Hindi - यात्रा-वृत्तांत

लद्दाख की वो आखिरी चाय

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विशाल सक्सेना


एक

दिल्ली की उस सुबह में कुछ अजीब सी खामोशी थी—न ज़्यादा कोहरा, न ही सूरज की चमक। एक मद्धम सी उदासी अर्जुन के कमरे की दीवारों पर रेंग रही थी जैसे पिछली रात की नींद में किसी ने कुछ अधूरा छोड़ दिया हो। दीवार पर लटकी कैलेंडर की तारीखें टेढ़ी हो चुकी थीं, और खिड़की के बाहर किसी ट्रैफिक सिग्नल की पीली रौशनी में बत्तखों की कतार जैसी आवाज़ें आती रहीं। अर्जुन की अलमारी के दरवाज़े खुले थे, एक ओर उसके कैमरे की काली बैग रखी थी जिसमें एक जीवन भर की यात्रा की प्यास भरी हुई थी। आज वह दिल्ली छोड़कर लद्दाख जा रहा था—न पर्यटन के इरादे से, न किसी असाइनमेंट के लिए, बल्कि अपने भीतर के एक शोर को चुप कराने की कोशिश में। अर्जुन एक स्वतंत्र फोटोग्राफर था—पिछले छह वर्षों से वो देश-विदेश घूमता रहा, शादी के फोटोशूट करता रहा, कभी-कभी मैगज़ीन के लिए फीचर शूट करता, लेकिन पिछले कुछ समय से तस्वीरें उसकी आंखों को नहीं छूती थीं। उसकी ज़िंदगी में रवीना की यादें ऐसी थीं जैसे कंप्यूटर की हार्ड ड्राइव में छुपी फोल्डरें—जिसे न डिलीट कर सकता था, न खोलकर देख सकता था। एयरपोर्ट के लिए टैक्सी बुक करते समय अर्जुन ने एक बार फिर फोन की गैलरी में स्क्रॉल किया—रवीना की हँसती हुई एक तस्वीर, जो कसौटी पर टिके हर जवाब को कमजोर कर देती थी। पर आज की सुबह अलग थी। उसने तस्वीर को नहीं हटाया, न ही छुआ—बस एक चाय का कप लिया, जिसे आधे घूंट में पीकर वो अपने कैमरे की लेंस साफ़ करने लगा। कैमरे के भीतर झाँकते हुए उसे अपने अंदर के शून्य का प्रतिबिंब दिखा—एक ऐसा फ्रेम जिसमें न कोई चेहरा था, न कोई कहानी। शायद लद्दाख में कुछ मिल जाए—शायद वहां की चाय में कोई ऐसा स्वाद हो, जो उसे खुद से फिर से मिलवा दे।

एयरपोर्ट तक की यात्रा एक ऐसी गूंगी फिल्म जैसी थी, जिसमें ड्राइवर की फोन पर हँसी, सड़क पर रिक्शों की खटर-पटर, और साथ चलती कारों के शीशों में भागते चेहरे—सब एक ही लय में बहे जा रहे थे। एयरपोर्ट पर भीड़ थी, लेकिन अर्जुन का मन कहीं और था। चेक-इन करते हुए उसे अपना नाम बोलना अजीब लगा—“अर्जुन राय”—एक नाम जो अब खुद उसे भी अपरिचित लगता था। इंतज़ार की कुर्सियों पर बैठे हुए उसने बैग से छोटा नोटबुक निकाला जिसमें वो कभी-कभार ख्याल लिखा करता था। आखिरी बार उसमें जो लिखा था वो रवीना की आवाज़ जैसा था—”तुम हर चीज़ को फ्रेम में कैद क्यों करना चाहते हो, अर्जुन? क्या जीना कैमरे के बिना नहीं होता?” उस पंक्ति को पढ़कर वो कुछ देर चुप रहा और फिर ऊपर देखा—एयरपोर्ट की सफेद रोशनी और अनजान चेहरों के बीच कुछ भी अपना नहीं लगता था। उड़ान की अनाउंसमेंट हुई, और अर्जुन ने बिना कुछ सोचे चलना शुरू कर दिया, जैसे कोई पुराना दृश्य दोबारा फिल्माया जा रहा हो। विमान में खिड़की के पास बैठते ही उसने दिल्ली को नीचे छूटते देखा, जैसे शहर ने खुद ही उसे विदा कर दिया हो। ऊपर बादलों की चादर के बीच उसकी आंखें एक ठहरे हुए दृश्य में अटक गईं। न कोई संवाद, न कोई योजना—सिर्फ एक अंतहीन सफर की शुरुआत। उसे लगा जैसे वो किसी और के जीवन में मेहमान बन गया हो। लद्दाख की धरती जब नीचे दिखने लगी, तो वो कोई रोमांच नहीं था, बल्कि एक पुरानी सांस की तरह सहज था—जैसे वो जगह उसे पहले से जानती हो।

लेह एयरपोर्ट पर उतरते ही एक अलग सन्नाटा अर्जुन को मिला—यहां न हॉर्न की गूंज थी, न भीड़ की चहल-पहल। चारों ओर बर्फीली चोटियों का मौन जैसे किसी पुराने ऋषि की समाधि का भाग हो। टैक्सी में बैठकर जब वह शहर की ओर बढ़ा, तो रास्तों में छोटे-छोटे बुद्ध की मूर्तियाँ, रंगीन प्रार्थना झंडे और पत्थरों से बनीं दीवारें उसे देखती सी लगीं। उसके होटल के कमरे की खिड़की से जो दृश्य दिखता था, वो किसी पोस्टकार्ड जैसा सुंदर था, पर अर्जुन की आँखों में कोई चमक नहीं थी। शाम होते-होते वह कैमरा लेकर बाहर निकला—कहीं बिना उद्देश्य के भटकते हुए। गलियों में एक छोटी सी चाय की दुकान पर उसकी नजर पड़ी, जहां एक बुज़ुर्ग भिक्षु शांत भाव से चाय पी रहे थे। अर्जुन वहां बैठा, चुपचाप। भिक्षु ने बिना कुछ कहे उसकी ओर एक कप बढ़ा दिया। अर्जुन ने चाय की एक घूंट ली—वो चाय बिल्कुल वैसी थी जैसी किसी भूली हुई स्मृति में स्वाद बचा रह जाता है। कुछ देर बाद भिक्षु बोले, “हर यात्रा बाहर की नहीं होती।” अर्जुन चौंका, पर कुछ नहीं कहा। बस धीरे से सिर हिलाया। उस दिन की वो आखिरी चाय अर्जुन के भीतर कुछ खोलने लगी—शायद एक दरवाज़ा, जो उसके अस्तित्व के किसी अंधेरे कोने में बंद पड़ा था। और वहीं से उसकी असली यात्रा शुरू हुई—न तस्वीरों की, न मंज़िलों की—बल्कि खुद की खोज की।

दो

लेह की हवा में कुछ था—एक किस्म की हल्की थकान, जैसे शरीर को हर कदम पर याद दिलाया जाता हो कि तुम अब समुद्रतल से बहुत ऊपर हो, सांसें उतनी आसान नहीं हैं जितनी शहरों में थीं। सुबह की रौशनी पहाड़ों पर धीरे-धीरे उतर रही थी, जैसे किसी चित्रकार की उंगलियाँ पत्थरों को सजीव कर रही हों। अर्जुन होटल के कमरे की खिड़की पर बैठा था, हाथ में वही नोटबुक जिसे वह हमेशा सफ़र में साथ रखता था, और उसके आसपास सिर्फ खामोशी थी—एक ऐसी खामोशी जो दिल्ली में अक्सर मोबाइल नोटिफिकेशन की चीखों में गुम हो जाया करती थी। नीचे गलियों में कुछ स्थानीय बच्चे याक के साथ खेल रहे थे, और पास ही एक बौद्ध स्तूप की छोटी घंटी हवा में बजती जा रही थी—हर टन टन एक नया विचार पैदा कर रही थी अर्जुन के भीतर। उसे लगा मानो उसकी आत्मा की परतें खुलने लगी हैं, बिना किसी जोर के। वह होटल से बाहर निकला, अपने कैमरे को गले में लटकाकर, लेकिन तस्वीरें खींचने का उद्देश्य नहीं था—वह सिर्फ देखना चाहता था, बिना कैद किए। लेह की तंग गलियाँ, मिट्टी के रंग वाले घर, और लोगों की आंखों में एक ऐसा अपनापन था जो उसे असहज कर रहा था—शायद इसलिए क्योंकि वह ऐसे सादे सुख से अनजान हो गया था।

एक मोड़ पर, बाज़ार से थोड़ा आगे, उसे वही चाय की दुकान फिर से दिखी जहां पिछली शाम वो बैठा था। अंदर वही भिक्षु बैठे थे—इस बार कुछ और चुप, कुछ और स्थिर। अर्जुन उनके पास जाकर बैठ गया। बिना कुछ कहे भिक्षु ने फिर एक कप चाय उसकी ओर बढ़ा दी। अर्जुन ने मुस्कुरा कर स्वीकार किया। “नाम क्या है तुम्हारा?” भिक्षु ने पूछा। “अर्जुन,” उसने धीरे से उत्तर दिया। “क्यों आए हो यहां?” सवाल सीधा था, जवाब उलझा हुआ। “शायद खुद को ढूंढने,” अर्जुन ने कहा, बिना आंख मिलाए। भिक्षु हंसे नहीं, बस बोले, “जो चीज़ मिली नहीं, वो खोई भी नहीं होती।” उस पंक्ति ने अर्जुन के भीतर किसी बंद दरवाज़े पर दस्तक दी। चाय की वो हल्की-सी मिठास, और हवा की वो पतली परतें जैसे धीरे-धीरे उसके दिमाग से रवीना की यादों की धुंध हटा रही थीं। उसे याद आया, रवीना अक्सर कहा करती थी—“तुम दूर तो बहुत जाते हो अर्जुन, लेकिन लौटते कभी नहीं।” शायद वह सही थी। लेकिन क्या हर लौटना ज़रूरी होता है? या कुछ रास्ते ऐसे होते हैं जिन्हें सिर्फ पैदल चलना होता है, बिना मंज़िल की चिंता किए?

अर्जुन दिन भर गलियों में घूमता रहा, कैमरा कभी कंधे पर, कभी हाथ में लटकता रहा, पर किसी भी फ्रेम पर उसकी ऊँगली नहीं चली। शाम को वह शांति स्तूप की ओर निकल गया—एक लंबी चढ़ाई, जिसमें हर कदम सांस को थामता जाता था। वहां पहुंच कर उसने पहली बार अपने बैग से कैमरा निकाला, लेकिन तस्वीर नहीं खींची। सिर्फ लेह की घाटियों को देर तक देखता रहा—बर्फ से ढके पहाड़, सूरज की आखिरी किरण, और नीचे बसी वो छोटी सी दुनिया जिसे वो समझने आया था। अचानक किसी ने उसके पीछे से आवाज़ दी—“यहां रोज़ नहीं आता कोई ऐसे देखने।” वह मुड़ा तो देखा एक स्थानीय लड़की खड़ी थी, मुस्कान में पहाड़ी सादगी। “मैं सोनम हूँ,” उसने कहा। अर्जुन ने सिर हिलाया—बिना जाने, यह कोई नई कहानी की शुरुआत हो सकती है या बस एक और चेहरा जो लद्दाख की हवा में खो जाएगा। सोनम ने उसके कैमरे की ओर इशारा कर पूछा, “तस्वीरें क्यों नहीं खींचते?” अर्जुन ने जवाब दिया, “कभी-कभी देखने के लिए तस्वीरें ज़रूरी नहीं होतीं।” वो मुस्कुरा दी। उस शाम, अर्जुन पहली बार लेह की हवा को पूरी सांस से भीतर खींच पाया। हवा अब भी पतली थी, पर उसकी आत्मा कुछ भारी हो चली थी—मानो कोई बोझ उतर गया हो। लेह अब सिर्फ एक स्थान नहीं था—यह उसकी आत्मा का आईना बन चुका था।

तीन

लेह की सुबहें अब अर्जुन को परिचित सी लगने लगी थीं—न धूप तेज थी, न ठंड असह्य, बल्कि जैसे हर चीज़ ने खुद को धीमे-धीमे पेश करने की कसम खाई हो। उस सुबह, अर्जुन ने पहली बार बिना कैमरा उठाए खिड़की से बाहर देखा। उसके भीतर कोई अधीरता नहीं थी कि सबसे पहले कौन-सी फ्रेम चुने, कौन-सी तस्वीर सबसे अद्भुत दिखे। बल्कि, अब वो खुद एक दर्शक बन गया था—अपनी ही यात्रा का। सोनम ने पिछले दिन शांति स्तूप से लौटते समय उसे एक स्थानीय उत्सव की जानकारी दी थी—‘लोसार’ का छोटा उत्सव, जिसे उनके गांव में ही मनाया जाना था। सोनम का निमंत्रण अर्जुन को अनायास ही कुछ सहज लगा, जैसे कोई पुरानी पहचान वाला उसे बुला रहा हो। उसने अपना कैमरा संभाला, लेकिन इस बार उसमें कोई दौड़ या प्रतिस्पर्धा नहीं थी। सिर्फ एक उम्मीद थी कि शायद कैमरे के उस पार उसे कुछ ऐसा दिखे, जो उसके भीतर की खामोश तस्वीरों को बोलने में मदद करे। टैक्सी की जगह वह गांव तक पैदल गया—जैसे हर कदम पर रास्ता उसे अपनी लय में ले रहा हो। रास्ते भर वो अपने साथ चल रही हवा से बातें करता रहा, बर्फ पर धूप की गिरती परछाइयों को पढ़ता रहा, और उन पेड़ों की खामोशियों में कुछ पुरानी बातों की आवाजें सुनता रहा, जो रवीना कभी कहती थी—“तुम चीज़ों को देख तो लेते हो अर्जुन, लेकिन महसूस कब करोगे?”

गांव की गलियों में सोनम पहले से उसका इंतज़ार कर रही थी। बच्चों की टोली, रंगीन कागज़ के झंडे, और घरों से उठती धूप की महक से भरी रोटियों की खुशबू ने उसे किसी पुराने त्योहार की याद दिला दी। सोनम उसे लेकर हर घर में जाती रही—कहीं पूजा चल रही थी, कहीं बूढ़ी दादी उसे सौंफ और नमकीन चाय ऑफर करती थीं। पर अर्जुन का कैमरा तब भी चुप था। वो सिर्फ देख रहा था—उन आँखों को, जिनमें खुशी का कोई मेकअप नहीं था। जब आखिरकार उसने पहला फ्रेम खींचा, वो एक वृद्ध जोड़े की थी—जो धूप में बैठे थे, एक-दूसरे की ओर देखते हुए, बिना किसी बातचीत के। अर्जुन को जैसे उस फ्रेम में खुद का प्रतिबिंब दिखा—वो और रवीना, जिनके बीच अब न संवाद था, न मौन, सिर्फ एक लंबा खालीपन। सोनम ने उससे पूछा, “क्या ये खास फ्रेम है?” अर्जुन ने जवाब दिया, “हाँ, शायद सबसे खास। क्योंकि इस तस्वीर में किसी ने पोज़ नहीं किया।” वो दिन धीरे-धीरे बीता, लेकिन अर्जुन के अंदर कुछ गहराई में स्थिर होता गया। उस रात जब वो गांव के छोटे से कम्यून हॉल में ठहरा, तो उसने कई तस्वीरें निकालीं, पर पहली बार उन्हें देखने की हड़बड़ी नहीं की। जैसे वो जानता था, अब तस्वीरें सिर्फ देखने के लिए नहीं हैं—अब वो उसके अनुभव का विस्तार हैं।

अर्जुन ने सोनम से पूछा, “तुम यहां से कभी बाहर नहीं गईं?” सोनम हँसी, “नहीं, पर बाहर की बहुत सी चीज़ें यहां खुद आ जाती हैं—लोग, कहानियाँ, और कभी-कभी दुख भी।” उस सरल उत्तर में अर्जुन को एक गहरी बात महसूस हुई—उसने सालों तक खुद को दुनिया देखने में खो दिया था, पर शायद जो गहराई वो बाहर तलाशता रहा, वो इन गांवों के भीतर पहले से मौजूद थी। अगली सुबह जब वो गांव से लौट रहा था, उसने अपने कैमरे को देखा—अब वो सिर्फ एक औज़ार नहीं था, वो अर्जुन की यात्रा का एक साथी बन गया था, जो जानता था कि कब चुप रहना है और कब बोल उठना है। रास्ते में चलते हुए अर्जुन ने रवीना के भेजे पुराने एक ईमेल को फिर से पढ़ा—जिसमें उसने लिखा था, “मैं चाहती हूँ कि एक दिन तुम खुद को किसी फ्रेम के भीतर देख सको। सिर्फ दूसरों को नहीं।” वो ईमेल पहले उसे उलझा लगता था, अब उसका मतलब समझ में आने लगा था। शायद इसलिए कि लद्दाख की इन हवाओं में, इन चुप गलियों में, अर्जुन खुद को बिना कैमरे के देखने लगा था। अब उसके लिए तस्वीरें केवल दृश्य नहीं थीं—वो भावनाओं की नक़्क़ाशी बन चुकी थीं।

जब वो वापस लेह लौटा, तो शहर कुछ और शांत लगा—या शायद अर्जुन खुद शांत हो गया था। वो चाय की दुकान पर गया तो लामा तेनज़िन वहां नहीं थे, लेकिन उसी कुर्सी पर धूप आकर बैठी थी, जैसे उसकी अनुपस्थिति को भर रही हो। अर्जुन ने वहीं बैठकर कैमरे से दिन भर की तस्वीरें देखीं—हर फ्रेम में कुछ अधूरा, कुछ वास्तविक। उसने पहली बार कुछ तस्वीरें डिलीट नहीं कीं, सिर्फ देखीं, महसूस कीं और रहने दीं। उस क्षण उसे महसूस हुआ कि हर तस्वीर को पूरा होना ज़रूरी नहीं होता, कुछ तस्वीरें अधूरी रहकर ही हमें खुद की तरफ लौटने का रास्ता दिखाती हैं। उसी चाय की चुस्की में उसे वो बात फिर याद आई—जो लामा ने पहली बार कही थी, “हर यात्रा बाहर की नहीं होती।” अर्जुन ने खुद से पहली बार स्वीकार किया—हाँ, ये यात्रा भीतर की है। और इन तस्वीरों के पीछे जो खामोशी है, वो ही उसकी सबसे सच्ची आवाज़ है।

चार

लेह से लगभग 120 किलोमीटर उत्तर की ओर फैली थी नुब्रा घाटी—एक जगह जिसे दुनिया के सबसे ऊंचे मोटरेबल पास, खारदुंग ला, पार करके पहुंचा जाता है। सोनम के कहने पर अर्जुन ने नुब्रा जाने का निर्णय लिया, हालांकि उसके भीतर अब भी एक हिचक थी—क्या वाकई एक और यात्रा ज़रूरी थी? पर शायद कुछ जवाब सिर्फ रास्तों में ही मिलते हैं। अगले दिन तड़के, वह एक स्थानीय टैक्सी में बैठ गया—ड्राइवर नामग्याल शांत स्वभाव का बुज़ुर्ग था, जिसने रास्ते में पहाड़ों के नाम, बर्फ की परतों की उम्र और घाटियों की कहानियाँ बिना पूछे ही बतानी शुरू कर दीं। चढ़ाई के साथ हवा पतली होती गई, और खारदुंग ला की चोटी पर पहुँचते ही अर्जुन को एक तरह का खालीपन महसूस हुआ—न सिर में दर्द था, न मन में कोई विचार। बस चारों तरफ सफ़ेद मौन था, जैसे समय भी यहां रुक गया हो। वहां से उतरते समय एक मोड़ पर दूर बर्फ से ढके खेतों के बीच एक सूनी सी झोपड़ी दिखी—नामग्याल ने बताया कि यह एक पुराना टी-पॉइंट हुआ करता था, जिसे अब लोग ‘भूतकाल की दुकान’ कहते हैं। अर्जुन की आंखें अटक गईं—भूतकाल शब्द से ही उसके भीतर कुछ कांप गया। उसने तुरंत नामग्याल से कहा—“क्या हम वहां रुक सकते हैं?”

झोपड़ी तक पहुंचते ही अर्जुन को ऐसा लगा जैसे उसने किसी पुराने सपने को छुआ हो। दीवारों पर मिट्टी की चट्टानों से बने धब्बे, भीतर टूटी मेज़ और एक खाली केतली—सबकुछ जैसे समय की कब्र में कैद हो। वहां अब कोई नहीं रहता था, पर दीवार पर एक तस्वीर अब भी टंगी थी—एक जवान सैनिक और एक पहाड़ी लड़की की, दोनों मुस्कुराते हुए। अर्जुन उस फ्रेम को देर तक देखता रहा, और कैमरा उठाने के बजाय सिर्फ आंखों से उस दृश्य को आत्मसात करता रहा। शायद किसी और की कहानी, उसकी अपनी कहानी के किसी भूले हुए अध्याय को छू रही थी। उस क्षण में उसे याद आया—रवीना और वह एक बार साथ लद्दाख आने वाले थे, पर ठीक उससे पहले उनका रिश्ता टूट गया था। रवीना ने कहा था, “हम एक जैसे नहीं हैं अर्जुन, तुम्हारे कैमरे की आंखें मेरी खामोशी नहीं पढ़ सकतीं।” उस बात के बाद अर्जुन ने कभी लद्दाख की बात नहीं की थी, न उससे, न खुद से। लेकिन आज, इस वीरान झोपड़ी में खड़े होकर, उसने उस अतीत को स्वीकार किया—बिना कोई सवाल पूछे। शायद उस झोपड़ी की खाली केतली में भी कोई अधूरी चाय बची थी—जैसे उसकी ज़िंदगी में। अर्जुन ने दीवार से वो तस्वीर नहीं हटाई, बस उसे कैमरे में फ्रेम किया—इस बार बिना किसी तकनीकी गणना के, बस दिल से।

नुब्रा घाटी में बाकी दिन शांत बीता। अर्जुन ने वहां रेत के टीलों में पैदल चला, ऊँटों की धीमी चाल के साथ घाटियों को देखा, और हर शाम एकांत में बिताई। उस रात, एक छोटे से होमस्टे में बैठकर उसने अपनी नोटबुक खोली, और पहली बार रवीना के लिए कुछ लिखा—कोई शिकायत नहीं, न कोई पश्चाताप। सिर्फ एक चाय की याद, जो उन्होंने कभी साथ पी थी, और एक वादा जो अधूरा रह गया था—“लद्दाख की चाय तुम्हें पसंद आएगी,” उसने कभी कहा था। अब उसे महसूस हुआ, वो चाय सिर्फ स्वाद नहीं था—वो एक प्रतीक थी उस यात्रा का जो दोनों ने साथ शुरू तो की थी, लेकिन मंज़िल अलग-अलग चुनी थी। उस लिखावट में कोई ग्लानि नहीं थी, बस एक गहरी समझ। अर्जुन को लगा, शायद भूतकाल को मिटाना नहीं होता, उसे देखने की हिम्मत चाहिए होती है। और अब जबकि उसने उसे देख लिया था, वो तस्वीरें, वो फ्रेम, वो चाय की याद—सब अब उसका हिस्सा बन गए थे, बोझ नहीं।

अगली सुबह जब वह वापस लेह लौटा, तो सोनम उसके होटल में पहले से बैठी थी, हाथ में दो कप चाय और वही मुस्कुराहट। उसने मज़ाक में कहा, “तुम अब फकीर लगने लगे हो।” अर्जुन मुस्कुरा कर बोला, “और तुम्हें देख कर लगता है कि लद्दाख खुद इंसान का रूप लेकर मेरे सामने आ बैठा है।” दोनों हँस पड़े। उस दिन, उन्होंने शहर के बाहर एक बौद्ध पुस्तकालय में समय बिताया, जहां प्राचीन ग्रंथों के पन्नों की खामोशी अर्जुन को गहराई से छूती गई। उसने सोनम से पूछा, “क्या हर कहानी का अंत ज़रूरी होता है?” सोनम ने जवाब दिया, “नहीं, कुछ कहानियां सिर्फ जीने के लिए होती हैं, सुनाने के लिए नहीं।” अर्जुन को ये जवाब किसी प्रार्थना जैसा लगा। उस रात, अपने कमरे में बैठकर, जब वह अंतिम चाय की घूंट ले रहा था, तो उसे महसूस हुआ—अब लद्दाख उसकी तस्वीरों में नहीं, बल्कि उसकी साँसों में बस चुका है। और यही थी वो चाय—जिसके स्वाद में अब सिर्फ चाय नहीं थी, बल्कि सारा भूतकाल घुल चुका था।

पाँच

लेह लौटकर अर्जुन के भीतर कुछ स्थिर हुआ था, जैसे कई सालों से फड़फड़ाती कोई अधूरी चिट्ठी अब जाकर बंद लिफाफे में समा गई हो। लेकिन स्थिरता के साथ एक बेचैनी भी होती है—क्या यह अंत है? क्या अब उसे वापस लौट जाना चाहिए? होटल की बालकनी से दूर पहाड़ों को देखते हुए वो अक्सर सोचता कि क्या कोई यात्रा वास्तव में पूरी हो सकती है, या हम बस समय के अलग-अलग मोड़ों पर खुद से कुछ पन्ने चुरा कर चलते जाते हैं। सोनम उन दिनों रोज़ मिलती थी—कभी किसी बौद्धिक संगोष्ठी में साथ जाती, कभी किसी पर्वतीय पुस्तकालय की धूलभरी आलमारी में कोई तिब्बती किताब ढूंढती। पर एक दिन, उसने अर्जुन को एक पुराना मिट्टी का डिब्बा दिया। “ये मेरे दादा की चीज़ों में मिला था,” उसने कहा, “शायद तुम्हें पसंद आए।” अर्जुन ने जब डिब्बा खोला, तो उसमें एक पीला पड़ चुका ख़त मिला, जिस पर न ही कोई नाम था, न ही तारीख—बस एक टूटी-फूटी हिंदी में लिखा गया भावुक संदेश। “अगर तुम ये पढ़ रहे हो, तो जान लो, मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया है… घाटियों में बिखरे वादे कभी-कभी पहाड़ों पर उग आते हैं।” अर्जुन के हाथ कांपने लगे। खत में जो भाव थे, वे इतने व्यक्तिगत लगे कि उसे यकीन ही नहीं हुआ कि यह किसी और का हो सकता है। मानो यह खत समय ने उसी के लिए किसी अजनबी की लिपि में लिख भेजा हो।

उस शाम, वह और सोनम पहाड़ी की एक ऊँचाई पर गए, जहां से पूरा लेह झिलमिलाता दिखता था। अर्जुन ने सोनम से पूछा, “क्या तुम जानती हो ये खत किसका है?” सोनम ने सिर हिलाया, “नहीं, लेकिन मेरे दादा अक्सर कहते थे कि कुछ कहानियां लिफाफों में बंद नहीं होतीं, वो हवाओं में घुलती हैं।” अर्जुन ने खत को फिर से पढ़ा, और इस बार शब्दों की लय में रवीना की आवाज़ सी सुनाई दी—शायद इसलिए कि उसकी अपनी यादों ने अब इतना सधा रूप ले लिया था कि अजनबी लिखावट में भी अपनेपन की गूँज महसूस होने लगी थी। वो खत एक प्रेमिका का था, या शायद एक बेटा था जो मां से माफ़ी मांग रहा था—लेकिन उसमें जो भाव थे, वे किसी एक रिश्ते तक सीमित नहीं थे। अर्जुन को लगा जैसे लद्दाख की हर घाटी, हर पत्थर, हर हवा एक अधूरी चिट्ठी है—जो किसी न किसी के दिल से निकली थी और किसी और के जीवन में उतर गई थी। उसने उस रात कई घंटे खत को लेकर सोचा, और पहली बार रवीना को एक पत्र लिखने बैठा—कोई मेल नहीं, कोई टेक्स्ट नहीं, बस एक पुराना लिफाफा, हाथ से लिखा खत, और उसकी आत्मा की स्याही।

अगली सुबह अर्जुन सोनम के साथ थिकसे मठ गया। वहां की शांति, विशाल बुद्ध मूर्ति और सर्द हवाओं ने उसकी आत्मा को किसी पुराने घाव की तरह सहलाया। वहां के एक युवा लामा ने जब उनसे कहा, “कभी-कभी शब्दों से ज़्यादा ज़रूरी होता है उन्हें सही जगह पर पहुंचाना,” तो अर्जुन ने मुस्कुरा कर अपना खत वहीं के एक छोटे से मंदिर में रख दिया—उस भूतपूर्व अनाम पत्र के पास, जिसे सोनम ने उसे दिया था। उसे अब यह प्रतीत हुआ कि उसका लिखा हुआ पत्र किसी डाक से नहीं, बल्कि इन घाटियों की हवाओं में तैर कर जहां जाना होगा, वहां पहुंचेगा। जब वे मठ से लौटे, तो रास्ते में एक पुरानी महिला खड़ी दिखी, जिसकी आँखों में अजीब सी गहराई थी। उसने सोनम से कुछ तिब्बती में कहा, और सोनम ने अर्जुन से कहा, “वो पूछ रही है, क्या तुमने अपने उत्तर भेज दिए?” अर्जुन के मन में एक ठंडी लहर दौड़ गई। क्या ये संयोग था? या लद्दाख की घाटियों में सचमुच कोई पुराना संवाद बचे खतों के ज़रिए अब भी चलता है? उसने सिर हिलाया, “हाँ, अब शायद सब कह चुका हूँ।”

अर्जुन की यात्रा अब अंत की ओर बढ़ रही थी, लेकिन उसका अंत लौटना नहीं था, बल्कि एक स्वीकार था। उसने सोनम से विदा ली, उस चाय की दुकान पर जाकर आखिरी बार वही प्याला उठाया जिसमें पहली बार उसकी आत्मा कांपी थी। अब न कोई दर्द था, न उलझन—सिर्फ एक गहरा सुकून। उसने होटल के कमरे में अपने कैमरे से उस खत की तस्वीर खींची—लेकिन इस बार वो तस्वीर किसी प्रदर्शनी के लिए नहीं थी, न किसी ब्लॉग पोस्ट के लिए। वो तस्वीर सिर्फ उसके लिए थी—उसकी यात्रा की गवाही, एक चाय के प्याले से शुरू हुई खोज की आखिरी डाक टिकट। जब उसने बैग पैक किया, तो रवीना का वो मेल दोबारा पढ़ा जिसमें उसने कहा था, “मैं चाहती थी कि तुम कभी खुद को एक ख़त में बुन सको।” अर्जुन ने मुस्कुरा कर जवाब लिखा, पहली बार—“मैंने अब खुद को किसी की कहानी नहीं, अपनी चिट्ठी बना लिया है।” और उसी पल, घाटियों की हवा में कोई अदृश्य चाय की महक फिर से उठी—जैसे लद्दाख ने उसका उत्तर पढ़ लिया हो।

छह

सुबह की सर्द हवा में जब लेह एयरपोर्ट के रनवे पर हल्की धुंध पसरी थी, अर्जुन टैक्सी की पिछली सीट पर बैठा खामोश था। लौटने की तैयारी उसने यंत्रवत तरीके से की थी—कैमरे का डेटा ट्रांसफर, मेमोरी कार्ड सुरक्षित, नोटबुक में सब कुछ व्यवस्थित, और रवीना के लिए लिखा गया खत अब उसके बैग में नहीं था—वो पीछे रह गया था, वहीं किसी घाटी की दरार में, जहां आत्मा खुद को छोड़ आती है। लेकिन इसके बावजूद, अर्जुन को इस विदाई में कोई नाटकीयता नहीं लगी। वो ऐसा नहीं था कि कोई भारी मन लेकर लौट रहा हो, न ही कोई उत्साह लेकर घर जा रहा था। वो अब एक दूसरे रंग में ढला था, जो रंग सिर्फ ठहराव से बनता है। सोनम उसे छोड़ने आई थी, उनके बीच कोई संवाद नहीं हुआ—जैसे वो दोनों जानते थे कि अब शब्द अतिरिक्त हैं। जब टैक्सी चल पड़ी, तब भी पीछे मुड़कर देखना नहीं हुआ—न अर्जुन ने, न सोनम ने। लेकिन उस क्षण में दोनों को पता था कि कुछ बेहद ज़रूरी कह दिया गया है बिना कहे ही। अर्जुन की आंखें खिड़की से बाहर थीं, पर नज़रों के भीतर कहीं और—जहां यात्रा अब पूरी नहीं हो रही थी, बल्कि एक नई दिशा ले रही थी, शोर से चुप्पियों की ओर।

हवाई जहाज़ की खिड़की से जब पहाड़ पीछे छूटने लगे, तब अर्जुन को पहली बार लगा कि लद्दाख अब एक स्थान नहीं रहा—वो अब उसकी सोच का एक हिस्सा बन गया था। उसने खिड़की से नीचे झांकते हुए वो गांव, वो सड़कें, और वो टूटी झोपड़ी याद की, जहां एक खत ने उसके भीतर का बोझ उठाया था। वो सोचने लगा—क्या हर यात्रा का उद्देश्य यही होता है? क्या हमें सिर्फ इसलिए दूर जाना पड़ता है ताकि हम अपने भीतर किसी खोई हुई गहराई को छू सकें? उसी क्षण उसे याद आया—कैसे पहली बार जब वह लद्दाख आया था, तो हर चीज़ को ‘कैप्चर’ करना चाहता था, पर अब, वह केवल ‘अनुभव’ करना चाहता है। और शायद यही वो अंतर था जो समय और चाय की आखिरी चुस्कियों ने उसे सिखाया था। जहाज़ की सीट पर बैठा अर्जुन उस पुराने अर्जुन से बहुत अलग था—जिसने दिल्ली की भागती ज़िंदगी में कैमरे के पीछे से देखा तो बहुत कुछ था, पर कभी आत्मा की लेंस से खुद को नहीं देखा। अब जब उसकी डायरी खुली, तो उसमें चाय की दुकान की तस्वीरें नहीं थीं—बल्कि वो फ्रेम थे जो कभी क्लिक नहीं किए गए, पर स्मृति में दर्ज हो गए। जैसे वो चाय की भाप, सोनम की आँखों में पहाड़ों की गहराई, और वो वृद्ध जोड़ा जो एक-दूसरे की ओर देखकर खामोश था।

दिल्ली लौटकर जब अर्जुन अपने पुराने अपार्टमेंट में पहुँचा, तो सब कुछ वैसा ही था—पर उसकी नज़रें बदल चुकी थीं। वो अब दीवारों को सिर्फ रंगों से नहीं, उनकी खामोशियों से पढ़ने लगा था। सबसे पहले उसने अपनी दीवारों पर लगी सभी तस्वीरें हटा दीं—वो फ्रेम जिनमें दुनिया के चमकते नज़ारे थे, लेकिन आत्मा की कोई परछाई नहीं। उसने अपनी सबसे पुरानी ड्राइव से एक तस्वीर निकालकर फ्रेम में लगाई—वो चाय की दुकान, जहां पहली बार लामा तेनज़िन से मिला था। अब वह दुकान उसके लिए कोई दृश्य नहीं, बल्कि एक गूंज बन चुकी थी—एक विचार, एक चुपचाप किया गया संवाद। अर्जुन ने उस रात कोई काम नहीं किया, कोई ईमेल नहीं देखा, बस अपनी बालकनी में बैठा रहा—चाय का कप हाथ में, और भीतर एक असाधारण शांति। अब उसे किसी की मंज़ूरी नहीं चाहिए थी, न किसी गैलरी की वाहवाही। वो खुद के लिए जीना सीख चुका था। और तभी, मोबाइल पर एक संदेश आया—“तुम्हारा खत मिल गया।” अर्जुन चौंका नहीं, मुस्कुराया। बिना भेजे हुए खत भी कभी-कभी पहुंच जाते हैं, शायद इसलिए कि भावनाओं का डाकखाना वक़्त की किसी घाटी में चुपचाप काम करता रहता है। चाय की आखिरी घूंट में जब उसने आंखें मूंदीं, तो उसे लद्दाख की हवा फिर से अपने पास महसूस हुई—और वो जान गया, लौटना कभी भी एक पूर्ण विराम नहीं होता, सिर्फ एक लंबी साँस होती है, अगले अध्याय से पहले।

सात

दिल्ली लौटे एक हफ्ता हो चुका था, लेकिन अर्जुन का मन अब शहर की चहल-पहल में नहीं रम रहा था। ट्रैफिक की आवाज़ें, मेट्रो की भीड़, कैफे की नकली मुस्कानें—सब कुछ अब उसके भीतर टकरा कर लौट जाती थीं। पहले जो कैमरा हर दिन उसके कंधे पर होता था, अब अलमारी में पड़ा धूल खा रहा था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि अर्जुन कुछ नहीं कर रहा था—वह भीतर बहुत कुछ बुन रहा था। वह हर सुबह अपनी पुरानी डायरी उठाता, उस नोटबुक को जिसमें कभी लद्दाख की चाय की महक बस गई थी, और फिर कोशिश करता—लिखने की, समझने की, स्वीकार करने की। पर सबसे अधिक समय वह उस एक ड्राफ्ट को घूरने में लगाता—रवीना को लिखा गया एक ईमेल, जो ‘ड्राफ्ट’ टैब में पिछले चार सालों से पड़ा था। उसमें कुछ शब्द थे—टूटे, बिखरे, असंतुलित। “रवीना, मुझे नहीं पता कि कैसे कहूं, लेकिन…” और वहीं वाक्य अधूरा छूट गया था। अर्जुन ने सैकड़ों बार उसे पूरा करने की कोशिश की थी, लेकिन हमेशा एक अजीब किस्म की जड़ता उसके हाथों को रोक लेती थी। अब, जब वह लद्दाख की घाटियों में अपने भीतर उतर चुका था, उसे लगने लगा कि शायद अब समय आ गया है—इस ईमेल को अंतिम रूप देने का, भले ही उसे भेजा न जाए।

एक शाम, जब बारिश की बूंदें बालकनी की रेलिंग से टकरा रही थीं, अर्जुन ने लैपटॉप खोला और वह ड्राफ्ट खोल लिया। कुछ देर वह सिर्फ स्क्रीन को देखता रहा, मानो वह स्क्रीन अब सिर्फ एक डिजिटल माध्यम नहीं, बल्कि एक भावनात्मक दर्पण बन गया हो। उसने पहली पंक्ति बदली—“रवीना, लद्दाख की एक चाय की दुकान ने मुझे तुम्हारी सबसे ज़्यादा याद दिलाई।” और फिर, बिना रुके, उसने एक-एक करके वो सारे दृश्य लिख डाले जो कभी कहे नहीं गए थे। उसने लिखा कैसे उसकी ज़िंदगी का हर दृश्य एक फ्रेम की तरह अधूरा था जब तक उसमें रवीना की उपस्थिति की रोशनी नहीं पड़ती थी। उसने बताया कि कैसे उसे अब समझ आया कि उस समय वह खुद को खो बैठा था, और उस खोने में वह दूसरों को भी समझने की क्षमता खो चुका था। उसने लिखा, “तुमने सही कहा था—मेरे कैमरे की आँखें तुम्हारी खामोशी नहीं पढ़ सकती थीं। लेकिन अब, शायद वे सुन सकती हैं।” ईमेल एक चिट्ठी जैसा बनता गया—न कोई मांग, न कोई उत्तरदायित्व, सिर्फ एक स्वीकृति। अर्जुन को महसूस हुआ कि यह मेल अब किसी उत्तर की प्रतीक्षा में नहीं था, यह एक अंत नहीं, बल्कि एक आत्मिक संकल्प था—कि अब वह किसी को दोष नहीं देगा, न खुद को, न रवीना को, न उस समय को। जब वह टाइपिंग खत्म कर चुका था, तो पहली बार उसे अपने भीतर हल्कापन लगा—जैसे किसी बर्फीली घाटी में जमा भारी बादल अचानक हवा के साथ उड़ गए हों।

लेकिन अगला कदम अब भी कठिन था—क्या मेल भेजना चाहिए? अर्जुन के भीतर दो आवाज़ें चल रही थीं। एक कहती थी—“भेज दो, ताकि उसे पता चले कि तुमने खुद को बदला है।” दूसरी कहती थी—“न भेजो, ताकि उसकी ज़िंदगी में कोई पुरानी खिड़की फिर न खुल जाए।” दोनों आवाज़ें वाजिब थीं, पर अर्जुन जानता था—यह निर्णय अब बुद्धि से नहीं, आत्मा से लेना होगा। उसने अपने चाय के प्याले में आखिरी चुस्की ली, और स्क्रीन पर ‘Send’ बटन की ओर देखा। और फिर… उसने स्क्रीन बंद कर दी। नहीं, इस बार मेल भेजना ज़रूरी नहीं था। क्योंकि उस मेल का सबसे बड़ा उद्देश्य पूरा हो चुका था—अर्जुन खुद को माफ कर चुका था, और रवीना को भी। अब अगर वो खत हवाओं में उड़कर किसी घाटी में जा पहुंचे, तो ठीक, और अगर वह यहीं इस लैपटॉप की स्मृति में बंद रह जाए, तब भी ठीक। कभी-कभी, सच्चे संवाद केवल कह देने भर से नहीं होते—वे उस मौन में होते हैं जो कहे बिना भी बहुत कुछ कह देता है। और अर्जुन अब उस मौन की भाषा सीख चुका था।

उस रात जब अर्जुन सोया, तो वर्षों बाद उसे कोई सपना नहीं आया—ना रवीना, न लद्दाख, न कैमरा, न भीड़। सिर्फ एक सफेद नीला आकाश और एक अजीब-सी शांति, जो केवल उन्हीं को मिलती है जिन्होंने अपने भीतर की गुफाओं को रोशनी में देखा हो। सुबह उठकर उसने खुद से वादा किया—अब वह तस्वीरें नहीं खींचेगा जब तक कोई दृश्य उसके भीतर से न निकले। और पहली बार उसने अपने कैमरे को फिर से हाथ में लिया, लेकिन इस बार एक फ़्रेम पकड़ने के लिए नहीं, बल्कि उस क्षण को जीने के लिए। बाहर हल्की धूप थी, और उसकी बालकनी में एक गौरैया बैठी थी—बिल्कुल निडर, जैसे जानती हो कि यह मनुष्य अब सिर्फ तस्वीरों के लिए नहीं, सन्नाटों की कहानी के लिए भी तैयार है। अर्जुन ने गौरैया को देखा, मुस्कुराया, और कैमरा नीचे रख दिया। उस दिन, उसने रवीना को एक नया ईमेल लिखा—“मैंने तुम्हें एक खत भेजा था, जो शायद कभी नहीं भेजा। लेकिन तुम्हारे नाम पर लिखा गया हर शब्द, अब मेरा अपना हो गया है। धन्यवाद, उस मौन के लिए।” उसने फिर से ‘Send’ नहीं दबाया। वह मेल भी ‘Draft’ में चला गया। लेकिन फर्क ये था कि अब वो ड्राफ्ट अधूरा नहीं था, बल्कि सबसे पूरा। और लद्दाख की वो आखिरी चाय अब उसकी आत्मा की सुबह बन चुकी थी।

आठ

अर्जुन की ज़िंदगी अब धीरे-धीरे एक नई लय में ढल रही थी। पहले जो दिन सुबह-सुबह सोशल मीडिया चेक करने से शुरू होते थे, अब वे चाय की केतली की आवाज़ से खुलते थे। वह अब भी फोटोग्राफी करता था, लेकिन अब वह तस्वीरें खींचने नहीं, महसूस करने के लिए निकलता था। उसने दिल्ली की भीड़भाड़ से दूर एक पुराना कमरा किराये पर लिया, जो शहर के शोर से थोड़ा अलग था—जैसे एक पत्थर, जो नदी के बहाव से थोड़ी दूर खुद में ठहरा हो। वहां की खिड़की से आसमान साफ़ दिखता था, और दोपहर की धूप दीवारों पर कहानियां बुनती थी। अर्जुन ने खुद को लिखने में झोंक दिया—सचमुच का लिखना, डायरी में, बिना किसी पाठक की उम्मीद के। उसने उन सभी चीज़ों को कागज़ पर उतारना शुरू किया, जो सालों से उसकी आत्मा में फंसी थीं—पिता की लंबी चुप्पी, माँ की आंखों की थकी मुस्कुराहट, और रवीना के साथ बिताए अनगिनत मौसम। हर शब्द जो पन्ने पर उतरता, एक पत्थर सा हल्का कर देता। धीरे-धीरे, उसे एहसास हुआ कि हम ज़िंदगी में जितना आगे बढ़ते हैं, उतना ही लौटना भी होता है—पर लौटना कभी पुराने पते पर नहीं, बल्कि उस जगह पर जहां हम खुद को सबसे सच्चे रूप में देख पाए।

एक दिन, उसे एक पुराना ईमेल मिला—एक वेबसाइट से, जहां उसने अपनी तस्वीरें कभी अपलोड की थीं। मेल में लिखा था कि उनकी टीम को उसका “Unnamed Frame #7” बहुत पसंद आया है और वे उसे एक सामूहिक प्रदर्शनी में शामिल करना चाहते हैं। अर्जुन को यह तस्वीर याद नहीं थी, लेकिन जब उसने लॉग इन करके देखा, तो उसकी आंखें नम हो गईं। वह वही तस्वीर थी, जो उसने थिकसे मठ के पास चाय की दुकान की छाया में खींची थी—एक बूढ़ा आदमी, जो चुपचाप सूरज की ओर देख रहा था, जैसे जीवन से बिना कोई शिकायत किए विदा ले रहा हो। वह तस्वीर अब उसके लिए सिर्फ एक छवि नहीं थी—वह एक प्रतीक थी, उस समय की जब अर्जुन ने पहली बार खुद से मुलाकात की थी। उसने सोचा—क्या उसे इसे प्रदर्शनी में भेजना चाहिए? लेकिन फिर, उसने महसूस किया कि शायद यह ठीक रहेगा। क्योंकि अब उसका उद्देश्य बदल गया था—अब वह लोगों को अपने देखे हुए दृश्य नहीं दिखाना चाहता था, बल्कि वह उन्हें अपने भीतर के सवालों से परिचित कराना चाहता था। उसने सहमति दी और अगले हफ्ते जब प्रदर्शनी लगी, तो वह बस एक कोने में चुपचाप खड़ा रहा—लोग आते, देखते, और फिर आगे बढ़ जाते। लेकिन एक छोटी लड़की वहीं खड़ी रही, तस्वीर की तरफ देखती रही, और फिर उसने पूछा—”ये आदमी क्या सोच रहा है?” अर्जुन ने मुस्कुराते हुए कहा, “शायद वही, जो तुम सोच रही हो—कि सूरज कहां छुप जाता है जब हम उसे देखना सबसे ज़्यादा चाहते हैं।”

उस शाम अर्जुन घर लौटा तो बेहद थका हुआ था, लेकिन भीतर एक सुकून लिए। उसने अपनी नोटबुक में लिखा—“शब्द और फ्रेम दोनों तभी अर्थवान होते हैं जब वे किसी और की चुप्पी को आवाज़ दे सकें।” और इसी सोच के साथ उसने एक नया प्रोजेक्ट शुरू किया—“The Silent Portraits”—एक ऐसी फोटोग्राफ़ी श्रृंखला, जिसमें वह सिर्फ उन चेहरों को कैद करेगा, जिनकी कहानियां कभी कही नहीं गईं। अगले दो महीनों में वह कई वृद्धाश्रमों में गया, अस्पतालों के इंतज़ारघरों में बैठा, और रेलवे प्लेटफार्म पर उन चेहरों को ढूंढता रहा जो बोलते कम, झांकते ज़्यादा थे। हर फ्रेम के साथ उसकी आत्मा की घाटी और गहरी होती चली गई, और वह जान गया—लद्दाख की वो आखिरी चाय अब उसके जीवन की पहली अनुभूति बन चुकी थी। इन चेहरों को वह उस घाटी से जोड़ता, जहां उसने खुद को खोया और फिर पाया था। कभी-कभी एक बुढ़िया उसकी तस्वीर देखकर चुपचाप हँसती, कभी कोई बूढ़ा आह भरता और कहता—“बेटा, ये तस्वीर जैसे मेरी ज़िंदगी की परछाई है।” और यही थी अर्जुन की सबसे बड़ी विजय—कि अब उसकी तस्वीरें ‘विजुअल्स’ नहीं रहीं, वे संवाद बन चुकी थीं।

एक शाम, जब दिल्ली में पहली हल्की ठंड पड़ी, अर्जुन अपनी बालकनी में बैठा चाय पी रहा था। वही मिट्टी का प्याला, वही चाय की महक, और वही आत्मा की ऊष्मा। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। एक पार्सल आया था—लद्दाख से। खोलने पर उसमें एक लकड़ी की छोटी सी आकृति थी—एक लामा की मूर्ति, और साथ में एक छोटा सा नोट—“शब्दों से परे जो है, वही सबसे सच्चा होता है।” कोई नाम नहीं, कोई पता नहीं। लेकिन अर्जुन समझ गया—ये सोनम की ओर से था। एक बार फिर, बिना कहे सब कुछ कह दिया गया था। उसने उस मूर्ति को अपनी बालकनी के कोने में रख दिया, जहां सुबह की रोशनी सबसे पहले पड़ती थी। और उस रात, उसने एक नया ड्राफ्ट शुरू किया—रवीना को नहीं, खुद को। विषय था—“ज़िंदगी की दूसरी घाटी”। उसने लिखा, “पहली घाटी में मैंने तुम्हें खोया था, लेकिन दूसरी घाटी में मैंने खुद को पाया है। अब जो भी चाय पीता हूँ, उसमें तुम्हारा स्वाद नहीं, बल्कि मेरा सुकून घुला होता है।” और तभी, उसे लगा जैसे हवाओं में फिर से वही गूंज उठी हो—चाय की आखिरी भाप में आत्मा की पहली आहट। अब यात्रा रुकी नहीं थी, बस एक और मोड़ ले चुकी थी।

नौ

दिल्ली की हल्की ठंड अब धीरे-धीरे कंपकंपी में बदलने लगी थी। अर्जुन ने उस सुबह अपने कमरे की खिड़की खोलते ही देखा कि पेड़ों की शाखों पर कोहरा जम चुका है, जैसे मौसम ने भी किसी पुराने खत को पढ़कर मौन ओढ़ लिया हो। उसकी मेज़ पर खुली नोटबुक पर पिछली रात का लिखा आखिरी वाक्य अधूरा था—”शायद लौटना कभी जाना नहीं होता, बल्कि…”। अर्जुन को लगा, जैसे जवाब हवा में तैर रहा हो लेकिन पकड़ में नहीं आ रहा। उसी क्षण, मोबाइल की स्क्रीन चमकी। एक ईमेल आया था—लद्दाख के स्थानीय स्कूल से, जिसमें वह कभी सिर्फ एक फोटोग्राफर बनकर गया था, लेकिन किसी के लिए शायद कुछ और भी। ईमेल में लिखा था कि उनके स्कूल के बच्चों ने उसकी तस्वीरों और कहानियों पर आधारित एक ‘आर्ट वीक’ आयोजित किया है, और वे चाहते हैं कि वह समापन के दिन उपस्थित हो। अर्जुन ने पढ़कर खिड़की की ओर देखा, जैसे खुद से पूछ रहा हो—क्या अब फिर लौटने का समय आ गया है? और उसी पल उसे एहसास हुआ—अब लद्दाख उसके लिए कोई गंतव्य नहीं रहा, वह एक भाव बन चुका है, एक ऐसा हिस्सा जो उसके हर निर्णय, हर सोच में साँस लेता है।

फिर से पैकिंग करते समय अर्जुन की उंगलियाँ ठिठकीं जब उन्हें वह वही पुरानी रेशमी स्कार्फ़ मिली, जो सोनम ने उसे विदा के समय दिया था। वह हल्का हरा रंग अब कुछ और फीका हो गया था, लेकिन उसमें अब भी सोनम के स्पर्श की गरमाहट थी। अर्जुन ने उसे अपने बैग की सबसे ऊपर की परत में रखा, जैसे वह इस बार सिर्फ साथ नहीं ले जा रहा था, बल्कि लौटाते हुए कुछ अधूरा भी पूरा करना चाहता हो। फ्लाइट की टिकट, कैमरा, डायरी, सब कुछ जगह पर था, लेकिन इस बार अर्जुन के चेहरे पर कोई योजना नहीं थी—बस एक गहरी शांति थी, जैसी उस यात्री की जो जानता है कि उसे कहाँ जाना है, लेकिन रास्ते में क्या मिलेगा, यह नहीं। हवाई जहाज से नीचे झांकते हुए जब लद्दाख की बर्फीली चोटियां दिखीं, तो उसे लगा जैसे कोई पुराना दोस्त आंखों से मुस्कुरा रहा हो। वह जानता था—इस बार की यात्रा पिछली यात्रा जैसी नहीं होगी। वह अब रुकने नहीं, जुड़ने आया था। न कोई खोज थी, न कोई अंत। बस एक शाम थी, जो उसे फिर से लद्दाख में कुछ कहे बिना ही सब कह जाने वाली थी।

जब वह स्कूल पहुँचा, तो बच्चे दौड़ते हुए आए और उसकी तस्वीरों के आगे खड़े होकर अपनी कहानियाँ सुनाने लगे। एक लड़का बोला, “सर, ये वाली तस्वीर तो मेरी दादी जैसी लगती है।” एक लड़की ने कहा, “मैं भी ऐसी चाय की दुकान बनाना चाहती हूँ, जहाँ लोग आकर सुकून पाएं।” अर्जुन सुनता रहा, मुस्कुराता रहा, लेकिन भीतर एक हूक सी उठती रही—क्या वह इन बच्चों की तरह कभी खुद से इतना बेझिझक जुड़ पाया था? समापन समारोह के बाद सोनम आयी, उस हल्के भूरे ऊनी शॉल में, जो हर बार उसकी उपस्थिति को एक गंध की तरह बुन देता था। बिना कुछ कहे दोनों साथ बैठे। सामने पहाड़ थे, शाम की हल्की सुनहरी रेखा और एक पुरानी चाय की दुकान, जिसमें अब नया रंग चढ़ चुका था। सोनम ने धीरे से कहा, “तुम लौट आए, जानती थी। कुछ अधूरा बचा था न?” अर्जुन ने सिर हिलाया, और फिर स्कार्फ़ निकाला, वही हरा रंग जो अब भी कुछ कहता था। उसने धीरे से सोनम को लौटाया, लेकिन इस बार आँखों में कोई खेद नहीं था। सोनम ने लिया, मुस्कुराई, और कहा, “तुम जान गए हो। अब तस्वीरों से ज़्यादा ज़रूरी वो पल है जब आंखें बंद करके हम कुछ देख पाते हैं।” दोनों चुपचाप चाय की चुस्कियाँ लेते रहे, और पहाड़ों की खामोशी में जैसे एक नई भाषा बुनती रही।

शाम ढलने को थी, और स्कूल की छत पर आखिरी किरणों के बीच अर्जुन ने कैमरा निकाला। लेकिन इस बार उसने कोई तस्वीर नहीं ली। उसने कैमरा एक तरफ रखा और बस आँखें बंद कीं। उसके भीतर वह ईमेल फिर से गूंजा जो कभी भेजा नहीं गया, और वह फ्रेम जो कभी खींचा नहीं गया—अब वह सब अर्जुन का हिस्सा बन चुका था। लौटने से पहले की यह शाम कोई विदाई नहीं थी, यह एक आत्मा का अभिषेक था। जब वह रात को होटल लौटा, उसने अपनी डायरी में उस अधूरे वाक्य को पूरा किया—”शायद लौटना कभी जाना नहीं होता, बल्कि वहाँ पहुँच जाना होता है, जहाँ हम हमेशा से थे।” उसने कल की फ्लाइट की पुष्टि की, लेकिन अब यात्रा की दिशा उसके भीतर तय हो चुकी थी। बाहर की यात्रा महज़ प्रतीक थी। अब अर्जुन लौटते हुए भी एक नई दिशा में बढ़ रहा था। बालकनी की रेलिंग पर चाय की भाप उठी, और हवा में फिर से वही आहट थी—उस आखिरी चाय की जो शायद कभी आखिरी नहीं थी।

दस

सुबह की पहली किरण जब अर्जुन के कमरे की खिड़की पर पड़ी, तो उसकी आँखें वैसे ही खुल गईं जैसे किसी अंतर्मन की पुकार पर कोई ध्यान केंद्रित साधक जाग उठे। बाहर हिमालय की चोटियों पर हल्की धूप की परत चढ़ने लगी थी और नीचे घाटी में बादल चुपचाप बह रहे थे, जैसे समय का कोई पुराना गीत फिर से अपने सुर बुन रहा हो। यह उसकी इस यात्रा का अंतिम दिन था, लेकिन यह सिर्फ विदाई नहीं थी—यह एक अंतिम आलिंगन था उस भूमि का, जिसने उसे पहले खुद से परिचय करवाया और फिर जीवन की व्याख्या सिखाई। उसने धीरे-धीरे चाय का वही पुराना मिट्टी का प्याला उठाया, जो अब उसके लिए किसी अमृत पात्र से कम नहीं था। एक चुस्की भरते ही आँखें बंद हो गईं और वह वापस उसी जगह पहुंच गया, जहां पहली बार पहाड़ों की चुप्पी में उसे अपने भीतर की आवाज़ सुनाई दी थी। वह जानता था, इस चाय में अब किसी स्वाद की तलाश नहीं थी—यह अब स्मृति बन चुकी थी, एक रस जो हर धड़कन में घुल चुका था। इस यात्रा का अंत, दरअसल, एक नई यात्रा का प्रवेश द्वार था।

अर्जुन उस दिन थिकसे मठ के पास दोबारा गया, जहां उसकी सबसे पहली तस्वीरें ली गई थीं, और जहां पहली बार वह चाय की दुकान से टकराया था। लेकिन आज, दुकान पर कोई नहीं था। मिट्टी की दीवारें ज्यों की त्यों थीं, पर उसके भीतर की भावनाएं बदल चुकी थीं। उसने वही कोना ढूंढ़ा, जहाँ वह पहली बार सोनम से मिला था, और वहां बैठकर अपनी डायरी खोली। यह आखिरी फ्रेम के लिए नोट्स नहीं थे, यह उस पूरे सफर की आत्मकथा थी। उसने लिखा, “पहाड़ों से ज़्यादा ऊँचे कभी-कभी वो ख्याल होते हैं, जो हमें भीतर से बदल देते हैं। और कभी-कभी, एक चाय का प्याला ही जीवन का सबसे बड़ा उत्तर बन जाता है।” एक बुजुर्ग लामा वहीं से गुजर रहे थे। उन्होंने अर्जुन को देखा और बोले, “तुम फिर आए?” अर्जुन ने सिर हिलाया, और कहा, “मैं कहीं गया ही नहीं था। बस खुद के भीतर उतर रहा था।” लामा मुस्कराए और बोले, “तो आज आखिरी चाय पी लो। फिर जीवन की असली यात्रा शुरू होगी।” उन्होंने अपनी छोटी सी केतली से उसे एक प्याले में चाय दी, और अर्जुन ने महसूस किया, जैसे इस चाय में सारा लद्दाख समा गया हो।

शाम ढलते-ढलते अर्जुन मठ की छत पर बैठा था। कैमरा पास रखा था लेकिन वह अब सिर्फ एक साथी बन चुका था, ज़रूरत नहीं। उसने सामने फैले आकाश को देखा, जहां सूरज ढलते हुए पहाड़ों को एक आखिरी सुनहरा स्पर्श दे रहा था। तभी, सोनम आई—धीरे-धीरे, जैसे समय खुद एक स्मृति बन कर लौट रहा हो। वह चुपचाप बगल में बैठी, और दोनों ने एक साथ वही आखिरी चाय पी। सोनम ने बिना कुछ कहे, एक कपड़ा निकाला और अर्जुन के हाथ में रखा—वह वही पुराना स्कार्फ़ था, लेकिन इस बार उस पर कुछ उकेरा गया था। छोटे-छोटे तिब्बती अक्षरों में लिखा था: “जो नहीं कहा गया, वह भी तुम्हारे साथ चलता रहेगा।” अर्जुन की आँखें भीग गईं, पर इस बार आंसू दुख के नहीं थे। यह उस स्वीकृति के थे जो किसी यात्रा के पूर्ण होने पर मिलती है—जैसे किसी पर्वत की चोटी पर खड़े होकर हम यह नहीं पूछते कि और कितना ऊँच जाना है, बल्कि सिर्फ यह महसूस करते हैं कि हवा कितनी पवित्र हो गई है। सोनम ने कहा, “अब तुम लौट सकते हो। क्योंकि अब तुम लद्दाख को छोड़ नहीं रहे, तुम उसे साथ लेकर जा रहे हो।” अर्जुन ने सिर हिलाया, और चुपचाप पहाड़ों की तरफ देखा। उसके भीतर अब कोई शोर नहीं था—सिर्फ एक लहराती हुई शांति थी, जैसे आत्मा ने अपने पुराने सारे नक्शे जला दिए हों।

रात को जब वह होटल के कमरे में लौटा, तो उसने कैमरा बैग में नहीं रखा। उसने उसे वहीं टेबल पर छोड़ा, जैसे वह जानता था कि अब हर फ्रेम वह अपनी आंखों से नहीं, अपने अंतर्मन से खींचेगा। उसने चाय की आखिरी केतली चढ़ाई और डायरी में आखिरी पंक्तियाँ लिखीं: “यह यात्रा एक तस्वीर से शुरू हुई थी, और एक मौन में समाप्त हो रही है। लेकिन तस्वीरें कभी खत्म नहीं होतीं, वे हमारी साँसों में बस जाती हैं। और चाय? वह हर बार वही नहीं होती, लेकिन हर बार कुछ नया कह जाती है।” उसने मिट्टी का प्याला लिया, खिड़की खोली, और लद्दाख की सर्द हवा को गले लगाया। और जब पहली चुस्की ली, तो लगा जैसे पहाड़ों ने फिर से कहा हो—“तुम लौट सकते हो, अब तुम पूरे हो।” यही था वह अंतिम फ्रेम, वही अंतिम चाय—जो अब हमेशा के लिए उसके जीवन का हिस्सा बन चुकी थी।

समाप्त

 

 

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