Hindi - प्रेम कहानियाँ

विवाह से पहले

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विवेक शर्मा


जयपुर की सर्दियों में जब गुलाबी हवाएं हवेली की पुरानी खिड़कियों से टकराती थीं, उस समय गोयल परिवार के आँगन में गहमागहमी थी। हल्के गुनगुने धूप में बैठे बुज़ुर्ग चाय पीते हुए किसी बड़े फैसले की चर्चा कर रहे थे, और रसोई से आती मसालों की खुशबू माहौल को और आत्मीय बना रही थी। अंशिका अपने कमरे की बालकनी में खड़ी सब देख रही थी, जैसे वह दृश्य का हिस्सा होते हुए भी अलग थी। उसकी माँ, विनीता गोयल, बार-बार नीचे से उसे बुला रही थीं लेकिन अंशिका की नजरें आसमान में उड़ते कबूतरों में उलझी थीं। पिछले कुछ दिनों से यह चर्चा घर में जोरों पर थी कि अंशिका की शादी तय करनी चाहिए और अब जब ‘समर सिंह शेखावत’ नाम सामने आया था – तो जैसे सब कुछ और तेज़ हो गया था। जयपुर के ही एक प्रतिष्ठित रॉयल खानदान से होने के कारण शेखावत परिवार को गोयल परिवार ने बड़ी उत्सुकता से स्वीकारा था। पर अंशिका – उसे यह अरेंज मैरिज की संकल्पना अब भी भारी लगती थी। वह चाहती थी कि अगर शादी हो तो उस व्यक्ति से जो उसके विचारों को समझे, जो उसकी बातों को सुने, सिर्फ उसकी सुंदरता या संस्कारों की तारीफ ना करे बल्कि उसकी सोच से जुड़े। लेकिन अब, परिस्थितियाँ कुछ और ही तय कर रही थीं।

समर शेखावत, जयपुर के बाहरी इलाके में स्थित अपने पुराने किलेनुमा घर में अपने माता-पिता और दादी के साथ रहता था। पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट, शांत और सधा हुआ, समर ने ज़िंदगी को एक अनुशासन की तरह देखा था। उसके लिए रिश्ते भी एक ज़िम्मेदारी थे – जहाँ प्रेम धीरे-धीरे पनपता है, भरोसे के साथ। जब उसके पिता ने यह रिश्ता बताया, तो उसने हामी भर दी – शायद इसलिए कि वह अब शादी के लिए तैयार था, और शायद इसलिए भी कि वह अपने परिवार की पसंद पर भरोसा करता था। लेकिन जब पहली बार अंशिका की तस्वीर उसने देखी, तो उसकी आँखें कुछ देर ठहर गईं। वह अलग थी – उसमें कुछ ऐसा था जो सहज नहीं था, जैसे वह तस्वीर से भी कुछ सवाल पूछ रही हो। उसे लगा कि यह लड़की शायद आम नहीं है, और शायद यही चुनौती उसके भीतर के सन्नाटे को तोड़ सकती है। लेकिन वह यह भी जानता था कि ऐसे रिश्तों में समय लगता है, और भरोसे की सीढ़ियाँ धीरे-धीरे चढ़नी होती हैं।

शेखावत और गोयल परिवार की पहली मुलाकात एक पुराने हेरिटेज होटल में हुई, जहाँ दोनों पक्षों ने परंपरा के अनुसार बातचीत की। मिठाइयों की प्लेटें और पारंपरिक रेशमी कपड़े माहौल को शादी का रंग दे रहे थे, लेकिन अंशिका का मन कहीं और था। वह समर को देख रही थी – बिना मुस्कान, बिना उत्सुकता – केवल निरीक्षण की निगाहों से। समर ने भी उसे एक बार नज़र भरकर देखा, फिर हल्की सी मुस्कान दी, जैसे यह कह रहा हो कि ‘मैं जल्दबाज़ी में नहीं हूँ।’ जब दोनों को अकेला छोड़ा गया, तो चाय की कप के बीच एक औपचारिक-सी बातचीत हुई – पसंद-नापसंद, काम, शौक – सब कुछ किताब के सवालों जैसा। लेकिन फिर समर ने कहा, “हम चाहें तो शादी से पहले 30 दिन बात कर सकते हैं – जैसे दो लोग एक रिश्ते को समझने की कोशिश करते हैं।” यह प्रस्ताव अंशिका के लिए अप्रत्याशित था, पर उसमें एक सम्मान झलक रहा था। वह कुछ पल चुप रही, फिर धीमे से बोली – “ठीक है, पर शर्तें मेरी होंगी।” समर मुस्कुरा दिया। दोनों को यह नहीं पता था कि यह 30 दिन उनके जीवन की सबसे निर्णायक यात्रा की शुरुआत होगी।

उस रात अंशिका ने अपनी डायरी में लिखा – “शादी से पहले की बातचीत एक विचार है, पर क्या दिल बिना जाने किसी पर भरोसा कर सकता है? क्या प्रेम समझ से पहले आता है या समझ के बाद?” दूसरी ओर, समर अपनी दादी, माया देवी के पास बैठा था, जो चुपचाप ऊन बुन रही थीं। उन्होंने बिना देखे कहा, “रिश्ता वो नहीं जो दो परिवार तय करें, रिश्ता वो है जो दो मन छू लें। अगर वो लड़की तुम्हारी आँखों में सवाल भर दे, तो समझना – वो जवाब भी बन सकती है।” समर उस वाक्य में कुछ देर डूबा रहा। बाहर जयपुर की हवाएं किले की दीवारों से टकरा रही थीं – और दो अलग सोच रखने वाले लोग, एक ही दिशा में पहली बार सोचने लगे थे – शायद यह रिश्ता कोई समझौता नहीं, एक संभावना था।

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पहले दिन की बातचीत तय समय पर शुरू हुई। समर ने व्हाट्सऐप पर “हाय, समय है?” भेजा और अंशिका ने “हाँ, कर लो कॉल” टाइप कर दिया। दोनों तरफ़ स्क्रीन पर एक झिझकी हुई मुस्कान थी, मानो कैमरे के उस पार कोई अजनबी बैठा हो, जो बहुत अपना भी बन सकता है और शायद बिल्कुल ही अजनबी भी रह जाए। बातचीत की शुरुआत औपचारिक रही – “कैसा दिन रहा?”, “ऑफिस कैसा चल रहा है?”, “तुम्हारी आर्ट गैलरी कैसी है?” और “घर वाले तो बहुत एक्साइटेड लग रहे थे उस दिन।” अंशिका की आवाज़ में हल्की ठंडक थी, और समर के बोलने में एक शांत औपचारिकता। दोनों अपनी-अपनी जगहों पर सतर्क थे, जैसे दो वकील पहली बार केस के दस्तावेज़ पढ़ रहे हों। लेकिन यह भी सच था कि दोनों एक-दूसरे की बातों को बिना टोक-टाक के सुन रहे थे, मानो सतह के नीचे कुछ और भी था – एक परखा जा रहा भरोसा।

तीन दिन की बातचीत में कोई खास बदलाव नहीं आया, पर कुछ छोटी-छोटी बातें ऐसे चुपचाप दिल में उतरने लगीं। अंशिका ने बताया कि उसे म्यूज़ियम जाना पसंद है, वहाँ की खामोशी और इतिहास की खुशबू उसे सुकून देती है। समर ने कहा कि उसे किताबों से ज़्यादा लोग पढ़ना पसंद है – “हर इंसान की आदतों में उसका इतिहास छिपा होता है।” अंशिका ने सिर हिलाया, पर चुप रही। चौथे दिन समर ने पहली बार एक हल्का मज़ाक किया – “अगर तुम इतनी किताबें पढ़ती हो तो मैं डर गया हूँ कि शायद मैं तुम्हारे स्टैंडर्ड्स पर खरा नहीं उतरूँ।” अंशिका मुस्कुरा दी, और पहली बार उसने कहा – “और अगर मैं बोलूँ कि तुम जैसे हो, वैसे ही ठीक लगते हो?” एक क्षण को दोनों चुप रहे, जैसे दोनों को अपने ही शब्दों पर यकीन नहीं हुआ हो। उस चुप्पी में कुछ अनकहा जुड़ गया, जैसे संवाद से पहले एक समझ बन गई हो।

धीरे-धीरे दोनों ने तय किया कि हर दिन एक नया विषय पर बात करेंगे – “सबसे पसंदीदा बचपन की याद”, “ऐसी कोई बात जो आज तक किसी को नहीं बताई”, “ज़िंदगी का सबसे बुरा डर”, “अगर कोई सपना कभी पूरा हो सके तो क्या हो?” – इस तरह के विषयों पर बात करते हुए, वे एक-दूसरे के अंदर झांकने लगे। समर ने बताया कि वह कॉलेज में एक बार स्टेज पर कविता पढ़ते हुए अटक गया था और उस शर्मिंदगी ने उसे आज तक मंच से दूर रखा। अंशिका ने स्वीकारा कि उसे शादी शब्द से डर लगता है क्योंकि उसे डर है कि उसका खुद का व्यक्तित्व कहीं खो न जाए। समर ने कहा, “शादी दो लोगों का मिलन है, लेकिन अगर उसमें कोई एक मिट जाए तो वह बलिदान बन जाती है, साथ नहीं।” अंशिका की आँखें उस वाक्य पर रुक गईं – और शायद पहली बार उसने समर को ‘पुराना सोच वाला लड़का’ कहना बंद कर दिया।

सप्ताह के अंत में समर ने कॉल पर पूछा – “क्या कभी लगा कि हम दो अलग-अलग दुनिया के लोग हैं?” अंशिका ने बिना हिचकिचाहट कहा – “लगता है, पर शायद यही सबसे सुंदर चीज़ है।” उस दिन दोनों की बातचीत आधे घंटे से ज़्यादा चली और किसी ने समय का ध्यान नहीं रखा। अंशिका ने महसूस किया कि समर की चुप्पी में गहराई है, और समर ने जाना कि अंशिका की मुखरता में एक मासूमियत छुपी है। यह संवाद अब ज़िम्मेदारी नहीं रह गया था, बल्कि एक आदत बन गया था – जैसे किसी अजनबी की आवाज़ धीरे-धीरे अपने जैसी लगने लगे। उन पहली सात रातों में, दोनों ने कोई वादा नहीं किया, कोई इज़हार नहीं किया, पर एक बीज ज़रूर बोया गया – भरोसे का, सुनने का, और एक धीमे प्रेम का जो जल्दबाज़ी से दूर था, लेकिन शायद ज़्यादा सच्चा था।

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आठवें दिन सुबह, जब अंशिका ने अपनी चाय की प्याली के साथ खिड़की खोली, तो फोन पर समर का एक छोटा सा गुड मॉर्निंग मैसेज था – “आज आसमान बहुत साफ़ है, और मेरी माँ ने मेरे लिए बेसन के लड्डू बनाए हैं। क्या तुम भी बेसन लड्डू पसंद करती हो?” यह साधारण-सी बात भी उस सुबह को कुछ खास बना गई। अंशिका मुस्कुराई और जवाब दिया – “तुम्हें नहीं पता, मैं लड्डुओं की रानी हूँ। कभी मेरी बनाई मिठाई खाओ, फिर दुनिया के स्वाद भूल जाओगे।” समर ने एक इमोजी भेजा और बात यहीं ख़त्म हो गई। लेकिन अब हर सुबह कुछ शब्दों से शुरू होती थी और हर शाम उस दिन की छोटी-छोटी बातों को समेटते हुए ख़त्म होती थी। यह रिश्ता धीरे-धीरे दिनचर्या बन रहा था – और इसी दिनचर्या में दोनों के बीच की दूरी पिघलने लगी थी।

एक दिन समर ने कहा कि वह छुट्टी के दिन शहर के किले देखने जा रहा है और पूछा, “अगर तुम्हें इतिहास पसंद है तो तुम्हें भी आना चाहिए था।” अंशिका ने बिना झिझक कहा, “शायद कभी आऊँ, लेकिन अकेले घूमना मुझे ज्यादा पसंद है।” समर ने उसे शांतिपूर्ण मुस्कराहट के साथ जवाब दिया, “मैंने सीखा है कि कुछ लोग अकेले में दुनिया को ज्यादा अच्छी तरह महसूस करते हैं।” वह उसकी बातों को सिर्फ सुनता नहीं था, समझता भी था – और यही बात अंशिका को सबसे ज्यादा आकर्षित करने लगी। उसी शाम, समर ने उसे अपने बचपन की एक तस्वीर भेजी – जिसमें वह मिट्टी में खेल रहा था, घुटनों पर धूल, चेहरे पर मुस्कान और आँखों में चमक। अंशिका ने लिखा – “ये तस्वीर बहुत प्यारी है। इसमें एक मासूम बच्चा है जो अब भी शायद कहीं तुम्हारे अंदर ज़िंदा है।” समर थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला – “और शायद वही बच्चा अब तुमसे दोस्ती करना चाहता है।”

अब दोनों ने तय किया कि वे हर दिन एक बात एक-दूसरे को बतायेंगे – कोई भी ऐसी बात जो उन्हें अपने भीतर से जोड़ती हो। समर ने एक शाम बताया कि उसे बारिश के बाद मिट्टी की खुशबू इतनी पसंद है कि वह अक्सर बरामदे में खड़े होकर बस उसे महसूस करता है। अंशिका ने कहा कि जब भी वह उदास होती है, तो वह अपनी डायरी में पेड़-पौधों से बात करती है – और कभी-कभी अपने डर को पत्तों पर लिखकर फाड़ देती है। इन बातों में कोई नाटकीयता नहीं थी, लेकिन उनका असर था – जैसे दो आत्माएँ बिना दिखावे के, बिना शोर के, एक-दूसरे के साथ बैठी हों, चुपचाप, पर जुड़ी हुई। अंशिका को महसूस हुआ कि वह अब समर के कॉल का इंतज़ार करने लगी है और समर को यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं रही कि वह उसकी बातों के बिना दिन अधूरा मानने लगा है।

दसवें दिन समर ने अचानक पूछा, “अगर हम दोस्त होते, और शादी का नाम बीच में नहीं आता, तो क्या हम ऐसे ही बात करते रहते?” अंशिका ने कुछ पल की चुप्पी के बाद जवाब दिया, “शायद हाँ, शायद नहीं… लेकिन तब ये रिश्ता हल्का होता, और अब इसमें एक गंभीरता है जो मुझे डरा नहीं रही… मुझे आकर्षित कर रही है।” समर ने कहा, “शायद शादी से पहले दोस्त बनना सबसे जरूरी चीज़ होती है।” अंशिका ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “तब चलो, दोस्ती से शुरू करते हैं – रोज़ एक चाय की वक़्त बात करेंगे, बिना किसी सवाल-जवाब के, बस मन की बातें।” समर ने सहमति में सिर हिलाया, और यह तय हुआ – हर शाम, एक चाय, एक बात, एक एहसास। इसी सादगी में उनका रिश्ता गहराने लगा – जैसे धूप की नर्म किरणें धीरे-धीरे एक बंद खिड़की से भीतर उतरती हैं, बिना शोर किए, बिना मांगे – बस अपने आप।

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पंद्रहवां दिन था जब समर ने कॉल पर कहा, “अगर तुम सहज हो, तो क्या हम मिल सकते हैं? सिर्फ़ एक कैफ़े में, बिना किसी भारी बात के, जैसे दो दोस्त मिलते हैं।” अंशिका कुछ देर चुप रही, फिर बोली, “ठीक है, लेकिन किसी भी चीज़ की उम्मीद मत रखना। मैं बस देखना चाहती हूँ कि जो शब्द हमने एक-दूसरे को दिये हैं, वे चेहरे पर भी उतने ही सच्चे हैं या नहीं।” मिलने की जगह तय हुई – जयपुर का एक पुराना हेरिटेज कैफ़े, जहां लाल पत्थरों की दीवारें और झरोखों से आती गुलाबी रोशनी दोनों को एक पुराने समय की कहानी में खींच ले जाती थीं। अंशिका पीले कुर्ते और सफ़ेद दुपट्टे में आई, बाल खुले थे और आँखों में वो ही संदेह और उत्सुकता की मिश्रित रेखाएं। समर सफ़ेद कुर्ते और नीली जैकेट में था, उसकी मुस्कान धीमी लेकिन स्थिर थी – जैसे वह इस पल को दिल से जीना चाहता था, बिना कुछ साबित किए।

पहली कुछ मिनटों में, जैसे दोनों ही अपनी छाया के साथ बैठे हों – शब्द कम थे, आँखें ज्यादा बोल रही थीं। चाय का पहला कप आते ही समर ने हँसते हुए कहा, “ये कैफ़े का माहौल तुम्हारी पसंद जैसा है – थोड़ी कहानी, थोड़ी खामोशी।” अंशिका मुस्कुराई, “और थोड़ी सी पुरानी ईमारतों की खुशबू। हाँ, ये मेरी जगह है।” बातचीत आगे बढ़ी – फिल्मों से शुरू होकर इतिहास तक, और वहाँ से परिवार, रिश्तों और अकेलेपन तक। समर ने एक बिंदु पर कहा, “मैंने हमेशा सोचा कि मैं किसी बहुत सधी हुई, घरेलू लड़की से शादी करूँगा, पर अब लगता है कि मुझे कोई ऐसी चाहिए जो मुझे थोड़ा हिला दे, सवाल पूछे, मुझे अपने भीतर झाँकने पर मजबूर करे।” अंशिका ने उसकी तरफ़ देखा – उसकी आँखों में कोई ढोंग नहीं था, और यही उसे सबसे ज़्यादा प्रभावित कर गया।

चलते-चलते दोनों कैफ़े की छत पर चले गए, जहाँ शहर का एक हिस्सा नीचे दूर-दूर तक दिखता था। हवा में गुलाब की हल्की खुशबू घुली थी और सूरज ढलने की तैयारी में था। समर ने कहा, “तुम्हें देखकर कभी-कभी लगता है जैसे कोई किताब पढ़ रहा हूँ – हर पन्ने पर कुछ नया, और कोई भी पन्ना अगले जैसा नहीं होता।” अंशिका ने कुछ नहीं कहा, बस छत की रेलिंग पर अपनी उंगलियाँ घुमाते हुए बोली, “और मुझे लगता है जैसे मैं किसी पुराने बंद कमरे में आई हूँ – जहाँ खिड़कियाँ धीरे-धीरे खुल रही हैं और अंदर रोशनी भरने लगी है।” दोनों कुछ पल चुप रहे – वो चुप्पी बोझिल नहीं थी, बल्कि सुकून भरी। जैसे दो लोग एक ही सन्नाटे को समझते हुए, उसके भीतर साथ जीना सीख रहे हों।

जब विदा का समय आया, तब दोनों ने कोई वादा नहीं किया, कोई बड़ी बात नहीं की। समर ने सिर्फ़ इतना कहा, “अगर आज तुम्हें थोड़ी भी खुशी हुई हो, तो शायद हमारा ये प्रयास किसी दिशा में बढ़ रहा है।” अंशिका ने सिर हिलाया, फिर धीमे स्वर में बोली, “तुम्हारे साथ आज की बातचीत आसान थी – और शायद असली रिश्ते वही होते हैं, जहाँ हम सहज हो सकें।” समर ने बिना कहे कुछ समझ लिया – उसकी धीमी मुस्कान में उस शाम का सबसे गहरा वादा था। दोनों अपनी-अपनी गाड़ियों की ओर बढ़े – लेकिन अब उनके बीच कुछ बदल चुका था। यह मुलाकात अरेंज मैरिज की औपचारिकता नहीं, दो आत्माओं की वास्तविक निकटता बन गई थी – जहाँ शब्दों से ज़्यादा मौन में सच्चाई थी, और पहली बार किसी ने महसूस किया कि ‘शादी से पहले’ का यह रास्ता प्रेम के बीज बो सकता है, जो समय के साथ खिल सकते हैं।

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मुलाक़ात के बाद का पहला दिन अजीब था – जैसे दोनों के भीतर कोई हलचल हो पर उसे नाम देना जल्दीबाज़ी लगे। सुबह अंशिका ने समर का मैसेज देखा – “कल की मुलाकात बहुत हल्की और बहुत भारी दोनों थी। तुम्हारा साथ… अच्छा लगा।” उसने जवाब नहीं दिया, पर कई बार उस मैसेज को पढ़ा। दूसरी तरफ़ समर अपने ऑफिस की रिपोर्ट्स में उलझा रहा, पर बार-बार मोबाइल स्क्रीन की तरफ़ देखता रहा – हर बार एक अनकही उम्मीद के साथ। दोपहर में चंदनी, अंशिका की सबसे करीबी दोस्त, उससे मिलने आई। वे दोनों चाय लेकर बालकनी में बैठीं। चंदनी ने सीधा सवाल दागा – “तो, क्या समर कुछ खास है?” अंशिका ने बिना उसकी तरफ़ देखे कहा, “वो कुछ अलग है… जैसे वो अपनी बातों से मुझे उलझाता नहीं, बल्कि खोलता है। लेकिन फिर भी मैं डरती हूँ… कहीं ये सब एक भ्रम न हो?” चंदनी ने मुस्कराते हुए कहा, “कभी-कभी जो चीज़ हमें सबसे ज़्यादा डराती है, वहीं सबसे ज़्यादा सच्ची होती है।” उस दिन अंशिका ने पहली बार महसूस किया कि समर से जुड़े भाव अब सिर्फ़ बातचीत या औपचारिकता नहीं थे – उनमें चाहत की परछाईं थी।

उधर समर अपने कज़िन करण भाया के साथ छत पर बैठा था, जहाँ ठंडी हवा और पुराने किस्से साथ-साथ बह रहे थे। करण ने पूछा, “तो जनाब, क्या मामला सीरियस हो गया है?” समर हँस पड़ा, “पता नहीं भैया, पर ऐसा लगता है जैसे उससे बात किए बिना दिन अधूरा सा लगता है। वो सवाल पूछती है – और मैं जवाब ढूँढते-ढूँढते खुद को समझने लगता हूँ।” करण ने उसकी पीठ पर हल्का धक्का मारा, “तो यही तो असली रिश्ता होता है, जहाँ तू खुद के पास लौटता है। लव मैरिज और अरेंज मैरिज में फर्क किसे पड़ी है जब दिल खुद बात करने लगे।” समर को करण की ये बात दिल से छू गई। उसने महसूस किया कि अब वह अंशिका की उपस्थिति से नहीं, उसकी अनुपस्थिति से प्रभावित होने लगा है – जैसे हर दिन, हर ख़ामोशी अब उससे जुड़ गई हो।

अगले कुछ दिनों में दोनों की बातचीत और भी सहज होने लगी। अब वे एक-दूसरे से दिन के उलझाव नहीं, दिल के रंग साझा करते थे। कभी समर अपनी दादी माया देवी की मीठी बातें बताता, तो कभी अंशिका अपने पेंटिंग के अधूरे कैनवास के रंगों की उलझन। एक दिन अंशिका ने कहा, “मैंने सोचा है, मैं एक पेंटिंग बनाऊँगी – अधूरी रानी और अधूरा महल। शायद उसी में हमारी कहानी छुपी है।” समर ने पूछा, “और क्या हम कभी उसे पूरा कर पाएँगे?” अंशिका ने जवाब दिया, “पता नहीं… पर शायद शुरुआत की खूबसूरती इसी में है कि हमें अंत का डर नहीं।” इस तरह की गहराई उनकी हर बातचीत में आने लगी थी – जैसे दो लोग अब सिर्फ़ बातें नहीं कर रहे थे, बल्कि एक-दूसरे की आत्मा से संवाद कर रहे थे।

एक शाम, समर ने बहुत संजीदगी से कहा, “अंशिका, अगर एक दिन तुम कहो कि तुम ये रिश्ता नहीं चाहती, तो मैं पीछे नहीं हटूँगा, पर तुम्हें दोष भी नहीं दूँगा। मैं जानता हूँ कि रिश्ते दबाव से नहीं, स्वीकृति से चलते हैं।” अंशिका कुछ पल शांत रही, फिर बोली, “और यही बात तुम्हें बाक़ियों से अलग बनाती है समर – तुम रिश्ता मांगते नहीं, निभाने का अवसर देते हो।” दोनों की बातों में कोई प्रेम-प्रस्ताव नहीं था, कोई रोमांटिक पंक्ति नहीं, लेकिन फिर भी एक घनी आत्मीयता थी – जो शब्दों से नहीं, मौन की गरिमा से उपजी थी। अब यह रिश्ता केवल जान-पहचान या अनजाने भावों की हल्की परत नहीं था – यह धीरे-धीरे एक गहराते रिश्ते की परिभाषा बन रहा था, जहाँ दोस्ती, आदर और समझ मिलकर उस प्रेम की नींव रख रहे थे, जो सच्चा, धीमा और बेहद ज़रूरी था।

***

शादी के दिन करीब आते जा रहे थे और जयपुर का वह घर रंग-बिरंगे उत्सवों से सजने लगा था। हल्दी की महक, मेंहदी के गीत, रिश्तेदारों की चहक, सबकुछ जैसे सपनों की तरह चल रहा था। लेकिन इस शोरगुल के बीच अंशिका और समर के भीतर कुछ खामोश सवाल थे जो रोज़ थोड़े और स्पष्ट होते जा रहे थे। समर ने महसूस किया कि अंशिका अब हर बात में सावधानी बरतती थी—जैसे वह कुछ छुपा रही हो। अंशिका के चेहरे पर मुस्कान थी, पर वह आंखों तक नहीं पहुँचती थी। एक दिन समर उसे छत पर अकेले बैठा देख उससे बात करने चला गया। वह चुप थी, और जब समर ने धीरे से उसका हाथ थामा, उसने नजरें चुराते हुए कहा, “समर… मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ, पर डर लगता है कि कहीं सब कुछ बदल न जाए।” समर ने सिर्फ इतना कहा, “जो भी सच है, वो हमारे बीच की जगह को साफ़ करेगा, बिगाड़ेगा नहीं।”

अंशिका ने एक लंबी सांस ली और बोली, “मेरी ज़िंदगी में एक समय ऐसा था जब मैं किसी और से प्यार करती थी। वो रिश्ता मेरा पहला अनुभव था, पर उसने मुझे पूरी तरह तोड़ दिया। जब हमारे रिश्ते की बात चली, मैंने सोचा कि बीता हुआ सब पीछे छूट चुका है, लेकिन कभी-कभी उसका अक्स अब भी मेरे अंदर बाकी है। मैं कोशिश कर रही हूँ आगे बढ़ने की… तुम्हारे साथ ईमानदारी से।” समर ने उसे ध्यान से सुना, उसकी आंखों में कोई आरोप नहीं था, बस एक गहराई थी जो समझने की कोशिश कर रही थी। कुछ पल खामोशी के बाद वह बोला, “पिछला कोई भी रिश्ता अगर अब भी हमारे आज को छू रहा है, तो ज़रूरी है कि हम उसे पहचानें और स्वीकार करें। मैं यहाँ तुम्हारे साथ हूँ… तुम्हारे पूरे सच के साथ।” उस क्षण अंशिका की आंखों से आंसू बह निकले, लेकिन उसमें कोई डर नहीं था—बस सुकून था कि शायद इस बार वह सही जगह पर थी।

अगले कुछ दिनों में अंशिका और समर के बीच पहले से कहीं अधिक गहराई आने लगी। वे दोनों हर सुबह एक चाय साथ पीते और एक-दूसरे से दिन की शुरुआत की बातें साझा करते। जब किसी कार्यक्रम की रिहर्सल होती, तो समर ध्यान देता कि अंशिका थकी तो नहीं, और अंशिका यह देखती कि समर किस रिश्तेदार से असहज है, और बीच में आकर उसे सहज कर देती। यह रिश्तों की वह बुनाई थी जो बिना किसी शोर के, रोज़ थोड़ा-थोड़ा करके मज़बूत हो रही थी। उनका यह नया रिश्ता अतीत की परछाइयों को छूता भी था और उन्हें धीरे-धीरे पीछे भी छोड़ रहा था। समर ने एक दिन कहा, “हमारे बीच जो भी है, वो परफेक्ट नहीं है… लेकिन शायद यहीं तो असली है। और मुझे यही चाहिए—सच्चा, थोड़ा टूटा, थोड़ा अधूरा… लेकिन अपना।” अंशिका ने पहली बार पूरे दिल से मुस्कुराते हुए कहा, “तुम्हारे साथ मैं अधूरी नहीं लगती, समर। मैं बस लगती हूँ… पूरी।”

शाम को संगीत की रिहर्सल चल रही थी, जब समर ने एक सरप्राइज़ प्लान किया। उसने एक छोटी कविता लिखी थी जो अंशिका के बारे में थी—उसके डर, उसकी सच्चाई, और उसकी खूबसूरती के बारे में। उसने सबके सामने मंच पर जाकर वो कविता सुनाई। अंशिका के लिए यह किसी सपने जैसा था—कोई जो उसके बीते हुए कल को जज किए बिना स्वीकार करता हो, और उसका आज संजोता हो। वह भी धीरे से स्टेज पर गई और बोली, “शादी से पहले के इन तीस दिनों में मुझे सबसे कीमती तोहफा मिला—एक दोस्त, जो प्रेमी भी है, और साथी भी। अगर आज हम शादी नहीं भी करते, तब भी मैं जानती हूँ कि मैंने प्यार को महसूस किया है… सच्चे रूप में।” लेकिन उन शब्दों में एक भरोसा था—कि वे शादी करेंगे, क्योंकि अब यह रिश्ता किसी दबाव या समझौते का नहीं था… बल्कि एक चुना हुआ साथ था, जिसकी नींव सच्चाई पर थी।

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जयपुर की वह शाम जैसे कोई भावनाओं का उत्सव बन गई थी। हवामहल की ओर जाती सड़क पर रंगीन रोशनियाँ टिमटिमा रही थीं और समर ने अंशिका को शहर की उन गलियों में चलने का न्योता दिया जहाँ से उसकी बचपन की यादें जुड़ी थीं। दोनों चुपचाप चलते रहे, मानो शब्दों की ज़रूरत ही नहीं थी। समर ने पहली बार उसकी हथेली थाम ली थी — एक सहज, नर्म और आत्मीय छुअन — और अंशिका ने प्रतिरोध नहीं किया। मन में चल रही झिझक की दीवार धीरे-धीरे दरक रही थी। वे एक पुराने चाय के ठेले पर रुके, जहाँ समर अक्सर कॉलेज के दिनों में आता था। “यहाँ की कुल्हड़ वाली चाय जादू है,” समर ने कहा। अंशिका ने मुस्कुरा कर पहली चुस्की ली, और उसके होठों पर वही जादू उतर आया। छोटे-छोटे लम्हों की गरमी में कोई गहरा अपनापन पनपने लगा था, जो शब्दों से कहीं ज़्यादा स्पष्ट था।

शाम के बाद वे समर के ननिहाल के एक पुराने घर की छत पर पहुँचे, जहाँ समर ने बताया कि वह अक्सर यहाँ सितार बजाया करता था। आश्चर्य से अंशिका ने उसकी ओर देखा – समर के भीतर ये सारे रंग छुपे थे, जिनसे वह अब तक अनजान थी। वह सितार लेकर बैठा और बिना कहे एक मीठा राग छेड़ दिया – जैसे उसके सुर अंशिका के मन की उलझनों को सुलझा रहे हों। अंशिका वहीं छत की मुंडेर पर बैठ गई, बाल खुले थे और नज़रों में कुछ अधूरा-सा सपना तैर रहा था। वह सोचने लगी कि ये रिश्ता, जो कभी महज़ एक पारिवारिक प्रस्ताव था, अब उसके भीतर गहराई से उतरता जा रहा है। समर के सुरों में उसे अपना भविष्य गूंजता सुनाई दे रहा था – एक ऐसा भविष्य जिसे उसने चाहा तो नहीं था, लेकिन अब वह उसे नकार भी नहीं पा रही थी।

उस रात, जब वे वापस लौटे, समर ने कार के दरवाज़े के पास अंशिका को रोका। “क्या मैं कुछ पूछ सकता हूँ?” – उसकी आवाज़ में संकोच था। अंशिका ने आँखों से इशारा किया। “अगर हम कभी प्रेम में पड़ जाएँ, तो क्या यह तयशुदा शादी एक कहानी बन सकती है, जिसे हम खुद लिखें?” अंशिका के होंठों पर धीमी मुस्कान आई, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। केवल उसकी आँखें बहुत कुछ कह रही थीं। घर लौटते हुए वह खिड़की से बाहर देखती रही, शहर की बत्तियाँ अब उसे उतनी चुभती नहीं थीं। समर के इस सवाल ने उसके भीतर कोई दरवाज़ा खटखटाया था – एक ऐसा दरवाज़ा जो वह खुद से भी छुपा रही थी। शायद वह भी उसे चाहने लगी थी, लेकिन कबूल करना अभी बाकी था।

अगली सुबह कुछ अलग थी। अंशिका ने अपने कमरे की खिड़की खोली तो देखा समर गेट के पास खड़ा है, हाथ में गुलमोहर का एक गुच्छा लिए। “बिना बात के फूल देना मना है?” उसने मुस्कुराकर पूछा। “बातें तो बहुत हो गईं,” अंशिका ने जवाब दिया, “अब शायद खामोशियाँ ज़्यादा जरूरी हैं।” वह फूल लेती है, और उस क्षण में कुछ स्थिर हो जाता है — जैसे हवा भी ठहर गई हो। दोनों जानते थे कि यह रिश्ता अब केवल एक सामाजिक व्यवस्था नहीं रह गया है, यह उनके भीतर गहरे उतर रहा है। विवाह से पहले जो 30 दिन उन्हें दिए गए थे, वे अब एक जीवन भर की नींव बनते जा रहे थे। अंशिका पहली बार उस रिश्ते की कल्पना कर पा रही थी जो प्रेम, समझ और बराबरी की परिभाषा पर खड़ा हो।

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शादी के ठीक एक दिन पहले हवेली का माहौल जैसे किसी पुराने राजमहल में चल रहे किसी त्योहार जैसा था—चारों तरफ सजावट, रिश्तेदारों की चहल-पहल, और संगीत की मधुर ध्वनि। अंशिका अपने कमरे में बैठी मेहंदी से सजे हाथों को निहार रही थी, मन अजीब सी बेचैनी से भरा हुआ। कमरे की खिड़की से समर की बालकनी दिखाई देती थी, लेकिन आज वो वहाँ नहीं था। इतने दिनों में जो बातचीत, बहस, हँसी और चुप्पियाँ उनके बीच पनपी थीं, वे अब एक नाजुक एहसास में बदल चुकी थीं। आज जब सब कुछ तय हो चुका था, जब शादी की तैयारियाँ अपने चरम पर थीं, तब अंशिका के मन में एक अजीब-सा डर बैठ गया था—क्या कल के बाद सब कुछ बदल जाएगा? क्या वे दोनों उस सहजता को खो देंगे जो अभी मिली थी?

उधर समर भी शांत नहीं था। वह अपने कमरे में बैठा अंशिका की दी हुई एक छोटी-सी डायरी को देख रहा था, जिसमें उसने हर दिन की एक-एक झलक लिखी थी—कैसे समर की बातें कभी चिढ़ा देती थीं, कैसे उसके छोटे-छोटे ख्याल दिल छू जाते थे, और कैसे धीरे-धीरे वो उसकी आदत बन गया। समर के लिए ये पन्ने सिर्फ शब्द नहीं थे, बल्कि एक ऐसे रिश्ते का दस्तावेज़ थे जो बिना किसी जोर-जबरदस्ती के, पूरी ईमानदारी से पनपा था। उसने पहली बार महसूस किया कि प्यार को समझने के लिए समय और धैर्य की कितनी ज़रूरत होती है। अंशिका के साथ बिताए इन 30 दिनों ने उसे खुद से भी जोड़ दिया था। उसे अब यकीन था कि अंशिका सिर्फ उसकी होने वाली पत्नी नहीं, बल्कि उसकी सबसे सच्ची दोस्त बन चुकी है।

शाम को अचानक बिजली चली गई और पूरा घर दीयों और मोमबत्तियों की रौशनी में नहाने लगा। इसी रोशनी में समर ने बालकनी से अंशिका को देखा—वो खामोशी से चाँद की तरफ देख रही थी। समर ने धीरे से फुसफुसाया, “कल से सब बदल जाएगा, पर मैं नहीं बदलूंगा।” अंशिका मुस्कुरा दी, जैसे उसके मन की बात सुन ली हो। उस चुप मुस्कान में जैसे सारा डर, सारी चिंता बह गई। अंशिका ने इशारे से पूछा—”तैयार हो?” समर ने सिर हिलाया, “हमेशा से।” यह संवाद बिना शब्दों के था, लेकिन उसमें वो सारी बातें थीं जो वे पिछले दिनों कहना चाह कर भी नहीं कह पाए थे। कभी-कभी मौन ही सबसे बड़ी भाषा बन जाती है।

शादी की सुबह जैसे ही सूरज की किरणें हवेली की खिड़कियों पर पड़ीं, समर और अंशिका दोनों ही जाग चुके थे। आज का दिन सिर्फ एक सामाजिक रस्म नहीं था, बल्कि उन दोनों के बीच एक परिपक्व रिश्ते की शुरुआत थी—जिसमें दोस्ती थी, सम्मान था, और सबसे ज़रूरी, समय लेकर सीखा गया प्यार था। विवाह से पहले शुरू हुई इस यात्रा ने उन्हें सिर्फ एक-दूसरे को नहीं, खुद को भी समझना सिखाया था। जयपुर की हवेली में आज सिर्फ दो लोगों की शादी नहीं हो रही थी, बल्कि दो आत्माओं का मेल हो रहा था, जो धीरे-धीरे, समय लेकर, बिना किसी दिखावे के एक-दूसरे में समा गई थीं।

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