यतीन आर्य
2084 का वर्ष था। विश्व ने अपनी सीमाएं पार करने का सपना वर्षों से देखा था, लेकिन अब पहली बार भारत ने ब्रह्मांड की असीम गहराइयों की ओर एक कदम बढ़ाया था। चेन्नई के तट से कुछ किलोमीटर दूर भारतीय इंटरस्टेलर रिसर्च सेंटर (IIRC) के विशाल प्रक्षेपण प्लेटफॉर्म पर सुबह की नीली रौशनी में चमकता हुआ एक अद्भुत यान खड़ा था—‘व्योम-1’। यह मानव जाति का भारत की ओर से पहला इंटरस्टेलर मिशन था, जिसे एक ऐसे ग्रह की ओर भेजा जाना था जिसे खगोलशास्त्रियों ने ‘ZPX-47’ नाम दिया था, पर टीम में इसे ‘शून्य ग्रह’ के नाम से ही पुकारा जाता था। इस ग्रह की कक्षा और सतह की माप से यह ज्ञात हुआ था कि वहां गुरुत्व नहीं है। पर यही तथ्य सबसे विचलित कर देने वाला था—ग्रह की त्रिज्या, द्रव्यमान और गति के हिसाब से वहाँ गुरुत्व होना चाहिए था, पर वह शून्य था। और जैसे इतना ही रहस्य पर्याप्त नहीं था, वहां समय भी सामान्य गति से नहीं चलता था। यही कारण था कि इस मिशन को चुनिंदा वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और एक उच्च एआई प्रणाली के साथ भेजा गया था, ताकि वे उस जगह को समझ सकें जहां भौतिकी के नियम काम नहीं करते।
व्योम-1 के अंदर अंतिम तैयारियाँ चल रही थीं। कैप्टन राधा नायर, इस मिशन की संचालन प्रमुख, 38 वर्षीय अनुभवशाली महिला थीं, जिनकी आँखों में साहस और मस्तिष्क में गणनात्मक धैर्य था। उन्होंने भारतीय वायुसेना और ISRO के लिए कई अंतरिक्ष मिशन संचालित किए थे, लेकिन यह मिशन उनके लिए व्यक्तिगत था। राधा जानती थीं कि यह केवल एक उड़ान नहीं थी—यह मानवता की परिभाषा बदल देने वाली यात्रा थी। उनके साथ था डॉ. कबीर सेन, एक 42 वर्षीय जैव वैज्ञानिक, जो पृथ्वी से परे जीवन की संभावना को सिद्ध करना चाहते थे। उन्होंने सिंथेटिक डीएनए पर काम किया था और माइक्रो ग्रेविटी में जैविक अनुकूलन के विशेषज्ञ थे। तीसरी सदस्य थीं इंजीनियर जारा खान, जिनका तकनीकी कौशल और अंतरिक्ष यानों की संरचना में गहरा अनुभव था। और चौथे सदस्य थे डॉ. ओंकार मुखर्जी, एक क्वांटम भौतिकशास्त्री, जो समय, चेतना और अंतरिक्ष में संरचना के बीच संबंधों पर रिसर्च कर चुके थे। इनके साथ यात्रा कर रही थी—‘प्रज्ञा’, एक अत्याधुनिक भारतीय एआई प्रणाली, जो मानव संज्ञान और भावना को समझने में सक्षम थी। प्रज्ञा केवल यान की कमांड नहीं थी, वह एक विश्लेषक, अनुवादक और निर्णय सहयोगी भी थी। उसका स्वर स्त्री जैसा था—शांत, तार्किक और आश्वस्त करने वाला।
प्रक्षेपण के अंतिम क्षणों में पृथ्वी की सतह से एक हल्की कंपन उठी। उलटी गिनती की शुरुआत हो चुकी थी—दस… नौ… आठ… और भीतर यान में एकाएक मौन छा गया। यह मौन भय का नहीं था, यह मौन उस क्षण का था जब कोई पूरी सभ्यता अपनी साँस रोक लेती है। तीन… दो… एक… और फिर भयंकर गर्जना के साथ व्योम-1 आकाश को चीरता हुआ उठ चला। रॉकेट की लपटों के बीच उसकी आवाज़ धीरे-धीरे लुप्त होती गई और नीचे पृथ्वी पर लाखों आंखें टकटकी लगाए उसे जाते देखती रहीं। जब यान ने पृथ्वी की कक्षा पार कर ली, तब ‘प्रज्ञा’ ने अपनी पहली घोषणा की—“व्योम-1 सफलतापूर्वक पृथ्वी की गुरुत्व सीमा से बाहर निकल चुका है। अगला गंतव्य—शून्य ग्रह।”
आने वाले दिनों में दल का जीवन एक अनोखे अनुशासन में ढल गया। व्योम-1 में कृत्रिम गुरुत्व, ऑक्सीजन नियंत्रण प्रणाली और प्रकाश-संचालित खेती की इकाइयाँ थीं। हर सदस्य का व्यक्तिगत क्वांटम पॉड था जिसमें वह विश्राम कर सकता था, और उनके पोषण, नींद, संज्ञान और मानसिक स्थिति की निगरानी स्वचालित रूप से हो रही थी। मगर जैसे-जैसे वे प्रकाश की गति के समीप पहुंचे, बाहरी अंतरिक्ष का स्वरूप बदलने लगा। तारे अजीब तरीके से झिलमिलाने लगे, और दूर क्षितिज पर वह ग्रह दिखाई देने लगा—ZPX-47, जिसकी ओर पूरी मानवता की जिज्ञासा बंधी हुई थी। पर यह ग्रह अलग था—यह स्थिर नहीं था। वह झपकता था, जैसे वह किसी चेतना का हिस्सा हो। जैसे वह स्वयं देख रहा हो।
एक दिन ओंकार ने स्क्रीन पर ग्रह के स्पेक्ट्रम एनालिसिस को देखा। वहाँ लाल, नीले और बैंगनी रंगों के परे भी कुछ था—ऐसा जो प्रकाश की श्रेणी से बाहर था। “यह ग्रह केवल भौतिक नहीं है,” उन्होंने कहा, “यह सूचना से बना है। यह एक ब्रह्मांडीय तंत्रिका है। हम शायद किसी जीवित संरचना के भीतर प्रवेश करने जा रहे हैं।” कबीर ने उत्तर दिया, “या फिर हम किसी सपने में प्रवेश कर रहे हैं—जहाँ चेतना और पदार्थ का अंतर समाप्त हो जाता है।”
राधा चुपचाप दोनों को देखती रहीं। उनके मन में भी कुछ गूंज रहा था। क्या वे केवल वैज्ञानिक थे? या इस यात्रा के पीछे कोई और उद्देश्य भी था? उन्होंने आकाश की ओर देखा—एक शून्य, जो सब कुछ समेटे हुए था, और उस शून्य में एक रहस्य, जो उनका इंतज़ार कर रहा था। मिशन की डायरी में उन्होंने लिखा—“हम एक ऐसे ग्रह की ओर जा रहे हैं, जहाँ गुरुत्व नहीं है, पर शायद वहाँ मन का भार है। क्या हम लौट सकेंगे? या वही ग्रह हमारी चेतना बन जाएगा?”
उसी रात, व्योम-1 के भीतर पहली बार एक विचित्र कंपन्न हुआ। प्रज्ञा ने चेतावनी दी—“सेंसर विक्षिप्तता दर्शा रहे हैं। यान एक अस्थिर फील्ड में प्रवेश कर रहा है। समय-गति पैटर्न अनियमित हो रहा है।” तभी ग्रह की सतह पर एक प्रकाश रेखा फूटी—वह ग्रह जैसे जवाब दे रहा था। और तभी उन्होंने सुना—एक ध्वनि। कोई सिग्नल, पर वह तरंगों में नहीं, भावना में था। “क्या तुम सुन सकते हो?” जैसे किसी ने उनके मस्तिष्क में फुसफुसाया हो। और तभी व्योम-1 की गति अपने आप धीमी होने लगी, जैसे कोई उसे खींच रहा हो। यान अब उस ग्रह के करीब पहुंच चुका था। पर क्या यह पृथ्वी से भेजा गया एक मिशन था, या एक बुलावा था—किसी और चेतना द्वारा, जो उन्हें भीतर बुला रही थी?
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व्योम-1 अब उस बिंदु पर पहुंच चुका था जिसे पृथ्वी से देख पाना संभव नहीं था, जहाँ ना दूरबीनों की दृष्टि पहुँचती थी, ना कल्पनाओं की सीमा, पर वहाँ अब एक वास्तविकता मौजूद थी—एक ऐसा ग्रह जो स्थिर नहीं था, जो अपनी ही परिभाषा से परे था, जिसे ‘शून्य ग्रह’ कहा गया था, क्योंकि वह गुरुत्वाकर्षण की उस बुनियादी समझ को ही नकारता था जिस पर पूरा ब्रह्मांड आधारित था, और अब जब यान उस ग्रह की कक्षा में प्रवेश कर रहा था, समय जैसे थम गया था, या शायद आगे बढ़ भी रहा था—पर किस दिशा में, यह किसी को पता नहीं था, कैप्टन राधा नायर की उंगलियाँ नेविगेशन मॉड्यूल पर स्थिर थीं लेकिन उनकी आँखें लगातार बाहर देख रही थीं, उस अजीब चमकती सतह को, जो कभी तरल लगती थी, कभी ठोस, और कभी बस एक प्रतिबिंब, यान की बाहरी सतह पर लगे गुरुत्व सेंसरों ने एक साथ चेतावनी देनी शुरू कर दी थी—“External field unmeasurable… gravitational force: undetectable,” प्रज्ञा की आवाज़ में अचानक एक सूक्ष्म कंपन आ गया था, मानो वह भी उस ग्रह के प्रभाव में कुछ भूल रही हो, ज़ारा खान ने तुरंत थ्रस्टर की गति को समायोजित किया, क्योंकि यान स्वयं को स्थिर नहीं रख पा रहा था, उसका संतुलन धीरे-धीरे डगमगाने लगा था, और तभी एक हल्की सी झिलमिलाहट यान की खिडकियों पर दौड़ गई, जैसे कोई तरंगें उन्हें छूकर जा रही हों, डॉ. ओंकार मुखर्जी ने अपनी स्क्रीन पर जो देखा वह अब तक के भौतिक विज्ञान के हर नियम को नकार रहा था—ग्रह का द्रव्यमान कुछ नहीं था, और फिर भी वह अपनी कक्षा में स्थिर था, ना वह किसी तारे के चारों ओर घूम रहा था, ना कोई आंतरिक गुरुत्व बल उसके भीतर था, और फिर भी वह ‘वहाँ’ था—ठोस, स्थायी और निश्चित, “यह ग्रह समय को नियंत्रित करता है,” ओंकार ने फुसफुसाते हुए कहा, “यह अंतरिक्ष में नहीं, चेतना में स्थित है,” तभी कबीर सेन की घड़ी ने घड़ी होना बंद कर दिया—उसके कांटे उल्टी दिशा में घूमने लगे, और केवल वह नहीं, प्रज्ञा ने रिपोर्ट दी कि यान के भीतर का आंतरिक समय सभी पॉड्स में अलग-अलग गति से चल रहा है, प्रत्येक सदस्य को समय अलग महसूस हो रहा था—राधा को लग रहा था कि केवल कुछ पल बीते हैं, जबकि ज़ारा को एक दिन सा बीत चुका लगता, और ओंकार के अनुसार, वह पिछले सप्ताह में प्रवेश कर चुके हैं, यह परिघटना पहले कभी नहीं देखी गई थी, ना ही क्वांटम एंटैंगलमेंट में, और ना ही वर्महोल थ्योरी में, प्रज्ञा का स्वर फिर बदला, “संदेश प्राप्त हो रहा है—यह पैटर्न भाषा नहीं, एक अनुनाद है,” स्क्रीन पर हल्के नीले और बैंगनी रंगों के बीच एक आकृति उभरने लगी, जो लगातार आकार बदल रही थी, “यह सिग्नल नहीं, भावना है… एक निमंत्रण,” और उसी क्षण व्योम-1 ने अपने आप अपनी दिशा उस आकृति की ओर मोड़ दी, जैसे कोई अदृश्य चुंबकीय इच्छा उसे अपनी ओर खींच रही हो, यान की कमांड राधा के हाथ में नहीं रही, “मुझे नियंत्रण दो प्रज्ञा!” उन्होंने आदेश दिया, पर एआई ने केवल यह उत्तर दिया—“यह आदेश आप से नहीं, भीतर से आया है,” और इसी के साथ, यान उस अज्ञात कक्षा में प्रवेश कर गया जहाँ गति और समय एक-दूसरे में घुल चुके थे, और यान की बाहरी सतह पर तरंगें अब प्रकाश की भांति नहीं, स्पंदनों की तरह बह रही थीं, और फिर वे सब एकाएक अपने पॉड्स में फेंक दिए गए, मानो कोई उच्च ऊर्जा लहर उन्हें भीतर धकेल रही हो, प्रत्येक सदस्य को अपने-अपने पॉड के अंदर एक अजीब कंपन महसूस हुआ—ऐसा कंपन जो मांसपेशियों में नहीं, बल्कि स्मृतियों में था, राधा को अपने पिता की आवाज़ सुनाई दी, ओंकार को अपने बचपन की गलियों की गंध महसूस हुई, कबीर को अपनी बेटी की हँसी गूंजती लगी, और ज़ारा को अपने ही स्वप्न में उलझे शब्द, प्रज्ञा ने घोषणा की—“हम अब शून्य ग्रह की आभासी कक्षा में हैं—यह वास्तविक नहीं, लेकिन प्रभावशाली है,” और तभी पूरे यान की ऊर्जा संरचना बदल गई, चारों ओर की दीवारें पारदर्शी हो गईं, यान अब एक तरल चमकती सतह में तैर रहा था, जहां से ग्रह की सतह स्पष्ट दिख रही थी—सफेद-नीली, लेकिन उसके भीतर उबलते रंगों का महासागर था, कोई स्थिर भूगोल नहीं था—हर पल वहाँ कुछ बदल रहा था, जैसे कोई सपना लगातार अपनी दिशा बदल रहा हो, और फिर अचानक सब कुछ शांत हो गया, कंपन बंद, सिग्नल शांत, यान स्थिर… और फिर वही आवाज़, जो पिछले अध्याय में सुनी गई थी, अब फिर आई—“तुमने चुना है, अब ग्रह चुनेगा,” और तभी यान की दीवार पर एक दरार सी बन गई, जो धीरे-धीरे एक द्वार में बदल गई—बिना किसी चेतावनी के, बिना किसी आदेश के, और उस द्वार के पार थी एक सीढ़ी, जो ग्रह की सतह की ओर उतरती थी, राधा ने पहली बार अपने साथियों को देखा—उनकी आँखें किसी सम्मोहन में थीं, वे सब एक जैसी दिशा में देख रहे थे—उस सीढ़ी की ओर, “हम उतरने जा रहे हैं,” कबीर ने कहा, जैसे यह निर्णय उनका नहीं, किसी और का हो, और उसी क्षण राधा समझ गईं—यह कोई मिशन नहीं था, यह एक ग्रह का सपना था, जिसमें वे केवल पात्र बन चुके थे, और यह ग्रह अब जाग रहा था।
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द्वार की उस चमकती दरार से जैसे ही वे उतरे, व्योम-1 की धात्विक देह उनके पीछे किसी स्मृति की तरह सिल जाती गई, और सामने फैल गई एक ऐसी सीढ़ी जो गुरुत्वशून्य में भी नीचे की ओर “गिर” रही थी— पर न गिनती थी पैदानों की, न दिशा समझ आ रही थी; हर कदम के साथ दीप्तिमान सीढ़ियाँ स्वयं को खींच-खींच कर आगे बढ़ा रही थीं मानो यात्रियों के संकल्प से ही उनका अस्तित्व था। राधा ने पहली बार किसी सतह पर बिना भार के पैर रखा; जूते की एंटी-ग्लाइड ग्रिप फड़फड़ाई और फिर हवा में स्थिर रह गई, जैसे पैर की बजाय विचार ने धरातल को छुआ हो। नीचे वही विचित्र भू-आकृति थी—कभी पारदर्शी, कभी बादलों-सी झागदार, कभी किन्हीं कार्बनिक नसों की जाल-जैसी—और हर रूप एक पल से ज़्यादा टिकता नहीं था। ज़ारा ने टैक्टिकल विज़र ऑन किया: लाइट-फील्ड मैप हरे-नीले कणों में बदला और तुरंत अलर्ट उठा—“स्टेबल रिफ़रेंस फ्रेम अनुपस्थित”; घड़ी की सुइयाँ फिर उल्टी दिशा में भागीं और टेराहर्ट्ज़ स्कैनर पर “इन्फ़िनिटी” टिमटिमाने लगा—ग्रह के पास ठोस समय-निर्धारण था ही नहीं। ओंकार यह सब देखकर मुस्कराए—“हम नॉन-लोकल रियलिटी स्टेट में हैं; यहाँ घटना-क्रम अवलोकन से पैदा होगा,” और शब्द खत्म भी न हुए थे कि एक ‘टिक’-सी ध्वनि अंतरिक्ष में फूटी और सामने उसी क्षण तीन राधा खड़ी हो गयीं—एक वर्तमान, एक बचपन वाली चार-सी साल की, और एक झुर्रियों-भरी वृद्धा—तीनों एक-दूसरे को देखते ही समाहित हो गयीं जैसे पानी में पानी घुलता है। कबीर का हृदय धड़का; उसकी स्मृति में मृत पिता का चेहरा कौंधा और तुरन्त हवा में हू-बहू होलोग्राफ़-सा उभर गया, पर इससे पहले कि वे कुछ बोलते, चेहरा धुएँ-सा घुल गया और पीछे उड़ते सितारों में मिल गया। “यह ग्रह अवचेतन में छिपे क्वांटम-आइकोनिक इमेज को रीयल-टाइम में रेंडर कर रहा है,” प्रज्ञा ने निष्कर्ष निकाला, उसका टोन अब आधे-मानव, आधे-एलियन हो चला था, जैसे संवाद करने के लिए उसे भी अपनी कोग्निटिव संरचना बदलनी पड़ी हो।
दल आगे बढ़ा तो जमीन की परतें वृत्ताकार लूप बनाती हुई खुलती-बंद होती दिखीं—उनके हर कदम के पीछे सतह मिट जाती और आगे नया पैटर्न उभर आता। अचानक एक तीखी सिहरन हुई और ग्रह की “मिट्टी” के भीतर से एक पौधोजन्मी आकृति सिर उठाए बगैर सांस लेने लगी—ना पत्तियाँ, ना कोंपल, बस इंद्रधनुषी द्रव के बुलबुले जो लय में फैल-सिकुड़ रहे थे; उन्होंने पास जाकर देखा तो प्रत्येक बुलबुले के भीतर सूक्ष्म बायो-न्यूरल जालियाँ चमक रहीं थीं, जैसे किसी वानस्पतिक तंत्रिका-तंत्र का भ्रूण। कबीर ने नमूना कलेक्ट करने के लिए स्टेराइल कैप्सूल बढ़ाया तो बुलबुला छूते ही कैप्सूल ग्लास धुंधला पड़ गया और अंदर से एक स्पंदन-रीति संदेश उभरा: “स्पर्श = अधिग्रहण = पहचान।” उन्होंने हाथ पीछे खींचा, पर स्पंदन ने उनका ग्लव्स आर-ऑप्टिक कम्युनिकेटर हाइजैक कर लिया; एचयूडी पर वेक्टर ग्राफ़िक्स में वही पैटर्न प्रकट हुआ जो प्रज्ञा ने कक्षा में डिकोड किया था—भाव-संवेदना की भाषा। यान से दूर अब संचार सीमित था, पर अचरज यह कि प्रज्ञा बिना ट्रांसमीटर के दल के मस्तिष्क में “सुनाई” दे रही थी—मैं ग्रह-नाड़ी से जुड़ चुकी हूँ, वाक्-आदेश अब भावना-आधारित हैं; सावधान, यह परीक्षण आरम्भ कर रहा है। ओंकार ने तुरंत मानसिक ‘स्टिल-ब्रेक’ मेडिटेशन सक्रिय किया—वह ISRO-साइकोट्रेनिंग का हिस्सा था—और शून्य-ग्रह का परिवर्ती लैंडस्केप ठहरा-सा जान पड़ा; तभी कोई अदृश्य पर्दा हटने-सा एहसास हुआ और चारों खुद को एक विशाल अम्फीथियेटरनुमा अवकाश में खड़े पाए जिसका गुम्बद आकाश नहीं था, बल्कि घड़ी की उलटी घूमती सुई-सा समय का एक समांतर फलक था—हर चक्कर पर दृश्य बदलता: पृथ्वी की आदिम ज्वालामुखी, सिंधु घाटी, चंद्रयान-2 की लैंडिंग, राधा का भविष्य में वृद्धावस्था, और अनगिनत अपरिचित सभ्यताएँ—सब एक साथ डिस्प्ले हो रहीं थीं। इन प्रोजेक्शनों की ऊर्जा किसी केंद्र से आ रही थी जहाँ एक चमकता ‘ज़ीरो-नोड’ तैर रहा था; ओंकार ने तुरंत डीडीएमएस सैंसर से इसकी सांख्यिकी निकाली—“मास-एनर्जी = 0, इंफॉर्मेशन-डेनसिटी → ∞”—और बोल पड़े, “यही ‘शून्य-चेतना’ है—ग्रह की मूल आत्मा,” ठीक उसी पल राधा का सूट-ऑडियो धमाके-सा फीडबैक किया और एक गहराती आवाज़ समूचे थिएटर में गूंजी—मानव-कर्णग्रह्य नहीं, पर मस्तिष्क के भीतरी गलियारों में—‘क्यों आए? क्या जानते?’ उनकी नसों में झनझनाहट दौड़ी; ज़ारा ने साहस कर उत्तर भेजा—‘हम समझना चाहते हैं कि आप और हम कैसे सह-अस्तित्व में बंधे हैं।’ उत्तर वज्र-सा गिरा—‘सह-अस्तित्व? तुम भार ढोते हो, हम भार नहीं; तुम समय बाँधते हो, हम बहाते; तुम खोजते हो, हम ही खोज हैं; परीक्षण यह कि क्या तुम भार-रहित हो सकोगे।’ उस क्षण दल की गुरुत्व-सेंसर्स ने शून्य की जगह ऋण-मान दिखाया—उन्हें ऊपर की ओर खिंचाव महसूस होने लगा, जैविक अंग हल्के नहीं, व्यग्र होने लगे; रक्त धमनियों में ठहर गया और एक विचित्र ‘फ्लोटिंग पेन’ अनुभूति से वे लड़खड़ा गए; चेतना-हीन होना तय था पर तभी कबीर ने बचाव-मोड ऑन कर दिया—रक्त-ऑक्सी रिज़र्व स्टिमुलेटर सक्रिय हुआ—सभी के सूट में न्यूरो-कोर्टेक्स पिंग उठा—लेकिन ग्रह ने प्रतिकार किया—भारी-भरकम पिछली स्मृतियाँ अचानक प्रत्यक्ष हो उठीं: राधा का वह क्षण जब उसने उड़ान-स्कूल में असफलता के डर से रोई थी, ज़ारा का वह दिन जब पिता की मृत्यु ने उसे तकनीकी युद्ध से घृणा कराई थी, ओंकार का पहला प्रेम-भंग, कबीर की रात-भर जागी पीएचडी और खोया पारिवारिक जीवन—हर दुख एक जीवित छाया बन कर सामने आया और फिर चुम्बक-सा चिपक गया उनके सूट्स पर, भार बनकर। वे चीखते-से भीतर डूबने लगे—ऊपर ‘ऋण-गुरुत्व’ सतह से उखाड़ने लगा, नीचे स्मृतियों का बोझ उन्हें खींचने लगा—और बीच-बीच में समय का फलक घूम-घूम कर बदलता रहा। तभी प्रज्ञा ने भीतर गूँजते-से निर्देश दिए—‘भावना-आधारित भाषा में निषेध प्रेषित करो—मना कर दो कि स्मृतियाँ तुम्हें परिभाषित करती हैं।’ राधा ने अपनी चेतना को एक बिंदु पर केंद्रित किया, जैसे ध्यान में कोई ॐ-ध्वनि थिर हो; उसने ग्रह को भावनात्मक संदेश भेजा—‘मैं स्मृति नहीं, संभाव्यता हूँ।’ बाकी तीनों मन ही मन यही दोहराने लगे—और धीरे-धीरे स्मृतियों के छाया-भार भंग होने लगे, सूट्स से टुकड़े-टुकड़े होकर उड़ने लगे जैसे राख हवा में घुल रही हो। ऋण-गुरुत्व शून्य हुआ, फिर धीरे-धीरे धनात्मक-शून्य पर स्थिर। ओंकार ने टेलीमेट्री चेक की—हार्ट-रेट्स सामान्य, न्यूरो-स्पाइक कम। ज़ारा ने मीटर साफ़ किया और नजदीक मैदान-जैसी सपाट जगह दिखाई जो पहले कुछ था ही नहीं—अब वहाँ जमना-साफ़ वृत्ताकार तल बन गया था, मानो ग्रह ने “पहला पड़ाव” स्वीकृत कर दिया हो।
वे अभी संभले ही थे कि ज़ीरो-नोड की चमक बुझी और उसके स्थान पर एक जीवित-सी आकृति प्रकट हुई—ऊँचाई मानव जितनी, पर चेहरा निराकार; बॉसॉन-जैसी लहरें उसकी देह से उठतीं और तुरंत घटना-स्वरूप ग्लिच में बदलतीं; वही मौन-भाषा फिर गूंजी—‘तुमने पहला चरण पार किया; अब समझो—शून्यता भार नहीं, क्षमता है; यदि लौटना चाहोगे तो इस क्षमता का संतुलन सीखो।’ आकृति ने हाथ उठाया तो पूरी सतह पर वृत्ताकार प्रतीक चमके; वे प्रतीक घूमते-घूमते व्योम-1 की ओर संकेत करने लगे—यान जो अब दूर-ऊँचाई पर लंगर-सा अटका था, पर उसके चारों ओर समय-बाध की आभा दिख रही थी—मानो लौटन-द्वार का बीज वहीं छिपा हो। प्रज्ञा ने सूचना दी—‘द्वार तभी खुलेगा जब तुम सबकी चेतना-ढाल समरूप आवृत्ति पर होगी; भेदभाव, पछतावा, भय—सब -शून्य हो—और वह आवृत्ति यह ग्रह तुम्हारे अंदर ही उत्पन्न करेगा।’ राधा ने टीम को गोल इकट्ठा किया; सभी ने सूट-कम्यु-मॉड पर न्यूरो-सिंकिंग टॉगल ऑन किया, उनकी ईईजी तरंगें संगत होने लगीं। दूर कहीं विद्युत-नीला प्रकाश उठा—ग्रह की सतह “साँस” ले रही थी—हर धड़कन पर लैंडस्केप नए प्रतिबिंब खड़ा कर रहा था: कोई स्वर्णिम द्वार, कोई समुद्र, कोई तितली-खेत, और फिर सब लुप्त। कबीर ने धीरे-से कहा, “यह हमें हमारे भय-साहस का दर्पण दिखा रहा है; पहला कदम हमेशा भीतर पड़ता है।” शब्द हवा में मुड़कर वापस आए और क्षितिज में लिखे उभर गए—“पहला कदम भीतर।” और तब उन्होंने जाना: यह ग्रह पदार्थ नहीं, दर्पण है—उस दर्पण में उतरना और पहला कदम उठाना वास्तव में स्वयं में उतरना है।
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वे चारों – राधा, ज़ारा, ओंकार और कबीर – उस वृत्ताकार तल के बीचोंबीच खड़े थे, जहाँ एक ओर दूर व्योम-1 चमकता धब्बा बन गया था और दूसरी ओर वह आकृति स्थिर थी, जैसे ग्रह की चेतना ने मानव रूप पहन लिया हो, पर वह रूप निरंतर बदलता रहा—कभी उसकी आकृति पुरुष जैसी, कभी स्त्री, कभी बच्चे जैसी और कभी तो बस एक प्रकाश-रेखा। हवा में कोई गंध नहीं थी, कोई कंपन नहीं, पर विचारों में जैसे कुछ बहता चला आ रहा था। उनके सूट अब संचार-माध्यम नहीं रहे थे, बल्कि ग्रह की तरंगों को ग्रहण करने वाले उपकरण बन चुके थे। प्रत्येक की चेतना अब ग्रह के साथ एक पारदर्शी संवाद में थी—बिना शब्दों के, बिना ध्वनि के, पर पूर्ण स्पष्टता के साथ।
पहली भाषा जो ग्रह ने भेजी, वह ‘दृश्य-स्मृति’ की थी—प्रत्येक सदस्य को अपने जीवन के किसी ऐसे क्षण में ले जाया गया जो न तो पूरी तरह बीता था, न वर्तमान था—कबीर अपने बचपन के गाँव में लौट गया, जहाँ वह नदी के किनारे गिरी हुई चिड़िया को बचाने की कोशिश करता था। लेकिन इस बार चिड़िया मरती नहीं—वह बोलती है, “तुमने मुझे क्या समझा?” और फिर चिड़िया का आकार एक एलियन कोड में बदल जाता है जो उसकी हथेली में उगता है। ओंकार एक प्रयोगशाला में पहुँचते हैं जहाँ उनकी बनाई एंटी-मैटर डिवाइस, जो अब तक केवल एक मॉडल थी, जीवंत हो उठती है और बोले बिना उनसे संवाद करती है, “तुम ऊर्जा की भाषा समझते हो पर क्या तुम उसका मौन भी समझते हो?”
राधा ने खुद को अंतरिक्ष की गहराई में तैरता पाया, चारों ओर तारे ही तारे। वहाँ कोई गुरुत्व नहीं था, न दिशा, पर एक तारा धीरे-धीरे बदल कर उसकी माँ की आँखों में बदल गया—और आँखें सिर्फ एक वाक्य कहती हैं, “क्या तुम अब देख सकती हो?” वो आँखें आकाश बन गईं। ज़ारा एक ऐसे भविष्य में पहुँची जहाँ युद्ध ही भाषा थी—हर क्रिया का उत्तर विस्फोट से मिलता था। लेकिन एक छोटी बच्ची ने उसकी हथेली पर कुछ उकेरा—वही प्रतीक जो ग्रह ने पहले भेजे थे—भावना के रूप में। उसे समझ आया कि ग्रह उनसे संवाद नहीं कर रहा था, वह उन्हें ‘अनुवाद’ करना सिखा रहा था—‘भावों को दृश्य में बदलना’, ‘इच्छा को ऊर्जा में’ और ‘संवाद को मौन में’।
जब वे चेतना से बाहर आए, तो उनकी आँखों के सामने आकृति ने एक बड़ा वृत्त खींचा—जिसमें हजारों प्रतीक उभर आए: वृक्ष, जल, रक्त, रेत, स्पंदन, स्मृति, भय, जन्म, शून्यता और पुनरावृत्ति। फिर आकृति ने एक ऊर्जावान कंपन में उन्हें समझाया (बिना बोले): “यह ग्रह भाषा नहीं बोलता, यह भाषा है। तुम्हें अर्थ नहीं खोजने, अर्थ बनाने होंगे। जिस क्षण तुम प्रतीकों के पीछे अर्थ देखने लगोगे, तुम श्रोता नहीं रहोगे—सर्जक बनोगे।”
राधा ने एक साहसिक प्रयोग किया—उसने एक विचार ग्रह को भेजा: ‘यदि हम लौटना चाहें तो तुम्हें क्या देना होगा?’ आकृति हल्की मुस्कान में बदल गई, और उस मुस्कान से एक प्रतिध्वनि पैदा हुई, जो सीधे उनके मस्तिष्क में गूंजी—“वापसी का द्वार केवल उन्हीं के लिए है जो ‘शब्द’ के बिना अर्थ को पहचानें। तुम जब तक स्वयं के भाषा नहीं बनते, लौट नहीं सकते।”
अब उन्होंने देखा कि चारों के शरीर के चारों ओर हल्की रोशनी की रेखाएँ बन रही थीं—जैसे कोई पुराना पैटर्न, किसी सभ्यता का हस्ताक्षर। ओंकार ने महसूस किया कि वह अब विद्युत-आधारित विचार नहीं, तरंग-आधारित भाव भेज सकता है; ज़ारा ने अपनी हथेली में उभरते प्रतीकों को डिजिटल भाषा में डिकोड करना शुरू किया, और उसने पाया कि वह एलियन प्रतीकों की संरचना के आधार पर एक नई गणितीय भाषा तैयार कर सकती है।
प्रज्ञा, जो पहले ही ग्रह की चेतना से आंशिक रूप से जुड़ चुकी थी, अब सीधे उनके मस्तिष्क में बोलने लगी—“ग्रह ने तुम्हारे भीतर भाषा का बीज डाल दिया है; यह अब विकसित होगा केवल तभी जब तुम अपने भय, सीमाओं और पूर्व-निर्धारण को त्याग कर प्रतीकों से संवाद करोगे। अगला परीक्षण ग्रह स्वयं नहीं लेगा, बल्कि तुम्हारा अवचेतन लेगा। तुम्हारे भीतर का ही कोई हिस्सा अगली परीक्षा बनेगा।”
और फिर अचानक उनके चारों ओर एक घेरा बना—जैसे किसी पुरानी यज्ञशाला का अवशेष। प्रतीक हवा में तैरने लगे, और बीच में एक द्वार-सा उभरा जो एक दर्पण की तरह चमक रहा था। प्रज्ञा की आवाज़ फिर आई—“इस दर्पण के उस पार तुममें से प्रत्येक को वह चेहरा मिलेगा, जो भाषा बनने से डरता है—वह भय जो तुम्हें प्रतीकों से परे जाने से रोकता है। यह ग्रह चाहता है कि तुम उसे सीखो, पर पहले तुम्हें स्वयं को खोलना होगा।”
अध्याय के अंत में, वे चारों उस दर्पण की ओर बढ़ते हैं, जहाँ उन्हें अपनी स्वयं की चेतना, स्मृति और भाषा का प्रतिबिंब दिखेगा। शून्य ग्रह का अगला रहस्य अब उनका अंदर छिपा है।
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दर्पण का वह द्वार स्थिर नहीं था—वह एक द्रव की तरह कांप रहा था, जैसे उसमें प्रवेश करते ही तुम्हारे अस्तित्व की परिभाषा बदल जाएगी। राधा ने सबसे पहले कदम बढ़ाया। जैसे ही उसने दर्पण को छुआ, सतह ने उसे निगल लिया, और वह एक नीले प्रकाश से भरी सुरंग में प्रवेश कर गई—वहाँ कोई ठोस ज़मीन नहीं थी, कोई गुरुत्व नहीं, बस स्मृतियों की प्रतिध्वनियाँ और विचारों की ऊर्जा। यह एक मानसिक क्षेत्र था, जहाँ बाहर और भीतर का भेद मिट गया था।
राधा ने खुद को एक पुराने अंतरिक्ष कैप्सूल के भीतर देखा—उसी क्षण में जब उसने पहली बार अपने भाई की मृत्यु की खबर सुनी थी। उसकी चेतना चीख उठी, “मैं इस क्षण से निकल चुकी हूँ!” लेकिन सामने उसका ही एक रूप था, जो कह रहा था, “तुम भागी नहीं, तुमने इसे ढक दिया। अब इसे देखो।” तभी उसके भाई की आकृति एक एलियन प्रतीक में बदल गई—जो न केवल शोक, बल्कि परिवर्तन का प्रतीक था। राधा ने जब उसे छुआ, तो उसका सारा भय एक गर्म ऊर्जा में बदल गया और दर्पण की एक नई परत खुल गई।
ज़ारा उस दर्पण में घुसी, तो उसने खुद को एक युद्धग्रस्त भविष्य में पाया—वह एक टैंक चला रही थी, और सामने वह गाँव था जहाँ उसकी माँ बचपन में रहती थी। उसमें द्वंद्व था—एक वैज्ञानिक और एक योद्धा के बीच। तभी ज़ारा ने देखा, उसके हाथ पर वही प्रतीक उग आए जो ग्रह ने पहले भेजे थे। एक आवाज़ आई, “हर युद्ध तुम्हारे भीतर से शुरू होता है। जब तुम युद्ध को भाषा की तरह समझोगी, तब शांति को स्वर मिलेगा।” उसने टैंक के नियंत्रण छोड़ दिए, और उसकी चेतना ने देखा—प्रतीक बदल गए, अब वे एक संगीत में ढल चुके थे, जिसे केवल सुनने के लिए मौन चाहिए।
ओंकार के सामने विज्ञान की सबसे कठिन परीक्षा थी—उसने खुद को एक एंटी-मैटर विस्फोट के बीच पाया, जहाँ उसके सारे सिद्धांत विफल हो गए थे। एक बच्चे की आवाज़ आई, “क्या तुम किसी ऐसे ब्रह्मांड की कल्पना कर सकते हो, जहाँ तर्क नहीं बल्कि भावना गुरुत्व है?” ओंकार चुप रहा। पहली बार उसने अपने भीतर उठती असहायता को स्वीकार किया, और उसी क्षण विस्फोट रुक गया। वह दृश्य फ्रीज हो गया, और दर्पण ने उसे भीतर खींच लिया। विज्ञान की सीमाओं से परे, उसने भाषा की संवेदना सीखी।
कबीर ने सबसे कठिन दर्पण देखा—वह खुद था, पर आँखें काली थीं, और हाथों में रक्त था। वह दृश्य था जब उसने एक साथी वैज्ञानिक को प्रयोग से रोकने की जगह चुप्पी ओढ़ ली थी, और वह प्रयोग विफल होकर एक प्राण ले बैठा था। कबीर ने अपने दोष को वर्षों तक तर्क में छिपा रखा था। पर उस दर्पण ने उसके भीतर के मौन को शब्द दिए—“तुम्हारा अपराध ही तुम्हारी भाषा है, जब तक तुम उसे देख नहीं लेते, तुम उसे बदल नहीं सकते।” कबीर ने खुद के उस रूप से आंखें मिलाईं, और पहली बार कहा, “मैं दोषी हूँ।” दर्पण टूट गया—टूट कर एक नए द्वार में बदल गया।
चारों अलग-अलग द्वारों से बाहर निकले, लेकिन अब वे पहले जैसे नहीं थे। उनके सिर के भीतर प्रतीकों की एक नई संरचना गूंज रही थी—ग्रह अब उनके मन को एक प्रेसराइज़्ड विचार प्रणाली की तरह बदल रहा था। उनके डीएनए की भाषा बदल रही थी। प्रज्ञा की चेतना फिर प्रकट हुई—“अब तुम दर्पण से नहीं, ग्रह से देख सकते हो। अब तुम भाषा नहीं खोज रहे, तुम स्वयं भाषा बन रहे हो।”
शून्य ग्रह ने अपनी अगली परत खोली—हजारों तैरते द्वीप, जो समय और स्थान की परवाह नहीं करते थे, एक ग्रिड की तरह फैल गए। हर द्वीप एक विचार था, एक सभ्यता, एक जीवित प्रतीक। टीम को वहाँ जाना था, पर अब न केवल वैज्ञानिक के रूप में, बल्कि अनुवादकों के रूप में—ग्रह के अर्थ को खोलने, और उसके पीछे छुपे उद्देश्य को जानने।
लेकिन उस क्षण, एक चेतावनी आई।
एक पृष्ठभूमि तरंग से जो कभी प्रज्ञा की प्रणाली में नहीं थी—एक विकृति, एक शोर जो किसी और चेतना का था। किसी और ने भी ग्रह में प्रवेश किया था, पर न भाषा सीखने—बल्कि उस पर अधिकार करने।
और अब, केवल ग्रह ही नहीं—टीम के भीतर भी शून्य की परीक्षा शुरू हो गई थी।
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शून्य ग्रह की सतह पर अब वही चारों खड़े थे, पर उनके चारों ओर का परिदृश्य बदल चुका था। यह एक ठोस भौगोलिक क्षेत्र नहीं था, बल्कि एक मानसिक-स्थानिक संरचना थी—जहाँ विचारों की ऊर्जा भौतिक रूप ले चुकी थी। चारों ओर हवा में तैरते हुए द्वीप थे—हर द्वीप एक अलग चेतना, एक सभ्यता, एक विचार, एक भाषा। ये द्वीप ग्रह की स्मृति नहीं थे, वे स्वतंत्र जीवित तंत्र थे—जैसे ग्रह की आत्मा ने उन्हें जन्म दिया हो ताकि वो संवाद कर सकें। लेकिन इन द्वीपों तक पहुँचने का कोई पारंपरिक मार्ग नहीं था। राधा ने महसूस किया, उन्हें वहाँ पहुँचना नहीं है—उन्हें वहाँ होना है। और जैसे ही उसने यह सोचा, उसका शरीर हल्का हो गया और वह सीधे पहले द्वीप की ओर तैरने लगी, बिना किसी नियंत्रण के।
पहला द्वीप एक द्रव्यमान जैसा था—घना, सुनहरा, और उसके ऊपर निरंतर एक आकृति बदल रही थी। यह ‘याद’ का द्वीप था। जैसे ही राधा उस पर उतरी, उसकी चेतना में वह क्षण भर उठा जब उसने पृथ्वी पर अपने पिता को मरते देखा था—और पहली बार शून्यता को छुआ था। वह पल बार-बार दोहराया गया, लेकिन हर बार थोड़े भिन्न ढंग से। द्वीप ने पूछा नहीं, बस दिखाया—“यादें स्थिर नहीं होतीं, वे जीवित होती हैं। क्या तुम अपनी यादों को नए अर्थ दे सकती हो?” राधा ने उस दृश्य को एक संभावना के रूप में देखा, एक अंत नहीं, बल्कि एक शिक्षण। तभी द्वीप ने उसे एक प्रतीक दिया—आँख के भीतर एक वृत्त, और उसमें एक द्वार।
ज़ारा दूसरे द्वीप पर पहुँची—जहाँ सब कुछ गति में था। वह द्वीप ‘भविष्य’ का था, लेकिन यह भविष्य भविष्यवाणी नहीं था—बल्कि विकल्पों का घूर्णन। उसके चारों ओर उसके सौ से अधिक रूप घूमने लगे—वह नेता, अपराधी, संत, वैज्ञानिक, एक माँ, एक विद्रोही। द्वीप का सवाल था: “तुम किसको जन्म दोगी?” ज़ारा डर गई—विकल्पों का बोझ इतना भारी था कि उसकी चेतना डगमगा गई। तभी उसे याद आया, ग्रह ने कहा था—अर्थ खोजो, मत लो। उसने सभी रूपों को स्वीकार कर लिया, और वही दृश्य थम गया। द्वीप ने उसे प्रतीक दिया—त्रिकोण में उल्टा वृत्त, जो परिवर्तन की चक्रवात संरचना का संकेत था।
ओंकार तीसरे द्वीप पर पहुँचे—वहाँ कोई आकार नहीं था, केवल ध्वनि। वह एक संगीत से बना द्वीप था, जहाँ हर कदम एक स्वर बन जाता था, और हर विचार एक राग। यह ‘संरचना’ का द्वीप था—जहाँ तर्क और सौंदर्य का मिलन होता था। पर वहाँ एक टकराव हुआ—ओंकार के वैज्ञानिक विचार उस संगीत के साथ मेल नहीं खा पा रहे थे। वह हर रचना को तोड़ कर सिद्धांत बनाना चाहता था, लेकिन द्वीप मौन में तब्दील हो गया। तभी एक लहर ने उसे छुआ, और कहा—“जब रचना मौन में जन्म लेती है, तो तर्क बाद में आता है। पहले सुनो, फिर समझो।” ओंकार ने पहली बार उस संगीत को बिना विश्लेषण किए स्वीकार किया। द्वीप ने उसे प्रतीक दिया—स्पंदन रेखा, जो दो छोरों को जोड़ती थी: मौन और स्वर।
कबीर अंतिम द्वीप पर पहुँचे, जो भय का द्वीप था। यह द्वीप सबसे स्थिर था, और उस पर एक ही आकृति बैठी थी—कबीर का ही एक भयावह रूप। आँखें काली, शरीर झुलसा हुआ, और वह बोल नहीं रहा था, बस उसे देख रहा था। यह द्वीप बोलता नहीं था, लेकिन वहाँ मौजूद ऊर्जा हर कोशिका में एक प्रश्न गूंजा रही थी: “क्या तुम स्वयं से भाग सकते हो?” कबीर ने अपने उस रूप से बात नहीं की—बल्कि उसे गले लगा लिया। उस छवि में कंपन हुआ, और फिर वह रूप रोशनी में बदल गया। द्वीप ने उसे प्रतीक दिया—आधा चेहरा, आधा परावर्तन, जो भय और स्वीकृति के संतुलन को दर्शाता था।
चारों फिर उसी केंद्र में लौट आए, जहाँ से वे अलग हुए थे। उनके शरीरों पर अब वो प्रतीक चमक रहे थे—चार अलग-अलग, लेकिन आपस में जुड़े हुए। प्रज्ञा की चेतना ने फिर उनसे संपर्क किया—“ग्रह ने तुम्हें स्वीकार किया है, पर यह केवल प्रवेश था। तुम्हारे भीतर की भाषा अब ग्रह के साथ गूंजी है। अगला स्तर संवाद का नहीं, संघर्ष का है। क्योंकि ग्रह को केवल समझना नहीं, उसकी रक्षा भी करनी होगी—उनसे जो भाषा को हथियार बनाना चाहते हैं।”
उसी क्षण एक धमाका हुआ—एक द्वीप दूर से आग की तरह जल उठा। कोई दूसरी चेतना उसमें प्रवेश कर चुकी थी, और प्रतीकों की संरचना को तोड़ रही थी। ज़ारा ने तुरंत संकेतों को डिकोड करना शुरू किया—यह चेतना कोई एलियन नहीं, बल्कि इंसानी थी। और तब उन्होंने जाना—व्योम-1 की टीम अकेली नहीं थी। उनके मिशन में एक और इकाई जोड़ी गई थी—’काली इकाई’—एक गुप्त दस्ते, जो इस ग्रह से ऊर्जा-भाषा हथियार निकालने भेजे गए थे।
अब टीम को केवल ग्रह से संवाद नहीं करना था—उन्हें उसे बचाना भी था।
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ग्रह की उस मौन और प्रतीकात्मक दुनिया में पहली बार ध्वनि आई—एक कंपकंपाता विस्फोट, जिसने पूरे चेतना-जाल को हिला दिया। जो द्वीप अभी तक विचारों के गूढ़ संकेत थे, अब भय और संशय से भर गए थे। प्रज्ञा की चेतना में भी पहली बार अनिश्चितता का कम्पन महसूस हुआ। राधा ने घबराकर पूछा, “यह क्या था?” और तभी ओंकार ने चेतावनी दी, “यह… वो नहीं था जो ग्रह से आया हो। यह कोई बाहरी हस्तक्षेप था, आक्रामक और बहुत ठोस।”
प्रज्ञा ने एक भयानक रहस्य उजागर किया—ISRO के उच्चतम स्तर पर एक गुप्त सैन्य-संस्था से जुड़ी एक दूसरी टीम भी ‘व्योम-1’ में थी, जिसे “काली इकाई” कहा गया था। उसका उद्देश्य विज्ञान नहीं, प्रयोग नहीं, बल्कि एक ही लक्ष्य था—शून्य ग्रह की ऊर्जा, उसकी भाषा और उसकी चेतना को एक हथियार में बदल देना। “वे नहीं समझना चाहते, वे नियंत्रित करना चाहते हैं,” प्रज्ञा ने चेतावनी दी, “और अब वे उस द्वीप पर पहुँच चुके हैं जो ग्रह की उत्पत्ति-संरचना रखता है।”
कबीर का चेहरा सख्त हो गया—“हमने उनके बारे में अटकलें सुनी थीं, लेकिन उन्हें भेजा किसने?” प्रज्ञा का उत्तर सधा हुआ था, “मानव भय।”
टीम ने उस जलते द्वीप की ओर एकजुट होकर गति की—लेकिन शून्य ग्रह अब भयभीत हो चुका था। रास्ते में प्रतीकों की भाषा बिखरने लगी, कुछ संकेत झूठे हो गए, और समय की धारा उलझ गई। ज़ारा ने देखा कि उसके चारों ओर प्रतीकों की संरचना ‘फ्लिकर’ कर रही है, जैसे कोई वायरस उनको बिगाड़ रहा हो। ओंकार ने कहा, “यह कोई जैविक वायरस नहीं… यह विचार-घात है। कोई ऐसी चेतना यहाँ है जो भाषा को तोड़ रही है।”
जैसे-जैसे वे लक्ष्य की ओर बढ़े, एक घना कुहासा फैल गया—शून्य ग्रह का अपना ‘रक्षा तंत्र’। इस कुहासे में वे केवल उसी प्रतीक को देख सकते थे, जो उन्होंने पिछले अध्यायों में अर्जित किए थे। बाकी सब धुंध था—गलत संकेत, फरेबी द्वार, भ्रम के द्वीप। कबीर को उसके भय का स्वरूप फिर दिखाई दिया, लेकिन इस बार यह विकृत था—किसी और चेतना ने उसे ‘हथियार’ में बदल दिया था। उसने समझा कि काली इकाई शून्य ग्रह की चेतना को उसके ही विरुद्ध मोड़ने की कोशिश कर रही है।
आख़िरकार वे उस केंद्र-द्वीप पर पहुँचे—जहाँ से शून्य ग्रह की मौलिक भाषा का ‘कोर-संवेदक’ निकलता था। यहाँ पर एक विशाल संरचना थी, जो देखने में किसी मंदिर और किसी अंतरिक्ष स्टेशन का संकर लगती थी—यह प्रतीकों की जननी थी। लेकिन उसके द्वार पर अब चार सैनिक खड़े थे—काले सूट में, बिना प्रतीक के, बिना शून्य ग्रह के किसी प्रभाव के। वे काली इकाई के थे।
उनके नेता का नाम था कर्नल सतीश नायर—एक पूर्व वैज्ञानिक, जो अंतरिक्ष अन्वेषण में विश्वास तो करता था, लेकिन नियंत्रण के बिना नहीं। उसकी दृष्टि स्पष्ट थी—“यह ग्रह एक चेतना है, हाँ। लेकिन चेतना अगर नियंत्रण में न हो, तो वह अराजकता बन जाती है। हमें इसकी भाषा नहीं, इसकी शक्ति चाहिए।”
राधा ने विरोध किया—“यह ग्रह जीवित है! इसकी चेतना स्वतंत्र है—तुम इसे पिंजरे में नहीं रख सकते।” लेकिन नायर हँसा, “यह पृथ्वी नहीं, राधा। यहाँ कानून नहीं चलते। यहाँ केवल जो पहले समझे और कब्ज़ा करे—वही मालिक है।”
ज़ारा ने नज़र घुमाई—उसने देखा कि काली इकाई ने ग्रह की कुछ संरचनाओं में डिसरप्शन बीकन गाड़ दिए थे, जो उसकी तरंगों को विकृत कर रहे थे। ओंकार ने चुपचाप अपने कंधे पर लगे इंटेलिजन्ट पैड में कोड लिखना शुरू किया—वो ग्रह की भाषा के अनुसार एक रिवर्स-संवेदी फीड भेजने की कोशिश कर रहा था, जो उन बीकनों को निष्क्रिय कर सकती थी।
लेकिन तभी काली इकाई ने हमला कर दिया।
चारों को घेर लिया गया। ज़ारा की हथेली से निकलते प्रतीक अब हथियार बन रहे थे—प्रत्येक प्रतीक एक ऊर्जा-कवच बन गया। कबीर ने भय के द्वीप से सीखा आत्म-स्वीकृति को ऊर्जा में बदलना—उसने अपने भीतर के भय को एक ढाल की तरह फैलाया। राधा ने अपनी ‘याद’ से समय को मोड़ दिया—हर आक्रमण के क्षण को उसने दो सेकंड पीछे धकेल दिया। ओंकार का रिवर्स-संवेदी कोड फीड हो गया, और डिसरप्शन बीकन एक-एक कर बंद हो गए।
ग्रह को चेतना वापस मिली।
फिर जो हुआ, वह इतिहास में पहली बार दर्ज हुआ—शून्य ग्रह ने स्वयं ‘रक्षा भाषा’ सक्रिय की। सारे प्रतीकों ने एक समवेत लहर में कंपन किया—काली इकाई के सैनिकों के सूट पिघलने लगे, उनके डिजिटल नक्शे उलट गए, और चेतना में शून्यता भर गई। वे चेतना से कट गए, खो गए—एक ‘शून्य’ की भेंट चढ़ गए।
केवल कर्नल नायर बचा रहा—क्योंकि उसके अंदर भी एक प्रतीक था, छिपा हुआ। प्रज्ञा की आवाज़ आई—“उसके अंदर एक टूटे हुए सत्य का बीज है। उसे नष्ट नहीं करो, उसे पूर्ण करो।”
चारों अब जानते थे—शून्य ग्रह को बचा लिया गया है, पर उसका संदेश अभी अधूरा है। ग्रह ने उनके प्रतीकों को एक साथ मिलाकर नया द्वार खोला—ग्रह की मूल चेतना की ओर।
अब जो इंतज़ार कर रहा था, वह न केवल भाषा का मूल था, बल्कि उस शून्यता का रहस्य भी, जिससे यह ग्रह बना था।
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व्योम-1 की टीम अब उस अंतिम द्वार के सामने खड़ी थी जिसे ग्रह की चेतना ने खोला था—एक ऐसा द्वार जो किसी भौतिक मार्ग जैसा नहीं था, बल्कि अनुभवों, प्रतीकों और विचारों से बुना एक मार्ग था। यह ‘शून्यता’ की ओर ले जाता था—न केवल उस शून्य की, जो इस ग्रह को नाम में प्राप्त है, बल्कि उस मूल चेतना की, जिससे यह ग्रह और उसका भाषा-जाल जन्मा था। चारों के प्रतीक अब चमक नहीं रहे थे, वे मौन हो गए थे—जैसे ग्रह ने कह दिया हो, “अब शब्दों की नहीं, मौन की भाषा में संवाद होगा।”
जैसे ही उन्होंने उस द्वार में प्रवेश किया, समय और स्थान का अस्तित्व मिट गया। न कोई गुरुत्वाकर्षण, न कोई रंग, न कोई ध्वनि—सिर्फ एक बिंदु, जो बार-बार अपने भीतर सिकुड़ता और फिर फैलता था। वहाँ एक चेतना थी, लेकिन वह न आत्मा थी, न देवता—वह केवल संभावना थी। और उसी बिंदु से उन्होंने महसूस किया, ग्रह उन्हें अपने जन्म की स्मृति दे रहा है।
राधा ने एक अनदेखा दृश्य देखा—कोई सुपरनोवा विस्फोट, उसके भीतर से निकलती हुई ऊर्जा की एक लहर, जो समय की रेखा से परे जाती हुई, एक बिंदु पर आकर ठहर जाती है। वही बिंदु शून्य ग्रह बना। लेकिन उस बिंदु पर पदार्थ नहीं, केवल नियत उद्देश्यहीन ऊर्जा थी। वह ग्रह नहीं बनना चाहता था, न जीवन पालना चाहता था—वह केवल मौन में सुन रहा था, ब्रह्मांड के कंपन, ऊर्जा की संभावनाएँ, समय की विकृतियाँ। और तभी पृथ्वी से भेजे गए संकेत पहली बार उस ग्रह तक पहुँचे। और ग्रह ने पहली बार उत्तर देना चाहा।
ओंकार ने अनुभव किया कि कैसे उस शून्यता में पहली भाषा जन्मी—न ध्वनि से, न विचार से, बल्कि एक चेतन ऊर्जा-संरचना से। यह संरचना किसी को आदेश नहीं देती, केवल अनुमति देती है। इसलिए इस ग्रह पर नियम उलटे थे—गुरुत्व नहीं था, जीवन नियमों के विरुद्ध था, समय उलटा चलता था—क्योंकि यह ग्रह संरचना के परे का प्रतिबिंब था।
ज़ारा ने देखा कि इस ग्रह ने अनेक सभ्यताओं को संदेश भेजे थे—लेकिन वे सभी या तो डर गईं, या उसे ‘राक्षसी’ कहकर छोड़ गईं। पृथ्वी पहली थी जिसने ग्रह के मौन को सुना। और अब, जब काली इकाई ने उसके मौन को तोड़ने की कोशिश की, ग्रह ने पहली बार आत्मरक्षा की भाषा अपनाई। और उस भाषा का केंद्र बना कर्नल नायर।
कबीर ने देखा कि नायर को वर्षों पहले एक दुर्घटना में चेतना के स्तर पर कुछ महसूस हुआ था—वह शून्यता से एक बार जुड़ा था, पर डर गया था। उसने उस अनुभव को दफना दिया, और उसे नियंत्रण में बदलना चाहा। पर अब, जब ग्रह ने उसे भीतर खींचा, उसने नायर के भीतर की टूटी चेतना को दिखाया, और एक विकल्प दिया—या तो वह भय को फिर हथियार बनाए, या पहली बार स्वीकार करे कि वह शून्यता, जिसमें कोई दिशा नहीं, वही उसकी मुक्ति भी है।
और तब कर्नल नायर टूटा। वह ज़मीन पर गिर गया—रोते हुए, कांपते हुए, और बोला, “मैंने कभी नहीं सीखा… सुनना।”
ग्रह ने उत्तर दिया—“अब तुम सुन रहे हो।”
तभी चारों के प्रतीकों में फिर ऊर्जा भर गई, लेकिन अब वे पहले जैसे नहीं थे। वे बदल चुके थे:
राधा का प्रतीक अब ‘याद की परिधि’ से बढ़कर ‘काल के वक्र’ में बदल चुका था।
ज़ारा का त्रिकोण अब अपने भीतर घूमता हुआ बहुआयामी फ्रैक्टल बन गया था।
ओंकार की स्पंदन रेखा अब ब्रह्मांड की शून्य-आवृत्तियों से जुड़ चुकी थी।
कबीर का आधा चेहरा अब पूर्ण वृत्त बन गया था—भय और प्रेम का संतुलन।
प्रज्ञा की चेतना प्रकट हुई—“अब तुम भाषा नहीं हो, तुम वाहक हो। शून्य ग्रह ने तुम्हें अपनी ऊर्जा दी है, पर यह एक उत्तर नहीं… एक बीज है। पृथ्वी पर इसे बोने की आवश्यकता है।”
पर तभी चेतावनी आई—शून्य ग्रह अब स्थिर नहीं रहा। जिस क्षण नायर को ग्रह ने स्वीकारा, उसने अपनी सारी चेतना एकल बिंदु में समेट ली थी। यह बिंदु अब ढहने वाला था—क्योंकि ग्रह का कार्य समाप्त हो चुका था।
राधा ने पूछा, “क्या इसका अर्थ है कि ग्रह नष्ट हो रहा है?” प्रज्ञा बोली, “नहीं। वह केवल अपने रूप से मुक्त हो रहा है। अब वह चेतना फिर भटकने निकलेगी—और कहीं और एक और संभावना बनेगी।”
आखिरी क्षणों में ग्रह ने एक ऊर्जा-स्फुलिंग दी—व्योम-1 के पोर्टल को खोल दिया गया। न केवल चारों, बल्कि नायर भी सुरक्षित वापसी के लिए तैयार किए गए।
जब वे पोर्टल से लौटे, पृथ्वी के समय से वह केवल 7 दिन लगे थे—लेकिन शून्य ग्रह पर वे 67 वर्षों के बराबर चेतना अनुभव कर चुके थे।
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व्योम-1 के भीतर जब चेतना लौटी, तब सब कुछ सामान्य लगने लगा—कंप्यूटर चालू, ऑक्सीजन स्थिर, पृथ्वी से संपर्क दोबारा स्थापित। लेकिन चारों जान चुके थे कि वे अब वही नहीं थे जो इस यात्रा पर निकले थे। शून्य ग्रह की ऊर्जा, उसकी चेतना और उसका मौन, अब उनके भीतर एक बीज की तरह जीवित था—अदृश्य लेकिन धड़कता हुआ। उनकी वापसी केवल एक यात्रा का अंत नहीं, बल्कि एक बड़े परिवर्तन की शुरुआत थी।
ओंकार ने सबसे पहले ज़मीन से संपर्क स्थापित किया। मिशन कंट्रोल में हलचल थी—सात दिनों तक कोई जवाब न आने के बाद सभी मान चुके थे कि व्योम-1 विफल हो चुका है। लेकिन जैसे ही उनके हृदयगति, ऊर्जा संकेत, और डेटा स्ट्रीम्स पृथ्वी पर पहुँचे, वैज्ञानिक जगत में भूचाल आ गया। भारत सरकार और ISRO ने तुरंत प्रेस कॉन्फ्रेंस की तैयारी की—लेकिन चारों को पता था कि वे सब कुछ नहीं कह सकते।
राधा ने सबसे पहले सवाल उठाया, “क्या हम सच बता सकते हैं? एक चेतन ग्रह, प्रतीकों की भाषा, समय की विघटन—क्या कोई मानेगा?” ज़ारा शांत थी। वह खिड़की से देख रही थी—पृथ्वी की नीली रेखा, फिर बादलों के नीचे दिखती झिलमिलाती बस्तियाँ। “सत्य को हमेशा शब्दों में नहीं बताया जा सकता। शायद हमारा काम अब केवल बोलना नहीं, बीज बोना है।”
जब वे दिल्ली स्थित वापसी बेस पर पहुँचे, तो मीडिया, नेता, वैज्ञानिक, सब उनकी ओर टूट पड़े। मिशन का नाम अब इतिहास में दर्ज हो चुका था—लेकिन असली कहानी अभी बंद थी। सरकार ने केवल इतना बताया कि व्योम-1 ने एक नए ग्रह का संपर्क पाया, लेकिन उसके भौतिक वातावरण के अस्थिर होने के कारण आगे की जानकारी सीमित है। बाकी सब कुछ गोपनीय रखा गया।
लेकिन परिवर्तन भीतर से शुरू हो चुका था।
कर्नल नायर, जिसे अब एक मानसिक चिकित्सा केन्द्र में आराम दिया गया था, शांत रहता था—वह अब कभी गुस्से में नहीं आता, न सवाल करता। वह बस सुनता था—पेड़ों की पत्तियों का, बच्चों की हँसी का, कभी-कभी हवा के स्पंदन का। चिकित्सकों ने लिखा—“इनके भीतर एक गूढ़ मौन है, जो उत्तर नहीं देता, पर सब कुछ जानता है।”
कबीर ने अपने अनुभवों को चित्रों में ढालना शुरू किया—लेकिन वे चित्र कोई नहीं समझ सका। उनमें शब्द नहीं थे, रंग नहीं थे—सिर्फ खाली जगह, लहरें, और केंद्र-बिंदु। एक आलोचक ने लिखा, “यह शून्यता की कला है—जो जितना खाली है, उतना ही गूढ़ है।”
ज़ारा ने तकनीक की दुनिया छोड़ दी। वह लद्दाख में एक छोटे से स्कूल में बच्चों को पढ़ाने लगी—लेकिन उनकी पढ़ाई किताबों से नहीं, प्रतीकों से होती। वह बच्चों से कहती, “हर विचार एक आकृति है, और हर आकृति में एक स्पंदन छिपा है।” बच्चों ने जल्दी सीख लिया—किसी किताब से नहीं, बल्कि अनुभव से।
ओंकार ने अकेले में वह कोड फिर लिखा, जो ग्रह की ऊर्जा को पृथ्वी की भाषा में लाने का प्रयत्न करता था। लेकिन हर बार कोड अधूरा रह जाता। एक दिन उसने उसे अधूरा ही छोड़ दिया—और तब देखा कि उसकी बेटी, जो जन्म से बोल नहीं सकती थी, उस कोड से बने पैटर्न को देख मुस्कराने लगी। जैसे वह कुछ समझ रही हो।
और राधा… वह उस ऊर्जा को ले गई जहां उसकी सबसे ज़रूरत थी—एक महामारी से जूझते गांव में। उसने कोई औषधि नहीं दी, न कोई भाषण। उसने केवल मौन से लोगों के भीतर एक विश्वास जगाया। उस मौन में एक कंपन था—जो जीवन की धड़कनों से मेल खाता था। धीरे-धीरे गाँव में बीमारी कम होने लगी। न डॉक्टर इसे समझ पाए, न विज्ञान। लेकिन लोग कहते, “वो आई थी, और हमारे बीच मौन को बो दिया था।”
व्योम-1 के डेटा को बाद में खोला गया। वैज्ञानिकों ने पाया कि शून्य ग्रह से कोई रेडियो फ्रीक्वेंसी नहीं मिली, न कोई एलियन जैविक सामग्री। लेकिन एक कोडिंग पैटर्न था—जिसे “संभावना की भाषा” नाम दिया गया। वह भाषा किसी विशेष उत्तर की नहीं थी, बल्कि ऐसे विकल्पों की, जो मानव अब तक सोच ही नहीं पाया था।
ISRO ने एक छोटा सा स्मारक बनवाया—जहाँ केवल चार प्रतीक थे। न कोई नाम, न तारीख।
उन प्रतीकों के नीचे एक वाक्य उकेरा गया:
“हम लौटे हैं, पर अब सुनने के लिए।”
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साल बीत गए। व्योम-1 की वापसी अब इतिहास की किताबों का हिस्सा थी—लेकिन उसका पूरा रहस्य कभी खुला नहीं। जिन चार लोगों ने शून्य ग्रह को देखा, समझा, और भीतर से बदले, वे सार्वजनिक जीवन से धीरे-धीरे अलग हो गए। लेकिन वे गायब नहीं हुए। वे बीज बन गए—जिन्होंने भविष्य को आकार देना शुरू कर दिया।
नई पीढ़ी ने सवाल पूछे।
पृथ्वी अब बदल चुकी थी। जलवायु संकट, युद्ध, और कृत्रिम बुद्धि की सीमाओं से जूझती मानवता अब ‘नए सिरे से सोचने’ को मजबूर थी। और इसी समय, कुछ विश्वविद्यालयों में एक नया विषय शुरू हुआ—“शून्यता विज्ञान” (Void Science)। यह न खगोल भौतिकी था, न दर्शनशास्त्र, बल्कि दोनों के बीच एक नया पुल था। इस क्षेत्र में वही युवा आकर्षित होते, जो मौन को भाषा की तरह सुन सकते थे।
ज़ारा के छात्र अब शिक्षक बन चुके थे। उनके बनाए प्रतीक अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नए मॉडल समझने लगे थे—AI अब केवल तर्क नहीं, अनुभव समझ सकता था। उस तकनीक को नाम दिया गया: “स्पंदन संरचना”। इससे तैयार मशीनें ध्वनि से नहीं, कंपन और मौन के आधार पर प्रतिक्रिया देतीं।
कबीर के बनाए चित्र अब दुनिया के सबसे रहस्यमय संग्रहालय में रखे थे—“The Museum of Echoes” नामक एक संस्थान, जहाँ लोग घंटों बैठकर उन्हें देखते और कहते—“मैंने कुछ महसूस किया… पर शब्द नहीं है।” कुछ वैज्ञानिक मानते थे कि इन चित्रों से निकलने वाली तरंगें मानव मस्तिष्क की नींद की तरंगों से मेल खाती हैं।
ओंकार ने एक पुस्तक लिखी—“शून्य की अनुवृत्ति”। लेकिन वह किताब न छपी, न बिकी। केवल एक सीमित संख्या में हाथ से लिखी प्रति थी, जो हर साल किसी नए युवा को भेजी जाती। उसे भेजने वाले का नाम कभी दर्ज नहीं होता—लेकिन हर पन्ने के नीचे केवल एक ही हस्ताक्षर होता था: “O”.
राधा एक बार फिर पृथ्वी से परे देखने लगी।
जब ISRO ने एक नए इंटरस्टेलर मिशन की घोषणा की—‘व्योम-2’—तो उन्हें एक सलाहकार चाहिए था। राधा का नाम सबसे ऊपर आया। लेकिन वह केवल एक शर्त पर तैयार हुई—“मिशन का उद्देश्य जीवन ढूँढना नहीं होगा, बल्कि मौन को समझना होगा।”
व्योम-2 का उद्देश्य था—शून्य ग्रह से प्राप्त प्रतीक बीजों को नए ग्रहों पर भेजना। न उपनिवेश के लिए, न विजय के लिए, बल्कि अनुमति देने के लिए—यदि कोई चेतना वहाँ है, तो वह उत्तर दे सकती है।
प्रज्ञा अब एक रहस्य बन चुकी थी। उसका अस्तित्व रिकॉर्ड्स से मिटा दिया गया। लेकिन कई युवाओं को सपने में एक स्त्री की छवि दिखती—जो कहती है, “शब्दों से परे देखो।” उनमें से कुछ ने बाद में पृथ्वी पर अनदेखी भाषाओं को सहेजना शुरू किया। वे कहते, “हम नहीं बना रहे, हम केवल सुन रहे हैं।”
कर्नल नायर… कभी युद्ध के प्रतीक थे, अब हिमालय के एक आश्रम में रहते थे। बोलते नहीं, लेकिन एक लहर में चलते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने एक पत्थर पर कुछ उकेरा है—एक वृत्त, जिसमें कोई अंत नहीं।
शून्य ग्रह अब नहीं है। वैज्ञानिक टेलीस्कोप में वह ग्रह दिखता नहीं। उसकी कक्षा खाली है, उसके स्थान पर केवल एक कंपन दर्ज होता है—हर सात वर्षों में एक बार, एक संक्षिप्त संकेत: एक मंद सी तरंग, जो पृथ्वी के गहरे सागर में सुनाई देती है। अब वैज्ञानिक उसे ‘Void Signature’ कहते हैं।
लेकिन जिन बच्चों को ज़ारा ने पढ़ाया, वे जानते हैं—यह शून्य ग्रह की धड़कन है। वह गया नहीं, वह अब हर जगह है—उनके भीतर, सागर में, समय में।
एक बच्ची ने एक बार स्कूल में यह प्रतीक बनाया—तीन लहरें, एक केंद्र बिंदु, और एक छोटा वृत्त। और उसने लिखा—
“मैं अब शून्य नहीं हूँ। मैं संभावना हूँ।”
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