Hindi - यात्रा-वृत्तांत

वाराणसी की गलियों में

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सत्यजीत भारद्वाज


वाराणसी की सुबह उस दिन हमेशा की तरह गंगा की धुंधली लहरों से जागी थी, लेकिन डेविड मिलर के लिए यह क्षण किसी सपने की तरह था। रातभर की रेलयात्रा और थकान के बावजूद जैसे ही उसने स्टेशन से बाहर कदम रखा, उसके चारों ओर की हलचल ने उसकी थकान को कहीं पीछे छोड़ दिया। रिक्शों की आवाजें, मंदिर की घंटियों की टुन-टुन और हवा में घुली अगरबत्ती की महक उसके भीतर एक अजीब सा कंपन पैदा कर रही थी। उसके पैरों में अब तक पश्चिमी शहरों की ठंडी, व्यवस्थित सड़कों की आदत थी, मगर यहाँ ज़मीन असमतल थी, गलियां तंग और अनगिनत लोग एक-दूसरे से टकराते-से गुजर रहे थे। फिर भी उसमें एक अद्भुत जीवन की गूंज थी—जैसे हर पत्थर, हर आवाज़ और हर रंग का अपना अलग इतिहास और अर्थ हो। डेविड ने अपने बैग की स्ट्रैप कसकर खींची और धीरे-धीरे कदम बढ़ाया, मानो वह किसी अदृश्य शक्ति से खिंचता हुआ काशी की आत्मा में प्रवेश कर रहा हो। उसकी आंखें हर चीज़ को लालच से पी रही थीं—कहीं फूलों से लदी थालियाँ थीं, कहीं पूजा के लिए जा रही महिलाएं अपने सिर पर जल कलश रखे चली जा रही थीं, और कहीं से घुली-घुली संस्कृत की मंत्रध्वनि वातावरण को और गूढ़ बना रही थी।

वह जब पहली बार गंगा किनारे पहुंचा तो सूरज की सुनहरी किरणें लहरों पर चमक रही थीं और ठंडी हवा उसके चेहरे को छूकर गुज़र रही थी। गंगा के घाट पर लोग पहले से ही जुटने लगे थे—किसी ने स्नान के लिए डुबकी लगाई, किसी ने हाथ जोड़कर सूर्य को प्रणाम किया, तो कोई शांत बैठा अपने भीतर से संवाद कर रहा था। डेविड के लिए यह दृश्य अविश्वसनीय था। पश्चिम में उसने ऐसी सुबहें कभी नहीं देखी थीं—वहाँ की सुबहें मशीनों और गाड़ियों की आवाज़ों से शुरू होती थीं, जबकि यहाँ हर आवाज़ जीवन के किसी गहरे रहस्य का संकेत देती प्रतीत हो रही थी। वह अपने कैमरे को निकालकर हर क्षण को कैद करना चाहता था, लेकिन कुछ ही देर बाद उसने महसूस किया कि यह दृश्य कैमरे से कहीं अधिक उसके दिल में बसने योग्य है। उसने अपनी हथेली गंगा के ठंडे जल में डुबोई और जब हाथ बाहर निकाला तो उसकी हथेली से जल की बूंदें सूरज की रोशनी में छोटे-छोटे हीरों की तरह चमक उठीं। उसी क्षण उसके मन में एक अजीब सी अनुभूति जागी—मानो यह जल सिर्फ नदी का नहीं, बल्कि जीवन का अमृत है।

वह घाट की सीढ़ियों पर बैठकर आसमान की ओर देखने लगा। उड़ते हुए कबूतरों का झुंड, मंत्रोच्चार की गूंज और गंगा की अविरल धारा ने उसके भीतर ऐसी गहराई पैदा की, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। उसके चारों ओर हर चेहरा, हर घटना, हर क्षण उसे नया और रहस्यमय लग रहा था। एक बुजुर्ग साधु गेरुए वस्त्र में मंत्र पढ़ते हुए उसकी ओर देख मुस्कुरा दिया, मानो कह रहा हो कि तुम यहाँ अजनबी नहीं, इस पवित्र धरती के हिस्से हो। उसी क्षण डेविड ने महसूस किया कि यह यात्रा सिर्फ भौगोलिक स्थानों की नहीं, बल्कि उसकी आत्मा की यात्रा भी होगी। वाराणसी की पहली सुबह ने उसके हृदय में एक बीज बो दिया था—खोज का, अनुभव का और उस सत्य का जिसे वह अब तक सिर्फ किताबों में पढ़ता आया था। यह शहर उससे फुसफुसाकर कह रहा था, “स्वागत है, अब तुम भी इस अनंत धारा का हिस्सा हो।”

गंगा की सीढ़ियों पर कुछ समय बिताने के बाद डेविड ने अपने कदम गलियों की ओर बढ़ाए। पहली नज़र में ही वे गलियां उसके लिए किसी भूल-भुलैया जैसी लगीं—संकरी, टेढ़ी-मेढ़ी, और इतनी व्यस्त कि हर मोड़ पर जीवन का नया रंग दिखाई देता था। ऊँची-ऊँची दीवारों के बीच से छनकर आती धूप संकरी सड़क पर हल्की सुनहरी छाया बिखेर रही थी। जगह-जगह छोटे-छोटे मंदिर थे, जिन पर ताजे फूल और धूप की राख जमी थी, और उनके बाहर घंटियों की टनटनाहट के बीच लोग आ-जा रहे थे। दीवारों पर चिपके पुराने पोस्टर, टूटे-फूटे दरवाज़ों से झांकती पुरानी हवेलियाँ और हवा में घुली मसाले की गंध उसे सम्मोहित कर रही थी। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता, उसे लगता कि हर गली अपने भीतर कोई रहस्य छिपाए बैठी है—कहीं गायें सड़क के बीच आराम से बैठी थीं और लोग उन्हें सहजता से चकमा देकर निकल रहे थे, तो कहीं दुकानदार अपने ग्राहकों से जोर-जोर से मोलभाव कर रहे थे। डेविड को लगा कि यह जगह एक जीवित चित्र है, जो लगातार बदलता रहता है, फिर भी सदियों से एक जैसा बना हुआ है।

चलते-चलते उसकी नज़र एक छोटे-से ठेले पर पड़ी, जहाँ से गर्मागर्म कचौड़ियों की खुशबू फैल रही थी। वहाँ खड़ा था रामु कचौड़ीवाला, जिसकी गोल-मटोल काया, चौड़ी मुस्कान और तेज़ आवाज़ लोगों को अपनी ओर खींच रही थी। वह जोर-जोर से आवाज़ लगाकर कह रहा था, “आइए भैया! वाराणसी आए हैं तो हमारी कचौड़ी खाए बिना जाएंगे कैसे? यह तो पाप है!” उसके इस मज़ाकिया अंदाज़ ने डेविड को हंसा दिया। उसने पास जाकर जिज्ञासा से देखा—ताज़े आलू की सब्ज़ी, कुरकुरी कचौड़ियाँ और मीठी जलेबी की प्लेटें तैयार रखी थीं। रामु ने तुरंत उसे देख लिया और टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में बोला, “ओह विदेशी भैया! Come, come… खाइए, स्वाद लीजिए!” डेविड पहले झिझका, लेकिन फिर उसने एक प्लेट मंगवाई। जैसे ही उसने पहला कौर चखा, उसके चेहरे पर आश्चर्य और खुशी की चमक आ गई। मसालेदार स्वाद उसके लिए नया था, पर उसमें कुछ ऐसा था जो उसे भीतर तक गर्माहट दे रहा था। रामु हंसते हुए बोला, “कहा था न भैया, हमारी कचौड़ी खाए बिना वाराणसी अधूरी है। ये है असली बनारस!”

डेविड ने वहीं खड़े-खड़े प्लेट खत्म की और चारों ओर की हलचल को और गहराई से महसूस करने लगा। दुकान पर लोग आते-जाते रहे—किसी ने हंसी-ठिठोली की, किसी ने जल्दी-जल्दी खाकर आगे का रास्ता पकड़ा। रामु हर किसी से मज़ाक करता, हंसाता और अपने ग्राहकों को जैसे परिवार का हिस्सा बना देता था। डेविड को यह देखकर हैरानी हुई कि यहाँ भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि अपनापन और रिश्ते बनाने का ज़रिया था। गलियों का शोर अब उसे खटकने के बजाय किसी संगीत की तरह लगने लगा। रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहनी महिलाएं, माथे पर तिलक लगाए साधु, और हाथों में पूजा की थालियाँ लिए बच्चे—हर कोई इस संकरी गली को एक जीवित उत्सव बना रहा था। डेविड के मन में आया कि पश्चिम में उसने इतने लोगों को एक साथ इतनी सहजता से जीते नहीं देखा था। यहाँ हर पल एक नया अनुभव था, हर चेहरा एक कहानी थी, और हर गली उसकी आत्मा में भारत की सजीवता का चित्र उकेर रही थी। उसे महसूस हुआ कि वाराणसी की असली धड़कन इन गलियों में है, जहाँ जीवन अपने सबसे सच्चे रूप में सांस लेता है।

रामु की दुकान पर एक लकड़ी की बेंच पर बैठते ही डेविड ने खुद को उस हलचल के बीच पाया, जो किसी उत्सव से कम नहीं लग रही थी। छोटी-सी दुकान पर पीतल की कड़ाही में खौलते तेल की महक, उसमें गिरती कचौड़ियों की छन-छन और उनकी सुनहरी परत देखकर उसका मन ललचा उठा। रामु के तेज़ हाथ बड़ी कुशलता से कचौड़ियाँ बेलते और तलते जा रहे थे, वहीं पास ही एक और लड़का गर्म-गर्म जलेबियाँ तलकर शहद-सी चाशनी में डाल रहा था। डेविड ने प्लेट में रखी पहली कचौड़ी उठाई, उस पर आलू की सब्ज़ी डाली और जैसे ही पहला कौर लिया, उसके चेहरे पर चमक फैल गई। मसालों का तीखापन, आलू की मिठास और कचौड़ी की कुरकुराहट ने उसके स्वाद की इंद्रियों को नया संसार दिखा दिया। उसके साथ ही जब उसने गरमागरम जलेबी का घुमावदार टुकड़ा खाया, तो वह मिठास उसके भीतर तक उतर गई, मानो किसी ने उसके दिल में उत्सव की घंटियाँ बजा दी हों। उसके लिए यह सिर्फ भोजन नहीं था, बल्कि संस्कृति की थाली थी—जहाँ स्वाद और भावना एक हो गए थे।

वहीं बैठकर उसने देखा कि कैसे लोग इस दुकान पर आते और सहजता से बातचीत करने लगते। एक बूढ़ा रिक्शेवाला थकान भरी सांस के साथ बेंच पर बैठा और रामु ने बिना पूछे उसके सामने एक प्लेट रख दी—मानो यह रोज़ की रस्म हो। बगल में दो छात्र अपनी किताबें खोले हुए कचौड़ी खाते-खाते परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। कुछ महिलाएं हंसी-ठिठोली करती हुई आईं और उन्होंने बैठते ही रामु से मज़ाक शुरू कर दिया—“आज तो कचौड़ी में आलू कम है भैया, कीमत ज़्यादा है!” और रामु ठहाका लगाकर बोला—“आपके लिए तो मुफ्त में भी देंगे, बस हंसते रहिए।” डेविड को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यहाँ भोजन केवल खाने भर का साधन नहीं, बल्कि संवाद और मेलजोल का माध्यम था। पश्चिमी रेस्तरां में उसने देखा था कि लोग अपने-अपने खाने में डूबे रहते हैं, जबकि यहाँ हर कोई एक-दूसरे के जीवन में सहजता से शामिल हो जाता है। इस साधारण-सी दुकान पर उसे जीवन की सरलता और आनंद का असली रूप दिखाई दिया।

डेविड का मन अब केवल खाने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वह इन क्षणों को आत्मा से जीने लगा। बच्चों की खिलखिलाहट, बुढ़ों की मुस्कान, युवाओं की हंसी-मज़ाक और रामु की आवाज़ ने मिलकर उस गली को एक जीवंत नाटक बना दिया। उसे लगा कि वाराणसी की गलियों का यह दृश्य किसी किताब में नहीं लिखा जा सकता, इसे तो केवल जीकर ही समझा जा सकता है। जब उसने अपनी प्लेट खत्म की और पानी पिया, तो उसके भीतर गहरी तृप्ति की लहर दौड़ गई। उसने रामु को धन्यवाद कहा, और रामु ने हंसते हुए उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “भइया, अब तो आप आधे बनारसी हो गए। बस पान खाकर देख लीजिए, बनारस पूरा हो जाएगा।” डेविड मुस्कुराया, और उसी क्षण उसने महसूस किया कि भोजन और संस्कृति का यह मिलन ही वाराणसी की आत्मा है—जहाँ हर निवाला आपको सिर्फ तृप्त नहीं करता, बल्कि आपको उस समाज का हिस्सा भी बना देता है। इस अनुभव ने डेविड के भीतर भारत की सरलता, आत्मीयता और जीवन जीने के अद्भुत अंदाज़ के प्रति गहरा सम्मान जगा दिया।

वाराणसी की भीड़-भाड़ भरी गलियों से गुजरकर जब डेविड गंगा किनारे पहुँचा, तो सामने फैला दृश्य उसे नि:शब्द कर गया। गंगा का शांत जल, उस पर तैरती कुछ छोटी नावें और घाट की सीढ़ियों पर जुटी भीड़—यह सब मिलकर मानो किसी भव्य चित्र की रचना कर रहे थे। हवा में अगरबत्ती और घी के दीपकों की सुगंध घुली हुई थी, जो लहरों की ठंडी नमी के साथ मिलकर एक आध्यात्मिक माहौल बना रही थी। तभी उसकी नज़र एक साधारण-से नाविक शंकर पर पड़ी, जिसने खादी का कुर्ता पहना हुआ था और चेहरे पर सहज मुस्कान थी। उसने डेविड को हाथ के इशारे से बुलाया और कहा, “चलो बाबू, गंगा मैया की सैर करा देते हैं।” डेविड ने बिना देर किए नाव पर कदम रखा और लकड़ी की बनी उस छोटी-सी नाव के डोलते हुए संतुलन ने उसे रोमांचित कर दिया। जैसे ही नाव पानी पर सरकी, गंगा की लहरों की ठंडी छुअन ने उसे भीतर तक ताज़गी से भर दिया। नाव धीरे-धीरे किनारे से दूर होती गई और डेविड की आंखों के सामने घाटों की लंबी कतारें खुलने लगीं—कहीं साधु स्नान कर रहे थे, कहीं बच्चे पानी में छलांग लगाकर खेल रहे थे, और कहीं श्रद्धालु सूर्य को अर्घ्य दे रहे थे।

शंकर अपनी नाव चलाते हुए बीच-बीच में वाराणसी की कहानियाँ सुनाने लगा। उसने बताया कि कैसे हर घाट का अपना महत्व है—कहाँ किसी राजा ने मंदिर बनवाया, कहाँ किसी संत ने तपस्या की, और कहाँ किसी भक्त ने जीवनभर की साधना का फल पाया। डेविड मंत्रमुग्ध होकर उसकी बातें सुनता और घाटों के बदलते दृश्य को आँखों में भरता जाता। एक ओर मणिकर्णिका घाट पर चिता की अग्नि जल रही थी, जहाँ मृत्यु और जीवन एक साथ विद्यमान थे, तो दूसरी ओर दशाश्वमेध घाट पर रंग-बिरंगे कपड़े पहने श्रद्धालु गाते और मंत्रोच्चार करते हुए पूजा में लीन थे। यह विरोधाभास उसे चौंकाता था—कैसे एक ही शहर में मृत्यु और उत्सव, शोक और आनंद, एक साथ बह रहे हैं। डेविड ने अपने कैमरे से इन दृश्यों को कैद करना चाहा, लेकिन जल्द ही उसने महसूस किया कि लेंस से ज्यादा यह क्षण उसकी आत्मा में दर्ज होना चाहिए। जब शंकर ने बताया कि गंगा की धारा को अनंत और पवित्र माना जाता है, तो डेविड ने हाथ बढ़ाकर जल को छुआ और भीतर से गहराई तक एक अजीब शांति महसूस की।

संध्या धीरे-धीरे ढल रही थी और आकाश में लालिमा फैल रही थी। उसी समय घाटों पर दीप जलाने की तैयारी शुरू हो गई। छोटे-छोटे दीये गंगा में प्रवाहित किए जाने लगे, जिनकी लौ लहरों पर झिलमिलाती हुई तारों जैसी चमक रही थी। डेविड स्तब्ध होकर यह दृश्य देख रहा था—हजारों दीप एक साथ बहते हुए मानो आकाश को धरती पर उतार लाए हों। मंत्रोच्चार की गूंज, घंटियों की आवाज़ और ढोल-नगाड़ों की थाप मिलकर वातावरण को दिव्यता से भर रही थी। उसकी आँखें अनायास ही नम हो गईं; यह केवल दृश्य नहीं था, बल्कि आत्मा को छू लेने वाला अनुभव था। नाव पर बैठा वह विदेशी पर्यटक अब किसी अजनबी जैसा महसूस नहीं कर रहा था—मानो गंगा की धारा ने उसे भी अपनी गोद में समा लिया हो। शंकर ने मुस्कुराकर कहा, “देखा बाबू, गंगा सबको अपना लेती हैं।” और उस क्षण डेविड ने महसूस किया कि उसने जीवन का सबसे अनमोल अनुभव पा लिया है—एक ऐसा क्षण जो केवल वाराणसी में ही मिल सकता है, जहाँ जल, आस्था और आत्मा एकाकार हो जाते हैं।

गंगा की सैर के बाद जब डेविड नाव से उतरकर किनारे आया, तो उसकी नज़र एक नन्हीं बच्ची पर पड़ी। वह पतली-सी, सांवली रंगत वाली, चोटी में लाल रिबन बाँधे, पुराने मगर साफ कपड़े पहने हुई थी। उसके हाथ में एक छोटी-सी लकड़ी की गुड़िया थी, जिसे वह अपने दोस्तों के साथ खेलते हुए इधर-उधर दौड़ा रही थी। वह थी गुड़िया, नाविक शंकर की बेटी। जैसे ही उसने डेविड को देखा, उसकी आँखों में कौतूहल की चमक आ गई। उसने ठिठककर अपनी सहेलियों से कहा, “देखो, गोरा बाबू!” और फिर शरारती मुस्कान के साथ धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ी। डेविड उसके इस मासूम साहस को देखकर मुस्कुरा दिया। गुड़िया ने बिना झिझके पूछा, “आप कहाँ से आए हैं? इंग्लिश बोलते हैं?” उसकी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी और चंचल आवाज़ सुनकर डेविड ठहाका मारकर हँस पड़ा। वह झुककर बोला, “हाँ, इंग्लिश बोलता हूँ, लेकिन तुम्हारी हिंदी अभी सीख रहा हूँ।” यह सुनकर गुड़िया खिलखिलाकर हँस पड़ी, उसकी हँसी घाट की गूँज में घंटियों की तरह झिलमिला उठी। उसी क्षण डेविड को लगा कि यह बच्ची उसकी यात्रा की सबसे सच्ची और मासूम साथी बनने वाली है।

गुड़िया का स्वभाव बेहद निश्छल था। वह डेविड का हाथ पकड़कर उसे घाट की सीढ़ियों पर इधर-उधर घुमाने लगी। कभी वह उसे बताती कि कहाँ सबसे अच्छी माला मिलती है, कभी यह कि किस मंदिर में सबसे मीठा प्रसाद मिलता है। चलते-चलते उसने अचानक पूछा, “आपके घर पर भी गंगा है?” डेविड ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, वहाँ सिर्फ एक नदी है, लेकिन गंगा जैसी नहीं।” गुड़िया ने भोलेपन से कहा, “फिर तो आपका देश अधूरा है।” यह सुनकर डेविड मुस्कुराया और उसके मन में एक मीठा दर्द-सा उठा—इतनी छोटी बच्ची ने अपनी मासूम बातों से गंगा के महत्व का अहसास उसे और गहराई से करा दिया। रास्ते में गुड़िया ने उसे अपने छोटे दोस्तों से भी मिलवाया, जिनके चेहरे गरीबी और साधारण जीवन की छाप से भरे थे, मगर उनकी आँखों में चमक और होंठों पर हँसी कभी नहीं थमती थी। वे सब डेविड को घेरकर उससे सवाल करने लगे—“तुम्हारे देश में बर्फ गिरती है?”, “तुम्हारे घर कितने बड़े हैं?”, “तुम्हारे पास मोटर वाली नाव है?” डेविड हर सवाल का उत्तर धैर्य और मुस्कुराहट के साथ देता रहा। उसने पाया कि इन बच्चों की जिज्ञासा में कोई स्वार्थ नहीं, केवल जीवन को समझने और जानने की चाह है।

गुड़िया और उसके दोस्तों के साथ खेलते हुए डेविड का मन एकदम हल्का हो गया। वह जमीन पर बैठकर उनके संग पाटियों पर कंचे खेलने लगा, छोटे-छोटे गीत सुनने लगा, और बच्चों की खिलखिलाहट में खुद को डुबो दिया। उस पल उसने महसूस किया कि सच्ची दोस्ती और अपनापन उम्र, भाषा या देश की सीमा नहीं मानते। जब सूरज ढलने लगा और गंगा पर फिर से दीपक तैरने लगे, गुड़िया ने डेविड से कहा, “कल फिर आना, मैं तुम्हें हमारी गली की सबसे अच्छी मिठाई खिलाऊँगी।” डेविड ने वादा किया कि वह जरूर आएगा। उसके मन में यह अनुभव एक गहरी छाप छोड़ गया—वाराणसी ने उसे साधुओं और आरती की भव्यता तो दिखाई ही थी, लेकिन गुड़िया जैसी नन्हीं बच्ची की मुस्कान ने उसे जीवन का सबसे अनमोल उपहार दिया: निष्कपट दोस्ती। जब वह लौटने लगा, तो उसकी आँखों में संतोष की चमक थी और मन में एक अजीब-सी शांति। उसने सोचा, “वाराणसी की आत्मा केवल घाटों और मंदिरों में नहीं, बल्कि इन मासूम चेहरों की मुस्कान में भी बसी है।”

गुड़िया और उसके दोस्तों से विदा लेकर जब डेविड अकेले घाट की ओर बढ़ा, तो उसके भीतर एक अनजानी बेचैनी उठ रही थी। शाम धीरे-धीरे गहराती जा रही थी और आसमान में धुएँ और लालिमा का मिश्रण किसी अज्ञात रहस्य की ओर इशारा कर रहा था। उसके कदम अनायास ही मणिकर्णिका घाट की ओर बढ़ गए—वह घाट जहाँ सदियों से चिताएँ जलती आई हैं और जहाँ जीवन और मृत्यु एक साथ बहते प्रतीत होते हैं। जैसे ही वह वहाँ पहुँचा, उसके सामने का दृश्य असहज कर देने वाला था। लकड़ी की लंबी कतारें, अग्नि की लपटें, धुएँ का गुबार और चिता के चारों ओर मंत्रोच्चार करते लोग। मृत्यु की गंध हवा में घुली हुई थी, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि वहाँ शोक का वातावरण नहीं था, बल्कि एक विचित्र-सी स्वीकृति और शांति पसरी हुई थी। लोग सामान्य भाव से जलती चिताओं के बीच घूम रहे थे, मानो यह दृश्य उनके लिए जीवन का स्वाभाविक हिस्सा हो। डेविड इस सबको देखकर अंदर तक हिल गया। वह अपने देश की संस्कृति में मृत्यु को हमेशा दुःख और भय के साथ जोड़कर देखता आया था, लेकिन यहाँ मृत्यु को किसी अंत की तरह नहीं, बल्कि एक स्वीकृत सत्य की तरह स्वीकार किया जा रहा था।

इसी गहन विचारों में डूबे डेविड की नज़र अचानक एक साधु पर पड़ी। लंबी जटाएँ, माथे पर चंदन और भस्म का लेप, गेरुए वस्त्र और आँखों में रहस्यमयी चमक—वह थे गंगानाथ, जो चुपचाप एक चिता के पास बैठकर मंत्र जप रहे थे। उनकी उपस्थिति में एक अजीब-सी ताकत और शांति थी, जिसने डेविड को उनकी ओर खींच लिया। वह धीरे-धीरे पास पहुँचा और झिझकते हुए बैठ गया। साधु ने बिना उसकी ओर देखे धीमी आवाज़ में कहा, “विदेशी यात्री, डर मत। यह स्थान भय का नहीं, सत्य का है।” डेविड चौंक गया कि उन्होंने बिना किसी परिचय के उसकी पहचान और भावनाओं को कैसे भांप लिया। वह धीरे से बोला, “मैं समझ नहीं पा रहा… ये लोग मृत्यु के बीच इतने शांत कैसे हैं?” गंगानाथ ने उसकी ओर गहरी दृष्टि से देखा और कहा, “क्योंकि यहाँ मृत्यु अंत नहीं है। यह तो केवल एक रूप से दूसरे रूप में जाने की प्रक्रिया है। जैसे गंगा का जल बहते हुए बदलता रहता है, वैसे ही आत्मा भी बदलती है। यहाँ हर दिन चिता जलती है, लेकिन हर दिन जीवन भी नया जन्म लेता है। यही वाराणसी का रहस्य है—यहाँ अंत भी है और आरंभ भी।” डेविड उनकी बात सुनकर लंबे समय तक मौन बैठा रहा, मानो किसी ने उसके भीतर के अंधकार में दीपक जला दिया हो।

गंगानाथ ने आगे कहा, “पश्चिम में मृत्यु को अंधकार मानते हैं, लेकिन यहाँ हम उसे प्रकाश की ओर जाने का द्वार मानते हैं। जब तक तुम मृत्यु से डरोगे, जीवन को पूरा नहीं जी पाओगे। लेकिन जब तुम मृत्यु को स्वीकार कर लोगे, तभी जीवन का असली आनंद जान पाओगे।” डेविड की आँखों में आँसू आ गए। उसके भीतर जैसे कोई गांठ खुल रही थी। उसने महसूस किया कि अब तक वह जीवन को केवल अपने अनुभवों और इच्छाओं के आधार पर देखता आया था, लेकिन यहाँ आकर उसने समझा कि जीवन और मृत्यु दो अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही धारा के दो तट हैं। साधु ने अपने कमंडल से जल उठाकर गंगा में अर्पित किया और धीमे स्वर में कहा, “देखो, यह जल बह गया। यह लौटकर यहाँ नहीं आएगा, लेकिन इसका अस्तित्व गंगा में हमेशा रहेगा। आत्मा भी ऐसी ही है।” डेविड ने उस क्षण खुद को पूरी तरह से निस्तब्ध पाया। मृत्यु का भय, जिसे वह भीतर लिए घूम रहा था, मानो धीरे-धीरे गंगानाथ की वाणी और मणिकर्णिका घाट की अग्नि में पिघलकर बह गया हो। जब वह साधु से विदा लेने लगा, तो गंगानाथ ने मुस्कुराते हुए कहा, “जाओ यात्री, अब तुम केवल वाराणसी घूमने नहीं आए हो। अब तुम जीवन और मृत्यु के रहस्य को देखने निकले हो।” डेविड ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और घाट की सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए महसूस किया कि आज की रात उसने अपने जीवन का सबसे गहरा पाठ सीखा है।

सूर्य की लालिमा धीरे-धीरे क्षितिज के पीछे विलीन हो रही थी और वाराणसी के घाटों पर भीड़ उमड़ने लगी थी। चारों ओर चहल-पहल थी—कोई पूजा की थाली लेकर दौड़ रहा था, कोई छोटे-छोटे दीयों को तेल से भर रहा था, और कोई अपने परिवार को नाव पर बैठाकर सही स्थान दिलाने की कोशिश कर रहा था। गंगा का किनारा उस समय किसी विशाल मेले में बदल गया था। डेविड भी भीड़ के साथ दशाश्वमेध घाट की ओर बढ़ा, जहाँ शाम की गंगा आरती की तैयारी हो रही थी। उसके चारों ओर लोग मंत्रों का उच्चारण करते हुए बैठ गए, कोई अपने मोबाइल से वीडियो बनाने लगा, और कोई बस श्रद्धा से आँखें मूँदकर दीपक की लौ की प्रतीक्षा करने लगा। मंच पर पंडित हरिनारायण सफेद वस्त्र और केसरिया दुपट्टा ओढ़े गंभीरता से खड़े थे। उनके चारों ओर अन्य पुजारी भी कतार में खड़े होकर घंटे और शंख तैयार कर रहे थे। वातावरण में एक अजीब-सी ऊर्जा थी—जैसे पूरी सृष्टि उस क्षण में अपनी धड़कन रोककर किसी दिव्य संकेत की प्रतीक्षा कर रही हो।

अचानक शंखनाद गूंजा, जिसकी आवाज़ घाटों से टकराकर आकाश तक फैल गई। डेविड ने अपनी साँसें थाम लीं। पंडित हरिनारायण और अन्य पुजारियों ने बड़े-बड़े दीपदान उठाकर आरती की शुरुआत की। लहराते हुए दीपों की आग की लपटें गंगा की लहरों पर झिलमिला उठीं, मानो हजारों छोटे सूर्य एक साथ जलने लगे हों। घंटे, ढोल, और मंत्रोच्चार की गूंज ने वातावरण को पूरी तरह से दिव्य बना दिया। डेविड की आँखों में वह दृश्य कैद हो गया—पुजारी जब चारों दिशाओं में दीपक घुमाते, तो ऐसा लगता जैसे आकाश, पृथ्वी, जल और अग्नि सबको एक साथ आशीर्वाद दिया जा रहा हो। गंगा की लहरों में तैरते छोटे-छोटे दीये तारों की तरह चमक रहे थे, और उनके प्रतिबिंब ने पानी को मानो सुनहरी चादर में ढक दिया हो। भीड़ में बैठे हर व्यक्ति की आँखों में श्रद्धा थी—कोई आँसू बहा रहा था, कोई हाथ जोड़कर मंत्रों के साथ गा रहा था, तो कोई निःशब्द होकर बस उस अनूठे क्षण को अपने भीतर समेट रहा था। डेविड को लगा कि वह अब केवल दर्शक नहीं है, बल्कि इस अनुष्ठान का हिस्सा बन चुका है।

धीरे-धीरे आरती अपने चरम पर पहुँची। हजारों दीपकों की लौ, मंत्रों की गूंज और गंगा की अविरल धारा—इन सबका संगम डेविड के भीतर गहरी शांति जगाने लगा। उसके मन में अब तक उठते सवाल, बेचैनियाँ और जिज्ञासाएँ सब शांत हो गईं। उसे पहली बार लगा कि वह किसी ऐसी शक्ति से जुड़ गया है जो अदृश्य होते हुए भी हर जगह विद्यमान है। उसकी आँखें अनायास बंद हो गईं और उसने महसूस किया कि उसका हृदय गंगा की धड़कन के साथ धड़क रहा है। जब उसने आँखें खोलीं, तो आकाश में दीपों की रोशनी और नीचे गंगा की झिलमिलाहट उसे एक ही ऊर्जा से भरपूर प्रतीत हुई। पंडित हरिनारायण ने जब अंत में दीपक को गंगा में प्रवाहित किया, तो डेविड ने भी एक छोटा-सा दीया जलाकर बहाया। वह दीया धीरे-धीरे लहरों में तैरता हुआ दूर चला गया, और डेविड के भीतर यह विश्वास जग गया कि वह दीया केवल गंगा में नहीं, बल्कि उसके हृदय की गहराइयों में भी रोशनी बनकर जल रहा है। उस क्षण उसने महसूस किया कि वह अब सिर्फ एक यात्री नहीं, बल्कि वाराणसी की आत्मा से गहरे जुड़ चुका है।

सुबह की हल्की धूप जब वाराणसी की तंग गलियों में छनकर उतर रही थी, तब डेविड अकेला ही बिना किसी योजना के घूमने निकल पड़ा। गलियों की मिट्टी से आती गंध, चाय की भाप, अगरबत्ती की खुशबू और दूर से सुनाई देती भजन की धुन—सब मिलकर एक ऐसा संगीत रच रहे थे, जिसमें हर राहगीर अपनी ताल खोज लेता था। डेविड को पहली बार महसूस हुआ कि इन गलियों में केवल लोग नहीं चलते, बल्कि एक संस्कृति साँस लेती है। उसने देखा कि एक छोटा-सा फेरीवाला अपनी ठेले पर ताज़े फल सजाकर हर ग्राहक को मुस्कान के साथ पुकार रहा था; उसकी आवाज़ में न कोई मजबूरी थी, न कोई थकान, बल्कि जैसे जीवन के प्रति अटूट विश्वास झलक रहा था। पास ही एक संकरी गली के मोड़ पर दो बुजुर्ग महिलाएँ बैठकर तुलसी के पत्ते चुन रही थीं, और साथ ही कृष्ण भजन गुनगुना रही थीं। उनकी झुर्रियों में थकान थी, पर उन आँखों में ऐसी शांति थी, जिसे देखकर डेविड को लगा कि शायद जीवन का असली सुख इसी सहज स्वीकृति में छुपा है।

जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता गया, वाराणसी की आत्मा उसके सामने अपने नए-नए रूप खोलती गई। एक पुराने मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे कुछ युवा संगीतकार तबला और बांसुरी बजा रहे थे। राह चलते लोग थोड़ी देर रुककर उनकी धुनों में खो जाते और फिर अपनी राह पकड़ लेते। यह कोई औपचारिक मंच नहीं था, न कोई टिकट की व्यवस्था, लेकिन फिर भी उस संगीत में ऐसी गहराई थी कि लगता था मानो गंगा की लहरें भी उसी ताल पर थिरक रही हों। डेविड वहीं बैठ गया और देर तक उनकी धुनें सुनता रहा। उसके पास बैठा एक बच्चा ताल पर ताली बजाकर साथ दे रहा था, और उसकी मासूम हँसी से वातावरण और भी जीवंत हो उठा। डेविड ने महसूस किया कि यहाँ कला भी जीवन की तरह सहज बहती है—न मंच की ज़रूरत, न किसी प्रसिद्धि की, बस आत्मा से उठी एक धुन जो सबको जोड़ देती है। आगे बढ़ते हुए उसने देखा कि एक परिवार घर के आँगन में तुलसी को जल चढ़ा रहा था। बुजुर्ग पिता मंत्र पढ़ रहे थे, और बच्चे प्रसाद बाँटने के उत्साह में हँस रहे थे। उस दृश्य ने डेविड को भीतर तक छू लिया—यहाँ धार्मिकता केवल मंदिर की दीवारों तक सीमित नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की छोटी-छोटी आदतों में बसी हुई है।

उस शाम जब डेविड घाट की ओर लौटा, तो उसे लगा कि अब वह वाराणसी को केवल एक पर्यटक की नज़र से नहीं देख रहा, बल्कि वह उसकी आत्मा को छूने लगा है। यहाँ का हर फेरीवाला, हर बुजुर्ग महिला, हर गली में बजता भजन और हर दीया उसे यह सिखा रहा था कि खुशी किसी बड़ी उपलब्धि में नहीं, बल्कि छोटे-छोटे पलों की कद्र करने में है। उसने मन ही मन सोचा—”वाराणसी केवल एक शहर नहीं है। यह एक अनुभव है, एक दर्पण है, जिसमें आत्मा अपना असली चेहरा देख सकती है।” गंगा की ओर देखते हुए उसे लगा मानो यह नदी उसके भीतर की सारी अशांतियों को बहाकर ले गई हो। वाराणसी की गलियों ने उसे दिखा दिया था कि भक्ति केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि हँसी में, काम में, और हर साधारण पल में छुपी हुई है। उसने महसूस किया कि अब तक वह केवल बाहर की यात्रा कर रहा था, लेकिन आज से उसकी असली यात्रा शुरू हुई है—एक ऐसी यात्रा जो भीतर की ओर ले जाती है, जहाँ आत्मा वाराणसी की तरह ही शाश्वत और उज्ज्वल है।

डेविड ने इस दिन अपने कैमरे को बैग में रख दिया। अब तक वह हर दृश्य, हर चेहरा और हर पल को कैमरे की आँखों से कैद करता आया था, लेकिन अब उसे लगा कि असली तस्वीरें लेंस से नहीं, बल्कि दिल की गहराइयों से खींची जाती हैं। सुबह के समय वह फिर से गंगा किनारे पहुँचा, जहाँ हल्की धुंध और ठंडी हवा के बीच साधु-संत अपने मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। उनके स्वर गंगा की लहरों के साथ मिलकर एक अलग ही लय बना रहे थे। डेविड को साधु गंगानाथ की कही हुई बात याद आई—“यहाँ अंत भी है और आरंभ भी।” उसने आँखें मूँदकर उस ध्वनि को आत्मसात करने की कोशिश की और पाया कि उसके भीतर एक अजीब-सी शांति उतर रही है। अब उसे तस्वीरें नहीं खींचनी थीं, बल्कि उन पलों को जीना था, महसूस करना था। हर चेहरा, हर आवाज़, हर सुगंध—सब उसकी स्मृतियों में ऐसे अंकित हो रहे थे जैसे आत्मा पर उकेरी जा रही कोई अमिट छाप हो।

दिनभर वह बिना किसी दिशा के गलियों में घूमता रहा। रास्ते में बच्चों की हंसी, किसी दुकान से आती शंखध्वनि, और मंदिर की घंटियों की गूंज ने उसके भीतर की खामोशी को तोड़ दिया। उसने देखा कि लोग यहाँ किसी भव्य मंच पर नहीं, बल्कि जीवन की छोटी-छोटी बातों में खुशी खोजते हैं। कहीं कोई वृद्धा तुलसी के पौधे में जल चढ़ाकर संतोष पा रही थी, तो कहीं कोई युवक अपने छोटे ढाबे पर ग्राहकों को परोसते हुए हँसी बाँट रहा था। डेविड ने सोचा कि शायद यही जीवन का सबसे बड़ा रहस्य है—जटिलताओं से भरे इस संसार में सरलता ही सबसे गहरी ताकत है। साधु गंगानाथ की बात फिर से उसके मन में गूँज उठी: “जीवन और मृत्यु, सुख और दुःख—सब एक ही प्रवाह का हिस्सा हैं, जैसे गंगा की लहरें।” डेविड को पहली बार लगा कि वह अब इन शब्दों को केवल समझ नहीं रहा, बल्कि जी रहा है। उसने महसूस किया कि उसकी भीतर की बेचैनियाँ धीरे-धीरे पिघल रही हैं और उनकी जगह एक गहरी स्वीकृति जन्म ले रही है।

शाम को वह घाट पर बैठ गया, जहाँ सूरज ढलते ही आकाश नारंगी और सुनहरी रंगों में रंग गया था। उसके सामने गंगा अपने अनंत प्रवाह के साथ बह रही थी—न थमती, न रुकती, बस निरंतर आगे बढ़ती हुई। डेविड ने सोचा कि यही जीवन का सत्य है: रुकना नहीं, हर स्थिति को स्वीकारते हुए आगे बढ़ना। उसे अब महसूस हुआ कि यात्रा केवल बाहर की जगहों को देखने का साधन नहीं होती, बल्कि यह भीतर की यात्रा होती है—आत्मा के उन हिस्सों तक पहुँचने का मार्ग, जिनसे हम अक्सर दूर हो जाते हैं। वाराणसी ने उसे यही सिखाया था कि साधारण में भी असाधारण छिपा होता है। उसने गहरी साँस लेकर आँखें बंद कीं और महसूस किया कि गंगा का प्रवाह अब केवल नदी का नहीं, बल्कि उसके अपने जीवन का हिस्सा है। उस क्षण उसने खुद से वादा किया कि अब आगे की यात्रा चाहे जहाँ भी ले जाए, वह हर जगह इस भीतर की शांति को संजोकर रखेगा। उसकी आत्मा अब हल्की थी, जैसे गंगा की लहरों पर तैरता एक दीपक—न डर, न बोझ, बस उजाला और प्रवाह।

१०

वाराणसी की अंतिम सुबह डेविड के लिए किसी और सुबह जैसी नहीं थी। स्टेशन के लिए रवाना होने से पहले वह आखिरी बार गंगा किनारे पहुँचा। धुंध हल्की थी, और नदी पर तैरते दीपक अभी भी झिलमिला रहे थे, मानो रात की प्रार्थना अब भी बह रही हो। साधु-संत अपने आसनों पर बैठे मंत्रोच्चार कर रहे थे, और स्नान करते श्रद्धालुओं के चेहरे पर आस्था की चमक थी। डेविड ने लंबे समय तक उस दृश्य को देखा, बिना कैमरे के, बिना किसी फ़िल्टर के, केवल अपनी आत्मा से। उसे लगा कि यह शहर केवल आँखों से देखने के लिए नहीं, बल्कि भीतर महसूस करने के लिए बना है। साधु गंगानाथ की बातें उसके भीतर गूंज रही थीं—“जीवन और मृत्यु का संगम यहीं है।” उसे महसूस हुआ कि वाराणसी ने उसे जीवन का सबसे बड़ा पाठ सिखाया है: कुछ भी स्थायी नहीं है, पर हर क्षण अनमोल है। उस क्षण वह खुद से कह रहा था कि अब उसकी यात्रा केवल किसी देश के नक्शे तक सीमित नहीं रही, बल्कि आत्मा के नक्शे पर नए रंग भर चुकी है।

दिनभर उसने शहर की उन्हीं गलियों में भटकना चुना, जिनसे अब तक अनगिनत कहानियाँ उसने अपने भीतर समेट ली थीं। रामु कचौड़ीवाले के चुटकुले, गुड़िया की निश्छल हंसी, नाविक शंकर का स्नेह, और बुजुर्ग महिलाओं की भक्ति—सब उसके मन में ऐसे अंकित हो गए थे जैसे जीवनभर की यादें। उसे अब यह स्पष्ट दिखने लगा था कि वाराणसी केवल ईंट-पत्थरों का शहर नहीं, बल्कि एक जीवित आत्मा है, जो हर आने वाले को बदलकर लौटाती है। उसने सोचा कि जब वह अपने देश लौटेगा, तो लोग उससे भारत के बारे में पूछेंगे—वह शायद ताजमहल, किले या महलों की तस्वीरें देखने की उम्मीद करेंगे। लेकिन डेविड जानता था कि उसका जवाब अलग होगा। वह कहेगा कि भारत का दिल वाराणसी की गलियों में धड़कता है, जहाँ आस्था और सरलता साथ-साथ चलती हैं। यही वह जगह है जहाँ मृत्यु भी भयावह नहीं लगती, बल्कि जीवन का ही विस्तार बन जाती है। उसे पहली बार लगा कि दुनिया का असली धरोहर कोई स्मारक नहीं, बल्कि इंसान की मुस्कान और आत्मा की स्वीकृति है।

शाम ढलने से पहले डेविड ने आखिरी बार घाट की सीढ़ियों पर बैठकर गंगा को निहारा। सूरज धीरे-धीरे नदी की सतह पर सुनहरी परत बिछा रहा था। उस दृश्य में एक विदाई थी, पर साथ ही एक नई शुरुआत भी। डेविड ने महसूस किया कि वाराणसी से उसका रिश्ता अब केवल यात्रा का नहीं रहा—यह उसकी आत्मा का हिस्सा बन चुका है। उसे गहरी समझ मिली कि ज़िंदगी की सबसे बड़ी सीख किसी किताब में नहीं, बल्कि लोगों की आँखों और उनकी सादगी में छिपी होती है। उसने मन ही मन गंगा से वादा किया कि वह इस शांति और अपनापन को अपनी जिंदगी में हमेशा ज़िंदा रखेगा। ट्रेन की ओर लौटते हुए उसे कोई उदासी नहीं थी, क्योंकि वह जानता था कि यह शहर कभी छूटता नहीं—एक बार जो इसे जी लेता है, उसके भीतर यह हमेशा जीवित रहता है। वाराणसी ने उसकी यात्रा को एक पर्यटक की यात्रा से बदलकर आत्मा की खोज बना दिया था, और यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

समाप्त

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