Hindi - रहस्य कहानियाँ

शिवमंदिर के पीछे

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शिवानंद पाठक


कोल्हापुर की घाटियों से गुजरती जीप धूल उड़ाते हुए चिखली गाँव की सीमा में प्रवेश कर रही थी। जीप में बैठे वेदांत त्रिपाठी खिड़की से बाहर झाँकते हुए मंदिर की मीनार की झलक पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। वे भारत सरकार के पुरातत्व विभाग से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी थे और इस अभियान के मुख्य अन्वेषक भी। चिखली जैसे दूरदराज़ गाँवों में आना उनकी रिसर्च का हिस्सा नहीं, बल्कि जुनून था। उनके साथ बैठी थीं रुचिका देशमुख, एक दक्ष रिसर्च एनालिस्ट, जो कोल्हापुर से ही ताल्लुक रखती थीं। उनके हाथ में मंदिर के नक्शे और एक पुरानी पांडुलिपि की फोटो-कॉपी थी। जीप रुकते ही एक सजीव सन्नाटा चारों ओर फैल गया। गाँव के लोग दूर से आते सरकारी वाहन को देखकर चौकन्ने थे, और मंदिर के पास खड़ा नागराज पाटील — मंदिर के वृद्ध पुजारी — हाथ में घंटी पकड़े मौन मुद्रा में कुछ बुदबुदा रहे थे। मंदिर की तलहटी में एक पुरानी सीढ़ी थी, जिस पर पीले रंग का कपड़ा बाँधकर “प्रवेश निषेध” लिखा गया था। उसी सीढ़ी से कुछ सप्ताह पहले एक मजदूर — गोविंदा — नीचे गिरा था, और फिर कभी लौटकर नहीं आया। न शव मिला, न चीख सुनी गई। तभी गाँव में वो पुरानी किंवदंती फिर ज़िंदा हो उठी — “शिवमंदिर के पीछे जो द्वार है, वहाँ से जो गया, कभी नहीं लौटा।”

सरपंच रघुनाथ जाधव ने वेदांत और उनकी टीम का स्वागत तो किया, पर उनके चेहरे पर सहजता नहीं थी। “हमने आपको बुलाया है, क्योंकि कुछ चीज़ें अब हमारे बस से बाहर हैं,” सरपंच ने धीमे स्वर में कहा। “पर एक बात आप समझ लीजिए, ये सिर्फ़ पुरानी दीवारें नहीं हैं। यह स्थान जागृत है।” वेदांत ने विनम्रता से सिर हिलाया, पर वह इन बातों पर विश्वास नहीं रखते थे। उनके लिए रहस्य केवल तथ्यों से हल होते हैं — न कि परंपराओं से। वे सीधे मंदिर की ओर बढ़े। मंदिर की नक्काशी बेहद प्राचीन थी, दीवारों पर नाग और त्रिशूल के उकेरे हुए चित्र, शिखर पर अर्धचंद्र, और गर्भगृह के ठीक पीछे, पत्थरों से बनी एक संकरी सीढ़ी जो नीचे की ओर जाती थी — वहीं गोविंदा गायब हुआ था। रुचिका ने कुछ शिलालेखों की ओर इशारा किया, जो अब तक मिट चुके थे, पर उनमें से एक पर अस्पष्ट रूप से एक शब्द लिखा था — “द्वारपाल।” वेदांत की आँखें चमक उठीं। यह कोई साधारण सुरंग नहीं थी, यहाँ कोई गूढ़ रहस्य छुपा था। नागराज पाटील ने एक लंबी साँस लेते हुए कहा, “यह केवल पत्थरों का ढांचा नहीं है। यह शिव का मार्ग है — पर आत्मा की परीक्षा के लिए। जो डरता है, वो वापस नहीं आता।”

शाम ढल रही थी। पहाड़ों के पीछे सूरज छुपता जा रहा था और मंदिर की परछाई गाँव के एक किनारे तक पहुँच चुकी थी। वेदांत ने उस रात मंदिर परिसर में ही रुकने का निश्चय किया। साथ ही रुचिका, कैमरा ऑपरेटर संदीप सावंत, और दो सहायक कर्मचारी भी वही रुके। टेंट लगाए गए, कैमरे सेट हुए, और मंदिर के चारों ओर एक परिधि में लाइटिंग की गई। लेकिन जैसे ही रात के दस बजे, मंदिर की घंटी अपने आप बजने लगी — वह भी लगातार तीन बार। रुचिका चौंक गई। “आपने सुना?” उसने फुसफुसाते हुए पूछा। वेदांत ने कोई उत्तर नहीं दिया, पर उनकी नज़रें उस सीढ़ी की ओर थीं जो अब भी पीले कपड़े से ढँकी थी। तभी अचानक संदीप कैमरा लेकर उस सीढ़ी की ओर भागा। “मैं नीचे झाँकता हूँ, सर। बस एक मिनट,” वह चिल्लाया। सबने रोका, पर वह मानने वाला नहीं था। उसने कैमरा ऑन किया और पहला कदम सीढ़ी पर रखा। लेकिन जैसे ही उसने दूसरा कदम नीचे रखा, वहाँ की हवा में एक अजीब कंपन पैदा हुआ। उसके कैमरे की स्क्रीन झिलमिलाने लगी और एक तीव्र शोर गूंजा। जब वेदांत और रुचिका दौड़कर वहाँ पहुँचे, तब तक संदीप गायब हो चुका था। कैमरा वहीं पड़ा था — स्क्रीन पर आखिरी फ्रेम में एक छाया सी दिख रही थी — एक आदमी की, जो उल्टा लटक रहा था।

अगली सुबह सन्नाटा और भी गहरा हो गया था। संदीप की खोज में पूरी टीम लग चुकी थी, लेकिन सुराग के नाम पर सिर्फ़ कैमरा मिला। उसकी रिकॉर्डिंग देखने पर पता चला कि जैसे ही वह नीचे गया, उसे किसी ने पुकारा — और वो नाम था “वेदांत…” यह सुनकर रुचिका भी सिहर उठी। “ये कैसे हो सकता है? वहाँ कोई नहीं था।” वेदांत पहली बार असमंजस में था। विज्ञान और तथ्यों की उसकी मजबूत नींव में दरारें पड़ रही थीं। वह अब न केवल एक पुरातात्विक खोज कर रहा था, बल्कि किसी ऐसे द्वार के सामने खड़ा था, जो भूत, वर्तमान और भविष्य — तीनों को एक साथ निगल सकता था। नागराज पाटील मंदिर की सीढ़ी के पास खड़े थे, आँखें बंद किए, हाथ में रुद्राक्ष पकड़े बुदबुदा रहे थे — “एक गया, दूसरा भी चला गया… और अब तीसरे की बारी है। द्वार जाग गया है, त्रिपाठी साहब।”

*

सुबह का सूरज हल्की धुंध से झाँक रहा था, लेकिन चिखली गाँव में रात का अंधेरा अभी भी लोगों के मन में छाया हुआ था। मंदिर के प्रांगण में एक भयाक्रांत खामोशी पसरी थी। वेदांत त्रिपाठी ने रातभर संदीप की रिकॉर्डिंग को कई बार देखा था — हर बार उस एक क्षण को रोककर, जिसमें “वेदांत” नाम पुकारा गया था। वह स्पष्ट रूप से एक गहरी, अनजानी आवाज़ थी — न संदीप की, न किसी और की जिसे टीम में वेदांत जानता हो। कैमरे की अंतिम फ्रेम में जो छाया थी, वो जैसे इंसान की नहीं, किसी ऐसी आकृति की थी जिसे समझ पाना फिलहाल असंभव था। रुचिका पास में बैठी थी, उसके हाथों में एक पुराना शिलालेख था, जिसे रात में उसने मंदिर की पश्चिमी दीवार से उतारा था। उसमें एक चित्र था — एक त्रिशूल, एक द्वार, और उसके सामने झुके हुए तीन मनुष्य। “तीन बलिदान के बिना द्वार नहीं खुलता,” — यही वाक्य अंकित था। रुचिका ने फुसफुसाकर कहा, “ये कोई साधारण सुरंग नहीं, वेदांत… ये किसी और युग की चेतावनी है। संदीप वो पहला बलिदान बन चुका है।”

वेदांत उठ खड़ा हुआ और मंदिर की पिछली सीढ़ियों की ओर बढ़ा, जहाँ से संदीप गायब हुआ था। वहाँ अब पुलिस की लाल रिबन लगी थी, लेकिन वेदांत ने उसे हटाकर नीचे झाँकने की हिम्मत की। सीढ़ियाँ अंधेरे में विलीन हो रही थीं, जैसे कोई निर्वात उन्हें निगल रहा हो। उसके हाथ में टॉर्च थी, पर जैसे ही उसने रौशनी नीचे की ओर फेंकी, एक चमकती सतह दिखाई दी — जैसे सीढ़ियों पर कोई प्रतीक खुदा हो। नागराज पाटील, जो मंदिर की चौखट पर मौन बैठे थे, अचानक बोल उठे, “द्वारपाल को पहचान कर ही अंदर जाना चाहिए। वरना तुम लौट नहीं पाओगे।” वेदांत ने उन्हें प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। नागराज ने एक गहरी साँस लेकर कहा, “हर प्राचीन मंदिर में एक द्वारपाल होता है — ये प्रतीकात्मक नहीं, वास्तविक होता है। वह जीवित आत्मा है जो द्वार की रक्षा करता है। जब कोई द्वार जागता है, तो उसका द्वारपाल भी जाग जाता है। और तब कोई भी, जो अयोग्य है, उसे प्रवेश नहीं मिलता — वो बस खो जाता है।”

उस दोपहर को टीम के दो अन्य सदस्य, विकास और मनीष, जो टेंट के पास उपकरण समेट रहे थे, अचानक दौड़ते हुए मंदिर की ओर आए। “सर! कुछ अजीब हुआ है…” विकास हाँफते हुए बोला। “हमने टेंट के पास एक आवाज़ सुनी… जैसे कोई रो रहा हो… और जब हमने टॉर्च डाली, वहाँ कुछ था…” वेदांत, रुचिका और सरपंच फौरन टेंट की ओर भागे। वहाँ की मिट्टी पर ताज़े पैर के निशान थे — नंगे पाँव, और उल्टे। वह निशान मंदिर की ओर नहीं, बल्कि पास के जंगल की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन हैरानी की बात यह थी कि वे निशान उसी व्यक्ति के जूते के साइज के थे — जो कल लापता हुआ था — संदीप सावंत। रुचिका काँपते हुए बोली, “वो जीवित है?” वेदांत कुछ नहीं बोला। वह सीधा निशानों के पीछे चल पड़ा, उसके पीछे सब। रास्ता एक पुराने पीपल के पेड़ की ओर जाता था, जिसके तने पर त्रिशूल का चिह्न खुदा था, और नीचे — एक छोटी मूर्ति रखी थी, जो द्वारपाल की आकृति जैसी दिखती थी — तीन आँखों वाला एक पुरुष, जिसके मुँह पर साँप लिपटा हुआ था। उसी मूर्ति के सामने मिट्टी पर लिखा था — “मैं द्वारपाल हूँ। तुम अंदर नहीं जा सकते। अभी नहीं।”

रात को वेदांत ने निर्णय लिया — अगली सुबह वह खुद उस सुरंग में उतरेगा। संदीप को अगर वापस लाना है, और इस रहस्य को सुलझाना है, तो उसे व्यक्तिगत जोखिम उठाना होगा। उसने पूरी योजना बनाई — रस्सी, हेलमेट, बैटरी, जीपीएस ट्रैकर — सब तैयार किया गया। नागराज पाटील ने उसे रोका नहीं, सिर्फ़ एक छोटा रुद्राक्ष का बंधन उसके हाथ में बाँध दिया। “ये तुम्हें उसकी निगाह से बचाएगा जो अंधेरे में देखता है।” सुबह चार बजे, पूरी टीम मंदिर के पिछवाड़े इकट्ठा हुई। रुचिका की आँखों में डर था, लेकिन वेदांत के चेहरे पर संकल्प। जैसे ही उसने पहला कदम उस प्राचीन पत्थर की सीढ़ियों पर रखा, एक अजीब सिहरन उसके शरीर में दौड़ गई — जैसे मंदिर ने उसकी उपस्थिति को पहचान लिया हो। और जब उसने अंतिम सीढ़ी पर पैर रखा, नीचे की सुरंग का अंधकार जैसे उसे निगल गया। पीछे से नागराज की आवाज़ आई — “तीसरे की बारी आ चुकी है… द्वार अब पूरी तरह जाग चुका है।”

*

जैसे ही वेदांत त्रिपाठी ने अंतिम सीढ़ी पर कदम रखा, उसके पैरों के नीचे की ज़मीन किसी ठोस धरती जैसी नहीं, बल्कि किसी दबी हुई सांस की तरह हल्की और धड़कती हुई महसूस हुई। उस सुरंग का तापमान अचानक कई डिग्री कम हो गया था — जैसे भीतर किसी और ही दुनिया की हवा बह रही हो। उसकी टॉर्च की रौशनी सिर्फ़ कुछ फीट आगे तक जा रही थी, बाक़ी सब घना अंधकार था, जो प्रकाश को निगल लेता था। हर दीवार पर किसी अनजानी लिपि में कुछ खुदा हुआ था, और बीच-बीच में तांबे की पट्टियाँ लगी थीं, जिन पर कुछ प्रतीक चिन्ह — त्रिशूल, सर्प, और एक रहस्यमयी ‘तीसरी आँख’ उकेरी गई थी। वेदांत हर कदम सावधानी से रख रहा था, पीछे रस्सी जुड़ी थी जो बाहर रुचिका और बाकी टीम ने पकड़ी थी। पर अभी कुछ ही मिनट बीते थे कि वह रस्सी अचानक खिंचने लगी — जैसे किसी ने उसे कसकर पकड़ लिया हो। ऊपर से रुचिका चिल्लाई, “सर, क्या सब ठीक है?” वेदांत ने जवाब देने की कोशिश की, लेकिन उसकी आवाज़ जैसे दीवारों में समा गई। तभी उसे एक धीमी फुसफुसाहट सुनाई दी — “वेदांत… तू आया…?”

वह जमकर खड़ा हो गया। फुसफुसाहट सामने की गहराई से आ रही थी। उसने टॉर्च उठाई और सामने देखा — एक तंग मार्ग किसी भूलभुलैया की तरह नीचे उतर रहा था। सुरंग की दीवारें अब जीवित लग रही थीं — उन पर चित्र जैसे हिल रहे थे, सांस ले रहे थे। उसने साहस कर अगला मोड़ पार किया और तभी उसे सामने एक आकृति दिखाई दी — कोई बैठा था, पीठ उसकी ओर थी। वेदांत ने धीरे से आवाज़ दी, “संदीप?” वह आकृति हिली, लेकिन मुड़ी नहीं। वेदांत ने पास जाकर कंधे पर हाथ रखा — और तभी वह आकृति पीछे घूमी। उसका चेहरा अधजला था, आँखें काली, और मुँह से खून रिस रहा था। पर वह संदीप ही था। उसकी आँखों में भय नहीं था — एक अजीब शांति थी। उसने कहा, “मैं लौट नहीं सकता, सर। आप भी मत लौटिए।” और फिर वह अचानक उठकर सुरंग के अंधकार में विलीन हो गया, जैसे वहाँ कभी था ही नहीं। वेदांत पीछे भागा, पर अब वो रास्ता नहीं रहा — जैसे सुरंग ने अपने रास्ते बदल लिए हों। वह एक गोल कक्ष में फँस चुका था, जिसकी दीवारें धीरे-धीरे सिकुड़ रही थीं।

बाहर, मंदिर के ऊपर बादल घिरने लगे थे। नागराज पाटील ने एक मंत्रोच्चारण शुरू किया, जिसे वह वर्षों से नहीं बोले थे। “द्वार जाग चुका है… त्रिकाल की ऊर्जा एकत्र हो रही है… वह जो नीचे गया है, अब या तो द्वारपाल बनेगा… या बलिदान।” रुचिका ने रस्सी को खींचने की कोशिश की, लेकिन वह अब पत्थर जैसी कठोर हो चुकी थी। जीपीएस ट्रैकर ने भी वेदांत की लोकेशन दिखाना बंद कर दिया था। मंदिर की घंटियाँ अपने आप बज रही थीं — लगातार — जैसे किसी अनदेखे भय की चेतावनी दे रही हों। तभी हवा में एक अजीब गंध फैली — धूप और सड़े हुए फूलों की — और मंदिर के गर्भगृह से एक सूक्ष्म कंपन निकला। नागराज ने रुचिका से कहा, “अब केवल एक ही रास्ता है… उसे उस द्वार के रहस्य को पूरा करना होगा… नहीं तो वह इस लोक का नहीं रहेगा।”

नीचे, वेदांत उस संकरे गोल कक्ष से निकलने का रास्ता खोज रहा था। तभी उसकी टॉर्च बुझ गई। अब सिर्फ़ अंधकार था — और भीतर किसी के चलने की आहट। उसने अपने रुद्राक्ष को पकड़ा, जिसे नागराज ने बाँधा था, और आँखें बंद कीं। तभी किसी ने उसका हाथ छुआ — नर्म, ठंडा, लेकिन मानवीय। आँखें खोलते ही उसने देखा — एक बच्ची खड़ी थी, काले कपड़ों में, जिसके माथे पर वही तीसरी आँख का चिह्न था। उसने कहा, “तुमने द्वार की परीक्षा दी… अब द्वार तुम्हें रास्ता देगा… पर शर्त है, जब तुम लौटो, एक प्रश्न का उत्तर लाओ — ‘तुम कौन हो, अगर तुम्हारी यादें ना हों?’” वेदांत कुछ समझ पाता, उससे पहले ही चारों दीवारें पीछे खिसकने लगीं — और वह सुरंग एक बार फिर खुल गई। वह ऊपर की ओर भागा, और कुछ ही मिनटों बाद — एक तेज़ आवाज़ के साथ — सीढ़ियों के अंतिम छोर पर आ गिरा। ऊपर मंदिर के प्रांगण में लोग दौड़ पड़े। रुचिका ने उसे देखा — चेहरा थका हुआ, आँखें खाली, और रुद्राक्ष काले पड़ चुके थे। वेदांत कुछ नहीं बोला। सिर्फ़ यही कहा — “संदीप अब हमारा नहीं रहा। और ये द्वार… अभी पूरी तरह खुला नहीं है।”

*

वेदांत त्रिपाठी की वापसी भले ही एक चमत्कार जैसी लग रही थी, पर उसका मौन, उसकी आँखों की गहराई, और रुद्राक्ष की काली हो चुकी माला एक अलग ही कहानी कह रही थी। मंदिर के प्रांगण में मौजूद हर व्यक्ति उसे छूकर देख लेना चाहता था — जैसे वो अब किसी और लोक से लौटा हो। वेदांत सीधे अपनी टेंट में चला गया, कुछ नहीं बोला, कुछ नहीं पूछा। रुचिका उसके पीछे गई, पर उसने सिर्फ़ एक वाक्य कहा — “मैंने वहाँ कुछ देखा, जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता।” इसके बाद वह गहरी नींद में सो गया, या शायद किसी ट्रान्स में चला गया। उसी रात नागराज पाटील मंदिर के गर्भगृह में गए, जहाँ उन्होंने वर्षों से बंद एक संदूक खोला। उसमें एक पुराना, धूल से भरा ताम्रपत्र था, जिस पर सिर्फ़ एक ही श्लोक खुदा था — “द्वारपाल वही, जो अपने भीतर के अंधकार को पहचान ले।” नागराज ने उस ताम्रपत्र को देखकर आँखें मूँद लीं। “समय आ गया है,” उन्होंने धीरे से कहा, “द्वारपाल जाग चुका है… पर उसे अपनी पहचान अभी भी नहीं मिली।”

अगले दिन, वेदांत सामान्य लगने की कोशिश कर रहा था। लेकिन वो खुद जानता था कि अब वह पहले जैसा नहीं रहा। उसने रुचिका को बताया कि सुरंग के अंदर जो बच्ची मिली थी, उसने एक प्रश्न किया था — “तुम कौन हो, अगर तुम्हारी यादें ना हों?” यह प्रश्न किसी पहेली से कम नहीं था, लेकिन वेदांत को अब विश्वास होने लगा था कि उसका इस द्वार से कुछ गहरा संबंध है। वह मंदिर के पीछे के क्षेत्र में गया, जहाँ कभी कोई नहीं जाता था — वहाँ एक सूखी झील थी, और उसके बीचोंबीच एक चबूतरा, जिस पर वर्षों पुराना एक खंभा खड़ा था — त्रिशूल का प्रतीक लिए हुए। वहीं एक साधु बैठा था — एकदम स्थिर, आँखें बंद, चेहरे पर राख और भस्म का लेप। वेदांत ने उसे देखा और उसके पास जाकर बैठ गया। साधु ने कुछ नहीं कहा, बस धीरे से अपनी उँगली उसकी ओर उठाई और मुँह से निकला — “तू द्वारपाल है… तुझे नहीं पता था, पर अब वो जान गया है… और वो तुझे अब जाने नहीं देगा।” वेदांत सिहर उठा। “कौन है वो?” उसने पूछा। साधु ने मुस्कराकर कहा — “वो जो शिव से पहले था… जिसने द्वार बनाया, लेकिन अब बंदी है अपने ही बनाये लोक में।”

इस उत्तर ने वेदांत को हिलाकर रख दिया। उसने तुरंत मंदिर के पश्चिमी कोने की ओर रुख किया — जहाँ दीवार पर पहले जो शिलालेख रुचिका ने पढ़ा था, उसके नीचे एक नया निशान उभरा था — यह संभव नहीं था, क्योंकि पत्थर पर कुछ भी खुद-ब-खुद नहीं उभर सकता… लेकिन यह निशान वही ‘तीसरी आँख’ थी, जो बच्ची के माथे पर थी। वह समझ गया कि मंदिर अब उसकी गतिविधियों पर प्रतिक्रिया दे रहा है — जैसे किसी जीवित प्राणी की तरह। वह रात रुचिका के साथ मंदिर के गर्भगृह में बिताने का निर्णय लिया। वह वहाँ बैठा रहा, ध्यानस्थ, जबकि रुचिका ने पुरानी पांडुलिपियाँ और शिलालेखों को खंगालना शुरू किया। तभी एक पंक्ति मिली — “जिसने चक्रव्यूह में प्रवेश किया, वह यदि अज्ञान में गया, तो बलिदान; यदि ज्ञान में गया, तो द्वारपाल। तीसरे को चुनने का अधिकार द्वार का है, व्यक्ति का नहीं।” रुचिका चौंक गई। “इसका मतलब… आप कभी चुन ही नहीं सकते कि आप क्या बनेंगे। आप सिर्फ़ जाते हैं… और द्वार तय करता है।”

रात के ठीक 3:33 बजे मंदिर की घंटियाँ फिर से बज उठीं। लेकिन इस बार उनकी ध्वनि में कंपन था — जैसे भूमि काँप रही हो। गर्भगृह की दीवार पर मौजूद शिवलिंग के पीछे की दीवार में एक दरार उभर आई — और उस दरार से निकल रही थी धूप की हल्की किरण — जबकि बाहर गहरा अंधकार था। वेदांत ने उस दरार की ओर बढ़ते हुए कहा, “यह दरार… यह प्रवेश द्वार नहीं, मेरी स्मृतियों की खिड़की है। मैं जानता हूँ, मैं पहली बार नहीं आया यहाँ। यह मेरा पूर्वजन्म है… या कोई भूली हुई स्मृति।” नागराज पाटील उस क्षण वहाँ पहुँचे और बोले, “आपकी माँ जब आपको यहाँ पहली बार लेकर आई थीं, तब आप सिर्फ़ चार साल के थे। आप इस मंदिर के सामने घंटों बैठे रहते थे, बिना कुछ बोले। तब कोई समझ नहीं पाया, पर अब समझ आया कि आप ही वो चुने गए व्यक्ति हैं।” वेदांत स्तब्ध रह गया। यह स्मृति उसे कभी याद नहीं थी। लेकिन अब सब जुड़ने लगा था।

उसी रात मंदिर के परिसर में सब कुछ शांत था — पर वेदांत के भीतर एक द्वंद्व चल रहा था। वो जानता था — उसे फिर जाना होगा… उस द्वार के अंदर… लेकिन इस बार सिर्फ़ खोज के लिए नहीं, बल्कि उस ऊर्जा को नियंत्रित करने के लिए जो अब जाग चुकी थी। और शायद… अब वह सिर्फ़ वेदांत त्रिपाठी नहीं रहा था… अब वह स्वयं द्वारपाल बनने की राह पर था।

*

मंदिर के गर्भगृह में पसरा सन्नाटा किसी अंतर्निहित नाद की तरह गूंज रहा था। वेदांत त्रिपाठी ध्यानमग्न अवस्था में बैठा था, उसकी साँसें स्थिर और गहरी थीं, मानो वह भीतर ही भीतर किसी दूसरे लोक से संवाद कर रहा हो। पिछली रात की घटनाएँ अब उसकी चेतना का हिस्सा नहीं रहीं — वे उसकी स्मृति में अंकित हो चुकी थीं, जैसे किसी पुराने ताम्रपत्र पर लिखी कोई धरोहर। नागराज पाटील उस समय चुपचाप एक कोने में बैठकर रुद्राक्ष जप रहे थे। वह अब वेदांत को “त्रिपाठी साहब” नहीं, सिर्फ़ “द्वारपाल” कहकर संबोधित करते थे — और यह परिवर्तन केवल एक शब्द का नहीं था, यह एक युगांतर की शुरुआत थी। रुचिका बाहर खड़ी थी, उसकी आँखों में भय नहीं, पर गहरी जिज्ञासा थी। वह जानती थी कि अब जो होने वाला है, वह सिर्फ़ शोध का विषय नहीं, बल्कि अस्तित्व की परीक्षा है।

वेदांत ने आँखें खोलीं और सीधा शिवलिंग के पीछे बनी उस दरार की ओर देखा, जो अब और अधिक चौड़ी हो गई थी। उससे निकलती रौशनी अब गाढ़ी, नीली हो चुकी थी — जैसे किसी गहरे समुद्र की चमकती लहर। उसने धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ाया और जैसे ही उसने उस दरार को छुआ, पूरा गर्भगृह एक कंपन से भर गया। दीवारें गूंज उठीं — और उसी क्षण एक तेज़ झटका उसे खींचता चला गया। वह गिरता गया… किसी सुरंग में… एक सर्पिल मार्ग के भीतर… जहाँ समय और दिशा दोनों खो गए थे। जब उसकी चेतना लौटती है, वह खुद को एक गोलाकार कक्ष में पाता है — जिसकी दीवारें आईनों से बनी थीं, लेकिन उनमें कोई प्रतिबिंब नहीं था। वहाँ केवल परछाइयाँ थीं — और हर परछाई में कोई चेहरा छिपा था। तभी सामने एक आकृति प्रकट होती है — वही बच्ची, पर अब वह साधु रूप में बदल चुकी है। उसकी तीसरी आँख खुली है, और वो कहती है — “स्वागत है चक्रव्यूह में, द्वारपाल। अब तुम भूल जाओगे कि तुम कौन थे… और याद रखोगे जो तुम्हें बनना है।”

चारों ओर से वेदांत की यादें टूटने लगीं — बचपन, माँ की गोद, पहली किताब, पहला रिसर्च पेपर, पहली खुदाई… सब किसी पानी में घुलते स्याही की तरह मिटते जा रहे थे। और फिर उसकी आँखों के सामने एक दृश्य प्रकट हुआ — वही सुरंग, वही मंदिर… लेकिन समय अलग था। उसमें वेदांत नहीं था, बल्कि एक और व्यक्ति — हूबहू वेदांत जैसा — उसी सीढ़ी से नीचे उतर रहा था… और वह दृश्य धीरे-धीरे साफ़ हुआ… 1823, ताम्रलिपि में खुदी हुई एक तिथि… और उस वेदांत जैसे व्यक्ति के गले में वही रुद्राक्ष… और उस समय भी, एक युवक गायब हुआ था… और वही द्वार जागा था। वेदांत को समझ आ गया — वह इस चक्रव्यूह में पहली बार नहीं था। वह पहले भी आया था… उसी मंदिर में, उसी द्वार के सामने। उसका पुनर्जन्म नहीं हुआ था… वह लौट आया था, हर युग में, एक ही भूमिका में — द्वारपाल बनने के लिए।

इसी क्षण, कक्ष की दीवारों से निकलकर एक छाया आकार लेती है। यह संदीप था — पर अब वह पूरी तरह मानव नहीं रहा। उसकी आँखें शून्य में ताक रही थीं, और वह वेदांत की ओर बढ़ रहा था। “तुम आ गए,” उसने कहा, “अब मैं जा सकता हूँ… अगर तुम मेरी जगह लो।” वेदांत पीछे हटा, पर बच्ची — अब साधु रूपी आचार्या — कहती है, “यह नियम है, द्वारपाल का चयन बलिदान से होता है। जब तक एक भीतर रहेगा, दूसरा बाहर जा सकता है।” वेदांत चुप रहा, उसकी आँखों में विचारों का तूफान था। संदीप की आँखों में अब एक आँसू झिलमिला गया था — “मुझे सिर्फ़ मेरे माँ-पिता की तस्वीर याद है… और कुछ नहीं। मैं हर रात इस सुरंग में किसी की चीखें सुनता हूँ, किसी की हँसी… मैं अब जीना नहीं चाहता, पर मैं मर भी नहीं सकता।”

वेदांत ने अपनी हथेली खोली — वहाँ रुद्राक्ष की माला अब जल रही थी, नीली लौ में। उसने माला संदीप के गले में डाल दी और कहा — “जा, और उनके पास लौट जा… जिन्हें तू याद करता है।” तभी एक प्रकाश फूटता है, और संदीप की छाया तिरोहित हो जाती है — ऊपर की ओर उड़ती हुई। अब कक्ष खाली था… और बच्ची ने मुस्कुराकर कहा — “अब तुम पूर्ण हो गए… द्वारपाल।” उसी क्षण दीवारों से एक द्वार उभर आया — असली द्वार — और उस पर लिखा था, “यत्र सत्यं तत्र द्वारपाल।” वेदांत ने दरवाज़ा खोला — और वहाँ से बाहर मंदिर का गर्भगृह दिखाई दिया। वह बाहर निकल आया — लेकिन अब उसका चेहरा शांत नहीं, दिव्य था। रुचिका ने उसे देखा — अब वह वेदांत नहीं था, अब वह मंदिर का रक्षक था। नागराज ने झुककर प्रणाम किया, “स्वागत है… नये द्वारपाल।”

*

उस रात चिखली के आकाश में तारे किसी पुराने ग्रंथ की अक्षरों की तरह चमक रहे थे। मंदिर परिसर में जो शांति फैली थी, वह साधारण नहीं थी — यह उस मौन की तरह थी जो किसी विशाल शक्ति के जागने के बाद स्थापित होता है। वेदांत त्रिपाठी अब सिर्फ़ एक मनुष्य नहीं था। उसके स्पर्श से मंदिर की दीवारें गूंज उठती थीं, और उसके मन में जो बात उठती, वह शिलालेख बनकर पत्थरों पर उभर आती। रुचिका अब उसे ‘सर’ नहीं कहती थी, न ही ‘वेदांत’। वह अब सिर्फ़ देखती थी — एक ऐसे व्यक्ति को, जो उसी के सामने कुछ दिन पहले साधारण था, और अब किसी रहस्य का जीवंत अवतार। नागराज पाटील तो अब मंदिर की मुख्य सीढ़ियों पर बैठकर भजन गाते रहते थे — मानो अपने कर्तव्य का निर्वाह पूरा कर चुके हों। पर वेदांत जानता था — अब असली परीक्षा शुरू हुई थी। द्वारपाल बनने का अर्थ था — उस रहस्य का सामना करना, जो द्वार के परे था। वह, जो शिव से भी पहले अस्तित्व में था।

गर्भगृह में जिस दीवार के पीछे द्वार खुला था, वहाँ अब एक नई आकृति उभर चुकी थी — आधे मानव और आधे नाग की। उसके माथे पर तीसरी आँख थी, पर वह शिव नहीं था। उसके हाथों में त्रिशूल की जगह एक वक्र सर्प था — और उसकी मुद्रा में आदेश नहीं, इंतज़ार था। रुचिका ने उस आकृति को देखकर पुरानी पांडुलिपियों की ओर दौड़ा लिया। “यह किसी भी ज्ञात देवता से मेल नहीं खाती… यह तो ‘अनंत’ का प्रतीक है,” उसने फुसफुसाकर कहा। अनंत — वो शक्ति, जो समय से परे है, जो शिव के पहले भी थी, और जिसके विचारों से ही ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ। वेदांत ने कहा, “यही है असली द्वार… यह मुझे बुला रहा है… क्योंकि जो रहस्य अभी तक मिट्टी में दबा था, अब वह स्मृति बनकर मेरे भीतर पनप चुका है।” नागराज पाटील ने आँखें मूँदकर कहा — “आपका अंतिम पथ अब शुरू होता है, द्वारपाल। यह वह मार्ग है, जहाँ से लौटना संभव नहीं… वहाँ केवल एक ही है — जो सबका आदि है… और अंत भी।”

वेदांत ने अगली रात अकेले मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश किया। द्वार अब पूरी तरह खुला था, और उसके भीतर से कोई स्वर नहीं, कोई आहट नहीं — बस एक गहरा आकर्षण था, जैसे किसी ने उसकी आत्मा को पुकारा हो। उसने जैसे ही अंदर कदम रखा, उसका शरीर भारी होने लगा। वह गिरा नहीं, पर ठिठक गया — जैसे समय थम गया हो। और फिर… सामने एक आकृति प्रकट हुई — विशाल, सर्प के फन जैसी पीठ, चार भुजाएँ, और एक चेहरा जिसमें कोई आंख नहीं, पर फिर भी सब देख रहा था। उसकी आवाज़ सीधे वेदांत के भीतर गूंजी — “तुम आये हो, पुनः। हर युग में। हर बार भूल कर। पर इस बार… तुम रुकोगे।” वेदांत ने हिम्मत कर पूछा, “तुम कौन हो?” उत्तर आया — “मैं वह हूँ जो शिव से पहले था। मैं प्रथम द्वार का रक्षक था। पर जब तुमने पहला जन्म लिया, तुमने मुझे विस्मृत कर दिया। अब तुम्हें स्मरण दिलाना है… अपने मूल की… अपने भय की… अपने अंधकार की।”

दीवारों पर चित्र बदलने लगे — जैसे ब्रह्मांड बन रहा हो, फिर टूट रहा हो, फिर जन्म ले रहा हो। वेदांत ने देखा कि वह स्वयं एक अंधकार में खड़ा है, जहाँ उसकी परछाई नहीं है। और उस अंधकार से आवाज़ आती है — “तू केवल रक्षक नहीं… तू वही द्वार है… तू ही प्रवेश है… और तू ही निषेध।” वह काँप उठा। उसकी स्मृतियाँ एक तूफान की तरह घूमने लगीं — न केवल इस जन्म की, बल्कि हर उस जन्म की, जिसमें वह इसी मंदिर की छाया में था। कभी एक पुजारी, कभी एक योद्धा, कभी एक बालक। और हर बार, उस द्वार से जुड़ा हुआ।

अब वेदांत पूरी तरह नत था। उसने पूछा — “अब मैं क्या करूँ?” उत्तर आया — “तू द्वारपाल है… पर यह द्वार अब बंद नहीं होगा… क्योंकि तू अब जाग गया है। अब तुझे उसका इंतज़ार करना है — जो तेरी जगह लेगा। और जब वह आएगा… द्वार फिर से पूछेगा वही प्रश्न — ‘तू कौन है, अगर तेरी स्मृतियाँ ना हों?’”

अचानक सब कुछ शांत हो गया। वेदांत ने आँखें खोलीं — वह फिर मंदिर में था। लेकिन अब गर्भगृह की दीवारें बदल चुकी थीं। उनमें अब वेदांत की मूर्ति खुदी थी — और नीचे लिखा था — “द्वारपाल — वेदांत त्रिपाठी”। रुचिका बाहर इंतज़ार कर रही थी। उसने देखा — वेदांत मुस्कुरा रहा है, पर उसकी आँखें बहुत दूर देख रही थीं। उसने धीरे से पूछा, “क्या आप लौट आए?” वेदांत ने कहा — “हाँ, लेकिन अब मैं ठहरूँगा। क्योंकि अगली बार… किसी और को जाना होगा।”

*

वर्ष बीत चुके थे। चिखली गाँव का शिवमंदिर अब एक आम तीर्थ स्थल नहीं रहा। उसका नाम अब उन नक्शों पर दर्ज था जिनमें केवल वर्जित स्थलों को चिन्हित किया जाता है। मंदिर के चारों ओर कंटीली बाड़ लगा दी गई थी, पुरातत्व विभाग की विशेष निगरानी थी, और आम जन के लिए प्रवेश निषिद्ध था। पर हर रात्रि पूर्णिमा की रात, मंदिर की घंटियाँ बिना किसी छेड़छाड़ के बज उठती थीं — एक अज्ञात लय में, जो केवल वे सुन पाते थे, जिनका अतीत कहीं उस द्वार से जुड़ा था। वेदांत त्रिपाठी अब किसी सरकारी रजिस्टर में नहीं थे। उनके बारे में कोई रिपोर्ट नहीं, कोई पहचान पत्र नहीं — वे केवल द्वारपाल के नाम से जाने जाते थे। वह अब मंदिर से बाहर नहीं जाते थे। उन्होंने गर्भगृह के समीप एक साधु जैसी कुटी बना ली थी, जहाँ वे ध्यान में बैठते, और प्रतीक्षा करते — अगले को, जो बुलाया जाएगा। क्योंकि द्वार अब पूरी तरह जाग चुका था… और हर द्वार किसी को पुकारता है।

रुचिका देशमुख ने अपना पुरातत्व विभाग का पद छोड़ दिया था। वह अब चिखली के पास ही एक छोटे पुस्तकालय की संचालिका बन चुकी थीं, जहाँ वह ‘अनौपचारिक इतिहास’ पढ़ाती थीं — वह जो किताबों में नहीं, दीवारों और अनुभवों में लिखा होता है। उन्होंने वेदांत के साथ जो देखा, वह कभी शब्दों में नहीं बाँध पाईं, लेकिन उन्होंने यह जाना कि कुछ रहस्य हल करने के लिए नहीं, स्वीकारने के लिए होते हैं। वह अक्सर मंदिर जातीं, दूर बैठकर देखतीं — वेदांत अब बात नहीं करता था, लेकिन उसकी मौन उपस्थिति ही सबसे गूढ़ संवाद बन चुकी थी। गाँव के कुछ वृद्ध अब भी मंदिर की परिक्रमा करते हुए सिर झुकाते थे — “द्वारपाल की निगाह बनी रहे,” यह उनकी प्रार्थना थी।

और फिर… एक दिन, वह आया। कोल्हापुर से एक युवा शोधार्थी, नाम था ईशान मेहरा। उसने पत्र लिखा था पुरातत्व विभाग को — “मैं चिखली के शिवमंदिर पर शोध करना चाहता हूँ। मुझे लगता है, मेरी आत्मा वहाँ कुछ जानती है, जो मैं भूल चुका हूँ।” उस पत्र को पढ़कर दिल्ली के विभाग में हलचल मच गई। “फिर कोई?” प्रमुख अधिकारी ने कहा, “इतने वर्षों बाद?” लेकिन पत्र को देखकर रुचिका की आँखें फटी की फटी रह गईं। उसमें जो हस्ताक्षर था… वह हूबहू वैसा ही था, जैसा वेदांत ने अपने पहले शोध-पत्र पर किया था — अक्षर दर अक्षर समान। उन्होंने तत्काल उत्तर भेजा — “आइए। द्वार प्रतीक्षा में है।”

ईशान मेहरा जैसे ही चिखली पहुँचा, हवा बदल गई। मंदिर के आसपास की घासें जो सूखी रहती थीं, अब लहलहा उठीं। रात को पहली बार घंटियाँ आठ बार बजीं — जो कभी नहीं हुआ था। नागराज पाटील — अब वृद्ध और दुर्बल — ईशान को देखकर एक क्षण को काँप उठे। “ये वही चेहरा है… वही आँखें… वही चाल,” उन्होंने रुचिका से कहा। रुचिका ने हल्के स्वर में उत्तर दिया, “नया जन्म… पुराना उत्तर।” ईशान को मंदिर के भीतर ले जाया गया। वेदांत वहीं थे — ध्यानस्थ, मौन। ईशान ने उन्हें देखा, जैसे कोई खोई स्मृति उसे पहचान रही हो। “क्या मैं आपको जानता हूँ?” उसने पूछा। वेदांत ने आँखें खोलीं, और पहली बार वर्षों बाद बोला — “नहीं… पर तुम मुझे जानने ही आए हो।” और फिर, मंदिर की दीवारें थरथराने लगीं।

गर्भगृह के पीछे वही दरार फिर उभर आई थी — जो वर्षों तक शांत रही थी। वेदांत ने ईशान को देखा, और धीरे से कहा — “द्वार बुला रहा है। सवाल वही रहेगा — तू कौन है, अगर तेरी स्मृतियाँ न हों?” ईशान ने कुछ नहीं पूछा। उसने जैसे किसी गहरे आदेश का अनुसरण करते हुए एक-एक सीढ़ी पार करनी शुरू की। रुचिका ने देखा — अब वही क्रम शुरू हो चुका था। नागराज धीरे-धीरे माला फेरते बोले — “अब एक और बनेगा द्वारपाल… और एक और भूल जाएगा कि वह कौन था… ताकि याद करे कि उसे क्या बनना है।”

जैसे ही ईशान ने अंतिम सीढ़ी पर कदम रखा, सुरंग एक बार फिर जीवंत हो गई। वही शून्य, वही आईने, वही छायाएँ… और वहीं उसका इंतज़ार कर रहा था — वह जो शिव से पहले था।

*

सुरंग की हवा अब निश्चल नहीं थी — वह साँस ले रही थी, जैसे हर दीवार में कोई सोया हुआ श्वास धीरे-धीरे जाग रहा हो। ईशान मेहरा ने जब अंतिम सीढ़ी पर कदम रखा, एक आभासी दीवार टूटती-सी प्रतीत हुई — जैसे समय और चेतना के बीच की झिल्ली फट गई हो। चारों ओर वही गोलाकार कक्ष, वही आईनों जैसी दीवारें, लेकिन अब उनमें कोई परछाई नहीं थी — अब उनमें वो दिख रहा था, जो कभी भुला दिया गया था। ईशान ने देखा — वह स्वयं एक दीवार में खड़ा है, पर जैसे कोई और जीवन जिया हो। एक योद्धा, जो सर्पों से जूझ रहा था। एक पुजारी, जो अग्नि की वेदी पर नील वर्ण के रक्त से यज्ञ कर रहा था। एक बालक, जो अंधकार में किसी द्वार की ओर दौड़ रहा था, और बार-बार पीछे मुड़कर किसी को पुकार रहा था — “वेदांत! रुको!”

तभी वह आवाज़ फिर गूंजी — वही जो वेदांत के भीतर वर्षों पहले गूंजी थी — “स्वागत है, अगले द्वार पर। युगांत निकट है, और तुझे अब स्मरण कराना है — तू वो नहीं जो तू सोचता है… तू वो है जो हर युग में आया है, और हर युग को पूर्ण करने चला गया है।” ईशान ने काँपते हुए पूछा, “क्या मैं भी द्वारपाल हूँ?” उत्तर आया — “नहीं… तू दर्पण है… जो सत्य दिखाता है, पर अपने प्रतिबिंब को नहीं देख सकता।” ईशान कुछ समझ नहीं पाया। तभी सामने, घने अंधकार में, धीरे-धीरे कोई आकृति प्रकट हुई — विशाल, सर्पाकार पीठ, तीसरी आँख खुली, पर चेहरा अभी भी अस्पष्ट।

“वेदांत…” ईशान के होंठों से यह नाम निकला, बिना सोच के। और उसी क्षण, पीछे से वेदांत त्रिपाठी प्रकट हुए — अब पूरी तरह द्वारपाल के रूप में, नीली ज्वाला-सी आभा से घिरे हुए। उन्होंने ईशान को देखा, और कहा — “तुम वही हो… जो मुझे पहली बार द्वार की ओर ले गया था। पर तब तुम बच्चा थे, अब पूर्ण हो। अब यह चक्र पूरा होना है।” ईशान के शरीर में बिजली-सी दौड़ गई। वेदांत ने आगे कहा — “हर युग में हम एक ही रहस्य की ओर लौटते हैं… लेकिन अंततः उसे स्वीकारने वाला कोई दूसरा होता है। मैं द्वारपाल हूँ… और तुम वह दर्पण, जिसमें स्वयं अनंत झाँकता है।”

वेदांत और ईशान साथ आगे बढ़ते हैं — और दीवार के बीचोंबीच अब एक दरवाज़ा नहीं, बल्कि एक जल-सा चमकता पर्दा बन चुका है। वे दोनों उसमें प्रवेश करते हैं — और जैसे ही भीतर जाते हैं, समय पूरी तरह शून्य में विलीन हो जाता है। वहाँ न दिन है, न रात। वहाँ सब कुछ है, और कुछ भी नहीं। वहीं एक मंच के केंद्र में — वह खड़ा है, जो शिव से पहले था। पर अब उसका चेहरा दिखता है — वह ना देव है, ना दानव — वह शून्य है, उसकी आँखों में ब्रह्मांड जन्म लेता है, और मरता है। वह बोलता नहीं, फिर भी समझा देता है —
“जब तुम मुझे खोजते हो, तो तुम स्वयं को खोजते हो। जब तुम द्वार पार करते हो, तो तुम स्वयं बन जाते हो द्वार।”

ईशान अब जान चुका था — उसका जीवन सिर्फ़ वर्तमान जन्म नहीं था। वह वह था, जो वेदांत के जन्म से पहले भी था। एक युग समाप्त करने वाला, एक युग आरंभ करने वाला। वेदांत अब धीरे-धीरे पीछे हटता है, उसकी देह धीरे-धीरे मिट्टी, रौशनी और अंततः शून्य में बदल जाती है। वह मुस्कराता है — “अब मेरी भूमिका पूर्ण हुई।” ईशान अकेला खड़ा है — अब वही नया द्वारपाल है, और ठीक उसके पीछे — नए द्वार की रेखा उभरती है।

इस युग का द्वार बंद होता है। नया युग रचने को तैयार है। मंदिर के गर्भगृह में अब एक नई प्रतिमा उभरती है — ईशान मेहरा — युगांत का दर्पण।

*

वर्षों बाद चिखली गाँव फिर से शांत था, लेकिन यह वह शांति नहीं थी जो डर से उपजी थी — यह उस सत्य की थी, जिसे लोग अब जान चुके थे, स्वीकार चुके थे। शिवमंदिर अब भी वहीं था, वैसा ही अचल, पर उसकी दीवारों में कोई ऊर्जा हर पल हिलोरें लेती थी — जैसे कोई जाग्रत चेतना उसमें प्रवाहित हो। लोग अब मंदिर के सामने सिर झुकाते हुए प्रार्थना नहीं करते थे — वे मौन में खड़े रहते थे, जैसे उस शक्ति से आँख मिलाकर अपनी लघुता को समझ रहे हों।

गर्भगृह अब भी बंद था। वर्षों से कोई वहाँ नहीं गया था। वहाँ किसी द्वार की दरार नहीं थी, कोई सुरंग नहीं — परंतु जो जानता था, वह जानता था कि असली द्वार अब बाहर खुल गया है। मंदिर की उत्तर दिशा में, जहाँ पहले पथरीली ज़मीन थी, अब एक शिशु-जलधारा बह रही थी — मानो कोई नया जन्म हुआ हो। उस जलधारा के किनारे एक नवजात मिला था — आँखें नीली, ललाट पर गोल निशान, और मुट्ठी में मुड़ी एक ताम्र-पट्टी — जिस पर सिर्फ़ दो शब्द उकेरे थे: “द्वार जीवित है।”

ईशान मेहरा अब स्मृति बन चुका था। न वह मरा, न गया — वह अब मंदिर की छाया में हर उस व्यक्ति के भीतर जी रहा था जो प्रश्न पूछता था — “मैं कौन हूँ?” रुचिका देशमुख अब वृद्ध थीं, लेकिन उनकी आँखों की चमक अब भी वैसी ही थी। उन्होंने चिखली के बच्चों को सिखाना शुरू किया था — पुराण नहीं, किंवदंतियाँ नहीं, बल्कि वो अनकहे अनुभव जो द्वार से होकर गुज़रे थे। वे कहतीं — “शिवमंदिर के पीछे जो था, वह कभी पीछे नहीं था… वह हमेशा हमारे भीतर था। और अब… वह हमारे आगे है।”

नागराज पाटील अब नहीं रहे, पर उनकी समाधि मंदिर के पश्चिमी द्वार के पास बनाई गई थी। उस पर खुदा था — “जिसने द्वार की रक्षा की, जब कोई द्वार को समझ नहीं पाया।” गाँव में अब किसी को डर नहीं था। न कोई सुरंग थी, न कोई प्रतिबंध — पर लोगों की चेतना बदल गई थी। वे समझ गए थे कि हर जन्म, हर जीवन, हर द्वंद्व… किसी न किसी द्वार की ओर ही तो जाता है — और उस द्वार को पार करने के लिए, बाहर नहीं जाना होता… भीतर झाँकना होता है।

एक दिन, एक युवा बालक — जिसका नाम अचेतन था — मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ता है। वह मुड़कर नहीं देखता, न ही डरता। वह बस पूछता है — “अगर स्मृति न हो, तो मैं कौन हूँ?”
मंदिर की घंटी बजती है — सिर्फ़ एक बार।
और उसी क्षण… मंदिर की दीवार पर एक नई रेखा उभरती है।

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