विनय प्रताप सिंह
भाग 1
लखनऊ की वह रात सर्द नहीं थी, लेकिन शहर के सियासी गलियारों में एक अजीब ठंडक फैल चुकी थी। विधानसभा के बाहर अचानक बिजली चली गई। पूरे परिसर में अंधेरा छा गया, जैसे किसी ने जानबूझकर समय को रोक दिया हो। मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी की कार का काफिला ज़रा देर के लिए ठिठका, फिर सुरक्षा की तैनाती दोगुनी कर दी गई। मुख्यमंत्री का चेहरा भावहीन था, पर उनके माथे पर पहली बार चिंता की महीन लकीरें उभरी थीं।
उसी समय सचिवालय की चौथी मंज़िल से एक छोटी सी फाइल ग़ायब हो गई। उसका नाम था—ऑपरेशन हेमंत। किसी को अंदाज़ा नहीं था कि यह फाइल आने वाले दिनों में न सिर्फ़ एक सरकार को गिरा सकती है, बल्कि एक देश की अंतरात्मा को भी झकझोर सकती है। फाइल के साथ ही ग़ायब हुआ था एक क्लर्क—आदित्य भटनागर। उम्र 32, शांत स्वभाव, सादगी से जीवन जीने वाला एक आम आदमी। लेकिन उस रात वह आम नहीं रहा। उसने जो चुराया था, वह किसी बम से कम नहीं था।
सीबीआई की डाइरेक्टर श्रेया चतुर्वेदी उस समय अपने दफ्तर में बैठी थी। उसने सामने रखी कॉफी की प्याली एक ओर रख दी और मीटिंग में मौजूद अफसरों की ओर देखा। “अब खेल खुला है,” उसने कहा। “जो भी ‘ऑपरेशन हेमंत’ के पीछे है, वह अब डर गया है। और जब डर सत्ता में दाखिल होता है, तो लहू ज़रूर बहता है।”
दिल्ली से एक गोपनीय कॉल आया था। कॉल करने वाले ने सिर्फ़ इतना कहा—“आदित्य ज़िंदा नहीं बचना चाहिए। वरना जो कुछ हमने बनाया है, वो ढह जाएगा।” कॉलर की आवाज़ में कठोरता नहीं, बल्कि घबराहट थी। जैसे सत्ता के सबसे ऊँचे शिखर पर बैठे लोगों की नींद उड़ गई हो।
आदित्य इस समय इलाहाबाद में था। अपने पुश्तैनी घर के तहखाने में, जहाँ वह कभी गर्मियों की छुट्टियाँ बिताता था। अब वहीं बैठा था, एक लैपटॉप के सामने, जिसमें खुली थी वह फाइल—नेताओं की ब्लैकमनी, फर्जी कंपनियों के रजिस्ट्रेशन, खनन घोटाले, और सबसे डरावनी चीज़—पत्रकार हेमंत मिश्रा की मौत से जुड़ी जानकारियाँ।
हेमंत की मौत एक सड़क दुर्घटना कह कर बंद कर दी गई थी। लेकिन आदित्य को उसके एक पुराने नोट में कुछ ऐसा मिला था जो उसे चैन से नहीं बैठने दे रहा था—“अगर यह फाइल दुनिया के सामने आई, तो बहुत से सफेदपोश नेता काले कपड़ों में दिखाई देंगे।”
मुख्यमंत्री त्रिपाठी ने अब तक मीटिंग बुलाई थी। उनके मीडिया सलाहकार प्रणय बख्शी ने कहा, “सर, हमें विपक्ष से पहले आदित्य को ढूँढ निकालना होगा। अभी तक कबीर शास्त्री केवल हवा में वार कर रहा है, लेकिन अगर यह फाइल उसके पास गई, तो सबूत बन जाएगा।”
त्रिपाठी ने खामोशी से सिर हिलाया। “उसके घरवालों पर नज़र रखो। और अगर ज़रूरत हो, तो उन्हें इस्तेमाल करो। ये लड़ाई अब नैतिक नहीं रही।”
उधर विपक्ष के नेता कबीर शास्त्री ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। “त्रिपाठी जी, आपके शासन में ना सड़कें सुरक्षित हैं, ना सच्चाई। अगर आप वाकई ईमानदार हैं, तो ये बताइए कि आपके बेटे की कंपनी को खनन परियोजनाओं के सारे टेंडर कैसे मिल गए?” मीडिया में बवाल मच गया। न्यूज चैनल्स ने हैशटैग बना दिया—#त्रिपाठी_सच_बोलो
आदित्य को एक अनपेक्षित मदद मिली—राघव मेहरा से। राघव एक पूर्व खुफिया अधिकारी था, जो अब एक फ्रीलांस पत्रकार के रूप में काम करता था। वह आदित्य को पहले ही ट्रैक कर चुका था। लेकिन उसे पकड़वाने के बजाय उसने मदद की पेशकश की।
“तुम मुझे क्यों बचा रहे हो?” आदित्य ने पूछा।
राघव ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “क्योंकि ये फाइल अकेले तुम्हारी नहीं है। इसमें मेरे दोस्त हेमंत का खून भी बहा है। और अब अगर मैं चुप रहा, तो वो बेवजह मारा जाएगा।”
राघव ने आदित्य को बताया कि दिल्ली में एक नाम है—समरजीत राणा। वह एक समय में गृहमंत्रालय में एक अघोषित अधिकारी था और “ऑपरेशन हेमंत” का असली दिमाग। वही व्यक्ति जिसने हेमंत मिश्रा को ट्रैक कराया, और शायद उसकी मौत का आदेश भी दिया।
वे दोनों एक कार में निकल पड़े दिल्ली की ओर। लेकिन वे नहीं जानते थे कि उनकी गाड़ी के पीछे दो बाइकर्स लगे हुए हैं—जिनमें से एक था ACP अजय राठौड़। राठौड़ को सीधे मुख्यमंत्री कार्यालय से आदेश मिला था—“आदित्य को ज़िंदा मत लाना।”
यमुना एक्सप्रेसवे पर रात के दो बजे एक पुल के पास गाड़ी रोकी गई। राघव ने पीछे देखा। “लगता है कंपनी आ गई है,” उसने कहा। आदित्य घबराया, लेकिन राघव ने उसे नीचे झुकने का इशारा किया।
गोलियों की आवाज़ गूंजी। सड़क पर चिंगारियाँ उठीं। राघव ने जवाबी फायर किया और एक बाइक को पलटा दिया। दूसरी बाइक भाग निकली।
आदित्य काँप रहा था। “अब क्या करेंगे?”
राघव ने गंभीरता से कहा, “अब वक्त आ गया है सच को दिखाने का। लेकिन सच की कीमत बहुत बड़ी होती है, और हमें चुकानी पड़ेगी।”
वे रात में एक सुनसान ढाबे पर रुके। राघव ने कहा, “कल सुबह दिल्ली पहुँचकर हम समरजीत राणा से मिलेंगे। अगर वो जिंदा है, तो जवाब देगा। और अगर नहीं, तो समझो ये साज़िश आज की नहीं, सालों पुरानी है।”
आदित्य ने पहली बार महसूस किया कि वह कोई मामूली फाइल लेकर नहीं भाग रहा था। वह उस व्यवस्था के खिलाफ खड़ा था, जो ऊपर से लोकतांत्रिक लगती थी लेकिन अंदर से सड़ चुकी थी।
और वहीं से शुरू होती है सत्ता के जाल की असली कहानी।
भाग 2
दिल्ली सुबह के सन्नाटे में डूबी थी, लेकिन भारत सरकार के गुप्त गलियारों में हलचल जारी थी। जिस ऑपरेशन हेमंत की फाइल आदित्य लेकर भागा था, वो अब सिर्फ एक दस्तावेज़ नहीं रही। वो सत्ता के उस धागे को पकड़ चुकी थी जो प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर प्रांतीय सचिवालय तक फैला हुआ था। सुबह के चार बजे राघव और आदित्य, गाजियाबाद के एक पुराने फ्लैट में पहुंचे—जहां कभी राघव की खुफिया सेवा की पोस्टिंग हुआ करती थी। अब ये एक बंकर जैसा दिखता था—छोटा, गंधाता हुआ, लेकिन सुरक्षित।
“यहां कोई नहीं आएगा,” राघव ने दरवाज़ा बंद करते हुए कहा, “यहां दीवारें भी चुप रहती हैं।” आदित्य अब तक चुप था। उसके चेहरे पर थकान से ज़्यादा अविश्वास था। वो अब समझ चुका था कि यह सिर्फ डेटा लीक का मामला नहीं है—ये एक युद्ध है, जहां हर कोई छिपा हुआ सैनिक है।
“समरजीत राणा,” राघव ने फाइल से एक पुराना पन्ना निकाला। “साल 2003 से 2012 तक गृहमंत्रालय में ‘अनऑफिशियल स्ट्रैटेजिक एडवाइज़र’। कोई सरकारी पहचान नहीं, कोई रिकॉर्ड नहीं। लेकिन उसके दस्तखत से जेलों के दरवाज़े खुलते थे और चुनावी नतीजे तय होते थे। हेमंत ने इसी आदमी के बारे में लिखना शुरू किया था। और तीन हफ्ते में वो मारा गया।”
“क्या हमें उसके पास जाना चाहिए?” आदित्य ने पूछा।
“वो अब गाज़ीपुर में एक फार्महाउस में रहता है। सुरक्षाबल तो नहीं रखता, लेकिन उसके पास अपनी दुनिया है—घोड़े, गाड़ियाँ और पुराने पापों की गंध।”
उधर, लखनऊ में मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी ने एक और मीटिंग बुलाई। इस बार टेबल पर केवल तीन लोग थे—वित्त मंत्री, राज्य का गृह सचिव और एक सफेद बालों वाला आदमी, जिसकी आंखों के पीछे शातिर बर्फ जैसी ठंडक थी।
“हमें केंद्र से सपोर्ट चाहिए,” त्रिपाठी ने कहा।
“सपोर्ट मिलेगा,” सफेद बालों वाला व्यक्ति बोला, “लेकिन हमें वह फाइल चाहिए। और वो आदमी।” उसके शब्दों में आदेश नहीं था, धमकी थी। जैसे यह सिर्फ एक सीएम की कुर्सी की बात नहीं, बल्कि किसी पुरानी साज़िश का परदा हटाने का डर था।
उसी समय मीडिया में खबर उड़ी—“ऑपरेशन हेमंत: एक नई राजनीतिक साज़िश?” न्यूज चैनलों पर शाम होते-होते हेमंत मिश्रा के पुराने इंटरव्यू दिखाए जाने लगे। एक क्लिप में हेमंत कह रहा था—“मैं जो जानता हूँ, अगर वो छप जाए, तो एक नहीं कई सरकारें गिर जाएंगी।”
राघव और आदित्य गाज़ीपुर की ओर निकले। रास्ते भर राघव ने आदित्य को तैयार किया—“जो सवाल राणा पूछेगा, उनसे डरना मत। लेकिन सच आधा भी बोला, तो मारे जाओगे।”
गाज़ीपुर का वह फार्महाउस दिखने में किसी ज़मींदार की हवेली जैसा था। बाहर कुत्ते बंधे थे, और दो आदमी सिक्योरिटी गेट पर बैठे थे। राघव ने पहचान बताई—“हम पत्रकार हैं, श्री राणा से मिलने आए हैं। पुरानी बातों का हिसाब देना है।” उन्हें अंदर ले जाया गया।
समरजीत राणा अब बूढ़ा हो चुका था। लेकिन उसकी आंखें अब भी वैसी ही थीं—गहरी, कठोर और गणना करती हुईं। “तो तुम वही हो, जो फाइल लेकर भागा है?” उसने आदित्य से पूछा।
आदित्य ने कोई जवाब नहीं दिया।
राणा ने राघव की ओर देखा—“तुमसे उम्मीद नहीं थी। लेकिन चलो, क्या खोया है, सुनाते हैं।”
“ऑपरेशन हेमंत,” राणा ने कहा, “एक प्लान था—एक जर्नलिस्ट को इस्तेमाल करके, एक विरोधी पार्टी को गिराने का। लेकिन हेमंत ने अपना स्क्रिप्ट बदल दिया। उसने वो सवाल पूछना शुरू किया, जो पूछे नहीं जाते। और तब जो हुआ, वो तुम्हारे सामने है।”
राघव ने पूछा—“क्या आपने ही उसकी हत्या करवाई?”
राणा मुस्कुराया। “मैंने नहीं, सिस्टम ने किया। कोई एक आदमी किसी को नहीं मारता। हर मौत एक आदेश की तरह आती है। और आदेश सबकी सहमति से निकलते हैं।”
“अब वो फाइल क्या कर सकती है?” आदित्य ने पहली बार बोला।
“वो फाइल अब पुरानी हो गई है,” राणा बोला। “लेकिन अगर उसे ठीक से इस्तेमाल किया जाए, तो प्रधानमंत्री की कुर्सी हिल सकती है।”
“क्या आप हमारी मदद करेंगे?” राघव ने पूछा।
“मैं सिर्फ एक सलाह दूँगा—फाइल को जनता के सामने मत लाओ। उसे सही लोगों को दो। जो उसे समझते हैं। वरना तुम सिर्फ एक और शव बन जाओगे।”
राणा ने एक चिट्ठी दी। “इसमें एक नाम है—प्रिया सक्सेना। सीबीआई की एक ईमानदार अफसर। उसे दो ये सब। वरना कोई और इसे गलत तरीके से इस्तेमाल करेगा।”
गाड़ी में लौटते समय आदित्य बहुत देर तक खामोश रहा। “हम अगर ये सब बाहर लाएंगे, तो क्या देश को नुकसान नहीं होगा?”
राघव ने कहा—“देश को सच से कभी नुकसान नहीं होता। देश को नुकसान होता है झूठ से, जो सच के कपड़े पहनकर राज करता है।”
उधर सीबीआई मुख्यालय में श्रेया चतुर्वेदी को एक अनजान लिफाफा मिला। अंदर था एक पेन ड्राइव और एक नोट—“ये खून बहा चुका है, लेकिन अब इससे इंसाफ भी हो सकता है।”
उस ड्राइव में था—हेमंत मिश्रा का आखिरी वीडियो, जो कभी प्रसारित नहीं हुआ। और वही वीडियो था, जो सत्ता के जाल में लगी पहली गांठ खोलने वाला था।
भाग 3
शाम के छह बज रहे थे, और सीबीआई डायरेक्टर श्रेया चतुर्वेदी के सामने वो वीडियो फ्रीज़ फ्रेम पर रुका हुआ था। हेमंत मिश्रा का चेहरा स्क्रीन पर थका, लेकिन शांत था। उसके पीछे की खिड़की से हल्की हवा पर्दों को हिला रही थी। ये वही आखिरी इंटरव्यू था जो उसने रिकॉर्ड किया था—न किसी चैनल को भेजा, न किसी को दिखाया। शायद उसे मालूम था कि उसके पास वक़्त नहीं है।
श्रेया ने प्ले बटन दबाया।
“अगर आप ये देख रहे हैं,” हेमंत बोल रहा था, “तो शायद मैं ज़िंदा नहीं हूँ। मेरी मौत को हादसा मत मानिए। ये प्लानिंग है, योजना है, और इससे जुड़े हैं कुछ लोग जिनका नाम सुनकर आप चौंकेंगे। लेकिन उनसे ज़्यादा खतरनाक है वो चुप्पी जो आपने ओढ़ ली है। मैं सिर्फ एक रिपोर्टर हूँ, लेकिन मेरा काम है सच को दर्ज करना। चाहे उसकी कीमत मेरी ज़िंदगी ही क्यों न हो।”
वीडियो की लंबाई केवल 2 मिनट 13 सेकंड थी। पर हर सेकंड जैसे बारूद की तरह फूट रहा था।
श्रेया ने अपने सहायक को बुलाया। “ये इंटरव्यू बाहर लीक नहीं होना चाहिए। लेकिन हमें यह जानना होगा कि किसके पास इसका डुप्लिकेट है। इस फाइल के साथ देश की आत्मा जुड़ी है। और आत्मा को बेचने नहीं देंगे।”
उसी समय दिल्ली के ही एक पुराने मकान में, राघव और आदित्य अपने अगले कदम की योजना बना रहे थे। राघव ने दीवार पर नक्शा चिपकाया था—दिल्ली के राजनीतिक, पत्रकारिता, और खुफिया हलकों के नामों से भरा हुआ। एक सिरे से दूसरी ओर तक एक लाल धागा खिंचा हुआ था, जो ये दिखा रहा था कि ऑपरेशन हेमंत केवल एक फाइल नहीं, बल्कि एक व्यवस्था है, जो हर स्तर पर फैली हुई है।
“प्रिया सक्सेना तक पहुंचना आसान नहीं होगा,” राघव ने कहा। “वो अब गुजरात में पोस्टेड है, और वो भी स्पेशल ऑप्स यूनिट में। अगर वो यहां आए भी, तो बिना वजह नहीं।”
“तो क्या अब रुक जाना चाहिए?” आदित्य ने थककर पूछा।
“नहीं,” राघव ने कहा। “हमें जनता को शामिल करना होगा।”
अगले दिन सोशल मीडिया पर एक पेज लॉन्च हुआ—#जनता_का_सच। उसमें एक छोटा-सा ट्रेलर अपलोड किया गया, जिसमें हेमंत की आवाज़ थी और उसके चेहरे पर सच्चाई का गुस्सा।
“जो दिखता है, वो हमेशा सच नहीं होता। जो छुपा है, वही असली चेहरा है।”
विडियो वायरल हो गया। एक घंटे में पाँच लाख व्यूज़। देशभर में लोगों के व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, ट्विटर पर एक ही नाम तैरने लगा—हेमंत मिश्रा।
मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी अपने बंगले में बैठे थे। उनके मीडिया सलाहकार प्रणय बख्शी ने घबराते हुए कहा—”सर, ये अगर और फैला तो कंट्रोल नहीं कर पाएंगे।”
“वीडियो का सोर्स निकालो। और सबसे पहले उन प्लेटफॉर्म्स को बंद करवाओ जहां से ये फैल रहा है।”
“सर, अब प्लेटफॉर्म सिर्फ डिजिटल नहीं रहे, ये आंदोलन बन गया है।”
त्रिपाठी ने फोन उठाया—”संघ के केंद्रीय नेतृत्व से बात कराओ। ये अब मेरे बस में नहीं रहा।”
उधर, आदित्य और राघव एक पुराने पत्रकार मित्र, अनन्या शुक्ला से मिलने पहुंचे। अनन्या NDTV में सीनियर पॉलिटिकल एडिटर थीं, पर अब स्वतंत्र पत्रकारिता कर रही थीं।
“तुम लोगों ने शेर की नींद तोड़ दी है,” अनन्या ने कहा। “अब या तो तुम्हें खा जाएगा, या तुम उसे पिंजरे में बंद कर दोगे।”
राघव ने हेमंत की फाइल और वीडियो उन्हें सौंपते हुए कहा—”आपको वो करना है जो हम नहीं कर सकते। सच्चाई को संस्थानिक बनाना। हम बस आग लगाकर पीछे हट सकते हैं।”
अनन्या मुस्कराई, “तुम्हारी ये आग अब बुझने वाली नहीं।”
दूसरी ओर, सीबीआई की अफ़सर प्रिया सक्सेना को दिल्ली बुला लिया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय से विशेष आदेश आया था—”एक विशेष जांच यूनिट बनाई जाए जो इस कथित ऑपरेशन की तह तक जाए।”
प्रिया जानती थी कि यह सिर्फ जांच नहीं, बलि का मैदान है। लेकिन उसके भीतर अब भी एक हेमंत मिश्रा ज़िंदा था—जो कभी उसका सीनियर था, और जिसने उसे ईमानदारी की परिभाषा दी थी।
जब प्रिया पहली बार वीडियो देखती है, उसकी आंखों में पानी नहीं आता, गुस्सा आता है। “वो लोग जिन्हें हम नेता समझते थे, दरअसल व्यापारी हैं। और इस बार उनकी दुकान बंद करनी है।”
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक अघोषित प्रेस मीट बुलाई गई। अनन्या, प्रिया, राघव, और आदित्य—चारों वहां मौजूद थे।
“ये कोई व्यक्तिगत लड़ाई नहीं,” अनन्या ने माइक पर कहा। “ये उस पत्रकार की लड़ाई है जो आज भी कर्फ्यू में रिपोर्ट करता है। उस क्लर्क की लड़ाई है जो फाइल में सिर्फ कागज़ नहीं, इंसाफ़ खोजता है। और उस देश की लड़ाई है, जो अब झूठ के साए में जीते-जी मर रहा है।”
भीड़ में सन्नाटा था, लेकिन वह सन्नाटा क्रांति से पहले की चुप्पी थी।
उधर, मुख्यमंत्री त्रिपाठी को संघ से जवाब मिला—”अपना खेल खुद समेटो। अब तुम्हारे लिए कोई गारंटी नहीं है।”
अब वह अकेले थे।
एक अकेला शेर, जिसका जंगल अब जलने लगा था।
लेकिन क्या ये आग सिर्फ सत्ता को जला कर राख करेगी? या पूरी व्यवस्था को?
भाग 4
दिल्ली हाईकोर्ट का कमरा नंबर 42 उस दिन कुछ ज़्यादा ही शांत था। बाहर मीडिया की गहमागहमी, अंदर कानून की गंभीरता। दीवारों पर लटकी संविधान की प्रतिकृतियां जैसे देख रही थीं कि आज सिर्फ मुक़दमा नहीं चलेगा, एक पूरी व्यवस्था कटघरे में खड़ी होने जा रही है।
जज शील मोहन एक कड़क और ईमानदार न्यायाधीश के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने जैसे ही केस की पहली फाइल खोली, उनके चेहरे पर सख़्ती आ गई। पृष्ठभूमि में हेमंत मिश्रा की मौत, ऑपरेशन हेमंत, मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी का बेटा और तमाम अवैध खनन सौदे। और सबसे ऊपर वो वीडियो जो अब जनता के सामने था—लेकिन अदालत में प्रमाण बनकर पेश किया जा रहा था।
फरियादी पक्ष में खड़ी थीं सीबीआई अफसर प्रिया सक्सेना। उनके साथ राघव और आदित्य भी कोर्ट में मौजूद थे—अब गवाह के तौर पर। वहीं बचाव पक्ष की ओर से सबसे महंगे वकील उतारे गए थे, जो हर चाल को मोड़ने में माहिर थे।
“माई लॉर्ड,” वकील भारद्वाज ने अपनी आवाज़ में सधे हुए आत्मविश्वास के साथ कहा, “यह पूरा मामला एक दुर्भावना से प्रेरित है। एक मर चुके पत्रकार की अर्धसत्य रिपोर्टिंग और दो असंतुष्ट सरकारी कर्मचारियों की कल्पनाओं पर आधारित है। न कोई कानूनी साक्ष्य है, न कोई प्रत्यक्ष गवाह।”
जज ने चश्मा उतारकर उनकी ओर देखा, “श्रीमान भारद्वाज, अगर कोई मर चुका है लेकिन उसके शब्द जीवित हैं, तो क्या हम उन्हें अनदेखा कर सकते हैं?”
कोर्टरूम में सन्नाटा।
प्रिया ने तब पहली बार दस्तावेज़ सौंपे—फर्ज़ी कंपनियों की लिस्ट, खनन प्रोजेक्ट्स की अप्रूवल फ़ाइलें, और बैंक स्टेटमेंट्स। सबूत इतने स्पष्ट थे कि बचाव पक्ष को भी एक पल को चुप रहना पड़ा।
इसके बाद बारी आई आदित्य भटनागर की।
“आपने यह फाइल कैसे प्राप्त की?” जज ने पूछा।
“मैं उस विभाग में काम करता था जहाँ से यह मंजूरियाँ जारी होती थीं। एक दिन मुझे एक फ़ाइल में संशोधन के लिए भेजा गया, लेकिन उसमें लगे दस्तावेज़ और हस्ताक्षर में असमानता थी। मैंने जब ध्यान से देखा, तो पाया कि करोड़ों के प्रोजेक्ट्स सिर्फ एक कंपनी को दिए जा रहे थे—जो मुख्यमंत्री के बेटे के नाम पर थी।”
“आपने ये बात वरिष्ठ अधिकारियों को बताई?”
“जी, लेकिन मुझे सस्पेंड करने की धमकी मिली। जब मैंने वापस पूछा कि क्यों, तो मुझसे कहा गया—‘राजनीति में सच्चाई की जगह नहीं होती’। तभी मैंने वो फाइल सेव कर ली। मैंने सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया है, माई लॉर्ड।”
कोर्ट में पहली बार एक हल्की सनसनाहट उठी।
अब बारी थी राघव मेहरा की।
“आप तो पूर्व आईबी अधिकारी हैं। आप इस केस में क्यों कूदे?”
“क्योंकि हेमंत मिश्रा मेरा दोस्त था। और जब मैंने उसके मरने के बाद उसके कंप्यूटर से वो वीडियो देखा, तो मुझे लगा जैसे उसने मुझसे वादा लिया है कि मैं उसका सच सामने लाऊँ। मैं पत्रकार नहीं हूँ, लेकिन मैं देश का नागरिक हूँ। और जब देश का एक सच्चा पत्रकार मारा जाता है, तो खामोशी सबसे बड़ा अपराध बन जाती है।”
इस बयान ने कोर्टरूम की हवा बदल दी।
बचाव पक्ष ने तमाम कोशिशें कीं—साक्ष्यों को अप्रमाणित बताने की, आदित्य की मानसिक स्थिति पर सवाल उठाने की, राघव के इतिहास को खंगालने की—but the damage was done.
जज ने कार्यवाही स्थगित करते हुए कहा, “कोर्ट इन दस्तावेजों और वीडियो साक्ष्यों की वैधता की स्वतंत्र जांच का आदेश देता है। और अगर ये प्रमाणित होते हैं, तो मुख्यमंत्री, उनके पुत्र, तथा संबंधित अधिकारियों के विरुद्ध चार्जशीट दाखिल की जाएगी।”
प्रेस क्लब के बाहर मीडिया का हुजूम इकट्ठा हो चुका था। जैसे ही प्रिया, राघव और आदित्य बाहर निकले, कैमरों की फ्लैश चमक उठी।
“आप लोगों को क्या लगता है, क्या सीएम इस्तीफ़ा देंगे?” एक रिपोर्टर ने पूछा।
प्रिया ने केवल इतना कहा, “सिस्टम को बदलने के लिए जनता की नज़र और न्यायपालिका की रीढ़ चाहिए। आज दोनों जाग चुके हैं।”
उधर मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी अपने निजी बंगले में खामोश बैठे थे। टीवी पर अदालत की खबरें चल रही थीं। उनके बेटे ने सवाल किया, “पापा, अब क्या करेंगे?”
त्रिपाठी ने एक लंबी साँस ली। “अब या तो देश के सामने सच्चाई स्वीकार करनी होगी, या कुर्सी छोड़नी होगी। लेकिन सच्चाई इतनी आसान नहीं होती।”
रात को गृहमंत्रालय में एक बंद कमरे में उच्च स्तरीय बैठक चली। “त्रिपाठी बोझ बनता जा रहा है,” एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा। “अगर जनता का गुस्सा और बढ़ा, तो इसका असर केंद्र पर भी पड़ेगा।”
“तो?”
“तो एक नया मुख्यमंत्री लाया जाएगा। और त्रिपाठी को बीमार घोषित कर दिया जाएगा। ये सियासत है। यहां आदमी नहीं, पद टिकते हैं।”
उसी समय अनन्या शुक्ला ने सोशल मीडिया पर एक ओपन लेटर डाला—
“हेमंत, तुम्हारी मौत के बाद भी तुम्हारे शब्दों ने जो आग लगाई है, वो बुझने वाली नहीं। आदित्य जैसे लोग इस देश की रीढ़ हैं। और राघव जैसे लोग इस व्यवस्था की आत्मा। सत्ता डर रही है, क्योंकि अब उसकी अदालत में चुप्पी नहीं है—अब वहां जनता बोल रही है।”
देश भर में यह ओपन लेटर वायरल हुआ। अगले दिन कॉलेजों में छात्रों ने मोमबत्ती मार्च निकाला, पत्रकार संघों ने विरोध प्रदर्शन किए, और आम लोगों ने पोस्टर लगाए—“सत्ता जवाब दे।”
राजनीति, अदालत, और जनता—तीनों मैदान में उतर चुके थे।
अब ये लड़ाई किसी एक क्लर्क की नहीं रही, ये लड़ाई बन चुकी थी—एक देश की आत्मा की।
भाग 5
तीन साल पहले, दिल्ली की एक पतली सी गली में एक छोटा-सा फ्लैट था, जहां देर रात तक एक पत्रकार बैठा रहता था—कभी नोट्स बनाते हुए, कभी कंप्यूटर स्क्रीन पर टाइप करते हुए। हेमंत मिश्रा का यह कमरा उसकी दुनिया था, और उस दुनिया में किताबों, अखबारों और कैमरे के बीच एक अदृश्य खतरे की मौजूदगी थी। वो जानता था कि जो वह खोज रहा है, उसकी कीमत सिर्फ करियर नहीं, जान भी हो सकती है।
हेमंत को पहली बार ‘ऑपरेशन हेमंत’ के दस्तावेज़ एक अनाम स्रोत से मिले थे। सरकारी फाइलों की स्कैन कॉपी, ईमेल ट्रेल्स, कॉल रिकॉर्ड्स—सब कुछ धीरे-धीरे खुलता गया। लेकिन जितना वो सच के करीब जाता गया, उतना ही अकेला होता गया। न्यूज़रूम में लोगों ने कहना शुरू किया—“हेमंत बहुत सनकी हो गया है।” एक संपादक ने तो यहां तक कह दिया, “ये बहुत बड़ा है, और हम इतने बड़े नहीं कि इसे छाप सकें।”
फिर भी हेमंत रुका नहीं।
उसने फाइलों को क्रम से सजाया। उसने सरकारी अधिकारियों से गुप्त मुलाकातें कीं। सबसे बड़ी चौंकाने वाली बात उसे तब मिली जब उसने देखा कि मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी के बेटे की कंपनी, “एनवायरो माइनिंग प्राइवेट लिमिटेड”, को हर ज़िले में खनन का टेंडर बिना प्रतियोगिता के मिल रहा था। और यह सब ‘ग्रीन डेवलपमेंट मिशन’ के नाम पर हो रहा था।
हेमंत ने अपने दोस्त राघव को एक शाम बुलाया। दोनों पुराने दोस्त थे, एक खुफिया सेवा से निकला था, दूसरा पत्रकारिता में उलझा हुआ।
“राघव, मुझे लगता है मैंने एक ऐसी चीज़ पकड़ ली है जो देश की नींव हिला सकती है,” हेमंत ने चाय का कप थमाते हुए कहा।
“तो संभलकर चल,” राघव ने चेतावनी दी थी। “ये देश सच्चाई से उतना डरता है जितना अंधेरे से नहीं।”
हेमंत ने जवाब दिया, “डरता तो है, लेकिन जागता भी है। और अब मुझे यही करना है—लोगों को जगाना।”
इसके दो दिन बाद हेमंत की गाड़ी यमुना एक्सप्रेसवे पर एक ट्रक से टकराई। रिपोर्ट में लिखा गया: “अनियंत्रित गति और नींद में गाड़ी चलाने के कारण दुर्घटना।”
लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट कुछ और कहती थी—उसके शरीर में नींद की गोली की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक थी। मतलब, उसे मारा गया। और उसके कंप्यूटर से ‘ऑपरेशन हेमंत’ की फाइल भी हटा दी गई थी। लेकिन एक बात कोई नहीं जानता था—हेमंत ने एक बैकअप बनाया था, एक वीडियो रिकॉर्ड किया था, और एक लॉकर में सब कुछ जमा कर दिया था। उसी लॉकर की चाबी उसने अपनी मां को दे दी थी, यह कहकर—“अगर मुझे कुछ हो जाए, तो इसे उस इंसान को देना जो तुम्हें सबसे ईमानदार लगे।”
तीन साल बाद वही बैकअप आदित्य भटनागर के हाथों में पहुंचा था।
वर्तमान में, राघव आदित्य के साथ उस लॉकर तक गया—जनकपुरी के एक पुराने बैंक में, जहां एक चुपचाप पड़ी लॉकर चाबी उनके भाग्य का रास्ता खोलने वाली थी। लॉकर खोला गया, और अंदर एक मेटल केस रखा था। केस में पेनड्राइव, एक डायरी, और एक कैमरा था—हेमंत मिश्रा की अंतिम पूंजी।
राघव ने वही कैमरा ऑन किया। स्क्रीन पर हेमंत बैठा था, आँखों में थकावट, लेकिन आवाज़ में लौ।
“अगर मैं अब नहीं रहा, तो इसका मतलब है कि मैंने जो बोला, वो किसी को पसंद नहीं आया। लेकिन मेरी बात रुकी नहीं है, क्योंकि सच किसी के रुकने से नहीं रुकता। मेरी डायरी में वो सभी नाम हैं जो इस खेल का हिस्सा हैं—राजनीति से लेकर ब्यूरोक्रेसी तक, और मीडिया हाउस तक। और इस कैमरे में वो इंटरव्यू है जो मैंने उनके साथ किया था—जो आज भी सत्ता में हैं, और कहते हैं कि वे सेवा कर रहे हैं।”
राघव ने कैमरा बंद किया। “हेमंत ने सबूत छोड़ दिया है। अब हमें उसे सही जगह पहुंचाना है।”
दूसरी ओर, मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। वह जानते थे कि ज़मीन खिसक रही है।
“मुझे एक साजिश के तहत फंसाया जा रहा है,” उन्होंने कहा। “मेरे बेटे का व्यवसाय स्वतंत्र है। और ऑपरेशन हेमंत जैसी कोई योजना सरकार ने कभी मंज़ूर नहीं की। यह सब विपक्ष की चाल है।”
लेकिन प्रेस कॉन्फ्रेंस के ठीक एक घंटे बाद, NDTV, The Wire, और कई स्वतंत्र पोर्टलों ने हेमंत मिश्रा का वह पुराना वीडियो जारी कर दिया। एक क्लिप में हेमंत सवाल कर रहा था—
“अगर एक फर्जी कंपनी को करोड़ों के टेंडर दिए जाएं, तो क्या यह केवल संयोग है? अगर हर घोटाले का एक ही नाम निकले, तो क्या ये महज़ इत्तेफाक़ है? अगर सत्ता चुप है, तो हम क्यों चुप रहें?”
यह वीडियो पूरे देश में आग की तरह फैला।
ट्विटर पर ट्रेंड हुआ—#हेमंत_का_सच
इंस्टाग्राम स्टोरीज़ पर युवाओं ने उसकी आवाज़ के हिस्से शेयर किए।
यूट्यूब पर डॉक्यूमेंट्री बनाई गई—“A Journalist’s Last Question”
रात के दस बजे सीबीआई डायरेक्टर श्रेया चतुर्वेदी ने प्रधानमंत्री से बात की।
“सर, अगर हमने अब कार्रवाई नहीं की, तो हम भी इस साज़िश में शामिल माने जाएंगे।”
प्रधानमंत्री ने लंबी चुप्पी के बाद कहा, “त्रिपाठी को हटाइए। और जांच शुरू कीजिए। जनता अब देख रही है।”
राघव ने प्रिया से कहा, “हेमंत अब मर चुका है, लेकिन उसका सच ज़िंदा है। और यह अब एक आंदोलन बन गया है। तुम इसका नेतृत्व कर सकती हो।”
प्रिया ने कहा, “नहीं। मैं केवल कानून का पालन करूंगी। आंदोलन जनता का है, और अब देश को तय करना है कि वह किस ओर जाना चाहता है—सच की ओर या सुविधा की ओर।”
उसी रात आदित्य छत पर बैठा आसमान देख रहा था।
“क्या सब ठीक हो जाएगा?” उसने पूछा।
राघव ने कहा, “सच जब निकलता है, तो पहले दुनिया उसे खारिज करती है, फिर उस पर सवाल उठाती है, फिर उसे लड़ाई बनाती है। और अंत में उसे स्वीकार करती है।”
“और हम?”
“हम बस वाहक हैं। लेकिन अगर कोई एक आदमी, एक पत्रकार, एक क्लर्क, एक अफसर मिलकर सच्चाई को पकड़ ले, तो सत्ता का जाल टूट सकता है।”
भाग 6
वो सुबह बाकी दिनों से अलग थी। राजधानी के अखबारों में पहली बार किसी मुख्यमंत्री के खिलाफ हेडलाइन थी—“त्रिपाठी सरकार कटघरे में: सीबीआई जांच का आदेश”। टीवी स्क्रीन पर नीचे एक टिकर लगातार दौड़ रही थी—”हेमंत मिश्रा की मौत से जुड़े तथ्यों की पुनः जांच होगी। मंत्री परिषद में हड़कंप।”
मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी के बंगले में एक अजीब सन्नाटा था। जहां पहले नेता, अफसर, पत्रकार और व्यापारी लाइन लगाए रहते थे, वहां अब केवल पुलिस और दो-तीन विश्वासी मंत्री बचे थे। उनके बेटे, निखिल त्रिपाठी, जो अब तक सब कुछ एक खेल समझते थे, पहली बार हड़बड़ाए हुए थे।
“पापा, अब क्या होगा? मुझे कोई कॉल नहीं उठा रहा। मेरा अकाउंट फ्रीज़ हो गया है।”
मुख्यमंत्री चुप थे। उन्होंने अखबार की एक लाइन पर नज़र गड़ाई रखी—”अब तक जनता की आवाज़ को दबाया गया, लेकिन इस बार आवाज़ आग बन गई है।”
“कभी-कभी खेल जीतते-जीतते भी हारना तय होता है,” उन्होंने धीमे से कहा।
उधर, प्रिया सक्सेना सीबीआई मुख्यालय में जांच टीम को लीड कर रही थी। उसके टेबल पर ढेर सारे दस्तावेज़, बयान, और अब वो डायरी थी जो हेमंत मिश्रा के लॉकर से मिली थी। डायरी में सिर्फ नाम नहीं थे, तारीखें थीं, मीटिंग्स की डिटेल्स थीं, कैश ट्रांज़ैक्शन की जगहें, गवाहों के नाम और सबसे चौंकाने वाली बात—एक बंद फाइल का नंबर जो प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़ा था।
“इसका मतलब?” प्रिया ने राघव से पूछा।
“इसका मतलब यह है कि त्रिपाठी अकेले नहीं थे। किसी न किसी स्तर पर केंद्र से भी उनकी योजना को मौन समर्थन मिल रहा था।”
“तो अब?”
“अब हमें सिर्फ त्रिपाठी को नहीं, सिस्टम की जड़ें हिलानी होंगी।”
प्रिया ने तय किया—पहले त्रिपाठी को गिरफ्तार करना होगा। लेकिन इसे राजनीतिक बदले की तरह नहीं, कानूनी प्रक्रिया की तरह अंजाम देना होगा।
उसी दिन शाम को लखनऊ में एक ऐतिहासिक दृश्य सामने आया।
मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी ने अपने इस्तीफे की घोषणा की।
टीवी कैमरों के सामने उन्होंने कहा—
“मैं हमेशा से जनता की सेवा में रहा। लेकिन अब जब मेरे ऊपर संदेह है, तो नैतिकता का तकाज़ा है कि मैं पद छोड़ दूं, ताकि जांच निष्पक्ष हो सके। मैं निर्दोष हूँ और जल्द साबित करूँगा।”
बोलते वक्त उनके चेहरे पर कोई पछतावा नहीं था, लेकिन आंखों में एक थकावट थी—जैसे लंबे समय से चल रहे युद्ध का अंत आ गया हो।
इसी के साथ, सीबीआई ने उन्हें औपचारिक रूप से पूछताछ के लिए हिरासत में ले लिया।
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक बार फिर लोगों की भीड़ जमा थी। इस बार कोई राजनीतिक बयान या प्रेस कांफ्रेंस नहीं, बल्कि एक श्रद्धांजलि सभा थी—हेमंत मिश्रा के लिए।
राघव, आदित्य, अनन्या, और कई युवा पत्रकार वहां मौजूद थे। एक प्रोजेक्टर पर हेमंत का आखिरी इंटरव्यू चल रहा था। जब वीडियो में हेमंत ने कहा—”मैं चाहूँगा कि मेरी कहानी कोई और आगे लिखे,” तो पूरे हॉल में एक गूंज सी उठी।
अनन्या शुक्ला ने कहा, “आज हेमंत जीत गया। उसे मारा गया, लेकिन उसकी सच्चाई को कोई खत्म नहीं कर पाया। हम सब उसके नाम पर नहीं, उसके काम पर गर्व करते हैं।”
भीड़ में बैठे एक छात्र ने खड़े होकर पूछा—“क्या अब बदलाव होगा? क्या अगली सरकारें ईमानदार होंगी?”
प्रिया ने जवाब दिया—“बदलाव कोई सरकार नहीं लाती। बदलाव वो लाता है जो सवाल पूछता है। और अब से हर कोई सवाल पूछेगा।”
राघव ने हाथ में हेमंत की डायरी उठाई—“यह कोई किताब नहीं, यह एक मशाल है। और यह मशाल अब तुम लोगों के हाथ में है।”
कुछ दिन बाद, नई अंतरिम सरकार ने सीबीआई को पूरी स्वतंत्रता दी। त्रिपाठी के बेटे निखिल को भी गिरफ्तार किया गया। जिन अफसरों ने फर्जी दस्तावेज बनाए थे, उन पर भी केस दर्ज हुए।
सत्ता के गलियारों में एक नई फुसफुसाहट थी—अब कोई भी खुद को अछूत नहीं समझ सकता।
राजधानी के एक स्कूल में एक शिक्षक ने बच्चों से पूछा—“आजकल आप लोग सबसे ज़्यादा किससे प्रभावित हैं?”
एक लड़की ने कहा—“हेमंत मिश्रा से। उन्होंने हमें दिखाया कि एक आदमी भी बहुत कुछ बदल सकता है।”
राघव और आदित्य अब किसी सरकारी सेवा में नहीं थे। लेकिन वे एक नए मिशन पर थे—एक स्वतंत्र पोर्टल शुरू करने का, जिसका नाम रखा गया—“विवेक संवाद”।
इसका पहला आर्टिकल था—”सत्ता का जाल: एक पत्रकार की जीत”
लेख की अंतिम पंक्तियाँ थीं:
“जो जाल सदियों से बुनते आए हैं, वो एक सच्ची आवाज़ से टूट भी सकते हैं। बस ज़रूरत होती है एक हेमंत की, एक आदित्य की, एक प्रिया की। और हाँ, एक राघव की भी—जो सत्ता के अंधेरों में भी रोशनी ले आने की ज़िद रखते हैं।”
रात के समय आदित्य छत पर बैठा था, जैसे उस रात जब पहली बार भागा था। अब सब शांत था, पर दिल में हलचल जारी थी।
“हमने कुछ बदला?” उसने राघव से पूछा।
“शायद नहीं सब कुछ, लेकिन इतना ज़रूर कि अब डरने से पहले लोग सवाल पूछेंगे। और यही बहुत है।”
चांदनी धुंधली थी, लेकिन साफ़ था—अंधेरे में भी रोशनी की उम्मीद बची रहती है।
भाग 7
जब सत्ता गिरती है, तो उसके मलबे में केवल भ्रष्टाचार नहीं दबा होता—बल्कि विश्वास भी टूटता है, वादे बिखरते हैं, और आम लोग एक बार फिर सोचते हैं—“क्या वाकई कोई बदल सकता है?” मुख्यमंत्री यशवर्धन त्रिपाठी का इस्तीफा और गिरफ्तारी भले ही एक ऐतिहासिक घटना रही हो, लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण था वह शून्य जो उसके बाद राजनीतिक परिदृश्य में पैदा हुआ।
देशभर के न्यूज़ स्टूडियोज़ में अब बहसें बदल गई थीं। पहले जो चैनल सत्ता के गुणगान में व्यस्त रहते थे, अब वही चैनल “लोकतंत्र की बहाली” और “सिस्टम की सफाई” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे थे। लेकिन राघव जानता था—सिर्फ शब्दों से सच्चाई की जीत नहीं होती।
“ये मीडिया की फितरत है,” उसने आदित्य से कहा, “कल तक जो हमें ‘देशद्रोही’ कहते थे, आज हमें ‘नायक’ बना रहे हैं। पर याद रखो, जब तक जनता खुद सवाल नहीं पूछेगी, ये कहानी हर पांच साल में दोहराई जाएगी।”
“तो फिर अगला कदम क्या है?” आदित्य ने पूछा।
“अगला कदम है—सवालों की राख में से सच्चाई की चिनगारी ढूँढना। हमें अब उन जगहों पर जाना होगा जहाँ हेमंत जाना चाहता था। जिन फाइलों को उसने छुआ भर था, उनका सच अभी बाकी है।”
राघव और आदित्य ने एक सूची तैयार की—बड़ी-बड़ी परियोजनाएं, जिनमें नाम बदलकर सरकारी पैसा निजी जेबों में गया था। एक नाम बार-बार सामने आ रहा था—‘महा विकास योजना’। यह योजना पांच राज्यों में जलसंरक्षण के नाम पर चलाई गई थी, लेकिन हेमंत की डायरी में इस योजना के साथ चिह्नित था—“वॉटर-गेट ऑफ इंडिया”
इस कड़ी में पहली मंज़िल था झारखंड का छोटा सा ज़िला—बरही। वहाँ एक जलसंरक्षण परियोजना का उद्घाटन हुआ था तीन साल पहले। करोड़ों खर्च किए गए थे, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह थी कि आज भी गाँव वाले टैंकरों से पानी भरते थे।
राघव और आदित्य गाँव पहुँचे। वहाँ के एक बुज़ुर्ग ने बताया, “बाबू, यहाँ तो केवल बोर्ड लगा है। काम कुछ नहीं हुआ। जो आया, उसने फोटो खिंचवाया, और चला गया।”
एक युवक ने बताया कि उसके चाचा, जो उस समय ग्राम सचिवालय में थे, अचानक गायब हो गए थे। “वो कुछ काग़ज़ों को लेकर बहुत परेशान रहते थे। एक बार उन्होंने कहा था कि अगर मैंने मुंह खोला, तो मेरे बच्चे अनाथ हो जाएँगे।”
राघव ने पूछा, “क्या उनका कोई दस्तावेज़, डायरी या मोबाइल अब भी है?”
“हाँ,” युवक बोला, “उनका पुराना मोबाइल अब भी मेरे पास है, लेकिन लॉक है।”
आदित्य ने वो मोबाइल लिया और तकनीकी सहायता से उसका डेटा रिकवर करने की कोशिश की। जो मिला, वो चौंकाने वाला था—PDF में एक स्कैन की हुई फाइल, जिसमें दिखाया गया था कि ‘महा विकास योजना’ के तहत एक फर्जी कंपनी ने 87 लाख का भुगतान बिना काम किए उठा लिया था। और उस कंपनी के निदेशक थे—मुख्यमंत्री त्रिपाठी की पत्नी के भाई।
“अब खेल समझ आया?” राघव ने आदित्य से कहा। “त्रिपाठी सिर्फ चेहरा था। असली खिलाड़ी और भी हैं।”
दिल्ली लौटते ही उन्होंने ये फाइल सीबीआई को सौंप दी। प्रिया सक्सेना ने तुरंत स्पेशल इन्वेस्टिगेशन यूनिट गठित की। अब जांच का दायरा सिर्फ एक मुख्यमंत्री या उनके बेटे तक सीमित नहीं था—यह पूरे तंत्र में फैले उन चेहरों की तलाश थी, जो पर्दे के पीछे रहकर राजनीति को कंट्रोल करते थे।
उसी दौरान प्रधानमंत्री कार्यालय में भी कई रातें बिना नींद की बीत रही थीं। राजनीतिक सलाहकारों ने स्पष्ट कर दिया था—“अगर जांच और गहराई तक गई, तो केंद्र की छवि भी धूमिल हो सकती है।”
प्रधानमंत्री ने कहा, “अगर अब जांच रोकी गई, तो जनता हमें भी दोषी मानेगी। हमें पारदर्शिता दिखानी होगी, चाहे किसी की भी गर्दन कटे।”
राघव और आदित्य अब एक के बाद एक राज्यों में जा रहे थे—छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र—हर जगह ‘महा विकास योजना’ का एक ही पैटर्न दिखता था। बोर्ड लगे हुए, उद्घाटन की तस्वीरें थीं, लेकिन काम कहीं नहीं था। और हर बार किसी ना किसी मंत्री, विधायक या ब्यूरोक्रेट के परिवारजनों की कंपनी इन प्रोजेक्ट्स से जुड़ी मिलती थी।
एक बार आदित्य ने कहा, “क्या हम ये सब जनता के सामने लाएँ? ये तो बहुत बड़ा नेटवर्क है।”
राघव ने जवाब दिया, “हेमंत अकेला था, फिर भी उसने सवाल पूछे। अब हम दो हैं, और जनता जाग रही है। डर का समय गया, अब जवाब मांगने का वक़्त है।”
इस बीच सोशल मीडिया पर #वॉटरगेटइंडिया ट्रेंड करने लगा। लोग अब स्थानीय स्तर पर अपने इलाके की परियोजनाओं के स्टेटस शेयर करने लगे थे। RTI फाइल हो रहे थे, जनसभाएं आयोजित हो रही थीं, और पत्रकार फिर से फील्ड में निकल पड़े थे।
एक नई हवा चल पड़ी थी—सवालों की।
प्रेस क्लब में एक नई प्रेस मीट रखी गई, जिसमें राघव, आदित्य और प्रिया सक्सेना ने संयुक्त बयान दिया।
प्रिया ने कहा—“हमें नायक मत बनाइए। हमें केवल इंसान समझिए, जिन्होंने अपना काम किया है। असली हीरो वह जनता है जिसने चुप रहना छोड़ दिया है।”
राघव ने जोड़ा, “अगर एक पत्रकार की मौत से देश की चेतना जाग सकती है, तो सोचिए अगर हर व्यक्ति हेमंत बन जाए, तो ये देश कैसा होगा।”
पर कहानी यहीं नहीं थमी।
उसी रात, आदित्य के पास एक गुमनाम कॉल आया।
“आप जो कर रहे हैं, वो अच्छा है। लेकिन आप अब जिनके खिलाफ जा रहे हैं, वो त्रिपाठी नहीं हैं। ये लोग सरकार नहीं, तंत्र चलाते हैं। बच सको, तो बचो। वरना अगली सुबह हेमंत की तरह खबर बन जाओगे।”
आदित्य कांप गया। राघव ने उसका कंधा थामकर कहा—“अब हम रुक नहीं सकते। हम सवाल पूछ चुके हैं। और अब जवाब आना ही होगा, चाहे राख में से ही क्यों न हो।”
भाग 8
हर व्यवस्था का एक बाहरी चेहरा होता है—साफ़, चमकदार, वोट मांगते हुए मुस्कुराता हुआ। और फिर होता है एक अंदरूनी चेहरा—धुआं उठाते कमरे, सीलबंद सौदे, और वो चुप्पी जो गोली की तरह असर करती है। राघव और आदित्य अब उस दुनिया के करीब पहुँच चुके थे, जिसे आम लोग ‘तंत्र’ नहीं, केवल ‘सरकार’ समझते हैं। लेकिन अब उनके सामने वो चेहरे थे जिनकी तस्वीरें कभी अख़बारों में नहीं छपतीं, लेकिन उनकी उंगलियों के इशारे से नीतियाँ बनती और गिरती हैं।
गुमनाम कॉल के बाद, आदित्य की रात नींद में नहीं, आशंका में बीती। उसने बालकनी से झांकते हुए देखा—एक गाड़ी बार-बार गली के बाहर घूम रही थी। राघव ने उसकी पीठ थपथपाई, “डर का मतलब है कि हम सही रास्ते पर हैं। अब ये तय करना है कि इस डर से लड़ना है या झुक जाना है।”
अगली सुबह, राघव ने एक पुराने मित्र से संपर्क किया—नाम था विक्रम मेहता। एक समय में आईबी के भीतर एक छाया की तरह काम करने वाला विक्रम अब एक डिजिटल ट्रैकिंग एक्सपर्ट बन चुका था। उसने कॉल के नंबर को ट्रेस किया।
“ये कॉल हरियाणा के एक गेस्ट हाउस से की गई थी,” विक्रम ने बताया। “लेकिन कॉलर का नाम नहीं मिलेगा। फोन किसी और के नाम पर है, और हर हफ्ते बदला जाता है। जो नेटवर्क तुमने छेड़ा है, वो केवल राजनीतिक नहीं, कॉर्पोरेट, ब्यूरोक्रेट और मीडिया—तीनों का संगम है।”
“तंत्र।” राघव ने धीमे से कहा।
विक्रम ने सिर हिलाया। “और हर तंत्र का एक केंद्र होता है—एक चेहरा जो सार्वजनिक नहीं होता, लेकिन सारे धागे उसी के हाथ में होते हैं।”
राघव और आदित्य अब जान चुके थे कि ‘महा विकास योजना’ सिर्फ भ्रष्टाचार का मामला नहीं, बल्कि एक मॉडल था—देशभर में अलग-अलग योजनाओं की आड़ में लूट की एक श्रृंखला, जिसमें हर राज्य में एक दलाल, एक अफसर और एक मंत्री जुड़े होते।
और इन सबका संयोजन करने वाला एक ही व्यक्ति था—‘आर. के. सिंघल’, नाम जितना सामान्य, ताकत उतनी असामान्य।
आर. के. सिंघल का नाम कभी मीडिया में नहीं आया। वो न किसी पद पर था, न किसी फाइल में। लेकिन उसकी कंपनियाँ हर नीति में छिपी थीं। एक ‘थिंक टैंक’ का प्रमुख कहलाता था, लेकिन असल में वह एक नीति-निर्माण उद्योग का मालिक था।
प्रिया सक्सेना के पास जैसे ही यह नाम आया, उसने पूरी जांच टीम को हाई अलर्ट पर रखा। “हमें उस चेहरे तक पहुँचना है जो अब तक अदृश्य रहा है। त्रिपाठी, निखिल, सारे नाम केवल मोहरे थे।”
राघव और आदित्य ने सिंघल के बारे में जानने के लिए दिल्ली के पॉश इलाकों से लेकर लंदन की पनामा पेपर्स लीक तक खोजबीन की। वहाँ एक कंपनी मिली—‘Vantage Horizon International’, जिसके ज़रिए भारत के तमाम टेंडरों में पैसा ट्रांसफर होता था। और उसके निदेशक के दस्तावेज़ों में एक साइन बार-बार दोहराया गया था—R.K.S.
राघव ने प्रिया से संपर्क किया, “हमें इस कंपनी को इंटरपोल के ज़रिए ट्रैक करना होगा। सिंघल अब भारत में नहीं है, लेकिन उसके पैसे अब भी यहीं हैं। और हमें पैसे से ही उसकी गर्दन पकड़नी होगी।”
प्रिया ने तत्काल CBI और ED की संयुक्त टीम बनाई। पहली बार देश में किसी थिंक टैंक के खिलाफ जांच शुरू हुई। पूरे लुटियन दिल्ली में हलचल मच गई।
एक वरिष्ठ पत्रकार ने अनन्या शुक्ला से कहा—“पहली बार कोई पत्रकार, एक क्लर्क और एक अफसर मिलकर उस दीवार को गिरा रहे हैं, जिसे दशकों से कोई छू नहीं पाया।”
अनन्या ने जवाब दिया, “इस बार बात सच की नहीं, ज़रूरत की है। देश को ज़रूरत है ऐसे चेहरों को देखने की, जिनसे अब तक पर्दा बनाए रखा गया।”
सिंघल अब दुबई में था, लेकिन जब उसके खिलाफ भारत सरकार ने रेड कॉर्नर नोटिस जारी किया, तो उसकी चिंता बढ़ गई। उसने अपने नेटवर्क को दोबारा एक्टिव किया।
एक दिन राघव के फोन पर एक वीडियो कॉल आई। कोई चेहरा नहीं दिखा, बस एक आवाज़ थी।
“राघव मेहरा, तुम्हें लगता है तुम इस देश को बदल सकते हो?”
“मैं नहीं, सच्चाई कर सकती है।”
“सच से पेट नहीं भरते, न सत्ता चलती है।”
“लेकिन झूठ से देश मरते हैं।”
वह कॉल कट गई।
एक हफ्ते बाद, मीडिया को खबर मिली—आर. के. सिंघल को अबु धाबी एयरपोर्ट पर रोक लिया गया है। और उसे भारत प्रत्यर्पित किया जा रहा है।
यह खबर बिजली की तरह फैली।
अब पहली बार वह चेहरा सामने आया जिसने तीन दशकों से देश की सबसे बड़ी नीतियों को निर्देशित किया था। सिंघल को सफेद कुर्ते में अदालत में पेश किया गया। पत्रकारों ने उससे पूछा—“क्या आप खुद को दोषी मानते हैं?”
उसने कहा, “मैंने कुछ नहीं किया। मैंने सिर्फ देश को मुनाफा दिलाया। बाकी सब राजनीति है।”
लेकिन राघव को पता था—वह चुप नहीं बैठेगा। तंत्र हार मानता नहीं, वह सिर्फ रूप बदलता है।
प्रिया ने केस के चार्जशीट फाइनल की, जिसमें सिंघल, त्रिपाठी, निखिल और उनके साथ 47 अफसरों और व्यापारियों के नाम थे। यह स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे बड़ा घोटाला केस बन चुका था।
राघव, आदित्य और अनन्या प्रेस क्लब में आखिरी बार एक साथ बैठे थे।
“क्या हमने तंत्र को हरा दिया?” आदित्य ने पूछा।
राघव मुस्कराया, “नहीं। लेकिन अब तंत्र को छिपने की जगह नहीं है। और यह सबसे बड़ी जीत है।”
अनन्या ने कहा, “सत्ता के चेहरे हमेशा बदलते रहेंगे। लेकिन जब चेहरे बेनकाब होते हैं, तो व्यवस्था से डर कम होता है, और उम्मीद ज़्यादा।”
रात को राघव ने अपनी डायरी में लिखा—
“हमने सिस्टम को नहीं बदला। लेकिन अब सिस्टम सवालों से डरता है। यही शुरुआत है। और यह शुरुआत, हेमंत के खून से लिखी गई थी।”
भाग 9
दिल्ली की हवाएं इन दिनों बदली-बदली थीं। कहीं इंकलाब की गंध थी, तो कहीं अनिश्चितता की परतें। जब आर. के. सिंघल को भारत लाया गया, तो एक पूरी पीढ़ी ने पहली बार उस तंत्र के चेहरे को देखा, जिसे उन्होंने कभी पहचानने की कोशिश ही नहीं की थी। न्यूज़ चैनलों पर उसकी तस्वीरें थीं, अखबारों के पहले पन्नों पर उसका नाम, और सोशल मीडिया पर देशभर से एक ही सवाल—“अब आगे क्या?”
सिंघल की गिरफ्तारी भले ही प्रतीकात्मक थी, लेकिन उसका असर गहरा था। देश के कई राज्यों में पुराने फाइलें दोबारा खोली जाने लगीं, भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच तेज़ हुई, और राजनीति में एक नई हवा बहने लगी। लेकिन राघव जानता था—इस हवा को अगर दिशा नहीं मिली, तो यह केवल एक तात्कालिक तूफान बनकर रह जाएगी।
उसी शाम, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक संगोष्ठी आयोजित की गई थी—विषय था: “क्या हम अब जाग चुके हैं?”
वक्ता थे—अनन्या शुक्ला, राघव मेहरा, और विशेष अतिथि के रूप में प्रिया सक्सेना।
अनन्या ने सबसे पहले माइक संभाला—“हेमंत मिश्रा ने हमें एक आइना दिखाया। उस आईने में हम सबकी चुप्पी, हमारा डर, और हमारी सहमति नज़र आई। आज सवाल यह नहीं है कि हेमंत को किसने मारा। सवाल यह है कि क्या हम अब भी उस चुप्पी का हिस्सा हैं?”
राघव ने माइक लिया—“मैं पूर्व खुफिया अधिकारी रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि सत्ता के गलियारों में शब्दों से ज़्यादा मौन चलता है। लेकिन पहली बार मैंने देखा कि जनता ने सवाल करना सीखा है। यही लोकतंत्र का दूसरा नाम है—सवाल करना। ज़िम्मेदारी लेना। और जवाब मांगना।”
प्रिया ने कहा—“हमने तंत्र को झकझोरा है, गिराया नहीं। और उसे गिराने का काम किसी एक पत्रकार, किसी एक अफसर या किसी एक क्लर्क का नहीं है। यह काम हर नागरिक का है। अगर हम चुप रहें, तो फिर सिंघल जैसे चेहरे फिर से छा जाएँगे।”
सभा के बाद, एक छात्रा ने राघव से पूछा—“सर, क्या अब कभी कोई हेमंत मारा नहीं जाएगा?”
राघव कुछ पल चुप रहे, फिर बोले—“शायद मारा जाएगा। शायद कई बार। लेकिन अब उसकी आवाज़ चुप नहीं होगी। क्योंकि अब हेमंत अकेला नहीं है।”
इस बदलाव की लहर से राजनेताओं की चाल में भी फर्क आने लगा था। अगले विधानसभा चुनावों में सभी दलों ने भ्रष्टाचार विरोधी एजेंडा अपनाया, और पारदर्शिता को मुद्दा बनाया। लेकिन राघव, आदित्य और प्रिया जानते थे कि बातें और नीतियाँ लिखना आसान होता है, उन्हें लागू करना सबसे कठिन।
इसी बीच आदित्य को एक मेल मिला—एक गुमनाम मेल, जिसमें सिर्फ एक लाइन लिखी थी:
“सिंघल के पीछे भी कोई था।”
मेल के साथ एक अटैचमेंट था—एक सरकारी फाइल का स्कैन, जिसमें एक अन्य थिंक टैंक, ‘South Axis Forum’ का जिक्र था। यह संगठन अंतरराष्ट्रीय निवेशकों और घरेलू नेताओं के बीच पुल का काम करता था, लेकिन उसकी फंडिंग के स्रोत संदिग्ध थे।
राघव ने फाइल पढ़ते ही कहा—“ये जाल बहुत गहरा है। लेकिन अब नहीं रुकेंगे।”
इस बार, उन्हें एक नया साथी मिला—पारुल गोस्वामी। पारुल एक डेटा जर्नलिस्ट थी, जो वर्षों से कंपनियों और सरकारों के बीच के वित्तीय संबंधों का अध्ययन कर रही थी। उसने बताया कि ‘South Axis Forum’ की फंडिंग एक विदेशी ट्रस्ट से होती है, जो भारत की नीतियों को प्रभावित करने के लिए लॉबिंग करता है।
“वो नीतियाँ जो हमें विकास के नाम पर दी जाती हैं, दरअसल निजी फायदे के लिए बनाई जाती हैं,” पारुल ने कहा। “और इस फोरम की सबसे बड़ी ताकत है—सहयोगी मीडिया, जो सवाल नहीं, स्क्रिप्ट पढ़ती है।”
राघव ने कहा—“तो हमें अब मीडिया को भी जिम्मेदार बनाना होगा।”
‘विवेक संवाद’ पोर्टल पर अब एक नई सीरीज़ शुरू की गई—”नीतियों के पीछे कौन?” इस सीरीज़ में नीति निर्माण, थिंक टैंक्स और लॉबिंग ग्रुप्स के आपसी रिश्तों को सार्वजनिक किया गया। जनता के बीच पहली बार यह चर्चा शुरू हुई कि ‘विकास’ और ‘रिफॉर्म’ के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, उसमें किसका हित सबसे पहले देखा जा रहा है।
आदित्य ने एक लेख लिखा—”लोकतंत्र का दूसरा नाम जवाबदेही है”
इसमें उन्होंने लिखा—
“अगर हम यह मान लें कि लोकतंत्र केवल वोट देना है, तो हम उसकी आत्मा को मारते हैं। लोकतंत्र का मतलब है सवाल करना, जानना, और जवाब मांगना। जो सरकार इनसे डरती है, वह जनप्रतिनिधि नहीं, प्रबंधक बन जाती है।”
यह लेख वायरल हुआ। कॉलेजों, यूनिवर्सिटीज़, सिविल सर्विस कोचिंग सेंटर्स में इसकी कॉपियाँ बांटी गईं। युवा वर्ग, जो राजनीति से दूरी बनाए रखता था, अब बहस में हिस्सा लेने लगा।
उधर सिंघल ने अपने बयान में कहा—“मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है। मैंने जो कुछ भी किया, वह नीति के अंतर्गत था।”
लेकिन सीबीआई ने उसके खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग, साजिश और राष्ट्रहित के विरुद्ध गतिविधियों के प्रमाण जुटा लिए थे। कोर्ट में उसका केस लंबा चलेगा, लेकिन जनता की अदालत में वह दोषी ठहर चुका था।
प्रिया ने पत्रकारों से कहा—“कानून अपना काम करेगा। लेकिन हमें यह समझना होगा कि तंत्र तब तक मज़बूत होता है जब तक लोग चुप रहते हैं। अब चुप्पी टूटी है, अब यह देश जाग रहा है।”
‘विवेक संवाद’ की एक साल की सालगिरह पर राघव ने मंच पर चढ़ते हुए कहा—
“हमने यह पोर्टल किसी बड़े बजट से नहीं, किसी कॉरपोरेट सहयोग से नहीं, बल्कि एक पत्रकार की आखिरी इच्छा से शुरू किया था। हेमंत ने हमसे कहा था—‘मेरी कहानी कोई और लिखे।’ आज हम सब उसकी कहानी जी रहे हैं। वह मरा नहीं। वह हर उस सवाल में ज़िंदा है जो अब इस देश का युवा पूछ रहा है।”
सभा में तालियाँ गूंज उठीं।
रात को, राघव ने अपनी डायरी में अंतिम पंक्तियाँ लिखीं—
“लोकतंत्र का दूसरा नाम न नेता है, न चुनाव। लोकतंत्र का दूसरा नाम है जनता। जब जनता जागती है, तो तंत्र कांपता है। और जब जनता बोलती है, तो सत्ता झुकती है।”
आदित्य, पारुल, अनन्या, प्रिया—सब एक नई सुबह की ओर देख रहे थे।
और हेमंत?
वो एक नाम नहीं रहा था। वो अब एक चेतना बन चुका था।
भाग 10
साल भर बीत चुका था। वो शहर, वो गलियाँ, वो प्रेस क्लब जहाँ एक पत्रकार की मौत से क्रांति की शुरुआत हुई थी—अब एक नई कहानी की जमीन बन चुके थे। “विवेक संवाद” देश का सबसे तेज़ उभरता स्वतंत्र पोर्टल बन चुका था। विश्वविद्यालयों से लेकर गांव की चाय की दुकानों तक, लोग अब पूछते थे—“उस प्रोजेक्ट में किसका पैसा है?” “ये नीति किसके लिए बनी?” “ये कॉन्ट्रैक्ट किस कंपनी को मिला?”
किसी लोकतंत्र की असली अदालत अदालत की इमारत नहीं होती। वह होती है—जनता की चेतना। और अब यह चेतना जाग चुकी थी।
राघव, आदित्य और पारुल एक आखिरी रिपोर्ट तैयार कर रहे थे—”जनता की अदालत में सत्ता”। इस रिपोर्ट में उन्होंने पूरे वर्ष का लेखा-जोखा, सीबीआई की जांच, कोर्ट में चल रहे मुकदमों और जनता के रुख को समेटा था। इसमें बताया गया कि किस तरह तंत्र धीरे-धीरे अपने असली चेहरे खो रहा था।
राघव ने रिपोर्ट के अंत में लिखा—
“हर सिस्टम में दरार होती है। फर्क इतना होता है कि कोई उसमें से धूप आने देता है, कोई सिर्फ अंधेरा बंद रखता है।”
आदित्य ने कहा, “क्या ये सचमुच आखिरी रिपोर्ट होगी?”
राघव ने मुस्कुराते हुए कहा, “नहीं। सच की कोई आखिरी रिपोर्ट नहीं होती। हर दिन एक नई कहानी है। आज हम हैं, कल कोई और होगा।”
उधर, कोर्ट में ‘महा विकास योजना’ से जुड़े मामले का अंतिम निर्णय सुनाया जाना था। कोर्ट में माहौल तना हुआ था। सीबीआई ने सभी साक्ष्य पेश कर दिए थे। प्रिया सक्सेना ने केस की पैरवी खुद की थी।
जज ने फैसला सुनाते हुए कहा—
“यह न्यायालय मानता है कि इस योजना में सुनियोजित भ्रष्टाचार हुआ। यह भ्रष्टाचार केवल पैसों का नहीं, जनविश्वास का था। आरोपीगण—यशवर्धन त्रिपाठी, निखिल त्रिपाठी, आर.के. सिंघल सहित 41 अन्य को दोषी करार दिया जाता है। यह भी आदेश दिया जाता है कि इनसे रिकवरी की जाए, और भविष्य में ऐसी योजनाओं की निगरानी एक स्वतंत्र निकाय द्वारा की जाए।”
इस निर्णय के बाद अदालत में सन्नाटा नहीं, सुकून था। जैसे किसी ने एक लंबी सांस ली हो।
बाहर मीडिया लाइन में खड़ा था, लेकिन इस बार कैमरे किसी नेता या आरोपी की ओर नहीं थे। कैमरे उस जनता की ओर थे, जो अब जान चुकी थी कि उसकी चुप्पी सबसे बड़ा अपराध बन सकती है।
राघव ने उस शाम एक आम सभा में कहा—“हमने न्यायालय में केस लड़ा, लेकिन असली केस जनता की अदालत में चला। और वहां हमें सच्चा इंसाफ़ मिला।”
पारुल ने जोड़ते हुए कहा—“हमने देखा कि अगर पत्रकार, क्लर्क, अफसर और आम नागरिक एक साथ खड़े हो जाएँ, तो कोई भी तंत्र इतना बड़ा नहीं कि उसे गिराया न जा सके।”
सभा के बाद, एक किसान ने आदित्य से हाथ मिलाया और कहा—“बाबूजी, आपके लेखों ने हमें भरोसा दिया कि हम अकेले नहीं हैं। अब हम गाँव में भी RTI लगाते हैं, सवाल पूछते हैं। पहले डर लगता था, अब नहीं।”
आदित्य की आँखें भर आईं। उसने राघव की ओर देखा। वो कुछ नहीं बोला, बस सिर झुका लिया।
सीबीआई की विशेष यूनिट अब देशभर में फैली थी। हर राज्य से भ्रष्टाचार की शिकायतों पर कार्रवाई हो रही थी। कोर्ट में एक अलग ‘नीति निगरानी खंडपीठ’ गठित किया गया था, जो बड़ी योजनाओं की प्रक्रिया और पारदर्शिता की समीक्षा कर रही थी।
हेमंत मिश्रा के नाम पर ‘सच्ची पत्रकारिता सम्मान’ की शुरुआत हुई थी, जिसे हर साल एक स्वतंत्र पत्रकार को दिया जाता था। पहले वर्ष यह सम्मान मरणोपरांत हेमंत को ही दिया गया—उनकी माँ के हाथों।
उन्होंने मंच पर कहा—
“मेरा बेटा चला गया, लेकिन अब देश के लाखों बेटे-बेटियाँ उसकी कहानी जी रहे हैं। इससे बड़ा न्याय और क्या होगा?”
‘विवेक संवाद’ की टीम अब देश के अलग-अलग हिस्सों में पत्रकारिता कार्यशालाएँ आयोजित कर रही थी। उनका मक़सद सिर्फ लिखना नहीं, सिखाना था—कैसे सरकार से सवाल करें, कैसे फाइलों को पढ़ें, और कैसे हर नागरिक अपने आस-पास की सच्चाई का प्रहरी बन सके।
पारुल ने एक कार्यशाला में कहा—“हम सब एक रिपोर्टर हैं। फर्क इतना है कि कोई अखबार में छपता है, कोई अपने मोहल्ले में बोलता है।”
लेकिन यह कहानी केवल जीत की नहीं थी। कई जगह धमकियाँ मिलीं, कई पत्रकारों पर हमले हुए, कई फाइलें दबाई गईं। एक बार आदित्य पर भी हमला हुआ—उसकी बाइक को रात में आग लगा दी गई।
राघव ने उससे कहा, “ये आग बुझती नहीं है, फैलती है। तुम्हारे डरने से ये और बढ़ेगी। चलो, अब अगली रिपोर्ट की तैयारी करते हैं।”
आदित्य ने मुस्कराते हुए कहा—“चलो, अब डर को रिपोर्ट करते हैं।”
अंततः, ‘जनता की अदालत’ एक रूपक नहीं रह गई थी—वह एक आंदोलन बन चुकी थी। लोग सोशल मीडिया से बाहर निकल कर सड़कों पर आ रहे थे, पार्षदों से सवाल कर रहे थे, फाइलें मांग रहे थे, और सबसे ज़रूरी—एक-दूसरे को सच से जोड़ रहे थे।
राजनीति ने भी अपना रंग बदला। अब चुनाव प्रचार में ‘वादों’ के साथ ‘पिछली योजनाओं का लेखा-जोखा’ देना भी अनिवार्य हो गया। एक राज्य में तो एक नया विभाग ही खुला—“नीति पारदर्शिता मंत्रालय”।
कहानी वहीं खत्म नहीं होती।
एक दोपहर राघव, आदित्य और पारुल एक खेत में बैठे थे। दूर एक स्कूल में बच्चे गा रहे थे—“सच्चा काम करो, सवाल पूछो।”
राघव ने आसमान की ओर देखा। हल्की धूप थी। उसने कहा—
“तंत्र को हमने हिला दिया, अब व्यवस्था को ठीक करना जनता के हाथ में है। हेमंत अब हर उस आवाज़ में ज़िंदा है जो चुप नहीं है।”
आदित्य ने चुपचाप उसकी डायरी से एक पन्ना फाड़ा। उस पर लिखा था—
“सच को मरने नहीं देना, क्योंकि सच ही लोकतंत्र का असली चेहरा है। जब भी डर लगे, सवाल पूछना। जब भी भ्रम हो, सच्चाई को पकड़ना। और जब भी लगे कि कुछ बदल नहीं सकता, याद रखना—एक हेमंत काफी होता है।”
समाप्त
				
	

	


