ गई। हाथ में कुछ फोटो और एक पुरानी रिपोर्ट थी। “देखो शशांक, यह कोई साधारण मामला नहीं है। ये रहा दो साल पुराना केस — मृतक का नाम सूरज तिवारी था, उम्र 24, मौत गंगा घाट पर, गले में तुलसी की माला, और पास में श्लोक: ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’… और पुलिस ने इसे आत्महत्या घोषित कर दिया था। अरे, ये सब क्या इत्तफाक है?” शशांक ने रिपोर्ट को देखा, और उसे पहचानने में देर नहीं लगी — ये वही केस था जिसे उसने आरव की मौत के एक महीने बाद खोला था, लेकिन तब मानसिक हालत इतनी टूटी हुई थी कि उसने गहराई से कुछ नहीं देखा। अब वह केस एक दर्पण बनकर उसकी आँखों के सामने आ गया — क्या उसने तब कुछ अनदेखा कर दिया था? रागिनी की निगाहें उसके चेहरे पर जमी थीं — “कभी-कभी पुलिस की सबसे बड़ी भूल यही होती है कि वो संकेतों को केवल सबूत मानती है, भावना नहीं।” शशांक ने पहली बार उसकी आँखों में देखा — गुस्सा नहीं था, बस एक पुराना दर्द था, जो शायद अभी भी बाँधा हुआ था।

रात गहराई थी, और शशांक अपनी कार में बैठकर अकेले ही निकल पड़ा — वेदानंद आश्रम की ओर। गंगा किनारे एक सुनसान रास्ते से होते हुए जब वह उस प्राचीन इमारत के पास पहुँचा, तो हवा में धूप और गीली मिट्टी की गंध थी। वहाँ खड़े कुछ अनुयायियों ने उसे भीतर नहीं जाने दिया — “गुरुजी ध्यान में हैं, किसी से नहीं मिलते…”। लेकिन तभी एक बूढ़ा साधु चुपचाप बोला, “त्रिपाठी जी, आप आयें… गुरुजी जानते थे आप आएँगे।” भीतर जाते हुए शशांक की आँखें दीवारों पर टँगे चित्रों और संस्कृत में लिखे श्लोकों पर पड़ीं — सब कुछ भयावह रूप से परिचित लग रहा था। स्वामी वेदानंद एक पत्थर की गद्दी पर बैठे थे — गेरुए वस्त्र, लंबी दाढ़ी, और आंखों में ऐसा ठहराव जो अनजाना लगने के बावजूद खतरनाक था। उन्होंने केवल इतना कहा — “हर आत्मा अपने कर्म का भार लेकर आती है, इंस्पेक्टर… आप मेरे पास नहीं, अपने भीतर की गहराई में उतरने आए हैं।” शशांक कुछ नहीं बोला, पर उसे एहसास हो गया था कि यह केस उसे बाहर से नहीं, भीतर से तोड़ेगा। घाटों की गहराई अब सिर्फ पानी की नहीं रही, बल्कि स्मृतियों और अपराधबोध की गहराइयों में बदल चुकी थी।

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तीसरी हत्या ने बनारस की नींद पूरी तरह तोड़ दी। इस बार शिकार था एक स्थानीय समाजसेवी, अजय तिवारी, जो गंगा आरती आयोजन समिति का सदस्य था। सुबह उसकी लाश भैंसासुर घाट पर मिली — वही तुलसी की माला, वही फटा कागज़, लेकिन इस बार जो श्लोक लिखा था, उसने पूरे शहर में सनसनी फैला दी: “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” पुलिस ने जैसे ही यह पंक्ति पढ़ी, कई वरिष्ठ अधिकारी सोच में पड़ गए — क्या यह हत्यारा धर्मग्रंथों को हिंसा के लिए इस्तेमाल कर रहा है? शशांक त्रिपाठी जब घटनास्थल पर पहुँचे, तो वहाँ पहले से दर्जनों मीडियाकर्मी थे, और सबसे आगे खड़ी थी — रागिनी मिश्रा। “तीसरी लाश…तीसरा श्लोक…तीसरा घाट… और अब भी आप इसे आत्महत्या मान रहे हैं, इंस्पेक्टर?” उसने कैमरे के सामने सवाल दागा। शशांक ने एक क्षण को उसकी आँखों में देखा, फिर कैमरे की तरफ मुड़कर सिर्फ इतना कहा, “ये हत्याएं हैं। धार्मिक प्रतीकों की आड़ में कोई एक साफ संदेश भेज रहा है — मगर किसे और क्यों?” यह पहली बार था जब उसने मीडिया के सामने स्वीकार किया कि ये जुड़ी हुई हत्याएं थीं। भीड़ के पीछे से एक वृद्ध पुजारी धीरे-धीरे आगे आया और शशांक को बताया कि मृतक अजय तिवारी ने कुछ दिन पहले आश्रम के एक कार्यक्रम पर सवाल उठाया था — कहा था कि “धर्म अब भय बन चुका है।” यह सुनते ही शशांक के माथे पर बल पड़ गया — कहीं यह “धर्म का भय” ही तो इस हत्या श्रृंखला का कारण नहीं?

रात को अपने केबिन में बैठकर शशांक ने सारे कागज़ों को सामने फैलाया — तीनों शव, तीनों घाट, तीनों श्लोक। उसने एक-एक करके श्लोकों की व्याख्या देखी — पहले: मृत्योर् मा अमृतं गमय (मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो), फिर: न कर्मणा न प्रजया धनेन (मोक्ष न कर्म से, न धन से), और अब: कर्मण्येवाधिकारस्ते… (केवल कर्म में अधिकार है)। यह कोई अराजक सिलसिला नहीं था — यह एक दर्शन था, एक सुविचारित दार्शनिक पैटर्न। लेकिन इसमें डरावना यह था कि इन्हें जीवन को बचाने के लिए नहीं, हत्या को उचित ठहराने के लिए प्रयोग किया जा रहा था। तभी एक फाइल पर उसकी नजर पड़ी — दो साल पहले एक मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया था कि “काशी के घाटों पर युवाओं में मोक्ष और मृत्यु को लेकर विकृत कल्पनाएं बढ़ रही हैं।” रिपोर्ट में एक व्यक्ति का ज़िक्र था — स्वामी वेदानंद, जिसने तंत्र, वेद और योग के माध्यम से “आत्म-निर्माण” नामक एक साधना शुरू की थी, जिसे बंद करवा दिया गया था क्योंकि उसके एक अनुयायी ने आत्मदाह किया था। शशांक को याद आया — उसी साल आरव की मौत हुई थी। क्या यह सब उसी साधना का प्रभाव था? या कुछ और? वह कुछ देर तक निःशब्द बैठा रहा, फिर अपने बेटे की एक पुरानी रिकॉर्डिंग निकाली जिसमें आरव कह रहा था — “पापा, मृत्यु डरावनी नहीं लगती, बस अधूरी लगती है…”। शशांक को लगा जैसे आरव आज भी किसी रहस्यमय अंधेरे से उससे कुछ कहना चाहता है।

अगली सुबह वह बिना किसी अनुमति के वेदानंद आश्रम पहुंचा। साधुओं ने रोकने की कोशिश की, लेकिन इस बार शशांक ने अपनी बंदूक टेबल पर रख दी और कहा, “मैं तुम्हारे गुरु से नहीं, उनके भीतर बैठे डर से मिलने आया हूँ।” वेदानंद उसे देखकर मुस्कराया — “धर्म प्रश्न नहीं करता, जवाब देता है।” शशांक ने तीन तस्वीरें उसकी टेबल पर रख दीं — तीनों मृतकों की — “क्या ये जवाब हैं, स्वामी जी? या आपकी साधना का नतीजा?” वेदानंद ने उनकी तरफ देखा, फिर बोला, “मैंने किसी को मरने को नहीं कहा, त्रिपाठी जी। मैंने उन्हें जीने का तरीका बताया, जिसे वो समझ नहीं पाए। मृत्यु उनके भीतर थी, मैंने बस दर्पण थमाया।” शशांक ने देखा कि दीवारों पर जो श्लोक अंकित थे, वे उन्हीं तीन श्लोकों से मेल खाते थे जो लाशों के पास मिले थे। आश्रम अब उसे मंदिर नहीं, एक प्रयोगशाला लगने लगा — जहाँ मन, शरीर और आस्था को तोड़ने और गढ़ने का अभ्यास हो रहा था। लौटते समय उसने रागिनी को कॉल किया और बस इतना कहा, “मामला अब सिर्फ हत्याओं का नहीं है, यह आत्मा के भ्रम का है… और शायद यह भ्रम मेरे बेटे की मौत से भी जुड़ा है।” बनारस की हवाओं में अब गंगाजल की महक नहीं, किसी अनदेखी साजिश की गंध घुलने लगी थी।

***

रात के साढ़े दस बज चुके थे, बनारस की गलियों में दुकानों की शटरें गिर चुकी थीं, लेकिन शहर का सबसे पुराना थानेदार घर की छत पर चुपचाप बैठा था, हाथ में आरव की आखिरी फोटो लिए। तभी उसका मोबाइल घनघनाया — स्क्रीन पर नाम था: रागिनी मिश्रा। “तुरंत मिलना है, मैं ऑफिस में हूँ। और इस बार कोई बहाना मत बनाना।” शशांक चुपचाप उठा, वर्दी नहीं पहनी, सिर्फ अपना रेनकोट ओढ़ा और निकल पड़ा। जब वह मीडिया हाउस पहुँचा, तो रागिनी पहले से एक मोटी फाइल के पन्नों में गुम थी। “ये देखो,” उसने बिना भूमिका के कहा, “2005 में भी ऐसा ही एक केस हुआ था। मृतक का नाम था मयंक द्विवेदी, 21 साल, संस्कृत साहित्य का छात्र, आत्महत्या मानी गई थी। लेकिन तब भी उसके पास मिला था वही श्लोक — ‘सत्यमेव जयते’, गले में तुलसी की माला, और शव भैंसासुर घाट के पास मिला था।” शशांक ने फाइल खोली — सबकुछ एक पैटर्न की तरह सामने था, मगर रिपोर्ट पर ऊपर लाल स्याही से लिखा था: “केस बंद: मानसिक रोगी घोषित”। “अब समझ रहे हो?” रागिनी ने कहा, “ये मौतें नई नहीं हैं, ये परंपरा है… किसी विकृत विचार की परंपरा, जो अब भी ज़िंदा है।”

शशांक ने उसी वक्त फाइल को स्कैन किया और थाने में पुराने रिकॉर्ड खंगालने का आदेश दिया। जैसे-जैसे घंटे बीतते गए, एक अनदेखी श्रृंखला सामने आने लगी — पिछले 20 वर्षों में बनारस के घाटों पर हुई ऐसी 11 मौतें, जिनमें ‘आत्महत्या’ का शक था लेकिन सबके पास कोई न कोई धार्मिक प्रतीक मौजूद था: कभी श्लोक, कभी त्रिशूल, कभी रुद्राक्ष, और हर बार — तुलसी की माला। फाइलें पुरानी थीं, फोटो पीली पड़ चुकी थीं, लेकिन एक चीज साफ थी — ये मौतें जुड़ी हुई थीं, और ये अब “श्रद्धा” नहीं, किसी गहरी “साजिश” की ओर इशारा कर रही थीं। रागिनी ने शशांक से पूछा, “तुम्हें नहीं लगता आरव की मौत भी इसी कड़ी का हिस्सा हो सकती है?” शशांक ने सिर झुका लिया — जवाब देने से ज़्यादा भारी था उसे स्वीकार करना कि उसने शायद अपने ही बेटे के केस को अधूरा छोड़ दिया था। “उसके कमरे में मिली डायरी, वो शब्द… ‘मोक्ष… भय नहीं, आकांक्षा है’ — क्या ये सब किसी ने उसके दिमाग में डाला था?” अब पहली बार शशांक को वेदानंद आश्रम के उस पत्थर की दीवार पर लिखे शब्द साफ याद आए — वही भाषा, वही दर्शन।

सुबह की पहली आरती की घंटियाँ बजने लगी थीं, लेकिन शशांक और रागिनी के भीतर की रात अभी लंबी थी। उन्होंने तय किया — अगला कदम होगा उन सभी मृतकों के परिवारों से मिलना, और देखना कि क्या उनके पीछे भी कोई समान कहानी छिपी है। लेकिन उससे पहले रागिनी ने एक पुरानी क्लिप चलाई — एक गुप्त कैमरा इंटरव्यू, जिसमें स्वामी वेदानंद कह रहा था: “शरीर का त्याग ही आत्मा का उद्धार है… आत्महत्या नहीं, आत्मसमर्पण है यह।” शशांक को लगा जैसे किसी ने सीधे उसके सीने पर वार कर दिया हो — यही तो आरव ने भी कहा था अपने आखिरी वॉयस नोट में: “मैं आत्महत्या नहीं कर रहा पापा, मैं खुद को मुक्त कर रहा हूँ।” अब शशांक के लिए यह केस सिर्फ न्याय का नहीं, redemption (प्रायश्चित) का बन चुका था — बेटे के लिए, और उन तमाम मृत आत्माओं के लिए जो श्रद्धा के नाम पर कुर्बान कर दी गई थीं। घाट की हवा भारी थी, जैसे खुद गंगा भी इस पाप का बोझ अपने जल में समेटे बैठी थी।

***

कृष्णा घाट की ठंडी हवाओं में उस रात कुछ ऐसा था जो राघव के भीतर किसी अनकहे डर को हवा दे रहा था। बनारस की शामें आमतौर पर रौनक भरी होती हैं, लेकिन आज घाट सुनसान था, जैसे पूरा शहर किसी गहरे रहस्य से आँखें चुरा रहा हो। राघव ने फोन पर आलिया को कॉल किया, पर वह बंद था। वह जानता था कि आलिया की खोज अब केवल एक रिपोर्टर की जिज्ञासा नहीं रह गई थी—अब यह उसका निजी संघर्ष बन चुका था। ACP मिश्रा ने उसे उस पुराने अस्पताल की फाइल दिखाई थी जहाँ कभी “तारा शरण” नाम की एक मानसिक रोगी को रखा गया था—नाम जो लगभग 17 साल पहले अस्पताल से रहस्यमय तरीके से गायब हो गई थी। उस फाइल में एक फोटो थी, जिसमें उस औरत की आँखें आलिया से बहुत मिलती-जुलती थीं। क्या ये सब सिर्फ एक इत्तेफाक था? या फिर आलिया का अतीत किसी ऐसे मकड़जाल से जुड़ा था जिसका सिरा अब खुलने लगा था? राघव ने तय किया कि वो अकेले ही उस पुराने अस्पताल जाएगा, भले ही खतरा हो। जब वह उस खंडहरनुमा इमारत में पहुँचा, तो दीवारों पर जमी सीलन, गूंजती चीखों जैसी आवाजें और हर ओर पसरा सन्नाटा, सब कुछ जैसे उसके डर को वास्तविक रूप देने लगे। कमरे दर कमरे, वह अतीत के धुंधलकों में कुछ ढूंढ रहा था—और तभी उसे एक रजिस्टर मिला, जिसमें एक नाम बार-बार लिखा था—”तारा”, “तारा”, “तारा”। और आखिरी पन्ने पर किसी बच्चे की लिखावट में एक वाक्य था—”माँ अब सो रही है, पर जागेगी।”

उसी समय दूसरी ओर ACP मिश्रा, गुप्त रूप से उस अनाथालय की जाँच कर रहे थे जहाँ कभी आलिया को गोद लिया गया था। वहां के पुराने चौकीदार ने बताया कि आलिया की फाइल कई बार किसी बाहरी व्यक्ति ने माँगी थी, और एक बार तो किसी नकाबपोश आदमी ने वहाँ आकर धमकाया भी था। मिश्रा को अंदेशा होने लगा कि इस पूरे मामले में कोई बड़ा खेल चल रहा है—किसी संगठित मानसिक प्रयोग या अवैध दवाइयों की ट्रायल जैसी कोई बात। उन्होंने आलिया की फाइल कब्जे में ली और पाया कि उसकी असली जन्मतिथि कुछ और थी, और जन्मस्थान का उल्लेख नहीं था। इस सबके पीछे कौन है? क्या कोई आलिया की सच्चाई दुनिया से छिपाना चाहता है? और अगर हाँ, तो क्यों? ACP ने मन ही मन तय किया कि जब तक वो इस गुत्थी को सुलझा नहीं लेते, तब तक चैन से नहीं बैठेंगे।

तीसरे मोर्चे पर आलिया खुद एक मनोवैज्ञानिक उलझन में फंसती जा रही थी। उसे बार-बार एक चेहरा दिखता था—सफेद साड़ी में लिपटी एक औरत, जिसकी आँखें बेहद गहरी और उदास थीं। ये सपना नहीं था, ये कोई याद थी। उसने खुद को आईने में देखा और अचानक उसका चेहरा बदलने लगा, जैसे कोई दूसरी शख्सियत उसमें से झांक रही हो। आलिया ने डॉक्टर वर्मा से मिलने का निर्णय लिया—वो वही मनोचिकित्सक थे जिन्होंने तारा शरण का इलाज किया था। डॉक्टर वर्मा अब रिटायर्ड थे, लेकिन जैसे ही उन्होंने आलिया को देखा, उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। “तुम… तुम वही हो ना… वो बच्ची जो…” कहकर वह चुप हो गए। आलिया के ज़ोर देने पर उन्होंने कबूल किया कि उस वक्त एक प्रयोग चल रहा था—एक ऐसा प्रयोग जिसमें बच्चों की स्मृति को मिटाकर उन्हें नई पहचान दी जाती थी, ताकि कुछ अवैध क्लीनिकल ट्रायल किए जा सकें। आलिया शायद उन्हीं में से एक थी। डॉक्टर ने चेताया कि अगर सच जानना है, तो उसे खुद उस जगह जाना होगा जहाँ सब शुरू हुआ था—”वार्ड 27″, वो जगह जिसे अब सील कर दिया गया था।

***

मुंबई पुलिस मुख्यालय में एक असामान्य शांति छाई हुई थी, मानो शहर खुद किसी गहरे रहस्य के बोझ तले दबा हो। इंस्पेक्टर नील चौधरी की टेबल पर बिखरे दस्तावेज़ों में से एक पन्ना अचानक उसकी नज़र खींचता है — एक पुराना केस फाइल जिसमें एक कुख्यात स्मगलिंग रैकेट का जिक्र है, जिसका नाम था “ब्लैक वॉटर नेटवर्क”। नील को अचानक याद आता है कि इस रैकेट में एक नाम शामिल था — राणा प्रधान, जो कभी सीनियर कांस्टेबल हुआ करता था और बाद में सस्पेंड होकर गायब हो गया था। वह फाइल लेकर सीधा ACP लहोटी के पास पहुंचता है और कहता है, “सर, मुझे लगता है कि आयशा मिर्ज़ा की हत्या और ये स्मगलिंग केस आपस में जुड़े हुए हैं। आयशा की पिछली रिपोर्ट्स में तस्करी और बच्चों की ट्रैफिकिंग के संकेत थे।” लहोटी गंभीर होकर कहते हैं, “अगर ये सच है तो हमें ऊपर से नीचे तक सड़ांध ढूंढनी पड़ेगी। लेकिन संभलकर चलो, नील। कोई भी भरोसेमंद नहीं रहा अब।” इसी दौरान अंजलि वर्मा, जो आयशा की करीबी मित्र और सहयोगी पत्रकार थी, नील को फोन कर कहती है कि उसे एक डायरी मिली है जिसमें आयशा ने कुछ कोडवर्ड्स में सारे राज़ लिखे हैं। डायरी को छूते ही नील को ऐसा महसूस होता है मानो वो एक मलबे के नीचे दबे सच को उखाड़ने वाला हो — एक ऐसा सच जो पूरी व्यवस्था की नींव हिला सकता है।

अंजलि उस डायरी को नील को सौंपती है और बताती है कि आयशा पिछले कुछ हफ्तों से एक नाम बार-बार दोहरा रही थी — “विवेक 17″। नील और उसके साथियों के लिए यह नाम किसी सुराग से कम नहीं था। नील पुराने नेटवर्किंग डेटा और कॉल रिकॉर्ड्स खंगालता है और पता चलता है कि ‘विवेक 17’ दरअसल एक कोडनेम है, जिसका इस्तेमाल एक सीक्रेट ऑनलाइन पोर्टल के लिए किया जा रहा था, जहां मानव तस्करी के ऑर्डर लिए और पूरे किए जाते थे। इसी खोजबीन के बीच सब-इंस्पेक्टर जान्हवी को एक पुराने बंद पड़े कारखाने के बाहर संदिग्ध गतिविधि दिखती है और वह बिना किसी बैकअप के वहां चली जाती है। वहाँ पहुंचते ही उसे राणा प्रधान दिखता है, जो उसके कैमरे में आते ही भागने लगता है। जान्हवी उसका पीछा करती है, लेकिन एक सुनसान कोने में पहुंचकर अचानक उस पर हमला होता है और वह बेहोश हो जाती है। जब कुछ घंटों बाद नील वहां पहुंचता है तो उसे जान्हवी की टूटी हुई घड़ी और कुछ खून के धब्बे मिलते हैं। उसकी आंखों में गुस्सा और डर का मिश्रण तैरता है — अब यह सिर्फ केस नहीं, एक व्यक्तिगत लड़ाई बन गई है।

नील अपने दस्ते के साथ ‘विवेक 17’ के डिजिटल सर्वर तक पहुंचता है और साइबर क्राइम यूनिट की मदद से उस पोर्टल की लोकेशन ट्रेस करता है, जो शहर से बाहर पनवेल की एक वीरान फैक्ट्री में है। ऑपरेशन “शून्य रेखा” को अंजाम देने के लिए पूरी यूनिट तैयार होती है। लेकिन ठीक हमले की रात ACP लहोटी गायब हो जाते हैं। एक गुप्त स्रोत से नील को पता चलता है कि लहोटी ही असली मास्टरमाइंड हैं और उन्होंने ही ब्लैक वॉटर नेटवर्क को बचाने के लिए पूरे सिस्टम को गुमराह किया है। यह जानकर नील स्तब्ध रह जाता है, क्योंकि जिस आदमी को वह आदर्श मानता था, वही सड़ा हुआ जड़ था। अंजलि, जो अब इस पूरी गाथा को रिपोर्ट कर रही होती है, कहती है, “अगर व्यवस्था का सिर ही सड़ा हो, तो हम जैसे लोग बस जिंदा लाशें हैं।” अब नील के पास सिर्फ एक रास्ता है — सच का सामना करना, भले ही उसकी कीमत उसकी नौकरी या जान ही क्यों न हो। फैक्ट्री की ओर बढ़ते उनके कदम अब सिर्फ कानून के नहीं, न्याय के पुकार हैं। पर क्या वह वहां तक सुरक्षित पहुंच पाएंगे? और क्या जान्हवी अब भी ज़िंदा है? इन सवालों की गूंज के साथ अंधेरे में एक गोली चलने की आवाज़ आती है — मानो किसी और राज़ ने खुद को ज़िंदा कर लिया हो।

***

दोपहर का वक्त था, लेकिन पुलिस स्टेशन के अंदर एक अजीब सी बेचैनी पसरी हुई थी। इंस्पेक्टर आरव चौधरी की आंखों के नीचे काले घेरे और माथे की शिकन बता रही थी कि पिछले चौबीस घंटे उसके लिए कितने तनावपूर्ण रहे थे। उसकी मेज़ पर फैली फाइलों और लैपटॉप की स्क्रीन पर घूरती निगाहों में कुछ तो ऐसा था जो उसे चैन नहीं लेने दे रहा था—कहीं कुछ छूट रहा था, एक अहम कड़ी जो अब भी उसकी पकड़ से बाहर थी। सीमा वर्मा की गुमशुदगी, अर्जुन राय की रहस्यमय ह्त्या, और संध्या के बयान—ये सब मिलकर एक उलझी हुई बिसात बन चुकी थी जिसमें हर मोहरा अपनी जगह बदल रहा था, लेकिन राजा कौन था—ये अब भी अनसुलझा था। ठीक उसी वक्त, हवलदार सलीम ने आकर कहा, “सर, जो फुटेज आपने मंगवाए थे, वो मिल गए हैं—बैंक ऑफ इंडिया ब्रांच के बाहर वाले कैमरे से।” आरव ने झटपट लैपटॉप से यूएसबी जोड़ी और फुटेज देखना शुरू किया। वीडियो में 3 दिन पहले दोपहर 2 बजे के करीब एक महिला काले चश्मे और हिजाब में बैंक के बाहर खड़ी दिखी—चेहरे का आधे से ज़्यादा हिस्सा छिपा हुआ था, लेकिन उसकी चाल… आरव की आंखें सिकुड़ गईं। “ये चाल तो संध्या की है,” उसने बुदबुदाया। क्या वो झूठ बोल रही थी? और अगर हां, तो क्यों?

इधर, पत्रकार रिया माथुर भी अपनी तहकीकात में एक कदम आगे बढ़ चुकी थी। उसने एक पुराने पुलिस मुखबिर की मदद से शहर के एक ऐसे गिरोह का पता लगाया था जो नकली पहचान और फर्जी दस्तावेज़ बनाता था। रिया ने जब उन दस्तावेज़ों में से एक को देखा—तो दंग रह गई। उसमें अर्जुन राय का पासपोर्ट था, पर असली नहीं—इसमें नाम कुछ और था: “आदित्य मिश्रा”। फोटो वही, लेकिन पहचान बदली हुई। “तो अर्जुन राय कोई और था?” रिया के ज़ेहन में जैसे धमाका हो गया। अब वो सीधे इंस्पेक्टर आरव के पास गई, जो खुद भी उलझन में था। दोनों ने मिलकर सारे तथ्य एक बार फिर जोड़ने शुरू किए—अर्जुन, जो असल में आदित्य मिश्रा था, पिछले तीन महीने से इस शहर में था, और संध्या को अच्छी तरह जानता था। सीमा वर्मा की गुमशुदगी के दिन संध्या अचानक ऑफिस से छुट्टी पर चली गई थी, और बैंक के बाहर उसकी मौजूदगी साबित हो चुकी थी। ये सब कोई इत्तेफाक नहीं हो सकता। आरव ने तुरंत संध्या को थाने बुलाने का आदेश दिया, लेकिन रिपोर्ट आई—”मैम घर पर नहीं हैं, मोबाइल भी बंद जा रहा है।” आरव का माथा ठनका। “संध्या भाग गई है?”

संध्या की गैरमौजूदगी ने पूरी कहानी में हलचल मचा दी थी। आरव और रिया दोनों उसके फ्लैट पर पहुंचे, जहां दरवाज़ा खुला हुआ था और अंदर सबकुछ अस्त-व्यस्त। ऐसा लग रहा था जैसे कोई जल्दबाज़ी में भागा हो। एक ड्रॉअर खुला था जिसमें से कुछ पेपर आधे बाहर झांक रहे थे—एक डॉक्टर की पर्ची, जिसमें मानसिक तनाव और दवा का ज़िक्र था। वहीं एक और फाइल में एक पुराना मेडिकल रिपोर्ट भी मिला—नाम था ‘सीमा वर्मा’ और डॉक्टर का नाम—डॉ. आलोक सिन्हा। अब कहानी में एक और नाम जुड़ गया था। आरव ने तुरंत डॉक्टर सिन्हा की क्लिनिक का पता लगाया और वहां पहुंचने की तैयारी शुरू की। तभी रिया ने पीछे से पूछा, “आरव, अगर संध्या मानसिक तनाव में थी, तो क्या वो सीमा वर्मा को जानती थी? क्या वो उसे जान-बूझकर छिपा रही है?” आरव ने जवाब नहीं दिया, लेकिन उसकी आंखों में जवाब साफ था। कहानी अब सिर्फ हत्या और गुमशुदगी की नहीं रह गई थी—ये उन चेहरों की कहानी बन चुकी थी जो समाज के सामने कुछ और थे, लेकिन परदे के पीछे कुछ और। संध्या की बिसात में अब अगला मोहरा कौन होगा—ये सवाल आरव को चैन से सोने नहीं देगा।

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पुलिस हेडक्वार्टर के इंटेरोगेशन रूम की दीवारें आज कुछ ज़्यादा ही ठंडी लग रही थीं। सामने बैठा था वही आदमी—डॉ. शशांक राव। चेहरा अब मासूम नहीं, शिकारी जैसा दिखता था, जिसकी चालाकी अब धीरे-धीरे बेनकाब हो रही थी। इंस्पेक्टर आर्या ने उसकी तरफ़ देखा, आँखों में चुपचाप लहराता हुआ गुस्सा और अफ़सोस—इतने लोगों की ज़िंदगी उस एक आदमी की साजिश का शिकार हुई थी। शशांक ने धीरे-धीरे कुर्सी पर झुककर कहा, “सिस्टम को तोड़ा नहीं जा सकता, आर्या जी, उसे अंदर से सड़ाना पड़ता है। मैंने वही किया।” बाहर एक दस्ते ने कोठी को सील कर दिया था जहाँ सबूतों की भरमार मिली थी—पुरानी केस फाइलें, एक गुप्त डायरी, और उस सीरिंज का सेट जिसने कितने बेगुनाहों को ‘स्वाभाविक मौत’ दे दी थी। डायरी के पन्नों में रेखांकित शब्दों की तरह उसकी सोच भी कटी-फटी थी—कभी नैतिकता की बात, कभी बदले की आग। उसने लिखा था: “मेरे पास इंसाफ का तरीका था, पर ये देश बस आरोपों की भीड़ है, यहाँ सच्चाई सबसे छोटा अपराध बन जाती है।”

इंस्पेक्टर आर्या अब तक सीएम के उस फोन कॉल को नहीं भूल पाए थे जिसमें इस पूरे मामले को ‘धीरे संभालने’ की हिदायत थी। लेकिन उन्होंने ठान लिया था, चाहे पद जाए, इंसाफ नहीं रुकेगा। डॉ. राव के मेडिकल लाइसेंस को तुरंत सस्पेंड किया गया, और कोर्ट ने उसकी मानसिक स्थिति की दोबारा जांच के आदेश दिए। दूसरी ओर, जर्नलिस्ट काव्या मलिक के स्टिंग ऑपरेशन ने टीवी चैनलों पर तहलका मचा दिया। सच्चाई अब छुप नहीं सकती थी। आर्या ने शशांक की तरफ़ झुककर कहा, “तुम्हारी दवा से लोग ठीक नहीं हुए, बल्कि उस दर्द को महसूस ही नहीं कर पाए जो तुमने दिया।” शशांक ने धीमे से सिर झुकाया, जैसे उसने पहली बार हार मानी हो। उस चुप्पी में सिर्फ़ अपराधी की नहीं, एक टूटे हुए इंसान की आवाज़ थी। कोठी से निकला एक पुराना ब्लड सैंपल ही आख़िरी कड़ी था जिसने केस को अदालत में मज़बूती दी।

छह महीने बाद… अदालत में जब सजा सुनाई गई, तो पूरा कोर्टरूम सांस रोके बैठा था। जज ने कहा, “आपने विज्ञान का इस्तेमाल इंसानियत को खत्म करने के लिए किया, आप सिर्फ डॉक्टर नहीं थे, आप एक योजनाबद्ध हत्यारे थे।” उम्रकैद की सजा हुई। बाहर बारिश हो रही थी, वैसी ही जैसी पहले दिन थी जब ये केस आर्या के हाथ आया था। लेकिन इस बार बारिश में डर नहीं, एक हल्की सी सुकून थी। इंसाफ हुआ था। आर्या अपने पुराने नोट्स बंद करते हुए बोली, “हर केस मुझे थोड़ा और मजबूत बना देता है… और थोड़ा और अकेला भी।” मगर यही अकेलापन ही तो है जो एक ईमानदार अफसर को ज़िंदा रखता है, जब पूरा सिस्टम अंधेरे में डूबा हो। कहानी खत्म नहीं हुई थी, बस अगली फाइल का इंतज़ार था।

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