श्रुति चौहान
भाग 1: चेहरा जो पहचाना सा था
“नेहा, अगला क्लाइंट आया है,” रिया की असिस्टेंट ने धीरे से कहा।
नेहा माथे पर हल्की लटों को पीछे सरकाते हुए ब्रश को मेज पर रखा। बड़ी स्क्रीन पर चेहरा फोकस करते-করते वो थक चुकी थी, लेकिन हर दिन की तरह, आज भी मेकअप उसका ध्यान बँटा देता था। वो चेहरे पढ़ सकती थी—रंग, बनावट, और सबसे अहम—उनमें छुपे भाव।
“नाम?” नेहा ने पूछा।
“सिया,” असिस्टेंट बोली।
नाम सुनते ही उसके हाथ की मसल हल्का सा कांप गई। उसने अनदेखा किया। सिया—कितना आम सा नाम है। लेकिन क्या हर आम नाम के पीछे कोई अनकहा किस्सा नहीं होता?
जब सिया कमरे में दाख़िल हुई, नेहा ने तुरंत उसकी आंखों की ओर देखा। बड़ी-बड़ी भूरी आंखें, लेकिन उनमें कोई डर या शर्म नहीं थी—बल्कि एक अजीब किस्म की शांति थी। वो चुपचाप आकर कुर्सी पर बैठ गई।
“क्या लुक चाहिए?” नेहा ने प्रोफेशनल लहजे में पूछा।
सिया ने बिना मुस्कुराए कहा, “कुछ ऐसा जो पहचान छुपा सके, लेकिन खुद को महसूस कराए।”
नेहा हल्का सा मुस्कराई। ये कोई नई मांग नहीं थी, लेकिन अंदाज़ कुछ अलग था।
वो मेकअप का सामान सजा रही थी कि अचानक उसकी नज़र सिया के बाएं गाल के नीचे गई—जहाँ हल्की सी त्वचा की सफेदी थी, जैसे कोई पुराना निशान।
उसका दिल जैसे एक पल को रुक गया।
वो निशान… वो तिल जैसा गोरा धब्बा… ठीक वैसा ही तो था, जैसा बचपन में ‘उसके’ चेहरे पर था। लेकिन वो कैसे हो सकता है?
नेहा ने आंखें झपकाईं। शायद वहम होगा। उसने ब्रश उठाया, लेकिन हाथ कांपने लगे।
“क्या हुआ?” सिया ने सीधे आंखों में देखते हुए पूछा।
“कुछ नहीं,” नेहा झूठी मुस्कान के साथ बोली। “बस… आपकी स्किन बहुत फेमिलियर लग रही है।”
“क्या हम पहले मिले हैं?” सिया की आवाज़ में सवाल कम, ठंडापन ज़्यादा था।
“शायद… नहीं,” नेहा ने जवाब टालते हुए कहा।
मेकअप करते हुए नेहा की उंगलियाँ बार-बार उस निशान के पास रुक रही थीं। वो याद करने की कोशिश कर रही थी—वो आखिरी दिन… जब वो सात साल की थी। एक लड़की जो उसके साथ खेलती थी, जिसके साथ वो ‘चुपके चुपके’ लिपस्टिक लगाना सीख रही थी।
और फिर एक दिन, वो लड़की अचानक गायब हो गई थी। कहा गया था कि उनका परिवार शहर छोड़ गया। लेकिन नेहा को हमेशा लगा, उस कहानी में कुछ अधूरा था।
“आपकी उम्र?” नेहा ने पूछा, यूं ही बातचीत के बहाने।
“उम्र? 26,” सिया ने कहा।
नेहा का दिल एक बार फिर धड़का। वही उम्र, जो उसकी खोई हुई यादों की लड़की की होनी चाहिए।
मेकअप के दौरान सिया हर बात का जवाब संक्षेप में देती रही। लेकिन उसकी आंखें बार-बार आईने से हटकर नेहा के चेहरे पर टिक जातीं। ऐसा लग रहा था जैसे वो भी कुछ पहचान रही हो।
“आपका होठों का रंग किस तरह का पसंद है?” नेहा ने पूछा।
सिया ने कहा, “रेड… लेकिन ऐसा रेड जो खून जैसा लगे।”
नेहा ने होठों पर ब्रश चलाते हुए कुछ महसूस किया—एक हल्की सी धड़कन जो पहले कभी नहीं हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसकी उंगलियाँ किसी पुराने कब्र को कुरेद रही हों।
“तुमने कभी किसी को धोखा दिया है, नेहा?” सिया ने अचानक पूछा।
नेहा का हाथ रुक गया।
“माफ कीजिए?” वो बोली।
“कुछ नहीं,” सिया मुस्कराई। “सिर्फ एक सवाल था।”
नेहा के मन में अब उथल-पुथल मच गई थी। कौन थी ये लड़की? और क्यों उसकी मौजूदगी एक भूले हुए पन्ने को हवा देने लगी थी?
मेकअप पूरा हुआ। सिया आईने में खुद को देखती रही, कुछ बोली नहीं। फिर उठी और जाने लगी।
दरवाज़े के पास रुककर उसने बिना पीछे देखे कहा, “अगली बार, जब मैं आऊंगी… शायद तुम मुझे पहचान लोगी।”
दरवाज़ा बंद हुआ।
नेहा वहीं खड़ी रह गई।
आइने में उसका चेहरा था… लेकिन उसके पीछे की परछाई सिया की लग रही थी।
क्या सिया वापस आ गई थी?
या उसका अतीत अब उसके सामने लाल लिपस्टिक की तरह चमक रहा था—तेज, गहरा, और राज़ से भरा?
भाग 2: पुरानी डायरी, नए राज़
रात के दो बज रहे थे। नेहा की आंखों में नींद नहीं थी, सिरहाने रखे मोबाइल स्क्रीन पर बार-बार समय देख रही थी, मानो किसी जवाब की तलाश में हो।
सिया की आंखें अब भी उसकी ज़हन में थीं। वो निशान, वो आवाज़, वो लहजा—कुछ भी सामान्य नहीं था। और फिर जाते-जाते उसका कहना, “शायद अगली बार तुम मुझे पहचान लोगी…”
नेहा ने उठकर बेडसाइड लैंप जलाया और अलमारी की सबसे ऊपरের शेल्फ से एक पुराना बक्सा निकाला। धूल जमी लकड़ी की सतह पर अब भी वो गुलाबी स्टीकर चिपका था—‘Neha’s Secrets’।
बॉक्स के अंदर किताबों का ढेर, कुछ रंगीन पेन्सिल, और एक पुरानी नीली डायरी थी। उसी डायरी को खोला—जिसमें उसने कभी अपने बचपन की बातें, स्कूल की कहानियाँ, और कुछ अनकही बातें दर्ज की थीं।
पन्ने पलटते-पलटते अचानक एक नाम पर उसकी उंगलियाँ रुक गईं—सिया।
दिनांक था—12 जुलाई, 2007:
“आज सिया मेरे घर आई थी। हम दोनों ने चुपके से माँ की लिपस्टिक लगाई। लाल रंग वाली। वो बहुत अच्छा लग रहा था। मैंने सिया को एक छोटा सा हार भी दिया। वो बोली, ‘अब ये हमेशा मेरे पास रहेगा।’”
नेहा की सांस थम गई। उसने पन्ना उलटकर देखा—उस दिन की एक स्केच भी थी—दो लड़कियों की, एक के गाल के नीचे हल्का निशान बनाया गया था। वही निशान!
क्या इसका मतलब ये सिया… वही सिया है?
लेकिन वो तो…
नेहा याद करने लगी—13 जुलाई को स्कूल में बताया गया था कि सिया का परिवार अचानक शहर छोड़ गया। न कोई अलविदा, न कोई सूचना।
उसे याद है, माँ ने कहा था, “उनके घर में कुछ दिक्कतें थीं बेटा, वो लोग जल्दी चले गए।”
कौन सी दिक्कतें? और अब इतने सालों बाद, अचानक वही चेहरा… वही नाम?
उसने डायरी से एक और पन्ना निकाला—जहाँ वो हार का ज़िक्र था। नेहा को याद आया, वो हार एक छोटे से लाल मखमली डिब्बे में रखा था। उसने बक्से के नीचे ढूंढा—और सचमुच, डिब्बा वहीं था।
खोलते ही अंदर से वही छोटा सा हार निकला—नीली पत्थर वाली छोटी सी चेन।
अब सवाल यह था—क्या सिया के पास भी यह हार है?
अगर हाँ… तो क्या नेहा का शक सच है?
अगली सुबह नेहा अपने स्टूडियो पहुँची तो उसकी नजर दरवाजे के पास रखे एक छोटे लिफाफे पर पड़ी।
लिफाफे पर लिखा था—“नेहा के लिए।”
उसका दिल धड़कने लगा।
भीतर एक छोटा कार्ड था—जिस पर सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी:
“क्या तुम जानती हो कि तुमने मुझे कहाँ छोड़ा था?”
कोई नाम नहीं, कोई संकेत नहीं—सिर्फ ये सवाल।
नेहा की उंगलियाँ काँपने लगीं। उसने कार्ड वापस लिफाफे में रखा और अंदर चली गई।
अंदर की दीवार पर एक बड़ी तस्वीर टंगी थी—उसकी बनाई एक ब्राइडल लुक की फोटो। लेकिन आज उसे लगा, जैसे उस तस्वीर की आंखें उसे घूर रही थीं।
उसने स्टूल खींचा और बैठ गई।
क्या ये सब सिर्फ उसका वहम है?
या उसका अतीत अब उसके वर्तमान के दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है?
दोपहर को एक अनजान नंबर से कॉल आया।
“हैलो?” नेहा ने धीमे स्वर में कहा।
दूसरी ओर एक आवाज़ थी—धीमी, लगभग फुसफुसाते हुए।
“तुम्हें सिया की आँखें याद हैं?”
नेहा के गले में जैसे कुछ अटक गया।
“तुम कौन हो?” उसने हिम्मत कर के पूछा।
“वो जो कभी गई नहीं थी,” आवाज़ बोली। “सिर्फ छुप गई थी।”
कॉल कट गया।
नेहा की उंगलियाँ अब काँप रही थीं।
कौन हो सकता है?
और अगर ये सिया है… तो उसने अब तक अपना चेहरा क्यों छुपाया?
या फिर… क्या वो चाहती है कि नेहा याद करे—वो रात, जब सब कुछ बदला था?
उसने डायरी को वापस खोला, और पेन उठाया।
आज की तारीख लिखी और पहली बार इतने सालों बाद एक वाक्य लिखा:
“मैंने सिया को नहीं छोड़ा था। पर शायद, मैंने देखा नहीं… कि वो खो चुकी है।“
भाग 3: लाल लिपस्टिक की खुशबू
नेहा की उंगलियों में अब भी उस लिफाफे की नमी बाकी थी, मानो कागज़ ने कोई पुराना आँसू सोख लिया हो। वह अपने स्टूडियो की खिड़की के पास बैठी थी, बाहर बारिश की हल्की बूंदें गिर रही थीं। लेकिन उसके भीतर कहीं तेज़ आँधी चल रही थी।
उसके ज़ेहन में बार-बार वही सवाल गूंज रहा था—“क्या तुम जानती हो कि तुमने मुझे कहाँ छोड़ा था?”
छोड़ा था?
कहाँ?
क्यों?
इतने साल बीत गए, नेहा अपने बचपन की गलियों में दोबारा भटकने लगी थी—उन गलियों में जहाँ सिया उसके साथ रहती थी। दो लड़कियाँ, एक लिपस्टिक और नन्हा सा खेल: “ब्राइडल ब्राइडल।” माँ की अलमारी से चुराई गई लाल लिपस्टिक, जो उस उम्र में एक रहस्य थी—जैसे किसी किताब में छुपा एक जादुई मंत्र।
लाल लिपस्टिक।
आज अचानक वो खुशबू फिर उसकी नाक में भर गई।
लेकिन ये कैसे हो सकता है?
स्टूडियो की हवा में अब भी हल्की सी वही महक थी, जो कल सिया के आने के बाद छूट गई थी। एक अजीब-सी, भारी और सजीव खुशबू—जो न सिर्फ नाक, बल्कि यादों को भी जगा देती थी।
नेहा उठा और उस शीशे की ओर गया जहाँ वो मेकअप करती थी। वहीं एक छोटा सा लिपस्टिक स्टैंड रखा था। वो हर क्लाइंट के इस्तेमाल के बाद सारे ब्रश और प्रोडक्ट्स सैनिटाइज करती थी, लेकिन आज एक लिपस्टिक… जो कल इस्तेमाल की गई थी… उसी में से हल्की खुशबू आ रही थी।
उसने उसे उठाया।
ब्रांड वही था, लेकिन कल सिया ने जो लिपस्टिक लगाई थी, वो उसकी कलेक्शन में नहीं थी।
उसका रंग… थोड़ा गाढ़ा, थोड़ा गहरा… जैसे किसी पुराने घाव की छाया।
नेहा ने उसे करीब लाकर सूंघा—और उसी पल एक फ्लैश उसके ज़ेहन में कौंध गया।
वो लाल लिपस्टिक उसके पापा की कमीज़ पर लगी थी।
वो सीन बहुत धुंधला था—शायद पाँच या छह साल की उम्र रही होगी नेहा की। एक रात घर में झगड़ा हुआ था। पापा की कमीज़ पर कोई लाल धब्बा दिखा था, और माँ बहुत रोई थी। तब किसी ने कहा था—”ये किसी औरत की लिपस्टिक है।”
और उसी रात सिया पहली बार उसके घर आई थी।
नेहा का गला सूखने लगा।
क्या सिया और उसके परिवार का उनके घर से कोई रिश्ता था?
क्या वो झगड़ा… और सिया का अचानक गायब हो जाना… इन दोनों बातों में कोई संबंध था?
उसका मन इस नए संदेह से कांप उठा।
दोपहर के करीब स्टूडियो की घंटी बजी। नेहा को लगा कोई कस्टमर होगा। लेकिन दरवाज़े के बाहर कोई नहीं था।
फर्श पर एक छोटा सा गिफ्टबॉक्स रखा था।
उसे उठाकर नेहा ने भीतर लाया। खोलते ही उसके अंदर से वही लाल लिपस्टिक निकली। और साथ में एक छोटा कागज़ का टुकड़ा:
“क्या तुम जानती हो कि ये रंग कितना दर्द सहता है?”
अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी।
कोई उसके साथ खेल खेल रहा था।
या फिर… कोई ऐसा जिसकी कहानी अब तक अनकही रह गई थी।
नेहा ने तुरंत अपना फोन उठाया और सिया का नंबर ढूंढने लगी—लेकिन उसके पास ऐसा कोई नंबर था ही नहीं। वो तो सिर्फ एक अपॉइंटमेंट पर आई थी।
उसे याद आया—बुकिंग फॉर्म!
वो कंप्यूटर खोलकर बुकिंग हिस्ट्री में गई।
सिया के नाम से कोई ऑनलाइन बुकिंग नहीं थी।
न कोई नंबर, न कोई आईडी।
नेहा के शरीर में कंपकंपी दौड़ गई।
फिर वो कौन थी?
क्यों आई थी?
और कैसे उसका हर जवाब नेहा के अतीत का ताला खोलने जैसा बन गया था?
नेहा ने लिपस्टिक को वापस डिब्बे में रखा और वो नोट ध्यान से देखा। हाथ की लिखावट—हल्की झुकी हुई, गोलाइयों से भरी—बिल्कुल वैसी, जैसी उसकी डायरी में सिया की लिखावट थी।
हाँ, एक बार सिया ने भी उसकी डायरी में कुछ लिखा था—“We are secret sisters.”
नेहा फिर से डायरी निकालकर उस पन्ने को ढूंढने लगी। हाँ, वहाँ वही वाक्य था। और लिखावट… हूबहू वही।
अब किसी संदेह की जगह नहीं बची थी।
सिया लौट आई थी।
लेकिन किस रूप में?
एक स्मृति?
एक सवाल?
या कोई ऐसा सच, जिसे अब छुपाया नहीं जा सकता?
बाहर बारिश तेज़ हो गई थी।
नेहा ने खिड़की बंद की और अपनी सांसों को थाम लिया।
लाल लिपस्टिक अब महज़ एक रंग नहीं थी।
वो एक दरवाज़ा थी—जिसके उस पार कोई इंतज़ार कर रहा था।
(जारी रहेगा…)
भाग 4: 15 साल पहले का वो घर
नेहा के कदम खुद-ब-खुद उस मोहल्ले की ओर मुड़ गए जहाँ उसका बचपन बीता था। बारिश थम चुकी थी, लेकिन गलियों की मिट्टी अब भी गीली थी—ठीक वैसी जैसे यादें, जो समय के साथ दब तो जाती हैं, पर सूखती नहीं।
वो जानती थी कि जवाब शायद वहीं मिल सकता है… उसी पुराने घर में जहाँ सब शुरू हुआ था।
पुराना मोहल्ला वैसा ही था—छोटे-छोटे मकान, गलियों में खेलते बच्चे, छत से झांकती बुढ़िया की निगाहें। लेकिन कुछ था जो अलग लग रहा था। या शायद, वो खुद बदल चुकी थी।
वो घर अब भी वहीं था—दो मंज़िला, नीला पेंट जो अब छिलने लगा था, और लोहे का वही गेट, जिसमें उसकी उंगलियों की खरोंच आज भी मौजूद थी।
गेट पर ताला लगा था, लेकिन बरामदे में धूल भरे जूतों के निशान थे। यानी कोई कभी-कभार आता जरूर था।
नेहा ने चारों ओर देखा, कोई नहीं था। उसने धीरे से गेट खोला—जो बिना ज़्यादा ज़ोर लगाए खुल गया।
वो अंदर गई, हर कदम पर फर्श चरमरा रहा था।
घर के भीतर अब भी वही पुरानी गंध थी—नीम के पत्तों, पुराने लकड़ी के फर्नीचर और बंद खिड़कियों की सीलन भरी मिली-जुली महक।
ड्राइंग रूम के कोने में अब भी वो सोफा पड़ा था जहाँ वो और सिया बैठकर ‘ब्राइडल गेम’ खेला करती थीं। नेहा का हाथ अनायास उस जगह पर गया—जहाँ एक बार सिया ने नेहा के माथे पर सिंदूर की जगह टमाटर केचप लगा दिया था और हँसी से पूरा घर गूंज उठा था।
अब वहां सन्नाटा था। एक भारी, चुप सन्नाटा।
नेहा का ध्यान अचानक उस कमरे की ओर गया, जहाँ उस रात झगड़ा हुआ था।
वो चलती गई—धीरे-धीरे।
कमरा अब भी वैसा ही था, बस दीवारों का रंग फीका पड़ गया था। एक कोने में टूटी हुई अलमारी, दूसरी ओर पंखा जो जंग खा चुका था।
लेकिन एक चीज़ साफ-साफ नज़र आई—दीवार पर लिपस्टिक का एक हल्का निशान।
गाढ़ा लाल।
नेहा की सांसें तेज़ हो गईं।
इतने सालों बाद भी, वो रंग नहीं मिटा था।
वो पीछे मुड़ी और अचानक उसकी नज़र जमीन पर रखी एक चीज़ पर पड़ी—एक पुराना खिलौना, लकड़ी की गुड़िया, जिसके चेहरे पर एक आंख नहीं थी।
ये गुड़िया… सिया की थी।
वो इसे हमेशा अपने साथ रखती थी।
तो फिर ये यहां कैसे?
क्या वो वापस आई थी?
या कभी गई ही नहीं?
नेहा जैसे ही बाहर निकलने को हुई, दरवाज़े के पास उसे एक सफेद लिफाफा रखा मिला।
इस बार कोई नाम नहीं था।
लिफाफा खोलते ही एक फोटो हाथ में आई—ब्लैक एंड वाइट, थोड़ी धुंधली। फोटो में दो छोटी लड़कियाँ थीं—एक नेहा, और दूसरी… सिया। दोनों की आंखों में चमक थी, और हाथ में वही लाल लिपस्टिक।
फोटो के पीछे कुछ लिखा था:
“तू चली गई थी, लेकिन मैं यहीं थी। हर रात तेरे इंतज़ार में।“
नेहा की आंखें भर आईं।
उसे लगा था सिया खो गई।
पर शायद वो छूट गई थी—छोटी सी, मासूम, और अकेली।
घर से निकलते समय नेहा ने मुड़कर एक आखिरी बार उस खिड़की की ओर देखा जहाँ वो और सिया बैठकर बाहर की बारिश देखा करती थीं।
अब खिड़की बंद थी।
लेकिन परदे के पीछे से कुछ हिलता हुआ दिखा।
एक परछाई।
नेहा रुकी। सांस रोके देखा।
लेकिन कोई नहीं था।
वो धीरे से मुस्कराई। शायद सिया अब भी यहीं थी—उस घर में, उस याद में, उस परछाई में।
और अब, नेहा का सामना होना ही था… उस सच्चाई से जो अब तक दबी थी।
भाग 5: सिया की मौन मुस्कान
नेहा की नींद उस रात बहुत हल्की थी। जैसे कोई उसे बार-बार पुकार रहा हो—बिना आवाज़ के, सिर्फ अहसास से। सुबह का उजाला खिड़की से झांक रहा था, लेकिन कमरे में अभी भी कल रात का डर, उलझन और रहस्य पसरा हुआ था।
वो चाय का प्याला हाथ में लिए अपने स्टूडियो के रैक को देख रही थी—जहाँ सिया बैठी थी उस दिन।
हर कोना अब जैसे साक्षी बन गया था—एक अनकहे सच का।
तभी फोन बजा।
“नेहा बोल रही हैं?”
“जी,” उसने उत्तर दिया।
“आपके लिए दोपहर एक बजे का अपॉइंटमेंट बुक हुआ है। नाम—सिया।”
नेहा का दिल धड़कने लगा। उसने तुरंत स्क्रीन चेक की—इस बार बुकिंग आईडी भी था। लेकिन नंबर “नोट अवेलेबल” दिखा रहा था।
क्या ये वही सिया थी?
या फिर किसी और ने ये नाम चुना था?
वो कुछ सोच ही रही थी कि असिस्टेंट ने आवाज़ दी—“मैम, क्लाइंट आ चुकी हैं।”
नेहा ने धीमे कदमों से दरवाज़े की ओर देखा।
सिया फिर से सामने खड़ी थी।
वही शांत चेहरा। वही आंखें।
लेकिन इस बार कुछ अलग था।
वो मुस्कराई।
एक मौन, स्थिर, और लगभग भयानक मुस्कान—जैसे वो सब कुछ जानती हो, और फिर भी कुछ न कहे।
नेहा ने उसे अंदर बुलाया।
“आज कैसा लुक चाहिए?” नेहा ने पूछा।
“आज… वो लुक दो जो सच छुपा सके।”
नेहा ने कोशिश की कि उसकी उंगलियाँ कांपे नहीं। लेकिन सिया की मौजूदगी में जैसे हवा भी भारी हो गई थी।
वो धीरे से चेयर पर बैठ गई। नेहा ने उसके चेहरे पर प्राइमर लगाना शुरू किया।
“तुम्हें बच्चपन में किसी ने धोखा दिया?” सिया ने अचानक पूछा।
नेहा ने चौंककर उसे देखा।
“शायद…”, नेहा ने कहा। “कभी-कभी लगता है कि मैं किसी को नहीं बचा पाई।”
“तो क्या तुम खुद को माफ कर पाई?” सिया ने फिर पूछा।
नेहा अब चुप थी।
उसने जवाब नहीं दिया। सिर्फ उसके चेहरे पर काम करती रही।
लेकिन उसके हाथ अब कांप रहे थे।
सिया की आंखें अब भी बंद थीं, लेकिन उसकी मुस्कान और गहरी हो रही थी।
“तुम्हें मेरी आवाज़ जानी-पहचानी नहीं लगती?” उसने धीरे से कहा।
“मैं… मैं नहीं जानती,” नेहा बमुश्किल कह पाई।
“तुम्हें पता है नेहा,” सिया फुसफुसाई, “कभी-कभी खामोशी चीख से भी ज्यादा तेज़ होती है।”
नेहा पीछे हट गई। उसने मेकअप ब्रश नीचे रखा और सिया की आंखों में देखा।
“तुम कौन हो?” उसकी आवाज़ कांप रही थी।
सिया ने आंखें खोलीं और कहा—“जो कभी गई नहीं थी। सिर्फ खामोश थी। तुम्हारे इंतज़ार में।”
वो धीरे से उठी, आईने की तरफ गई और खुद को देखा।
“बिल्कुल वैसी ही दिख रही हूं जैसी उस रात थी। याद है तुम्हें? जब सबने कहा मैं भाग गई। लेकिन तुम जानती हो—मैं छुपाई गई थी।”
नेहा का चेहरा पीला पड़ गया।
“किसने…?” वो पूछना चाहती थी, लेकिन आवाज़ अटक गई।
सिया ने बस सिर झुकाया, और आईने में खुद को देखते हुए धीमे से मुस्कराई।
“तुम्हारा मेकअप अब भी कमाल का है नेहा,” उसने कहा।
“पर सच को मेकअप से ढका नहीं जा सकता।”
फिर वो दरवाज़े की ओर बढ़ी।
बिना कुछ और बोले।
बिना पलटे।
लेकिन उसकी मौन मुस्कान… कमरे में रह गई।
जैसे कोई गूंगी चीख।
नेहा वहीं खड़ी रह गई।
अब सवाल नहीं बचा था।
अब सिर्फ एक सफ़र बाकी था—अतीत की तहों में उतरने का।
भाग 6: वो फोन कॉल जो कभी नहीं आना चाहिए था
उस दिन शाम होते-होते नेहा के कमरे में धूप कम और अंधेरा ज़्यादा उतरने लगा था। उसका मन किसी अज्ञात बोझ से दबा जा रहा था। सिया की वो मौन मुस्कान, वो तीखी निगाहें, और उसका धीरे-धीरे बोलना—मानो हर शब्द एक पुरानी दरार में उतरकर कुछ खोल रहा हो।
नेहा ने स्टूडियो बंद किया और घर लौटी। लेकिन चैन फिर भी नहीं मिला।
उसने दीवार घड़ी की ओर देखा—रात के साढ़े नौ बजे थे।
टीवी चल रहा था लेकिन आवाज़ म्यूट थी। कमरे में सिर्फ एक हल्की सी घड़ी की टिक-टिक थी और नेहा की साँसों की आवाज़।
तभी मोबाइल वाइब्रेट हुआ।
Private Number Calling…
उसके रोंगटे खड़े हो गए। कुछ सेकंड तक वो स्क्रीन देखती रही। फिर किसी अनजाने साहस से उसने कॉल रिसीव किया।
“हैलो…?”
कुछ क्षण तक कोई आवाज़ नहीं आई।
फिर एक फुसफुसाहट…
“क्या तुमने मुझे भुला दिया, नेहा?”
नेहा का गला सूख गया।
“क… कौन?” उसने बमुश्किल पूछा।
“वो… जिसे तुमने छोड़ दिया था।”
अब उसकी साँसे तेज़ हो गईं। उसने फोन कसकर पकड़ा।
“सिया…?”
दूसरी ओर एक धीमा ठहाका गूंजा।
“नाम में क्या रखा है नेहा? तुम तो चेहरा भूल गई… लेकिन मैं नहीं भूली तुम्हारा चेहरा… तुम्हारी लिपस्टिक… तुम्हारा झूठा वादा…”
“मैंने… मैंने कभी तुम्हें छोड़ना नहीं चाहा। मैं बच्ची थी… मुझे कुछ समझ नहीं था!” नेहा की आवाज़ अब कांप रही थी।
“पर किसी ने तो मुझे बंद कमरे में बंद किया था ना?” आवाज़ और ठंडी हो गई।
“तुम्हें याद है वो रात?”
नेहा की आंखों में अब वो पुरानी स्मृति कौंध रही थी—वो रात जब अचानक बिजली चली गई थी, घर में झगड़ा हो रहा था, दरवाज़े ज़ोर से बंद हो रहे थे।
सिया उसके घर में थी।
लेकिन फिर… क्या हुआ था?
क्या सिया कहीं… छिप गई थी?
या छिपा दी गई?
“मैं नहीं जानती… सच क्या है।” नेहा ने धीमे से कहा।
“तो जान लो। क्योंकि अब वो रात फिर लौटेगी। और इस बार, तुम अकेली नहीं होगी।”
कॉल कट गया।
नेहा ने घबरा कर फोन फेंक दिया। उसकी साँसे बेतरतीब हो रही थीं।
रात भर उसे नींद नहीं आई। हर छोटी आवाज़ अब खरोंच सी लग रही थी। खिड़की के बाहर कोई परछाई थी, या सिर्फ उसका डर? वो नहीं जानती थी।
सुबह होते ही वह अपनी माँ के घर पहुँची—जहाँ अब कोई नहीं रहता था।
दरवाज़ा खोला तो धूल भरी हवा ने स्वागत किया।
कमरों में सन्नाटा था, लेकिन उसके अंदर कहीं कुछ बोल रहा था।
उसने माँ के पुराने ट्रंक को खोला, जो सालों से बंद पड़ा था। कपड़ों के नीचे एक पुरानी डायरी रखी थी—माँ की।
नेहा ने उसे खोला और पढ़ना शुरू किया।
एक पन्ने पर लिखा था:
“नेहा और सिया अब बहुत घुल–मिल गई हैं। लेकिन आज कुछ गड़बड़ हो गई। नेहा के पापा सिया को पसंद नहीं करते। उन्होंने कहा—ये लड़की ठीक नहीं है। रात को बहुत झगड़ा हुआ।“
नेहा ने साँस रोकी।
अगले पन्ने पर सिर्फ एक लाइन थी—
“नेहा ने सोचा सिया अपने घर चली गई। लेकिन… कोई उसे ढूंढने नहीं गया।“
अब उसकी आंखों के सामने सब धुंधला हो गया।
क्या सच में… सिया उसी घर में छूट गई थी?
क्या उस कमरे में… जहाँ पापा ने दरवाज़ा बंद किया था?
नेहा दौड़ते हुए उस पुराने कमरे में पहुँची। वही बंद खिड़की, वही पुरानी अलमारी।
उसने एक बार फिर अलमारी के पिछले हिस्से को देखा।
और अब, पहली बार, उसे वहां कुछ दिखा।
लकड़ी में एक हल्का कट था—जैसे किसी ने उसे खरोंच कर खोला हो।
नेहा ने धड़कते दिल से दीवार को छुआ।
उसे अब अपने भीतर एक ठंडक महसूस हो रही थी—वो डर की नहीं थी।
वो किसी की मौजूदगी की थी।
जो अब भी यहीं थी।
जो अब भी कुछ कहना चाहती थी।
या शायद… बताना चाहती थी कि वो रात… अब तक ख़त्म नहीं हुई है।
भाग 7: आईना टूट गया
कमरे की दीवारें चुप थीं, पर नेहा के भीतर एक चीख गूंज रही थी। लकड़ी की उस दीवार के पीछे क्या छिपा था—एक रहस्य, एक अपराध, या एक भूली हुई सिसकी?
नेहा ने दीवार की उस खरोंच को ध्यान से देखा। उसकी उंगलियाँ अब कांप रही थीं, लेकिन भीतर एक जिद जाग उठी थी—सिया के सच को जानना ज़रूरी हो गया था।
उसने धीरे-धीरे दीवार पर थपथपाया। एक जगह आवाज़ बदली। खोखली।
वो तुरंत पास से रखे पेपरकटर को उठाकर उस जगह को कुरेदने लगी। चंद मिनटों में लकड़ी के पैनल का एक हिस्सा ढीला पड़ा और अचानक, एक छोटा सा कम्पार्टमेंट खुला।
अंदर अंधेरा था।
उसने मोबाइल की टॉर्च जलाकर अंदर झाँका। एक पुराना रूमाल, एक प्लास्टিক की गुड़िया… और एक छोटा आईना।
आईना?
उसने उसे उठाया।
आईना धुंधला था, किनारे टूटे हुए, लेकिन जैसे ही उसने उसे साफ किया, एक चीख उसके गले में अटक गई।
आईने में उसका चेहरा दिखा… लेकिन उसके पीछे… कोई और खड़ा था।
एक लड़की। झुकी हुई। आँखें गहरी और चेहरा शांत।
नेहा ने पलटकर देखा—पीछे कोई नहीं था।
फिर से आईने में देखा—अब वहाँ कुछ नहीं था।
उसका हाथ अचानक कांप गया और आईना उसके हाथ से गिरकर फर्श पर टूट गया। टुकड़े ज़ोर की आवाज़ से बिखर गए।
कमरे में सन्नाटा छा गया।
नेहा का दम घुटने लगा था।
कहीं ये आईना उस रात का गवाह तो नहीं था?
क्या सिया ने खुद को इसी कमरे में छुपाया था?
या उसे… छुपा दिया गया था?
उसने रूमाल को उठाया। उस पर हल्के खून के दाग थे। सूखे, पुराने, लेकिन अब भी डर पैदा करने वाले।
उसका सिर घूमने लगा।
वो दौड़कर कमरे से बाहर निकली, खुली हवा में साँस लेने की कोशिश की। बाहर सूरज तेज़ था, लेकिन अंदर की सर्दी उतरने का नाम नहीं ले रही थी।
शाम को स्टूडियो वापस आकर उसने खुद को काम में झोंक दिया। क्लाइंट के चेहरे पर ब्रश घुमाते हुए भी उसकी नजरें आईने से बच रही थीं।
लेकिन जब वो अकेली हुई, उसने खुद को देखा।
आईने में।
खुद को नहीं—अपनी आंखों में किसी और की परछाई।
“तुम मुझसे क्यों नहीं बोली, सिया?” उसने धीमे से पूछा।
आईना चुप रहा।
लेकिन उसी पल एक और दरार आईने में उभर आई—बिल्कुल बीचोंबीच, बिना किसी बाहरी कारण के।
नेहा पीछे हट गई।
क्या ये कोई संकेत था?
या फिर, उस टूटी हुई आत्मा की आवाज़ जो अब शब्दों से नहीं, दरारों से बोलती है?
रात को वह फिर से उसी पुराने कमरे में गई।
कमरे का आईना अब भी टूटा पड़ा था।
वो उसके टुकड़ों को इकट्ठा करने लगी।
तभी एक टुकड़े में उसे कुछ अजीब दिखा—एक शब्द।
बहुत हल्का सा, जैसे नाखून से खुरचा गया हो।
“छुपा दिया गया“
उसका दिल बैठ गया।
किसने?
क्यों?
वो एकदम से खड़ी हुई और कमरे के कोने-कोने को टटोलने लगी।
फर्श पर एक टाइल ढीली लगी। उसने उसे उठाया—नीचे एक कागज़ था।
एक पुराना नोट।
सिर्फ एक वाक्य:
“नेहा, मुझे बाहर निकालो। मैं अब भी यहीं हूँ।”
उसकी आंखों से आँसू बह निकले।
उसने सिया को कभी नहीं ढूंढा।
क्योंकि उसे यकीन था, वो चली गई।
लेकिन अब समझ आया—वो कभी गई ही नहीं थी।
वो यहीं थी।
कहीं इस कमरे में।
कहीं उसकी यादों में।
या शायद… उस आईने में, जो अब खुद बिखर चुका था।
भाग 8: रेड लिपस्टिक, रेड ब्लड
नेहा देर रात तक उस कमरे में बैठी रही। अँधेरा अब भीतर और बाहर दोनों में उतर चुका था। हाथ में अब भी वही कागज़ था—“नेहा, मुझे बाहर निकालो। मैं अब भी यहीं हूँ।”
क्या ये सच था? क्या कोई आत्मा उससे बात कर रही थी? या फिर ये उसका मन था, जो बीते पापों की सजा दे रहा था?
उसने धीरे-धीरे अपने बैग से वही लाल लिपस्टिक निकाली—जो सिया स्टूडियो में इस्तेमाल कर गई थी।
ढक्कन खोलते ही एक अजीब सी महक फिर से कमरे में फैल गई—कुछ मीठा, कुछ धातु जैसा। उसकी नाक में वो वही जानी-पहचानी खुशबू भर गई—बचपन की, उस रात की, और… खून की।
नेहा ने टॉर्च का रौशनी फर्श पर फैलाई। लिपस्टिक को ज़मीन पर रखा और उसके चारों ओर वो पैटर्न खींचा जो बचपन में वो और सिया मिलकर बनाया करती थीं—एक गोल, लहरदार मण्डल, जिसके बीचोंबीच ‘S’ लिखा जाता था।
और फिर उसने धीरे से फुसफुसाया—“सिया… मैं आ गई हूं। बोलो न कुछ।”
कमरे में हवा भारी हो गई। अचानक खिड़की की लकड़ी चरमराई, पर्दा हिला, और कमरे की दीवारों पर एक ठंडी सिहरन दौड़ गई।
टॉर्च की रोशनी टिमटिमाने लगी।
फिर, दीवार पर एक हाथ की छाया उभरी—जैसे किसी ने वहां से खुद को बाहर निकालने की कोशिश की हो।
नेहा ने कांपते हाथों से दीवार को छुआ—सर्द, ठंडी, और नम।
अचानक, फर्श से एक आवाज़ आई—“टक…टक…टक…”
उसने देखा—लिपस्टिक अपने आप घूमने लगी थी।
धीरे-धीरे।
और फिर वो फर्श पर एक लकीर छोड़ गई—लाल रंग की। जो बहुत गाढ़ी थी।
नेहा ने टॉर्च उस लकीर पर डाली—वो लिपस्टिक की नहीं… खून की लकीर थी।
उसका शरीर सुन्न हो गया।
वो समझ नहीं पा रही थी कि ये सब कल्पना है या कोई आत्मा उससे संवाद कर रही है।
तभी दरवाजे पर हल्की सी दस्तक हुई।
टिक… टिक… टिक…
नेहा ने दरवाज़ा खोला—सामने कोई नहीं था।
लेकिन ज़मीन पर एक और लिफाफा रखा था।
इस बार सफेद नहीं, गहरा लाल। जैसे खून में डूबा हो।
उसने उसे उठाया। अंदर एक फोटो थी—सिया की। वही उम्र, वही चेहरा। लेकिन उसकी आँखों से खून टपक रहा था।
पीछे लिखा था:
“तुमने मुझे खूबसूरत बनाया… ताकि मैं दुनिया को सच का चेहरा दिखा सकूं।”
अब नेहा समझ चुकी थी।
सिया अब सिर्फ अतीत नहीं थी।
वो प्रतिशोध थी।
एक ऐसी आवाज़, जिसे सालों से दबाया गया था। लेकिन अब, लाल लिपस्टिक के साथ वो लौट आई थी।
हर वो झूठ जो उस रात बोला गया था, अब पिघलकर खून बन चुका था।
हर वो मेकअप जो चेहरे पर लगाया गया था, अब उतर चुका था।
और नीचे से निकला था—एक बदसूरत, भयावह सच।
नेहा ने अगले दिन अपने स्टूडियो में एक आईना हटाया और दीवार पर वो पुरानी तस्वीर टांगी—जहां सिया और वो, दोनों हँस रही थीं।
उसने नीचे छोटा सा नोट चिपकाया—
“उसकी कहानी अब मेरी है। और मेरी कहानी, अब तुम्हारी।”
रेड लिपस्टिक अब उसकी मेज पर नहीं थी।
वो एक मंदिर में ले जाकर उसे बहा आई थी।
लेकिन उस रंग की परछाईं अब भी उसकी उंगलियों पर थी।
जैसे एक वादा।
या एक अधूरी माफी।
भाग 9: सिया का सच
नेहा ने अपनी आंखें बंद कीं और गहरी सांस ली। अब वो डर नहीं रही थी—अब वो तैयार थी। उस सच का सामना करने के लिए जिसे उसने अनजाने में दफना दिया था।
उस दिन स्टूडियो में किसी क्लाइंट को अपॉइंटमेंट नहीं दिया गया था। उसने खुद को बंद कर लिया, एक खाली कुर्सी के सामने बैठकर, जैसे किसी का इंतज़ार कर रही हो।
कमरे में हल्का उजाला था। सब कुछ सामान्य।
लेकिन उसके भीतर सब कुछ बदल चुका था।
और तभी—
दरवाज़ा बिना खटखटाए खुद-ब-खुद खुल गया।
नेहा ने मुड़कर देखा।
सिया अंदर आई।
वही चेहरा, वही चाल, लेकिन आज उसकी आंखों में कुछ और था—आरोप नहीं, शिकवा नहीं—बस एक गहराई। जैसे उसने सब कह देने का निश्चय कर लिया हो।
“तुम आ गई,” नेहा ने धीमे से कहा।
“हां,” सिया बोली। “अब सब कहने का वक्त है।”
नेहा ने उसके लिए कुर्सी खींच दी।
सिया बैठी। उसने आईने की ओर नहीं देखा, सिर्फ नेहा की आंखों में देखा।
“मैं उस रात गई नहीं थी, नेहा।”
नेहा चुप।
“तुम्हारे पापा मुझे पसंद नहीं करते थे। उन्हें लगता था मैं तुम्हें बिगाड़ रही हूं। उस रात, जब मैं तुम्हारे साथ खेल रही थी, उन्होंने मुझे डांटा। कहा—’तू अब इस घर में कदम नहीं रखेगी।’ मैं डर गई। छुप गई उसी कमरे में… अलमारी के पीछे। लेकिन किसी ने ढूंढा ही नहीं।”
नेहा की आंखें भर आईं।
“तू जानती है, नेहा? मैं तीन दिन वहीं थी। बिना खाना, बिना पानी… दरवाज़ा बाहर से बंद था।”
नेहा कांपने लगी। “नहीं… नहीं… मैं नहीं जानती थी…”
“मैंने बहुत बार दीवार पर खटखटाया। लेकिन सबने सोचा मैं जा चुकी हूं। और जब मुझे होश आया, मैं किसी और जगह थी। अनाथालय में। किसी ने मुझे वहाँ छोड़ दिया। बिना नाम, बिना पहचान।”
नेहा अब फूट-फूटकर रोने लगी।
“मुझे लगा तू चली गई। मैं भी छोटी थी, डरी हुई थी… किसी ने मुझसे कुछ बताया नहीं…”
सिया ने उसकी ओर देखा।
“अब मैं वापस आई हूं। क्योंकि मैं नहीं चाहती कि तू खुद को दोष देती रहे। वो गलती तेरी नहीं थी। लेकिन अब तुझे जानना ज़रूरी था—कि मैं कहीं गई नहीं थी। मैं हमेशा यहीं थी—तेरे बचपन में, तेरे आईने में, तेरी लाल लिपस्टिक में।”
नेहा ने सिया का हाथ थामा।
“क्या तू मुझे माफ कर पाएगी?”
सिया मुस्कराई—वही मौन मुस्कान, लेकिन इस बार उसमें एक सुकून था।
“मैंने माफ किया, उसी दिन… जब तूने मेरी बनाई लिपस्टिक किसी और को नहीं लगाई।”
दोनों चुप रहीं। उस चुप्पी में बहुत कुछ कह दिया गया।
फिर सिया उठी।
“अब मैं जा रही हूं, नेहा। सच कह दिया, अब मेरी परछाई भी हल्की हो गई है।”
“पर तू जाएगी कहाँ?”
“जहाँ चेहरों पर रंग नहीं, आत्माओं में शांति रहती है।”
सिया दरवाज़े की ओर बढ़ी। जाते-जाते उसने एक बार पलटकर देखा—
“तू अब दूसरों का मेकअप कर, नेहा। लेकिन उनका सच मत छुपा।”
और वो चली गई।
बिना आहट।
बिना डर।
बिना लाल लिपस्टिक की महक।
नेहा आईने के सामने बैठी। अपने चेहरे को निहारा।
अब उसे वहाँ सिर्फ अपना चेहरा दिख रहा था।
साफ़, स्पष्ट, और सच के साथ।
भाग 10: एक राज़ का अंत या एक नया आग़ाज़?
कुछ हफ्ते बीत गए। स्टूडियो अब पहले जैसा ही चल रहा था—क्लाइंट्स आते, मेकअप होता, चेहरे सजते, तस्वीरें खिंचतीं। लेकिन नेहा के भीतर कुछ गहराई से बदल गया था। अब उसके हाथों में सिर्फ ब्रश नहीं, जिम्मेदारी थी—चेहरों को सजाने की नहीं, उन्हें समझने की।
सिया के जाने के बाद बहुत कुछ साफ हुआ था—बचपन की उलझनें, वर्षों पुरानी गलती, और सबसे बड़ा डर: कि क्या वो एक अंधेरे सच की सहभागी थी?
अब वो डर धुंध बनकर उड़ चुका था।
उस दिन की तरह, नेहा फिर से आईने के सामने बैठी थी।
पर आज, उसने खुद पर कोई मेकअप नहीं किया।
बस आईने में अपने चेहरे को निहारती रही—जिसमें अब न कोई परछाई थी, न कोई टूटी दरार।
वो वही आईना था जो कभी टूटा था।
लेकिन अब नेहा ने उसे मरम्मत करवा लिया था।
टूटे हुए टुकड़े फिर से जोड़े गए थे—एक एक दरार के साथ।
क्योंकि अब वो दरारें भी उसकी कहानी का हिस्सा थीं।
एक क्लाइंट अंदर आई—एक नई दुल्हन बनने वाली लड़की। थोड़ा घबराई हुई, आँखों में संशय।
नेहा मुस्कराई। “बैठो, सब ठीक होगा।”
उसने ब्रश उठाया, लेकिन आज उससे पहले उसने लड़की का हाथ थामा।
“क्या तुम खुश हो?” नेहा ने पूछा।
लड़की थोड़ा चौंकी, फिर धीरे से मुस्कराई। “हाँ… अब हो जाऊंगी।”
नेहा ने सिर हिलाया। “बस यही ज़रूरी है।”
लाल लिपस्टिक की ट्यूब उसकी ट्रे में रखी थी, लेकिन नेहा ने उसे आज नहीं उठाया।
उसने गुलाबी लिपग्लॉस लगाया—हल्का, लेकिन चमकदार।
“कभी-कभी रंग हल्के होते हैं, पर उनकी गहराई ज़्यादा होती है,” नेहा ने कहा।
लड़की ने मुस्कुरा कर हामी भरी।
शाम को स्टूडियो बंद करते हुए नेहा ने एक आखिरी नज़र उस दीवार पर डाली जहाँ अब भी वो पुरानी तस्वीर टंगी थी—वो जिसमें नेहा और सिया हँस रही थीं, बचपन की लाल लिपस्टिक लगाए।
अब उस तस्वीर के नीचे एक छोटी पट्टी जुड़ गई थी—
“हम वो थे, जो बोले नहीं… पर चुप भी नहीं रहे।“
उसने दीवार को छुआ और फिर स्टूडियो की बत्ती बुझा दी।
बाहर रात फैल रही थी।
लेकिन नेहा के भीतर एक नया सवेरा उग रहा था।
अब कोई डर नहीं था।
अब कोई छुपा राज़ नहीं था।
या शायद था—पर वो अब डराने के लिए नहीं, दिशा देने के लिए था।
रेड लिपस्टिक अब भी उसकी ड्रेसर में थी।
पर वो अब सिर्फ एक रंग थी।
ना कोई चीख, ना कोई खून।
बस एक कहानी, जो अब पूरी हो चुकी थी।
या शायद…
अभी शुरू ही हुई थी।
समाप्त