Hindi - क्राइम कहानियाँ

सन्नाटे का रहस्य

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निशांत परांजपे


भाग 1
रेल की सीटी की आवाज़, कुछ पुराने डिब्बों का कराहता हुआ शोर और उस पर हल्की बूंदाबांदी—आरव सैनी जैसे ही इस पुराने स्टेशन पर उतरा, उसे कुछ अजीब सा एहसास हुआ। वो पुलिस इंस्पेक्टर था, लेकिन इस बार ड्यूटी पर नहीं। छुट्टी पर आया था, खुद को थोड़े दिन के लिए दूर रखने उस दुनिया से जहां हर कदम पर शक होता है, हर मुस्कान के पीछे कोई कहानी। लेकिन किस्मत को उसकी छुट्टी मंजूर नहीं थी।

यह स्टेशन उत्तर भारत के एक छोटे से शहर का था—नाम ज़रूरी नहीं, क्योंकि ऐसी जगहें हर राज्य में होती हैं। शांत, उपेक्षित, लेकिन कुछ न कुछ छुपाए हुए। जैसे ज़मीन के नीचे कोई चीख़ सो रही हो।

आरव ने अपना बैग उठाया, और बाहर की ओर बढ़ा। बाहर अजीब सन्नाटा था। ऑटो वाले नहीं चिल्ला रहे थे, चायवाले नहीं बोल रहे थे, सिर्फ एक बूढ़ा आदमी एक खंभे के नीचे बैठा था—टिकी हुई नज़रें, सीधे आरव की तरफ़। जैसे वो जानता हो कि आरव क्यों आया है, या ये कि वो क्या देखने वाला है। आरव ने उसकी तरफ देखा, लेकिन कुछ कहा नहीं। चुपचाप आगे बढ़ गया।

होटल का नाम था—”होटल चाँदनी”। स्टेशन रोड पर आख़िरी मोड़ पर। एक पुराना रिसीट उसके पर्स में था—एक दोस्त ने भेजा था जो यहाँ एक केस के सिलसिले में आया था और तब से लापता था। पुलिस ने कहा, ‘डिप्रेशन में चला गया’, लेकिन आरव को शक था।

होटल तक पहुँचने के लिए एक साइकिल रिक्शा लेना पड़ा। बूढ़ा रिक्शावाला था, झुर्रियों से भरा चेहरा, लेकिन आँखों में वो चमक नहीं थी जो आमतौर पर होती है। जैसे उसका हर दिन एक बोझ हो। रास्ते में उसने कोई बात नहीं की। आरव ने पूछा, “होटल चाँदनी ठीक है ना?”
वो बोला, “जैसा होटल वैसी ही रातें… ज़्यादा सवाल मत कीजिए साहब।”

आरव ने चौंककर उसकी ओर देखा। ये बात यूं ही नहीं निकली थी।

होटल के बाहर का बोर्ड जर्जर था—’चाँदनी’ के अक्षर आधे मिट चुके थे। रिसेप्शन पर एक दुबला-पतला लड़का बैठा था, जिसकी उम्र बीस के आसपास रही होगी। नाम पूछा तो बोला, “बंटी।”

बंटी ने एक रजिस्टर निकाला। “नाम?”
“आरव सैनी,” उसने जवाब दिया।

बंटी ने एक अजीब नज़र से उसे देखा, फिर पन्ना पलटा और एक पुराने पन्ने पर उंगली फिराई। “आप वही हैं ना जिनके दोस्त—निखिल वर्मा—इधर रुके थे?”

आरव चौंका। “हाँ, तुम जानते हो?”

बंटी ने नज़रें झुका लीं। “कमरा नंबर 10 में थे। फिर… अचानक चले गए। बोले थे—‘कुछ गड़बड़ है इस जगह में’। उसके बाद वापस नहीं आए। पुलिस आई थी, केस बंद हो गया।”

आरव को अब समझ आ गया कि वो सही जगह पर आया है। लेकिन अब डर नहीं था, बस जिज्ञासा थी और ज़रूरत—सच का।

कमरा नंबर 10 की चाबी मिली। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वो हर आवाज़ को सुनने की कोशिश कर रहा था—पंखे की सरसराहट, खिड़की की चरमराहट, और बगल के कमरे से आती धीमी सी रेडियो की धुन। दरवाज़ा खोला। अंदर की हवा बासी थी, जैसे महीनों से कोई नहीं आया हो।

कमरे में एक बिस्तर, एक पुराना अलमारी, एक खिड़की और एक टेबल थी जिस पर धूल जमी थी। दीवार पर एक पुराना कैलेंडर टंगा था—तारीख 17 मई, 2020 पर अटक गई थी। वही तारीख जब निखिल ने आख़िरी बार कॉल किया था।

आरव ने बैग रखा और खिड़की खोली। बाहर एक पुराना पेड़ था, जिसकी शाखाएं खिड़की से लगभग टकराती थीं। हल्की बारिश अब तेज़ हो रही थी।

तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।
“टिक… टिक… टिक…”

आरव ने दरवाज़ा खोला—कोई नहीं था। उसने इधर-उधर देखा। सीढ़ियाँ सुनसान। हल्की ठंडी हवा चली और उसके कान में जैसे किसी ने फुसफुसाकर कहा—“अब तुम भी जानोगे…”

आरव पीछे मुड़ा। कमरा खाली था।

अचानक उसे लगा—इस जगह में कुछ है जो सो रहा है, जागने को तैयार।

और शायद वही उसकी तलाश कर रहा है।

भाग 2

कमरे में लौटकर आरव ने दरवाज़ा बंद किया, चेन-लॉक खींचा और अपनी जेब से पुराना मोबाइल निकाला। नेटवर्क का कोई अता-पता नहीं था। उसने दीवार घड़ी की ओर देखा—रात के नौ बजने वाले थे। होटल की बिल्डिंग पुरानी थी, दीवारों पर सीलन थी, और छत से हल्के पानी के धब्बे टपकने की शुरुआत हो गई थी। बिस्तर की चादर में से भी हल्की सी सड़ी-सी गंध आ रही थी। लेकिन ये सब उसे परेशान नहीं कर रहे थे। उसकी निगाहें कमरे के हर कोने को जैसे स्कैन कर रही थीं।

कमरे की बाईं ओर एक पुराना अलमारी था। आरव ने खोलकर देखा—अंदर कुछ हैंगर लटक रहे थे, एक टूटी हुई कंघी, और नीचे एक अधफटा जूता पड़ा था। ये जूता होटल का नहीं लग रहा था। उसने उसे पलटकर देखा—सोल घिसा हुआ था, लेकिन अंदर की परत पर कुछ लिखा हुआ दिखा। “S.M.”—यह अक्षर उंगली से घिसे गए थे, जैसे किसी ने जल्दबाज़ी में निशान बनाया हो। आरव ने इसे अपने बैग में रख लिया।

टेबल पर एक ड्रॉअर भी था, जो जाम हो चुका था। ज़ोर लगाकर जब उसने खींचा तो अंदर से एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ गिरा। खोलकर देखा—एक नक्शा जैसा कुछ था। उस पर हाथ से कुछ रास्ते और गोले खींचे गए थे। एक गोल घेरे में ‘X’ बना था, और नीचे लिखा था—”पुराने कुएं के पास।” आरव समझ नहीं पाया ये किसका नक्शा है, लेकिन शायद यही कोई सुराग था। उसने वो पर्चा भी सहेज लिया।

तभी फिर वही दस्तक हुई।
“टिक… टिक… टिक…”

इस बार ज़रा ज़्यादा ज़ोर से।
आरव ने चेन लॉक नहीं खोला, सिर्फ दरवाज़ा हल्का खोला और बाहर झाँका। एकदम सुनसान गलियारा। सिर पर लगे बल्ब की रोशनी टिमटिमा रही थी। दूर कोने में कुछ हलचल-सी महसूस हुई, जैसे कोई परछाईं हटी हो। लेकिन कुछ नज़र नहीं आया।

नीचे रिसेप्शन पर गया। बंटी अब भी बैठा था, मोबाइल में कुछ देख रहा था।
“अभी ऊपर कोई था?”
“नहीं साहब। मैं तो यहीं हूँ। कोई गया भी नहीं।”
“किसी और कमरे में कोई है?”
“सिर्फ दो कमरे बुक हैं। आपके बगल वाले में एक बूढ़े अंकल हैं, जो कान से कम सुनते हैं। और ऊपर वाले फ्लोर पे कोई नहीं।”

आरव ने उसकी आँखों में झाँका। बंटी झिझक रहा था, लेकिन कुछ कह नहीं रहा था।
“सच बताओ बंटी, क्या ये होटल haunted है?”

बंटी चुप रहा। कुछ सेकंड बाद बोला, “साहब, आप नए हो, डर जाओगे। मत पूछो। पर एक बात कहूँ?”

“हां, कहो।”

“कमरा नंबर 10 में आजकल कोई नहीं रुकता। तीन साल पहले जो लड़की मरी थी, वो इसी कमरे में मरी थी। नाम था सुहानी मल्होत्रा। पुलिस ने कहा—आत्महत्या। लेकिन…”

“लेकिन क्या?”
“उस रात बारिश हो रही थी, जैसे आज हो रही है। और…उसके मरने से पहले भी तीन बार दस्तक हुई थी।”

आरव का खून जैसे जम गया। उसका हाथ अनायास ही जैकेट के अंदर रिवॉल्वर की तरफ गया। अब ये सिर्फ छुट्टी का ट्रिप नहीं रह गया था। ये एक केस बनता जा रहा था।

उसने वापस कमरे की ओर कदम बढ़ाया। सीढ़ियाँ चढ़ते वक्त उसे लगा, जैसे कोई उसकी पीठ के पीछे से देख रहा है। लेकिन जब मुड़ा, कोई नहीं था। सिर्फ खामोशी, और हवा में बहती गीली मिट्टी की गंध।

कमरे में घुसकर उसने दरवाज़ा फिर से बंद किया और एक कुर्सी दरवाज़े के पीछे टिका दी। फिर से उस दीवार की तरफ गया जहाँ सुबह कुछ खरोंचें दिखी थीं। हाथ से दीवार पर घुमाकर देखने लगा। कुछ देर बाद उसे एक लाइन फिर से महसूस हुई, जैसे दीवार में हल्का-सा उभार हो। मोबाइल की टॉर्च जलाकर देखा—वहां लिखा था, “मैंने कुछ नहीं किया। मुझे माफ़ कर देना।”

शब्दों के नीचे एक ताज़ी सी खरोंच भी थी—नाखून से बनी हुई। नई लग रही थी।

तभी खिड़की के बाहर तेज़ हवा चली। पेड़ की टहनियाँ खिड़की से टकराईं और खट… खट… की आवाज़ आई।
आरव ने खिड़की बंद करने के लिए बढ़ा ही था कि सामने वाले पेड़ पर उसे कुछ दिखा। कोई सफेद परछाईं सी, जो दो सेकंड में गायब हो गई।

उसका दिल धड़कने लगा। अब डर नहीं, बल्कि जिज्ञासा से ज़्यादा कुछ महसूस हो रहा था।

कमरे में लौटा तो उसे फिर से दीवार से कुछ फुसफुसाने की आवाज़ आई—धीमी, अस्पष्ट।
“अब तुम भी जानोगे… अब तुम भी जानोगे…”
उसने कान दीवार से लगा दिया। पर अब कोई आवाज़ नहीं थी। सन्नाटा।

लेकिन ये सन्नाटा चुप नहीं था। ये बोल रहा था। और शायद—किसी न्याय की उम्मीद कर रहा था।

भाग 3

सुबह की रोशनी होटल चाँदनी के धुंधले पर्दों से छानकर भीतर आ रही थी, लेकिन कमरे में अजीब सी ठंडक थी—जैसे कोई खोल से भीगी हुई चीज़ सूखने से इनकार कर रही हो। आरव की नींद पूरी नहीं हुई थी। रात के खरोंच, दस्तकें और फुसफुसाहटें अब भी उसके ज़ेहन में घूम रही थीं। उसने कमरे से बाहर आकर बालकनी में खड़े होकर देखा—स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क लगभग खाली थी। हल्की धुंध अब भी हवा में तैर रही थी।

नीचे रिसेप्शन के पास वही पुराना अख़बार स्टैंड पड़ा था—धूल में लिपटा हुआ। बंटी अब भी वहीं था, लेकिन आधी नींद में। आरव ने अख़बार स्टैंड में से कुछ पुराने पन्ने निकाले—पिछले महीने, फिर एक साल पहले के… तभी एक अख़बार में से एक मुड़ा हुआ, किनारों से पीला पड़ा संस्करण मिला—तीन साल पुराना। दिनांक: 18 मई 2020। अगले ही पल आरव की आँखें अटक गईं उस मोटे हैडलाइन पर—“23 साल की युवती ने होटल के कमरे में की आत्महत्या, पुलिस ने कहा—कोई संदिग्ध गतिविधि नहीं।”

नाम था: सुहानी मल्होत्रा।
जगह: होटल चाँदनी, कमरा नंबर 10।

आरव का हाथ काँप गया। वो अब शक के दायरे में नहीं था, अब सब कुछ धीरे-धीरे पुख़्ता हो रहा था। उसने अख़बार पूरा पढ़ा—“सुहानी मल्होत्रा दिल्ली की निवासी थी, अपने किसी निजी काम से यहाँ आई थीं। होटल के स्टाफ के अनुसार, वह शांत स्वभाव की थीं और ज़्यादा बात नहीं करती थीं। तीसरे दिन उनकी लाश कमरे में पंखे से लटकी मिली। कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद था। कोई सुसाइड नोट नहीं मिला। पुलिस ने पोस्टमॉर्टम कराया और केस को आत्महत्या बताकर बंद कर दिया।”

लेकिन साथ ही एक छोटी सी फोटो भी छपी थी—ब्लैक एंड व्हाइट, धुंधली, लेकिन कमरे की खिड़की के पास की। और उस खिड़की के बाहर… आरव के दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं।

उस फोटो में पेड़ की एक शाख पर कोई खड़ा था—या शायद बैठा। आकृति स्पष्ट नहीं थी, लेकिन सफेद रंग और लंबे बालों जैसी आकृति उसमें साफ़ दिख रही थी। क्या ये कोई इंसान था? कोई गवाह? या कुछ और?

अख़बार में नीचे पुलिस अफसर का बयान भी छपा था—“कमरा अंदर से लॉक था, कोई ज़बरदस्ती का निशान नहीं मिला। कोई संदिग्ध नहीं देखा गया। केस क्लोज़।”

आरव जानता था, कई बार केस क्लोज़ करना पुलिस की सुविधा होती है, सच्चाई नहीं।

वो वापस बंटी की ओर मुड़ा।
“इस लड़की के बारे में कुछ और जानते हो?”
बंटी पहले तो चौंका, फिर धीरे से बोला, “साहब, मैंने देखा था उसे… रोज़ छत पर जाती थी। अकेले बैठी रहती। एक दिन मैंने पूछा—‘कुछ चाहिए आपको?’ तो बस मुस्करा दी। तीन दिन बाद उसकी लाश मिली। उस रात बारिश थी, बिजली गई हुई थी… और कमरे से तीन बार आवाज़ आई थी… ‘टिक… टिक… टिक…’”

“क्या पुलिस को ये बताया था?”
“हाँ, लेकिन उन्होंने कहा—‘तू बच्चा है, ज़्यादा सोचता है।’ फिर मुझे चुप करा दिया।”

आरव को बंटी की मासूमियत पर दया भी आई और गुस्सा भी। ये छोटा लड़का उस रात गवाह था, और किसी ने उसकी बात को गंभीरता से नहीं लिया।

“उसके परिवार से कोई आया था?”
“एक भाई आया था, लेकिन ज़्यादा कुछ नहीं कहा। पुलिस स्टेशन जाकर आया और वापस चला गया। उसके बाद कोई नहीं आया।”

आरव ने सोचा—कहीं वो भाई निखिल तो नहीं? लेकिन निखिल तो उसका दोस्त था, पुलिस अफ़सर भी। वो ये क्यों छिपाता? या फिर उसने कुछ जान लिया था और इसलिए लापता हो गया?

अब यह मामला दोहरा हो गया था—सुहानी की मौत, और निखिल की गुमशुदगी।

आरव ने फिर से कमरे की खिड़की की ओर देखा। वह पेड़ आज भी वहीं था, हरा-भरा, लेकिन उसकी शाखाएं अब कमज़ोर लग रही थीं—मानो उन पर कोई भारी बोझ हो, जैसे कोई छाया अब भी वहाँ बैठी हो।

उसने नज़रें फेर लीं और कमरे के कोने में रखे उस टेबल की ओर बढ़ा जिस पर नक्शा मिला था। उसने वो नक्शा फिर से खोला—’पुराने कुएं के पास’ लिखा हुआ गोला। होटल के आसपास कोई कुआँ? उसने बंटी से पूछा।

“हाँ साहब, स्टेशन के पीछे एक बहुत पुराना कुआँ है। अब इस्तेमाल में नहीं आता। वहाँ अब कोई नहीं जाता… लोग कहते हैं वहाँ पर भूत रहता है।”

आरव मुस्कराया—उसे भूतों से डर नहीं लगता था, लेकिन अधूरी कहानियाँ उसे बेचैन करती थीं।

शाम तक उसने तय कर लिया था—अगली सुबह वो स्टेशन के पीछे जाएगा। कुएं के पास।

लेकिन उस रात, एक और दस्तक होने वाली थी।

और शायद इस बार… कोई जवाब भी देगा।

भाग 4

रात की हवा कुछ अलग थी—भीगी, ठंडी और भरी हुई किसी अधूरी सिसकी से। आरव के कमरे में बल्ब की रौशनी धीरे-धीरे मद्धम हो रही थी, जैसे खुद थक गया हो। उसने अपने नोट्स निकाले, अख़बार की कटिंग सामने रखी और उस जूते को फिर से देखा जिसमें “S.M.” लिखा था। उसे याद आया, निखिल की आख़िरी ईमेल में बस इतना लिखा था—“अगर कुछ हुआ तो समझ जाना कि ये आत्महत्या नहीं है।”

वो निखिल को कॉलेज से जानता था, वही उसे इस केस के बारे में बताकर यहाँ तक लाया था। लेकिन अब सवाल ये था कि निखिल कहाँ था? सुहानी की मौत और निखिल की गुमशुदगी—दोनों क्या एक ही धागे से जुड़ी थीं?

तभी दरवाज़े पर फिर वही दस्तक हुई।
“टिक… टिक… टिक…”
आरव इस बार डर नहीं रहा था। उसने अपनी रिवॉल्वर निकाली, दरवाज़ा खोला—लेकिन सामने कोई नहीं। फिर हल्की सी आवाज़ आई सीढ़ियों की तरफ से, जैसे किसी ने धीरे से कदम रखा हो।

आरव नीचे भागा और देखा—बंटी जल्दी से रिसेप्शन छोड़कर पीछे की ओर जा रहा था।
“बंटी!”
वो रुक गया, चौंक कर पीछे मुड़ा।
“साहब… आप कैसे आ गए?”
“मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ। सच-सच बताओ—क्या तुम्हें सुहानी के मरने की रात कुछ और दिखा था?”

बंटी का चेहरा पीला पड़ गया। वो कुछ देर चुप रहा, फिर धीरे से बोला, “साहब, वो रात मेरे ज़हन से कभी नहीं निकलती। मैंने कभी किसी को नहीं बताया, लेकिन अब आपको बताता हूँ। उस रात जब बिजली गई थी, होटल के सारे कमरे अंधेरे में डूब गए थे। सुहानी दीदी अक्सर छत पर जाती थीं। उस दिन भी गई थीं। मैं नीचे से सीढ़ियों पर चढ़ रहा था, तभी देखा कि कोई और भी उनके पीछे गया था।”

“कौन?”
“मैंने चेहरा नहीं देखा, लेकिन उसका कद लंबा था, और सफेद शर्ट पहनी थी। वो चुपचाप उनके पीछे गया और दरवाज़ा बंद हो गया।”

आरव की सांसें गहरी हो गईं।
“फिर?”
“मैं डर गया था। कमरे में गया नहीं। लेकिन जब अगली सुबह उनकी लाश मिली… पुलिस ने कहा आत्महत्या। मैंने पूछा, CCTV देखा क्या? तो बोले—‘सिस्टम खराब था।’”

“क्या तुम पहचान सकते हो उसे अगर दोबारा देखो?”
बंटी ने सिर हिलाया, “शायद। पर डरता हूँ साहब… उस रात के बाद से मेरी नींद उड़ गई।”

“बंटी, डरना अब काम नहीं आएगा। जो सच जानते हो, वो सामने लाना पड़ेगा।”

बंटी कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला, “एक बात और है। सुहानी दीदी अकसर एक डायरी में कुछ लिखती थीं। मैंने देखा था, जब वो छत पर बैठती थीं तो वो डायरी साथ ले जाती थीं। उनकी मौत के बाद वो डायरी नहीं मिली।”

आरव का माथा ठनका। क्या वही डायरी वेंटिलेशन डक्ट में मिली कागज़ों की गड्डी में हो सकती थी? उसे वो कागज़ फिर से देखने होंगे।

“बंटी, क्या होटल की छत खुली है?”
“हाँ, लेकिन अब कोई नहीं जाता।”

आरव ने तय किया—वो छत पर जाएगा। आज रात ही।

छत पर पहुँचते हुए होटल की दीवारें जैसे और ज्यादा घनी लगने लगी थीं। अंधेरे में दीवारों की दरारें साफ़ दिखती थीं, मानो वे भी कुछ कहना चाहती हों। छत पर पहुँचते ही चारों ओर एक अजीब सी खामोशी थी, जैसे यहाँ वक़्त रुक गया हो।

एक कोने में टूटी हुई कुर्सी, एक पुराना ड्रम और एक जंग लगा लोहे का दरवाज़ा पड़ा था। और वहाँ, जहाँ छत की रेलिंग टूटी हुई थी—आरव को कुछ सफेद सा कपड़ा लटकता दिखा। पास जाकर देखा—एक पुराना रूमाल था, उस पर हल्का सा इत्र अब भी महसूस हो रहा था।

उसने ध्यान से देखा—रूमाल के कोने पर “S.M.” कढ़ा हुआ था।

आरव ने जेब से अपना मोबाइल निकाला, रूमाल की फोटो खींची और मन ही मन दोहराया—”सुहानी मल्होत्रा।”

वापस कमरे में लौटते समय, उसे लगा जैसे कोई उसकी परछाईं के पीछे-पीछे चल रहा है। जब मुड़ा, सीढ़ियों के कोने पर एक सफेद परछाईं खड़ी थी।

एक पल के लिए उसकी सांस रुक गई। लेकिन जब वो और नज़दीक गया, तो कुछ नहीं था—सिर्फ दीवार और सन्नाटा।

कमरे में लौटकर उसने वो कागज़ निकाले जो वेंटिलेशन डक्ट से मिले थे। उनमें एक पन्ना अलग था—कुछ हाथ से लिखा हुआ, लेकिन स्याही धुंधली। टॉर्च से रोशनी डालकर देखा:

“अगर मैं ज़िंदा ना बचूं, तो जान लेना—उसने कहा था कि वो मेरी ज़िंदगी को बर्बाद कर देगा अगर मैंने कुछ बताया। लेकिन मैं अब डरती नहीं। मैं नाम नहीं लिख रही, पर उसके पास ताक़त है… सत्ता है।”

आरव को झटका लगा। क्या ये किसी रसूखदार व्यक्ति की बात थी?

उसके मन में एक नाम आया—राघव शेखावत। स्थानीय विधायक का बेटा। निखिल की मेल में यही नाम आया था।

अब सब कुछ जोड़ने लगा था—सुहानी की हत्या, डायरी, दस्तक, निखिल की गुमशुदगी और इस शहर की सड़ चुकी राजनीति।

आरव जानता था कि अगला कदम खतरनाक होगा।

लेकिन वो रुकने वाला नहीं था।

भाग 5

आरव के लिए अब होटल चाँदनी सिर्फ एक रहने की जगह नहीं, बल्कि एक जिंदा दस्तावेज़ बन चुकी थी। हर दीवार, हर सीढ़ी, हर दरवाज़ा जैसे किसी अनकही चीख़ को समेटे हुए था। वो जानता था—अगर ये गुत्थी नहीं सुलझाई गई, तो न सिर्फ सुहानी, बल्कि निखिल को भी कभी इंसाफ़ नहीं मिलेगा।

उस रात जब होटल की सारी बत्तियाँ बंद थीं, और बाहर तेज़ बारिश खिड़की से टकरा रही थी, आरव ने कमरे की दीवार पर फिर से उँगलियाँ फेरनी शुरू कीं। उसी जगह पर जहाँ कुछ दिन पहले उसने ‘मैंने कुछ नहीं किया, मुझे माफ़ कर देना’ लिखा देखा था।

लेकिन आज कुछ नया था।

उसने ध्यान से देखा—दीवार की सतह पर नाखूनों की कई खरोंचें थीं, लेकिन एक खरोंच ताज़ा लग रही थी, जैसे अभी-अभी उकेरी गई हो। वह टॉर्च लेकर उस जगह पहुँचा, और देखा:

“अब वो फिर से आया है। मैंने उसे देखा है। वही सफेद शर्ट, वही निगाह… उसने कहा कि अगर मैंने मुँह खोला, तो सब खत्म कर देगा।”

आरव का कलेजा काँप गया। यह तो किसी गवाही की तरह था—एक मूक आवाज़ जो दीवार पर दर्ज थी, जिसे किसी ने सुना नहीं, और जिसने सुनाया भी नहीं।

उसने तुरंत कैमरा निकाला और उस खरोंच का क्लोज़अप लिया। अब उसे यकीन हो चला था—सुहानी ने मरी नहीं, उसे मारा गया।

वो जैसे ही खिड़की की ओर बढ़ा, बाहर वही पेड़ दिखा, जिसकी शाखाएँ अब और नीचे झुक आई थीं, मानो कोई उन पर झूला झूल चुका हो।

तभी उसकी नज़र एक चीज़ पर पड़ी—पेड़ के तने पर सफेद रंग का कोई कागज़ चिपका हुआ था। उसने तुरंत नीचे जाकर पेड़ की ओर दौड़ लगाई। बारिश अब भी हो रही थी, और कीचड़ से उसका ट्रैकपैंट भीग चुका था, लेकिन उसने पेड़ का तना छुआ और वो कागज़ निकाल लिया।

भीगा हुआ वो पन्ना किसी नोटबुक का टुकड़ा था। उस पर लिखा था:

“जिस रात वह आया, उसने दरवाज़ा ज़बरदस्ती खोला। उसने कहा—‘तू मुझे मना नहीं कर सकती।’ मैं चिल्लाई, लेकिन कोई सुनने नहीं आया। मुझे नहीं पता अब कौन मरेगा… मैं या वो… पर अगर ये पन्ना किसी को मिले, तो जानना—मेरा क़ातिल ज़िंदा है। और उसके पास ताक़त है, नाम है… राघव शेखावत।”

आरव ने एक गहरी साँस ली। अब नाम भी सामने आ गया था। विधायक का बेटा, राघव, जो पहले भी कई बार विवादों में घिरा रहा था, लेकिन हर बार निकल गया—पैसे, रसूख़ और रिश्तों की चादर में लिपटा हुआ।

अब सवाल था—क्या ये सब सिर्फ एक लड़की की कहानी थी, या एक साज़िश जो कई और चेहरों को भी ढँक रही थी?

आरव ने वापस आकर बंटी को बुलाया।

“क्या तुम राघव को पहचानते हो?”
बंटी का चेहरा सफेद पड़ गया।
“हाँ साहब, एक बार आया था होटल में… तीन साल पहले… सुहानी दीदी के आने के दो दिन बाद। उसके साथ दो गुंडे भी थे। ऊपर नहीं गया, लेकिन दीदी से मिलने की ज़िद की थी।”

“क्या तुमने ये पुलिस को बताया था?”
“मैंने कहा था, लेकिन पुलिस वालों ने कहा—‘राघव का नाम लेने से पहले सोच समझ लो।’ फिर मेरी माँ को डराया गया, मैं चुप हो गया।”

अब आरव समझ चुका था—केवल सुराग नहीं, बल्कि गवाही भी चाहिए थी। और गवाही तभी ज़िंदा रहती है जब डर को मारा जाए।

उसने उसी समय अपने पुराने थानेदार मित्र, डीसीपी सिन्हा को कॉल लगाया।
“सर, मैं स्टेशन रोड पर एक पुराने केस में हूँ। सुहानी मल्होत्रा—2020 का केस। मुझे लगता है ये मर्डर था।”
“आरव, तुम छुट्टी पर हो। इस केस को तीन साल हो गए हैं।”
“लेकिन अगर मैं तुम्हें नाम दूँ?—राघव शेखावत।”

फोन पर खामोशी। फिर धीरे से आवाज़ आई—“तुमने किससे क्या सुना?”

“मेरे पास डायरी के पन्ने हैं, खरोंच में लिखी गवाही है, चश्मदीद है।”
“आरव, तुम जानते हो वो कौन है। उस नाम को लेने से पहले…”
“सर, अगर मैंने नहीं लिया, तो किसलिए पुलिस की नौकरी कर रहा हूँ?”

फिर कुछ पल की खामोशी के बाद सिन्हा बोले—“मैं एक टीम भेजता हूँ। लेकिन बच के रहना, आरव। राघव से टकराने का मतलब है—किसी ऐसी दीवार से टकराना जो न दिखती है, न हिलती है।”

आरव ने फोन रखा। फिर कमरे की उस दीवार को देखा, जहाँ सुहानी की आखिरी आवाज़ लिखी थी।

“मैं तुम्हारे लिए खड़ा हूँ,” उसने मन ही मन कहा।

अगले ही पल दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई।
लेकिन इस बार सिर्फ तीन नहीं, चार बार।
“टिक… टिक… टिक… टिक…”

आरव ने दरवाज़ा खोला।

सामने एक लड़की खड़ी थी, भीगी हुई, काँपती हुई।

उसने सिर्फ इतना कहा—
“मैं… मैं सुहानी की बहन हूँ।”

भाग 6

आरव दरवाज़े की चौखट पर स्तब्ध खड़ा था। सामने खड़ी लड़की की आँखों में डर नहीं था, बल्कि एक जिद थी—जैसे वो खुद को लंबे समय से किसी अंत की तरफ़ धकेल रही हो।
“आप आरव सैनी हैं?” उसने धीमे से पूछा।
आरव ने सिर हिलाया।
“मैं काव्या हूँ… सुहानी की छोटी बहन।”

उसने लड़की को भीतर बुलाया। भीगी हुई थी, काँप रही थी। उसने तौलिया और गरम चाय दी। कमरे की खामोशी अब और भारी हो चली थी।

“मैं दिल्ली से आई हूँ,” काव्या ने कहा। “तीन साल से चुप रही। पहले डर था, फिर ग़ुस्सा, फिर थकान। लेकिन जब निखिल भैया गायब हुए, मुझे समझ आ गया कि कुछ बड़ा छिपाया जा रहा है। मेरी बहन आत्महत्या नहीं कर सकती। उसने मुझसे वादा किया था, कि वो कभी हार नहीं मानेगी।”

आरव चुपचाप सुनता रहा।

“भैया ने मुझसे कहा था, अगर कुछ हो जाए, तो होटल चाँदनी जाओ, आरव नाम का कोई आएगा। वही तुम्हारी मदद कर सकता है।”

आरव की मुट्ठियाँ भींच गईं। निखिल को सब पता था। वो जानता था, लेकिन अकेले लड़ा।

काव्या ने एक छोटी सी डायरी निकाली, जिसका कवर जला हुआ था।
“ये दीदी की ही है। उन्होंने मुझे एक बार दी थी—’अगर कभी कुछ हो जाए, तो इसे संभाल कर रखना।’ इसमें बहुत कुछ अधूरा है, लेकिन एक नाम बार-बार आता है—राघव।”

आरव ने डायरी के पन्ने पलटे। एक जगह लिखा था—
“राघव ने कहा—मैं जो चाहूँ, ले सकता हूँ। मैं कोई चीज़ नहीं हूँ। मैंने पुलिस में जाने की धमकी दी, तो उसने कहा—’जो पुलिस तुम्हारी नहीं सुनती, वो मेरी है।’”

आरव ने काव्या से पूछा, “क्या तुम्हें किसी का नाम याद है? राघव के साथ कोई और था?”

काव्या ने सोचा। “दीदी अकसर किसी ‘कमलेश’ नाम के आदमी का ज़िक्र करती थीं। लगता था जैसे वो किसी रिकॉर्डिंग की बात कर रही हों। बोली थीं—‘अगर कुछ हुआ, तो मेरी आवाज़ बचेगी।’”

“आवाज़? रिकॉर्डिंग?” आरव जैसे चौंक गया।

उसे याद आया वेंटिलेशन डक्ट में जो कागज़ थे, उनमें कुछ कागज़ मोटे थे, जैसे किसी ऑडियो टेप की कवर शीट। वो फिर से टॉर्च लेकर डक्ट के भीतर झाँकने लगा। कुछ और टुकड़े दीवार से चिपके हुए थे।

बहुत मुश्किल से उसने एक प्लास्टिक का टुकड़ा निकाला। उस पर एक पुरानी डिजिटल रेकॉर्डिंग डिवाइस जुड़ी थी—पानी और सीलन से खराब हो चुकी थी, लेकिन मेमोरी intact लग रही थी।

आरव ने तुरंत अपने लैपटॉप से डिवाइस जोड़ी। कुछ देर तक स्क्रीन ब्लैंक रही, फिर एक फोल्डर खुला: “SUHANI-AUDIO”

एक फाइल क्लिक की—धीमी आवाज़ आई, टूटी-फूटी, लेकिन साफ़ शब्द थे—

“अगर ये रिकॉर्डिंग किसी को मिले… मैं सुहानी मल्होत्रा हूँ… मुझे डराया जा रहा है… राघव शेखावत… उसने मेरे साथ… उसने कहा अगर मैं कुछ बोलूँगी… तो मैं ज़िंदा नहीं बचूँगी…”

रिकॉर्डिंग वहीं टूट गई।

कमरे में सन्नाटा गूँज उठा।

“क्या आप इसे पुलिस में देंगे?” काव्या ने पूछा।

“नहीं,” आरव बोला। “पहले मैं इसे प्रेस को दूँगा। राघव की पकड़ बहुत गहरी है। लेकिन अगर ये सामने आया, तो पुलिस को केस दोबारा खोलना ही पड़ेगा।”

काव्या की आँखों में अब आँसू थे, लेकिन उनमें राहत भी थी।
“भैया को मैंने आख़िरी बार फोन किया था, वो बोले थे—‘मैं सुहानी को न्याय दिलाऊँगा, चाहे मुझे अपनी नौकरी ही क्यों न गंवानी पड़े।’ फिर उनका फ़ोन बंद हो गया।”

“मैं वादा करता हूँ,” आरव बोला, “निखिल के लिए, सुहानी के लिए… और तुम्हारे लिए भी। मैं ये लड़ाई आख़िरी दम तक लड़ूँगा।”

तभी कमरे की खिड़की फिर से हिली।

पेड़ की शाखा अब और नीचे झुक आई थी। इस बार कोई सफेद आकृति नहीं थी। सिर्फ बारिश थी, और उसके पीछे छिपा हुआ सन्नाटा।

लेकिन इस बार फुसफुसाहट नहीं आई।

शायद अब डर को भी लग रहा था—कि सच्चाई जाग चुकी है।

भाग 7

सुबह की हवा अब और भी सर्द लग रही थी। बादलों के पीछे छिपा सूरज किसी शर्मीले गवाह की तरह आसमान में झाँक रहा था, जो जानता है कि कुछ बड़ा घट चुका है, लेकिन बोल नहीं सकता। आरव ने काव्या को होटल में ही ठहरने को कहा और खुद स्टेशन रोड के पीछे उस पुराने कुएं की ओर निकल पड़ा—जिसका ज़िक्र उस अधकटे नक्शे में था।

होटल से कुछ दूर पैदल चलने पर रास्ता सँकरा हो गया। दाईं ओर झाड़ियों से घिरी एक सुनसान पगडंडी थी, जिस पर शायद महीनों से किसी ने कदम नहीं रखा था। पेड़ों के झुरमुट के बीच से सूरज की रोशनी मुश्किल से ज़मीन तक पहुँच रही थी। रास्ते में कुछ कबाड़, पुराने टायर और जंग लगे टीन के टुकड़े पड़े थे। और फिर… वहाँ था वह कुआँ।

पत्थरों से बना, गोल घेरे में। किनारों पर हरी काई जमी हुई थी, और पास ही एक टूटी हुई चबूतरी। आरव को अपने बचपन के गाँव की याद आई—जहाँ ऐसे ही कुएं होते थे, लेकिन उनमें डर नहीं, पानी होता था। यहाँ सिर्फ अतीत की छाया थी।

उसने झुककर कुएं के भीतर झाँका। गहराई में सिर्फ अंधेरा था। पानी दिखा नहीं, लेकिन एक अजीब सी सीलन की गंध ऊपर आ रही थी—जैसे कोई पुराना राज अभी भी सड़ रहा हो। तभी उसकी नज़र कुएं के किनारे पर गई। वहाँ काई में दबा हुआ कोई धातु जैसा चमक रहा था।

उसने पास जाकर धीरे से मिट्टी हटाई। एक पुराना लॉकबॉक्स था—छोटा, लोहे का, ऊपर S.M. खुदा हुआ। आरव का दिल धक् से रह गया। क्या सुहानी ने कुछ छिपाया था?

उसने जेब से चाबी निकालने की कोशिश की, लेकिन ताला जाम था। उसने वहीं पड़े एक पत्थर से उसे तोड़ने की कोशिश की। दो-तीन वार के बाद ताला खुल गया। अंदर जो निकला, वो चौंकाने वाला था।

एक पुरानी डिजिटल कैमरा। एक pendrive। और एक फोटो—सुहानी की।

फोटो में सुहानी मुस्कुरा रही थी, लेकिन उसके पीछे खड़ा था राघव। चेहरे पर चश्मा, मुस्कराता हुआ, हाथ सुहानी के कंधे पर। लेकिन सुहानी का चेहरा जब ज़ूम किया गया, तो उसकी मुस्कान में डर था।

उसने pendrive को जेब में रखा और वापस लौटने की सोची। लेकिन तभी झाड़ियों से कुछ आवाज़ें आने लगीं।

“कौन है वहाँ?” आरव चिल्लाया।

कोई जवाब नहीं।

उसने अपने बैग से रिवॉल्वर निकाली, और धीमे-धीमे पीछे हटा।

झाड़ियों से एक आदमी निकला—दुबला-पतला, आधा चेहरा पत्तों से ढका।

“कमलेश?” आरव ने पूछा।

वो काँप उठा। “आपको कैसे पता…?”

“सुहानी के डायरी में तुम्हारा नाम है। तुम सब जानते हो। अब बताओ, क्या हुआ था उस रात?”

कमलेश पहले तो भागना चाहा, लेकिन आरव की रिवॉल्वर ने उसे रोका।

“ठीक है… बताता हूँ। मैं उसी होटल में वेटर था। राघव मुझे पैसे देता था… कुछ भी करने के लिए। उस रात भी उसने कहा—’कमरा नंबर 10 खुलवाओ। कोई सुने नहीं।’ मैं मजबूर था। मेरी बीमार माँ के इलाज के लिए पैसे चाहिए थे।”

“तुम वहाँ थे?”

“नहीं, लेकिन मैंने दरवाज़ा खोला था। फिर भाग गया था। बाद में जब सुहानी की चीख सुनी, तो सीढ़ियों से देखा—वो भागने की कोशिश कर रही थी, लेकिन राघव और उसके गुंडों ने उसे रोका।”

“पुलिस को बताया?”

“कई बार… लेकिन पुलिस ने कहा—’तू गवाह नहीं, गंदा वेटर है।’ फिर धमकियाँ मिलने लगीं। मैंने सब छोड़ दिया। यहाँ छिप गया।”

आरव ने उसकी आँखों में देखा—पछतावा था, लेकिन डर अभी भी ज़िंदा था।

“अब तुम्हें गवाही देनी होगी। सुहानी को न्याय चाहिए।”

कमलेश ने सिर झुका लिया। “आप जैसा कहें… बस मेरी माँ को कुछ न हो।”

आरव ने हामी भरी।

वो दोनों होटल की ओर लौटने लगे। रास्ते में बारिश फिर से शुरू हो गई थी। आसमान जैसे हर क़दम के साथ उनका साथ दे रहा था।

होटल पहुँचते ही आरव ने pendrive को लैपटॉप में डाला।

फोल्डर खुला—वीडियो फाइल।

वीडियो में था—कमरे की फुटेज, कैमरा छिपाकर रखा गया था।
सुहानी की आवाज़—“नहीं, राघव, मुझे मत छुओ।”
राघव—“तू मेरी मर्ज़ी है। और मर्ज़ी का मतलब तू नहीं समझेगी।”

आगे कुछ असहनीय दृश्य थे। कैमरा गिरता है। फिर बस सिसकियाँ।

वीडियो वहीं कट हो जाता है।

आरव ने पसीना पोंछा। अब उसके पास सबूत थे।

“अब तुम नहीं बचोगे, राघव।”

भाग 8

होटल के कमरे में बैठा आरव, अपने सामने फैले सबूतों को बार-बार देख रहा था। सुहानी की डायरी, राघव के साथ तस्वीर, पेंड्राइव में मिला वीडियो, कमलेश की गवाही—अब उसके पास सिर्फ शक नहीं, बल्कि पूरा मामला था। लेकिन कहानी वहीं खत्म नहीं होती। अब ये लड़ाई सिर्फ सच्चाई की नहीं, बल्कि सिस्टम से थी—एक ऐसे ढांचे से जो सालों से सत्ता के पैसों के सामने घुटने टेकता आया था।

आरव ने डीसीपी सिन्हा को फिर से कॉल किया।
“सर, मेरे पास अब वीडियो है। साफ़-साफ़ दिख रहा है कि राघव ने ज़बरदस्ती की, और उसके बाद शायद सुहानी की हत्या भी।”
फोन पर कुछ पल की खामोशी रही, फिर सिन्हा की आवाज़ आई—“अगर ये बात सही है, तो केस को फिर से खोला जाएगा। लेकिन एक चेतावनी है, आरव… ये मामला अब सिर्फ एक अपराध का नहीं, राजनीति की ताकत से टकराने का है।”

“मैं तैयार हूँ।”

“ठीक है। मैं प्रेस को भी सूचित कर रहा हूँ। हम एक साथ सामने आएंगे।”

आरव ने अगले दो घंटे में सबूतों की डिजिटल कॉपी बनाई। एक प्रेस डोज़ियर तैयार किया, जिसमें सुहानी की कहानी, सबूत, गवाह और वीडियो के अंश शामिल थे। वह जानता था—अगर ये बात एक बार मीडिया तक पहुँच गई, तो कोई भी नेता इसे दबा नहीं पाएगा।

शाम होते-होते होटल के सामने एक छोटा सा प्रेस हॉल तैयार किया गया। स्थानीय पत्रकार, चैनल रिपोर्टर और कुछ NGO वकील भी पहुंचे। काव्या आरव के पास खड़ी थी—थोड़ी डरी हुई, लेकिन बहन के लिए खड़ी।

“आप तैयार हैं?” आरव ने पूछा।

“हाँ,” काव्या ने धीरे से कहा, “अब डरने का कोई मतलब नहीं। दीदी को इंसाफ़ चाहिए।”

स्टेज पर आरव चढ़ा। मीडिया की कैमरे की रोशनी में उसका चेहरा चमक रहा था।

“मैं इंस्पेक्टर आरव सैनी हूँ। तीन साल पहले होटल चाँदनी में सुहानी मल्होत्रा नाम की युवती की हत्या को आत्महत्या बताया गया था। आज मैं उसके सबूत पेश कर रहा हूँ—जो बताते हैं कि उसे ज़बरदस्ती मारा गया, और उसके पीछे कोई मामूली व्यक्ति नहीं, बल्कि राघव शेखावत था—स्थानीय विधायक का बेटा।”

भीड़ में खलबली मच गई। रिपोर्टरों के हाथों में पेन चलने लगे, मोबाइल कैमरे ऑन हो गए।

आरव ने पेंड्राइव से क्लिप चलाया। स्क्रीन पर वीडियो चला। सुहानी की आवाज़, राघव का चेहरा, और अंतिम चीख।

“ये फुटेज सुहानी ने खुद रिकॉर्ड किया था, क्योंकि उसे अंदेशा था कि उसे कोई मार सकता है।”

फिर उसने कमलेश को स्टेज पर बुलाया।
कमलेश काँपते हुए बोला—“मैंने खुद दरवाज़ा खोला था। राघव और उसके आदमी अंदर गए। मैंने चीखें सुनीं। और फिर अगले दिन सुहानी की लाश मिली। मैंने कई बार पुलिस को बताया, लेकिन किसी ने नहीं सुना।”

तभी पुलिस की गाड़ी होटल के सामने रुकी।

राघव?

नहीं। ये थे डीसीपी सिन्हा, अपने दस्ते के साथ।

उन्होंने कहा, “इस मामले की दोबारा जाँच का आदेश जारी कर दिया गया है। और अगर साक्ष्य पक्के पाए गए, तो जल्द ही गिरफ्तारी भी होगी।”

आरव ने राहत की साँस ली।

लेकिन तभी बंटी भागते हुए आया।

“साहब! नीचे कोई पूछ रहा है आपको।”

आरव भागकर रिसेप्शन पहुँचा।

वहाँ एक लम्बा आदमी खड़ा था—गहरे रंग का सूट, पैनी आँखें, और चेहरे पर हल्की मुस्कान।

“इंस्पेक्टर सैनी, मैं राघव का वकील हूँ,” उसने कहा।

“अभी से?”

“जी। मेरे क्लाइंट पर झूठे आरोप लगाए जा रहे हैं। ये वीडियो एडिटेड है, गवाह फर्जी है, और आप? छुट्टी पर होते हुए भी केस हैंडल कर रहे हैं—ये भी अवैध है।”

आरव मुस्कराया।

“बिलकुल। आप अदालत में कह सकते हैं। लेकिन एक बात याद रखें—सच की कोई एडिटिंग नहीं होती।”

वकील मुस्कराकर चला गया।

काव्या पास आकर बोली, “क्या वो फिर से बच जाएगा?”

आरव ने उसकी आँखों में देखा।
“अगर कानून में जान है, तो नहीं। और अगर जान नहीं, तो हम देंगे उसे जान।”

प्रेस की खबर फैल चुकी थी। टीवी चैनलों पर सुहानी की तस्वीर, आरव का बयान, और राघव की छवि घूमने लगी।

लेकिन राघव अब भी कहीं छिपा हुआ था।

आरव जानता था—अब अगला कदम उस तक पहुँचना है। और शायद निखिल की गुमशुदगी का राज भी वहीं जुड़ा हो।

कहानी का सबसे अंधेरा कोना अब आने वाला था।

भाग 9

होटल चाँदनी में चाय की भाप हवा में तैर रही थी, लेकिन कमरे में बैठे आरव को यह गर्माहट छू भी नहीं रही थी। टीवी पर न्यूज़ एंकर चिल्ला-चिल्लाकर सुहानी केस में नया मोड़ बता रहा था। सोशल मीडिया पर राघव शेखावत का नाम ट्रेंड कर रहा था, और उसके खिलाफ़ प्रदर्शन की तैयारियाँ भी शुरू हो चुकी थीं। लेकिन आरव की आँखें एक पुरानी तस्वीर पर अटक गई थीं—निखिल वर्मा, मुस्कराते हुए, उसके साथ।

“तू हमेशा केस से पहले दिल से सोचता है,” निखिल कहा करता था। “और इसलिए तू सच्चे मामलों को पकड़ता है।”

आरव जानता था—इस बार मामला सिर्फ सुहानी का नहीं था, निखिल भी उसी जाल में फँसा था, और अब वक्त आ गया था सच्चाई का पर्दा हटाने का।

अचानक, फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर कोई नंबर नहीं था—“अननोन कॉलर।”

“हैलो?”

सामने से धीमी आवाज़ आई—“अगर जान बचानी है, तो केस से हट जा।”

आरव मुस्कराया। “मैंने जान देने की कसम पुलिस अकादमी में खाई थी, फोन पर नहीं।”

“अभी भी वक्त है, वरना तेरा हाल भी वही होगा जो तेरे दोस्त निखिल का हुआ।”

फोन कट गया।

आरव की सांस गहरी हो गई। धमकी का मतलब था—राघव डर रहा है। और जो डरता है, वो गलती करता है।

उसने काव्या को खबर दी और कमलेश को सुरक्षित स्थान भेजा। डीसीपी सिन्हा से बात की—“सर, हमें राघव तक पहुँचना है।”

“हमने ट्रैकिंग शुरू कर दी है,” सिन्हा बोले। “उसके मोबाइल लोकेशन से पता चला है कि वो बॉर्डर की तरफ भाग रहा है—नेपाल बॉर्डर।”

आरव को याद आया—निखिल ने अंतिम बार फोन किया था इसी इलाके से। क्या राघव उसे भी वहाँ ले गया था?

“मैं वहीं जा रहा हूँ, सर।”

“लेकिन अकेले मत जाना।”

“नहीं, इस बार मैं अकेला नहीं हूँ,” आरव बोला और कमर में रिवॉल्वर कसी।

उत्तर प्रदेश और नेपाल की सीमा के पास एक घना जंगल फैला था, जहाँ पुराने तस्करों की राहें अब अपराधियों की शरणस्थली बन चुकी थीं। आरव और एक स्थानीय कांस्टेबल, रफीक़, एक पुरानी जीप में आगे बढ़ रहे थे।

जीप के ड्राइवर ने धीरे से कहा, “साहब, जिस बंगले की तरफ आप जा रहे हैं, वहाँ कोई आम आदमी नहीं जाता। सुना है, अंदर एक गुप्त तहखाना भी है।”

“और वहीं हो सकता है निखिल,” आरव ने मन ही मन कहा।

बंगला पुराना, सूखे पत्तों से ढँका और लगभग वीरान था। लेकिन अंदर एक बल्ब जल रहा था।

आरव और रफीक़ ने चारों ओर से घेरेबंदी की और दरवाज़ा धकेल दिया।

अंदर एक मेज़ पर कागज़, शराब की बोतलें और एक बंदूक पड़ी थी।

तभी पीछे से एक आवाज़ आई—

“आरव!”

वो चौंककर मुड़ा।

सामने—निखिल।

कमज़ोर, थका हुआ, बाल बढ़े हुए। लेकिन ज़िंदा।

“निखिल!” आरव ने उसे गले लगाया। “तू कहाँ था? तू जिंदा है?”

“हूँ, लेकिन ज़िंदा रहने के लिए मरने का नाटक करना पड़ा।”

“क्या मतलब?”

निखिल ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, “जब मैंने राघव का सच जाना और वीडियो रिकॉर्ड किया, उसी रात उसने मुझे पकड़वा लिया। लेकिन मैं जानता था उसका सिस्टम में हाथ है, इसलिए मैंने भागने का नाटक किया। जानबूझकर उसकी टीम को यकीन दिलाया कि मैं मर चुका हूँ। तब से यहीं छिपा हूँ।”

“तूने मुझसे कुछ कहा क्यों नहीं?”

“मैंने कोशिश की, लेकिन तब तक मेरा फोन, ईमेल सब ट्रैक किया जा रहा था। फिर मुझे खबर मिली कि तू केस में आया है। मैंने वेट किया कि कब तू कागज़ों से बाहर निकल कर उसी गहराई में उतरता है जहाँ मैं हूँ।”

आरव ने एक गहरी सांस ली।

“अब तू चलेगा मेरे साथ। गवाही देगा।”

“हाँ,” निखिल ने कहा। “पर एक बात और है—राघव यहीं कहीं है। उसने नेपाल भागने की तैयारी कर ली है।”

तभी रफीक़ दौड़ता हुआ आया। “साहब! एक SUV जंगल के दूसरी तरफ रुकी है। दो आदमी उसमें कुछ छिपा रहे हैं।”

आरव ने तुरंत टीम को अलर्ट किया।

घेरा डाला गया।

SUV से तीन आदमी पकड़े गए। और उनमें से एक—राघव शेखावत।

गिरेबान पकड़ते ही चिल्लाया—“तुम जानते नहीं मैं कौन हूँ!”

आरव बोला, “अब तुझे भी पता चलेगा कानून क्या होता है।”

राघव को हथकड़ियाँ पहनाई गईं।

वहीं खड़ा था निखिल, पास आई काव्या, और पीछे वही जंगल—जिसने तीन साल तक सच को छिपाकर रखा था।

अब अंत करीब था।

भाग 10

कोर्टरूम में भीड़ थी, लेकिन शोर नहीं। कैमरों की क्लिक, नोटबुक पर तेज़ी से चलती कलमें, और कानून के पन्नों में गूंजती सुहानी मल्होत्रा की गवाही अब सबके सामने थी—उसकी लिखावट में, उसकी आवाज़ में, उसकी पीड़ा में।

जज की कुर्सी पर बैठे वरिष्ठ न्यायाधीश शांत थे, लेकिन उनकी आँखों में वो गंभीरता थी जो किसी इतिहास का फैसला सुनाने से पहले आती है।

आरव, काव्या और निखिल पहली पंक्ति में बैठे थे। सुहानी की तस्वीर अब कोर्ट की मुख्य दीवार पर टंगी थी—उस मुस्कान के साथ जो किसी अन्याय के अंधकार को चुनौती दे रही थी।

राघव शेखावत, विधायक का बेटा, अब वकीलों से घिरा एक साधारण अभियुक्त था। उसका चेहरा पीला पड़ चुका था, बाल बिखरे हुए और आँखें थकी हुई। अब उसमें वो घमंड नहीं था, सिर्फ डर था—पकड़े जाने का, सच के सामने नंगे होने का।

न्यायाधीश ने जब फैसला सुनाया, कोर्टरूम में एक पल को साँसें थम गईं।

“अदालत ने प्रस्तुत सबूतों—वीडियो क्लिप, डायरी, गवाह कमलेश की गवाही और पुलिस की दोबारा जाँच के आधार पर पाया है कि सुहानी मल्होत्रा की मृत्यु आत्महत्या नहीं, हत्या थी। अभियुक्त राघव शेखावत को भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 376, 506 और अन्य धाराओं के तहत दोषी करार दिया जाता है। अदालत आजीवन कारावास की सज़ा सुनाती है।”

उस एक पल में, जैसे पूरी हवा से बोझ उतर गया।

काव्या की आँखों से आँसू बहे, लेकिन वो मुस्कुरा रही थी।

निखिल ने सिर झुकाकर सुहानी की तस्वीर को सलाम किया।

आरव चुपचाप कोर्ट से बाहर निकला।

बाहर का आसमान साफ़ था। बादल छँट चुके थे। एक हल्की धूप उस स्टेशन रोड पर फैली थी, जहाँ तीन साल पहले एक हत्या ने सन्नाटे को जन्म दिया था।

अब वही सन्नाटा टूटा था।

होटल चाँदनी की दीवारों पर नए रंग चढ़ाए जा रहे थे। कमरा नंबर 10 को अब एक स्मृति-कक्ष बनाया जा रहा था—जहाँ सुहानी की कहानी, उसका साहस और उसका सच लोगों को दिखाया जाएगा।

आरव ने उस दीवार को आखिरी बार छुआ, जहाँ लिखा था—“मैंने कुछ नहीं किया, मुझे माफ़ कर देना।”

उसने उस पर एक नया शब्द जोड़ दिया—

“अब माफ़ी की ज़रूरत नहीं, न्याय मिल चुका है।”

बंटी अब होटल का मैनेजर बन गया था। कमलेश अब पुलिस प्रोटेक्शन में सुरक्षित था। और काव्या—वो अब एक पत्रकार बनने की तैयारी कर रही थी। उसने आरव से कहा, “अब मैं सुहानी जैसी लड़कियों की आवाज़ बनना चाहती हूँ।”

आरव ने मुस्कराकर कहा, “और मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा।”

निखिल वापस पुलिस सेवा में बहाल हो गया था। दो दोस्त, दो लड़ाके, एक अधूरी कहानी को पूरा कर चुके थे।

एक रात, जब आरव अकेले छत पर बैठा था, हवा में सुहानी की वो रिकॉर्डिंग बज रही थी—

“अगर ये रिकॉर्डिंग किसी को मिले… तो जान लेना, मैं डर नहीं रही… मैं सच बोल रही हूँ।”

आरव ने आसमान की ओर देखा।

“अब सब सुन चुके हैं, सुहानी। अब सन्नाटे में तेरा सच गूंजता है।”

 

समाप्त

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