आर्या मेहता
पुराने शहर की गलियों में नवंबर की धुंध ऐसे उतरती थी, जैसे कोई धीमी धुन दीवारों पर टिक-टिक करती हो। शाम के पाँच बजते ही सफ़ेद रोशनी वाले बल्बों के चारों ओर पतंगों की नन्ही परिक्रमा शुरू हो जाती, और मिट्टी से आती सोंधी गंध लोगों के चेहरों पर अनजाने-से भाव रच देती। उसी धुंध में, चौक की मोड़ पर, “गुलमोहर लाइब्रेरी” अपनी लकड़ी की खिड़कियों के पीछे शांति की एक अलग दुनिया समेटे बैठी रहती—पुराने पन्नों की महक, फुसफुसाहट-सी आवाज़ें, और गिरे हुए पत्तों की ख़ामोशी।
अदिति ने दरवाज़ा धकेला तो घंटी की एक पतली-सी ‘टिन’ बजकर कमरे में खो गई। वह अपनी धड़कनों को व्यवस्थित करने जैसी सावधानी से अंदर आई। पिछले कुछ महीनों में उसने अपने लिए पढ़ना बचा रखा था—जैसे कोई गर्म कपड़ा जिसे सबसे ठंडी रात में ही निकाला जाता है। काउंटर के उस पार मिसेज़ मेहरा ने मुस्कुराकर कहा, “नई किताबें पिछली शेल्फ़ पर हैं, लेकिन जो आपको पसंद हैं, वे वहीं रहेंगी—पुराने सेक्शन में।” अदिति ने सिर हिलाया; उसे वही पुरानी किताबें अच्छा लगती थीं—जिनके किनारों पर किसी और के उँगलियों के निशान बचे हों, जैसे किसी अजनबी की साझा आहट।
उधर कोने की मेज़ पर, खिड़की के बगल में, एक आदमी बैठा था। उसकी आँखों में एक थकान थी जो चमक बनने से ज़रा पहले ही रुक गई हो। उसने अपनी नोटबुक खोली हुई थी और पेंसिल की नोंक पर ठहरती साँस—जैसे शब्द आने वाले हों, पर अभी सही रूप नहीं मिला हो। यह नयन था। शहर में नया नहीं, पर इस शहर की तरह पुराना भी नहीं। उसके पास कुछ ऐसा था जिसे वह कह नहीं पाता: अपने भीतर का शोर, अपने ऊपर की चुप्पी।
अदिति ने किताब चुनी—एक ऐसा उपन्यास जो उसने कॉलेज के दिनों में शुरू तो किया था पर किसी अधूरी शाम की तरह छोड़ दिया था। किताब उठाते ही उसे लगा, जैसे वर्षों बाद किसी पुरानी चिट्ठी को छुआ हो। वह खिड़की के पास वाली दूसरी मेज़ पर आ बैठी, और पहली ही पंक्ति के साथ उसका मन किसी दूर के स्टेशन पर उतरते यात्री-सा संभलकर चलने लगा।
कभी-कभी दो अनजाने लोग एक ही ख़ामोशी के सहयात्री होते हैं। खिड़की से आती हल्की ठंडक में अदिति ने दुपट्टा कंधों पर ठीक किया; उसी क्षण नयन ने अपनी पेंसिल मेज़ पर रख दी—जैसे किसी अदृश्य संकेत से। उसने एक बार देखा—फ़कत इतना ही कि दूसरी मेज़ पर बैठी लड़की पढ़ते हुए अपनी भौंहें हल्की-सी सिकोड़ती है और फिर सहज हो जाती है। उस छोटी-सी लय में न जाने क्यों, नयन को अपने अनगढ़ वाक्यों का संतुलन मिल गया।
मिसेज़ मेहरा ने चाय रख दी—दो प्यालियाँ—यह लाइब्रेरी की आदत थी: खिड़की के पास बैठने वालों के लिए चाय अपने आप चली आती। अदिति ने चौंककर देखा, फिर मुस्कुराकर “धन्यवाद” कहा। नयन ने भी धीमे से अभिवादन किया, वह मुस्कान जिसके साथ लोग अनगढ़ परिचय नहीं, बस एक साझा मौसम स्वीकारते हैं। दोनों ने अपने-अपने प्याले उठाए और भाप में उभरती क्षणिक रेखाएँ देखने लगे—मानो भविष्य की लिपि धुएँ में क्षणभर को लिखी गई हो और फिर मिट गई।
“आप लिखते हैं?” यह सवाल अदिति के होंठों तक आया, पर हवा में घुल गया। उसने बस पन्ना पलटा और शब्दों को थोड़ा और पास खींच लिया। नयन ने नोटबुक बंद कर दी; कभी-कभी लिखना सबसे अच्छा तब होता है जब हम नहीं लिखते। उसने काँच से बाहर देखा—धुंध अब और घनी थी, बल्ब का घेरा बड़े होते-होते फिर सिमट गया था।
लाइब्रेरी बंद होने का समय होते-होते कमरे में कुछ कम लोग रह गए थे। मिसेज़ मेहरा काउंटर पर रजिस्टर टटोल रही थीं। “कल नया शेड्यूल लगेगा,” उन्होंने सामान्य-सी आवाज़ में कहा, “शाम को एक घंटे और खुला रहेगा। सर्दियाँ लंबी हैं।” अदिति ने सिर उठाया—जैसे किसी कोने से संगीत बज उठा हो। एक घंटा और—किसके लिए? किताब के लिए, या उस ख़ामोशी के लिए जो दो मेज़ों के बीच अपनी जगह ढूँढ रही थी?
दरवाज़े के पास पहुँचकर नयन ठिठका। उसने पीछे मुड़कर देखा—अदिति ने अपना बैग सँभाला, किताब छाती से लगा ली थी, जैसे ठंड से बचाने के लिए। “वहीं मिलती हैं, पुरानी किताबें,” उसने जाने क्यों कहना चाहा, पर कहा नहीं। वह बाहर निकला तो हवा में अजीब-सी मिठास थी—ठंडी, पर दबी हुई गर्माहट के साथ।
बाहर सड़क पीली रोशनी में नहाई थी। चायवाले की केतली से उठती सीटी दूर तक जाती थी, जैसे रात किसी भूले राग की आलाप हो। नयन ने चलते-चलते जेब में पड़ी पेंसिल टटोली। उसे याद नहीं रहा कि आख़िरी बार उसने इतनी शांति कब महसूस की थी—जैसे भीतर के शोर ने एक छोटी-सी खिड़की खोल दी हो। एक कदम, फिर दूसरा। कभी-कभी शहर का नक्शा दो लोगों के क़दमों के बीच बनता है—बिना किसी सड़क के, बिना किसी पते के।
अदिति दरवाज़े तक आई। उसने काँच में अपनी धुँधली-सी परछाईं देखी—आँखों में थकान कम थी, शायद रोशनी ज़्यादा। उसने मन ही मन तय किया कि कल भी आएगी—उसी समय, उसी खिड़की वाली मेज़ पर। और अगर वही अजनबी फिर दिख गया, तो वह पूछेगी—“आप लिखते हैं?” बस इतना। जवाब चाहे जो हो, शायद उसी में उसके दिनों का एक क्रम बन जाएगा—चाय की भाप, पन्नों की सरसराहट, और दो ख़ामोशियों के बीच बनती एक पतली-सी पुलिया।
रात अपने दूसरे किनारे की तरफ़ जा रही थी—जहाँ शब्द कम होते हैं और अर्थ ज्यादा। धुंध ने शहर को एक मुलायम कंबल की तरह ढक लिया। दूर कहीं, मंदिर की घंटी और किसी घर की हँसी की आवाज़ एक साथ आई और फिर अलग-अलग दिशाओं में खो गई। अदिति ने किताब को और कसकर सीने से लगा लिया, जैसे पुराने पन्नों की गर्मी उसके हाथों तक आ रही हो। उसने सोचा—कुछ रिश्ते शायद ऐसे ही शुरू होते हैं: नाम के बिना, शोर के बिना, बस एक साझा ख़ामोशी से।
2
शहर में उस हफ़्ते बादलों का मूड किसी पुराने ग़ज़ल-गायक जैसा था—कभी खुलकर, कभी बेतकल्लुफ़, और अक्सर बिना सुर बदले लंबा खिंचता हुआ। गुलमोहर लाइब्रेरी के बाहर पीपल के पत्ते भीगकर और चमकदार हो गए थे; हवा में मिट्टी, नम लकड़ी और कुछ अनकहा-सा मिला हुआ था। शाम होते-होते धुंध के धागों में इस बार बूंदें भी आ मिलीं, और खिड़की के काँच पर बारिश अपनी बारीक लिपि लिखने लगी—जैसे ईश्वर अपनी तरफ़ से किसी अधूरी जगह पर एक हल्का-सा टांका लगा रहा हो।
अदिति उसी वक़्त पहुँची, जिस वक़्त पिछली शाम आई थी। काँच का दरवाज़ा धकेलते ही घंटी बजी और वह थोड़ी-सी मुस्कुरा दी—अजीब बात थी कि यह छोटी-सी आवाज़ भी अब पहचान-सी लगने लगी थी। मिसेज़ मेहरा ने आज कुछ नहीं कहा; उन्होंने सिर्फ़ आँखों से उस खिड़की वाली मेज़ की तरफ़ इशारा किया, जहाँ हमेशा की तरह दो प्यालियाँ थोड़ी देर में पहुँचा दी जाएँगी। अदिति ने बैग उतारकर कुर्सी की पीठ पर टाँगा, दुपट्टा कंधों से थोड़ा कसकर खींचा और किताबें टटोलने लगी—पर सच यह था कि वह किताब के साथ-साथ किसी और बात का इंतज़ार कर रही थी, जिसे नाम देना अभी जल्दबाज़ी होती।
खिड़की के पास दूसरी मेज़ पर नयन पहले से बैठा था। उसके बालों में हल्की नमी थी और नोटबुक खुली, पर पन्ना लगभग खाली। वह बारिश देख रहा था जैसे कि वह किसी संगीत-समारोह की तान पकड़ने की कोशिश कर रहा हो। उसने सिर उठाकर एक बार उधर देखा—अदिति को देखते ही उसकी आँखों में वह थकी-सी चमक थोड़ी आगे बढ़ आई, जैसे कोई रुकी हुई लहर किनारे से दो क़दम और आगे आई हो। उसने हल्की-सी मुस्कान से अभिवादन किया; अदिति ने भी उतनी ही हल्की मुस्कान लौटाई, जिसमें ना तो परिचय का शोर था, ना अजनबीपन की ढाल—बस एक बराबर की दूरी पर रखा हुआ सहजपन।
बारिश अब तेज़ थी। काँच पर धीरे-धीरे बहती बूंदें एक-दूसरे से मिलकर रेखाएँ बना रही थीं—उन रेखाओं में बाहर की दुनिया धुंधली होकर किसी पुराने फ़ोटो जैसी लग रही थी। मिसेज़ मेहरा चाय रख गईं। भाप उठी तो दोनों ने एक साथ कप उठाया; एक पल को उनकी निगाहें मिलीं और उतनी ही सहजता से अलग भी हो गईं—जैसे दो ट्रेनें पास-पास से गुज़रती हों और खिड़कियों के फ़्रेम में किसी का चेहरा बस एक क्षण को दिखता हो।
“आप लिखते हैं?” इस बार अदिति ने सचमुच पूछ लिया। आवाज़ धीमी, पर स्पष्ट—उस तरह की स्पष्टता जिसमें कोई आग्रह नहीं, केवल जिज्ञासा होती है।
नयन ने पलक झपकी और हँस दिया—एक ऐसी हँसी, जो ध्वनि नहीं, राहत देती है। “क़ायदे से कहूँ तो… कोशिश करता हूँ,” उसने कहा, “कभी-कभी शब्द ठीक वक़्त पर नहीं आते।”
“कभी-कभी पाठक भी,” अदिति ने कहा, और खुद चौंक गई कि यह वाक्य उसने इतनी सहजता से कैसे बोल दिया। बारिश के परदे के पीछे शहर जैसे मुस्कुरा उठा।
“क्या पढ़ती हैं?” नयन ने पूछा।
“पुरानी चीज़ें,” अदिति ने किताब की रीढ़ पर हाथ फेरते हुए कहा, “जिनके पन्नों पर उँगलियों के निशान रह गए हों। लगता है कोई और पहले मेरे लिए रास्ता बनाकर गया है।”
“या किसी ने अपनी भूल-सुधारें वहीं छोड़ दी हैं,” नयन ने जोड़ दिया, “ताकि अगले पाठक सीख सके कि कहाँ रुकना है, कहाँ लौटना।”
दोनो हँसे। यह हँसी हल्की थी, पर इतनी कि कमरे की हवा में एक महीन-सी गर्मी भर जाए। बाहर बारिश ने अचानक एक तीखी लकीर की तरह ज़ोर पकड़ा, और फिर उतनी ही जल्द नरम भी हो गई—मानो किसी ने आहिस्ता से उसके कंधों पर हाथ रख दिया हो। वे दोनों उस बारिश को देखते रहे, जैसे दो लोग किसी तीसरे साथी की बात सुन रहे हों जो अब तक सिर्फ़ मौन में बोलता आया था।
“शहर नया नहीं, पर मैं अब भी रास्ते भूल जाता हूँ,” नयन ने कहीं से शुरू किया, “कभी-कभी लगता है, नक्शा जेब में है, पर जेब किसी और की है।”
“मुझे तो याद रहते हैं रास्ते,” अदिति ने कहा, “पर कभी-कभी पता चलता है कि जो रास्ता मैं रोज़ चलती हूँ, वह मेरे लिए बना ही नहीं था। बस मैं आदत से चलती रही।”
बात में ऐसी सादगी थी कि वह टिक गई—जैसे मेज़ पर रखे कप का हल्का-सा घेरा काँच को भिगोकर छाप छोड़ दे। मिसेज़ मेहरा कहीं पीछे रैक सँवार रही थीं; कमरे में पन्नों की खरखराहट, छत पर बारिश का मद्धिम घड़घड़, और उनके बीच दो आवाज़ें—संतुलित, बिना किसी जल्दी के।
“कल नया शेड्यूल लगेगा,” अदिति ने पिछली शाम सुनी बात याद करते हुए कहा, “एक घंटा ज़्यादा। सर्दियाँ लंबी हैं।”
“लंबी सर्दियाँ कभी-कभी लोगों को भी लंबा बना देती हैं,” नयन मुस्कुराया, “ख़ामोशियों में जगह बढ़ जाती है।”
“और लोग उसमें बैठ भी जाते हैं,” अदिति ने कहा, “जैसे किसी पुरानी बेंच पर।”
“आप बैठती हैं?” नयन ने पूछा।
“हाँ,” अदिति ने खिड़की की ओर देखते हुए कहा, “कभी-कभी तो लगता है, मैं और मेरी ख़ामोशी—दोनों एक ही कोट पहनती हैं; एक बटन मेरे पास, एक उसके।”
नयन ने नोटबुक पर पेंसिल से एक बहुत हल्की-सी रेखा खींची—इतनी हल्की कि शायद किसी और को दिखे ही नहीं। “कहानियाँ ऐसे ही बनती हैं,” उसने लगभग खुद से कहा, “जब वाक्यों के बीच की जगहें बोलने लगती हैं।”
बारिश थोड़ा थमी। सड़क पर पानी की पतली नहरें बह रही थीं, जिनमें स्ट्रीट-लाइट्स की रोशनी लंबी, टुकड़ों-टुकड़ों में हिल रही थी। अदिति ने चाय ख़त्म कर कप मेज़ पर रखा। “कभी-कभी…,” उसने कहना शुरू किया, फिर रुकी, “कभी-कभी लगता है कि मैं किसी अधूरी चिट्ठी हूँ—जो सालों से डाकखाने के किसी दराज़ में फँसी है।”
“तो उसे निकाल लेना चाहिए,” नयन ने धीरे से कहा, “पता चाहे जो हो, कोई न कोई उस लफ़्ज़ का इंतज़ार करता ही है।”
“और अगर पता ही नहीं लिखा हो?” अदिति की आँखें एक पल को काँच पर टिक गईं। बाहर से दो बच्चे दौड़ते हुए गुज़रे—छोटे-छोटे रेनकोट, बड़ी-बड़ी हँसी।
“तो शायद चिट्ठियाँ अपना पता खुद ढूँढ लेती हैं,” नयन ने कहा। “या जिसको पढ़ना है, वही एक दिन दराज़ खोल देता है।”
वे दोनों मुस्कुरा दिए। कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिनका उत्तर होने से ज़्यादा न होना ज़रूरी है—क्योंकि उनका ठहरना ही उनके होने का प्रमाण है। कमरे में एक पल के लिए ऐसी शांति हुई, जो घड़ी की टिक-टिक तक को पिघला देती है।
लाइब्रेरी बंद होने का वक़्त हो आया। मिसेज़ मेहरा ने जैसे किसी पुराने राग का आख़िरी स्वर छुआ और कहा, “बस पाँच मिनट और।” बाहर बारिश एकदम महीन फुहार में बदल चुकी थी। अदिति ने बैग उठाया; किताब को उसने वैसे ही छाती से लगाया जैसे पिछले दिन—पर आज उसके हाथों की पकड़ थोड़ी ढीली थी, जैसे किताब अब बोझ नहीं, साथ बन गई हो। नयन ने अपनी नोटबुक समेटी। दरवाज़े तक आते-आते दोनों लगभग साथ थे।
“छतरी?” नयन ने पूछा।
“नहीं लाई,” अदिति ने सिर हिलाया, “मौसम से बात करने आई थी; उसने जवाब दिया तो भीगना बनता है।”
“मेरे पास है,” नयन ने कहा, फिर वाक्य के अंत को थोड़ा पीछे लिया, “अगर आप चाहें… हम खिड़की तक साथ चलें। बाहर का बरामदा लम्बा है; वहाँ से सड़क का मोड़ दिखता है।”
अदिति ने उस एक पल में कई छोटे-छोटे हिसाब लगाए—सावधानी, सहजता, दूरी, भरोसा—फिर मुस्कुरा दी। “बरामदा ठीक है,” उसने कहा।
दोनों बाहर आए। बरामदे की छत से एक बूँद नियमित अंतराल पर टपक रही थी—टक… टक… टक—मानो कोई अनदेखा घड़ीसाज़ समय को फिर से चलाना सीख रहा हो। नयन ने छतरी खोली तो उसके कपड़े पर बारिश ने एक हल्की-सी ताल बना दी। वे इस तरह पास खड़े हुए कि कंधे नहीं छुए, पर छतरी के घेरे में दोनों की साँसें एक ही मौसम में आ गईं।
“कल?” नयन ने लगभग हवा से पूछा।
“कल,” अदिति ने जवाब उतनी ही धीमे से दिया—जैसे कोई नोटेशन में वही सुर लिख दे जो अभी-अभी कान में बजा है। “यही वक़्त।”
सड़क के मोड़ तक साथ चलते हुए उन्होंने शहर को एक नई आँख से देखा—नाली के पानी में बहती पीली रोशनी, टायरों की धीमी छींट, भुट्टे वाले के स्टोव की सोंधी महक। मोड़ पर पहुँचकर वे ठिठके। छतरी का घेरा थोड़ी देर और ठहरा रहा—फिर नयन ने उसे धीरे से ऊपर उठा लिया, जैसे कोई समापन-चिन्ह लगाता है। अदिति ने सिर हिलाकर विदा ली। “धन्यवाद,” उसने कहा—छतरी के लिए भी, और उस छोटी-सी जगह के लिए भी, जहाँ दो ख़ामोशियों ने एक मौसम साझा किया था।
नयन ने उसे जाते देखा—कदमों की ताल बारिश की ताल से मेल खा रही थी। उसने सोचा, शब्द शायद अभी भी दूर हैं, मगर वाक्यों के बीच की जगह आज थोड़ी चौड़ी हुई है—इतनी कि वहाँ दो कपों की भाप, एक खिड़की, और कुछ अनकहे वाक्य आराम से बैठ सकें। वह लौटकर लाइब्रेरी के दरवाज़े पर खड़ा रहा—अंदर से किताबों की महक, बाहर से बारिश की, और उनके बीच एक पतली-सी रेखा—जिस पर कल फिर चलना है।
रात की हवा में एक ठंडा, पर दयालु स्पर्श था। कहीं दूर मंदिर की घंटी बजी, और किसी घर की खिड़की में पीली रोशनी जल उठी। नयन ने छतरी बंद की, पेंसिल जेब में सरकाई और मन में चुपचाप लिखा—“कल: बारिश की खिड़की।” फिर वह भी मोड़ की तरफ़ चल पड़ा, जहाँ शहर हर रात की तरह आज भी अपने दूसरे किनारे की तरफ़ बह रहा था—धीमे, संयत, और उतना ही भरोसेमंद जितना किसी के ‘कल’ का वादा।
3
दिसंबर की शुरुआत थी। शहर की सुबहें अब थोड़ी देर से खुलतीं और शामें जल्दी ढल जातीं। गुलमोहर लाइब्रेरी का पीला बल्ब इन दिनों और ज़्यादा नरम दिखता था, जैसे ठंड से बचाने के लिए किसी ने उसके चारों ओर ऊन की परत लपेट दी हो। अदिति उस दिन थोड़ी जल्दी पहुँची थी—शायद इसलिए कि पिछली शाम उसने जाते-जाते ‘कल, यही वक़्त’ कह दिया था, और वह वक़्त कहीं चूक न जाए।
अंदर कदम रखते ही उसने देखा, खिड़की के पास वाली मेज़ पहले से ही खाली नहीं थी। नयन वहाँ बैठा था—इस बार उसके सामने सिर्फ़ नोटबुक नहीं, एक छोटी-सी थर्मस और दो पेपर कप भी रखे थे। अदिति ने पास जाकर हल्का-सा मुस्कुराते हुए पूछा, “आज तो मिसेज़ मेहरा से पहले आप मेज़ पर चाय रख गए?”
नयन ने थर्मस का ढक्कन खोलते हुए कहा, “सोचा, आज कुछ अलग होना चाहिए। यहाँ की चाय अच्छी है, पर… घर की बनी अदरक वाली चाय का अपना ही असर होता है।” उसने कप में चाय डाली—भाप के साथ अदरक और इलायची की महक फैल गई, जैसे ठंडे कमरे में अचानक कोई छोटा-सा अलाव जल उठा हो।
“तो यह आपका अलाव है?” अदिति ने कप थामते हुए कहा।
“कुछ वैसा ही,” नयन ने जवाब दिया, “धीमी आग पर उबाली हुई चीज़ें… ज़्यादा देर तक गर्म रहती हैं।”
अदिति ने एक घूंट लिया। चाय हल्की-सी मीठी थी, पर मीठास चीनी की नहीं, जैसे किसी ने उसमें गुड़ की याद घोल दी हो। उसने कहा, “सही कहा—धीमी आग का स्वाद जल्दी बुझता नहीं।”
खिड़की के बाहर हल्की धूप थी, लेकिन बीच-बीच में बादल आकर उसे ढक लेते। दोनों ने कुछ देर चुपचाप चाय पी। फिर नयन ने धीरे से पूछा, “आपके दिन में भी धीमी आग बचती है, या सब कुछ बस जल्दी-जल्दी…?”
अदिति ने कप के किनारे से भाप उठते देखी और कहा, “पहले थी… अब नहीं। काम, जिम्मेदारियाँ, भाग-दौड़—सब तेज़ आँच पर पकता है और आधा कच्चा रह जाता है।”
“फिर तो उसे धीमा करना चाहिए,” नयन ने कहा, “वरना स्वाद खो जाता है।”
अदिति ने हल्की मुस्कान दी, “आप हर चीज़ को चाय और खाना बनाकर समझाते हैं क्या?”
“शायद,” नयन ने सिर झुकाते हुए कहा, “क्योंकि चूल्हे और कहानियों में एक समानता है—दोनों में समय डालना पड़ता है, वरना कुछ भी पककर सही नहीं बनता।”
मिसेज़ मेहरा पास से गुज़रीं और उन्हें देखकर बोलीं, “अरे, आज तो लाइब्रेरी में चाय की महक बदल गई।” फिर शेल्फ़ की तरफ़ चली गईं, बिना और कुछ कहे—शायद उन्होंने समझ लिया था कि यह दो लोगों के बीच का एक छोटा-सा अनकहा आयोजन है।
नयन ने नोटबुक खोली। “मैंने कल रात एक पन्ना लिखा,” उसने कहा, “लेकिन अधूरा छोड़ दिया।”
“क्यों?” अदिति ने पूछा।
“क्योंकि अंत तय नहीं हो रहा था,” नयन ने पन्ना पलटते हुए कहा, “लगता था, जैसे कहानी खुद से कह रही हो—‘अभी मत खत्म करो, मुझे थोड़ा और जीने दो।’”
अदिति ने वह पन्ना देखा। लिखावट थोड़ी तिरछी थी, जैसे शब्द चलते-चलते कभी-कभी ठोकर खा रहे हों। “कभी-कभी अंत खुद ही आ जाता है,” उसने कहा, “जैसे मौसम—ना जल्दी, ना देर।”
“आप भी लिखती हैं?” नयन ने अचानक पूछा।
अदिति ने एक पल को चुप रहकर बाहर देखा। धूप फिर से निकली थी, और सड़क पर एक बुज़ुर्ग आदमी ऊन का स्वेटर पहनकर धीरे-धीरे चल रहा था। “नहीं,” उसने कहा, “कम से कम अब नहीं। कॉलेज में लिखती थी… कविताएँ, छोटी कहानियाँ। फिर लगता गया कि जो लिख रही हूँ, वो मेरे अंदर का सच नहीं है—बस एक सुंदर आवरण है। और मैंने लिखना छोड़ दिया।”
“और अब?” नयन ने पूछा।
“अब लगता है, शायद… फिर से शुरू कर सकती हूँ। पर डर है कि शब्द वापस नहीं आएँगे।”
नयन ने चाय का आखिरी घूंट लेते हुए कहा, “शब्द लौट आते हैं, अगर आप उन्हें बुलाएँ। जैसे कोई पुराना दोस्त—पहले थोड़ी दूरी रखेगा, पर फिर धीरे-धीरे पास आ जाएगा।”
कुछ देर वे दोनों बस खिड़की से बाहर देखते रहे। सड़क पर अब एक ठेले वाला आया था, जिसके पास मूंगफली भुन रही थी। धुएँ की पतली लकीर हवा में ऊपर जाती और फिर बिखर जाती। अदिति ने देखा, नयन उस दृश्य को ध्यान से देख रहा है—शायद वह इसे अपनी अगली कहानी में लिखने वाला था।
“आपकी कहानियाँ किस बारे में होती हैं?” अदिति ने पूछा।
“ज़्यादातर उन चीज़ों के बारे में जो लोग अनदेखा कर देते हैं,” नयन ने कहा, “जैसे यह भुनती मूंगफली, या खिड़की पर बैठा एक कबूतर, या किसी अनजान के हाथ में पकड़ा पुराना रूमाल। छोटी-छोटी चीज़ें, जिनमें बड़ा समय छिपा होता है।”
अदिति ने मुस्कुराकर कहा, “तो मैं भी आपकी कहानी का हिस्सा बन सकती हूँ?”
नयन ने एक पल के लिए उसकी ओर देखा। “शायद पहले से हैं,” उसने धीमे से कहा।
यह वाक्य अदिति के कानों में ऐसे गूँजा, जैसे किसी पुराने गीत की धुन अचानक याद आ जाए। उसने कुछ नहीं कहा, बस कप को मेज़ पर रखकर अपनी किताब खोली। पन्ने पलटते समय उसकी उँगलियाँ हल्की-सी ठंडी थीं—लेकिन उसकी आँखों में किसी धीमी आग की गर्मी झलक रही थी।
लाइब्रेरी में समय रुक-सा गया था। बाहर के लोग अपनी-अपनी जल्दी में थे, पर इस खिड़की के भीतर समय एक अलग चाल से चल रहा था—धीमा, ठहरा हुआ, और सुगंध से भरा।
जब बंद होने का समय आया, तो नयन ने थर्मस वापस बैग में रखा और कहा, “कल कॉफी?”
अदिति ने पूछा, “क्यों? चाय से मन भर गया?”
“नहीं,” नयन ने मुस्कुराया, “बस हर दिन एक नया स्वाद चाहिए—वरना आदत हो जाएगी, और आदत स्वाद को मार देती है।”
“ठीक है,” अदिति ने कहा, “कल कॉफी।”
दोनों साथ दरवाज़े तक आए। बाहर हल्की धूप और ठंडी हवा का संतुलन था। सड़क के किनारे गिरते पत्तों पर उनके कदमों की आहट साफ़ सुनाई दे रही थी। मोड़ पर पहुँचकर अदिति ने विदा ली।
नयन ने जाते हुए सोचा—धीमी आग पर पक रही यह दोस्ती कहाँ तक जाएगी, यह वह नहीं जानता। लेकिन इतना तय था कि इसमें स्वाद है, और स्वाद ही वह चीज़ है जो आदमी को बार-बार एक ही मेज़ तक खींच लाता है।
उस रात अदिति घर पहुँची तो उसने दराज़ से एक पुरानी डायरी निकाली। उसके पन्ने पीले हो गए थे, पर उनमें अब भी उसकी लिखावट थी। उसने पेन उठाया, और बहुत दिनों बाद पहला वाक्य लिखा—
“कुछ मुलाक़ातें चाय की तरह होती हैं—धीमी आग पर पकी, और देर तक गर्म।”
4
सर्दियों की रातें अब और लंबी लगने लगी थीं। शहर में धुंध देर तक टिकती, और सुबह का सूरज भी जैसे अनिच्छा से निकलता। गुलमोहर लाइब्रेरी के सामने की सड़क पर पेड़ों की शाखाएँ सूनी थीं, लेकिन उनके बीच से झरते पत्तों में एक धीमा, संगीतमय शोर था—जैसे हर पत्ता अपने गिरने की तारीख़ खुद चुन रहा हो।
उस शाम अदिति के कदम कुछ भारी थे। दिन भर दफ़्तर में अजीब बेचैनी रही थी—काम ठीक चलता रहा, लेकिन मन किसी अदृश्य बोझ में दबा रहा। उसने सोचा, शायद लाइब्रेरी की खामोशी उस बोझ को हल्का कर देगी।
दरवाज़ा खोलते ही घंटी बजी, पर आज उसकी आवाज़ भी थोड़ी थकी हुई लगी। नयन खिड़की वाली मेज़ पर था, लेकिन आज उसके सामने कोई थर्मस या नोटबुक नहीं थी—सिर्फ़ एक किताब, और आधा खाली पानी का गिलास।
“आज चाय नहीं?” अदिति ने पास बैठते हुए पूछा।
नयन ने सिर उठाया, हल्की मुस्कान दी—जिसमें रोज़ की चमक नहीं थी—और कहा, “मन नहीं था।”
“सब ठीक है?” अदिति ने सहज स्वर में पूछा।
उसने गहरी सांस ली। “ठीक… कह सकते हैं, लेकिन कुछ बातें हैं जो सालों से सीने में बंद हैं। कभी-कभी लगता है, अगर उन्हें बाहर निकाल दूँ तो शायद मैं हल्का हो जाऊँ। पर डर है कि सुनने वाला दूर चला जाएगा।”
अदिति ने उसकी आँखों में देखा। वहाँ थकान के पीछे एक अनकही याचना थी। उसने धीमे से कहा, “दूर जाने की आदत मेरी नहीं है।”
नयन ने काँच के बाहर देखा, जैसे जवाब सोच रहा हो। “मैं… तीन साल पहले शादीशुदा था। रिश्ता अच्छा शुरू हुआ, लेकिन धीरे-धीरे हम दो बिल्कुल अलग किनारों पर पहुँच गए। बात करना बंद हो गया, और चुप्पी इतनी भारी हो गई कि हम एक-दूसरे से बचने लगे। फिर एक दिन वह घर छोड़ गई। कोई बड़ा झगड़ा नहीं—बस एक चुप्पी जो अब और सहन नहीं हुई।”
अदिति ने कुछ नहीं कहा, बस उसकी ओर थोड़ी झुककर सुना।
“तब से…” नयन रुका, “तब से मैं कहानियाँ लिखने लगा। शायद इसलिए कि असली बात किसी को कह नहीं सकता, तो उसे किरदारों के ज़रिए कह देता हूँ। लेकिन असल में… हर कहानी में मैं उसी चुप्पी को लिख रहा हूँ, जिसे कभी तोड़ नहीं पाया।”
अदिति ने धीरे से पूछा, “और अब? क्या चुप्पी उतनी ही भारी है?”
नयन ने हल्की मुस्कान दी, “अब कभी-कभी लगता है, कोई है जो उस चुप्पी में भी सुन सकता है।”
अदिति का मन एक पल को थम गया। उसने महसूस किया कि यह ‘कोई’ शायद वही है। लेकिन उसने इसे ज़ाहिर नहीं होने दिया।
“आप?” नयन ने पूछा, “आपके भीतर भी कोई चुप्पी है?”
अदिति ने अपनी उंगलियों से कपड़े की तह को सीधा किया। “हाँ,” उसने कहा, “मेरा रिश्ता कभी औपचारिक रूप से खत्म नहीं हुआ, लेकिन… खत्म हो गया। हम दोनों एक ही घर में थे, लेकिन जैसे दो अलग देशों में रहते हों। एक दिन महसूस हुआ कि मैं अपने ही घर में मेहमान हूँ। तब से… मैंने अपने आप को बचाने के लिए किताबों में शरण ली। और… नए लोगों से दूरी बना ली।”
दोनों के बीच एक क्षण का सन्नाटा रहा—ऐसा सन्नाटा जिसमें दर्द भी था, और राहत भी। जैसे दो लोग एक-दूसरे के ज़ख्म देख लें और उनमें कोई डर न महसूस करें।
बाहर सड़क पर अचानक एक रिक्शा गुज़रा, जिसकी घंटी ने इस सन्नाटे को हल्के से तोड़ा। मिसेज़ मेहरा चाय लेकर आईं—शायद उन्होंने दोनों के चेहरों की थकान पढ़ ली थी।
“लो, आज मैं लाई हूँ,” उन्होंने कहा, “ठंड में चुप्पी से अच्छा इलाज चाय है।”
दोनों ने चाय ली। अदिति ने कप से उठती भाप को देखा और कहा, “कभी-कभी लगता है, हम लोग अजनबी नहीं, बल्कि पुराने परिचित हैं—जो किसी मोड़ पर बिछड़ गए थे और अब फिर मिल गए हैं।”
नयन ने उसकी ओर देखा। “शायद इसीलिए बातें आसानी से हो जाती हैं।”
“या फिर चुप्पियाँ आसान हो जाती हैं,” अदिति ने कहा।
कुछ देर बाद लाइब्रेरी का समय ख़त्म होने लगा। बाहर हवा और ठंडी हो गई थी। नयन ने पूछा, “आज बरामदे तक?”
अदिति ने सिर हिलाया। दोनों साथ बाहर निकले। बरामदे की छत से टपकती बूँदें अब जम-सी रही थीं—हर बूँद का गिरना धीमा था, जैसे समय भी ठंड से सुस्त हो गया हो।
मोड़ तक पहुँचकर अदिति रुक गई। “धन्यवाद… सुनने के लिए,” उसने धीरे से कहा।
“और कहने के लिए,” नयन ने जवाब दिया। “क्योंकि अगर आप न होतीं, तो शायद मैं यह कभी नहीं कह पाता।”
अदिति ने हल्की मुस्कान दी, और बिना कुछ और कहे मुड़ गई।
नयन वहीं खड़ा रहा, उसकी परछाई सड़क के पीले लैंपपोस्ट के नीचे लंबी हो गई थी। उसे लगा, कुछ चुप्पियाँ आज सच में हल्की हो गई हैं—और यह बदलाव छोटा होते हुए भी गहरा है।
उस रात अदिति ने अपनी डायरी में सिर्फ़ तीन शब्द लिखे—
“नामहीन धड़कनें लौट आईं।”
5
जनवरी की ठंड ने शहर को लगभग सिलेन्स मोड पर डाल दिया था। गलियों में लोग जल्दी-जल्दी चलते, और दुकानें भी तय समय से पहले बंद होने लगीं। गुलमोहर लाइब्रेरी की खिड़की पर अब अक्सर धुंध जम जाती, जिसे अंदर बैठे लोग हथेली से पोंछते ताकि बाहर का धुंधला नज़ारा देख सकें।
उस दिन अदिति पहले पहुँची। खिड़की वाली मेज़ पर बैठकर वह किताब पलट रही थी, लेकिन उसकी नज़र शब्दों पर नहीं ठहर रही थी। पिछले दो दिनों से नयन लाइब्रेरी नहीं आया था। उसने पहले दिन सोचा, शायद व्यस्त होगा; दूसरे दिन लगा, शायद मौसम की वजह से नहीं आ पाया। लेकिन अब… तीसरे दिन, जब उसने खिड़की से बाहर देखते हुए लोगों के चेहरों को स्कैन किया और नयन कहीं नहीं दिखा, तो मन में हल्की-सी चिंता आ गई।
कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। घंटी बजी—वही आवाज़ जो पिछले कुछ हफ़्तों में उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थी। नयन था, लेकिन उसके चेहरे पर वह हल्की चमक नहीं थी जो अदिति पहचानने लगी थी। वह अंदर आया, सीधा दूसरी मेज़ पर बैठ गया, जो खिड़की से थोड़ी दूर थी।
अदिति ने सोचा, शायद वह किसी और के साथ है, या काम में डूबा है। लेकिन उसकी मेज़ खाली थी—न कोई किताब, न नोटबुक। बस एक मोबाइल और पानी की बोतल।
क़रीब पाँच मिनट तक अदिति ने पन्ने पलटते हुए इंतज़ार किया कि नयन उसकी ओर देखे। लेकिन उसने एक बार भी नज़र नहीं उठाई। अंत में अदिति खुद उठकर उसके पास गई।
“सब ठीक है?” उसने सहजता दिखाने की कोशिश की।
नयन ने थोड़ी देर बाद सिर उठाया। “हाँ, ठीक,” उसने छोटा-सा जवाब दिया, और फिर मोबाइल की स्क्रीन पर देखने लगा।
अदिति को समझ नहीं आया कि यह टालना है, या थकान। “पिछले दो दिन नहीं आए…” उसने कहा, “सोचा, सब ठीक है न?”
“काम था,” नयन ने फिर वही छोटा-सा जवाब दिया, जैसे बातें खत्म करने के लिए कहा गया हो।
वह कुछ पल वहीं खड़ी रही, फिर अपनी मेज़ पर लौट आई। किताब खुली थी, लेकिन अब शब्द धुंधले हो गए थे—मानो पन्नों पर नमी जम गई हो।
मिसेज़ मेहरा चाय लेकर आईं। उन्होंने दोनों को अलग-अलग कप दिए, लेकिन अदिति ने देखा, आज नयन ने चाय को छुआ तक नहीं। वह कुछ टाइप कर रहा था, और बीच-बीच में खिड़की के बाहर देखता, पर अदिति की ओर नहीं।
उसके भीतर हल्का-सा खालीपन उतरने लगा—जैसे किसी ने धीमी आग पर पकते बर्तन को अचानक उतार दिया हो, और वह अधपका रह गया हो।
अगले आधे घंटे तक उन्होंने कोई बात नहीं की। लाइब्रेरी में दूसरे लोग अपने-अपने पन्नों में डूबे थे, लेकिन अदिति को लगा, कमरे के बीचोंबीच एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गई है।
बंद होने का समय आया। अदिति ने किताब बंद की और बैग उठाया। दरवाज़े पर पहुंचते-पहुंचते नयन भी आ गया। बरामदे में दोनों एक साथ निकले, लेकिन उनके बीच अब उतनी नज़दीकी नहीं थी कि छतरी साझा की जाए।
मोड़ तक चुप्पी रही। अंत में अदिति ने कहा, “अगर कुछ गलत कहा हो तो…”
“नहीं,” नयन ने बीच में ही कहा, “आपने कुछ गलत नहीं कहा। बस… कुछ चीज़ें हैं, जिनके बारे में मैं अभी बात नहीं कर सकता।”
उसने इतना कहा और बिना रुकते आगे बढ़ गया। अदिति मोड़ पर खड़ी रही, ठंडी हवा उसके गाल पर लग रही थी। उसे लगा, नयन ने उसके सामने एक नक्शा रख दिया है, जिसमें वे दोनों अलग-अलग रास्तों पर खड़े हैं, और बीच में सफ़ेद खाली जगह है—जहाँ कोई सड़क खिंची ही नहीं।
उस रात घर लौटकर अदिति ने डायरी खोली, लेकिन पेन को पन्ने पर नहीं रखा। सिर्फ़ लिखा—
“कुछ नक्शे दूरी से ही बनते हैं।”
अगले दिन उसने लाइब्रेरी नहीं जाने का फैसला किया। उसने सोचा, शायद दूरी भी किसी कहानी का हिस्सा होती है—वह हिस्सा जो पढ़ने में मुश्किल लगता है, लेकिन जिसके बिना कहानी अधूरी रह जाती है।
6
तीन दिन तक अदिति लाइब्रेरी नहीं गई।
शामें उसने खिड़की के पास बैठकर बिताईं, पर किताबों के पन्ने सिर्फ़ खुले रहे—पढ़े नहीं गए। बाहर की सड़क पर लोग आते-जाते रहे, पर उसका मन जैसे किसी स्टेशन पर अटका रहा, जहाँ ट्रेन तो जा चुकी थी, पर उसका सामान प्लेटफ़ॉर्म पर पड़ा था।
चौथे दिन उसने सोचा, अब और देर करने से शायद लौटना मुश्किल हो जाएगा। सर्द शाम थी, हवा में नमी और धूप का कोई नामोनिशान नहीं। उसने गहरे रंग का शॉल ओढ़ा और धीरे-धीरे उसी गली की ओर चली, जहाँ पीपल के पेड़ के नीचे गुलमोहर लाइब्रेरी की पीली रोशनी दूर से दिखने लगती थी।
दरवाज़ा खोलते ही घंटी बजी—वह आवाज़ जो उसके लिए पिछले हफ़्तों में किसी धड़कन जैसी हो गई थी। मिसेज़ मेहरा ने एक पल के लिए ऊपर देखा, मुस्कुराईं और बोलीं, “आज फिर वही वक़्त।”
अदिति की नज़र खिड़की वाली मेज़ पर गई। नयन वहाँ था—लेकिन इस बार उसके सामने नोटबुक खुली थी, और पन्ने पर शब्दों की एक साफ़ कतार लिखी जा रही थी। उसने सिर उठाकर अदिति को देखा, और उसकी आँखों में वह थकी हुई चमक फिर से लौट आई थी, जो उसे पहली बार आकर्षित कर गई थी।
“बैठिए,” नयन ने धीरे से कहा।
अदिति बैठ गई। थोड़ी देर चुप्पी रही, जिसमें दोनों के मन अपने-अपने हिसाब लगा रहे थे। फिर नयन ने गहरी सांस ली, “उस दिन… मैं दूर नहीं जाना चाहता था। बस… डर था कि अगर मैं बोलना शुरू कर दूँ, तो कुछ ऐसा कह दूँ जो आपको चोट पहुँचा दे।”
“और अगर चुप रहते तो?” अदिति ने पूछा।
“तो शायद फ़ासला और बढ़ जाता,” नयन ने कहा, “इसलिए आज सोचा, जो कहना है, साफ़ कहूँ।”
मिसेज़ मेहरा चाय लेकर आईं। कप से उठती भाप ने उस ठंड में एक मुलायम परत बना दी। अदिति ने कप को दोनों हाथों में थामा और कहा, “मैं भी उस दिन चुप रही, क्योंकि लगा, शायद आपने तय कर लिया है कि मुझे अपने दिन का हिस्सा नहीं बनाना।”
नयन ने हल्की हँसी के साथ सिर हिलाया, “नहीं… मैंने तय किया था कि आपको अपनी उलझनों का बोझ नहीं दूँगा। लेकिन शायद यही गलती थी—क्योंकि बोझ भी बाँटने से हल्का होता है।”
बाहर बारिश शुरू हो गई थी, हल्की लेकिन लगातार। खिड़की के काँच पर बूँदें छोटे-छोटे नक्शे बनाने लगीं, जो हर कुछ सेकंड में मिट जाते।
“जानती हैं,” नयन ने कहा, “कल रात मैंने एक कहानी लिखी—दो लोगों की, जो एक ही शहर में रहते हैं, लेकिन हर बार मिलने पर उनके बीच एक पतली-सी नदी बहती रहती है। वे बात करते हैं, हँसते हैं, चुप रहते हैं… पर कभी उस नदी को पार नहीं करते।”
“और अंत में?” अदिति ने पूछा।
“अंत में,” नयन ने कहा, “एक दिन उनमें से एक बिना सोचे नदी में उतर जाता है—पानी ठंडा है, तेज़ है, लेकिन वह पार चला जाता है। और दूसरा… बस उसे देखता रहता है, और फिर मुस्कुराकर उसके पास चला आता है।”
अदिति ने खिड़की के बाहर देखा। “तो आप कौन हैं?”
“शायद वो, जो पानी में उतरा,” नयन ने मुस्कुराकर कहा।
अदिति ने चाय का घूंट लिया। कप से उठती भाप और बारिश की गंध ने कमरे को भर दिया। वह धीरे से बोली, “तो मैं वो हूँ, जो किनारे से उतर आई?”
नयन ने जवाब में कुछ नहीं कहा, बस उसकी ओर ऐसे देखा जैसे शब्द की ज़रूरत ही न हो।
कुछ देर तक दोनों चुपचाप बैठे रहे। बाहर सड़क पर पानी जमने लगा था, और पीली रोशनी उसमें फैलकर सुनहरी लकीरें बना रही थी। अदिति ने अपने शॉल को थोड़ा और कसकर लपेटा, लेकिन चेहरे पर अब ठंड का असर कम था।
“कल,” नयन ने कहा, “लाइब्रेरी बंद होने के बाद… अगर आप चाहें तो पास के कॉफ़ी हाउस चलें। वहाँ एक कोना है जहाँ लोग धीरे बोलते हैं, और दीवारों पर पुरानी तस्वीरें टंगी हैं।”
अदिति ने हल्की मुस्कान दी, “ठीक है। पर शर्त है—कॉफ़ी के साथ एक कहानी सुनानी होगी।”
“आप भी,” नयन ने तुरंत कहा।
मिसेज़ मेहरा पास से गुज़रीं और बोलीं, “अरे, आज तो बरामदे में मत जाना—फिसलन है।”
लेकिन जब बंद होने का वक़्त आया, तो वे बरामदे तक साथ आए। बारिश थोड़ी थम चुकी थी, और छत से टपकती बूँदें अब नियमित अंतराल पर गिर रही थीं—टक… टक… टक—जैसे समय फिर से अपनी पुरानी चाल पर लौट आया हो।
छतरी नयन के हाथ में थी, और इस बार अदिति ने बिना हिचक उसमें कदम रख दिया। दोनों के कंधे करीब थे, लेकिन भीगे नहीं।
मोड़ तक चलते हुए उन्होंने कोई लंबी बात नहीं की—सिर्फ़ छोटे वाक्य, जिनमें अगली मुलाक़ात की आहट थी। मोड़ पर पहुँचकर नयन ने कहा, “तो कल, कॉफ़ी हाउस?”
“कल,” अदिति ने कहा, और इस बार उसके स्वर में कोई अनिश्चितता नहीं थी।
नयन ने उसे जाते हुए देखा, और उसके मन में एक साफ़ तस्वीर बनी—दो लोग, एक ही शहर में, एक ही मौसम में, अब शायद एक ही किनारे पर।
उस रात अदिति ने अपनी डायरी में लिखा—
“कुछ नदियाँ सिर्फ़ एक क़दम से पार हो जाती हैं।”
7
अगले दिन आसमान साफ़ था, लेकिन हवा में सर्दी अब भी बसी हुई थी। अदिति ने दफ़्तर से थोड़ा जल्दी निकलने का बहाना बनाया—कह दिया कि घर पर कुछ काम है। असल में, उसके मन में बस एक ही काम था—वक़्त पर गुलमोहर लाइब्रेरी पहुँचना, और वहाँ से नयन के साथ कॉफ़ी हाउस जाना।
लाइब्रेरी में नयन पहले से मौजूद था, नोटबुक में कुछ लिखते हुए। अदिति के आने पर उसने पेन रख दिया और मुस्कुराया—वही खुली मुस्कान, जो पिछले कुछ दिनों से अदिति को मिस हो रही थी।
“तैयार?” उसने पूछा।
“हाँ,” अदिति ने किताब बैग में डालते हुए कहा, “लेकिन कॉफ़ी के साथ कहानी की शर्त मत भूलना।”
दोनों साथ बाहर निकले। सड़क पर पीपल के पत्तों की परत थी, जो उनके कदमों के नीचे चरमराती रही। कॉफ़ी हाउस कुछ ही दूरी पर था—पुरानी ईंटों की इमारत, अंदर पीली रोशनी और लकड़ी की मेज़-कुर्सियाँ। दरवाज़े के ऊपर टंगे बल्ब के चारों ओर पतंगे मंडरा रहे थे।
अंदर घुसते ही अदिति को पुरानी कॉफ़ी की महक और दीवारों पर टंगी काले-सफ़ेद तस्वीरें दिखीं—कुछ में लोग हँसते हुए अख़बार पढ़ रहे थे, कुछ में पुराने कलाकारों के चेहरे थे। उन्होंने खिड़की के पास एक कोना चुना, जहाँ बाहर का दृश्य भी दिखे और अंदर की गुनगुनाहट भी सुनाई दे।
वेटर ने कॉफ़ी और दो प्लेट बिस्कुट रखे। अदिति ने कप थामा—उसकी हथेलियों में गर्माहट फैल गई। “तो… पहले कहानी आपकी,” उसने कहा।
नयन ने हल्का-सा सिर झुकाया। “कहानी छोटी है, पर शायद आपके लिए नई नहीं। इसमें एक आदमी है जो हर शाम एक खिड़की के सामने बैठता है, और एक लड़की है जो हर शाम उसी खिड़की के सामने वाली सड़क से गुज़रती है। दोनों एक-दूसरे को देखते हैं, पर कभी बात नहीं करते। एक दिन लड़की रुक जाती है, खिड़की की तरफ़ देखती है और मुस्कुराती है। आदमी उसी मुस्कान को अपनी कहानी में लिख देता है—और सोचता है, अब यह कहानी हमेशा अधूरी रह सकती है, क्योंकि अधूरी चीज़ें ही सबसे लंबी चलती हैं।”
अदिति ने कप नीचे रखा। “तो फिर यह कहानी कब पूरी होती है?”
नयन ने हँसते हुए कहा, “शायद तब, जब दोनों एक ही टेबल पर कॉफ़ी पी रहे हों।”
अदिति ने उसकी तरफ़ देखा—उस हल्की-सी शरारत और सच्चाई के मेल में एक सुकून था। उसने कहा, “अब मेरी बारी।”
उसने अपनी कहानी शुरू की—“एक लड़की है, जो हर सुबह छत पर जाती है, लेकिन आसमान देखने के लिए नहीं। वह पास की गली में लगे एक पेड़ पर चिड़ियों का झुंड देखती है। हर सुबह वे एक साथ उड़ते हैं, और वह सोचती है कि शायद रिश्ते भी ऐसे होने चाहिए—ना कोई पहले उड़ जाए, ना कोई पीछे छूटे। लेकिन एक दिन, एक चिड़िया जल्दी उड़ जाती है, और बाकी बाद में। तब उसे समझ आता है कि कभी-कभी कोई आगे बढ़ता है, और बाकी को उसके पीछे आने में थोड़ा वक़्त लगता है।”
नयन ने गहरी सांस ली। “तो क्या बाकी चिड़ियाँ लौट आईं?”
अदिति ने मुस्कुराकर कहा, “हाँ… लेकिन अगले दिन, और उसी पेड़ पर।”
कॉफ़ी हाउस की खिड़की से बाहर सड़क पर हलचल थी, पर उनके लिए जैसे समय वहीं ठहर गया।
कॉफ़ी ख़त्म होने पर नयन ने कहा, “आपको सुबह कितने बजे उठना आसान लगता है?”
अदिति चौंकी, “क्यों?”
“सोचा, अगर कभी… हम सुबह साथ टहलने जाएँ, तो समय पता होना चाहिए,” नयन ने सहज स्वर में कहा।
अदिति ने एक पल सोचा, “साढ़े छह।”
“तो तय रहा,” नयन ने कहा, “कल सुबह, गली के मोड़ पर। मैं चाय लेकर आऊँगा—फ्लास्क में, ताकि ठंडी न हो।”
वे दोनों हँस पड़े—जैसे कोई बड़ा फैसला नहीं, बस एक छोटा-सा वादा हो, जो अपने आप में पूरा हो।
अगली सुबह, धुंध में गली का मोड़ किसी पुराने पोस्टकार्ड जैसा लग रहा था। नयन पहले से मौजूद था, फ्लास्क और दो कप के साथ। अदिति आई, शॉल में लिपटी, और बिना कुछ कहे कप थाम लिया। दोनों धीरे-धीरे चलते हुए गली के दूसरे सिरे तक गए—कभी बात करते, कभी बस पत्तों की चरमराहट सुनते।
इस तरह अगले कुछ दिनों में उनकी दिनचर्या में छोटे-छोटे फैसले जुड़ते गए—
हफ़्ते में दो बार सुबह की सैर।
लाइब्रेरी में बैठने से पहले चाय या कॉफ़ी का चुनाव बारी-बारी से।
हर हफ़्ते एक-दूसरे को कोई नई किताब सुझाना।
और एक नियम—अगर किसी दिन मन भारी हो, तो पहले बताना, ताकि चुप्पी गलतफ़हमी में न बदले।
इन छोटे-छोटे नियमों ने उनके बीच की दूरी को धीरे-धीरे कम कर दिया। अब वे सिर्फ़ लाइब्रेरी या कॉफ़ी हाउस में ही नहीं, बल्कि अपने रोज़मर्रा के पलों में भी शामिल थे—जैसे किसी के दिन का बैकग्राउंड म्यूज़िक, जो बिना दिखे भी पूरे माहौल को बदल देता है।
एक शाम, जब वे लाइब्रेरी से निकल रहे थे, अदिति ने कहा, “कभी लगता है कि हम बहुत जल्दी एक-दूसरे की आदत बन गए हैं?”
नयन ने थोड़ी देर सोचा। “हो सकता है… लेकिन अगर कोई आदत सुकून दे, तो क्या बुरा है?”
अदिति ने मुस्कुराकर सिर हिलाया, और बरामदे की सीढ़ियों से उतरते हुए महसूस किया—शायद यही है साथ जीने का असली मतलब, जहाँ बड़े वादों से ज़्यादा छोटे-छोटे फैसले मायने रखते हैं।
उस रात उसने डायरी में लिखा—
“कुछ रिश्ते सुबह की चाय जैसे होते हैं—सीधे दिल तक जाते हैं, बिना शोर किए।”
8
फ़रवरी की ठंड अब ढलान पर थी, लेकिन हवा में अभी भी सर्दियों की एक हल्की परत बची हुई थी। शहर में पेड़ों पर नए पत्ते आने लगे थे, और गुलमोहर लाइब्रेरी की खिड़की के पास बैठे अदिति और नयन को लगता था जैसे मौसम उनके बीच की बातचीत की तरह धीरे-धीरे बदल रहा है—बिना किसी जल्दबाज़ी के।
उस शाम अदिति के हाथ में एक किताब थी, जिसे उसने नयन को पढ़ने के लिए दी। “ये मेरी पसंदीदा है,” उसने कहा, “लेकिन इसे तभी पढ़ना जब सच में वक़्त हो। ये किताब जल्दबाज़ी बर्दाश्त नहीं करती।”
नयन ने किताब लेते हुए कहा, “तो फिर मैं इसे वैसे ही पढ़ूँगा, जैसे हम एक-दूसरे को पढ़ रहे हैं—धीरे-धीरे, पन्ना-पन्ना।”
अदिति हँस दी, लेकिन उसकी आँखों में एक पल को गंभीरता आ गई। “कभी-कभी सोचती हूँ,” उसने कहा, “क्या हम इस खिड़की और कॉफ़ी हाउस से आगे भी जा सकते हैं?”
“आगे?” नयन ने पूछा।
“मतलब,” अदिति ने थोड़ा रुककर कहा, “क्या हमारे पास… एक ही घर का आसमान हो सकता है?”
यह सवाल कमरे में टिक गया—जैसे कोई पतंग हवा में रुक गई हो। नयन ने धीरे से कप रखा और खिड़की के बाहर देखा। “मैंने इस बारे में सोचा है,” उसने कहा, “लेकिन डरता था कि शायद तुम अभी ये नहीं सुनना चाहोगी।”
“और अब?” अदिति ने पूछा।
“अब लगता है कि अगर नहीं कहा, तो बात अधूरी रह जाएगी,” नयन ने कहा। “मैं… तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ—सिर्फ़ इन घंटों में नहीं, बल्कि उन सुबहों और रातों में भी, जब हम लाइब्रेरी में नहीं होते। मैं चाहता हूँ कि हमारी चाय और कॉफ़ी एक ही रसोई में बने, और हमारी किताबें एक ही शेल्फ़ पर रहें।”
अदिति की आँखों में हल्की नमी आ गई, लेकिन होंठों पर मुस्कान थी। “मुझे भी यही चाहिए,” उसने कहा, “लेकिन एक शर्त है—हम अपनी खिड़की को नहीं छोड़ेंगे। चाहे घर में कितनी भी खिड़कियाँ हों, यह वाली हमेशा हमारी होगी।”
“तय रहा,” नयन ने कहा।
अगले कुछ हफ़्तों में चीज़ें बदलने लगीं। उन्होंने मिलकर एक छोटा-सा फ्लैट देखा—एक पुराने मोहल्ले में, जहाँ बालकनी से सड़क का मोड़ और पीपल का पेड़ दोनों दिखते थे। घर में एक लंबा कमरा था, जिसकी खिड़की से शाम की धूप तिरछी आकर फ़र्श पर सुनहरी धार बनाती थी। अदिति ने तुरंत कहा, “यह हमारी लाइब्रेरी होगी।”
शिफ़्ट करने के बाद उनकी दिनचर्या में लाइब्रेरी और कॉफ़ी हाउस की जगह अब वही कमरा और रसोई ने ले ली। सुबह की चाय अब एक साथ बनती, और किताबें पढ़ते हुए वे एक-दूसरे को अपने-अपने पन्नों से वाक्य सुनाते। लेकिन उन्होंने तय किया कि हफ़्ते में एक दिन वे गुलमोहर लाइब्रेरी ज़रूर जाएँगे—उस खिड़की और उस मेज़ को देखने, जिसने उन्हें एक-दूसरे तक पहुँचाया था।
एक रविवार की सुबह, अदिति बालकनी में बैठी थी और नयन रसोई से चाय लेकर आया। उसने कप अदिति को दिया और बोला, “जानती हो, मैंने हमारी पहली मुलाक़ात की कहानी लिख दी है।”
“अच्छा? और उसका नाम?” अदिति ने पूछा।
“‘रात का दूसरा किनारा’,” नयन ने कहा। “क्योंकि मुझे लगता है, हम दोनों उस रात एक ही किनारे पर आ गए थे, और वहीं से हमारी नदी का बहाव एक हो गया।”
अदिति ने कप थामते हुए कहा, “तो फिर ये किताब पूरी हुई?”
“पूरी?” नयन मुस्कुराया, “नहीं… अब असली कहानी शुरू हुई है। ये तो बस पहला अध्याय था।”
नीचे सड़क पर एक बच्चा पतंग उड़ा रहा था। हवा कभी पतंग को ऊपर खींचती, कभी थोड़ा नीचे ले आती, लेकिन डोर कसकर उसके हाथ में थी। अदिति ने देखा और कहा, “शायद रिश्ता भी पतंग की तरह है—ऊपर-नीचे होता है, लेकिन अगर डोर भरोसे की हो, तो गिरता नहीं।”
नयन ने उसकी ओर देखते हुए कहा, “और डोर तब तक मज़बूत रहती है, जब तक दोनों उसे थामे रहते हैं।”
शाम को उन्होंने गुलमोहर लाइब्रेरी की ओर पैदल जाना तय किया। वहाँ पहुँचकर मिसेज़ मेहरा ने उन्हें देखकर कहा, “अरे, आजकल कम दिखते हो।”
“अब तो घर में ही लाइब्रेरी बना ली है,” नयन ने हँसते हुए कहा।
“लेकिन आपकी खिड़की वहीं रहेगी,” मिसेज़ मेहरा ने मुस्कुराकर कहा।
उन्होंने खिड़की वाली मेज़ पर थोड़ी देर बैठकर चाय पी। अदिति ने काँच से बाहर देखा—पीपल के पत्ते हवा में हिल रहे थे, और सड़क पर हल्की धूप फैली थी। उसने मन ही मन सोचा, चाहे वे कहीं भी रहें, उनके पास हमेशा यह जगह होगी—जहाँ उनकी कहानी की जड़ें हैं।
घर लौटते हुए, नयन ने कहा, “जानती हो, मुझे लगता है कि हमारा घर अब सिर्फ़ चार दीवारें नहीं है—यह वो आसमान है, जिसके नीचे हम दोनों की सुबहें और रातें मिलती हैं।”
अदिति ने उसकी ओर देखा और कहा, “हाँ, घर का आसमान… जो हर मौसम में एक-सा खुला रहता है।”
उस रात, अदिति ने डायरी के आख़िरी पन्ने पर लिखा—
“हमारा घर किसी पते पर नहीं, एक आसमान के नीचे है।”
END