कालसूत्र
भाग 1: वरसा का खून
मुंबई की उस रात में समुद्र शांत नहीं था। लहरों का शोर सड़क की सन्नाटे को काटता जा रहा था, और बंदरगाह की ओर दौड़ती एक काली SUV की हेडलाइट्स किसी अजाने फैसले की गवाही दे रही थीं। गाड़ी की पिछली सीट पर बैठा था आदित्य वरसा — वरसा परिवार का आखिरी वारिस, और अंडरवर्ल्ड का एक उभरता चेहरा।
पिता सुरेश वरसा की दो दिन पहले गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। पुलिस ने इसे “गैंग वॉर” कह कर फाइल बंद कर दी थी, लेकिन आदित्य जानता था कि ये कोई आम दुश्मनी नहीं थी। उसके पिता को मारा गया था — नफरत से नहीं, लालच से।
SUV जहाज़ी डॉक पर रुकी। आदित्य के साथ थे उसके दो भरोसेमंद लोग — शम्सेर और रज्जो। शम्सेर कभी पिता का बॉडीगार्ड था, अब आदित्य के लिए हथियार की तरह था। रज्जो चुप रहता था, लेकिन उसका दिमाग छुरी से भी तेज़ था।
“बॉस, यहीं से सब शुरू हुआ था,” शम्सेर ने इशारा किया — वही जगह जहां सुरेश वरसा की लाश मिली थी। खून के धब्बे अब तक सीमेंट पर जमे थे, जैसे वक्त ने खुद उन्हें संरक्षित कर रखा हो।
“किसने मारा?” आदित्य की आवाज़ सपाट थी।
“शक है कि शेखर भाटिया ने करवाया है,” रज्जो बोला, “वो नवा बाज़ार की डील में हार नहीं पचा पाया।”
“शेखर…” आदित्य के होंठ कस गए। भाटिया खानदान और वरसा परिवार कभी एक साथ काम करते थे, लेकिन पिछले दो सालों से सारा खेल बदल चुका था।
आदित्य नीचे झुका, ज़मीन की मिट्टी उठाई, और धीरे-धीरे मुठ्ठी से गिरा दी।
“खून का कर्ज़ खून से ही चुकता होगा,” उसने कहा।
उस रात वरसा हवेली में मातम था, लेकिन आदित्य की आंखों में सिर्फ़ आग थी। उसने अपनी मां, जान्हवी को देखा, जो चुपचाप पूजा घर में बैठी थी।
“मां, मैं जाने वाला हूं,” उसने कहा।
“किधर?” मां की आवाज़ कंपकंपा रही थी।
“जहां से बाबा को खत्म किया गया था… वहीं से शुरुआत करूंगा।”
“बेटा, बदला कभी पूरी शांति नहीं देता।”
“मां, मैं शांति नहीं चाहता… सिर्फ़ न्याय।”
वो रात वरसा हवेली की आखिरी शांत रात थी।
अगले दिन सुबह अखबार की हेडलाइन थी:
“भाटिया के गोदाम में विस्फोट – तीन मरे”
कोई सबूत नहीं था, कोई चश्मदीद नहीं था — लेकिन अंडरवर्ल्ड जान गया था कि वरसा लौट आया है।
भाग 2: भाटिया की चाल
मुंबई के पाली हिल में स्थित ‘सुरगोह’ नाम की भव्य इमारत की 17वीं मंज़िल पर एक भरी दोपहर में बैठा था शेखर भाटिया — ब्रीफ़केस खोलकर सामने फैलाए दस्तावेज़ों की भीड़ के बीच एक शीशे के गिलास में जैक डेनियल्स का आख़िरी घूँट धीरे-धीरे चखता हुआ। सामने शीशे की दीवार से नीचे देखा तो नज़र आई, समंदर की वही गली, जहां से कल रात वरसा के आदित्य ने उसका पहला पैगाम भेजा था— विस्फोट। तीन लोग मारे गए थे, और उन तीनों की लाशें अब तक पहचान के काबिल नहीं रहीं।
“ये लड़का अब बच्चा नहीं रहा…” भाटिया बुदबुदाया।
“सर,” अंदर घुसते हुए कहा उसके दाहिने हाथ मोहित ने, “अब्बास भाई कह रहे हैं कि हमें नवा बाज़ार का शिपमेंट जल्दी रवाना करना पड़ेगा। वरना दुबई की डील डगमगा जाएगी।”
भाटिया ने धीरे से चश्मा उतारा, आंखें बंद कीं और गहरी सांस ली। “अब्बास को बोलो, कि डील हो या जंग — दोनों में वक्त का हिसाब रखना पड़ता है। और अभी वक्त है वरसा की गर्दन मरोड़ने का।”
मोहित थोड़ा झिझकते हुए बोला, “सर… आदित्य, वो अब आसान नहीं रहा। तीन साल तक वो बाहर था, लेकिन लगता है उसने बहुत कुछ सीखा है। शम्सेर उसके साथ है, रज्जो भी।”
“तो क्या?” भाटिया की आंखों में तीखा आलोक था, “मेरे पास भी पुराना खून है — और नया बारूद।”
वो उठा, और अपनी अलमारी के पिछले हिस्से से एक पुराना नक्शा निकाला — मुंबई का, सत्तर के दशक का। उसमें कई निशान थे, लाल, नीले, और कुछ क्रॉस। एक खास जगह पर भाटिया ने उंगली रखी — धारावी।
“युद्ध वहीं से शुरू होगा,” उसने कहा, “जहां इस शहर का सच पलता है।”
धारावी की गलियों में उस रात हलचल थी। आदित्य ने अपने पुराने सूत्रों को दोबारा जगा दिया था — गुल्ली, जो कभी पान बेचता था, अब इनफॉर्मर बन चुका था; लक्ष्मी काकी, जो कपड़े सिलती थी, अब अंडरवर्ल्ड की हर सरगर्मी की खबर रखती थी; और ‘संतोष बार’, जो शराब से ज़्यादा खबरें परोसता था।
“भाटिया की अगली चाल क्या होगी?” आदित्य ने पूछा, जब वह संतोष बार के पीछे वाले कोने में बैठा था।
गुल्ली ने फुसफुसाकर कहा, “वो अब्बास को भेज रहा है धारावी के गोदाम पर — वहाँ पर तुम्हारा एक ट्रांजैक्शन रुकवाना चाहता है। माल है हीरोइन का, सवा करोड़ की कीमत का।”
आदित्य ने शम्सेर की ओर देखा, जिसने पहले ही अपनी जेब से छोटा रिवॉल्वर निकालकर गिनती शुरू कर दी थी।
“वो समझता है कि हमारे पास सिर्फ गुस्सा है,” आदित्य बोला, “पर असली ताक़त ये है कि हम जानते हैं — कब चुप रहना है, कब गूंज बनना है।”
रज्जो ने पूछा, “प्लान?”
आदित्य बोला, “भाटिया को लगेगा कि हम गोदाम बचाने दौड़ेंगे। लेकिन असल हमला होगा ‘श्रीवर्धन रोड’ पर — जहां उसका नकद पैसा ठिकाने लगता है हर शनिवार को।”
शम्सेर मुस्कुराया, “जैसा बाप, वैसा बेटा।”
शनिवार रात, मुंबई का आसमान बादलों से घिरा था। हल्की बारिश शुरू हो गई थी। आदित्य ने अपने लोगों को तीन हिस्सों में बाँट दिया — एक टीम श्रीवर्धन रोड के गुप्त ठिकाने पर, एक टीम पाली हिल के ‘सुरगोह’ टॉवर की ओर निगाह बनाए रखे हुए, और तीसरी टीम धारावी गोदाम को सिर्फ दिखावटी रूप से सुरक्षित कर रही थी।
रात के ग्यारह बजे, श्रीवर्धन रोड की उस गली में एक पुरानी एंबुलेंस दाख़िल हुई। कोई संदेह नहीं कर सकता था, क्योंकि अंदर थे चार लोग — नकाब पहने हुए, और उनके पास थी सिर्फ दो चीजें — बंदूकें और इरादा।
तीन मिनट में अंदर घुसकर कैश रजिस्टर का ताला तोड़ा गया, कंप्यूटर सिस्टम को आग लगा दी गई, और बाहर निकलते वक़्त वे CCTV की हार्ड ड्राइव निकालना नहीं भूले।
ठीक उसी वक्त, धारावी में अब्बास की गाड़ी गोदाम तक पहुँची। लेकिन वहां पहले से खड़े थे आदित्य के लोग, सादे कपड़ों में। दोनों ओर सिर्फ नज़रों का आदान-प्रदान हुआ, और फिर एक संक्षिप्त गोलीबारी — अब्बास घायल हुआ, लेकिन बच निकला।
सुबह जब भाटिया को फोन मिला कि उसका नकदी डंप खाक हो चुका है, और अब्बास की हालत गंभीर है, उसके हाथों से ग्लास छूट गया।
“इसने जंग छेड़ दी है,” उसने कहा, “अब मैं उसे सिर्फ हराऊंगा नहीं… मिटा दूंगा।”
आदित्य उसी रात वरसा हवेली लौटता है। मां जान्हवी पूजा घर में बैठी है।
“तू खुश है?” मां पूछती है।
“न्याय हो रहा है,” आदित्य जवाब देता है।
“पर इंसान, बेटा… न्याय की तलाश में खुद को खो बैठता है। तुझमें अभी भी मेरा बेटा बाकी है?”
आदित्य कुछ नहीं बोलता।
उसी समय रज्जो खबर लाता है — “भाटिया ने अपने नए आदमी को बुलाया है। नाम है ‘काले वकील’ — जो सिर्फ खून के दस्तख़त पहचानता है।”
आदित्य की आंखों में कोई डर नहीं, बस हल्की सी मुस्कान है।
“तो खेल अब असली शुरू होगा,” वो कहता है।
भाग 3: काले वकील की एंट्री
मुंबई के घाटकोपर इलाके में एक पुराना, टूटी सीढ़ियों वाला मकान था। बाहर से देखो तो लगे जैसे किसी जमाने का अदालत भवन हो—दीवारें फटी हुईं, खिड़कियों में जंग लगे ग्रिल, और ऊपर लगी एक पट्टिका जिस पर लिखा था: “वक़ील इस्माइल आर. शेख़ – क्रिमिनल लॉयर”।
पर इस मकान के भीतर वो दस्तावेज़ तैयार होते थे, जो किसी की ज़िंदगी और किसी का साम्राज्य एक झटके में मिटा सकते थे।
इस्माइल शेख़ उर्फ़ “काला वकील” — नाम का वकील, पर पेशे से हत्यारा, सौदेबाज़, ब्लैकमेलर, और सबसे बड़ा—स्ट्रैटजिस्ट।
जब भाटिया ने फोन किया, तो दूसरी तरफ़ से सिर्फ एक आवाज़ आई—“नाम?”
भाटिया ने कहा, “आदित्य वरसा।”
काले वकील ने तीन सेकेंड का मौन रखा, फिर बोला—“मेरी फीस अब दोगुनी है।”
“दे दूँगा,” भाटिया ने कहा, “लेकिन वरसा का नाम हमेशा के लिए मिट जाना चाहिए।”
वकील ने कहा, “तब पहले उसके नाम का चेहरा जनता में बिगाड़ेंगे, फिर कानून में, फिर उसकी गली में, और आखिर में… उसकी मां के आँगन में।”
भाटिया मुस्कुराया। “बस इतनी खामोशी चाहिए कि अगले दस साल तक वरसा कोई नहीं बोले।”
उस शाम आदित्य अपने अड्डे ‘रेड डस्ट क्लब’ में था—एक पुराना थिएटर जिसे अब अंडरग्राउंड ऑपरेशन हब में बदला गया था। पर्दे के पीछे से निगरानी होती थी, और पर्दे पर ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ फिल्में चलती रहतीं, ताकि कोई शक न हो।
रज्जो ने अंदर आकर खबर दी, “काला वकील आ चुका है शहर में।”
आदित्य ने चौंक कर पूछा, “कन्फर्म है?”
“वो घाटकोपर के पुराने लॉ ऑफिस में देखा गया है। और तीन लोग जो उसके साथ आए थे—तीनों कभी अंडरवर्ल्ड के टॉर्चर यूनिट में थे।”
शम्सेर ने होंठ भींचे, “मतलब वो सिर्फ मुकदमा नहीं लड़ेगा, युद्ध लड़ेगा।”
तो ठीक है,” आदित्य ने कहा, “जंग की शक्ल बदल रही है, हम भी बदलेंगे।
तीन दिन बाद, मुंबई के मशहूर अखबार ‘मिडडे’ के फ्रंट पेज पर छपी एक तस्वीर—आदित्य वरसा, एक बंदूक लिए किसी मॉल के CCTV में कैद। साथ में हेडलाइन:
“वरसा का बेटा मॉल शूटआउट में शामिल? पुलिस को शक”
आदित्य ने वो अखबार देखा, फिर रज्जो को बुलाया।
“तस्वीर नकली है,” रज्जो बोला, “लेकिन इतनी सफाई से बनाई गई है कि पुलिस भी शक में पड़ जाएगी।”
“ये काले वकील का पहला वार है,” आदित्य बुदबुदाया, “पहले बदनाम करना, फिर फँसाना।”
अगले ही दिन, एक सोशल मीडिया वीडियो वायरल हुआ—जिसमें एक नकली गवाह कह रहा था, “मैंने देखा आदित्य वरसा को गोली चलाते हुए। उसने बच्चे को मार दिया।”
आदित्य को थाने से समन मिला। इंस्पेक्टर घोष ने सिर्फ एक बात कही—“बॉस ने कहा है, ऊपर से दबाव है। केस खोलना पड़ेगा।”
वरसा हवेली में जान्हवी ने बेटे को देखकर पूछा, “क्या सचमुच तूने…”
“नहीं माँ,” आदित्य की आंखें लाल थीं, “लेकिन अब उन्हें सच्चाई से फ़र्क़ नहीं पड़ता, बस कहानी से पड़ता है।”
“तो क्या करेगा तू?”
“अब काले वकील से कहानी छीनूंगा।”
रात तीन बजे, घाटकोपर के उसी पुराने दफ्तर में एक धमाका हुआ। लोग कहने लगे—“गैस सिलिंडर फटा होगा।”
पर हकीकत यह थी कि आदित्य ने अपने दो लोगों को वहां भेजा था—मकसद था सिर्फ चेतावनी। वकील जिंदा रहा, लेकिन उसकी फाइलें जल गईं।
दूसरी सुबह, एक लिफाफा पहुँचा भाटिया के ऑफिस में—उसके अंदर एक जलती हुई अंगुली की तस्वीर थी, और एक लाइन:
“अब तेरा गवाह बोलेगा नहीं, सिर्फ चिल्लाएगा।”
भाटिया समझ गया—आदित्य पीछे हटने वाला नहीं है।
पर काले वकील की अगली चाल ज़्यादा खतरनाक थी। उसने ‘मयूरा ट्रस्ट’ नाम के एक NGO के जरिए आदित्य के खिलाफ़ एक याचिका दायर की—कथित रूप से मानव तस्करी, ड्रग्स, और अवैध शस्त्र रखने के आरोपों के साथ।
ये एक लीगल जाल था, जिसमें फँसकर कोई भी अपराधी खुद को ‘सिस्टम’ के चक्की में पिसा हुआ पाता।
शम्सेर गुस्से में बोला, “अब ये कोर्ट खेलेगा?”
“हमें भी कोर्ट में उतरना पड़ेगा,” आदित्य ने कहा।
“पर हमारे पास वकील नहीं जो उस जैसे चालबाज़ी कर सके।”
“हमें चाहिए कोई जो काले वकील के पुराने पन्ने पढ़ चुका हो,” आदित्य मुस्कुराया, “और मुझे एक नाम याद है—तारा मिश्रा।”
तारा मिश्रा — एक ज़माने में काले वकील की जूनियर थी, फिर अचानक गायब हो गई थी। कहा जाता है उसने वकील की दो डील लीक कर दी थीं और तब से छुपकर रह रही थी।
आदित्य ने रज्जो को भेजा। तीन दिन की खोज के बाद पता चला—वो अब गोवा में एक लाइब्रेरी चलाती है, किताबों के बीच न्याय ढूंढ़ती है।
आदित्य खुद गया मिलने।
“मुझे तेरी ज़रूरत है,” उसने कहा।
“मैंने काले वकील की परछाई छोड़ी थी, उसका सामना करने नहीं लौटी थी,” तारा ने जवाब दिया।
“अब वो परछाई लोगों की ज़िंदगी खा रही है, तारा। और मुझे उसे रोकना है, वरना सिर्फ मैं नहीं, पूरा शहर गुनहगार हो जाएगा।”
तारा कुछ देर चुप रही, फिर बोली—“ठीक है। पर मेरा एक नियम है—मैं कानून से लड़ती हूँ, खून से नहीं।”
“न्याय का रास्ता चाहे जो हो, मैं उसके साथ रहूंगा।”
उस रात पहली बार आदित्य को नींद आई। और पहली बार काले वकील ने अपने कमरे की सारी खिड़कियाँ बंद कीं।
क्योंकि अब लड़ाई सड़क की नहीं, अदालत की थी। और दोनों तरफ़ केवल मोहरे नहीं, बादशाह चलने लगे थे।
भाग 4: तारा बनाम काला
मुंबई के मेट्रोपॉलिटन कोर्ट नंबर 7 की दीवारें उस दिन कुछ ज़्यादा ही चुप थीं। शायद वे भी समझ रही थीं कि आज यहां सिर्फ क़ानून नहीं, बदले की कहानी लिखी जा रही है। सामने खड़े दो वकील—दो इतिहास, दो आदर्श, और दो दुश्मन। एक ओर काले कोट में, ज़रा भी शिकन न लिए, इस्माइल शेख़ उर्फ “काला वकील”। दूसरी ओर, नीले सलवार-कुर्ते और काले ब्लेज़र में, शांत मगर तेज़ निगाहों वाली तारा मिश्रा।
अदालत में जितने लोग मौजूद थे, उनमें आधे से ज़्यादा आए थे सिर्फ यह देखने कि क्या सच में कोई और वकील इस्माइल का सामना कर सकता है। सामने जज बैठी थीं — जस्टिस वसुंधरा देसाई, जिनकी कठोर छवि के किस्से हाई कोर्ट तक मशहूर थे।
मामला शुरू हुआ—जनहित याचिका बनाम आदित्य वरसा। आरोप गंभीर थे: संगठित अपराध, मानव तस्करी, ड्रग तस्करी, और गैरकानूनी हथियार रखने का मामला।
काले वकील ने पहले ही दस्तावेज़ों की मोटी फाइल तैयार कर रखी थी, जो किसी भी सामान्य जज को शक में डाल देती।
“माई लॉर्ड,” इस्माइल की आवाज़ मखमली थी, “यह सिर्फ एक अपराधी का मामला नहीं है। यह उस शहर की आत्मा का सवाल है, जो रोज़ अपराध के बीच से सांस लेती है। वरसा खानदान ने दशकों तक खून को धंधा बनाया है, और अब उनका बेटा उसी विरासत को चमका रहा है। मैं आपके समक्ष सबूत पेश कर रहा हूं—CCTV फुटेज, गवाह के बयान, और NGO रिपोर्ट जो इसे प्रमाणित करती हैं।”
जज ने तारा की ओर देखा।
तारा ने अपना चश्मा उतारा, धीरे से बोली, “माई लॉर्ड, इतिहास के पन्नों में अगर सिर्फ एक पक्ष लिखा जाए, तो सच नहीं, सिर्फ कहानी बचती है। मैं साबित करूंगी कि ये सभी सबूत—या तो गढ़े गए हैं, या पुराने मामलों से जोड़कर मनगढ़ंत बनाए गए हैं। और इस केस का असली मकसद सिर्फ एक है—एक बेटे को उसके पिता की हत्या की सच्चाई तक पहुँचने से रोकना।”
इस्माइल के होंठों पर एक हल्की मुस्कान तैर गई। “भावनाएं कानून में दलील नहीं बनतीं, मिस मिश्रा।”
“पर साज़िशें सच्चाई नहीं बनतीं, मिस्टर शेख़,” तारा ने पलटकर जवाब दिया।
अदालत की कार्यवाही स्थगित हो गई। अगली सुनवाई तीन दिन बाद तय हुई। लेकिन लड़ाई कोर्ट के बाहर भी जारी थी।
भाटिया ने इस्माइल से पूछा, “क्या वो लड़की तेरे लिए खतरा बन सकती है?”
इस्माइल बोला, “अगर खतरा सिर्फ दिमाग से होता, तो मैं उसे अब तक हरा देता। पर तारा के पास वो चीज़ है जो मुझमें नहीं—एक अतीत, जो उसे हर दिन याद दिलाता है कि उसे क्यों लड़ना है।”
भाटिया बोला, “मुझे फर्क नहीं पड़ता वो क्यों लड़ती है। मुझे फर्क है बस इस बात से कि वरसा को कब तक जेल भिजवा सकोगे।”
इस्माइल ने सिर झुकाया, “एक हफ्ते के अंदर… या वो मर जाएगा, या कानून में दफ़न हो जाएगा।”
उधर, वरसा हवेली में तारा केस की फाइलें पलट रही थी। आदित्य पास ही बैठा था।
“ये NGO ‘मयूरा ट्रस्ट’ जिसने केस दाखिल किया… इसका कोई असली अस्तित्व नहीं,” तारा बोली।
“मतलब?” आदित्य ने पूछा।
“मतलब इसे सिर्फ एक केस के लिए खड़ा किया गया — तुझे फँसाने के लिए। और ये सब इस्माइल की चाल है।”
“क्या हम इसे कोर्ट में साबित कर सकते हैं?”
“कठिन होगा, लेकिन नामुमकिन नहीं,” तारा बोली।
उसी रात, रज्जो और शम्सेर ‘मयूरा ट्रस्ट’ के ऑफिस पहुँचे—जो असल में सिर्फ एक बंद पड़ी बिल्डिंग थी। वहां उन्हें मिला एक कंप्यूटर, एक रजिस्टर, और CCTV का टूटा DVR।
रज्जो ने कंप्यूटर का हार्ड ड्राइव निकाल लिया। तारा ने उसे लैपटॉप से जोड़ा। डेटा एनालिसिस से पता चला—NGO की फंडिंग एक फेक अकाउंट से हुई थी, और उस अकाउंट का लिंक एक लॉ फर्म से था जिसका मालिक था… इस्माइल शेख़।
“अब मेरे पास उसका झूठ पकड़ने का सबूत है,” तारा बोली।
तीन दिन बाद, कोर्ट में माहौल अलग था।
इस्माइल ने फिर से वही पुराने वीडियो पेश किए, वही गवाह की रिकॉर्डिंग। लेकिन तारा ने एक नया दांव चला।
“माई लॉर्ड, मैं इस केस के पीछे की सच्चाई उजागर करना चाहती हूं। ये तथाकथित NGO ‘मयूरा ट्रस्ट’ जिसने केस फाइल किया, उसकी कोई वैध पहचान नहीं है। इसका रजिस्ट्रेशन फर्जी है, और फंडिंग एक शेल कंपनी के जरिए की गई है, जो ‘शेख़ लॉ एसोसिएट्स’ के नाम से चलती है। यानी केस लड़ने वाला खुद ही केस दाखिल करने वाला है।”
अदालत में सनसनी फैल गई।
इस्माइल पहली बार अपनी जगह से थोड़ा असहज हुआ।
तारा ने आगे कहा, “इसके साथ मैं पेश करती हूं उस अकाउंट का ट्रांजेक्शन रिकॉर्ड, जो दिखाता है कि यह पूरी प्रक्रिया सिर्फ एक आदमी को साज़िश में फँसाने के लिए रची गई थी—आदित्य वरसा।”
जज वसुंधरा ने कहा, “कोर्ट को यह समय देना होगा कि इन तथ्यों की पुष्टि करे। तब तक केस को स्थगित किया जाता है।”
बाहर निकलते समय, इस्माइल तारा के पास आया और बोला, “तुम अब भी वैसी ही हो… ज़िद्दी।”
तारा बोली, “और तुम अब भी वही हो… चालबाज़। फर्क बस इतना है कि अब तुम्हारी चालें पुरानी लगने लगी हैं।”
उसी रात, इस्माइल के पुराने गोदाम में धमाका हुआ—जहां फर्ज़ी दस्तावेज़ तैयार होते थे।
और अगली सुबह आदित्य वरसा की फोटो फ्रंट पेज पर थी—इस बार, बिना किसी हथियार के, और कैप्शन के साथ:
“वरसा ने साबित किया बेगुनाही का पहला कदम”
कहानी बदल रही थी।
लेकिन खेल अभी बाकी था।
भाग 5: गद्दार की छाया
मुंबई की सड़कों पर सर्द हवा कुछ अलग सा सन्नाटा लेकर चल रही थी। रात का समय था, और वरसा हवेली में हर दरवाज़ा बंद, हर खिड़की पर परछाइयाँ। कोर्ट में तारा मिश्रा की चाल ने काले वकील की साजिशों को पहली बार खुली हवा में खड़ा कर दिया था। आदित्य को लगा कि अब न्याय की रेखा थोड़ी सी साफ़ दिख रही है।
मगर सच्चाई यह थी—जैसे-जैसे वो रौशनी की ओर बढ़ रहा था, पीछे उसकी छाया लंबी होती जा रही थी। और उस छाया में छिपा था एक गद्दार।
“हमारे बीच कोई है जो उनकी खबरें लीक कर रहा है,” तारा ने कहा, जब वो आदित्य के साथ केस की अगली रणनीति बना रही थी।
“तुम्हें कैसे पता चला?” आदित्य ने पूछा।
“हमारी जो चालें सिर्फ हम तीन जानते हैं—मैं, तुम, और रज्जो—उनमें से दो भाटिया के पास समय से पहले पहुँचीं। वो किसी जासूस की तरह नहीं, जैसे इनसाइडर जानकारियों पर काम कर रहा हो।”
आदित्य ने सिर झुकाया। “शम्सेर…?” उसने बुदबुदाया।
“नहीं,” तारा बोली, “वो पुराना है, वफादार है। लेकिन रज्जो… मैं श्योर नहीं हूँ।”
उसी समय, भाटिया अपने आलीशान ऑफिस में वाइन का गिलास थामे एक अंधेरे कोने में बैठा था।
“तूने कहा था कि काला वकील तारा से निपट लेगा,” उसने फोन पर कहा।
दूसरी ओर से एक आवाज़ आई, साफ़, शांत, मगर खौफनाक रूप से जानी-पहचानी: “वो अब भी निपटेगी, लेकिन खेल बदल गया है। अब अदालत में नहीं, मैदान में लड़ाई होगी।”
“वरसा कमजोर हो रहा है क्या?” भाटिया ने पूछा।
“नहीं। लेकिन मैं उसकी रीढ़ तोड़ दूंगा—उसके भरोसे को।”
अगले दिन वरसा की टीम को खबर मिली—तारा की कार में छेड़छाड़ की गई थी। ब्रेक फेल हो चुके थे। संयोग से वो उस दिन गाड़ी नहीं चला रही थी। शक और गहराया।
“यह अंदरूनी काम है,” तारा बोली, “कोई हमारे मूवमेंट, कोर्ट टाइमिंग, सब कुछ जानता है।”
आदित्य ने सीधे शम्सेर को देखा। “रज्जो कहाँ है?”
“कहकर गया था कि एक गवाह को ढूँढने निकला है।”
आदित्य और तारा दोनों एक-दूसरे की ओर देखे। शक अब हड्डियों तक उतर चुका था।
रात के दो बजे। वरसा के पुराने गोदाम में हलचल थी। गुप्त दस्तावेज़, फाइनेंस रिकॉर्ड, सब कुछ एक जगह इकट्ठा किया जा रहा था क्योंकि केस की अगली सुनवाई में सबूतों का प्रजेंटेशन होना था।
तभी वहाँ आया रज्जो। पसीने से भीगा चेहरा, आंखों में अजीब सी बेचैनी।
“मुझे माफ़ कर दो,” उसने फुसफुसाते हुए कहा।
आदित्य, जो कोने में खड़ा था, धीरे से आगे आया।
“तूने क्या किया है, रज्जो?”
“मैं मजबूर था, आदित्य। मेरे भाई को भाटिया ने पकड़ रखा है। अगर मैं खबरें न देता…”
एक झटके में शम्सेर ने रज्जो को दीवार से ठोका। “तो तू वो था जो हर चाल पहले ही उनके पास पहुँचा देता था?”
“मैंने कभी तुम्हें धोखा देने की सोची नहीं थी,” रज्जो चीखा, “पर वो लोग… वो मेरे भाई को जिंदा नहीं छोड़ते।”
तारा ने आगे बढ़कर आदित्य का हाथ पकड़ा।
“इसे मारने से कुछ नहीं होगा। लेकिन अब हमें जल्दी कुछ करना होगा। कोर्ट में जो हम पेश करने वाले थे, वो सब भाटिया जान चुका है।”
आदित्य ने कहा, “हम अब अदालत में नहीं लड़ेंगे। हम अब उनकी जमीन पर उतरेंगे।”
अगले दिन सुबह, भाटिया की एक कार नवी मुंबई से निकल रही थी। उसके भीतर था एक आदमी जो वर्षों से भाटिया के ‘ब्लैक फाइनेंस’ का मालिक था—नाम था गिरीश तोमर। गिरीश ही था वो चेहरा, जो पैसे को काले से सफेद और फिर से काले में बदलने का मास्टर था।
लेकिन उस दिन, कार आधे रास्ते में ही रुक गई। सामने खड़ी थी एक और SUV, जिसमें आदित्य, तारा और शम्सेर थे।
“गिरीश तोमर,” तारा बोली, “या तो तू कोर्ट में गवाही देगा, या फिर पुलिस स्टेशन में सब कुछ बताकर जेल में सड़ेगा।”
गिरीश कांपने लगा। “मैं… मैं बस एक अकाउंटेंट हूँ… मैंने किसी को मारा नहीं…”
“पर तूने झूठे दस्तावेज़ बनाए, अवैध ट्रांसफर किए, और फर्जी NGO को पैसा दिया,” तारा गरजी।
गिरीश की आंखों में आँसू थे। “मुझे सुरक्षा चाहिए।”
“मिलेगी,” आदित्य बोला, “पर गवाही भी देनी होगी।”
उधर काला वकील को जैसे ही ये खबर मिली कि गिरीश गायब है, उसने अपना चेहरा दबा लिया।
“अब ये लड़की सिर्फ वकील नहीं रही,” उसने कहा, “ये अब मेरी सबसे बड़ी हार बन सकती है।”
भाटिया भड़क उठा। “तूने कहा था ये गेम तेरे हाथ में है!”
“और मैं अब भी वही कहता हूँ,” इस्माइल बोला, “एक चाल बाक़ी है।”
उसी रात, तारा को एक अनजान नंबर से कॉल आया।
“अगर तुम गिरीश को कोर्ट में लाओगी, तो उसकी लाश ही पहुँचेगी।”
तारा ने बिना डरे जवाब दिया, “तो सुन, अगर मैं हार भी गई, तो लड़ते हुए हारूँगी। छिपकर नहीं।”
फोन कट गया।
आदित्य ने कहा, “अब हमारी सुरक्षा सिर्फ पुलिस नहीं देगी, हमारी खुद की ईमानदारी देगी।”
अगली सुबह, गिरीश को कोर्ट लाने के लिए तीन गाड़ियाँ चलीं—लेकिन असली गाड़ी निकली तीसरी लेन से, जिसमें थे सिर्फ गिरीश, तारा, और एक चुपचाप सवार आदित्य।
और जब अदालत में तारा ने उसे पेश किया, कोर्ट हॉल में सन्नाटा पसर गया।
“माई लॉर्ड,” तारा ने कहा, “मैं पेश करती हूँ गिरीश तोमर, जो साबित करेगा कि यह पूरा केस किस तरह साजिश था, और किस तरह काले वकील और भाटिया ने न्याय को अपने हाथों की कठपुतली बनाया।”
लेकिन जैसे ही गिरीश बयान देने को खड़ा हुआ, अचानक अदालत के गेट से एक चीख उठी—“बम!”
और फिर हुआ धमाका।
अदालत की छत काँप उठी।
गिरीश ज़मीन पर गिर पड़ा।
तारा चीखी—“गिरीश!”
आदित्य की आँखें अंगार हो चुकी थीं।
अब ये खेल नहीं रहा। ये युद्ध बन चुका था।
भाग 6: लहू की शपथ
धुएँ से भरी अदालत की इमारत में, चीख-पुकार का शोर था। कहीं फायर अलार्म बज रहा था, कहीं दरवाज़े ज़ोर से खुले जा रहे थे। पुलिस और सुरक्षाकर्मी लहूलुहान लोगों को बाहर निकालने में जुटे थे, लेकिन आदित्य की आंखें एक ही जगह जमी थीं—गिरीश तोमर के शरीर पर, जो ज़मीन पर गिरा पड़ा था। उसके माथे से खून बह रहा था, और उसके दाहिने हाथ में जकड़ा हुआ था गवाही का आधा-पूरा पन्ना, जिस पर अभी तक तारा के दस्तख़त नहीं हुए थे।
तारा घुटनों के बल उसके पास पहुँची। “गिरीश!” उसने ज़ोर से पुकारा, लेकिन गिरीश की आँखें खुली थीं, और उन आँखों में था एक अजीब-सा सुकून, जैसे उसे पता था कि उसके जाने से कोई बड़ा तूफ़ान उठेगा।
“आ…दी…त्य…,” गिरीश की आवाज़ रुक-रुककर आई, “ड्राइव…हैंड…वाले फोल्डर में… सब कुछ है…वो…वो…फ़रार नहीं होगा…”
और फिर उसकी गर्दन एक तरफ लुढ़क गई। उसकी मुट्ठी ढीली हुई। वो हमेशा के लिए चुप हो गया।
तारा ने सिर झुकाया। “अब ये केस नहीं रहा। ये शपथ है।”
आदित्य का जबड़ा कस गया। “अब न्याय अदालत से नहीं मिलेगा… अब मिलेगा वहां, जहां उनका कानून नहीं चलता।”
उसी शाम, वरसा हवेली के अंदर एक मीटिंग बुलाई गई। आदित्य, तारा, शम्सेर, और कुछ पुराने भरोसेमंद लोग—सब इकट्ठा थे।
“अब हम कोर्ट में नहीं लड़ेंगे,” आदित्य ने कहा, “अब लड़ाई मैदान में है। भाटिया ने अदालत को धमाका बना दिया, अब उसकी दुनिया को श्मशान बना दूंगा।”
शम्सेर ने पूछा, “हमारी पहली चाल क्या होगी?”
“हम उस ड्राइव को ढूंढेंगे जिसके बारे में गिरीश ने बताया था,” तारा ने जवाब दिया, “वो उसके पुराने अपार्टमेंट में हो सकती है। अगर हमें वो मिल गई, तो हमारे पास पूरे सिंडिकेट का ब्लूप्रिंट होगा—नाम, अकाउंट्स, ट्रांजेक्शन्स, सबकुछ।”
गिरीश का अपार्टमेंट लोअर परेल की एक पुरानी बिल्डिंग में था। रात के ढाई बजे तारा और आदित्य वहां पहुँचे। शम्सेर और दो आदमी बिल्डिंग के बाहर निगरानी में थे।
दरवाज़ा खोलने के लिए ताला नहीं तोड़ा गया—तारा ने अपने बैग से एक पुराना चाबी-सेट निकाला, और दो ट्राय में ही दरवाज़ा खुल गया।
अंदर घुप्प अंधेरा था। आदित्य ने मोबाइल की फ्लैशलाइट जलाई। दीवारों पर किताबें थीं, फाइलें थीं, और पुरानी डेस्क के कोने में रखा था एक डेस्कटॉप—खूब पुराना, लेकिन चालू।
तारा जल्दी-से हार्ड ड्राइव निकाल लाई, लेकिन उसके साथ ही उसकी आंखें रुक गईं—एक लाल रंग का लिफाफा पड़ा था, जिस पर लिखा था: “अगर मैं मर जाऊँ, तो इसे आदित्य वरसा को देना।”
तारा ने वह लिफाफा आदित्य को पकड़ा दिया।
आदित्य ने खोलकर पढ़ा—
मैं जानता हूँ कि मेरा अंत नज़दीक है। लेकिन मैंने जो किया, उसका पछतावा नहीं है। भाटिया को लगा कि वो मेरे परिवार को बंधक बनाकर मुझे खरीद सकता है। पर मैंने उसे गलत साबित किया। ये ड्राइव सिर्फ सबूत नहीं है—ये उसकी तबाही की नींव है। मैं नहीं रहूँगा, पर मेरी सच्चाई ज़िंदा रहेगी।
आदित्य, तुझे एक वादा करना होगा—इस शहर को फिर से इंसानों के रहने लायक बनाना होगा। भाटिया जैसे लोग अंधेरे की दीवारें बनाते हैं, तुझे उजाला बनना होगा।
–गिरीश
आदित्य की आंखों में आंसू थे, मगर गुस्से से भीगे हुए।
अगले दिन सुबह, मुंबई के चार इलाकों में एक साथ रेड पड़ी। कस्टम ऑफिस, ट्रांसपोर्ट हब, भाटिया की नकली NGO, और एक लॉ फर्म—चारों जगहों से सैंकड़ों कागज़ात जब्त किए गए। ड्राइव के डेटा ने सब कुछ उगल दिया था।
टीवी चैनलों पर हेडलाइन चमक रही थी:
“भाटिया के सिंडिकेट पर CBI का शिकंजा – वरसा की मुहिम रंग लाई”
लेकिन भाटिया शांत नहीं बैठा था।
उसने फोन उठाया, और एक नाम डायल किया—काले वकील।
“मुझे अब तारा नहीं चाहिए। मुझे अब आदित्य नहीं चाहिए। मुझे अब मुंबई चाहिए।”
इस्माइल शेख़ ने लंबी साँस ली, “तो तैयारी कर ले… तू अब रावण बन चुका है, और अब तुझे जलना ही होगा।”
भाटिया हँसा, “तो जलने से पहले मैं सारे राम को खाक कर दूंगा।”
उसी रात, वरसा हवेली के बाहर गोलियाँ चलीं। गेट पर खड़ा गार्ड मारा गया, लेकिन अंदर कोई नुकसान नहीं हुआ। जवाबी फायरिंग में दो हमलावर पकड़े गए।
शम्सेर ने उनका नाम पूछा।
“शेख़ का भेजा हुआ है,” एक ने कहा, “हमारा नाम कुछ भी नहीं। हमारी पहचान सिर्फ इतनी है—मौत लाना।”
आदित्य ने उनकी ओर देखा। “भाटिया अब मौत के पीछे छिप रहा है। इसका मतलब है—वो डर चुका है।”
रात के तीन बजे, आदित्य अकेले छत पर बैठा था। तारा पास आई, उसके पास बैठ गई।
“तू अब भी लड़ना चाहता है?” तारा ने पूछा।
“अब ये लड़ाई नहीं रही, तारा। अब ये जिम्मेदारी है,” आदित्य बोला।
“मुझे डर लगता है,” तारा ने धीमे से कहा।
आदित्य ने उसकी तरफ देखा, पहली बार नर्म होकर, “मुझे भी लगता है। पर गिरीश, बाबा, और अब तुम… जो भी मेरे साथ है, उनके लिए मैं डर को भी मार दूँगा।”
तारा ने उसका हाथ थामा।
“अब साथ ही लड़ेंगे,” उसने कहा।
सुबह 6 बजे, तारा ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाई।
उसने गिरीश की मौत की जिम्मेदारी का आरोप भाटिया और काले वकील पर लगाया, और कोर्ट से मांग की—कि भाटिया को हिरासत में लिया जाए, और गवाह सुरक्षा योजना लागू हो।
जवाब में भाटिया ने अपने लॉयर्स के ज़रिए एक नया केस दायर किया—“तारा मिश्रा और आदित्य वरसा पर देशद्रोह का मुक़दमा।”
तारा मुस्कुराई। “अब जब दुश्मन देशद्रोही कहे, तो समझ लो तुम देश की सही राह पर हो।”
भाग 7: वार का मुकदमा
सूरज मुंबई की इमारतों के पीछे से धीरे-धीरे चढ़ रहा था, लेकिन शहर की हवाओं में अजीब सा बोझ था। खबर अब हर गली में फैल चुकी थी—वरसा और तारा पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हो चुका है। अखबारों की सुर्खियाँ, टीवी एंकरों की चीखें, और सोशल मीडिया की पोस्टें—सब जैसे एक झूठे युद्ध को ज़िंदगी बना रहे थे।
“वरसा एक माफिया है।”
“तारा मिश्रा वकील नहीं, अंडरवर्ल्ड की योजनाकार है।”
“देश के खिलाफ साजिश रची गई थी।”
भाटिया और इस्माइल ने कानून को एक बार फिर ढाल बना लिया था, और इस बार उस ढाल के पीछे से वो तीर चला रहे थे जिनका नाम था—प्रोपेगैंडा।
वरसा हवेली की मीटिंग हॉल में उस दिन कोई भी चेहरा हल्का नहीं था। आदित्य, तारा, शम्सेर और बाकी दो विश्वस्त लोग सामने बड़ी स्क्रीन पर सरकार की प्रेस कॉन्फ़्रेंस देख रहे थे।
गृह मंत्रालय के प्रवक्ता:
“हमने एक संयुक्त टीम का गठन किया है जो इस केस की जाँच करेगी। प्रारंभिक प्रमाणों के आधार पर लगता है कि कुछ बड़े व्यापारी और कानूनी अधिकारी देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं।”
“अब?” शम्सेर ने पूछा, “अब ये खेल सीधे ऊपर चला गया है। अब पुलिस भी नहीं बचा सकती हमें।”
“बिल्कुल,” आदित्य बोला, “अब हमें वो करना होगा जो हर सत्ता को हिला देता है—सच को सड़क पर लाना।”
तारा ने कहा, “कानून की किताबें बंद हो चुकी हैं। अब हमें लोगों की अदालत में उतरना होगा।”
तारा ने एक चौंकाने वाला फैसला लिया—एक सार्वजनिक जन-सुनवाई।
यह कोई कोर्ट नहीं था, लेकिन एक खुला मंच था—शहर के बीचों-बीच आज़ाद मैदान में—जहाँ जनता के सामने सबूत पेश किए जाएंगे। तारा ने इसे नाम दिया:
“वार का मुकदमा” – एक सच्चाई जो अदालतों से परे है।”
सोशल मीडिया पर घोषणा हुई, और कुछ ही घंटों में ‘#WarOfTruth’ ट्रेंड करने लगा। लेकिन साथ ही सरकार ने उस पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया—आयोजन के लिए NOC रद्द, स्थल पर पुलिस तैनात, और आयोजकों के खिलाफ़ FIR।
लेकिन आदित्य ने पीछे हटने से इनकार किया।
अगली सुबह, वरसा की टीम ने गुपचुप तरीके से आयोजन स्थल बदला—एक पुराना थिएटर, बंद पड़ा था सालों से, पर भीतर काफी जगह थी। वहाँ तैयार हुआ एक अस्थायी मंच, और सामने की ओर बैठने के लिए कुर्सियाँ। पुराने प्रोजेक्टर पर ड्राइव के डेटा का प्रेजेंटेशन बनाया गया। शहर के पत्रकार, एक्टिविस्ट, रिटायर्ड जज, और कॉलेज स्टूडेंट्स—सबको आमंत्रण भेजा गया।
और फिर, 7:45 PM पर मंच पर आई तारा।
काली साड़ी, नीली बिंदी, और हाथ में कागज़ों का बंडल लिए वो एक मिसाल लग रही थी—एक वकील नहीं, बल्कि एक युगबोध की आवाज़।
“मैं आज यहाँ कोई रक्षा नहीं कर रही,” उसने कहा, “मैं आज हमला कर रही हूँ—झूठ पर, साज़िश पर, और उस व्यवस्था पर जो अपराधियों की रक्षा करती है और सच्चाई से डरती है।”
उसने स्क्रीन पर पहला स्लाइड चलाया—भाटिया के NGO से अवैध पैसा ट्रांसफर का रिकॉर्ड।
दूसरा स्लाइड—CBI द्वारा ड्राइव से प्राप्त किए गए ऑडिटेड डॉक्युमेंट्स।
तीसरा—इस्माइल शेख़ की लॉ फर्म से जुड़े फर्जी केसों का विवरण।
लोगों की आँखें खुली की खुली रह गईं।
तभी, कार्यक्रम स्थल के बाहर गोलियाँ चलीं।
तीन बाइक पर सवार हमलावरों ने हवा में फायरिंग की और भीड़ को डराने की कोशिश की। लेकिन शम्सेर और उसकी टीम पहले से तैयार थी। जवाबी फायरिंग में एक हमलावर पकड़ा गया।
उसे मंच पर लाया गया।
“बोल,” आदित्य गरजा, “किसने भेजा तुझे?”
हमलावर चुप रहा।
शम्सेर ने उसकी जेब से मोबाइल निकाला, और उसमें मिला एक मैसेज—
“वो बोले इससे पहले, उन्हें चुप कर दो – IS.”
तारा ने स्क्रीन पर वो मैसेज सबके सामने दिखा दिया।
“ये है हमारा सिस्टम,” उसने कहा, “जहाँ सच्चाई को गोलियों से रोका जाता है।”
उस रात का असर पूरे शहर पर पड़ा।
TV पर पत्रकारों ने सवाल उठाने शुरू किए। अदालतों में PIL दाखिल हुईं कि “वरसा केस” को निष्पक्ष रूप से पुनः जांचा जाए। सोशल मीडिया पर एक जन-ज्वार उठ खड़ा हुआ।
लेकिन भाटिया अब भी डरता नहीं था।
उसने इस्माइल को बुलाया। “अब जनता से खेल नहीं होगा। अब बस एक खेल बाक़ी है—खून का।”
इस्माइल ने कहा, “तो फिर अगला निशाना तय कर लो।”
भाटिया बोला, “तारा मिश्रा।”
अगले दिन, तारा की गाड़ी एक ब्रिज से गुजर रही थी जब सामने से एक ट्रक तेज़ी से उसकी ओर आया। तारा की आंखें फटी की फटी रह गईं। आखिरी पल में कार को मोड़ा गया, और ट्रक फुटपाथ से टकराकर पलट गया।
तारा सुरक्षित थी, लेकिन ड्राइवर गंभीर रूप से घायल।
तारा ने आदित्य को फोन किया—“अब बात मेरी जान की है।”
आदित्य बोला, “अब बात किसी एक की जान की नहीं रही… अब बात है इस शहर के भविष्य की।”
वरसा हवेली की छत पर आदित्य और तारा साथ खड़े थे। नीचे शहर की बत्तियाँ झिलमिला रही थीं।
तारा ने कहा, “तूने कभी सोचा था कि तेरा नाम एक दिन लोगों की लड़ाई बन जाएगा?”
“मैंने सिर्फ इतना सोचा था,” आदित्य बोला, “कि एक दिन अपने पिता की मौत का बदला लूँगा। पर अब मैं उनके खून को एक आवाज़ बना चुका हूँ।”
“और अब?” तारा ने पूछा।
“अब… अब मैं उन्हें सिर्फ हराना नहीं चाहता। मैं उन्हें इतिहास से मिटाना चाहता हूँ। ताकि अगली पीढ़ी को ये लड़ाई लड़नी न पड़े।”
भाग 8: माफ़िया का मुकुट
भोर की नीली रेखा जब समुद्र के काले पानी में धँस रही थी, मुंबई शहर जागने से पहले किसी अनजानी घबराहट में काँप रहा था। कई सालों बाद यह पहला दिन था जब अंडरवर्ल्ड की सत्ता हिलती हुई दिखाई दे रही थी—भाटिया का नाम डर नहीं, घृणा का पर्याय बन चुका था। लेकिन जिनके पास ताक़त होती है, उनके पास डर को हथियार बनाने की कला भी होती है।
और भाटिया को पता था—अगर सत्ता उसके हाथ से छूटती है, तो उसे मुकुट नहीं, मरघट मिलेगा।
वरसा हवेली में उस सुबह आदित्य शांत था। उसने तारा को देखा जो कंप्यूटर स्क्रीन पर ड्राइव से निकले बाकी डाटा को स्कैन कर रही थी। हर नाम, हर खाता, हर लेन-देन अब सुलगते दस्तावेज़ बन चुके थे—एक तंत्र जिसे भाटिया ने वर्षों में बुनकर एक माफ़िया साम्राज्य में बदल दिया था।
“देखो,” तारा ने कहा, “इस लिस्ट में भाटिया के संपर्क सिर्फ महाराष्ट्र में नहीं, दिल्ली, दुबई, बैंकॉक तक फैले हैं। अगर हम इस मुकुट को तोड़ना चाहते हैं, तो गर्दन वहीं से पकड़नी होगी जहाँ से ये सत्ता शुरू हुई थी।”
“मतलब?” आदित्य ने पूछा।
“मतलब, हमें भाटिया के फाइनेंसर को बाहर लाना होगा—वो चेहरा जो अब तक परदे के पीछे छिपा है।”
उधर, भाटिया अपने वर्सोवा वाले सीक्रेट बंगले में बैठा हुआ था। इस्माइल शेख़ ने जो योजना बनाई थी, वो अंतिम और सबसे खौफनाक थी।
“वरसा को मारना आसान नहीं,” इस्माइल बोला, “लेकिन उसे ख़त्म करने के लिए उसकी जनता का भरोसा तोड़ दो। वो एक प्रतीक बन गया है, उसे मिटाने से पहले उसे ग़लत साबित करना होगा।”
“कैसे?”
“झूठ नहीं,” इस्माइल बोला, “आधा सच। वो सबसे बड़ा ज़हर होता है।”
इस्माइल ने मीडिया को लीक किया एक डॉक्युमेंट—एक पुराना पुलिस रिपोर्ट जिसमें सुरेश वरसा पर ‘आंतरिक राजद्रोह’ के संदेह की बात थी। रिपोर्ट में दर्ज था कि सुरेश वरसा ने कई बार नक्सलियों से संपर्क किया था। हालांकि यह रिपोर्ट बाद में खारिज कर दी गई थी, लेकिन मीडिया के हाथ में यह आग बन चुकी थी।
“क्या आदित्य वरसा की विरासत देश विरोधी थी?”
“क्या वरसा परिवार वाकई अंडरवर्ल्ड से ऊपर देशद्रोही भी है?”
सुर्खियाँ फिर से ज़हर उगलने लगीं।
तारा चुप नहीं बैठी। उसने वो दस्तावेज़ पेश किया जहाँ स्पष्ट लिखा था कि वो रिपोर्ट कभी साबित नहीं हुई। इसके साथ ही, उसने पेश किया सुरेश वरसा का एक पत्र, जो उसने अपने आखिरी दिनों में एक NGO को लिखा था—जिसमें उसने कहा था,
“अगर मेरी विरासत कभी मेरे बेटे के लिए बोझ बने, तो वो उसे बदल दे। मैं चाहूँगा कि वो सिर्फ मेरा खून न हो, मेरी इच्छा भी हो।”
आदित्य ने वह पत्र मंच पर पढ़ा।
भीड़ खामोश थी। फिर तालियाँ गूंजने लगीं।
लेकिन इस्माइल जानता था—अब शब्दों से नहीं, बारूद से जवाब देना होगा।
रात के समय, भाटिया के अंधेरी वेस्ट वाले गोडाउन में बड़ी हलचल थी। वहाँ 12 ट्रक खड़े थे, जिनमें भरा जा रहा था नकली करेंसी, ड्रग्स और कुछ ख़ास “कंसाइनमेंट”—कुछ लोगों के शव, जिन्हें बिना पहचान के रातों-रात गायब किया जाना था।
लेकिन उस रात कुछ बदला।
गोडाउन में अचानक धुआँ भरने लगा। आग बुझाने से पहले ही एक ट्रक में विस्फोट हुआ। CCTV कैमरों ने कैद किया—तीन नकाबपोश लोग अंदर घुसे, डाटा सर्वर निकाला, और 10 मिनट में सब कुछ राख कर दिया।
भाटिया को खबर मिली—“गोडाउन ख़त्म।”
उसने इस्माइल की ओर देखा।
“ये वरसा का काम है।”
“नहीं,” इस्माइल बोला, “ये उसका जवाब नहीं, उसका एलान है—कि अब वो सिर्फ जवाब नहीं देगा, अब वो शिकारी है।”
अगली सुबह, तारा और आदित्य ने प्रेस के सामने वो डाटा पेश किया जो गोडाउन से हासिल हुआ था—भाटिया के पूरे काले साम्राज्य का ब्लूप्रिंट। साथ ही, उस फाइनेंसर का नाम जो अब तक परदे के पीछे था—
विजय शंकर मेहता — एक नामी उद्योगपति, जो कई सरकारों में ‘सलाहकार’ की कुर्सी तक पहुँच चुका था।
लोग अवाक् रह गए।
“वो तो नीति आयोग के सदस्य हैं…”
“उनका नाम कैसे…?”
“वरसा जो बोलता था, वो सच था?”
तारा ने कहा, “यह माफ़िया सिर्फ गली और बंदूक तक सीमित नहीं, यह सत्ता की सीढ़ियों तक फैला है।”
अब भाटिया की स्थिति डगमगा चुकी थी। उसके कई आदमी फरार हो चुके थे, और इस्माइल ने उसे सलाह दी—
“मुकुट अब नहीं बच सकता। अब तुझे किला छोड़ना होगा।”
लेकिन भाटिया ने गहरी हँसी हँसी।
“तू समझता है, मैं सिर्फ दौलत और डर से माफिया बना हूँ? नहीं… मैं उस सोच से बना हूँ जो कानून से पहले जन्मी थी—सत्ता की सोच। और मैं मिटूँगा नहीं, मैं नाम बदलूँगा।”
“और अगर नाम भी मिटा दिए जाएँ?” इस्माइल ने पूछा।
“तो मैं कहानी बन जाऊँगा,” भाटिया बोला, “और लोग कहानी को कभी नहीं मार सकते।”
पर आदित्य ने भी निर्णय ले लिया था।
“हम भाटिया को क़ानून से नहीं, जनता से गिराएँगे,” उसने कहा, “माफ़िया का मुकुट, अब हम मंच पर उतारेंगे—लाइव, सबके सामने।”
एक हफ़्ते बाद, तारा ने एक विशेष आयोजन की घोषणा की:
“माफिया का मुकुट: अंतिम जन-सुनवाई”
स्थान: शिवाजी पार्क
समय: सूर्यास्त
प्रसारण: लाइव हर न्यूज़ चैनल और सोशल मीडिया पर
आदित्य ने एक आखिरी बयान दिया:
“ये मेरा बदला नहीं है। ये उस डर का अंत है जो इस शहर की नींव में भर दिया गया था। अगर मैं हारूँ, तो मेरी कहानी कोई मायने नहीं रखेगी। लेकिन अगर मैं जीत गया—तो शायद कोई बच्चा अगली बार बिना डर के अपना नाम बोलेगा।”
भाग 9: अंतिम जन-सुनवाई
मुंबई की सबसे पुरानी राजनीतिक ज़मीनों में से एक—शिवाजी पार्क—उस दिन अदालत बना हुआ था। मंच लकड़ी का नहीं था, बल्कि भरोसे का बना था। आसमान खुला था, पर हवा भारी। हजारों लोग इकट्ठा हुए थे। कोई पत्रकार था, कोई वकील, कोई कॉलेज का छात्र, कोई टैक्सी ड्राइवर, और कोई बस वो—जो वर्षों से सत्ता की परछाई में चुप खड़ा था।
स्टेज पर दो कुर्सियाँ रखी थीं। एक पर तारा मिश्रा बैठी थी—तैयार, संयमित, उसकी आँखों में गर्म लोहे की तरह चमक थी। दूसरी कुर्सी खाली थी—भाटिया के लिए।
उस कुर्सी के पीछे एक बोर्ड टँगा था—बोल्ड अक्षरों में लिखा था:
“आप जनता हैं। आज आप फैसला करेंगे।”
शाम के ठीक छह बजे, तारा माइक के सामने आई।
“मैं आज एक वकील नहीं, सिर्फ एक गवाह हूँ। इस शहर के इतिहास की गवाह। इस शहर की पीड़ा की, इसकी चुप्पी की, इसके गुनहगारों की और… इसके प्रतिरोध की भी। आज यहाँ कोई कोर्ट नहीं, कोई जज नहीं, कोई पुलिस नहीं। आज यहाँ सिर्फ आप हैं—जिनके पास अब तक सिर्फ दर्द था, अब सवाल भी हैं।”
“मैं आपको एक कहानी सुनाने आई हूँ। एक कहानी उस आदमी की, जो कभी समाजसेवी कहलाता था, फिर व्यापारी बना, फिर नेता, और फिर… अपराधी। उसका नाम है—शेखर भाटिया।”
मंच के ठीक सामने एक बड़ी स्क्रीन लगाई गई थी, जिस पर तारा ने पहली वीडियो पेश की—गिरीश तोमर के बयान की एक क्लिप, जिसमें उसने भाटिया और विजय शंकर मेहता की साझेदारी का खुलासा किया था। लोग सन्न थे। फिर दिखाए गए ऑडिट डॉक्युमेंट्स, जहाँ लाखों रुपये का ट्रांसफर फर्जी कंपनियों के ज़रिए दिखाया गया।
फिर तारा ने स्क्रीन पर एक पुरानी तस्वीर डाली—जिसमें भाटिया, विजय शंकर और कुछ पुलिस अधिकारी एक रेस्टहाउस में पार्टी करते दिखाई दे रहे थे।
“यही है माफिया का मुकुट,” तारा बोली, “जो कभी सत्ता से जुड़ा नहीं, सत्ता बन बैठा।”
उसी वक्त, स्टेज के पीछे हलचल हुई। तीन SUVs तेज़ी से पार्क की ओर बढ़ीं। सबके मन में एक ही सवाल था—क्या भाटिया आ रहा है?
SUV से उतरता है भाटिया—सूटेड-बूटेड, चेहरे पर वही अहंकार, और साथ में इस्माइल शेख़।
लोगों में फुसफुसाहट होती है, कुछ चिल्लाते हैं, कुछ मोबाइल कैमरा ऑन करते हैं।
भाटिया मंच पर चढ़ता है, खाली कुर्सी पर बैठता है, माइक उठाता है।
“आप सबको सच चाहिए?” वह पूछता है, “तो सुनिए।”
“मैं शेखर भाटिया हूँ। हाँ, मैंने पैसे कमाए, बहुत कमाए। और हाँ, मैं कानून से ऊपर था, क्योंकि मुझे ऊपर वालों ने ही ऊपर बैठाया था। मैं भ्रष्ट हूँ, क्योंकि भ्रष्ट व्यवस्था ने मुझे बनाया। पर क्या आप सब दूध के धुले हैं? क्या इस शहर में हर टैक्सीवाला ईमानदार है? क्या हर नेता सच्चा है? क्या हर पत्रकार बिकता नहीं?”
उसने चारों ओर देखा।
“मुझे दोष मत दो। मैं सिर्फ तुम्हारा प्रतिबिंब हूँ। मैं वो हूँ जो तुमने बनने दिया।”
कुछ देर के लिए पार्क में सन्नाटा पसर गया।
तारा ने उसकी ओर देखा, और फिर एकदम शांति से बोली—
“तुमने एक चीज़ भूल की, भाटिया। तुमने सोचा कि ये जनता भूल जाएगी। लेकिन ये वही जनता है जो अब सवाल करती है, जवाब मांगती है, और सड़कों को अदालत बना देती है।”
उसने मंच पर वो ड्राइव पेश की जो गिरीश ने दी थी।
“इसमें सब है—भाटिया की ‘खून से लिखी हुई’ किताब। अब ये जनता पढ़ेगी।”
तभी एक युवक मंच के पास आया—उसका नाम था सूरज, 24 साल का, MBA का छात्र।
“मैं बोलना चाहता हूँ,” उसने कहा।
तारा ने उसे माइक दिया।
“मेरे पापा एक सरकारी ठेके में काम करते थे। भाटिया की कंपनी ने उन्हें जबरन हटा दिया, क्योंकि उन्होंने कागज़ों में घोटाले की बात उठाई थी। एक हफ्ते बाद पापा सड़क दुर्घटना में मारे गए। FIR दर्ज हुई, पर आगे कुछ नहीं हुआ। आज मैं जानता हूँ क्यों—क्योंकि FIR भाटिया की जेब में थी।”
लोग रोने लगे।
तारा ने माइक लिया, “और ऐसे सैकड़ों लोग हैं जो बोले नहीं—क्योंकि उन्हें बोने नहीं दिया गया।”
भाटिया अब भी शांत बैठा था। लेकिन इस्माइल के माथे पर पसीना था।
आदित्य मंच पर आया। पहली बार। आज तक वह पर्दे के पीछे था, आज सामने।
“मेरे पिता को मार दिया गया क्योंकि उन्होंने भाटिया की नकली दवाओं के खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्होंने मुझसे एक वादा माँगा था—कि मैं डर को नाम नहीं बनने दूँगा। आज मैं वो वादा पूरा कर रहा हूँ।”
“भाटिया ने मेरे नाम को गुनाह बनाया। पर अब मैं उसका नाम मिटाऊँगा—इतिहास से भी।”
मंच के नीचे से भी आवाजें आने लगीं—
“हमारे पास भी कहानियाँ हैं!”
“मेरे भाई को फँसाया गया था ड्रग केस में।”
“मेरी बहन ने NGO में काम किया, फिर गुम हो गई।”
हर गवाही एक तीर बन चुकी थी।
तारा ने घोषणा की—“अब फैसला आपका है। क्या आप चाहते हैं कि भाटिया को न्यायालय में घसीटा जाए? या आप उसे माफ करें?”
हज़ारों हाथ हवा में उठे।
कोई नहीं माफ कर रहा था।
तारा बोली, “तो अब यही जनमत हम अदालत में ले जाएंगे। और भाटिया की गिरफ़्तारी की माँग करेंगे—सिर्फ अंडरवर्ल्ड के लिए नहीं, एक नागरिक के तौर पर।”
भाटिया खड़ा हुआ, ठठाकर हँसा।
“क्या तुम समझते हो कि मैं डरेगा?”
आदित्य सामने आया।
“डर तो अब तुझमें है, भाटिया। वरना तू SUV में नहीं, एंबुलेंस में छिपता।”
तभी पुलिस की तीन गाड़ियाँ आईं। ACP देशमुख ने आकर भाटिया को घेरा।
“शेखर भाटिया, आपको देश के खिलाफ़ आपराधिक साजिश, हत्या, और आर्थिक अपराधों में गिरफ्तार किया जाता है।”
भीड़ में शांति थी। फिर—तालियों का समंदर।
इस्माइल पीछे हट गया। उसका चेहरा सफेद था।
तारा ने मंच से नीचे उतरते हुए कहा, “एक माफिया का मुकुट आज गिर गया। अब देश को फिर से सिर उठाकर चलना चाहिए।”
आदित्य ने कहा, “और अगर कोई नया मुकुट उगे, तो याद रखना—शिवाजी पार्क अदालत बन सकता है।”
भाग 10: कालसूत्र
मुंबई की वो सुबह कुछ अलग थी।
शहर की इमारतें उतनी ही ऊँची थीं, समुद्र उतना ही गहरा, ट्रैफिक उतना ही धीमा, और चायवाले की दुकान पर बहसें उतनी ही पुरानी थीं—पर हवा बदली हुई थी। हवा में एक सुकून था, जैसे किसी पुराने ज़ख़्म ने खुद से पट्टी बाँध ली हो।
टीवी चैनलों पर हेडलाइन थी:
“शेखर भाटिया गिरफ्तार, विजय मेहता पर केस दर्ज, काला वकील देश छोड़कर फरार”
जनता ने फैसला कर दिया था।
लेकिन न्याय का अंत वहाँ नहीं होता जहाँ अख़बार की स्याही खत्म होती है।
वरसा हवेली के पूजा घर में जान्हवी धीमे-धीमे आरती कर रही थीं। आदित्य एक कोने में खड़ा देख रहा था—उसके चेहरे पर थकान थी, पर आँखों में एक गहराई, जो हारे हुए से नहीं, पूरी लड़ाई लड़ चुके आदमी की होती है।
तारा पास आई, उसके हाथ में एक कोर्ट समन था।
“भाटिया का मुकदमा शुरू होने वाला है। अदालत ने हमें मुख्य गवाह बनाया है।”
आदित्य ने मुस्कुराकर कहा, “हम अदालत में जाएंगे, पर अब हमारे हाथों में हथियार नहीं, दस्तावेज़ होंगे।”
“कभी सोचा था कि ऐसा दिन आएगा?”
“नहीं,” आदित्य बोला, “पर यही ‘कालसूत्र’ था—एक लकीर, जो खून से शुरू होकर न्याय पर खत्म होती है।”
कोर्ट के भीतर अब भीड़ नहीं थी, न कैमरे, न भीतरी राजनीति। सिर्फ वकील, जज और सच्चाई के दस्तावेज़।
काले वकील को Interpol ने सिंगापुर में पकड़ लिया था। उसके भारत प्रत्यर्पण की प्रक्रिया चल रही थी। भाटिया ने कोर्ट में चुप्पी साध ली थी—वो अब तक हँसता था, अब उसकी मुस्कान खत्म हो चुकी थी। जब तारा ने उसके सामने गिरीश तोमर का आखिरी बयान पढ़ा, तो पहली बार उसके माथे पर झुकाव आया। वो जानता था—अब कोई सौदा नहीं होगा।
जज ने बयान सुना, सबूत देखे, और आदेश दिया—
“शेखर भाटिया को उम्रकैद की सजा दी जाती है। साथ ही, आर्थिक अपराधों में जुर्माने की राशि 400 करोड़ निर्धारित की जाती है। विजय शंकर मेहता और अन्य अभियुक्तों के खिलाफ़ भी कार्रवाई तत्काल प्रभाव से शुरू की जाए।”
कोर्ट की घंटी बजी।
न्याय का हथौड़ा गिरा।
कुछ हफ्तों बाद, एक नई सुबह में तारा और आदित्य साथ बैठे थे—वरसा हवेली के बरामदे में। सामने पुराने नीम का पेड़ था, जिसकी छाया बचपन से आदित्य के लिए शरण रही थी।
“अब क्या करोगे?” तारा ने पूछा।
“वापस जाऊंगा,” आदित्य बोला, “वहीं से शुरुआत करूंगा जहां से बाबा ने छोड़ा था।”
“अंडरवर्ल्ड?”
“नहीं। समाजसेवा।”
तारा ने मुस्कुरा कर कहा, “अदालत की ज़रूरत वहाँ भी है।”
“और तुम?”
“मेरे लिए लड़ाई खत्म नहीं हुई। ये शहर अब आवाज़ माँगता है। और मैं उसे शब्द दूँगी।”
एक महीने बाद, मुंबई में एक नई संस्था का उद्घाटन हुआ:
“कालसूत्र ट्रस्ट – न्याय के पुनर्निर्माण के लिए”
संस्थापक: तारा मिश्रा
प्रमुख सलाहकार: आदित्य वरसा
इस संस्था का उद्देश्य था—झूठे मामलों में फँसे लोगों को कानूनी सहायता देना, ट्रायल के नाम पर हो रहे अन्याय को उजागर करना, और पुलिस सुधारों के लिए जनमंच तैयार करना।
पहली गवाही एक 17 साल के लड़के की थी—जिसे तीन साल से सिर्फ इसलिए जेल में डाला गया था क्योंकि उसने एक माफिया का वीडियो वायरल किया था।
उस दिन, जब वो लड़का मंच पर खड़ा हुआ और बोला, “अब मुझे डर नहीं लगता,” तारा ने पहली बार महसूस किया—न्याय सिर्फ मुकदमों में नहीं, दिलों में भी दर्ज होता है।
एक शाम, आदित्य अकेला समुद्र के किनारे बैठा था—बिलकुल वहीं, जहाँ उसके पिता की हत्या हुई थी। अब वहाँ एक स्मारक था, जिस पर उकेरा गया था:
“यहाँ खड़ा था वो आदमी जिसने सच्चाई के लिए अपनी जान दी, ताकि हम सच्चाई से जी सकें — सुरेश वरसा।”
लोग आते थे, फूल चढ़ाते थे। कोई अब डर से नहीं, सम्मान से उसका नाम लेता था।
आदित्य ने जेब से एक पुरानी तस्वीर निकाली—उसमें वो अपने पिता के साथ खड़ा था, हाथ में लकड़ी की तलवार थी, और पिता कह रहे थे—”न्याय तलवार से नहीं, नीयत से होता है।”
उसने तस्वीर मोड़कर रखी, और सिर झुकाकर कहा—“बाबा, अब आप शांति से सो सकते हैं।”
तारा ने एक किताब लिखी:
“कालसूत्र – एक माफ़िया की हार, एक समाज की जीत”
बेस्टसेलर बनी। कॉलेजों में पढ़ाई जाने लगी। न्यायशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए एक केस स्टडी।
आख़िरी अध्याय में लिखा था:
“एक समय था जब नाम डर थे, और सच्चाई साज़िश लगती थी। पर एक शहर ने अपनी आवाज़ उठाई। ये सिर्फ एक कहानी नहीं, एक सबक है—कि जनता जब अदालत बनती है, तब अपराधी खुद गवाह बन जाते हैं।”
तीन साल बाद, एक नई अदालत का उद्घाटन हुआ—मुंबई हाई कोर्ट का एक नया ब्लॉक, जिसमें एक कमरा समर्पित था ‘जन-सुनवाई केंद्र’ को।
तारा ने उसका उद्घाटन किया, और वही पंक्ति दोहराई जो कालसूत्र का सार बन चुकी थी:
“न्याय वो नहीं जो दस्तावेज़ में है, न्याय वो है जो ज़मीर में दर्ज हो।”
समाप्त।