Hindi - प्रेम कहानियाँ

लखनऊ की कहकशां

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समीरा आबरू


पुराना लखनऊ उस शाम कुछ और ही रौनक में डूबा हुआ था। चौक की हवेली, जिसकी मेहराबों में अब भी पुराने ज़माने की नवाबी झलकती थी, आज रोशनियों से नहा रही थी। झूमरों की सुनहरी चमक, दीवारों पर लटकते रंग-बिरंगे पर्दे और आँगन में बिछे मोटे क़ालीन, सब मिलकर माहौल को एक अदबी जन्नत बना रहे थे। पान और इत्र की ख़ुशबू हवाओं में घुली थी, और शेर-ओ-शायरी के शौक़ीन लोग धीरे-धीरे महफ़िल में अपनी जगह तलाश कर रहे थे। शेरों की दबी-दबी गुनगुनाहट, मुस्कुराहटों और आदाब के सिलसिले ने महफ़िल को पहले ही गर्म कर दिया था। हवेलीदार ने हर साल की तरह इस साल भी यह महफ़िल सजाई थी ताकि लखनऊ के अदब और तहज़ीब की परंपरा ज़िंदा रहे। मंच के पास, पीतल की जालीदार दीयों से उठती हल्की रोशनी में, एक-एक करके शायर अपना कलाम सुनाने आए। कोई ग़ज़ल पढ़ रहा था, कोई नज़्म सुनाता था, और हर शेर के बाद “वाह-वाह”, “माशाअल्लाह” की गूँज पूरे आँगन में फैल जाती। ज़ोया भी अपनी सहेलियों के साथ वहीं बैठी थी—शफ़्फ़ाक़ सफ़ेद लिबास में, नफ़ासत और शराफ़त की मिसाल, मगर आँखों में एक अलग बेचैनी। वह हर आवाज़, हर शेर को सुनती, मगर उसका दिल किसी अंजान तलाश में भटक रहा था।

इसी बीच, महफ़िल में एक नया नाम पुकारा गया—आरिफ़ मिर्ज़ा। एक दुबला-पतला नौजवान, सांवले चेहरे पर हल्की दाढ़ी, साधारण भूरे रंग की शेरवानी पहने, हिचकिचाते क़दमों से मंच की ओर बढ़ा। महफ़िल में बैठे लोग उसे देखने लगे, कुछ ने तंज़ कसा—“नए शायर भी आज़माए जा रहे हैं।” मगर उसकी आँखों में अजीब-सी चमक थी, जैसे अपने अल्फ़ाज़ पर पूरा भरोसा हो। मंच पर खड़े होकर उसने जब पहला शेर पढ़ा, तो महफ़िल में छाई हलचल अचानक थम गई। उसकी आवाज़ में गहराई थी, लफ़्ज़ों में दर्द और मोहब्बत का रंग घुला हुआ था। उसने कहा—“इश्क़ की राह में रोशन चिराग़ हूँ मैं,
ख़्वाब टूटे सही, मगर सच्चा हिसाब हूँ मैं।”
शेर खत्म होते ही हल्की खामोशी छा गई, फिर तालियों और “वाह-वाह” की गूँज उठी। लोग हैरान थे कि इतना गहरा कलाम एक नए शायर के लबों से कैसे निकला। आरिफ़ के अशआर एक-एक कर महफ़िल में बैठों के दिलों पर दस्तक देते रहे। हर शेर में मोहब्बत की तड़प, जुदाई का दर्द और उम्मीद की झलक थी। ज़ोया, जो अब तक नज़रें झुका कर सुन रही थी, अनायास ही उसकी ओर देखने लगी। उसकी आँखें पहली बार किसी शायर के अल्फ़ाज़ में अपना अक्स देखने लगीं। हर शब्द उसके दिल के बंद दरवाज़ों को खटखटाता था।

जब आरिफ़ ने अपना कलाम ख़त्म किया, तो महफ़िल तालियों से गूँज उठी। बुज़ुर्ग शायरों ने उसकी तारीफ़ की, और हवेलीदार ने मुस्कुरा कर इशारा किया कि यह नौजवान अब अदब की दुनिया में अपनी जगह बनाएगा। मगर इन सारी आवाज़ों से अलग, उस पल ज़ोया का दिल सबसे ज़्यादा तेज़ धड़क रहा था। वह अपने भीतर अनकहे एहसास को महसूस कर रही थी—जैसे उसकी रूह ने पहली बार अपनी तर्जुमा करने वाली आवाज़ पा ली हो। भीड़ के बीच से आरिफ़ की नज़र भी अनजाने में ज़ोया पर ठहर गई। नज़रों का वह टकराव कुछ पल का था, मगर उनमें सदियों का वादा छिपा था। महफ़िल में चारों ओर लोग बातें कर रहे थे, इत्र की खुशबू फैल रही थी, शेरों की गूंज गूँज रही थी, लेकिन ज़ोया और आरिफ़ के लिए उस शाम समय ठहर गया था। हवेली की वही महफ़िल उनकी कहानी की पहली सतर लिख गई—एक ऐसी मोहब्बत की सतर, जो आगे चलकर लखनऊ की गलियों में कहकशां बनकर चमकेगी।

हवेली की महफ़िल के शोर-गुल के बीच जब सब लोग आरिफ़ के अशआर पर तालियाँ बजा रहे थे, उस वक़्त ज़ोया की आँखें अनायास ही उसकी तरफ़ ठहर गईं। उसकी नज़रें चुपचाप, मगर गहरी तहों से आरिफ़ के चेहरे को पढ़ रही थीं। आरिफ़ मंच से उतरकर अपनी जगह पर लौट रहा था, मगर उसके क़दम जैसे भारी हो गए थे क्योंकि कहीं न कहीं वह भी इस अनजाने जज़्बात को महसूस कर रहा था। दोनों की आँखें भीड़ के बीच एक-दूसरे से मिलीं—न बहुत देर तक, न ही बहुत संक्षेप में, लेकिन उस छोटे से लम्हे में सदियों की पहचान छिपी थी। ज़ोया को ऐसा महसूस हुआ जैसे वह नौजवान शायर सिर्फ़ महफ़िल में शेर सुनाने नहीं आया था, बल्कि उसके दिल की उन ख्वाहिशों को आवाज़ देने आया था जिन्हें वह बरसों से दबाए बैठी थी। उसकी आँखों में एक ऐसा भरोसा था जो हवेली की ऊँची-ऊँची दीवारों और रिवाज़ों की ज़ंजीरों से परे था। ज़ोया ने सोचा—क्या यही वो आवाज़ है जो उसकी तन्हाई को तोड़ सकती है? क्या यही वो शख़्स है जिसकी नज़रों में वह खुद को बेपर्दा देख सकती है? और आरिफ़, जिसने अब तक अपने अल्फ़ाज़ से महफ़िल जीत ली थी, अचानक अपनी नज़रें ज़ोया के हुस्न और नफ़ासत में उलझा बैठा।

महफ़िल धीरे-धीरे अपने आख़िरी दौर में पहुँच रही थी। बुज़ुर्ग शायरों की नसीहतें, हवेलीदार की मेज़बानी और मेहमानों की चाय-पान की गुफ़्तगू हवा में घुल रही थी। लेकिन आरिफ़ और ज़ोया के लिए सब कुछ जैसे धुंधला हो गया था। हर तरफ़ आवाज़ें थीं मगर उनके कानों में बस वही नज़रें गूंज रही थीं। ज़ोया बार-बार अपनी सहेलियों की ओट से आरिफ़ की झलक तलाशती, और हर बार उसकी आँखें उससे टकरा जातीं। उन टकराती नज़रों में कोई बेहयाई नहीं थी, बल्कि एक अनकही मोहब्बत की इज़्ज़त थी—एक ऐसा एहसास जो लखनऊ की तहज़ीब के लिहाज़ से भी नया था और ग़ैर-मामूली भी। आरिफ़ की आँखें साफ़-साफ़ कह रही थीं कि वह सिर्फ़ शायर नहीं, बल्कि उसके ख़्वाबों का तर्जुमान है। और ज़ोया के दिल में पहली बार यह ख्याल आया कि शायद मोहब्बत किसी किताब का शेर नहीं, बल्कि एक ज़िंदा जज़्बा है जो अचानक सामने खड़ा हो सकता है। उसने अपने हाथ की उँगलियों को कसकर थामा ताकि उसकी धड़कनें बाहर न छलक जाएँ।

जब मेहमान जाने लगे और हवेली की रौनक धीरे-धीरे सिमटने लगी, ज़ोया ने आख़िरी बार पीछे मुड़कर आरिफ़ को देखा। आरिफ़ भी वहीं खड़ा था, जैसे किसी अनकही उम्मीद का इंतज़ार कर रहा हो। उनके बीच कोई अल्फ़ाज़ नहीं बोले गए, लेकिन नज़रों की उस ख़ामोश गुफ़्तगू ने बहुत कुछ कह दिया। ज़ोया को लगा मानो उसकी तन्हाईयों को आरिफ़ ने लफ़्ज़ों में ढाल दिया हो और अब उसे उसकी रूह तक पहुँचा दिया हो। उस रात हवेली की छत पर खड़े होकर जब ज़ोया ने आसमान की तरफ़ देखा, तो उसे तारों की कतारों में वही शेर सुनाई देने लगे जो आरिफ़ ने पढ़े थे। और आरिफ़, अपनी तंग गली के छोटे से कमरे में लेटा हुआ, ज़ोया की आँखों की गहराई को बार-बार याद करता रहा। न उसने नाम जाना, न उसने बात की, मगर दोनों को एक-दूसरे का एहसास ऐसे बाँध चुका था जैसे बरसों से यह रिश्ता अधूरा पड़ा हो और आज उसे नया जन्म मिला हो। लखनऊ की वह रात उनकी मोहब्बत की पहली दस्तक बन चुकी थी—जहाँ नज़रें ही अल्फ़ाज़ बन गईं, और अल्फ़ाज़ ही नसीब।

लखनऊ की उस हवेली का नक़्शा ही कुछ ऐसा था कि हर आने-जाने वाला ठहर कर देखे। ऊँचे-ऊँचे दरवाज़े, नक्काशीदार झरोखे, संगमरमर की सीढ़ियाँ और दीवारों पर टंगी बड़ी-बड़ी तस्वीरें जिनमें नवाबी ख़ानदान के पूर्वज अपनी शान-ओ-शौकत के साथ बैठे दिखाई देते थे। हवेली के भीतर का आँगन इतना बड़ा था कि उसमें छोटे-मोटे मेले जैसा माहौल रचाया जा सकता था। चारों ओर लगे मेहराबदार गलियारे और बीच में फव्वारे से निकलती पानी की धारा पूरे घर को ठंडक और नफ़ासत से भर देती। लेकिन इन सारी चकाचौंध के पीछे एक सख़्त अदबी और खानदानी परंपरा छुपी थी। नवाब सरफ़राज़ अली हवेली के मालिक ही नहीं, बल्कि इस पूरे माहौल के रखवाले भी थे। उनका मानना था कि इस घर की शान को बनाए रखना ही उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। यहाँ हर काम, हर अदब एक तयशुदा क़ायदे से होता था। औरतों का हिस्सा हवेली के भीतर की जुल्फ़कारियों तक सीमित था, जहाँ पर्दे की मोटी दीवारों ने उनकी आज़ादी को बाँध रखा था। इन सबके बीच ज़ोया, जो बाहर की दुनिया को देखने का सपना अपने दिल में पाले बैठी थी, अक्सर महसूस करती कि यह हवेली एक सुनहरा पिंजरा है—चमकदार, मगर आज़ादी से महरूम।

ज़ोया का कमरा हवेली के सबसे ऊँचे हिस्से में था, जहाँ से वह हज़रतगंज की गलियों का धुंधला नज़ारा देख सकती थी। कमरे की खिड़कियाँ बड़ी थीं लेकिन उन पर हमेशा भारी परदे लटके रहते थे, जैसे बाहर की रोशनी को भीतर आने से रोकते हों। उसके कमरे में खूबसूरत कालीन, नक्काशीदार पलंग, और शिफ़ॉन व रेशमी परिधानों से भरी अलमारियाँ थीं। मगर इन सबके बावजूद ज़ोया को हमेशा कुछ अधूरा महसूस होता। उसे लगता कि इन साज-सामानों की चमक उसकी तन्हाईयों पर परदा डालने की कोशिश कर रही है। उसके दिन अक्सर बुज़ुर्ग ख़ानदानियों की नसीहतें सुनने और क़ुरान की तिलावत करने में गुज़रते, जबकि उसकी रातें ख्वाबों और तन्हाई में कटतीं। वह ख्वाब जिनमें कभी दूर से सुनाई देती बाज़ार की चहल-पहल शामिल होती, कभी किसी ग़ैर की आवाज़। महफ़िल में आरिफ़ की शायरी सुनने के बाद तो उसकी बेचैनी और भी बढ़ गई थी। अब हर शाम उसे लगता मानो हवेली की ये मोटी दीवारें उसके कानों से उन अल्फ़ाज़ों को छीन रही हैं जिन्हें उसने एक बार सुना था और जिनमें उसने खुद को पाया था।

नवाब सरफ़राज़ अली अपनी बेटी की इस खामोशी को समझते तो थे, मगर उनका तरीका और था। उनके लिए बेटी का भविष्य सिर्फ़ इस बात से जुड़ा था कि उसकी शादी किसी और नवाबी ख़ानदान में हो जाए और खानदान की शान बरकरार रहे। अक्सर रात के खाने पर वह अपने भाइयों और रिश्तेदारों के साथ बैठते और पुरानी रिवायतों की बातें करते—कैसे उनके पूर्वजों ने अदब और तहज़ीब की मिसाल कायम की, कैसे उनकी शादियाँ हमेशा बड़े घरानों में हुईं। बेग़म सलमा, ज़ोया की वालिदा, उसके दर्द को महसूस करती थीं मगर हवेली की परंपरा से बंधी हुईं खुलकर उसका साथ नहीं दे पातीं। उन्हें डर था कि अगर उन्होंने ज़रा भी ज़ोया के हक़ में आवाज़ उठाई तो नवाब का ग़ुस्सा पूरे घर को हिला देगा। हवेली की ऊँची दीवारें यूँ तो बाहर की दुनिया को रोकने के लिए बनाई गई थीं, मगर असल में उन्होंने ज़ोया की रूह को कैद कर लिया था। हर सुबह जब वह खिड़की के बाहर झांकती, उसे लगता कि बाहर की दुनिया में उसकी पहचान कहीं छुपी बैठी है और बस वही उसे इस पिंजरे से बाहर निकाल सकती है। और जब रात को वही दीवारें उसके चारों तरफ़ सन्नाटा बुन देतीं, तब उसकी आँखों में आरिफ़ के शेर गूँज उठते—मानो वह अदृश्य डोर के सहारे हवेली की कैद से बाहर जाने का रास्ता खोज रही हो।

लखनऊ का चौक अपनी तंग गलियों और रौनक से भरा इलाक़ा था। दिन में यहाँ दुकानों की चहल-पहल, इत्र और कबाब की खुशबू, और रात को अंधेरे में भी हल्की-हल्की रौशनी में ज़िंदगी चलती रहती। इन्हीं गलियों में, जहाँ हर घर की छतें एक-दूसरे से सटी होतीं, वहीं एक छोटे से मकान में आरिफ़ मिर्ज़ा रहता था। उसका मकान बाहर से साधारण और टूटा-फूटा-सा दिखता था, लेकिन भीतर जाते ही एक अलग ही दुनिया सामने आ जाती। दीवारों पर चिपके हुए उर्दू अख़बारों के पुराने पन्ने, कोनों में रखी किताबों के ढेर और एक लकड़ी की टूटी मेज़ जिस पर उसकी डायरी और कलम हमेशा मौजूद रहती। उसका कमरा तंग था, मगर उन तंग चारदीवारियों में उसके ख़्वाब आसमान तक उड़ान भरते। अक्सर खिड़की से आती हवा के झोंके उसके कागज़ों को बिखेर देते, और वह हँसते हुए उन्हें समेट लेता—मानो तन्हाई में भी अपनी शायरी से दोस्ती निभा रहा हो। मोहल्ले के लोग उसे कभी-कभी पागल कहते थे—“दिन-रात बस किताबों में डूबा रहता है, इसे दुनिया-दारी की समझ ही नहीं”—लेकिन आरिफ़ जानता था कि उसका सच उन कागज़ों और अल्फ़ाज़ों में ही छुपा है।

उसकी इस साधारण ज़िंदगी में फ़ैसल सबसे बड़ा सहारा था। फ़ैसल, जो मोहल्ले में ही एक कपड़ों की दुकान चलाता था, अक्सर उसके कमरे में आकर बैठता और शायरी सुनकर तालियाँ बजाता। वह हँसते-हँसते कहता—“भाई, तेरी शायरी तुझे या तो बर्बाद करेगी या फिर मशहूर। बीच का रास्ता तेरे लिए बना ही नहीं है।” आरिफ़ इस बात पर मुस्कुरा देता, मगर दिल ही दिल में जानता था कि उसकी राह आसान नहीं। फ़ैसल अक्सर उसे सलाह देता कि अपनी शायरी को महफ़िलों तक सीमित न रख, बल्कि किताब की शक्ल दे। मगर आरिफ़ के पास इतना पैसा ही कहाँ था कि छपाई करा सके। उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी बेहद मामूली थी—सुबह किसी उस्ताद के पास लिखावट का काम कर लेना, दोपहर को मोहल्ले के बच्चों को पढ़ाना, और शाम ढलते ही फिर अपने कमरे में लौटकर कलम और कागज़ में डूब जाना। फ़ैसल उसके लिए मज़ाक़ में अक्सर कहता—“तू मोहब्बत और दर्द को ऐसे लिखता है मानो तेरी रगों में स्याही दौड़ रही हो।” मगर उसे ये भी डर था कि आरिफ़ की ये तन्हा मोहब्बत कहीं उसे दुनिया से दूर न कर दे।

उस रात, महफ़िल से लौटने के बाद आरिफ़ अपने कमरे में देर तक जागा रहा। उसकी डायरी में नये-नये शेर उतरते चले गए। लेकिन जब उसने कलम रखी, तो उसकी आँखों में बार-बार वही चेहरा तैरने लगा—सफ़ेद लिबास में बैठी वह लड़की, जिसकी आँखों में उसे एक अजीब-सा सुकून मिला था। उसने अपनी डायरी खोली और लिख डाला—“तेरी नज़र में देखा है जो अल्फ़ाज़ की चमक,
वो शेर बनकर मेरी रूह में उतर आई है।”
आरिफ़ की दुनिया अब सिर्फ़ किताबों और तन्हाई तक सीमित नहीं रही थी, उसमें किसी अजनबी की मौजूदगी शामिल हो चुकी थी। उसे एहसास हुआ कि अब उसकी शायरी सिर्फ़ दर्द का बयान नहीं, बल्कि उस चेहरे की तस्वीर भी है जिसे उसने पहली बार इतने गहराई से महसूस किया। बाहर चौक की गलियों में रात का सन्नाटा पसरा था, कभी-कभार किसी गली से गुज़रते रिक्शे की आवाज़ सुनाई देती थी, मगर उसके कमरे में काग़ज़ों की सरसराहट और कलम की खुरच अब भी जारी थी। फ़ैसल अगले दिन आते ही हँसकर बोला—“तेरी आँखें बता रही हैं कि तेरे दिल का आशियाना अब खाली नहीं रहा।” आरिफ़ ने मुस्कुरा कर कोई जवाब नहीं दिया, मगर उसके चेहरे पर साफ़ लिखा था कि चौक की इन तंग गलियों में भी उसने अपनी ज़िंदगी का सबसे हसीन रास्ता तलाश लिया है।

अध्याय 5 – छुपे हुए ख़त

ज़ोया की बेचैनी अब आँखों से निकलकर अल्फ़ाज़ में ढलने लगी थी। आरिफ़ को देखे बिना, उससे बात किए बिना उसका दिन अधूरा लगता, लेकिन वह जानती थी कि उनके हालात, उनका समाज और उनकी उम्र अभी उन्हें खुलकर एक-दूसरे के सामने इज़हार की इजाज़त नहीं देते। ऐसे में उसने काग़ज़ को अपना राज़दार बना लिया। वह देर रात, जब सब सो जाते, कमरे की मद्धम रोशनी में काग़ज़ पर अपने दिल के जज़्बात उकेरती—उसकी हँसी, उसकी आँखें, उसका लहजा, सब कुछ जैसे क़लम के ज़रिए ज़िंदा हो उठता। उन खतों में ज़ोया अपनी बेचैन मोहब्बत, अपने मासूम डर और अपने सपनों की तासीर लिखती। पहली बार जब उसने खत आरिफ़ तक पहुँचाया, उसके हाथ काँप रहे थे। एक तरफ़ डर था कि कहीं कोई देख न ले, और दूसरी तरफ़ दिल की धड़कनें इस उम्मीद से तेज़ थीं कि शायद आरिफ़ उसके लिखे अल्फ़ाज़ पढ़कर वही महसूस करेगा, जो वह कर रही है। आरिफ़ ने जब वह खत पढ़ा तो उसकी आँखें ठहर गईं—उसमें किसी और का लिखा शेर नहीं था, बल्कि ज़ोया के अपने अल्फ़ाज़ थे, मासूम और सच्चे। उसी पल उसे एहसास हुआ कि यह रिश्ता अब महज़ नज़रों की चोरी नहीं रहा, बल्कि अल्फ़ाज़ का एक सिलसिला बन चुका है।

धीरे-धीरे यह सिलसिला बढ़ने लगा। ज़ोया अब हर दूसरे दिन कोई न कोई खत आरिफ़ तक पहुँचाने का बहाना ढूँढ़ लेती। कभी किसी किताब के बीच छुपा कर, कभी किसी पुराने अख़बार की तह में, तो कभी फ़ैसल की शरारतों को नज़रअंदाज़ करते हुए चुपके से उसके बैग में डाल देती। आरिफ़ उन खतों को पढ़कर जैसे किसी और ही दुनिया में चला जाता। उसमें लिखा होता—“जब तुम अपनी किताबों में खोए रहते हो, मैं तुम्हें चुपचाप देखती हूँ। तुम्हें अंदाज़ा भी नहीं कि उस वक्त़ मेरी दुनिया कितनी ख़ूबसूरत हो जाती है।” या फिर—“तुम्हारी आँखें मेरी हर ख़्वाहिश का जवाब हैं, काश तुम समझ पाते।” इन मासूम ख़तों ने दोनों के दिलों के बीच एक पुल बना दिया था, एक ऐसा पुल जहाँ समाज की सरहदें, घर-परिवार के डर और वक्त़ की बंदिशें सब बेअसर हो जाते। आरिफ़ भी अब जवाब लिखने लगा, लेकिन उसके खत शायरी और तंज़ से भरे होते। वह लिखता—“तेरे अल्फ़ाज़ तेरा चेहरा दिखाते हैं, और तेरा चेहरा मेरी तन्हाई का इलाज है।” कभी वह शरारत में लिख देता—“अगर कोई तुझे पढ़ ले तो मेरा क्या होगा?” और ज़ोया उन पंक्तियों को पढ़कर हँसती, शरमाती और फिर अगले खत में उसकी शिकायत करती।

यह खतों का सिलसिला धीरे-धीरे उनके रिश्ते की धड़कन बन गया। अब यह सिर्फ़ चुपचाप नज़रों का मिलना या रास्तों पर अचानक से टकरा जाना नहीं था, बल्कि एक गहरी समझ और इज़हार का रिश्ता था। इन ख़तों ने उनके दिलों को बेबाक बना दिया, उन्हें एक-दूसरे से कहने की हिम्मत दी जो वह सामने होकर कभी नहीं कह पाते। दोनों अपने-अपने कमरे में बैठकर, खत पढ़ते हुए, जैसे एक-दूसरे के पास ही होते। यह मोहब्बत अल्फ़ाज़ के सहारे खिलने लगी, और उन अल्फ़ाज़ ने उन्हें एहसास कराया कि उनके बीच का रिश्ता अब साधारण नहीं रहा। ज़ोया के लिए खत लिखना एक इबादत की तरह हो गया था, और आरिफ़ के लिए उन खतों को पढ़ना किसी शेर की तरह—जिसे बार-बार दोहराया जाए, हर लफ़्ज़ को महसूस किया जाए। मोहब्बत अब उनकी रगों में उतर चुकी थी, और यह छुपे हुए खत दोनों के लिए एक ऐसा राज़ बन गए थे, जिसे सिर्फ़ वही जानते थे। यह मोहब्बत नाज़ुक भी थी और मज़बूत भी—नाज़ुक इसलिए कि अगर किसी को पता चल गया तो तुफ़ान आ सकता था, और मज़बूत इसलिए कि यह अब उनके अल्फ़ाज़ में हमेशा के लिए दर्ज हो चुकी थी।

शहर की हवा में अचानक एक अजीब-सी सरगोशी घुलने लगी थी। पहले तो कुछ फुसफुसाहटें सिर्फ़ महफ़िलों के कोनों में सुनी गईं, फिर धीरे-धीरे वो बातें चौराहों और बाज़ारों तक फैल गईं। लोग कहने लगे कि नवाब सरफ़राज़ अली की बेटी, ज़ोया, का रिश्ता उस ग़रीब शायर आरिफ़ से है, जो अपनी ग़ज़लों और नज़्मों से दिलों पर राज़ तो करता था मगर ख़ुद मुफ़लिसी की ज़ंजीरों से बंधा था। हर नुक्कड़ पर यही चर्चा थी—“क्या ये इज़्ज़तदार खानदान की नवाबज़ादी किसी ऐसे इंसान से दिल लगा सकती है, जिसके पास दौलत नहीं, शानो-शौकत नहीं?”। घर के नौकरों के कानों में भी ये फुसफुसाहटें गूंजने लगीं, और जब बातें महल की चौखट तक पहुँच गईं तो वहाँ का सन्नाटा और गहरा हो गया। ज़ोया ने कभी अपने जज़्बात का इज़हार ज़ुबानी नहीं किया था, मगर खतों की दुनिया अब उनके रिश्ते का सच बन चुकी थी, और समाज की नज़रें इस सच को पकड़ चुकी थीं। ज़ोया हर शाम आईने में अपना चेहरा देखती और सोचती कि क्या वाक़ई मोहब्बत गुनाह है, या गुनाह सिर्फ़ इस बात का है कि उसने दिल उस इंसान को दिया जो ताज-ओ-तख़्त का वारिस नहीं?

नवाब सरफ़राज़ अली तक जब यह ख़बर पहुँची तो उनके चेहरे पर हैरत और ग़ुस्से की लकीरें साफ़ झलकने लगीं। उनके लिए यह सिर्फ़ एक बेटी का मामला नहीं था, बल्कि उनकी इज़्ज़त, उनका ख़ानदानी रुतबा, और पूरे शहर में उनकी शानो-शौकत का सवाल था। उन्होंने ज़ोया को अपने कमरे में बुलवाया, और जब उसने शर्मीली नज़रों से सिर झुकाकर बाप की ओर देखा, तो उनके दिल में एक अजीब-सी कसक उठी। मगर ग़ुस्से ने उस कसक को कुचल डाला। उन्होंने सख़्त आवाज़ में कहा—“ज़ोया, क्या ये सच है कि तुम उस शायर से खत लिख-लिखकर बातें करती हो? क्या तुम्हें अंदाज़ा है कि लोग हमारे बारे में क्या कह रहे हैं?”। ज़ोया की आँखों में आँसू छलक आए, मगर उसने चुप रहना बेहतर समझा, क्योंकि उसकी ख़ामोशी ही उसके इकरार की निशानी बन गई। नवाब का ग़ुस्सा और बढ़ गया। उन्होंने हुक्म दिया कि अब से ज़ोया महल से बाहर नहीं जाएगी, न महफ़िलों में, न बग़ीचों में, और न ही हवेली की ऊँची दीवारों के पार उसकी परछाई भी किसी को दिखाई देगी। साथ ही, ज़ोया की सारी चिट्ठियाँ और किताबें ज़ब्त कर ली गईं, मानो मोहब्बत को अल्फ़ाज़ से काट देना ही उसका इलाज हो।

ज़ोया के लिए ये पाबंदियाँ किसी कैद से कम नहीं थीं। हवेली की ऊँची-ऊँची दीवारें उसे अब किसी जेल के शिकंजे की तरह लगने लगीं। वो हर शाम खिड़की से बाहर झाँकती, जहाँ कभी आरिफ़ का साया नज़र आता था, जहाँ कभी वो हवा के झोंकों में उसके खतों की ख़ुशबू महसूस करती थी, मगर अब सब वीरान था। शहर की अफ़वाहें रुकने का नाम नहीं ले रही थीं, बल्कि अब और ज़ोर पकड़ रही थीं। लोग कहते थे कि मोहब्बत की आग जितनी दबाई जाए, उतनी ही भड़कती है। ज़ोया की खामोशी और आरिफ़ की तन्हाई दोनों ही इस आग को और गहरा कर रहे थे। समाज की ये दस्तक महज़ कानाफूसी नहीं थी, बल्कि एक ऐसी दीवार थी जो दो दिलों के बीच खड़ी कर दी गई थी। मगर ज़ोया के दिल के किसी कोने में अब भी यक़ीन था कि मोहब्बत अल्फ़ाज़ या रस्म-ओ-रिवाज की मोहताज़ नहीं होती। चाहे हवेली की सलाखें कितनी ही मज़बूत क्यों न हों, उसका दिल अब भी खतों के उन अल्फ़ाज़ को बार-बार दोहराता था—“इश्क़ कभी कैद नहीं होता।”

ज़ोया ने बरसों से अपने वालिद की नज़रों में हमेशा वही आज्ञाकारी, पर्दानशीन बेटी की छवि बनाए रखी थी, जो समाज और खानदान की हर रीति को सिर झुकाकर स्वीकार करती रही। लेकिन उस रात जब हवेली के लंबे, ऊँचे गलियारों में कदमों की आहट गूँजी, तो उस आहट के साथ ज़ोया के दिल में एक अजीब हिम्मत ने जन्म लिया। नवाब सरफ़राज़ अली अपनी भारी-भरकम शान के साथ दरबार के कमरे में बैठे थे, जब ज़ोया ने पहली बार उनकी आँखों में सीधे देखकर कहा—“अब्बा जान, मोहब्बत नसल और खानदान की दीवारों से कहीं ऊँची है।” ये लफ़्ज़ कमरे की ख़ामोशी को चीरते हुए निकले थे, जैसे किसी कैदखाने में अचानक दरवाज़ा टूट जाए। नवाब ने हैरत और ग़ुस्से से भरपूर नज़रों से अपनी बेटी की तरफ़ देखा। उनके लिए ये एक बग़ावत थी, वो बग़ावत जो न सिर्फ़ खानदान की इज़्ज़त को चुनौती देती थी बल्कि उनकी सदियों पुरानी सोच को भी। ज़ोया की आवाज़ काँप नहीं रही थी, बल्कि उसमें वही ठहराव और दृढ़ता थी जो किसी कवि की पंक्तियों में होती है। उसने साफ़ कहा कि उसकी मोहब्बत रूहानी है, किसी इंसान की औलाद, उसका मक़ाम या उसका दर्जा मोहब्बत की कसौटी नहीं हो सकते। ये जुमले सुनते ही नवाब का चेहरा तमतमा गया। उनके माथे पर नसें उभर आईं और उनकी भारी आवाज़ हवेली की दीवारों से टकराकर गूँजने लगी—“ज़ोया! तुम हमारी बेटी होकर हमें आँखें दिखा रही हो? तुम्हें लगता है तुम्हारी यह हिम्मत इस खानदान की नींव हिला सकती है?” लेकिन ज़ोया अब रुकने वाली नहीं थी। उसने एक-एक शब्द तौलकर कहा कि अगर मोहब्बत को क़ैद कर दिया जाए, तो वह मोहब्बत नहीं, ज़ुल्म होती है। ये सुनकर नवाब की आँखों में आक्रोश की लपटें भड़क उठीं, जैसे सदियों की इज़्ज़त को किसी नादान हाथ ने धक्का दे दिया हो।

नवाब सरफ़राज़ अली का ग़ुस्सा अब काबू से बाहर था। उन्होंने पहली बार महसूस किया कि उनकी इकलौती बेटी उनकी तमाम ताक़त और हुक्मरानी को चुनौती दे रही है। हवेली के हर कोने में खबर पहुँच चुकी थी कि नवाब और उनकी बेटी के बीच ज़ुबानी जंग छिड़ चुकी है। ख़ानदान की बुज़ुर्ग औरतें और नौकर-चाकर चौकन्ने होकर दरवाज़े के पास कान लगाए खड़े थे। नवाब ने ऊँची आवाज़ में कहा, “हमारा खानदान कभी किसी ग़रीब शायर को दामाद नहीं बनाएगा। तुम्हारी शादी हमारी मर्ज़ी से होगी, और वो भी ऐसे नवाबी ख़ानदान में जो हमारी इज़्ज़त को और बुलंद करेगा।” ज़ोया ने आँसुओं को आँखों से बाहर गिरने नहीं दिया। उसका चेहरा सख़्त और सीधा था, मगर उसकी आँखों में मोहब्बत की सच्चाई और अपने इरादे की आग साफ़ झलक रही थी। वह जानती थी कि उसके वालिद का ग़ुस्सा महज़ उनका ग़ुरूर है, जो उन्हें मोहब्बत की सच्चाई से दूर रख रहा है। लेकिन नवाब ने उसी पल एलान कर दिया कि अगले महीने की चाँद रात पर ज़ोया की निकाह एक और नवाबी ख़ानदान में तय कर दी जाएगी। ये फ़ैसला ज़ोया के दिल पर किसी खंजर की तरह चुभ गया। उसे लगा जैसे उसकी रूह से मोहब्बत का हक़ छीन लिया जा रहा हो। हवेली के बड़े-बड़े झूमर उस रात और ज़्यादा भारी लगने लगे, और कमरे की दीवारें और तंग। ज़ोया ने पहली बार महसूस किया कि हवेली की ऊँची दीवारें उसकी मोहब्बत की सबसे बड़ी दुश्मन बन चुकी हैं। पर इस सबके बावजूद, उसकी आँखों में हार नहीं थी—बल्कि बग़ावत की चिंगारी और तेज़ जल रही थी।

रात गहराने लगी थी। आसमान में बादलों की मोटी परतें थीं, और हवेली के बाहर बाग़ में खामोश चिराग टिमटिमा रहे थे। ज़ोया अपने कमरे में लौट आई, लेकिन उसका दिल अब किसी बंद कमरे में कैद होने को तैयार नहीं था। उसने आईने में अपनी परछाईं को देखा, और उसके होंठों से अनायास निकला—“मोहब्बत खून के रिश्तों और अमीर-ग़रीब की दीवारों से बड़ी है। अगर मुझे अपने वालिद के खिलाफ़ खड़ा होना पड़े, तो मैं खड़ी रहूँगी।” उस लम्हे में ज़ोया एक नाज़ुक बेटी से एक मज़बूत औरत में बदल चुकी थी। उसकी आँखों से बहते आँसू अब कमजोरी के नहीं, बल्कि ताक़त के थे। उसे एहसास हुआ कि मोहब्बत सिर्फ़ एक अहसास नहीं, बल्कि एक जंग है—जिसे जीतने के लिए हिम्मत और इरादे चाहिए। हवेली के हर कोने में फैली अफवाहें अब और तेज़ होने वाली थीं, क्योंकि नवाब की बेटी ने खुलेआम अपने दिल की आवाज़ को इज़हार कर दिया था। लेकिन ज़ोया जानती थी कि अब पीछे लौटने का रास्ता नहीं है। उसका दिल मोहब्बत की राह पर निकल पड़ा था, और इस राह पर न खून की दीवारें मायने रखती थीं, न खानदान की इज़्ज़त। रात की ख़ामोशी में उसने अपने दिल पर हाथ रखकर क़सम खाई कि चाहे जितनी मुश्किलें आएँ, चाहे कितने ही तूफ़ान उठें, वह अपनी मोहब्बत को हर हाल में साबित करेगी। और इसी क़सम के साथ हवेली की ऊँची दीवारों के भीतर एक नयी सुबह का आग़ाज़ होने वाला था—जिसमें एक बेटी अपने वालिद से, और एक रूह अपनी तक़दीर से, जंग लड़ने को तैयार थी।

लखनऊ की रात में एक अजीब-सा सन्नाटा पसरा हुआ था, जैसे सदियों पुराने महलों और इमामबाड़े की दीवारें अपने भीतर की हज़ार कहानियाँ दबाए खड़ी हों। संकरी गलियों में टिमटिमाते दीयों और कभी-कभार गुज़रते फ़ानूसों की रोशनी उस रात को और भी रहस्यमय बना रही थी। ज़ोया अपने महल से निकलते वक़्त दिल की धड़कनों को जैसे हथेलियों में दबा रही थी। पायल की छनक उसने पहले ही उतार दी थी ताकि कोई आहट न सुने। दुपट्टे को मज़बूती से सर पर खींचे हुए, वह उन तंग गलियों से गुज़र रही थी जहाँ हर मोड़ पर उसे डर था कि कोई उसका राज़ जान लेगा। आरिफ़ पहले से इमामबाड़े के पिछवाड़े, एक पुराने दरवाज़े के पास उसका इंतज़ार कर रहा था। जब उसकी आँखें अंधेरे में ज़ोया की छवि से टकराईं तो उसका दिल तेज़ी से धड़क उठा, मगर उसी धड़कन में बिछड़ने का ख़ौफ़ भी शामिल था। दोनों चुपचाप कुछ पल तक एक-दूसरे को देखते रहे, जैसे नज़रें ही सारी बातें कह देना चाहती हों। रात का माहौल, हवा में घुली चंदन और मिट्टी की ख़ुशबू, दूर से आती अजानों की हल्की गूंज—सब कुछ उस पल को और भी भारी बना रहा था।

ज़ोया ने काँपती आवाज़ में कहा, “आरिफ़, अब और छुप-छुपकर जीना कितना मुश्किल हो गया है। अब्बा ने मेरा निकाह नवाबी खानदान में तय कर दिया है। मैं कैसे उन्हें बताऊँ कि मोहब्बत कोई सौदा नहीं है, जिसे ख़ानदानों के तराज़ू पर तोला जाए।” उसकी आँखें भर आईं, और आरिफ़ ने आगे बढ़कर उसके हाथों को पकड़ लिया। “ज़ोया, मोहब्बत दीवारों से बड़ी होती है, लेकिन हालात… हालात हमेशा हमारे ख़िलाफ़ क्यों खड़े हो जाते हैं?” उसने गहरी साँस ली, और उस अंधेरे में उसकी आँखों में जलती बेचैनी साफ़ नज़र आई। दोनों के बीच खामोशी का समंदर था, जिसमें सिर्फ़ उनकी साँसों की आवाज़ गूँज रही थी। ज़ोया ने सिर झुकाकर कहा, “अगर हम जुदा हो गए तो मेरी रूह कभी चैन नहीं पाएगी।” आरिफ़ ने उसके माथे को छूकर कहा, “मोहब्बत जिस्म की क़ैद से नहीं रुकती, ज़ोया। अगर तक़दीर हमें मिलाना चाहेगी, तो कोई ताक़त हमें जुदा नहीं कर सकती।” मगर उस पल दोनों ही जानते थे कि तक़दीर से लड़ना आसान नहीं। इमामबाड़े की दीवारों की परछाइयाँ जैसे उनके इश्क़ का मज़ाक़ उड़ा रही थीं। उनकी नज़रें उस अंधेरे में बार-बार पूछ रही थीं—क्या मोहब्बत सिर्फ़ यादों में क़ैद रह जाएगी?

रात ढल रही थी, और हर बीतता लम्हा उन्हें जुदाई के क़रीब धकेल रहा था। ज़ोया ने काँपते होंठों से कहा, “अगर ये हमारी आख़िरी मुलाक़ात है तो मुझे अपने सीने से लगा लो।” आरिफ़ ने बिना कुछ कहे उसे अपनी बाँहों में भर लिया। उस आलिंगन में सारी बग़ावत, सारा दर्द और सारी मोहब्बत समा गई। उनके चारों ओर सन्नाटा था, मगर उनके दिलों में तूफ़ान उठ रहा था। ज़ोया को लग रहा था कि यही पल उसकी पूरी ज़िंदगी है, और इसके बाद सब कुछ ख़त्म हो जाएगा। दूर से आती बारहख़ाने की घड़ी की आवाज़ ने उन्हें जैसे याद दिला दिया कि समय किसी का इंतज़ार नहीं करता। दोनों ने एक-दूसरे को ऐसे थामा, जैसे छूट जाने से पहले आख़िरी बार कोई अपनी पूरी ताक़त लगा दे। जब उन्होंने अलग होना चाहा तो नज़रों ने नज़रें पकड़ लीं, हाथों ने हाथ छोड़े नहीं। मगर हालात का बोझ इतना भारी था कि आख़िरकार ज़ोया को पीछे हटना पड़ा। वह आँसू पोछते हुए बोली, “अगर ज़िंदगी ने हमें जुदा कर दिया तो मेरी रूह हमेशा तुम्हारे नाम रहेगी।” आरिफ़ ने उसकी ओर देखते हुए कहा, “और मैं हर दुआ में तुम्हारा नाम लूँगा।” फिर दोनों अलग दिशाओं में बढ़ गए, मगर उनके कदम जैसे ज़मीन से चिपकते जा रहे थे। उस रात इमामबाड़े की दीवारें उनके गुपचुप इज़हार और मजबूरी की गवाह बनीं—एक ऐसी रात, जो मोहब्बत की सबसे हसीन और सबसे दर्दनाक जुदाई की रात साबित हुई।

लखनऊ की उस शाम का रंग कुछ अलग ही था। चौक की गलियों से होकर जब लोग उस पुरानी हवेली में बनी महफ़िल की तरफ़ बढ़ रहे थे, तो हर किसी के चेहरे पर उम्मीद और ताज्जुब दोनों ही सवार थे। कहते थे कि आरिफ़ ने लंबे अरसे बाद इस महफ़िल में शिरकत का वादा किया है। शहर के अदब-पसंद लोग जानते थे कि उसकी शायरी महज़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि दिल के टुकड़े हुआ करते थे। वही आरिफ़, जो अब महज़ अपने ग़म का मुसाफ़िर बन चुका था, आज आख़िरी बार अपने अल्फ़ाज़ों को दुनिया के सामने पेश करने वाला था। हवेली के आँगन में रौशनी की लड़ियाँ टंगी थीं, संगीन गंध में भीगी इत्र की खुशबू हवा में तैर रही थी, और चारों तरफ़ मख़मली गद्दों पर बैठे लोग बेसब्री से उसकी राह देख रहे थे। जैसे ही आरिफ़ ने हल्के सफ़ेद कुर्ते और काली शॉल में दाख़िल होकर माइक के पास जगह ली, सारा हॉल खड़ा होकर उसकी तारीफ़ में तालियाँ बजाने लगा। मगर उसके चेहरे की झील सी आँखों में जो वीरानी थी, वह किसी ने नज़रअंदाज़ नहीं की। वह बैठा, हल्का-सा मुस्कुराया, और बोला—“दोस्तों, आज ये अल्फ़ाज़ महज़ महफ़िल की ज़ीनत नहीं, मेरी रूह का आख़िरी साया हैं।” यह सुनते ही श्रोताओं की सांसें थम गईं, और सन्नाटे की चादर बिछ गई।

आरिफ़ ने जब अपनी पहली ग़ज़ल का मतला पढ़ा, तो उसमें इश्क़ का दर्द, जुदाई की पीड़ा और उन रातों की स्याही उतर आई, जिन्हें वह ज़ोया के नाम करता रहा था। उसका हर शेर चुभती हुई तलवार की तरह सीधे दिलों में उतरता चला गया। लोग समझ रहे थे कि यह महज़ शायरी नहीं, बल्कि उसके जीते-जागते ज़ख़्म हैं, जो अल्फ़ाज़ों के बहाने लहू की तरह टपक रहे हैं। जब उसने पढ़ा—“मिल न सका तुझसे तो क्या, दिल की महफ़िल तो आबाद है, / हर धड़कन तेरा नाम ले, चाहे ये दुनिया बर्बाद है,”—तो श्रोताओं की आँखें भर आईं। मगर आरिफ़ ख़ुद पत्थर-सा शांत बैठा रहा, उसकी निगाहें मानो महफ़िल में मौजूद न होकर कहीं उस वीरान इमामबाड़े की दीवारों पर टिकी थीं, जहाँ वह और ज़ोया आख़िरी बार मिले थे। श्रोताओं की तालियाँ गूँज रही थीं, लेकिन उन तालियों में भी उसके लिए मातम की दस्तक थी। वह बार-बार सिर झुकाता, और हर शेर के साथ उसके लहजे की थरथराहट बढ़ती जाती। मानो वह ख़ुद से ही जंग लड़ रहा हो—ज़ोया के नाम को ज़ुबां पर लाने की चाह और हालात की बेड़ियों के बीच।

महफ़िल के आखिर में जब उसने अपना आख़िरी शेर सुनाया, तो वहाँ मौजूद हर शख़्स जान गया कि यह एक शायर की अलविदा है। उसकी आवाज़ भारी थी, मगर अल्फ़ाज़ तीर की तरह सीधे निकलते चले गए। उसने कहा—“अब न होगी कोई महफ़िल, न कोई ग़ज़ल सुनाऊँगा, / जो लिखा था तेरा नाम लेकर, उसी को ख़ाक बनाऊँगा।” इन अल्फ़ाज़ों ने महफ़िल में बैठे हर दिल को तोड़ दिया। कुछ लोग ज़ोर-ज़ोर से रो पड़े, कुछ ने चेहरों पर रूमाल रख लिया, और कुछ की आँखों में बस ख़ामोश आँसू थे। मगर आरिफ़ ने किसी की तरफ़ न देखा। उसने बस अपना दीवान बंद किया, सिर झुकाकर सलाम किया और धीमे क़दमों से उस भीड़ से निकल गया। उसकी पीठ को जाते हुए देखकर सबको लगा जैसे कोई सूरज अस्त हो गया हो, और अब यह शहर उसकी रौशनी से महरूम हो गया है। बाहर हवेली की सीढ़ियों पर ठंडी हवा बह रही थी, और उसी हवा में उसकी शायरी के वो आख़िरी शेर तैरते हुए लखनऊ की गलियों में हमेशा के लिए गुम हो गए। महफ़िल ख़त्म हुई, मगर वह रात, वह शेर और वह जुदाई सबके दिलों में एक अनसुनी दास्तान की तरह हमेशा जिंदा रह गए।

ज़ोया की शादी के दिन लखनऊ की हवेली रौशनियों से नहा उठी थी। बारात की शोरगुल, ढोल-ताशे की गूंज, और मेहमानों की रौनक के बीच ज़ोया का दिल किसी वीराने की तरह सूना था। सज-धज कर बैठे हुए भी उसके चेहरे पर मुस्कान की जगह गहरी खामोशी थी। मेहंदी से सजी हथेलियों पर नाम तो उसके शौहर का लिखा था, मगर दिल की गहराइयों में सिर्फ़ आरिफ़ की यादें उकेरी हुई थीं। निकाह की रस्में पूरी होने के बाद जब सबने दुआओं में उसके लिए खुशियों की मांग की, उसी वक़्त ज़ोया की आँखें भीड़ में किसी को तलाश रही थीं—शायद एक आख़िरी बार आरिफ़ को देखने की ख्वाहिश अब भी बाकी थी। लेकिन आरिफ़ वहाँ नहीं था, क्योंकि वो शहर छोड़ चुका था। कहा जाता है, उसने चुपचाप अपना सामान बाँधा और आधी रात को लखनऊ की गलियों से गुज़रते हुए सफ़र पर निकल पड़ा, जैसे कोई परिंदा अपने टूटे घोंसले से दूर आसमान की ओर उड़ गया हो। ज़ोया ने अपने कंधों पर नई ज़िम्मेदारियों की चादर ओढ़ ली, मगर उसके दिल की तन्हाई को कोई समझ न पाया।

दूसरी तरफ़ आरिफ़ का जाना किसी हार की तरह नहीं था, बल्कि उसकी मोहब्बत का सबूत था। उसने अपने दिल के जख्म को शायरी में बदल दिया, और जहाँ भी गया, उसकी ग़ज़लें, उसके शेर, और उसकी तन्हा आवाज़ में पढ़ी हुई नज़्में लोगों के दिलों में बसती चली गईं। मगर लखनऊ उसका असली आशियाना था। शहर की हवाओं में उसकी लिखी ग़ज़लों की खुशबू आज भी घुली हुई थी। चायख़ानों की मेज़ों पर बैठे नौजवान उसकी तहरीरों को पढ़ते और गुनगुनाते, गलियों के नुक्कड़ों पर उसकी आवाज़ की गूंज सुनाई देती, और पुराने मुहल्लों की दीवारों पर चिपके पोस्टरों में उसके शेर किसी बेआवाज़ चीख़ की तरह अमर हो गए थे। लोग कहते थे कि आरिफ़ लखनऊ को छोड़ गया है, लेकिन उसकी रूह इन गलियों में घूमती रहती है। वहीं ज़ोया, अपनी नई ज़िंदगी में कदम दर कदम बढ़ाते हुए, जब भी आईने में खुद को देखती, तो उसे आरिफ़ की नज़्में याद आतीं। उसकी आँखों में अब भी वही तलाश थी—एक ऐसी तलाश जिसका जवाब शायद खुद ज़ोया भी नहीं जानती थी।

समय बीतता गया, मौसम बदलते रहे, हवेली में बच्चों की किलकारियाँ गूंजने लगीं, मगर ज़ोया के दिल की तन्हाई कभी पूरी तरह से मिट न सकी। आरिफ़ का नाम उसके लबों पर कभी नहीं आया, लेकिन उसकी याद उसकी आँखों की नमी से झलकती रही। ज़ोया को एहसास हुआ कि मोहब्बत का मतलब हमेशा मिलन नहीं होता; असली इश्क़ वो है जो दिल के आसमान पर कहकशां बनकर चमकता रहे। आरिफ़ भले ही दूर चला गया था, मगर उसकी मोहब्बत ने लखनऊ की रातों को रौशन कर दिया। जब-जब पुरानी गलियों में शाम ढलती और आसमान पर तारे जगमगाते, तो लगता कि कहकशां में आरिफ़ और ज़ोया की मोहब्बत झिलमिल कर रही है। कहानी यहीं थम जाती है—इस सच्चाई के साथ कि उनका इश्क़ किसी अंजाम तक न पहुँचा, लेकिन उनकी रूहानी मोहब्बत लखनऊ की फिज़ाओं में हमेशा जिंदा रहेगी, जैसे हर चमकते तारे में उनकी याद की रोशनी कैद हो।

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