विवेक मिश्रा
शाम के साढ़े पांच बजे का वक्त था। आसमान धीरे-धीरे नारंगी से जामुनी होता जा रहा था। धूप की आखिरी किरणें गांव के पुराने पीपल के पेड़ों से छनकर मिट्टी पर पड़ रही थीं, और कहीं-कहीं से झींगुरों की आवाज़ें हवा में घुलने लगी थीं।
यही वो वक़्त था जब रवि अपनी मोटरसाइकिल लेकर शांतिनगर की ओर बढ़ रहा था। सड़क सुनसान थी, पक्की नहीं — कच्ची मिट्टी से भरी हुई, और हर थोड़ी दूर पर गड्ढे। लेकिन रवि की आँखों में एक अलग ही चमक थी — वो एक पत्रकार था, जो ‘रहस्य’ की तलाश में गांव-गांव घूमता रहता था। दिल्ली की एक ऑनलाइन मैगज़ीन के लिए वो “भूतहा कहानियों के पीछे का सच” नाम से एक सीरीज़ लिख रहा था।
इस बार उसका निशाना था — वृंदावन हाउस।
वृंदावन हाउस की कहानी रवि ने पहली बार एक बुजुर्ग इंटरनेट फोरम पर पढ़ी थी। लिखा था — “हर रात, ठीक बारह बजे, बंगले की सीढ़ियों पर किसी के चलने की आहटें आती हैं। बंगला वीरान है, फिर भी खिड़कियाँ अपने आप खुलती हैं। कोई नहीं दिखता, पर कोई है जरूर।”
शुरुआत में रवि ने इसे मज़ाक समझा। लेकिन जब उसे उसी बंगले के बारे में तीन अलग-अलग स्रोतों से जानकारी मिली — एक पुरानी अखबार की कटिंग, एक यू-ट्यूब वीडियो और फिर गांव के एक अध्यापक की फेसबुक पोस्ट — तो उसकी उत्सुकता एकदम चरम पर पहुँच गई।
गांव में घुसते ही उसे लगा जैसे उसने समय में पीछे कदम रख दिए हों। मिट्टी की गलियाँ, खपरैल की छतें, और धूप सेंकते बुजुर्ग। एक पुराना मंदिर गांव के मध्य में था, जहाँ घंटियों की आवाज़ मंद-मंद हवा में गूंज रही थी।
रवि ने अपनी बाइक को स्कूल के पास रोका और एक चाय की दुकान पर बैठ गया।
“भैया, एक चाय दीजिए।”
दुकानदार, जिसका नाम शंभू था, चाय बनाते-बनाते पूछ बैठा —
“नई लग रहे हो बाबूजी, कहां से आना हुआ?”
रवि मुस्कुराया, जैसे रहस्य का एक हिस्सा धीरे-धीरे खुलने लगा हो।
“दिल्ली से। पत्रकार हूं। वृंदावन हाउस के बारे में सुनकर आया हूं।”
शंभू का चेहरा जैसे अचानक सख्त हो गया। उसने चाय बनाना जारी रखा लेकिन आंखों में हलकी बेचैनी आ गई।
“काहे का करने आये हो वहाँ?” उसने धीमे सुर में पूछा।
“सच जानने… क्या वाकई वहाँ कुछ है?”
अब आसपास के दो-चार लोग, जो चाय की दुकान पर बैठे थे, कान खड़े करने लगे। कोई कुछ नहीं बोला, पर सबकी निगाहें रवि पर जम गईं।
शंभू ने चाय का गिलास रवि को थमाया और धीरे से बोला —
“देखो बाबूजी, लोग बहुत आये… कई पत्रकार, कई बहादुर लोग। पर कोई टिक न सका। दिन में जाओ, तस्वीरें खींचो, पर रात को… भूलकर भी मत जाना।”
रवि ने हल्की हँसी के साथ कहा —
“डर तो पत्रकारिता में होना नहीं चाहिए, है ना?”
शंभू ने कोई जवाब नहीं दिया। वो सिर्फ मुस्कराया — एक ऐसी मुस्कान जिसमें चेतावनी छिपी थी।
गांव में कोई होटल नहीं था। बस एक पुरानी धर्मशाला थी, जहाँ यात्री रात बिताते थे। एक बूढ़े चौकीदार, नाम था मोती काका, ने उसे कमरा दिखाया। छोटा-सा कमरा, लकड़ी का पलंग और एक खिड़की जो सीधे पूरब की तरफ़ खुलती थी।
रात को खाने के बाद रवि ने अपनी डायरी निकाली और लिखा:
“शांतिनगर गांव एक अलग ही दुनिया है। यहां लोग कुछ छिपा रहे हैं — या शायद डर में जी रहे हैं। वृंदावन हाउस का नाम लेते ही चेहरों पर खामोशी छा जाती है। कल रात मैं वहां जाने की सोच रहा हूं। कैमरा, रिकॉर्डर और टॉर्च तैयार हैं।”
अगली सुबह रवि गांव के पुराने बुजुर्ग हरिप्रसाद जी से मिला। उन्हें गांव का इतिहास पता था।
“बेटा, वृंदावन हाउस अब बस एक डर का नाम है। कभी वहाँ एक महिला रहती थी — शुभा देवी। बड़ी शालीन, सुंदर। उनके पति कहीं के व्यापारी थे। एक दिन वो घर से निकले और कभी लौटे नहीं। शुभा देवी इंतजार करती रहीं… सालों तक।”
“फिर एक दिन… बंगले की छत से उनकी लाश मिली। पुलिस ने आत्महत्या बताया, लेकिन लोग कहते हैं — वो इंतज़ार करते-करते पागल हो गई थीं… और किसी दिन कोई उन्हें छू गया… खींच कर नीचे फेंक दिया।”
रवि ध्यान से सुन रहा था। कहानी में दर्द भी था, रहस्य भी।
“अब हर रात बारह बजे कोई ऊपर चढ़ता है,” हरिप्रसाद बोले, “पर कोई दिखाई नहीं देता।”
रात आठ बजे रवि ने अपनी बैग तैयार की — कैमरा, रिकॉर्डर, टॉर्च, बैकअप बैटरी, पानी की बोतल और शुभा देवी की तस्वीर जो उसने गांववालों से ली थी।
धड़कनों की रफ़्तार थोड़ी तेज़ थी, लेकिन रोमांच उसकी नसों में बह रहा था।
“मैं देखूंगा कि आवाज़ें कहां से आती हैं… और क्यों।”
रात साढ़े ग्यारह बजे रवि बंगले की ओर बढ़ा। चारों तरफ़ सन्नाटा। सिर्फ झींगुरों की आवाज़ें और कभी-कभी उल्लू की बोली।
बंगले का फाटक लोहे का था — ज़ंग खाया हुआ, आधा गिरा। उसने धकेलकर खोला। एक ठंडी हवा का झोंका उसे छू गया।
बंगले के अंदर कदम रखते ही फर्श की लकड़ी चिरचिराई। दीवारों पर समय की छाप थी — प्लास्टर झड़ चुका था, दीमक लगे दरवाज़े, और कोनों में जाले।
उसने कैमरा चालू किया और धीमे-धीमे सीढ़ियों की ओर बढ़ा।
ठक… ठक… ठक…
रात के ठीक बारह बजने वाले थे। और तभी —
“ठक… ठक… ठक…”
जैसे कोई नंगे पांव फर्श पर चल रहा हो। आवाज़ सीढ़ियों से आ रही थी… धीरे-धीरे, एक-एक करके।
रवि ने दम साध लिया। कैमरा चालू था। वो धीरे से सीढ़ियों की ओर बढ़ा।
लेकिन वहां कोई नहीं था।
सिर्फ ठंडी हवा, जालों में फंसी धूल… और एक अहसास — कि कोई वहाँ है।
वृंदावन हाउस के बाहर घना अंधेरा छाया हुआ था। गांव की आखिरी बत्तियाँ काफी दूर थीं, और पेड़ों की शाखाएं बंगले की दीवारों को छूती हुई कांप रही थीं। रात के 12 बज चुके थे। रवि अब बंगले के अंदर अकेला था।
उसने कैमरा स्टैंड पर लगा दिया, नाइट विजन मोड चालू किया और रिकॉर्डर ऑन कर दिया। सब कुछ एक दस्तावेज़ बनना शुरू हो गया — जैसे एक अदृश्य किताब अपने आप लिखी जा रही हो।
वो धीरे-धीरे सीढ़ियों की तरफ बढ़ा, जहाँ पिछली रात “ठक… ठक…” की आवाज़ें सुनी गई थीं।
“ठक… ठक…” फिर वही आवाज़ें। लेकिन इस बार, ज़मीन पर कोई परछाईं भी पड़ी — नारी आकृति, सफेद साड़ी में।
रवि की रूह काँप गई।
परछाईं हिल नहीं रही थी। जैसे वो जम चुकी हो।
उसने साहस करके कैमरा उस दिशा में घुमाया — स्क्रीन पर कुछ धुंधला सा आया। आंखों से नहीं दिख रहा था, पर कैमरा जैसे एक और दुनिया दिखा रहा था।
वह परछाईं धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगी।
रवि ने खुद को संभाला और फौरन सीढ़ियों पर चढ़ा — हर कदम पर लकड़ी की चरमराहट, और दिल की धड़कनों की आवाज़ बढ़ती जा रही थी।
ऊपर एक लंबा गलियारा था, जिसके दोनों ओर दो-दो कमरे थे। दरवाज़े बंद थे, पर हवा में एक अजीब नमी थी — जैसे पुरानी यादें दीवारों से रिस रही हों।
रवि दाएँ तरफ वाले कमरे में गया। लकड़ी का दरवाज़ा जोर से धकेलने पर खुला। अंदर बिखरा हुआ सामान था — एक टूटा पलंग, फटी चादर, दीवार पर एक जर्जर फ्रेम जिसमें किसी महिला की पुरानी धुंधली तस्वीर थी।
वो तस्वीर… उसकी आंखों ने उस चेहरे को पहले भी कहीं देखा था। शुभा देवी।
दीवार के पास खड़े होकर जब रवि टॉर्च की रोशनी घुमाने लगा, तो उसकी नजर एक कोने में खींची गई लकीरों पर पड़ी।
अजीब अरेबिक या संस्कृत जैसी कोई भाषा — गोल-गोल आकृतियाँ, जिनके बीच लाल रंग का धब्बा जैसा कुछ था।
जैसे खून से कोई “मंत्र” लिखा गया हो।
रवि ने तुरंत उन लकीरों की तस्वीरें लीं। जैसे ही उसने लेंस क्लिक किया, टॉर्च की रोशनी फड़फड़ाई — और दीवार अपने आप कांपने लगी।
एक फुसफुसाहट — “वो लौटेगा…”
रवि का शरीर जैसे जम गया।
भागकर वह नीचे आया और अपने सारे उपकरण समेटे। बंगले से बाहर निकलते समय उसे एक हल्की-सी हवा ने जैसे पीछे खींचा हो। एक पल को लगा — कोई उसके कान के पास कुछ कह रहा हो।
“रुक जाओ…”
पर वह रुका नहीं। भागता हुआ सीधा धर्मशाला पहुंचा।
अगली सुबह जैसे ही सूरज निकला, उसने अपने कैमरे की रिकॉर्डिंग चेक की।
और वहाँ…
कमरे में एक महिला खड़ी थी। सफेद साड़ी में। कैमरे में साफ दिख रही थी।
पर उसने अपनी आंखों से तो कुछ नहीं देखा था?
महिला धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ी और बोली —
“हर रात, जब समय थमता है… मैं वहीं खड़ी रहती हूँ। इंतज़ार में…”
रवि सन्न रह गया।
वो लकीरें जो उसने दीवार पर देखी थीं — अब तस्वीर में और साफ दिख रही थीं। कैमरे के ज़ूम से पढ़ने पर उसमें लिखा था:
“वृंदावन की रूह कभी मुक्त नहीं होती।”
रवि ने तय किया — वो एक रात और वहाँ जाएगा। इस बार ऊपर के दूसरे कमरे में।
पर धर्मशाला के चौकीदार मोती काका ने साफ कह दिया —
“अगर आज रात वहाँ गए… तो शायद लौट न सको।”
रवि की आंखें जिद से भरी थीं।
“मैं लौटा… और कल फिर जाऊंगा।”
***
अगली सुबह रवि ने पूरी रात की फुटेज एक-एक फ्रेम में देखी। पर सबसे ज्यादा जो चीज़ उसे विचलित कर रही थी, वो थी उस औरत की छवि, जो कैमरे में दिखी थी — बिना किसी आवाज़, बिना किसी हलचल के, सीधी उसकी आँखों में झाँकती हुई।
फुटेज के अंत में एक बिंदु पर औरत अचानक ग़ायब हो जाती है, लेकिन पीछे उसकी धीमी-सी आवाज़ सुनाई देती है —
“मेरी डायरी… ढूंढो…”
रवि समझ गया, अब अगला कदम बंगले की दूसरी मंज़िल का दूसरा कमरा है — वो कमरा जिसे अब तक किसी ने नहीं खोला था।
शाम होते ही वह दोबारा वृंदावन हाउस पहुँचा। अब तक डर थोड़ा कम हुआ था, या शायद अब डर से ज्यादा जिज्ञासा हावी थी।
बंगले के भीतर घुसते ही हल्की सी सीलन और चंदन की मिली-जुली गंध आयी। सीढ़ियों पर चढ़ते समय उसे फिर वही ‘ठक ठक’ की हल्की आवाज़ सुनाई दी — जैसे कोई ऊपरी कमरे में चल रहा हो।
दूसरा कमरा एक मोटी ज़ंजीर से बंद था।
रवि ने एक लोहे की छड़ी से उसे तोड़ा। ज़ंजीर खुली, दरवाज़ा चरमराया… और खुलते ही एक ज़मीन से आती ठंडी हवा का झोंका उसके चेहरे से टकराया।
कमरा अजीब ढंग से सजा हुआ था। पुराने लकड़ी के बक्से, एक बड़ा आइना — जिसके एक कोने में दरार थी — और फर्श पर बिखरे हुए कागज़।
रवि ने टॉर्च से चारों ओर रोशनी फेंकी। और तभी एक बक्से के भीतर कुछ देखा।
एक लाल मखमली कपड़े में लिपटी हुई एक पुरानी, जली-सी डायरी।
उसने उसे धीरे से निकाला। पन्ने भूरे हो चुके थे, किनारे जले हुए, लेकिन अक्षर अब भी स्पष्ट थे। डायरी के पहले पृष्ठ पर लिखा था — “शुभा देवी की निजी डायरी — किसी अनजान को पढ़ने की मनाही है।”
रवि ने ठंडी सांस ली —
“माफ करना शुभा देवी, पर मुझे तुम्हारी सच्चाई जाननी ही होगी।”
– 17 अगस्त 1979
“आज एक बार फिर वही सपना आया — मैं सीढ़ियों से उतर रही हूँ, और कोई मुझे ऊपर से धक्का देता है… फिर नींद खुल जाती है।
बिपिन बाबू आज फिर देर रात तक कमरे में बंद थे। न जाने क्या छुपाते हैं मुझसे।
मैंने पिछली रात गलियारे में किसी को चलते हुए सुना। जब खिड़की से देखा, तो कोई सफेद साया दिखा — पर जब दरवाज़ा खोला… कुछ नहीं था।”
रवि के हाथ काँप उठे।
बिपिन बाबू? यही वो नाम था जिसे मोती काका अक्सर गुस्से से लेते थे। और अब वही नाम डायरी में बार-बार उभर रहा था।
– 25 अगस्त 1979
“मुझे यकीन है — बंगले में कुछ तो है। कोई आत्मा, कोई शक्ति जो मुझे देखती है।
आज आइने के सामने खड़ी थी, और मुझे अपनी ही आँखें पराई लगीं।
बिपिन बाबू अब पूरी तरह बदल चुके हैं। उनकी आंखों में डर नहीं, गुस्सा है…
आज उन्होंने कहा —
‘अगर तूने फिर किसी से कुछ कहा… तो हमेशा के लिए चुप कर दूँगा।’
मैं डरती हूँ। पर अब लिखना ही मेरा सहारा है।”
रवि को जैसे साँस लेना मुश्किल हो रहा था।
यह डायरी केवल शब्द नहीं थी — एक स्त्री की दबाई हुई चीख, जो अब बंगले की दीवारों से टकरा रही थी।
1 सितम्बर 1979
“आज बिपिन बाबू ने मुझे कमरे में बंद कर दिया।
मुझे लगा यही मेरी आखिरी रात है।
अगर कोई कभी ये डायरी पढ़े — तो जान लो, मैंने कुछ गलत नहीं किया।
बंगले में जो कुछ होता है, उसका रहस्य नीचे तहखाने में छिपा है।
मेरी आत्मा शायद तब तक मुक्त न हो, जब तक सच सामने न आए।
— शुभा”
तहखाना?
रवि एक पल के लिए ठहर गया।
इस बंगले में तहखाना है?
कहां?
मोती काका ने कभी नहीं बताया। किसी ने जिक्र नहीं किया।
रवि ने तय किया — अब अगली खोज तहखाने की होगी।
पर तभी उसे महसूस हुआ — कमरे का तापमान अचानक कम हो गया था।
उसने कैमरा चालू किया और जैसे ही स्क्रीन पर देखा…
आइने में शुभा देवी की परछाईं खड़ी थी। बिल्कुल शांत।
उसने धीरे से होंठ हिलाए — “सच सामने लाओ।”
रवि ने डायरी को एक बैग में रखा और बंगले से निकल गया। वो जान चुका था — तहखाना इस पूरी कहानी की कुंजी है।
पर एक सवाल अब भी अनुत्तरित था — क्या बिपिन बाबू अब भी ज़िंदा हैं?
या उनकी आत्मा भी अब इस बंगले में कहीं कैद है?
शुभा देवी की डायरी ने रवि की सोच की दिशा ही बदल दी थी। अब तक वह सिर्फ बंगले की बाहरी घटनाओं से उलझा हुआ था, लेकिन अब वह जान चुका था — असली रहस्य उस जगह के अंदर कहीं दफन है।
डायरी के आख़िरी शब्द —
“बंगले में जो कुछ होता है, उसका रहस्य नीचे तहखाने में छिपा है।”
तहखाना?
पर बंगले में तो ऐसी कोई सीढ़ियाँ या दरवाज़ा था ही नहीं।
या फिर… उसे अभी तक बस दिखाई नहीं दिया?
रवि ने अगले दिन नगरपालिका दफ्तर जाकर 1970 का नक्शा निकलवाया, जिसमें वृंदावन हाउस की असली बनावट दर्ज थी।
वह चौंक गया।
नक्शे में बंगले के मुख्य हाल के नीचे एक सीक्रेट रूम दिखाया गया था — एक तहखाना, जिसके लिए सीढ़ियाँ रसोईघर से जाती थीं।
रसोईघर! वो तो मोती काका का कमरा था!
रवि ने तय किया — अब वह वहां दिन में ही जाएगा, ताकि रात के डरावने साए न हों।
रवि दोपहर को बंगले पहुँचा। मोती काका बाहर सब्जी लेने गए थे।
रसोईघर पुरानी लकड़ी से बना था। चूल्हा अब भी वैसे ही था, जैसे बीते समय में किसी ने जलाया हो।
रवि ने फर्श पर ध्यान से देखा — वहां टाइल्स की एक कतार बाकी हिस्से से अलग लग रही थी।
टाइल्स पर एक हल्की रेखा बनी थी — जैसे वहां कोई दरवाज़ा हो।
रवि ने धीरे-धीरे चाकू से किनारे कुरेदा। कुछ देर बाद एक लोहे का हैंडल दिखाई दिया।
उसने खींचा।
“ठाक!”
फर्श का एक हिस्सा ऊपर उठा, और उसके नीचे दिखी सीढ़ियाँ, जो अंधेरे में उतरती थीं — अंधकार के पेट में छिपा कोई रहस्य।
रवि ने टॉर्च चालू की और धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा। हर सीढ़ी पर धूल की मोटी परत थी, पर साथ ही हवा में कुछ सड़ने की गंध थी।
नीचे पहुंचते ही वह एक संकरी सुरंग में पहुँचा, जो पत्थर की दीवारों से बनी थी।
वह कुछ कदम ही चला था कि अचानक दीवार पर लटकी एक पुरानी तस्वीर ने उसका ध्यान खींचा।
उस तस्वीर में शुभा देवी थीं — पर साथ में एक और शख्स… बिपिन बाबू, और उनके पीछे एक तीसरा चेहरा — जो डायरी में कहीं जिक्र में नहीं आया था।
वह आदमी मुस्कुरा रहा था… लेकिन उसकी आंखों में कुछ खौफनाक था।
सुरंग के अंत में एक भारी-भरकम लोहे का दरवाज़ा था, जिस पर तीन जंग लगे ताले लगे थे।
ताले पुराने ज़माने के थे, जिन्हें चाभी से नहीं, खास तरीके से घुमाकर खोलना पड़ता था।
रवि ने दीवारों पर ध्यान से देखा। एक कोने में छिपे हुए संकेत उकेरे गए थे —
पहला ताला — “जहाँ आईना टूटा, वहीं सच्चाई छुपी।”
दूसरा ताला — “बिना नाम के कमरा, जहाँ हर रात एक छाया घूमती है।”
तीसरा ताला — “जिसे सबने देखा, पर कोई नहीं समझा।”
रवि सोचने लगा — ये पहेलियाँ बंगले के ही कमरों से जुड़ी हैं।
पहला ताला — आइना जहाँ टूटा था, वो शुभा देवी का कमरा था।
वहां के पुराने फर्श के नीचे उसे एक घुमाने वाला चक्र मिला था। जब उसने उसे घुमाया, एक हल्की ‘क्लिक’ की आवाज़ आयी — पहला ताला खुल गया।
दूसरा ताला — बिना नाम का कमरा, जिसमें कैमरे में छाया दिखाई दी थी।
उस कमरे की छत पर उकेरा गया एक चिह्न — जैसे किसी मंत्र का।
वह चिह्न दरवाज़े पर उकेरते ही दूसरा ताला भी खुल गया।
तीसरा ताला — “जिसे सबने देखा, पर कोई नहीं समझा।”
रवि समझ गया — ये मोती काका हैं।
बंगले में सबसे पुराना चेहरा, सबकी नजरों में, पर असली राज उनसे जुड़ा है।
वह दौड़ता हुआ मोती काका के कमरे में गया और उनकी पुरानी संदूक से एक लकड़ी की मूठ वाली चाबी निकाली — जो इस ताले में एकदम फिट बैठी। तीसरा ताला भी खुल गया।
दरवाज़ा चरमराता हुआ खुला। भीतर घुप अंधेरा था। रवि ने टॉर्च घुमाई…
भीतर एक छोटी सी कोठरी थी — जिसमें एक पुराना पलंग, एक टेबल, और दीवारों पर खून से लिखी इबारतें।
टेबल पर पड़ी थी एक पुरानी तस्वीर — जिसमें शुभा देवी ज़ंजीरों में बंधी थीं… और सामने खड़ा था वही तीसरा आदमी… जिसकी आंखों में अब रवि को शैतान दिख रहा था।
दीवार पर लिखा था —
“शुभा की आत्मा कभी मुक्त नहीं होगी… जब तक मैं जिंदा हूँ…”
रवि को एहसास हुआ — बिपिन बाबू नहीं, वो तीसरा आदमी असली राक्षस था।
अचानक टॉर्च बंद हो गई। अंधेरे में रवि की सांसें तेज़ हो गईं। तभी पीछे से किसी के कदमों की आहट…
ठक… ठक… ठक…
और एक धीमी आवाज़ —
“अब तुमने जान लिया है… तो तुम भी यहीं रहोगे…”
***
पिछले अध्याय में रवि तहखाने के रहस्यमयी कमरे तक पहुंच चुका था। दीवारों पर खून से लिखी इबारतें, शुभा देवी की ज़ंजीरों में जकड़ी तस्वीर, और अचानक बुझती टॉर्च के बीच पीछे से आई आवाज़:
“अब तुमने जान लिया है… तो तुम भी यहीं रहोगे…”
अंधेरे में रवि की सांस रुक सी गई।
कदमों की आहट और वो आवाज़… जैसे वह तीसरा आदमी आज भी वहां जिंदा हो।
रवि ने घबराते हुए जेब में रखा माचिस निकाला और एक तीली जलाई। उसकी कांपती रोशनी में दीवारें जैसे और डरावनी लगने लगीं।
तभी सामने फर्श पर कुछ गिरने की आवाज़ हुई।
छप… छप…
जैसे कोई गीली ज़मीन पर नंगे पांव चल रहा हो।
रवि ने कांपती उंगलियों से अगली तीली जलाई।
अचानक सामने एक साया दिखा — लंबा, झुका हुआ, और आंखें चमकती हुईं।
लेकिन वो बस एक क्षण का दृश्य था।
फिर सामने की दीवार पर रवि को दिखा एक छोटा सा लकड़ी का दरवाज़ा — शायद तहखाने के पिछले हिस्से से जुड़ा कोई सीक्रेट एग्जिट।
रवि ने दरवाज़ा खींचा और भागता हुआ वहां से निकल गया।
बाहर आकर वो सीढ़ियाँ चढ़ते हुए फिर बंगले के मुख्य हाल में पहुँचा, और वहीं गिरकर बेहोश हो गया।
दूसरे दिन रवि जब होश में आया, तो मोती काका उसके पास बैठे थे।
“बाबू, आप तहखाने में क्यों गए थे?” मोती काका की आवाज़ में डर भी था और झिझक भी।
रवि ने सीधा पूछा —
“आप जानते हैं उस तीसरे आदमी को? जिसने शुभा देवी को बंदी बनाया था?”
मोती काका चुप हो गए।
कुछ देर बाद उन्होंने धीरे से कहा —
“जानता हूँ बाबू… वो कोई और नहीं, शुभा देवी का सौतेला भाई था… ‘अद्वैतनाथ’…”
कौन था अद्वैतनाथ?
मोती काका की जुबानी, 40 साल पुरानी कहानी सामने आई —
अद्वैतनाथ, शुभा देवी का सौतेला भाई, बेहद चतुर लेकिन लालची था। उनके पिता के मरने के बाद, ज़मीन-जायदाद सब शुभा के नाम हो गई, क्योंकि अद्वैतनाथ को नशे की लत थी।
इस अपमान से तिलमिलाकर, एक रात वह बंगले में घुस आया और शुभा देवी को तहखाने में बंद कर दिया।
पर वह कभी सामने नहीं आया। उसने छिपकर तांत्रिक विद्या सीखी और बंगले में काले जादू की शुरुआत की।
धीरे-धीरे बंगले में अजीब घटनाएं होने लगीं, और गांववालों ने आना बंद कर दिया।
कुछ महीने बाद एक दिन बंगला बंद हो गया। किसी ने नहीं देखा कि शुभा देवी मरीं या जीवित रहीं।
मोती काका ने कहा —
“अद्वैतनाथ कभी मरा नहीं बाबू… वो अब भी इसी बंगले के अंधेरे में छिपा है। वो जीता नहीं… बस भटकता है… और उन सबको रोकता है जो इस रहस्य को जान लें…”
रवि ने पूछा — “क्या शुभा देवी की आत्मा आज़ाद नहीं हो सकती?”
मोती काका ने सिर झुका लिया —
“अगर अद्वैतनाथ का अस्तित्व खत्म हो जाए… तभी।”
रवि को याद आया कि तहखाने में टेबल के पास एक पुरानी किताब पड़ी थी।
वह दोबारा उसी रास्ते से तहखाने में गया — इस बार दिन के उजाले में।
वहां टेबल पर एक भारी चमड़े की किताब थी:
“रक्तमंत्र: शापित आत्माओं की साधना”
लेखक: अद्वैतनाथ मुखर्जी
किताब की आख़िरी पंक्ति:
“मैं मरूंगा नहीं। जब तक कोई मेरी आत्मा को मेरे नाम से पुकारकर शुद्ध नहीं करता… मैं इस बंगले का पहरेदार रहूंगा…”
रवि समझ गया — अद्वैतनाथ को उसका नाम लेकर बुलाना और मंत्रोच्चार से मुक्त करना ही एकमात्र रास्ता है।
रात को 12 बजे रवि फिर तहखाने में गया। इस बार उसके हाथ में जलता हुआ दीपक था, और किताब से सीखा हुआ शुद्धिकरण मंत्र।
जैसे ही वह कमरे में पहुँचा, हवा ठंडी होने लगी। दीवारें कांपने लगीं। और सामने… वही साया… वही आदमी। अद्वैतनाथ।
उसके चेहरे पर खून के निशान, आंखें जलती हुईं, और उसकी आवाज़ —
“तू कौन है जो मुझे बुलाने आया?”
रवि कांपते हुए बोला —
“अद्वैतनाथ मुखर्जी! तेरी शक्ति अब समाप्त हो रही है! तेरी आत्मा मुक्त हो!”
और वह मंत्र पढ़ने लगा…
जैसे-जैसे मंत्र पूरा हुआ, साया चीखने लगा। दीवारों से खून बहने लगा। ज़मीन कांप उठी।
फिर एक पल में, साया रोशनी में बदल गया… और गायब हो गया।
कमरे की दीवारें शांत हो गईं।
टेबल पर पड़ी शुभा देवी की तस्वीर की जंजीरें अब टूट चुकी थीं। उनके चेहरे पर मुस्कान थी।
अगले दिन रवि ने देखा — बंगले का वातावरण बदल गया है।
चिड़ियों की चहचहाहट थी, हवा में अब दुर्गंध नहीं बल्कि चंपा के फूलों की सुगंध थी।
गांववाले हैरान थे — वृंदावन हाउस अब डरावना नहीं रहा।
और मोती काका की आंखों में पहली बार सुकून था।
रात के सन्नाटे में, रवि की आंखें अचानक खुल गईं। उसने खुद को पसीने से भीगा हुआ पाया। हवा ठंडी थी, लेकिन कमरे में अजीब सी गर्मी थी — जैसे कोई अभी-अभी वहां से गया हो।
उसने सपना देखा था —
एक कमरा, पीली रोशनी में डूबा। वहां एक औरत खड़ी थी — शुभा देवी।
उनके होंठ हिल रहे थे, लेकिन आवाज़ नहीं निकल रही थी।
उन्होंने धीरे से हाथ बढ़ाकर कुछ देने की कोशिश की…
एक पन्ना।
और फिर एक वाक्य: “मेरी डायरी अभी पूरी नहीं हुई…”
सुबह रवि सीधे उस कमरे में गया, जहां उसने शुभा देवी की तस्वीर देखी थी।
कमरे के कोने में एक पुराना संदूक पड़ा था। पहले वो कभी नहीं खुला था, लेकिन आज — जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने ताले को ढीला कर दिया हो — वह आसानी से खुल गया।
अंदर मिली एक पुरानी, कपड़े में लिपटी डायरी — वही डायरी जिसे रवि ने पहले देखा था, लेकिन इस बार उसमें एक नया पन्ना जुड़ा था।
पन्ने पर हाथ से लिखी इबारतें थीं —
स्याही फीकी पड़ चुकी थी, लेकिन अक्षर अब भी पढ़े जा सकते थे।
“आज तीसरी रात है… जब मैं तहखाने में हूं। अद्वैत ने मुझे बंद कर दिया है।
वह बदल चुका है — वह अब इंसान नहीं रहा।
वह आत्माओं को क़ैद करता है, और मुझसे कहता है कि जब तक मैं उसे ज़मीन नहीं सौंपती, वह मुझे इस अंधेरे से बाहर नहीं निकालेगा।
लेकिन मुझे भरोसा है… एक दिन कोई आएगा…
कोई, जो मेरी आख़िरी चिट्ठी पढ़ेगा और मुझे आज़ाद करेगा।
मेरी आत्मा तब तक भटकेगी, जब तक वह एक अधूरा वादा पूरा नहीं हो जाता…”
रवि चौंक गया। “वादा? कैसा वादा?”
डायरी के अगले हिस्से में एक और पंक्ति थी:
“अगर कोई बंगले की छत पर रखे काले संदूक को खोजे… उसे मेरा आख़िरी रहस्य मिलेगा।”
रवि ने झटपट छत पर जाने का रास्ता ढूंढ़ा। सीढ़ियों की अंतिम सीढ़ी एक संकरी लकड़ी की ढलान से जुड़ी थी जो वर्षों से बंद थी।
धूल से भरे उस रास्ते को पार करके वह छत पर पहुँचा।
छत पर एक कोने में, पुराने ईंटों के नीचे लोहे का काला संदूक रखा था। किसी ज़माने में वहां तांत्रिक अनुष्ठान हुआ करते थे।
रवि ने जब संदूक खोला, तो उसमें मिली:
1. एक लाल रंग की साड़ी का टुकड़ा
2. शुभा देवी की और किसी अनजान युवक की तस्वीर
3. और एक चिट्ठी — जिसे काले धागे से बांधा गया था।
उस चिट्ठी में क्या लिखा था?
रवि ने धीरे-धीरे उस चिट्ठी को खोला।
“प्रिय देव…
मुझे माफ़ करना कि मैं तुम्हें आख़िरी बार देख नहीं पाई।
मैं तुमसे विवाह करना चाहती थी। मैंने अद्वैत से लड़ाई भी की, लेकिन वह नहीं माना।
मेरी मौत अगर कभी हो, तो जान लेना — मैं तुम्हारे नाम की होकर गई हूँ।
अगर कोई ये चिट्ठी पढ़े, तो मेरी आत्मा को संदेश देना —
मैं अपने देव से मिलने को तैयार हूँ…
तुम्हारी — शुभा।”
कौन था देव?
रवि सोच में पड़ गया। “कौन था ये देव? और क्या वो अब भी ज़िंदा है?”
उसे याद आया कि गांव में एक बेहद बूढ़ा आदमी है — देवेन ठाकुर। कभी युवक था, लेकिन अब एकांत में रहता है, बात नहीं करता। रवि उसी के पास गया।
देवेन ठाकुर एक पतले, कांपते बूढ़े आदमी थे। आंखें गहरी, पर उदास।
रवि ने धीरे से उनके सामने तस्वीर रखी।
देवेन की आंखों से आंसू बहने लगे।
“शुभा…” उन्होंने फुसफुसाया।
“आप देव हैं?” रवि ने पूछा।
देवेन चुप रहे। फिर धीरे से बोले —
“मैंने ज़िंदगी भर इंतज़ार किया… लेकिन वो लौटकर कभी नहीं आई।”
रवि ने कहा — “उसकी आत्मा आज़ाद हो गई है… पर उसका वादा अब भी अधूरा है।”
रवि ने देवेन ठाकुर को बंगले तक लाया। रात को 12 बजे, छत पर बने पुराने तांत्रिक मंडप में एक दिया जलाया गया।
देवेन ने शुभा का नाम लेकर अंतिम बार पुकारा —
“शुभा… मैं अब भी तुम्हें चाहता हूँ। आओ…”
हवा तेज़ हुई। आसमान में बादल गहराए।
और फिर — एक सफेद धुंध सी छाया मंद रूप में सामने आई।
शुभा देवी।
उनका चेहरा शांत था, आंखों में आंसू, और होठों पर मुस्कान।
देवेन ने हाथ फैलाया —
“माफ़ कर दो…”
शुभा ने सिर झुकाया, फिर धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ी।
दोनों छायाएं एक हो गईं… और फिर हवा में विलीन।
अगली सुबह, बंगला पूरी तरह बदल चुका था।
अब वहां डर नहीं, बल्कि शांति थी।
शुभा देवी की आत्मा अब मुक्त थी।
और देवेन ठाकुर — मुस्कुराते हुए उसी रात स्वप्न में चले गए। उनके चेहरे पर था वर्षों से गायब वो सुकून।
***
बंगले के आसपास की बातें अब गांव के लोगों के बीच धीरे-धीरे फैलने लगी थीं।
शुभा देवी की आत्मा के मुक्त होने की कहानी सुनकर कई लोगों ने राहत की सांस ली थी।
लेकिन एक दिन, अचानक एक अनजान आदमी बंगले के सामने प्रकट हुआ।
उसका नाम था विक्रमाधित्य सिंह।
विक्रमाधित्य ने घोषणा की —
“यह बंगला मेरी विरासत है। मैं अद्वैतनाथ सिंह का पोता हूं।”
गांव के बुजुर्गों ने कहा —
“ये तो बेबसी में आने वाला कोई शोहद हो सकता है। अद्वैतनाथ तो मर चुका है। बंगला राज्य सरकार के अधीन है।”
लेकिन विक्रमाधित्य ने अपने दावे के पक्ष में कुछ दस्तावेज दिखाए —
पुराने ज़मीन के कागज, वंशावली की प्रतियां, और एक पुराना ताबीज़, जो बंगले की छत से मिला था।
पर जैसे ही विक्रमाधित्य बंगले में रहने लगा, वहाँ फिर से अजीब घटनाएं होने लगीं —
रात को अंधेरा घिरते ही दरवाज़े खुद-ब-खुद बंद हो जाते थे।
दीवारों से फुसफुसाहटें सुनाई देती थीं।
कभी-कभी, बंगले की दीवारों पर छाया-सी कोई आकृति उभर आती थी।
एक बार, मध्यरात्रि में विक्रमाधित्य ने एक गहरा स्वर सुना, जो बंगले की तहखाने से आ रहा था।
रवि ने विक्रमाधित्य से मिलने का फैसला किया।
वह चाहता था जानना कि बंगले में फिर से क्यों यह अंधेरा छाने लगा है।
विक्रमाधित्य ने बताया कि वह अद्वैतनाथ की अंतिम इच्छा को पूरा करना चाहता है —
वह चाहता है कि बंगले के तहखाने में दफ़न कोई रहस्य बाहर निकले।
लेकिन रवि को शक हुआ —
क्या यह सच में विक्रमाधित्य की मंशा है? या फिर कुछ और छिपा हुआ है?
रवि, शुभा की डायरी और पिछले सबूतों के आधार पर तहखाने का दरवाज़ा ढूंढ़ने चला।
वह विक्रमाधित्य को साथ लेकर गया, लेकिन तहखाने की चाबी सिर्फ़ विक्रमाधित्य के पास थी।
जब दरवाज़ा खुला, तहखाने के अंदर अजीब सी ठंडक महसूस हुई।
दीवारों पर पुराने चित्र और तांत्रिक चिह्न बने हुए थे।
तहखाने के बीचोंबीच एक ज़मीन की पट्टी थी, जिस पर लाल रंग से कुछ मंत्र लिखे थे।
विक्रमाधित्य ने बताया कि उसकी दादा ने एक तांत्रिक से ये सुरक्षा मंत्र बनवाए थे।
पर तभी एक पुरानी छाया जैसी आकृति उभर आई —
एक पंडित, जिसका चेहरा काला था और आंखों से लाल चमक निकल रही थी।
पंडित की छाया ने विक्रमाधित्य को धमकाना शुरू कर दिया —
“यह बंगला तुम्हारा नहीं, यह मेरी ताक़त का घर है।”
रवि ने समझा कि बंगले में जो तांत्रिक काला जादू हुआ था, वह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था।
रवि और विक्रमाधित्य ने मिलकर इस रहस्यमयी पंडित को भगाने का फैसला किया।
रवि ने शुभा की डायरी की मदद से तांत्रिक मंत्रों का अध्ययन किया।
विक्रमाधित्य ने अपनी वंश परंपरा के बारे में बताया।
यह लड़ाई होगी — अंधकार बनाम प्रकाश की।
रवि, विक्रमाधित्य, और उनके छोटे से दल के बीच संघर्ष की तैयारी शुरू हो गई।
वे जानते थे — ये लड़ाई सिर्फ़ बंगले की नहीं, बल्कि उन तमाम अनसुलझे रहस्यों की थी जो सदियों से छुपे थे।
रवि और विक्रमाधित्य ने मिलकर बंगले के रहस्यों को समझने की ठानी।
रवि ने शुभा देवी की डायरी फिर से पढ़ी, जिसमें कई तांत्रिक मंत्र और प्राचीन रहस्य छिपे थे।
उन्होंने तय किया कि पहली रात को जब पूरा बंगला सबसे ख़ामोश होगा, वे तहखाने में जाकर उस काले पंडित की छाया से सामना करेंगे।
रवि, विक्रमाधित्य और दो-तीन भरोसेमंद साथियों के साथ वे तहखाने में उतरे।
मंद रोशनी में, दीवारों पर बने तांत्रिक चित्र जैसे जीवित हो उठे।
जैसे ही वे मंत्र पढ़ने लगे, वातावरण भारी और घने बादलों की तरह काला होने लगा।
काला पंडित प्रकट हुआ, उसकी लाल आंखों में आक्रोश और शक्ति थी।
उसने गहरी आवाज़ में कहा —
“तुम्हें मुझसे नहीं लड़ना चाहिए। यह बंगला मेरी शक्ति का केन्द्र है।”
लेकिन रवि ने डटकर कहा —
“यह बंगला अब तन्हा नहीं रहेगा। शुभा देवी की आत्मा को अब आज़ादी चाहिए।”
दोनों तरफ से तांत्रिक मंत्र और ऊर्जा की आहटें गूंजने लगीं।
हवा में बिजली सी कड़क रही थी, दीवारें कांप रही थीं।
रवि ने डायरी से एक खास मंत्र पढ़ा, जो अंधकार को पीछे हटाने वाला था।
अचानक, शुभा देवी की सफेद परछाई प्रकट हुई।
उसने मुस्कुराते हुए कहा —
“रवि, तुम्हारा मंत्र सही दिशा में है। इस लड़ाई में मेरी आत्मा तुम्हारे साथ है।”
शुभा की उपस्थिति से माहौल थोड़ा हल्का हुआ, और काले पंडित की छाया कमजोर पड़ने लगी।
अंधकार ने गरजते हुए पीछे हटना शुरू किया।
लेकिन यह अंत नहीं था। पंडित ने चेतावनी दी —
“मैं लौटूँगा, और फिर भी यह लड़ाई खत्म नहीं होगी।”
रवि ने ठानी कि वे बंगले के सारे रहस्यों को खोदेंगे और पूरी शक्ति से इस लड़ाई को अंत तक लड़ेगें।
***
सुबह की पहली किरण जब बंगले की खिड़कियों पर पड़ी, तो रवि की आँख खुली।
वह पिछले रात के संघर्ष को याद कर रहा था —
शुभा की आत्मा की उपस्थिति, काले पंडित की वापसी की चेतावनी, और दीवारों पर हिलते प्रतीक।
लेकिन उसी समय विक्रमाधित्य कमरे में घुसा, उसके हाथ में एक पुराना नक्शा था।
“रवि, मुझे तहखाने के पीछे एक गुप्त दीवार का ज़िक्र मिला है — जिसे ‘तीसरी दीवार’ कहा जाता है।”
नक्शे में बंगले का तहखाना चार दीवारों से घिरा दिख रहा था,
लेकिन एक दीवार — उत्तर दिशा की — अलग थी।
उसके पीछे कुछ और कमरा छिपा हुआ था।
रवि ने तुरंत फैसला लिया —
“हमें आज ही उस दीवार तक पहुँचना होगा।”
शाम होते ही, रवि, विक्रमाधित्य और एक बढ़ई की मदद से उन्होंने तीसरी दीवार को तोड़ना शुरू किया।
दीवार बहुत पुरानी थी — ईंटें गीली थीं, जैसे वर्षों से उन्हें हवा और धूप नहीं मिली हो।
जैसे ही दीवार गिरी, एक लंबा, अंधेरा गलियारा खुला।
दीवार के ठीक अंदर एक काँच का संदूक था, जिसमें एक लड़की की तस्वीर, एक चूड़ी और एक डायरी रखी थी।
डायरी शुभा की नहीं थी।
उस पर लिखा था — “मालविका – 1958”
रवि और विक्रमाधित्य एक-दूसरे को देखने लगे।
क्या बंगले में सिर्फ़ शुभा ही नहीं, कोई और आत्मा भी थी?
डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था —
“मुझे किसी ने ज़िंदा दीवार में चुनवा दिया था। मैं अब भी यहाँ हूँ। कोई मुझे देख नहीं सकता।”
रवि सिहर उठा।
क्या मालविका को उसी बंगले में मारा गया था? क्या वह तीसरी दीवार के पीछे दफ्न थी?
डायरी में एक नाम बार-बार आ रहा था —
“नरेश”
मालविका ने लिखा था कि बंगले का नौकर नरेश अक्सर तहखाने में तांत्रिकों को बुलाता था।
वह शुभा और मालविका दोनों से नफरत करता था।
शायद उसी ने दोनों पर काला जादू करवाया।
रवि ने नरेश के बारे में स्थानीय थाने से जानकारी जुटाई।
पता चला कि नरेश को 1960 में ‘मानसिक विकृति’ के कारण अस्पताल भेजा गया था,
लेकिन उसका नाम किसी केस में नहीं आया।
वह अस्पताल में कुछ साल रहा, फिर गायब हो गया।
रात को बंगले में मालविका की परछाई दिखाई दी।
वह रो रही थी। उसने सिर्फ़ इतना कहा —
“मुझे न्याय चाहिए। मैं तब तक मुक्त नहीं हो सकती जब तक मेरा कातिल सामने न आए।”
रवि समझ गया — बंगले की कहानी अब और गहरी होने वाली है।
अगली सुबह रवि और विक्रमाधित्य ने तय किया —
अब वे सिर्फ़ आत्माओं से नहीं, एक ज़िंदा रह चुके हत्यारे की सच्चाई से भी लड़ेंगे।
बंगला अब केवल एक भूतिया इमारत नहीं,
बल्कि उन सभी अनकहे अन्यायों का प्रतीक बन चुका था,
जिन्हें दबा दिया गया था।
बंगले के आंगन में अजीब सी खामोशी थी।
रवि की नींद आधी रात को खुली — उसने साफ़ सुना, कोई सीढ़ियाँ चढ़ रहा था।.धीमी आहटें, जैसे कोई चप्पल घसीट रहा हो।
रवि धीरे से उठा, टॉर्च हाथ में ली और दरवाज़ा खोला।
सीढ़ियों के कोने में एक परछाई खड़ी थी — लम्बी, दुबली और सिर झुकाए।
उसने धीरे से गर्दन घुमाई —
उसका चेहरा मानव और भूत के बीच कुछ था।
वह परछाई बोली, “मेरा नाम नरेश है… मैं इस बंगले का आखिरी सच हूँ।”
उसकी आवाज़ बुझे दीपक जैसी थी — कांपती, बुझती, लेकिन चुभती हुई।
रवि ने साहस करके पूछा, “क्या तुमने शुभा और मालविका को मारा था?”
नरेश हँसा।
“नहीं। मैंने उन्हें नहीं मारा। मैं तो सिर्फ़… रास्ता था।”
जैसे ही रवि तहखाने की ओर बढ़ा, हवा में सिसकियों की गूंज सुनाई दी।
मालविका की आत्मा दीवार में से निकल आई।
उसने चिल्ला कर कहा, “नरेश ही था जिसने हमें तांत्रिकों के हवाले किया। शुभा को जिंदा जलवाया, मुझे दीवार में चुनवाया।”
नरेश की परछाई अचानक ज़ोर से काँपी और ज़मीन पर गिर गई।
उसने कहा, “मैंने जो किया, उसकी सजा मुझे मिल रही है… लेकिन असली पंडित अभी भी जीवित है…”
रवि और विक्रमाधित्य उस रात पूरी डायरी फिर से पढ़ने लगे।
एक नया नाम उभरा —
पंडित चंद्रकांत तिवारी।
वह एक खतरनाक तांत्रिक था, जो 1950–60 के दशक में बंगाल और बिहार में तंत्र के नाम पर कई युवतियों को गायब करता रहा।
पुलिस कभी उसका पता नहीं लगा पाई।
शुभा की डायरी में एक गाँव का ज़िक्र था —
चंद्रवाटी, जो बंगले से लगभग 35 किलोमीटर दूर एक वीरान पहाड़ी क्षेत्र में था।
रवि और विक्रमाधित्य ने तय किया —
“अब अगला कदम बंगले से बाहर है। हमें चंद्रवाटी जाना होगा।”
अगली रात मालविका की आत्मा ने नरेश की परछाई को घेरे में लिया।
उसने कहा, “तेरा अपराध अधूरा नहीं था… लेकिन तेरा पश्चाताप सच्चा था।”
रात के तीसरे पहर, नरेश की परछाई धीरे-धीरे धुंए में बदल गई।
उसका चेहरा शांत हो चुका था — पहली बार।
बंगले में पहली आत्मा को मुक्ति मिली थी। रवि और विक्रमाधित्य जीप में सवार होकर बंगले से 35 किलोमीटर दूर वीरान गाँव चंद्रवाटी की ओर निकल पड़े।
रास्ता बीहड़ों और जंगली पगडंडियों से होकर गुजरता था।
गूगल मैप भी रास्ता नहीं दिखा पा रहा था।
गाँव वालों ने चेताया —
“उस हवेली की ओर मत जाना। वहाँ से जो गया, कभी लौटा नहीं।”
लेकिन अब लौटना नामुमकिन था। हवेली का पहला दृश्य
चंद्रवाटी के अंतिम छोर पर एक विशाल पत्थर की हवेली खड़ी थी थी- काली दीवारें, टूटी खिड़कियाँ, और हवा में राख की गंध।
हवेली के दरवाज़े पर ताज़ा चूना लगा था —
मतलब, कोई अब भी वहाँ रहता है।
जैसे ही दोनों हवेली के अंदर घुसे, एक गहरी आवाज़ गूँजी —
“तुम आ ही गए। मुझे मालूम था।”
वह था — पंडित चंद्रकांत तिवारी।
कम से कम 90 वर्ष का, लेकिन उसकी आँखों में अब भी वही पागलपन और लालच।
उसके चारों ओर तांत्रिक मंत्रों से भरी किताबें, खोपड़ियाँ, और राख से बने घृतलेप।
अचानक हवेली की दीवारें काँपने लगीं।
दो स्त्रियों की आकृतियाँ प्रकट हुईं — शुभा और मालविका।
उनकी आँखों में आँसू नहीं, सिर्फ़ क्रोध था।
उन्होंने एक स्वर में कहा — “तू अब मुक्त नहीं होगा।”
पंडित ने एक त्रिकोण बनाकर उसमें आग जलाई।
उसने श्लोकों का जाप शुरू किया —
“ॐ कालरात्रि स्वाहा…”
पर उसके मंत्र अब कमजोर पड़ने लगे थे।
शुभा और मालविका ने हवा में चक्कर लगाना शुरू किया।
उनकी आत्माएँ अब पूर्ण रूप से प्रकट रूप में बदल चुकी थीं।
पंडित ने अंतिम बार चिल्लाया —
“तुम आत्माएँ हो! मैं तुम्हें बाँध सकता हूँ!”
लेकिन हवा में एक गूंज उठी —
“न्याय को बाँधने का कोई मंत्र नहीं होता।”
अगले ही पल आग की लपटों में पंडित चंद्रकांत तिवारी की देह जलने लगी।
वह ज़मीन पर गिरा और धीरे-धीरे राख में बदल गया।
एक झोंका उठा… और सब शांत।
शुभा और मालविका ने रवि और विक्रमाधित्य की ओर देखा।
“तुमने हमें मुक्त किया। अब हम जा रहे हैं… जहाँ कोई आहट नहीं होती।”
धीरे-धीरे दोनों आत्माएँ प्रकाश में विलीन हो गईं।
हवेली का भार जैसे अचानक हल्का हो गया था।
कुछ सप्ताह बाद —
बंगले की दीवारें फिर से सफ़ेद की गईं।
उस तहखाने को सील कर दिया गया।
चंद्रवाटी की हवेली को प्रशासन ने गिरा दिया।
रवि ने अपने डायरी में आखिरी पंक्तियाँ लिखीं: “रात की वह आहट अब शांत है। पर रहस्य कभी खत्म नहीं होते — वे बस किसी और की दीवार में सरसराने लगते हैं।”
—समाप्त—