निशा अरोरा
एक
दिल्ली के उस सुबह की धूप बेहद सामान्य थी—उजली, लेकिन भावना से शून्य। अद्वैता शर्मा की खिड़की से छनकर आती रोशनी जैसे उसका चेहरा नहीं, उसकी पुरानी आदतों पर गिर रही थी। साढ़े सात बजे का अलार्म बंद कर वह वैसा ही उठी जैसे हर दिन, मैकेनिक की तरह। कॉफी मशीन चालू, बाथरूम की टाइल्स पर नंगे पाँव चलना, और टेबल पर बिखरे केस फाइल्स को एक नज़र देखना—जैसे उसने ज़िंदगी को स्वचालित मोड पर डाल रखा हो। लेकिन आज कुछ अलग था। उसकी आँखें एक जगह पर अटक गईं थीं—बुकशेल्फ़ के ऊपरी कोने पर रखी वो पुरानी लाल डायरी, जिसपर एक गुलाबी रिबन बंधा हुआ था। वो रिबन रागिनी ने अपने बालों से निकाला था उस दिन जब… अद्वैता ने झटके से अपना सिर मोड़ लिया, मानो स्मृति को पीछे धकेलना चाहती हो। लेकिन आज स्मृतियाँ मानने को तैयार नहीं थीं। अचानक, वो डायरी उसकी ओर खिंचती चली आई—या शायद अद्वैता खुद खिंच गई। उसने धीरे से उसे उठाया, और जैसे ही रिबन खोला, पुराने पन्नों की हल्की सी खुशबू उसकी आँखों में नमी ला गई। पन्नों पर रागिनी की लिखावट थी, गोल-गोल, थोड़ी बेतरतीब लेकिन जीवंत—एकदम उसकी तरह। पहला ही वाक्य चुभ गया—“हेमकुंड जाना है, अकेले नहीं… अद्वैता के साथ।” अद्वैता का गला सूख गया। दो साल हो गए थे रागिनी को गए, लेकिन ये एक वाक्य जैसे समय को उसी मोड़ पर ले आया जहाँ सब कुछ थम गया था।
वो डायरी पूरी तरह यात्रा की योजना नहीं थी, बल्कि एक इच्छा-पत्र थी, एक सपने की कच्ची रूपरेखा। रागिनी ने लिखा था कि कैसे वह फूलों की घाटी देखना चाहती थी, हेमकुंड साहिब में माथा टेकना चाहती थी, और वहाँ की झील के किनारे बैठकर अद्वैता से जीवन की सबसे लंबी चुप्पी बाँटना चाहती थी—बिना कुछ बोले, बस साथ रहकर। पर रागिनी की मौत अचानक हुई थी—एक रोड एक्सिडेंट, ठीक उसी हफ्ते जब उसने ट्रेक का सामान खरीदा था। अद्वैता ने उस दिन से न केवल रागिनी को, बल्कि खुद को भी एक बंद कमरे में बंद कर दिया था—जहाँ खिड़कियाँ खुलती थीं, लेकिन हवा नहीं आती थी। आज, दो साल बाद, उस कमरे की दीवारें दरकने लगी थीं। उसने डायरी को फिर से बंद किया, रिबन को गूंथा और कॉफी का अधूरा मग उठा कर खिड़की के पास खड़ी हो गई। बाहर सड़क पर वही भीड़ थी—ऑटो वाले, बसों की चीखती आवाज़ें, और कार के हॉर्न। लेकिन अंदर, उसके भीतर, पहली बार एक गूंज सुनाई दी—रागिनी की हँसी, और एक पहाड़ की चुप्पी। उसी क्षण, जैसे भीतर कोई निर्णय हो गया। अद्वैता ने बुकिंग ऐप खोला, सबसे पहला टिकट देखा—दिल्ली से ऋषिकेश। उसने सोचा नहीं, बस टिकट बुक किया। बगल में रखी लॉ फर्म की मीटिंग डायरी को उसने बंद कर दिया—आज की तारीख पर लिखा था: “स्टेट बनाम मल्होत्रा केस की तैयारी”। उसने उसमें नया वाक्य जोड़ा—“रागिनी बनाम अधूरी यात्रा।”
वह दिन शायद उसका सबसे शांत दिन था—बिना किसी तर्क, कोर्ट केस या ईमेल के। बस एक बैग पैक, जिसमें उसने पहली बार ऑफिस की कोई फाइल नहीं रखी। केवल रागिनी की डायरी, दो स्वेटर, एक कैमरा, और एक नक्शा जिसमें हेमकुंड तक का ट्रेक लाल पेन से चिन्हित था। अद्वैता ने किसी को बताया नहीं—न माँ को, न ऑफिस को, न किसी दोस्त को। यह यात्रा किसी जवाबदेही या हिसाब का हिस्सा नहीं थी, यह एक अधूरे रिश्ते की पूर्णता थी। स्टेशन पहुँचकर जब उसने पहली बार ट्रेन की सीट पर बैठते हुए आँखें बंद कीं, तो ऐसा लगा जैसे कोई धीमे से कान में कह रहा हो, “चल न दीदी, देर हो रही है।” ट्रेन की खिड़की से बाहर देखते हुए, जब दिल्ली के मेटल और धुएँ का रंग मिटता गया, और पहाड़ियों की धुंध आती गई, तो उसके भीतर भी कुछ बदल रहा था। वहाँ कोई गाइड नहीं था, कोई ट्रेवल प्लान नहीं, न बुक की हुई होटल—सिर्फ एक डायरी थी जो कह रही थी: “हेमकुंड चलो, क्योंकि वहाँ पहुँचकर शायद तुम मुझे नहीं, खुद को पा सकोगी।”
दो
रेल की खिड़की से बाहर झाँकते हुए अद्वैता को पहली बार महसूस हुआ कि नींद भी तब आती है जब मन हल्का होता है। पिछले दो वर्षों से नींद उसके लिए एक विलासिता थी—कुछ ऐसा जो अक्सर कोर्ट की बहसों, देर रात के क्लाइंट कॉल्स और अनकहे अपराधबोध में गुम हो जाता था। लेकिन आज, जैसे ही हरिद्वार के बाद गंगा की पहली झलक मिली, उसकी पलकों में कुछ नर्मपन भर आया। ट्रेन ऋषिकेश स्टेशन पर जैसे ही रुकी, हल्की सी बूँदाबाँदी शुरू हो चुकी थी। उसने छोटा सा रक्सैक उठाया और प्लेटफार्म पर कदम रखा। पहली साँस में ही उसे लगा जैसे फेफड़ों ने धुआँ छोड़कर हवा को पहचान लिया हो। स्टेशन से बाहर निकलते ही एक सन्नाटा मिला—वो शहरी शोरगुल नहीं था, बल्कि एक धीमा प्रवाह, जैसे समय यहाँ थोड़ा धीमा चलता हो। अद्वैता ने कोई होटल नहीं बुक किया था, लेकिन रिक्शे वाले ने जब पूछा, “स्वर्गाश्रम?” तो उसने सिर हिला दिया, जैसे वही सही जगह थी। गंगा किनारे बने छोटे से लॉज में कमरा मिल गया—सादा, नीला रंग पुता हुआ, और खिड़की से दिखती थी गंगा की गहराई। बारिश अब तेज हो चुकी थी, और अद्वैता खिड़की से भीगती घाट की सीढ़ियों को देखती रही—हर बूंद में एक स्मृति सी अटकी थी।
शाम होते-होते वह गंगा आरती देखने त्रिवेणी घाट पहुँच गई। वहाँ की भीड़ शांत नहीं थी, पर अस्तित्व में गूँजती हुई थी। आरती की घंटियों, मंत्रों और आग की लहराती लौ के बीच उसने पहली बार अपनी बाहों में गर्मी महसूस की, जो किसी पूजा की नहीं, बल्कि एक आत्मा के स्वीकार की थी। जैसे रागिनी की कोई स्मृति पास बैठी हो और कह रही हो—“अब तुम समझ रही हो।” वहीं, घाट की सीढ़ियों पर बैठा एक आदमी उसके कैमरे पर नजर टिकाए हुए था। वह साधारण कपड़ों में, गढ़वाली हुलिये का, पर आँखों में कुछ तीखा और पुराना लिए था। अद्वैता ने ज़रा हिचकते हुए उससे पूछा, “आप…?” उस आदमी ने मुस्कराकर जवाब दिया, “आपका कैमरा पुराने मॉडल का है, लेकिन नज़रिया नया लगता है।” वह चौंकी—कोई सालों बाद उसके कैमरे पर बात कर रहा था। नाम बताया—”कुशाल ठाकुर, लोकल ट्रेक गाइड, घांघरिया तक हर मौसम में गया हूँ।” अद्वैता ने न कहा कि वो कहाँ जा रही है, न उसने पूछा। लेकिन बातचीत में जैसे संकेत बिखरे थे। कुशाल ने कहा, “कल अगर ऊपर जाना हो, तो पहले मानसून की गंध पहचानो। पहाड़ बारिश में बात करता है।” वह कुछ अजीब था, लेकिन ठहराव लिए हुए। अद्वैता ने केवल सिर हिलाया, जैसे कोई पहली बार खुद से सहमत हुआ हो।
रात में जब वह लॉज के कमरे में लौटी, तो उसके रैकसैक में से रागिनी की डायरी फिर से बाहर निकल आई। उसने आज पहली बार उसे बिना डर के पढ़ा। एक पन्ना था, जहाँ रागिनी ने ऋषिकेश का जिक्र किया था—“अगर हेमकुंड जाना है, तो ऋषिकेश में एक रात बिताना ज़रूरी है। ये शहर केवल शिव का नहीं, रुकने और सोचने का भी है।” अद्वैता मुस्कराई—जैसे रागिनी को पहले से सब पता था। खिड़की के बाहर बारिश अब धीमी हो गई थी, लेकिन छत से गिरती बूंदें एक लय में थीं। वह उसी लय में सोई, पहली बार उस विश्वास के साथ कि अगली सुबह की धूप शायद उसके भीतर भी कुछ नया उगाए। वह नहीं जानती थी कि अगला दिन उसे एक ऐसी राह पर ले जाएगा, जहाँ पगडंडियाँ ही नहीं, रिश्तों की परतें भी खुलेंगी—और वहीं कहीं, कुशाल ठाकुर भी अपने ज़ख्मों के साथ उसका अनकहा सहयात्री बन जाएगा।
तीन
सुबह की पहली किरण गंगा के ऊपर झिलमिलाती हुई आई, जैसे किसी ने कमरे की दीवार पर हल्की सी थाप दी हो। अद्वैता की नींद टूटी, लेकिन अलार्म से नहीं—उस आंतरिक शांति से, जो धीरे-धीरे जागने पर खुद को हल्का महसूस कराती है। कमरे की खिड़की अब खुली थी, और ठंडी हवा उसके बालों को छूते हुए जैसे कह रही थी, “अब निकलो।” वह उठी, चेहरे पर एक ऐसा संतुलन था जो दिल्ली की सुबहों में कभी नहीं दिखता था। उसने चाय का छोटा कप पिया और नीचे लॉबी में पहुँची, जहाँ कुशाल पहले से तैयार बैठा था—हाथ में एक लंबी लकड़ी की छड़ी, पीठ पर हल्का ट्रेकिंग बैग और आँखों में वही गंभीर धैर्य जो उसे पहले दिन भी दिखा था। “बस? तैयार?” कुशाल ने पूछा। अद्वैता ने कुछ नहीं कहा—बस सिर हिलाया। गाड़ी घांघरिया जाने वाले बेस पॉइंट, गोविंदघाट, के लिए रवाना हो गई। पहाड़ों की घुमावदार सड़कों पर हर मोड़ एक नया चित्र था—धुंध से ढके देवदार, गड्ढों से उछलती जीप, और हर मोड़ पर छोटा सा मंदिर, जहाँ घंटियों की टुनक कहीं गहरे बैठ जाती।
गोविंदघाट पहुँचते ही हल्की फुहार शुरू हो चुकी थी, लेकिन वहाँ की हवा में एक ऐसी तपस्या थी, जो हर आने-जाने वाले को एक ही पल में छोटा कर देती थी। गुरुद्वारे के सामने रुककर कुशाल ने कहा, “यहाँ से दो रास्ते निकलते हैं—एक शरीर को थकाता है, और दूसरा आत्मा को खोलता है। किस ओर जाना है?” अद्वैता कुछ पल चुप रही, फिर धीमे से कहा, “जिस ओर रागिनी ने सोचा था।” कुशाल ने पहली बार उसकी आँखों में रागिनी का नाम सुनकर हल्की सी मुस्कान दी—जैसे उसे भी इस यात्रा की एक गूढ़ परत समझ में आ गई हो। ट्रेक शुरू हुआ। शुरू के ही कुछ किलोमीटर में अद्वैता को लगा कि उसने गलत निर्णय लिया है—चढ़ाई के पत्थर, सांस की भारीपन, और आसपास की चुप्पी बहुत कुछ माँग रही थी। लेकिन फिर भी, हर कदम जैसे भीतर कुछ खोलता गया। कुशाल न बहुत बोलता था, न चुप रहता था—उसका साथ चुप्पियों में था। रास्ते में मिलने वाले स्थानीय बच्चे, जिनकी हँसी बारिश में भीगकर भी गूंजती थी, अद्वैता को हल्का करती गई। कहीं-कहीं वह रुकती, रागिनी की डायरी का एक पन्ना पलटती, और फिर आगे बढ़ जाती—जैसे हर शब्द, हर पत्थर से जोड़ता हो।
दोपहर तक वे एक मोड़ पर पहुँचे जहाँ सामने घाटी पूरी तरह खुल गई थी—नीचे अलकनंदा की रेखा, सामने बादलों में छिपी चोटियाँ, और ऊपर चढ़ती एक पतली पगडंडी। वहीं अद्वैता रुक गई, और पहली बार आँसू खुद-ब-खुद निकल पड़े। “रागिनी ने शायद यही देखा था,” उसने कहा। कुशाल पास बैठा, मिट्टी से हाथ की हथेली साफ करते हुए बोला, “जो लोग हमें छोड़ जाते हैं, वे एक रास्ता बनाकर जाते हैं। बस हम उसे पहचान नहीं पाते।” अद्वैता ने पहली बार खुद को उस राह पर पाया, जहाँ दर्द बोझ नहीं, बल्कि पुल बनता है। उन्होंने वहीं बैठकर आलू के पराठे खाए, जो कुशाल ने अपनी अम्मा के हाथों से बाँधकर लाए थे। वो स्वाद केवल भूख का नहीं था, उसमें किसी पुराने रिश्ते की गर्मी भी थी। शाम तक घांघरिया पहुँचते-पहुँचते आसमान बैंगनी होने लगा था। अद्वैता का शरीर थक गया था, लेकिन उसकी आत्मा जैसे पहली बार किसी विश्वास पर टिक गई थी। वह जानती थी—ये यात्रा अब केवल रागिनी की नहीं रही, ये उसकी अपनी यात्रा बन चुकी थी। और पहला मोड़, जहाँ घाटी ने उसे रोने दिया था, वहीं से उसका सच्चा चलना शुरू हुआ था।
चार
पुलना गाँव से आगे बढ़ते ही वह रास्ता शुरू होता है जो पहाड़ की असल परीक्षा लेता है—ना केवल शरीर की, बल्कि इरादे की भी। अद्वैता ने जब पहली बार उस संकरी, पत्थरों से भरी पगडंडी पर कदम रखा, तो महसूस किया कि पहाड़ में चलना केवल चढ़ना नहीं होता, हर कदम भीतर की किसी दीवार से टकराता है। आसपास ऊँचे-नीचे झरने, सटे हुए चट्टानों से गिरती बूँदें और मटमैली मिट्टी की पगडंडियाँ, जो बारिश में और भी फिसलनभरी हो चुकी थीं। कुशाल धीरे-धीरे चल रहा था, कभी रुककर उसे साँस लेने का मौका देता, कभी सिर्फ उसकी आँखों से पूछता—“ठीक हो?” दोनों के बीच अब बहुत कम शब्द थे, लेकिन हर चुप्पी में बहुत कुछ कहा जा चुका था। पुलना से घांघरिया की दूरी लंबी नहीं थी, पर चढ़ाई ने अद्वैता को उसके शरीर की सीमाओं से परिचित कराया। ट्रेकिंग स्टिक को कसकर पकड़ते हुए, जब वो पहाड़ की गीली चट्टानों पर पाँव जमाती, तो लगता जैसे कोई अदृश्य डर खींच रहा हो पीछे—शायद वो डर जो शहरों में पला था: असफलता का, थक जाने का, खुद से हार मानने का। लेकिन हर मोड़ पर कुशाल की मौजूदगी ने उसे यही सिखाया कि यहाँ कोई देखने वाला नहीं, कोई जज नहीं—यहाँ तुम केवल खुद के सामने जवाबदेह हो।
बारिश फिर से शुरू हो चुकी थी, और इस बार बूंदें हल्की नहीं थीं—तेज़, चुभती हुई। उन्होंने रेनकोट पहन लिए, लेकिन पहाड़ की बारिश केवल शरीर नहीं भिगोती, वह आत्मा तक पहुँचना जानती है। एक जगह रास्ता इतना संकरा था कि अद्वैता ने ज़रा पैर फिसलाया, और एक तरफ की घाटी की गहराई देख काँप गई। कुशाल ने उसका हाथ कसकर पकड़ा और बिना कुछ कहे उसे आगे खींच लिया। उस एक क्षण में, उसे पहली बार किसी पर निर्भर होने का डर नहीं, भरोसा महसूस हुआ। थोड़ा आगे चलकर जब रास्ता थोड़ी समतल ज़मीन पर आया, दोनों एक छोटे ढाबे में चाय पीने रुके। अद्वैता का चेहरा लाल था, कपड़े गीले, लेकिन उसकी आँखों में एक चमक थी—थकावट में भी आत्मसंतोष। ढाबे की दीवारों पर टंगे कैलेंडर, प्लास्टिक की कुर्सियाँ और मिट्टी की खुशबू—सब कुछ उस सजीले कॉर्पोरेट ऑफिस से अलग था जिसमें वह रोज़ बैठती थी, लेकिन यही जगह उसे अधिक सच्ची लगी। कुशाल चाय की प्याली पकड़ते हुए मुस्कराया, “अब भी लगे तो बता देना, नीचे ही उतर चलेंगे।” अद्वैता ने हँसते हुए कहा, “नीचे नहीं, अब तो रुकना मना है।” दोनों की हँसी भीगती हवा में घुल गई, और पहली बार अद्वैता को लगा कि वह सचमुच ज़िंदा है।
शाम होते-होते घांघरिया की रौशनी दूर से दिखाई देने लगी। यह छोटा सा गाँव, जो हेमकुंड और फूलों की घाटी का आख़िरी ठिकाना होता है, पूरी तरह ट्रेकर्स की दुनिया था। लकड़ी की छोटी झोपड़ियाँ, तिरपाल से ढकी दुकानें, और रुक-रुक कर बजती गुरुद्वारे की शहनाई—इन सबके बीच जब अद्वैता ने अपना पहला पाँव गाँव के भीतर रखा, तो कुछ भीतर कांपा। शरीर थका हुआ था, पाँव छाले से भरे थे, लेकिन भीतर का भार जैसे उतर गया था। लॉज का कमरा सादा था—एक छोटा बेड, लकड़ी की अलमारी और एक खिड़की, जिससे हिमालय के कंधों की रेखा दिखती थी। कुशाल ने उसे गर्म पानी दिया, खाने के लिए कढ़ी-चावल लाकर रखा, और बिना अधिक बोले बस इतना कहा, “कल की चढ़ाई असली है।” लेकिन अद्वैता जानती थी कि असली चढ़ाई वह आज पार कर चुकी है—वह डर, जो उसे हमेशा शहर के आरामदेह जीवन से बाँध कर रखता था, आज उसने उसे फेंक दिया था। वह खिड़की के पास बैठी, डायरी का एक और पन्ना खोला—रागिनी ने लिखा था, “घांघरिया में हवा अलग लगती है, जैसे वो पूछती है—क्या तुम तैयार हो खुद से मिलने के लिए?” अद्वैता ने खिड़की से बाहर झाँका, और पहली बार भीतर से जवाब दिया—“हाँ, अब मैं तैयार हूँ।”
पाँच
अगली सुबह घांघरिया की हवा में एक अलग मिठास थी—न वो पहाड़ी सर्दपन जो काँपने पर मजबूर करे, न वो थकान जो कल की चढ़ाई ने छोड़ी थी। बल्कि जैसे किसी अदृश्य स्पर्श ने अद्वैता के भीतर की गांठें खोल दी हों। कुशाल ने चाय का कप बढ़ाया और पूछा, “हेमकुंड सीधे चलें या पहले फूलों की घाटी?” अद्वैता ने बिना सोचे जवाब दिया, “जहाँ रागिनी पहले गई होती।” कुशाल की आँखों में एक हल्की सी चमक आई, “तो चलो फूलों की घाटी, जहाँ रंग भी चुप्पी बोलते हैं।” रास्ता शुरू होते ही अद्वैता ने महसूस किया कि यहाँ चढ़ाई उतनी कठिन नहीं थी, लेकिन जो दृश्य सामने थे, उन्होंने मन को पूरी तरह से स्थिर कर दिया। पगडंडी के दोनों ओर घास पर टिकी ओस, दूर तक फैले ब्रह्मकमल, जंगली गुलाब, नीली-पीली बेलें—जैसे प्रकृति ने खुद को नर्म कुंचियों से रंगा हो। हर फूल एक कहानी कहता था, हर गंध एक स्मृति को जगाती थी। और इन्हीं स्मृतियों में कहीं रागिनी की खिलखिलाहट बसी थी—वो हमेशा फूलों से बात करती थी, उन्हें नाम देती थी, और बचपन में कहती थी, “जब मैं बड़ी हो जाऊँगी, तो सबसे पहले फूलों की घाटी जाऊँगी। वहाँ हर फूल मेरा दोस्त होगा।”
अद्वैता उस घाटी के बीचोंबीच खड़ी रही, एक पगडंडी पर जहाँ से पूरी घाटी का विस्तार उसके सामने खुलता था। चारों तरफ रंग, गंध, हवा की हलचल और किसी अनदेखे संगीत की लय। उसने कैमरा निकाला, लेकिन पहली बार क्लिक नहीं किया—उसने महसूस किया कि कुछ चीजें सिर्फ आँखों और आत्मा से देखी जाती हैं, लेंस उन्हें क़ैद नहीं कर सकता। कुशाल थोड़ी दूर एक चट्टान पर बैठा था, उसने कोई जल्दी नहीं दिखाई, कोई निर्देश नहीं दिया। यह अद्वैता की घाटी थी—उसकी बहन की, उसकी स्मृतियों की। एक छोटे से पत्थर पर बैठकर उसने रागिनी की डायरी खोली, और उसमें दर्ज एक पंक्ति पढ़ी—”अगर कभी वहाँ पहुँचो, तो फूलों को छूना मत—वे सपनों जैसे हैं, छूओगे तो टूट सकते हैं। बस उनके बीच बैठ जाना, वे खुद अपना नाम बता देंगे।” अद्वैता मुस्कराई—उसने सचमुच किसी भी फूल को नहीं छुआ। वह बस बैठ गई, आँखें बंद कर लीं और साँसों में उस घाटी की नमी भर ली। अचानक हवा तेज़ चली और लगता था जैसे रागिनी वहीं है—ठीक पीछे, बालों में फूल लगाए, वही मुस्कान लिए। आँखें खुलीं तो सामने कुशाल खड़ा था, हाथ में एक सफेद छोटा फूल—”ये ब्रह्मकमल है, यहाँ का सबसे रहस्यमयी। इसे तोड़ना मना है, लेकिन देख सकते हैं। लोग कहते हैं ये उन्हीं को दिखता है, जो खोया हुआ कुछ साथ लाए हों।”
सांझ होते-होते घाटी का रंग बदलने लगा था—सुनहरा, फिर हल्का नीला, और फिर वो धुँधलापन, जो पहाड़ों में रात आने से पहले उतरता है। वापसी के रास्ते में अद्वैता चुप थी, लेकिन उसकी चुप्पी अब बोझिल नहीं थी—वो संपूर्ण लग रही थी। जैसे बहुत सालों से रुकी कोई बात अंततः कह दी गई हो। कुशाल ने धीरे से पूछा, “क्या रागिनी यहाँ होती तो यही महसूस करती?” अद्वैता ने सिर हिलाया, “नहीं… वो तो इससे भी ज़्यादा देख पाती। लेकिन शायद… आज वो देख रही थी।” वे जब घांघरिया लौटे, तो गाँव की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं, हवा ठंडी हो चुकी थी, और थकान इस बार मीठी लग रही थी। लॉज के कमरे में बैठकर अद्वैता ने डायरी बंद की, एक पन्ना खाली छोड़ा, और उसमें सिर्फ दो शब्द लिखे—“मैं पहुँची।” रागिनी की मुस्कान जैसे उन शब्दों में समा गई हो। कुशाल ने दरवाज़ा खटखटाया, “कल हेमकुंड की चढ़ाई है। कठिन है… लेकिन ज़रूरी।” अद्वैता ने दरवाज़ा खोलते हुए पहली बार एक पूर्ण विश्वास के साथ कहा, “मैं तैयार हूँ।”
छह
अगली सुबह घांघरिया की हवा में एक सिहरन थी—न सिर्फ़ मौसम की ठंड, बल्कि एक अज्ञात ऊँचाई का संकेत, जिसे छूना आज बाकी था। कुशाल ने सुबह चार बजे दरवाज़ा खटखटाया। अद्वैता ने दरवाज़ा खोलते ही उसकी आँखों में कुछ अलग देखा—वहाँ आज हल्की चिंता थी। “ऊँचाई ज्यादा है, ऑक्सीजन कम होगी। चढ़ाई सीधी और सख़्त है। बोलो, चलें?” अद्वैता ने जवाब नहीं दिया, बस तैयार होने के लिए सिर हिला दिया। शरीर अब आदत में आ चुका था, लेकिन मन आज अधिक सजग था। रास्ते की शुरुआत अँधेरे में ही हुई, सिर पर हेडलैम्प की हल्की रौशनी और कदमों के नीचे नमी भरी चट्टानें। जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती गई, हवा पतली लगने लगी। हर दस कदम पर रुकना ज़रूरी होता गया। जंगल की हरियाली अब पीछे छूट चुकी थी, और सामने थे सिर्फ पत्थर, बर्फ की लकीरें और मौन। अद्वैता की सांसें तेज़ चलने लगी थीं, माथे पर पसीना नहीं, बल्कि बर्फ़ की ठंडी हवा थी। एक मोड़ पर पाँव अचानक फिसला, और उसका घुटना एक चट्टान से टकरा गया। वो वहीं बैठ गई, और पहली बार थकान नहीं, हार का डर महसूस हुआ। कुशाल झट से पास आया, घुटना सँभाला, और उसका चेहरा देखकर बोला, “यहाँ से वापस जाना आसान है। मैं कहूँ तो…?” लेकिन अद्वैता ने उसकी बात पूरी होने से पहले ही धीमे से कहा, “रुकना मना है, न?”
आगे का रास्ता एकदम सीधा ऊपर चढ़ता था—जैसे सीढ़ियाँ नहीं, पहाड़ ने खुद को खड़ा कर दिया हो। अब हर सांस भारी थी, और हर कदम एक युद्ध जैसा। बर्फ की हल्की परत अब रास्ते को सफेद बनाने लगी थी। चारों ओर कोई आवाज़ नहीं, बस अपने ही दिल की धड़कन। एक छोटे से मोड़ पर, झरने के किनारे बैठते हुए अद्वैता ने खुद से पूछा, “मैं ये क्यों कर रही हूँ?” और उत्तर भीतर से आया—“क्योंकि यही वो जगह है, जहाँ उसे आख़िरी बार देखा जा सकता है।” वो ‘उसे’ अब सिर्फ रागिनी नहीं थी, बल्कि उसकी अपनी खोई हुई परतें भी थीं। कुशाल पास बैठा था, चुप। फिर उसने अचानक कहा, “मैंने भी एक बार यहाँ किसी को खोया था। मेरी छोटी बहन, पायल। चोटी तक गई थी, लेकिन नीचे नहीं लौटी। कोई मेडिकल इमरजेंसी हुई… हम देर से पहुँचे।” अद्वैता ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी आँखों में पानी भर आया। यह यात्रा अब केवल बहनों की नहीं रही थी—यह दो ज़िंदगियों की चुप्पी का सामना करने का संगम बन चुकी थी। दोनों चुपचाप फिर से उठे, और कदमों में वही जिद आ गई जो दुख से नहीं, उसे पार करने की जिद से आती है।
और फिर, जैसे ही अंतिम मोड़ आया, सामने हेमकुंड साहिब का गुरुद्वारा प्रकट हुआ—सफेद संगमरमर की आकृति, उसके पीछे फैली झील, और चारों तरफ ऊँचे, बर्फ़ से ढंके पहाड़। अद्वैता वहीं रुक गई, जैसे किसी स्वप्न को छू लिया हो। वह आगे बढ़ी, झील के किनारे घुटनों पर बैठ गई, और झील की सतह को बिना छुए सिर्फ देखती रही। पानी स्थिर था, इतना साफ कि उसमें बादल भी अपनी परछाईं देखकर डर जाएँ। कुशाल थोड़ी दूरी पर बैठा, और अद्वैता ने रागिनी की डायरी का आख़िरी पन्ना निकाला। उसमें लिखा था, “अगर यहाँ पहुँच जाऊँ, तो कुछ मत कहना, कुछ मत सोचना—बस झील को देखना। वहीं मेरी परछाईं होगी।” और सच में, पानी में उसे जैसे दो परछाइयाँ दिखीं—एक उसकी, और एक जो उसके पीछे बिना आकार के थी। आँखों से आँसू निकलते गए, लेकिन उस बार वे दुख से नहीं थे, बल्कि एक पुनर्मिलन की राहत से थे। अद्वैता ने आँखें बंद कीं, और पहली बार भीतर से एक शांत स्वर सुना—“अब तुम लौट सकती हो।”
सात
गुरुद्वारे के सफेद द्वारों से छनकर आती हवा में न केवल हिमालय की ठंडक थी, बल्कि किसी दिव्य ऊर्जा की उपस्थिति भी थी—जैसे कोई अदृश्य शक्ति वहाँ हर यात्री का भार उतारती हो। अद्वैता धीरे-धीरे संगमरमर की उन सीढ़ियों पर चढ़ी, जो झील की परिक्रमा करते हुए गुरुद्वारे तक जाती थीं। झील अब उसके पीछे थी, लेकिन उसका प्रतिबिंब अभी भी मन में ठहरा हुआ था। गुरुद्वारे के भीतर प्रवेश करते ही सबसे पहले जो अनुभूति हुई, वह थी—शून्यता। यह शून्यता डरावनी नहीं थी, बल्कि अत्यंत कोमल—जैसे किसी माँ की गोद, जहाँ सिर रखते ही उम्र भर का शोर थम जाता है। ग्रंथी की धीमी आवाज़ में पढ़े जा रहे शब्द और बगल में बैठी सेवा में लगी औरतों की चुप्पियाँ—इन सबसे अद्वैता को एक अजीब तरह की सच्चाई मिली: कोई यहाँ तुम्हें तुम्हारे नाम से नहीं बुलाएगा, न तुम्हारी पहचान से, लेकिन तुम फिर भी सबसे ज़्यादा पहचाने जाओगे। वह एक कोने में बैठ गई, आँखें बंद कर लीं और हथेलियाँ जोड़ीं, लेकिन प्रार्थना नहीं की। क्योंकि उसे अब शब्दों की ज़रूरत नहीं थी—उसकी यात्रा खुद ही एक प्रार्थना बन चुकी थी।
गुरुद्वारे के भीतर कुछ क्षण बिताने के बाद वह बाहर आई और सेवा कार्य में शामिल हो गई—झील के किनारे से बर्फीले पानी के बाल्टियाँ भरकर लंगर के पीछे के हिस्से में पहुँचाना, पुराने कम्बलों को तह करना, और उन यात्रियों के लिए चाय तैयार करना जो अब भी ऊपर चढ़ रहे थे। कुशाल पहले से सेवा में लगा हुआ था, लेकिन उसने अद्वैता को कुछ नहीं कहा—बस एक नज़र से देखा और सिर झुका लिया, जैसे यह जान गया हो कि उसकी यात्रा का सबसे ज़रूरी हिस्सा अब पूर्ण हो चुका है। तभी, अद्वैता की नजर उस छोटी बच्ची पर पड़ी जो झील के किनारे बैठे अपने हाथों से पानी में गोते लगाने की कोशिश कर रही थी। उसकी पीठ अद्वैता की ओर थी, बालों में वही सफेद रिबन बंधा था, जो कभी रागिनी पहना करती थी। अद्वैता के कदम अपने आप उस ओर बढ़े, लेकिन जैसे ही उसने पास जाकर देखा, बच्ची मुड़ी और मुस्कराई—चेहरे में रागिनी की झलक नहीं थी, लेकिन उस मुस्कान में वही निश्छलता थी। बच्ची ने कहा, “दीदी, पानी इतना ठंडा है, फिर भी मज़ा आता है।” अद्वैता कुछ पल देखती रही, फिर धीमे से बोली, “हाँ, कुछ चीज़ें ठंडी होकर भी दिल को गर्म रखती हैं।” वो पल ठहर गया, जैसे समय उस मुस्कान को अपने भीतर सहेजना चाहता हो।
शाम ढल रही थी, और सूरज की आख़िरी किरणें झील की सतह पर सोने की धारियाँ बिछा रही थीं। गुरुद्वारे की सीढ़ियों पर बैठी अद्वैता के हाथ में अब डायरी नहीं थी, बल्कि एक खाली कागज़ था, जिस पर वह कुछ भी नहीं लिख रही थी। क्योंकि वह जानती थी—जो अनुभव उसने आज पाया है, वह किसी शब्द में बंध नहीं सकता। कुशाल पास आया और धीरे से बैठते हुए बोला, “कल नीचे उतरेंगे, तुम तैयार हो?” अद्वैता ने उसकी ओर देखे बिना जवाब दिया, “अब लौटना कोई पीछे जाना नहीं लगता, अब तो लगता है जैसे किसी से मिलने जा रही हूँ… शायद खुद से।” कुशाल ने केवल एक मुस्कान में सब कह दिया। गुरुद्वारे की घंटियाँ बजने लगी थीं, और आसमान के कोनों में तारे धीरे-धीरे जागने लगे थे। झील अब एक दर्पण थी—जिसमें न केवल हिमालय की ऊँचाई झलक रही थी, बल्कि उन दो बहनों की अधूरी बातचीत भी जो अब मौन में पूरी हो चुकी थी।
आठ
अगली सुबह जब अद्वैता ने आँखें खोली, तो सूरज झील की सतह से ऊपर उठ चुका था और उसका प्रतिबिंब बर्फीले पानी पर एक शांत लौ की तरह तैर रहा था। लॉज के बाहर कुशाल पहले से तैयार खड़ा था, उसकी आँखों में पिछली शाम की गहराई अब सधे हुए विदा की चमक में बदल चुकी थी। अद्वैता ने रक्सैक की पट्टी कसी, एक बार पीछे झील की ओर देखा और फिर बिना कुछ कहे चल पड़ी। नीचे उतरते हुए पहाड़ का चेहरा अब वैसा नहीं था—वही मोड़, वही चट्टानें, वही पगडंडी, लेकिन अब उसमें एक आत्मीयता थी, जैसे वह उसे पहचानता हो। रास्ते में वे कम बोल रहे थे, लेकिन हर कदम में मौन से बात हो रही थी। एक जगह जहाँ झरने की पतली धारा चट्टानों से फिसलती थी, वहाँ अद्वैता रुक गई—वहीं दो दिन पहले वह घुटने के बल गिरी थी। उसने घुटने पर हल्का हाथ फेरा और मुस्कराकर कहा, “यही था ना मोड़, जहाँ मैंने हार मानने की सोची थी?” कुशाल ने जवाब नहीं दिया, बस एक पत्ता उसके हाथ में रख दिया—नीला, हल्का, ताजगी से भीगा। “यहीं से मेरी बहन की आख़िरी तस्वीर मिली थी,” उसने कहा। अद्वैता की आँखें भर आईं, लेकिन अब उसमें डर नहीं था—बस साझा हुआ दुःख था, जो दो अजनबियों को जीवन का सबसे गहरा रिश्ता दे सकता है।
नीचे लौटने के बाद घांघरिया में एक रात और रुकना पड़ा—बारिश की वजह से रास्ते दलदल में बदल चुके थे। उसी रात, अद्वैता लॉज के बिस्तर पर बैठी डायरी के उस पन्ने को देख रही थी, जो हमेशा अधूरा था—जिस पर रागिनी ने सिर्फ़ दो शब्द लिखे थे: “कुछ कहना है…” और फिर छोड़ दिया था। वो शब्द कभी पूरे नहीं हुए, लेकिन अब, इतने दिन बाद, अद्वैता को लगा जैसे वह जानती है कि रागिनी क्या कहना चाहती थी। वह पन्ने के नीचे धीरे से अपनी लिखावट में जोड़ती है—“…पर तुम्हें दिखाना ज़्यादा ज़रूरी था।” उसी वक्त खिड़की पर हल्की दस्तक होती है। अद्वैता उठकर दरवाज़ा खोलती है, पर बाहर कोई नहीं होता। लेकिन खिड़की से दिखता है वही सफेद रिबन, जो झील के किनारे एक बच्ची के बालों में था, अब हवा में एक लोहे की कील पर उलझा हिल रहा है। वह रिबन उठाकर हाथ में लेती है और सीने से लगा लेती है—जैसे रागिनी एक बार फिर बिना कहे सब कह गई हो। उसी रात, पहली बार उसने सपना देखा—रागिनी फूलों की घाटी में बैठी है, हाथ में वही पुरानी स्केचबुक, मुस्कराकर पूछ रही है, “कितना चलना पड़ा, एक बात समझने के लिए?” और अद्वैता जवाब देती है, “चलना तो बस बहाना था, असल में मैं तुम्हारी खामोशी पढ़ने आई थी।”
सुबह कुशाल ने अद्वैता को अंतिम मोड़ तक छोड़ दिया—वहीं पुलना गाँव के करीब, जहाँ से रास्ता अब जीप से तय होना था। दोनों चुपचाप खड़े थे, जैसे कुछ अनकहा अब भी हवा में अटका हो। अद्वैता ने अपना हाथ बढ़ाया और बोली, “शुक्रिया, साथ चलने के लिए।” कुशाल ने हाथ थामते हुए कहा, “कभी लौट आना, किसी और कहानी के साथ।” अद्वैता ने सिर हिलाया, और जीप में बैठ गई। जीप चल पड़ी, और अद्वैता ने खिड़की से बाहर झाँकते हुए देखा—कुशाल अब भी खड़ा है, और उसके पीछे पहाड़ों की ऊँचाई में वह झील छिपी है, जहाँ दो बहनों की मुलाकात एक मौन में पूरी हुई थी। हाथ में अब भी रिबन था—फूलों से भी हल्का, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा भारी। लौटने का रास्ता अब अंत नहीं था, बल्कि एक नई शुरुआत थी—जहाँ अद्वैता केवल रागिनी को नहीं, खुद को भी साथ लेकर लौट रही थी।
नौ
दिल्ली लौटना किसी शहर में लौटना नहीं था—यह एक समय में लौटना था, जहाँ से अद्वैता ने अपनी यात्रा शुरू की थी, अधूरेपन के उस कोने से जहाँ रागिनी की मौत और उसकी अनुपस्थिति हर दीवार से टकराकर गूंजती थी। ट्रेन से उतरते ही हँसते लोगों, भागती टैक्सियों और मोबाइल की रिंगटोन के बीच वह खुद को थोड़ा अलग महसूस कर रही थी—जैसे वह इस भीड़ का हिस्सा होते हुए भी कहीं और की थी। घर लौटते हुए जब उसने वही पुरानी कॉलोनी का मोड़ पार किया, जहाँ रागिनी अक्सर साइकिल चलाया करती थी, तो उसकी आँखें भीग गईं—लेकिन अब वह आँसू भी कमजोर नहीं थे। दरवाज़ा खोलते ही माँ ने उसे बाँहों में भर लिया। कुछ नहीं पूछा, बस माथा चूमा और कहा, “तू वही है… लेकिन कुछ बदल गया है।” अद्वैता मुस्कराई—यह वही वाक्य था जो झील ने भी उससे कहा था। अपने कमरे में जाकर उसने पहला काम किया—रागिनी की स्केचबुक को अलमारी से निकाला और उसमें एक नया पन्ना जोड़ा। उसने फूलों की घाटी का दृश्य उकेरा—पर उसमें एक लड़की नहीं थी, बल्कि दो—एक बैठी हुई, दूसरी उसके पीछे खड़ी। यह वह झलक थी जो अद्वैता को सपने में मिली थी, और जो अब उसकी स्मृति में स्थायी हो गई थी।
कुछ ही दिनों में जीवन ने अपना पुराना रुटीन फिर से थमा दिया—ऑफिस की ईमेल, क्लाइंट मीटिंग्स, कोर्ट केस और ट्रैफिक जाम। लेकिन अब इन सबके बीच अद्वैता का रवैया बदला हुआ था—वह अब काम को जीवन पर हावी नहीं होने देती, बल्कि जीवन को काम में घुलने देती थी। सहकर्मी हैरान थे, दोस्त चौंके हुए, माँ अक्सर पूछती, “क्या तुझे फिर कहीं जाना है?” लेकिन वह बस मुस्कराकर कहती, “अब जहाँ भी रहूँगी, वहाँ से दूर नहीं जाऊँगी।” एक शाम उसने वह कैमरा निकाला जो वर्षों से डिब्बे में बंद था, और एक छोटा सा एग्ज़िबिशन तय किया—“The Walk Back Home” नाम से। उसमें उसने न सिर्फ हिमालय की तस्वीरें लगाईं, बल्कि हर तस्वीर के नीचे रागिनी की डायरी से एक वाक्य रखा—शब्द जो छूट गए थे, अब वो तस्वीरों में बोले जा रहे थे। उस एग्ज़िबिशन में कई अनजाने लोग आए—कुछ पहाड़ों के प्रेमी, कुछ यात्री, और एक बुज़ुर्ग दंपत्ति, जिन्होंने धीमे से पूछा, “क्या आपकी बहन का नाम रागिनी था? हमने उसका नाम गुरुद्वारे की दीवार पर पढ़ा था।” अद्वैता के हाथ काँप गए, लेकिन उसने सिर हिलाया, और पहली बार अपने दुख को सार्वजनिक होने दिया—बिना किसी शर्म के, बल्कि गर्व से।
उस रात, एग्ज़िबिशन के बाद जब वह अकेली अपने कमरे में बैठी थी, तो उसने पहली बार रागिनी को एक पत्र लिखा—जो कभी पोस्ट नहीं होगा, लेकिन हमेशा उसके मन के भीतर रहेगा। “रागिनी, तू खोई नहीं थी, तू छिपी थी… वहाँ, उन फूलों के बीच, उस बर्फ़ की देहरी पर, उस गुरुद्वारे की सीढ़ियों में, और मेरी हर उस साँस में, जो अब गवाही बन गई है। मैंने तुझे पाया, लेकिन सबसे ज़्यादा मैंने खुद को पाया। मैं वादा करती हूँ, अब हर यात्रा का एक अर्थ होगा—तेरे नाम का। और मैं तुझसे फिर मिलूँगी, किसी घाटी में, किसी रिबन की फड़फड़ाहट में, किसी बच्चे की मुस्कान में।” उसने पत्र बंद किया, अलमारी में रखी रागिनी की स्केचबुक में उसे चुपचाप सहेजा, और खिड़की से बाहर देखा—चाँद पूरा था, वैसा ही जैसा झील पर पड़ा था उस सुबह। अद्वैता ने आँखें बंद कीं और खुद से कहा, “अब अगली यात्रा किसी और के लिए नहीं, खुद के लिए होगी।” और वो पहली बार था जब लौटकर भी उसे कहीं जाना बाकी नहीं लगा—क्योंकि इस बार, वो अपने साथ थी।
दस
वर्ष बीत गया था। मौसम फिर से वैसा ही हो गया था जैसा उस यात्रा के समय था—सितंबर के अंतिम सप्ताह की हल्की ठंड, हवा में कुछ नमी और आसमान पर धूप की रेशमी परतें। दिल्ली अब उसके लिए एक ठिकाना भर थी, ना पहचान, ना बोझ। अद्वैता अपनी ज़िंदगी को फिर से बुन चुकी थी—नए मुकदमों, नए लोगों, लेकिन पुराने अनुभवों की एक स्थायी छाया के साथ। उसने पहाड़ों की तस्वीरों की एक किताब छपवाई थी—“उसके नाम के फूल”—जिसमें ना लेखक का परिचय था, ना किसी बहन का ज़िक्र। बस हर तस्वीर के नीचे एक छोटा-सा वाक्य, कोई डायरी से, कोई मौन से। किताब को जो लोग पढ़ते, वे अक्सर लौटकर कहते, “किसी को खोने के बाद ही इतने रंग दिखाई देते हैं क्या?” अद्वैता मुस्कराती, और कहती, “हो सकता है। या शायद खोने के बाद हम देखना शुरू करते हैं।” वो अब हर साल किसी एक पहाड़ी यात्रा पर निकलती, लेकिन बिना किसी योजना के। और हर बार, वहाँ कोई न कोई उसे रागिनी की झलक दे देता—कभी कोई लड़की जो चुपचाप बैठकर स्केच बना रही हो, कभी कोई बच्चा जो सफेद रिबन बाँधकर हँस रहा हो। वो जानती थी, यह संयोग नहीं, संवाद है। और यह संवाद शब्दों से नहीं, मौन से चलता है—वैसा ही मौन जैसा उस झील के किनारे था।
एक दिन, एक मेल आया—उत्तराखंड टूरिज़्म द्वारा आयोजित एक पर्वतीय कला शिविर में वक्ता बनने का निमंत्रण। विषय था: “यात्रा और स्मृति के बीच की रेखा।” अद्वैता पहले कुछ क्षण चुप रही, लेकिन फिर हाँ कर दी। उसे पता था, यह यात्रा अब किसी व्याख्यान के लिए नहीं, बल्कि एक और बिछड़े संवाद के लिए हो रही है—शायद खुद से, शायद रागिनी से। जब वह शिविर में पहुँची, तो सामने हिमालय के वही शिखर थे, पर अब वो भयावह नहीं लगते थे, बल्कि पुराने परिचित जैसे। वक्तृत्व के बाद कुछ छात्र पास आए और बोले, “मैम, क्या आपने वाकई कभी रागिनी को देखा है उस यात्रा के बाद?” अद्वैता ठहर गई, उनकी आँखों में झाँका और बोली, “अगर तुम मौन को सुन सको, तो हाँ। मैंने उसे देखा है—कभी फूलों की घाटी में, कभी झील की परछाईं में, कभी किसी अजनबी की मुस्कान में। वो अब बाहर नहीं है, वो भीतर है।” छात्र शांत हो गए, लेकिन उनके भीतर कुछ हलका हुआ—जैसे उन्हें भी कुछ मिला हो, जो खोया था।
शिविर से लौटते वक्त जीप एक पहाड़ी मोड़ पर रुकी, जहाँ एक छोटा चाय का ढाबा था—ठीक वैसा ही जैसा पुलना गाँव के पास था। अद्वैता ने उतरकर चाय ली, और बगल की बेंच पर बैठ गई। सामने एक छोटी लड़की बैठी थी, सिर पर टोपी, गोदी में स्केचबुक। उसने पन्ना उठाकर अद्वैता को दिखाया—“देखो दीदी, ये मैंने फूलों की घाटी बनाई है।” अद्वैता की साँस थमी, क्योंकि वो स्केच बिलकुल वैसा ही था जैसा रागिनी की पहली स्केचबुक में था। उसने धीमे से पूछा, “तुम्हारा नाम?” लड़की बोली, “रागिनी। मेरे पापा ने रखा था। बोले, बहुत अच्छा बजता है पहाड़ों में।” अद्वैता की आँखें भीग गईं, लेकिन इस बार वह रोई नहीं। उसने बस लड़की के सिर पर हाथ फेरा और कहा, “अच्छा नहीं… ये नाम पहाड़ों में गूंजता है।” जीप फिर चल पड़ी, मोड़ पीछे छूट गए, लेकिन भीतर कुछ नया खिल गया था। फिर कभी, किसी और मोड़ पर, किसी और झलक में—रागिनी फिर से मिल जाएगी। अब अद्वैता जानती थी, कहानियाँ खत्म नहीं होतीं—वे बस जगह बदलती हैं।
समाप्त




