Hindi - प्रेम कहानियाँ

संगीत के उस पार

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आकाश वर्मा


मुंबई की बारिशें जैसे पूरे शहर को धो डालती थीं, वैसे ही कभी-कभी मन के भीतर जमी गर्द भी बहा ले जाती थीं। लेकिन विवान मल्होत्रा के लिए, आज की शाम औरों से अलग थी—बाहर की बूंदों में तो लय थी, मगर उसके भीतर सुर गुम थे। वह अपने छोटे से अपार्टमेंट के कोने में बैठे हुए गिटार के तारों को हल्के से छेड़ता रहा, जैसे किसी खोए हुए एहसास को आवाज़ देने की कोशिश कर रहा हो। पिछले कुछ महीनों से उसकी ज़िंदगी एक अजीब-सी दोहरी लड़ाई में उलझी थी—एक तरफ़ अपने सपनों को सच करने की तड़प, दूसरी तरफ़ संगीत के बाज़ारी रूप से लगातार समझौता करने की मजबूरी। वह ‘संगीत’ में आत्मा ढूंढता था, पर हर जगह ‘ट्रेंडिंग बीट्स’ और ‘वायरल हुक्स’ बिक रहे थे। स्टूडियो के लोग कहते थे, “आवाज़ में दम है, लेकिन कोई हिट लाइन चाहिए।” उसे ये सुनकर घुटन होती, जैसे कोई उसके गले पर हाथ रखकर बोलने से रोक रहा हो। वह अपनी रिकॉर्डिंग छोड़ बाहर निकल आया और बरसात में भीगते हुए जुहू चौपाटी की ओर बढ़ चला—शायद वहाँ समंदर की आवाज़ में उसे अपना खोया सुर मिल जाए।

अन्वी शर्मा वहीं थी—उस चौपाटी के एक कोने पर, जहाँ लोग कम और मौन ज़्यादा होता था। वह व्हीलचेयर पर बैठी थी, पर उसके हाथ चल रहे थे—कैनवास पर। चारों ओर बारिश की गूंज थी, लेकिन उसके लिए वह बस कंपन थी, जो उसकी त्वचा से टकराकर मन में उतरती थी। अन्वी जन्म से मूकबधिर थी, लेकिन उसमें एक अलग ही संवेदनशीलता थी—वह जो सुन नहीं सकती थी, उसे महसूस कर सकती थी, शायद दूसरों से कहीं ज़्यादा। वह अपनी माँ की नृत्य मुद्राओं से भावों को समझना सीख चुकी थी और अपने ब्रश से रंगों के ज़रिए ध्वनि की अनुभूति को कैद करने लगी थी। आज वह जो चित्र बना रही थी, उसमें एक युवक था—उसके चारों ओर धुंधली रेखाएँ, और उसके भीतर जैसे एक तूफ़ान। शायद वह किसी को महसूस कर रही थी, जो अभी आया नहीं था, लेकिन कहीं आसपास था। तभी दूर से वह आया—भीगता हुआ, गीले बालों से पानी टपकाता हुआ, आँखों में खोए हुए गीतों की चुप्पी लिए—विवान। वह पास से गुज़रा, और अन्वी की नज़रें उस पर अटक गईं। वह कुछ समझ नहीं पाई, पर कुछ महसूस ज़रूर हुआ—एक कंपन, एक लय, जो शब्दों से नहीं, दिल से निकली थी।

विवान ने उस पेंटिंग को देखा और कुछ पल ठहर गया। उसके सामने वही छवि थी जो उसने कुछ घंटे पहले अपने मन में महसूस की थी—एक टूटी लय, एक अंदरूनी विस्फोट, जो उसने किसी से बाँटा नहीं था। उसने कनखियों से देखा, उस लड़की की आँखें कितनी शांत थीं, जैसे उनमें सारा शोर घुल गया हो। वह बिना बोले उसकी पेंटिंग के करीब गया और अपनी उँगली से इशारा करते हुए ‘थैंक यू’ कहा, जिसे देखकर अन्वी मुस्कुरा उठी। वह शब्दों से नहीं, लेकिन आँखों से बात कर रही थी। उसी वक्त बारिश और तेज़ हो गई, और अन्वी के पेंटिंग के रंग बहने लगे। विवान ने झटपट अपने स्कार्फ से कैनवास ढका और कहा, “रुको, इसे यूँ मत जाने दो,” लेकिन उसे याद आया, वह तो सुन नहीं सकती। पर अन्वी ने उसकी आँखों में देखा—उसकी चिंता, उसका ध्यान—और सिर झुकाकर हल्की मुस्कान दी, जैसे कह रही हो, “मैंने समझा।” उस एक क्षण में दोनों के बीच जो जुड़ाव बना, वह किसी संगीत की तरह था—ना लयबद्ध, ना स्वरबद्ध—पर गूंजता हुआ, भीतर तक। दोनों को पता नहीं था कि यह मुलाक़ात महज़ एक संयोग नहीं थी, बल्कि वो पहली धुन थी एक ऐसे राग की, जो शब्दों से नहीं, अहसास से रचा जाने वाला था—”संगीत के उस पार।”

विवान को यह एहसास होने लगा था कि अन्वी केवल एक लड़की नहीं थी—वह एक अनुभव थी, जो चुपचाप उसकी ज़िंदगी में उतर आई थी। चर्च के उस कोने में बैठकर, जब वह गिटार के तारों पर उंगलियाँ फेरता और उसके सुर ज़मीन से होते हुए अन्वी तक पहुँचते, तो वह चुपचाप आँखें मूँद लेती और सिर हिलाकर प्रतिक्रिया देती। वह कुछ कहती नहीं, सुनती भी नहीं—लेकिन उसकी सांसें बदल जातीं, उसकी उंगलियाँ कभी हवा में थिरकतीं, कभी पैरों के पास मिट्टी पर गोल घेरा बनातीं। विवान के लिए यह अनुभव एकदम नया था। जहाँ बाकी लोग तारीफ़ करते थे बोलकर, वहाँ अन्वी के पास हर चीज़ का उत्तर मौन में छिपा था। एक दिन वह अचानक एक मोटी स्केचबुक लेकर आई—जिसमें चित्र नहीं थे, बल्कि कंपन के स्पंदन थे—कुछ गोल, कुछ सीधी रेखाएँ, कुछ भटकती, कुछ केंद्र की ओर जाती। विवान ने समझा नहीं, तो अन्वी ने एक पन्ना फाड़ा और गिटार बजाने का इशारा किया। उसने धीमे-धीमे एक कोर्ड बजाना शुरू किया। अन्वी ने ज़मीन पर हाथ रखा और उसकी उंगलियों में हर थरथराहट को महसूस करते हुए वह रेखा खींची, जो सीधी जाती हुई अचानक हल्के चाप में झुक गई। यह कंपन की भाषा थी—एक ऐसी भाषा जो कानों को नहीं, आत्मा को सुनाई देती थी।

दिन गुज़रते गए और यह मौन रिश्ता धीरे-धीरे गहराने लगा। अब दोनों नियमित रूप से मिलते—कभी चर्च के बेंच पर, कभी समुद्र किनारे, जहाँ विवान अपना पोर्टेबल स्पीकर लाता, और अन्वी बालू पर बैठकर उसकी धुनों को अपनी हथेली से महसूस करती। एक दिन उसने विवान के सामने एक चित्र बनाया—एक रेखा, जो दोनों के दिलों से निकलकर बीच में मिलती थी। विवान ने मुस्कुरा कर पूछा, “क्या यह हम हैं?” अन्वी ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया और फिर हवा में कुछ इशारे किए, जिसे विवान नहीं समझ पाया। वह झिझक गया। यही तो था उसका डर—वह अन्वी को पूरा समझ नहीं सकता था। लेकिन उसी क्षण अन्वी ने उसकी हथेली थामी, और धीरे से वहाँ थाप दी, एक निश्चित लय में—धक-धक-धक—तीन बार। विवान ने महसूस किया, यह वही लय थी जो उसका दिल बजा रहा था। वह मुस्कुराया और गिटार की उसी बीट पर एक नई रचना बजाने लगा—बिना बोल की, बिना शब्द की—सिर्फ थाप और तारों की ताल से बुनी एक प्रेम-रचना। अन्वी ने आँखें मूँद लीं और पहली बार मुस्कुराई—एक ऐसी मुस्कान जिसमें स्वीकार भी था और जुड़ाव भी।

उस शाम चर्च से लौटते समय विवान ने खुद को पहले से अलग महसूस किया। वह कोई ध्वनि रच नहीं रहा था, बल्कि अब उसे समझने लगा था कि संगीत सिर्फ कानों से नहीं, दिल और शरीर से भी सुना जाता है। अन्वी ने उसके लिए एक दुनिया खोल दी थी जहाँ मौन सबसे बड़ी गूंज था। अब वह उसके लिए गाने नहीं बना रहा था—वह अन्वी के साथ गूंज रहा था। दोनों की दोस्ती एक ऐसे पुल पर थी जो शब्दों से नहीं बना था, बल्कि एहसासों की रेशमी डोर से बुना गया था। उनके बीच अब कोई अपेक्षा नहीं थी, कोई मांग नहीं—बस एक मौन यात्रा थी, जिसमें हर क्षण एक नई लय, एक नई रचना बनता जा रहा था। और उस यात्रा में वे दोनों अलग-अलग रहते हुए भी एक साथ थे—जैसे दो सुर, जो अलग-अलग वाद्य से निकलते हैं, लेकिन मिलते हैं एक ही राग में… संगीत के उस पार।

उस दिन के बाद जैसे दोनों के बीच कोई शब्दों वाला सेतु नहीं बना, फिर भी हर मुलाक़ात एक संवाद बनती चली गई। विवान अब अक्सर अन्वी की पेंटिंग प्रदर्शनी में चला जाता, और वह उसे गिटार पर अपनी धुनें सुनाया करता। शब्दों की जगह अब स्पर्श, दृष्टि और भावनाओं ने ले ली थी। अन्वी अपनी स्केचबुक में उसके सुरों को रंगों में ढालती, और हर रंग उसके भीतर की ध्वनि को व्यक्त करता। एक दिन जब दोनों चर्च में बैठे थे, विवान ने अन्वी से पूछा, “क्या तुम जानती हो कि संगीत तुम्हारे भीतर कैसे गूंजता है?” अन्वी ने अपनी हथेली पर उंगलियों से छोटे-छोटे वृत बनाए, जैसे कंपन के गोल घेरे। उसने लिखा—”जब तुम कोई ऊँचा सुर बजाते हो, तो मेरी छाती के बीचोंबीच एक कंपन उठता है। जब सुर धीमा होता है, तो वो मेरी उँगलियों में गूंजता है। तुम्हारे सुर मेरे अंदर उतरते हैं—जैसे समंदर की लहरें किनारे को छूती हैं, बस ऐसे।” विवान को ऐसा महसूस हुआ जैसे उसने पहली बार किसी को अपनी संगीत की परिभाषा देते सुना हो, वो भी बिना कोई शब्द कहे।

उनकी यह अदृश्य-सी दोस्ती अब धीरे-धीरे एक दूसरे के जीवन का हिस्सा बनती जा रही थी। विवान अब अपने गानों में बदलाव महसूस कर रहा था—पहले जहाँ वह हिट लिरिक्स और ट्रेंडी बीट्स में उलझा रहता था, अब उसकी धुनों में गहराई, मौन, और भावनाओं की लहरें थीं। उसने एक नया ट्रैक तैयार किया, जिसमें कोई बोल नहीं थे, सिर्फ संगीत था। जब उसने वह ट्रैक गौतम को सुनाया, तो वह चौंक गया—“ये तूने कब बनाया? ये तो किसी फिल्म के बैकग्राउंड साउंडट्रैक जैसा लग रहा है—बहुत ईमोशनल!” विवान बस मुस्कुरा दिया, उसने अन्वी की ओर देखा जो पास में बैठी थी, स्केचबुक पर गहरे नीले और सफेद रंग से कुछ रेखाएँ बना रही थी—शायद उसी सुर की जो उसने महसूस किया था। फिर एक दिन, अन्वी ने विवान को अपनी माँ के कत्थक स्टूडियो में बुलाया। वहाँ बड़ी-बड़ी शीशे की दीवारें थीं, और फर्श लकड़ी का, जो हर थाप को गूंजता था। अन्वी ने बताया कि वह यहाँ अपनी माँ की हर मुद्रा को देखकर नृत्य की लय सीखती थी, बिना ध्वनि के। उस दिन विवान ने वहीं बैठकर अपना गिटार उठाया और सुर छेड़े—कत्थक की लय और उसके सुरों का संगम एक अद्भुत दृश्य बन गया। अन्वी ने पहली बार अपने पैरों से थाप देने की कोशिश की, और उसके चेहरे पर जो भाव था, वह विवान कभी नहीं भूल पाया।

इन्हीं पलों में, दोनों के भीतर एक-दूसरे के लिए एक अदृश्य रिश्ता बन रहा था—जिसमें ना कोई प्रस्ताव था, ना कोई स्वीकार, सिर्फ मौन की गहराई थी। विवान को अब अपने जीवन में एक ठहराव, एक उद्देश्य मिलने लगा था, और अन्वी के लिए यह पहली बार था जब कोई व्यक्ति उसके ‘मौन संगीत’ को इतने करीब से महसूस कर पा रहा था। एक शाम चर्च के सामने बैठे हुए, जब सूरज की रोशनी शीशों पर गिर रही थी, विवान ने पहली बार उसके हाथों को हल्के से छुआ। वह कोई इशारा नहीं था, बस एक अहसास था। अन्वी ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में कोई सवाल नहीं था, कोई उत्तर नहीं था—बस एक स्वीकार। उस दिन से दोनों जान गए कि जो रिश्ता उनके बीच है, वह शब्दों का मोहताज नहीं, बल्कि आत्मा की भाषा से बुना गया है। यह कहानी अब उन सुरों की ओर बढ़ रही थी जो ना गाए गए थे, ना कहे गए—पर ‘संगीत के उस पार’ सुने जा सकते थे।

मुंबई की हल्की-हल्की सर्दी ने जैसे शहर की भागदौड़ को थोड़ी देर के लिए ठहरने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन विवान के भीतर की धुनें और भी तेज़ हो रही थीं। अब वह हर सुबह गिटार लेकर चर्च के उस कोने में बैठता, जहां कभी अन्वी को पहली बार उसने अपना संगीत महसूस कराया था। उस छोटे-से अजनबी क्षण से लेकर आज तक, दोनों की ज़िंदगी ने एक मौन पुल पर चलना शुरू कर दिया था—जहां ना आवाज़ थी, ना स्पष्टीकरण, सिर्फ अनुभव थे। एक दिन जब विवान चर्च पहुँचा, तो देखा कि अन्वी पहले से वहाँ बैठी थी, लेकिन आज वह शांत नहीं थी—उसके हाथों की उंगलियाँ थरथरा रही थीं, और स्केचबुक ज़मीन पर गिरा हुआ था। वह दौड़कर उसके पास गया, पर अन्वी ने उसकी ओर देखकर अपना चेहरा मोड़ लिया। कुछ टूटा था, कुछ ऐसा जिसे उसने बाँध कर रखा था बहुत दिनों से। फिर धीमे से उसने एक पुराना फोटो निकाला—उसकी माँ की एक तस्वीर, कत्थक पोशाक में, आँखें चमकती हुई। तस्वीर के पीछे कुछ लिखा था, जिसे पढ़ते ही विवान समझ गया कि यह सिर्फ एक चित्र नहीं, एक अधूरी पीड़ा थी। माँ की मृत्यु के बाद से अन्वी ने नृत्य भी छोड़ दिया था और रंगों को ही अपनी भाषा बना लिया था। उसने लिखा—”मैंने नृत्य की थापों में संगीत महसूस किया, लेकिन जब माँ चली गई, तो कंपन भी मेरे भीतर मौन हो गया।”

विवान को यह जानकर ऐसा लगा जैसे वह अन्वी के दिल के उस कमरे में प्रवेश कर रहा है, जो अब तक बंद था। उसने गिटार उठाया और वही रचना फिर से बजाई, जिसे उसने पहली बार अन्वी के लिए बनाया था, लेकिन इस बार सुर धीमे थे, थरथराते हुए, जैसे हर एक तार अन्वी की स्मृति को छू रहा हो। वह गुनगुनाने नहीं लगा, सिर्फ आँखें बंद कर लीं और अपनी उंगलियों से गिटार के शरीर को थपथपाने लगा, ताकि कंपन ज़मीन और हवा में फैल सके—शब्दों की जगह अब स्पर्श को बोलने दिया जाए। अन्वी ने धीरे-धीरे अपना सिर उठाया, फिर आँखें बंद कीं और उसी लय में अपनी हथेली ज़मीन पर रख दी। वह उस कंपन को अपने शरीर में महसूस कर रही थी—और जैसे-जैसे सुर गहरे होते गए, वैसे-वैसे उसकी उंगलियाँ भी फर्श पर थिरकने लगीं। फिर उसने बिना कुछ कहे अपने स्केचबुक में एक चित्र बनाना शुरू किया—इस बार कोई चेहरा नहीं था, कोई आकृति नहीं—सिर्फ गोलाकार लहरें, एक के भीतर एक, जैसे पानी में पत्थर गिरने से उठी ध्वनि। उस क्षण में विवान को समझ में आया कि संगीत केवल आवाज़ नहीं है, वह एक अनुभूति है, जो नज़रों से, स्पर्श से, और मौन से भी व्यक्त की जा सकती है।

उस शाम को जब दोनों चर्च से बाहर निकले, तो शहर की रौशनी में एक अलग ही नमी थी—शायद हवा में एक कहानी गूँज रही थी जो सिर्फ उन्हीं दो लोगों को समझ में आ रही थी। विवान ने अन्वी से पूछा—“क्या तुम फिर से नृत्य करना चाहोगी?” अन्वी चौंकी, फिर उसने गर्दन झुका ली—“डरती हूँ… कि कहीं फिर आवाज़ चली जाए।” विवान ने उसकी हथेली थामकर कहा—“आवाज़ अगर डर हो, तो संगीत उसका साहस बन सकता है।” उसी रात, विवान ने अपने पुराने कंपोज़िशन को उठाया, और पहली बार उसमें नाद नहीं, मौन की संरचना की। कोई वाद्य यंत्र नहीं, बस हल्की-सी हवा, कुछ कंपन, और बहुत गहराई। उसने इसे ‘Echoes of Silence’ नाम दिया और अन्वी को भेज दिया। जब अन्वी ने वह ट्रैक महसूस किया, तो उसकी आँखों से आँसू बह निकले—क्योंकि यह वही संगीत था, जो उसकी आत्मा सुनती आई थी… बिना कानों के। वह जानती थी, अब उसकी खामोशियाँ भी बोलने लगी हैं, और शायद यह वही पहला कदम था, जिससे उनकी कहानी उस पार बढ़ रही थी—जहाँ ना भाषा की ज़रूरत थी, ना ध्वनि की, बस एक अनकही राग की, जो “संगीत के उस पार” गूंज रही थी।

उस शाम पहली बार अन्वी ने फिर से नृत्य की पोशाक पहनी थी। हल्के नीले रंग की सूती अनारकली, कमर तक झूलती चूड़ियाँ, और आँखों में एक हलकी-सी आशंका की परछाईं। कत्थक की थापों से लंबे समय तक दूरी बनाए रखने के बाद आज वह फिर उस रियाज़ कक्ष में खड़ी थी, जहाँ कभी उसकी माँ घंटों नृत्य किया करती थीं। विवान वहाँ पहले से मौजूद था—गिटार नहीं, बस अपने मोबाइल में रिकॉर्ड किए हुए कुछ कंपन वाले ट्रैक्स के साथ। आज वो बोलने वाला नहीं था, गाने वाला भी नहीं, बल्कि सिर्फ साथ देने वाला था, उसकी मौन लय में भागीदार। जैसे ही अन्वी ने आँखें बंद कीं और फ़र्श पर अपनी पहली थाप रखी, कमरे की हवा भारी हो उठी। हर पदचिन्ह, हर घूमाव, जैसे किसी भूले हुए सुर की तलाश में हों। वह बोल नहीं रही थी, न सुन रही थी, लेकिन उसके शरीर की हर हरकत जैसे कह रही थी—“मैं ज़िंदा हूँ, मैं महसूस करती हूँ, मैं संगीत हूँ।” विवान एक कोने में खड़ा उसे देखता रहा, और पहली बार उसने जाना कि मौन भी नृत्य कर सकता है।

नृत्य पूरा होते ही अन्वी ज़मीन पर बैठ गई, पसीने से भीगी, पर चेहरे पर संतोष की वो आभा जो उसने वर्षों से नहीं देखी थी। उसने स्केचबुक खोली और उसमें केवल एक शब्द लिखा—“धन्यवाद।” लेकिन विवान ने उसके हाथ से पेन लेकर नीचे कुछ और जोड़ दिया—“तुमने मुझे सिखाया कि संगीत सुनाने के लिए आवाज़ नहीं, आत्मा चाहिए।” उसी दिन दोनों ने मिलकर एक छोटा-सा प्रोजेक्ट शुरू करने का निर्णय लिया—एक ऐसा वीडियो, जिसमें न तो कोई शब्द होगा, न गायक की आवाज़, न कोई पारंपरिक धुन—सिर्फ थाप, गति, रंग और कंपन। अन्वी उसमें नृत्य करेगी, विवान कंपन और मौन ध्वनियों का मिश्रण तैयार करेगा। दोनों ने एक परित्यक्त थिएटर चुना—दीवारें पुरानी थीं, मगर वहाँ की गूंज अभी भी ज़िंदा थी। शूटिंग के पहले दिन जब कैमरा चालू हुआ, और अन्वी ने बिना किसी बीट के अपनी थापें शुरू कीं, तब हर कोई स्तब्ध रह गया। उसकी आँखों से बहती नमी, हाथों की भंगिमाओं में उभरते भाव, और पैरों की थापों से उठती कंपन—वो सब मिलकर एक ऐसी धुन बना रहे थे, जो आँखों से सुनी जाती थी और दिल से समझी जाती थी।

वीडियो पूरा होने के बाद उन्होंने उसे एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर साझा किया, और नाम दिया: “राग – Beyond Voice”। कोई प्रोमोशन नहीं, कोई मार्केटिंग नहीं, फिर भी वीडियो वायरल हो गया। हजारों लोग उस मौन संगीत से जुड़े, और हर किसी की टिप्पणी में एक ही बात थी—“यह रचना हमारी आत्मा को छू गई।” एक नाम ने सबका ध्यान खींचा—प्रसिद्ध निर्देशक अद्वैता रॉय—जिसका मैसेज आया: “मैं इस अनुभव को फिल्म में बदलना चाहती हूँ। क्या हम मिल सकते हैं?” यह क्षण उस सफ़र का पहला मोड़ था, जो अब सिर्फ उनके बीच की भावना तक सीमित नहीं था, बल्कि पूरी दुनिया के सामने एक नई भाषा में खुद को प्रकट करने जा रहा था। एक ऐसी भाषा जिसमें आवाज़ नहीं, लेकिन हर सुर मौजूद था। उस रात जब विवान और अन्वी चर्च की सीढ़ियों पर बैठे थे, तो दोनों के बीच कोई शब्द नहीं था, बस एक हल्की-सी मुस्कान थी, और अन्वी की उंगलियाँ धीरे-धीरे ज़मीन पर गोल कंपन बना रही थीं—मानो कह रही हों, “अब संगीत सिर्फ तुम्हारा नहीं, हमारा है… और यह जा रहा है… उस पार।”

मुंबई की चमचमाती फिल्मी दुनिया में जहाँ हर दिन हज़ारों आवाज़ें किसी पहचान की तलाश में गूंजती थीं, वहाँ अब एक ऐसी कहानी जन्म लेने जा रही थी जो बिना आवाज़ के भी दिलों को छूने का माद्दा रखती थी। निर्देशक अद्वैता रॉय से मिलने के बाद विवान और अन्वी की ज़िंदगी ने एक नया मोड़ लिया था। अद्वैता ने कहा, “हम एक ऐसी फिल्म बनाएँगे, जिसमें संवाद नहीं होंगे, गीत भी नहीं—बस एक रचना होगी, शरीर, रंग और स्पर्श की। यह तुम्हारी कहानी नहीं, एक पूरी पीढ़ी की आवाज़ होगी जो अब तक अनसुनी थी।” पहली बार किसी ने उनकी कहानी को इतना बड़े कैनवास पर लाने की बात की थी। शूटिंग की तैयारियाँ शुरू हुईं—बिना स्क्रिप्ट, बिना डायलॉग, बस भाव, संगीत और नृत्य की संरचना। हर दिन रिहर्सल होते, कभी विवान स्टूडियो में बैठा कंपन के लिए बेस तैयार करता, तो कभी अन्वी अकेले थिएटर में जाकर पैरों की थापों को दीवारों से टकराकर सुनती। दोनों की केमिस्ट्री अब एक नयी ऊँचाई पर पहुँच रही थी—न कोई प्रेम-स्वीकार, न कोई वादा, लेकिन फिर भी हर स्पर्श, हर नज़र, जैसे कह रही थी, “हम एक हैं।”

फिल्म का नाम रखा गया: “श्रुति के उस पार” — वह ‘श्रुति’ जो कानों से नहीं, आत्मा से सुनी जाती है। पहला सीन उसी पुराने चर्च से शुरू होता था जहाँ विवान ने अन्वी को पहली बार अपना संगीत ‘सुनाया’ था। कैमरे ने मौन के उस क्षण को कैद किया जब कोई बोल नहीं रहा था, पर फिर भी सब कुछ कहा जा रहा था। नृत्य के दृश्य, संगीत की लहरों में बहती हुई अन्वी की भावनाएँ, विवान की गिटार की थरथराती उंगलियाँ—हर फ्रेम, हर सेकंड जैसे एक नई भाषा गढ़ रहा था। और फिर, एक शाम, एक दृश्य में जब अन्वी को एक मंच पर अकेले खड़ा किया गया, और विवान बैकस्टेज से कंपन की रचना भेज रहा था—उसने पहली बार अपनी माँ की तरह नृत्य किया। पूरी टीम स्तब्ध खड़ी रही। कैमरा बंद होने के बाद भी कोई नहीं बोला, कोई ताली नहीं बजी—क्योंकि सब जानते थे कि यह क्षण किसी भी संवाद या सराहना से परे था। यही वह दिन था जब अद्वैता ने कहा, “हमने सिर्फ फिल्म नहीं बनाई, हमने मौन को बोलना सिखा दिया है।”

फिल्म के रैप-अप के बाद जब अंतिम दृश्य शूट हुआ, और सब थककर एक कोने में बैठ गए, विवान ने धीमे से अन्वी के कान के पीछे अपना हाथ रखा, हल्के से कंपन पैदा किया, और होंठों पर एक स्वर बिना बोले रखा। अन्वी ने अपनी आँखें बंद कीं और मुस्कुरा दी—यह उनकी भाषा थी, जिसे दुनिया अब पर्दे पर देखेगी। कुछ हफ्तों बाद जब फिल्म का प्रीमियर हुआ, तो थिएटर में सन्नाटा था—कोई बैकग्राउंड स्कोर नहीं, कोई डायलॉग नहीं—सिर्फ धड़कनों की तरह बजते कंपन, थापें, आँखों की भाषा और रंगों की मौन गूंज। फिल्म ख़त्म होते ही कुछ सेकंड तक सन्नाटा छाया रहा, फिर तालियाँ फूट पड़ीं—लोग रो रहे थे, कुछ मुस्कुरा रहे थे, और बहुत से बस चुपचाप बैठे थे, जैसे उन्हें पहली बार कोई ऐसा संगीत सुनाई दिया हो जो उनके भीतर पहले से था, लेकिन कभी पहचान नहीं पाया था। उस रात विवान और अन्वी एक छत पर खड़े होकर शहर की रौशनी देख रहे थे, और विवान ने अपनी हथेली में अन्वी की उँगलियाँ पकड़कर लिखा—“अब यह राग सिर्फ हमारे लिए नहीं, पूरे संसार के लिए है… और यही है असली संगीत—संगीत के उस पार।”

फिल्म “श्रुति के उस पार” की अप्रत्याशित सफलता ने न केवल विवान और अन्वी की दुनिया बदल दी, बल्कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री में एक नई चर्चा छेड़ दी थी—क्या बिना शब्दों के भी कहानी कही जा सकती है? क्या बिना आवाज़ के भी संगीत संभव है? मीडिया में अन्वी और विवान की जोड़ी को “राग और रंग की मौन आत्माएं” कहा जाने लगा। पुरस्कार समारोहों में फिल्म को सराहा गया, डॉक्यूमेंट्रीज बनीं, भाषण हुए, पर जो रिश्ता इन सबके केंद्र में था—वह अब भी उतना ही खामोश, उतना ही गहरा था। अन्वी को यह शोर असहज करता था, जबकि विवान इस बार शांत था, स्थिर, जैसे उसे अब कोई मंज़िल नहीं चाहिए थी—उसका संगीत पूरी हो चुकी एक तलाश था। एक दिन, जब विवान एक म्यूज़िक सेमिनार में आमंत्रित हुआ, जहाँ वो पहली बार “बोल” कर अपनी रचना के पीछे की सोच बताने वाला था, उसने मंच पर चढ़कर माइक की तरफ़ देखा और फिर पीछे हट गया। उसने बस एक छोटी सी कंपन रिकॉर्डिंग प्ले की, और वहाँ बैठे दर्शक हतप्रभ रह गए। यह था अन्वी के कदमों की थाप और उसके नृत्य के बीच की चुप्पी का संगीत, जो हर किसी को छू गया।

उस शाम दोनों एक पुराने बगीचे में बैठे थे, वही जगह जहाँ अन्वी अपनी माँ के साथ अक्सर आया करती थी, और जहाँ विवान कभी नहीं गया था। अन्वी आज कुछ अलग थी—उसकी आँखों में कुछ कहने की बेचैनी थी। उसने अपनी स्केचबुक खोली और एक चित्र दिखाया—दो इंसान, एक के पास गिटार, दूसरे के पाँव में घुंघरू, और उनके बीच से उठती हुई एक सफेद लहर जो दोनों को जोड़ रही थी। नीचे एक शब्द लिखा था—”हम”। विवान ने चित्र को कुछ देर तक देखा, फिर उसकी ओर देखे बिना कहा, “हम… क्या हैं, अन्वी? दो कलाकार जो एक-दूसरे को समझते हैं? या कुछ और?” अन्वी ने उसकी हथेली थामी और बहुत हल्के कंपन से ‘हाँ’ की एक धीमी, स्पष्ट रेखा खींच दी। फिर उसने अपनी उंगलियों से हवा में दो लहरें बनाईं—एक ऊपर जाती हुई, एक नीचे उतरती हुई—और जब दोनों बीच में मिलीं, तो उसकी आँखों में नमी तैर रही थी। विवान ने वह भाव पढ़ लिया था, बिना किसी स्पर्श के। उसने धीरे से उसका हाथ अपने दिल पर रखा, और कहा, “अगर कोई राग है जो जीवन भर बजता रहे, तो वह यही है—तुम और मैं, एक अनकहा सुर, जो शब्दों में कभी नहीं ढल सकता।”

उस रात, जब वे अपने-अपने रास्ते लौटे, शहर के ऊपर बादल छाए थे, हल्की सी बारिश की फुहारें थीं। विवान अपने कमरे की बालकनी में बैठा, गिटार उसकी गोद में था, लेकिन वह उसे बजा नहीं रहा था—बस थामे हुए था, जैसे किसी मित्र का हाथ पकड़े हो। उसने फोन उठाया, एक रिकॉर्डिंग शुरू की, और कुछ नहीं कहा—सिर्फ साँसों की लय रिकॉर्ड की, और फिर वो भेज दी अन्वी को। अन्वी ने जब सुनी, तो पलंग पर बैठी रही, कमरे की बत्तियाँ बुझा दीं, और कानों पर हाथ रखकर सिर्फ उस कंपन को महसूस करती रही जो उस साँस में छुपा था। यह प्रेम था, बिना उच्चारण के, बिना सीमा के, बिना परिभाषा के। एक ऐसा संगीत जो सिर्फ महसूस किया जा सकता था—ठीक उसी तरह जैसे पहली बारिश की गंध, किसी पुराने पन्ने से निकली धूल, या एक मूक नज़र जो पूरी आत्मा को पढ़ जाती है। अब उनका रिश्ता किसी मंज़िल का इंतज़ार नहीं कर रहा था, अब वह स्वयं एक राग बन गया था—जिसे गाना नहीं था, सुनना भी नहीं था… बस जीना था। यही था, उनका प्रेम। यही था उनका संगीत—संगीत के उस पार।

कुछ महीने बीत चुके थे। “श्रुति के उस पार” अब देश की सीमाएँ लांघ चुकी थी—अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इसे विशेष सराहना मिल रही थी। अन्वी और विवान को दुनिया भर से निमंत्रण मिलने लगे—मास्टरक्लास, सेमिनार, और शांति-संगीत समारोहों में प्रदर्शन के लिए। लेकिन इस चमकती सफलता के बीच, दोनों के भीतर एक नई बेचैनी भी आकार लेने लगी थी। विवान ने गौर किया कि अन्वी अब पहले की तरह सहज नहीं रही। वह मंच पर जाती, थापें देती, पर आँखों में वह वही चमक नहीं थी जो चर्च की पहली प्रस्तुति में दिखी थी। एक शाम जब दोनों पेरिस के एक होटल की बालकनी में बैठे थे, तो विवान ने धीरे से पूछा, “क्या अब भी वही संगीत भीतर गूंजता है?” अन्वी ने सिर झुका लिया और अपनी स्केचबुक में लिखा—“अब हर प्रस्तुति ‘दिखाने’ के लिए होती है, ‘महसूस’ करने के लिए नहीं।” विवान को जैसे एक झटका लगा—उसे पहली बार लगा कि शायद वे अपनी रचना को इतना बड़ा बना चुके हैं कि उसमें अपना मौलिक मौन कहीं खो गया है।

विवान ने उसी वक्त निर्णय लिया—कुछ समय के लिए सब कुछ रोक देना होगा। दोनों वापस भारत लौटे और कुछ दिन के लिए हिमालय के एक छोटे गाँव में रहने लगे, जहाँ न इंटरनेट था, न दर्शक, न कैमरे। वहाँ की हवाओं में एक आदिम शांति थी—जो शोर से परे थी। हर सुबह वे नदी किनारे बैठते, विवान पत्थरों पर थाप देता, और अन्वी मिट्टी में पैरों की छापें छोड़ती। धीरे-धीरे उनकी साँसों की लय फिर से एक होने लगी। एक रात उन्होंने गाँव के एक छोटे मंदिर में मिलकर प्रस्तुति दी—कोई रिकॉर्ड नहीं, कोई दर्शक नहीं, सिर्फ दीपों की लौ और हवाओं की सरगम। उस रात के बाद, अन्वी की आँखों में वही पुरानी चमक लौट आई थी। उसने पहली बार बिना पेन उठाए, बिना स्केचबुक खोले, बस हाथों की मुद्राओं में कहा—“अब मैं फिर से जी रही हूँ।” विवान ने उसका हाथ थामा और दोनों ने उस मंदिर के बाहर बैठे-बैठे चाँद को निहारा, जैसे वही उनका एकमात्र दर्शक हो। मौन फिर से उनका संगीत बन गया था—शोर से मुक्त, प्रदर्शन से मुक्त।

जब वे लौटे, तब किसी को कोई घोषणा नहीं दी गई। कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं हुई, कोई सोशल मीडिया पोस्ट नहीं। लेकिन कुछ हफ्तों बाद अचानक एक वीडियो सामने आया—नाम था: “आत्मराग”। यह उनके हिमालय प्रवास की कुछ झलकियाँ थीं, जिन्हें किसी ग्रामीण बच्चे ने मोबाइल पर रिकॉर्ड कर लिया था। वीडियो में कोई एडीटिंग नहीं थी, कोई बैकग्राउंड म्यूजिक नहीं—बस नदी की कलकल, पैरों की थाप और पहाड़ों की चुप्पी। और वह वीडियो भी वायरल हो गया, क्योंकि उसमें कुछ था जो बाकी किसी चीज़ में नहीं था—सच्चाई। जब लोगों ने देखा कि दो कलाकार अपनी चुप्पी में कितनी गहराई से संवाद कर सकते हैं, तो एक नया दृष्टिकोण जन्मा। यह सिर्फ कला नहीं थी, यह एक दर्शन था—”संगीत वह नहीं जो कानों से सुना जाए, बल्कि वह जो आत्मा को छुए।” अन्वी और विवान अब मंचों पर कम, और आत्मा के भीतर ज़्यादा प्रस्तुत होते थे। वे अब केवल कलाकार नहीं थे, बल्कि उन मौन रागों के वाहक बन चुके थे जो शब्दों से परे थे। उनकी यात्रा, एक मुलाक़ात से शुरू होकर, आज उस पड़ाव पर थी जहाँ दुनिया का हर संगीत रुककर सुनना चाहता था—संगीत के उस पार।

वक़्त बीतता गया। “आत्मराग” की सादगी ने न जाने कितने दिलों को छुआ, और अन्वी और विवान की जोड़ी एक प्रतीक बन गई—मौन प्रेम, मौन कला, और मौन संगीत का। लेकिन जहाँ बाहर की दुनिया उनकी एक झलक पाने के लिए तड़प रही थी, वहीं वे खुद शहरों की चकाचौंध से दूर, एक पहाड़ी कस्बे में एक साधारण जीवन जी रहे थे। विवान ने वहीं एक छोटा-सा “ध्वनि केंद्र” खोला, जहाँ वह बच्चों को ‘सुनने’ नहीं, ‘महसूस’ करने की शिक्षा देता था। गिटार अब भी उसके पास था, लेकिन वह अब स्टेज की नहीं, आत्मा की वादन के लिए बजता था। वहीं अन्वी ने एक रंग-विद्यालय शुरू किया, जहाँ मूकबधिर बच्चों को रंगों और स्पर्शों के ज़रिए रचना करना सिखाया जाता था। वह अब शब्दों से नहीं डरती थी, बल्कि मौन को एक नए रूप में व्यक्त करती थी। उनके छोटे से घर के आँगन में तुलसी का पौधा था, और शाम को दोनों वहीं बैठते—कभी कोई पेंटिंग, कभी कोई सुर, और कभी बस मौन में साथ।

एक दिन सुबह-सुबह विवान को एक चिट्ठी मिली—एक अंतरराष्ट्रीय शांति-संगीत महोत्सव में विशेष निमंत्रण। उन्हें आमंत्रित किया गया था “मानव संवेदना को अभिव्यक्त करने वाले सबसे सशक्त जोड़ी” के रूप में प्रस्तुति देने। विवान ने चिट्ठी अन्वी को दिखाई। वह कुछ देर तक चुप रही, फिर धीमे से मुस्कराई और एक पुरानी थाली से अपने घुंघरू निकाल लाई, जिन्हें वर्षों पहले उसने एक डिब्बे में रखकर बंद कर दिया था। विवान ने अपनी पुरानी रचना की धुन निकाली—वह पहली धुन जो उसने जुहू चौपाटी के बाद रची थी। और फिर दोनों ने मिलकर तैयारी शुरू की—एक आखिरी प्रस्तुति, एक आखिरी बार, दुनिया को वह सुना देने के लिए जिसे वे वर्षों से अपने भीतर जीते आए थे। उस शाम, जब वे मंच पर उतरे, वहाँ न हज़ारों की भीड़ थी, न बड़ी रौशनी—बस कुछ सच्चे श्रोता, जो सुनने नहीं, महसूस करने आए थे।

जैसे ही अन्वी ने पहली थाप दी और विवान ने पहली कंपन की लहर पैदा की, पूरे हॉल में एक निस्तब्धता छा गई। लोग रो नहीं रहे थे, ताली नहीं बजा रहे थे—वो बस ‘थामे’ जा रहे थे उस राग को, जो उनके भीतर उतर रहा था। प्रस्तुति ख़त्म होने के बाद, जब अन्वी ने हाथ जोड़े और विवान ने गिटार झुकाया, तब कोई शोर नहीं हुआ—केवल एक मौन लहर, जो दर्शकों की आँखों से बह रही थी। उस रात उन्होंने कोई पुरस्कार नहीं लिया, कोई भाषण नहीं दिया—बस मंच के पीछे जाकर एक-दूसरे का हाथ थामा, और बिना कुछ कहे, आँखों में देख कर महसूस किया कि अब उनका संगीत मुकम्मल हो गया है। यह अंत नहीं था—यह राग का विलय था उस मौन में, जहाँ शब्द भी पहुँचने से कतराते हैं। यही था उनका अंतिम आलाप, जो अब भी किसी सर्द हवा के साथ बहता है, कहीं दूर… संगीत के उस पार।

१०

आज से बीस साल बाद… हिमालय की तलहटी में बसे एक छोटे गाँव में एक सादे-से पत्थर पर लिखा है—
“राग का घर — संगीत के उस पार”
यही वो स्थान है जहाँ कभी दो आत्माएँ मिली थीं—एक संगीतकार, जो सुरों में खोया था, और एक नर्तकी, जो बिना सुने संगीत को जीती थी। अब यह जगह एक गुरुकुल की तरह बन गई है, जहाँ न कोई परीक्षा होती है, न कोई प्रमाणपत्र—सिर्फ मौन, संवेदना, और एहसास को समझने की साधना होती है। यहाँ हर साल देश-विदेश से बच्चे आते हैं, कुछ सुन सकते हैं, कुछ नहीं; कुछ बोल सकते हैं, कुछ कभी नहीं बोले—लेकिन सब एक ही भाषा में जुड़ते हैं—अनुभूति की भाषा।

गुरुकुल की सबसे खास कक्षा होती है “स्पर्श संगीत”—जहाँ बच्चों को गिटार, तबला या मृदंग नहीं दिया जाता, बल्कि ज़मीन, पानी, पत्तियों और हवा से रचना करना सिखाया जाता है। वहाँ एक पुस्तकालय भी है, पर उसमें किताबें नहीं—अन्वी के बनाए चित्र हैं, और विवान की रिकॉर्ड की गई कंपन—जिन्हें दीवारों पर हाथ रखकर ‘पढ़ा’ जाता है। दीवार पर एक चित्र टंगा है—दो आकृतियाँ, एक के पास गिटार, एक के पैरों में घुंघरू, और उनके बीच बहती एक मौन तरंग। नीचे सिर्फ एक शब्द लिखा है—“हम”।

कोई नहीं जानता विवान और अन्वी अब कहाँ हैं। कुछ कहते हैं वे पर्वतों में कहीं शांतिपूर्वक जीवन बिता रहे हैं, कुछ कहते हैं उन्होंने साधना में लीन होकर एक नई भाषा रच दी है। लेकिन जो आते हैं इस गुरुकुल में, वे उनकी उपस्थिति हर कंपन, हर थाप, और हर मौन मुस्कान में महसूस करते हैं। क्योंकि उनका प्रेम, उनका संगीत, और उनकी मौन विरासत अब शब्दों या सुरों में नहीं, बल्कि आत्मा में बसी है। और जब कोई बच्चा पहली बार अपनी उंगलियों से ज़मीन पर हल्का-सा वृत बनाता है, तो लगता है जैसे कोई नया सुर जन्म ले रहा हो—एक और राग, जो धीरे-धीरे बह जाएगा…
…संगीत के उस पार।

समाप्त

 

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