Hindi - प्रेतकथा

रक्त कमल

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मालविका नायर


समुद्र की लहरों की निरंतर गूंज और उस पर खड़ा बेकल किला — केरल की सबसे प्राचीन और रहस्यमयी किलों में से एक, जहाँ इतिहास केवल पत्थरों पर नहीं, हवाओं में दर्ज है। जान्हवी शर्मा की नजरों में ये किला सिर्फ एक वास्तुकला नहीं था, बल्कि एक अदृश्य आवाज़ थी जो सदियों से किसी को पुकार रही थी। दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में शोध कर रही जान्हवी तटीय दुर्गों पर काम कर रही थी, लेकिन जब उसने “रक्त कमल” के नाम से जुड़ी एक पुरानी मलयालम पांडुलिपि पढ़ी, तो वह विचलित हो उठी। उस लेख में उल्लेख था कि हर वर्ष मॉनसून के तीसरे सप्ताह में, बेकल किले की एक विशेष सुरंग के मुहाने पर एक लाल कमल खिलता है — जो वहां नहीं होना चाहिए। वह कमल जिसे देखने वाले लोग पूर्णिमा के पहले ही रहस्यमय ढंग से मर जाते हैं। यह विवरण केवल एक पंक्ति का था, पर जान्हवी को ऐसा महसूस हुआ मानो किसी ने उसके अंदर कोई अग्नि जला दी हो। बेकल उसके लिए शोध का विषय भर नहीं रहा — वह एक बुलावा बन गया था, एक रहस्य जिसे सुलझाना उसकी नियति बन गया।

बेकल पहुंचने पर सबसे पहले जिस चीज़ ने जान्हवी को अपनी ओर खींचा, वह था समुद्र की लहरों में छिपा एक अजीब कंपन — मानो हर लहर कोई कहानी कह रही हो। किला विशाल था, दीवारों पर नमक और समय की परत जमी हुई थी। उस किले में कुछ ऐसा था जो बाकी सभी जगहों से भिन्न लगता — न केवल स्थापत्य में, बल्कि एक ऊर्जा में, एक गूढ़ कंपन जो शरीर में उतरती चली जाती थी। जान्हवी ने स्थानीय लोगों से रक्त कमल के बारे में पूछने की कोशिश की, लेकिन सबने चुप्पी साध ली। कुछ ने तो उस जगह का नाम सुनते ही आंखें फेर लीं, और एक वृद्ध महिला ने तो सिर झटकते हुए कहा, “उसे देखना मौत को बुलाना है, अम्मा। उस कमल में खून है।” तभी जान्हवी की मुलाकात हुई — कुट्टन नायर से। वह एक पतले, झुके हुए कंधों वाला वृद्ध व्यक्ति था, जो किले के बाहर एक छोटी सी चाय की दुकान चलाता था। वह चुपचाप सुनता रहा, फिर धीमे स्वर में बोला, “अगर तुम सच जानना चाहती हो, तो तुम्हें उस सुरंग के पास जाना पड़ेगा, जहाँ वो कमल उगता है। लेकिन एक बार जाने के बाद, लौट पाना आसान नहीं होता।” जान्हवी ने उसका हाथ थामा और सिर्फ इतना कहा — “मैं इतिहास को अधूरा नहीं छोड़ती।”

अगली सुबह कुट्टन नायर जान्हवी को किले के एक अंधेरे हिस्से में ले गया, जहाँ दीवारें काई से ढकी थीं और हवा में नमकीन दुर्गंध बसी थी। वह जगह आम पर्यटकों के लिए बंद थी, लेकिन कुट्टन ने एक पुराने दरवाज़े की कुंडी खोली और उन्हें एक पतली सुरंग में ले गया। सुरंग के भीतर घुप्प अंधेरा था और कहीं-कहीं दीवारों पर नाखून से खरोंची गई सी आकृतियाँ बनी थीं — त्रिकोणों, आंखों और मंत्रों के प्रतीक। जान्हवी का मन बार-बार धड़कता, लेकिन जिज्ञासा भय से कहीं ज़्यादा थी। सुरंग के अंत में एक खुला हिस्सा था, जहाँ एक छोटा सा पोखर था — और ठीक उसके किनारे, गीली मिट्टी में कुछ अंकुर फूटे हुए थे, जिनमें एक लाल रंग की हल्की आभा थी। “ये वही जगह है,” कुट्टन ने फुसफुसाकर कहा। “तीन दिन में कमल खिलेगा। और तब तुम्हें निर्णय लेना होगा — केवल देखने का, या समझने का। क्योंकि जिसने समझने की कोशिश की है, वह लौटा नहीं।” जान्हवी खामोश खड़ी रही, पोखर की तरफ देखते हुए। उसके भीतर कुछ हिल रहा था — एक छवि, एक स्मृति, या शायद कोई बीते जन्म का धुंधलका। कमल अभी खिला नहीं था, लेकिन हवा में उस फूल की गंध थी — रक्त और माटी की गंध। और जान्हवी को लगा मानो कोई उसके भीतर से उसे पुकार रहा हो — कोई, जो सदियों से प्रतीक्षा में था।

बेकल किले की पत्थर की दीवारें दिन में जितनी मौन थीं, रात होते ही मानो किसी अदृश्य जिवंतता से भर उठतीं। समुद्र की लहरों के थपेड़ों के बीच जान्हवी को नींद नहीं आई। कमरे की खिड़की से दूर क्षितिज पर बिजली चमकती रही और हवाओं में किसी अज्ञात प्रार्थना की गूंज सुनाई देती रही। अगली सुबह वह अकेले ही किले की बाहरी दीवारों के पीछे एक पुराने नक्शे के आधार पर दक्षिण-पश्चिमी कोने तक पहुँची, जहाँ एक टूटी-फूटी पत्थरों की दीवार के पीछे छुपी थी एक छोटी सी सुरंगनुमा गली। यह हिस्सा पर्यटकों की पहुँच से बाहर था। गली में कदम रखते ही जान्हवी को एक तीव्र गंध महसूस हुई — जैसे किसी पुराने पूजा स्थल में रखा सड़ा हुआ नैवेद्य। दीवारों पर दीमक खाई लकड़ी की तरह उभरी आकृतियाँ थीं, जिनमें कुछ विशिष्ट चिह्न उकेरे गए थे — त्रिशूल, रुधिर बिंदु, और एक स्त्री आकृति जिसके हाथ में कमल था और आँखों से रक्त बह रहा था।

गली के अंत में उसे एक पतली, झुकी हुई दीवार मिली जिसके बीचों-बीच एक संकीर्ण द्वार था। वह द्वार लोहे की एक पुरानी जंजीर से बंद था, जिस पर संस्कृत में कुछ लिखा हुआ था — “यः रक्तं बोधयति, स एव मुक्तो भवति।” (जो रक्त को जागृत करता है, वही मुक्त होता है।) जान्हवी ने दीवार की दरारों को छुआ, और तभी उसके हाथ पर एक तीखा दर्द हुआ — जैसे किसी सूक्ष्म कांटे ने चुभो दिया हो। वहाँ एक बूँद रक्त की उभर आई, और जैसे ही वह रक्त दीवार की दरार में समाया, जंजीर की जंगली कड़ियाँ अपने-आप खुलने लगीं। अंदर अंधकार था, गाढ़ा और द्रवित। जान्हवी ने अपने मोबाइल की टॉर्च जलाई और कदम आगे बढ़ाया। अंदर की दीवारों पर वही तांत्रिक चिह्न थे — लेकिन इस बार उनके साथ मंत्र उकेरे गए थे, और उन मंत्रों को देखते ही जान्हवी के कानों में एक अजीब गूंज होने लगी। उसे लग रहा था जैसे कोई बहुत धीमे स्वर में उन मंत्रों को दोहरा रहा हो — उसकी चेतना के भीतर।

अचानक उसकी टॉर्च की रोशनी एक कोने में रखे पत्थर के वेदी पर पड़ी, जिस पर एक लाल कमल की नक्काशी बनी थी, और उसके नीचे एक यंत्र — शायद कोई प्राचीन तांत्रिक यंत्र — जिसमें चारों दिशाओं में रक्त रेखाएँ फैलती थीं। तभी उसकी नजर पड़ी एक चमड़े से बंधी पुस्तक पर जो उसी यंत्र के पास रखी थी। पुस्तक के पन्ने खुरदरे और खून से सने थे, और उसमें किसी तांत्रिक अनुष्ठान का विस्तृत वर्णन था। पहला ही वाक्य था — “बलिदान अधूरा है, इसलिए कमल हर वर्ष उठता है, और उसे देखने वाला फिर उसी चक्र में बंध जाता है।” जान्हवी की उंगलियाँ काँपने लगीं। जैसे-जैसे वह पढ़ती गई, उसे महसूस होने लगा कि इस रहस्य का कोई सिरा उसी से जुड़ा है। वह यहाँ केवल शोध करने नहीं आई — वह खुद उस कथा की उत्तराधिकारी थी, जिसका कमल प्रतीक मात्र था। तभी पीछे से एक धीमी सी सरसराहट हुई — जैसे कोई स्त्री साड़ी खींचते हुए ज़मीन पर चल रही हो। जान्हवी ने पलटकर देखा — वहाँ कोई नहीं था, पर हवा में एक गीली, चंदन और रक्त की मिली-जुली गंध फैल चुकी थी।

रात का तीसरा पहर था जब जान्हवी की नींद टूटी। खिड़की के शीशे पर पानी की बूंदें लगातार गिर रही थीं, लेकिन कमरे के भीतर की नमी कुछ अलग ही थी — जैसे दीवारों से कोई अदृश्य साया साँसें ले रहा हो। वह उठकर पानी पीने गई, तभी उसके कमरे के एक कोने से धीमे सिसकियों की आवाज़ आई। जान्हवी का शरीर सुन्न पड़ गया, लेकिन उसने साहस कर उस ओर देखा — एक परछाई दीवार से सटी खड़ी थी, अधजली साड़ी में लिपटी, सिर झुका हुआ, बाल भीगे और ज़मीन तक फैले हुए। परछाई स्थिर थी, लेकिन जैसे ही जान्हवी ने उसके पास एक कदम बढ़ाया, वह हवा में घुल गई। पर उस जगह, जहां वह खड़ी थी, ज़मीन पर एक गीली लाल छाप रह गई — मानो वहां कोई पैर रखकर खड़ा था, और रक्त टपक रहा हो। भय और जिज्ञासा की अजीब सी जुगलबंदी जान्हवी के भीतर होने लगी। उसने तय कर लिया कि अगली सुबह वह फिर उसी सुरंग में जाएगी, जहाँ यंत्र और ग्रंथ मिले थे।

कुट्टन नायर सुबह ही बाहर उसका इंतज़ार कर रहा था, मानो वह जानता था कि जान्हवी को फिर जाना है। दोनों ने मिलकर सुरंग का रास्ता साफ किया, और भीतर पहुंचे तो वहाँ की हवा पहले से अधिक भारी और सघन थी। यंत्र अब सूखा लग रहा था, पर पुस्तक के पन्ने उलझकर एक नए पृष्ठ पर खुले थे, जहाँ एक नाम लिखा था — “मीरा”। नीचे संस्कृत में कुछ पंक्तियाँ थीं: “युवती, अपूर्ण आहुति, आत्मा अब भी विक्षुब्ध।” जान्हवी ने एक क्षण के लिए आँखें बंद कीं, और तभी उसे फिर वही स्त्री छवि दिखी — लेकिन इस बार और स्पष्ट: झील के किनारे बैठी एक युवती, जो कमल को देख रही थी, और पीछे एक तांत्रिक मंत्रोच्चार कर रहा था। दृश्य टूट गया, और जान्हवी की साँसें तेज़ हो गईं। कुट्टन नायर ने उसकी पीठ पर हाथ रखा और बहुत धीमे स्वर में कहा, “मीरा वो लड़की थी जिसे अंतिम बलि में चढ़ाया जाना था, पर वह बच गई… शायद अधूरी ही सही, पर उसकी आत्मा यहीं है… और अब तुम उसे देख रही हो।”

जान्हवी की दुनिया हिल गई। क्या मीरा केवल एक आत्मा है जो तांत्रिक अनुष्ठान की अधूरी कड़ी बनकर फंसी रह गई है? या वह कोई प्रतीक है — बलिदान, प्रेम और प्रतिशोध का? उस रात जान्हवी ने कमरे की बत्तियाँ बुझा दीं और अपनी डायरी में सबकुछ लिखने बैठी। तभी खिड़की खुली और समुद्र से आती हवा के साथ कमरे में एक धीमा गीत तैर आया — मलयालम की किसी पुरानी लोकधुन का टुकड़ा, जिसमें कमल, बलि, और एक ‘अपूरण कन्या’ की कथा थी। उस धुन के अंत में, दीवार पर परछाई फिर उभरी — वही मीरा — पर इस बार उसने सीधे जान्हवी की आँखों में देखा। उनमें भय नहीं था — एक मौन याचना थी, जैसे वह कह रही हो: “मुझे मुक्त करो।” जान्हवी को अब विश्वास हो चला था कि वह यहाँ केवल इतिहास खंगालने नहीं, बल्कि किसी की अधूरी यात्रा पूरी करने भेजी गई है। और रक्त कमल, जो हर वर्ष खिलता है, शायद केवल प्रतीक्षा का एक और निशान है — उस आत्मा के लिए जो हर बार पुनर्जन्म के चक्र में फंस जाती है, बस एक मुक्ति की उम्मीद में।

बेकल की रातें अब जान्हवी के लिए केवल रहस्य नहीं, एक अंतर्यात्रा बन गई थीं। मीरा की परछाई अब केवल दीवारों पर नहीं, जान्हवी के सपनों, उसकी चेतना, और विचारों में प्रवेश कर चुकी थी। वह हर उस क्षण में उपस्थित रहती जब जान्हवी इतिहास से कुछ खोजने की कोशिश करती — एक तरह की आंतरिक प्यास जो न तो तर्क समझ पाता, न ही शोध। उसी बेचैनी के बीच डॉ. अरविंद कुरियन बेकल पहुँचे। जान्हवी ने उन्हें कॉलेज से ही जान रखा था — पुरातत्व में गहरी रुचि रखने वाले, लेकिन सख्त तर्कवादी। वह जान्हवी की बातों पर पहले मुस्कराए, फिर सिर हिलाकर बोले, “तुम तांत्रिक प्रतीकों में जो ढूंढ रही हो, वह सिर्फ लोककथाओं की साजिश हो सकती है। पर अगर वहाँ कुछ पुरातात्विक अवशेष हैं, तो मैं जरूर देखना चाहूँगा।” अगले ही दिन दोनों सुरंग की ओर रवाना हुए — कुट्टन नायर की मौन सहमति के साथ।

सुरंग के भीतर इस बार कुछ बदल चुका था। वही यंत्र, वही पुस्तक, वही नम अंधकार — लेकिन दीवारों पर अब रक्त के ताज़ा छींटों जैसे निशान उभर आए थे। जान्हवी ने ध्यान दिया कि वहाँ मिट्टी कुछ गीली है, मानो हाल ही में कोई वहाँ रुका हो या किसी अनुष्ठान की तैयारी की हो। तभी डॉ. अरविंद ने एक पत्थर हटाया और नीचे से एक तांबे की थाली निकली, जिस पर ताम्रपत्र में अंकित थे सात विशेष तांत्रिक चिन्ह — प्रत्येक एक दिशा का प्रतीक, और मध्य में — एक कमल, जिसके प्रत्येक पंख पर अंकित था: “बलिदान।” जान्हवी का सिर घूमने लगा। उसी क्षण उसे एक संक्षिप्त दृष्टि मिली — मीरा की, जो उस थाली पर बैठी थी, आंखें बंद, और उसके माथे पर एक रक्त बिंदु उभरता जा रहा था। दृश्य समाप्त हुआ, और कमरे में हवा का प्रवाह रुक सा गया। डॉ. अरविंद घबराए नहीं, पर उनकी आँखों में वह जिज्ञासा अब धीरे-धीरे भय में बदल रही थी।

उस रात जान्हवी ने पहली बार मीरा से संवाद किया — नहीं, शब्दों में नहीं, बल्कि भावों और स्मृतियों में। उसे एक पुराना दृश्य दिखा: बेकल किले के खुले प्रांगण में रुद्र तांत्रिक — एक सघन जटा वाले, भयंकर दृष्टि वाले साधक — मंत्रोच्चार करता दिखा। उसके चारों ओर अग्निकुंड, और बीच में बंधी थी एक कन्या — मीरा। तभी किसी ने उसे बचा लिया — कोई जिसने बलिदान को अधूरा कर दिया। जान्हवी की चेतना में यह दृश्य गूंजता रहा। क्या मीरा की आत्मा इसलिए बंधी रह गई क्योंकि उसका अनुष्ठान अधूरा रह गया था? क्या वह अधूरी आहुति किसी और के माध्यम से पूरी करने की प्रतीक्षा कर रही थी? और क्या जान्हवी उसी “दूसरी आत्मा” का पुनर्जन्म थी, जिसने बलिदान को रोका था? इन प्रश्नों के उत्तर उस थाली, उस पुस्तक और उस सुरंग में छिपे थे। लेकिन एक बात अब स्पष्ट थी — कमल सिर्फ एक फूल नहीं, एक यंत्र था, एक द्वार — जो खुलता था रक्त से, और बंद होता था किसी की मुक्ति से। जान्हवी अब केवल शोधकर्ता नहीं, बल्कि स्वयं उस अनुष्ठान का हिस्सा बन चुकी थी — अनजाने में नहीं, बल्कि अपनी चेतना से, अपने संकल्प से।

बेकल किले की प्राचीरों के बीच अब हवा में एक विचित्र सी सघनता घुल गई थी — जैसे कोई पुराना ऋण चुका न पाने की पीड़ा में काँप रहा हो। जान्हवी के लिए समय अब एक रेखा नहीं, एक वृत्त बन गया था — जिसमें वर्तमान, अतीत और पूर्वजन्म सब आपस में गुंथते जा रहे थे। वह दिनभर किताबों और दीवारों की लिपियों को खंगालती, और रात को मीरा की आत्मा के संकेतों को समझने का प्रयास करती। एक दिन उसे सुरंग के अंदर दीवार की दरार में एक पतली, चिपटी सी धातु की परत मिली — तांबे की, जिस पर ताम्रलिपि में लिखा था “रुद्राय नमः, शिवकण्ठस्थ बलिदान पूर्ण न हुआ”। जान्हवी ने तुरन्त उसे रगड़कर साफ किया और उसके नीचे अंकित तिथियाँ देखीं — 1672 ईस्वी। उसी वर्ष का उल्लेख उस दुर्लभ दस्तावेज़ में भी था जिसे जान्हवी दिल्ली में पढ़ चुकी थी। यह वही वर्ष था, जब बेकल में एक शक्तिशाली तांत्रिक, रुद्र, ने एक गुप्त बलिदान अनुष्ठान को पूरा करने का प्रयास किया था।

जान्हवी अब पूरी तरह खोज में डूब चुकी थी। उसने पुरातत्व विभाग की फाइलों से उस कालखंड की अधिकृत घटनाओं की सूची निकाली — लेकिन रुद्र तांत्रिक का कोई नाम कहीं दर्ज नहीं था। वह जैसे इतिहास से मिटा दिया गया हो, या शायद जानबूझकर भुला दिया गया हो। फिर भी, एक उल्लेख उसे मिला — बेकल के पास स्थित एक वीरान शिव मंदिर में अचानक सत्रह कन्याओं की मौत की घटना, जिसे “जलवायु जनित महामारी” कहा गया था। लेकिन जान्हवी समझ चुकी थी कि यह छिपाई गई बलि थी। वह उसी मंदिर तक पहुँची — एक काई से ढका, पूरी तरह टूटा हुआ स्थान, जिसके गर्भगृह में अब केवल एक खंडित शिवलिंग था और उसके नीचे उकेरा गया था — “रुद्र”। मंदिर की दीवारों पर कुछ चित्र अभी भी बचे थे — एक कमल, उसके चारों ओर अग्निकुंड, और एक त्रिशूल से बंधी कन्या की छवि। उसी क्षण जान्हवी को एक तीव्र चक्कर आया, और वह वहीं ज़मीन पर गिर पड़ी।

जैसे ही उसकी चेतना डगमगाई, वह किसी और युग में पहुंच गई — वह एक वृत्ताकार सभागार था, जहाँ दीप जल रहे थे, चारों ओर काले वस्त्रधारी तांत्रिक खड़े थे, और मध्य में एक विशाल कमल के ऊपर बैठा था — रुद्र। उसकी आँखें खुली थीं, लेकिन उनमें सफेद के स्थान पर रक्तिम प्रकाश था। उसके होठों पर एक अजीब मुस्कान थी — मानो वह समय को जीत चुका हो। जान्हवी देख रही थी — लेकिन अब वह केवल दर्शक नहीं, उस दृश्य की हिस्सा थी। उसके हाथ कमल की पंखुड़ियों पर रखे थे, और रुद्र कह रहा था, “तू वही है जो पिछली बार मेरी साधना में बाधा बनी थी। इस बार नहीं।” तभी वहाँ एक युवती — मीरा — रोती हुई कमल की ओर बढ़ी, और जैसे ही वह उसके समीप पहुँची, पूरा दृश्य भभकते हुए गायब हो गया। जान्हवी की आँख खुली — वह मंदिर की सीढ़ियों पर पड़ी थी, और उसके माथे पर रक्त की एक बूँद टपकी थी — बिना किसी घाव के। कुट्टन नायर उसी क्षण वहाँ पहुँचे और उसे सहारा देकर उठाया। वे बोले, “रुद्र जाग चुका है। रक्त कमल फिर से खिलेगा। और यदि इस बार उसका अनुष्ठान पूरा हुआ, तो वह केवल एक आत्मा नहीं, समय की आत्मा को बाँध देगा।” जान्हवी अब जान चुकी थी — जो कमल हर वर्ष उगता है, वह कोई वनस्पति नहीं, रुद्र के अभिशाप का धड़कता हृदय है। और इस बार उसका खिलना, शायद अंत होगा — या मुक्ति का पहला बीज।

पूर्णिमा अब बस कुछ ही रातों की दूरी पर थी, और बेकल किले की हवाओं में अजीब सी थरथराहट भरने लगी थी — जैसे प्रकृति स्वयं किसी भयावह तैयारी में जुटी हो। जान्हवी की आंखों के नीचे काले घेरे गहरे होते जा रहे थे, और उसका शरीर थका हुआ, लेकिन मन भीतर से चैतन्य, जैसे किसी अनदेखी शक्ति द्वारा खींचा जा रहा हो। उसे सपनों और जाग्रत स्थितियों में कोई भेद नहीं लगता था — मीरा की परछाई अब केवल दीवारों पर नहीं, उसके शब्दों में, हर निर्णय में उतर आई थी। उसने निर्णय कर लिया था कि इस बार कमल के खिलते ही वह वहां पहुंचेगी, जहां हर बार बलिदान अधूरा छोड़ दिया गया। कुट्टन नायर ने एक पुराना व्रतपथ दिखाया, जो पुराने तांत्रिक अनुष्ठानों से जुड़ा था — जिसमें शुद्धता, मौन, और आत्मचिंतन की आवश्यकता थी। जान्हवी ने इसे पूर्णिमा का व्रत मानकर पालन करना शुरू किया — दिन में केवल जल, रात में शुद्ध मंत्र और ध्यान। लेकिन जैसे-जैसे वह भीतर उतरने लगी, रुद्र तांत्रिक की छाया और गहरी होती गई।

व्रत के तीसरे दिन जान्हवी को तेज़ बुखार हो गया। उसका शरीर कंपकपाने लगा, और वह असंयमित बकवास करने लगी — लेकिन उसके शब्दों में संस्कृत के ऐसे श्लोक थे, जिन्हें उसने कभी पढ़ा भी नहीं था। डॉक्टरों ने इसे वायरल बुखार कहा, लेकिन कुट्टन और अरविंद जानते थे कि यह कोई सामान्य बीमारी नहीं थी। कुट्टन ने मीरा की आत्मा को संबोधित करते हुए रात भर दीपक जलाए और वही पुराने मंत्र गूंजते रहे — “मां चामुंडे, रक्ष रक्ष। मृत्योर मा रक्ष।” जान्हवी की चेतना के भीतर एक दूसरी चेतना जाग चुकी थी — उसने स्वप्न में देखा कि वह स्वयं एक सभा में बैठी है, उसके सामने अग्निकुंड धधक रहा है, और रुद्र उसके सम्मुख खड़ा है, आँखों में वही खून के छींटे जैसे प्रकाश, और मुख पर विजय की कुटिल हँसी। वह कहता है, “तू लौट आई है… इस बार कोई तुम्हें बचाने नहीं आएगा। अनुष्ठान पूर्ण होगा, और मैं मुक्त होऊँगा।”

अगली सुबह बुखार उतर गया, लेकिन जान्हवी अब पहले जैसी नहीं रही। उसकी आँखों में एक विचित्र गहराई थी, उसकी आवाज़ में एक दृढ़ता, और उसके हाथों की नसें जैसे कुछ लिख रही थीं — अदृश्य यंत्रों के चिह्न। अरविंद भयभीत था लेकिन साथ भी। वह अब जानता था कि यह कोई सामान्य रहस्य नहीं, बल्कि समय और आत्मा का उलझा हुआ तंतु है — जिसे यदि खोला नहीं गया, तो बेकल की भूमि हमेशा एक चक्र में फँसी रहेगी। पूर्णिमा की रात जैसे-जैसे निकट आती गई, किले के आसपास के पेड़ सूखने लगे, हवा भारी हो गई, और उस सुरंग से रक्त की गंध धीरे-धीरे सतह तक आने लगी। अब केवल एक रात्रि बची थी — जब कमल खिलेगा, मीरा प्रकट होगी, और रुद्र फिर अपना दावा करेगा। लेकिन इस बार जान्हवी तैयार थी — न केवल इतिहास लिखने के लिए, बल्कि किसी को मुक्त करने और स्वयं को पहचानने के लिए।

पूर्णिमा की रात… आसमान में चाँद अपनी सम्पूर्ण उजास के साथ चमक रहा था, लेकिन बेकल किले के ऊपर जैसे धुंध की एक अदृश्य परत छाई हुई थी — गाढ़ी, गूंगी और अपवित्र। समुद्र की लहरें शांत थीं, अप्राकृतिक रूप से मौन। जान्हवी ने सफेद वस्त्र पहना था, माथे पर चंदन लगाया, और कुट्टन नायर द्वारा दिए गए पुराने मंत्र की माला अपने हाथ में ली। वह नहीं जानती थी कि वह वहाँ बलिदान रोकने जा रही है, या स्वयं एक नया बलिदान बनने। डॉ. अरविंद, उस क्षण तक एक वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाला पुरातत्वविद, अब बस एक मौन साक्षी बनकर साथ चल रहा था। तीनों लोग उस सुरंग की ओर बढ़े, जो अब तक सिर्फ इतिहास की परछाई थी, लेकिन उस रात एक जीवित, धड़कती हुई जगह बन चुकी थी। सुरंग के भीतर प्रवेश करते ही टॉर्च की रोशनी बुझ गई। सब कुछ लालिमा में नहाया हुआ था — दीवारें, यंत्र, मिट्टी, और उस पोखर के ऊपर खिला वह एकमात्र लाल कमल।

कमल के सामने वही थाली रखी थी, जिस पर तांत्रिक यंत्र उकेरे थे। लेकिन अब थाली पर रक्त की एक पतली परत थी — नमी नहीं, गाढ़ा और हाल का। जैसे किसी ने अभी-अभी अनुष्ठान शुरू किया हो। जान्हवी ने कमल के समीप आँखें बंद कीं, और तभी उसे महसूस हुआ — हवा में एक कंपन है। और अगले क्षण वहाँ हवा में उभरी एक स्त्री आकृति — मीरा। वही अधूरी आत्मा, वही आँखें जिनमें सैकड़ों वर्षों की यातना थी। लेकिन आज उसमें डर नहीं था, सिर्फ याचना थी। वह बोल नहीं रही थी, पर उसकी आँखें कह रही थीं — “मुझे मुक्त करो।” जान्हवी ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया, लेकिन तभी ज़मीन हिलने लगी, और उस गुफा की दीवार पर एक आकृति उभरने लगी — रुद्र तांत्रिक। उसके बाल हवा में उड़ रहे थे, आँखें पूरी तरह सफेद, और शरीर से रक्त की धार बह रही थी — मानो उसका अभिशप्त अस्तित्व अब इस अंतिम रात्रि में पूर्ण रूप लेना चाहता हो। उसकी कर्कश आवाज़ गूँजी, “तू वही है जिसने मुझे अधूरा छोड़ा। इस बार नहीं। बलिदान पूरा होगा।”

डॉ. अरविंद चीखते हुए जान्हवी की ओर भागा, लेकिन जैसे ही उसने रुद्र के सामने कदम रखा, वह ज़मीन पर गिर पड़ा — उसकी साँसें थमने लगीं। जान्हवी ने थाली से रक्त उठाया और अपनी हथेली में भरकर यंत्र पर छिड़का — वह मंत्र जो वह सपनों में बार-बार सुनती थी, अब उसकी जुबान से स्वतः निकलने लगा:
“न मम मृत्यु: न बलिदान, केवलं मोक्षाय काम्ये।”
कमल काँपने लगा, और मीरा की आकृति तेज़ प्रकाश में बदलने लगी। रुद्र गुस्से से चीखा, “तू एक स्त्री है, बलिदान नहीं कर सकती, साधना को पूर्ण नहीं कर सकती!” जान्हवी ने दृढ़ता से उत्तर दिया, “बलिदान सिर्फ देह का नहीं होता, आत्मा भी छोड़नी पड़ती है।” वह आगे बढ़ी, कमल के ऊपर हाथ रखा, और जैसे ही उसके रक्त से कमल छुआ, एक तेज़ विस्फोट हुआ — प्रकाश का, ध्वनि का, और स्मृति का। दीवारें कांप उठीं, और रुद्र की आकृति एक लहर में बिखरने लगी। मीरा मुस्कराई — पहली बार — और फिर धीरे-धीरे हवा में विलीन हो गई।

गुफा अब शांत थी। हवा भारी नहीं, हल्की लग रही थी — जैसे सदियों का कोई भार उतर गया हो। कमल झुलस चुका था, उसकी पंखुड़ियाँ राख बनकर उड़ रही थीं। जान्हवी वहीं ज़मीन पर बैठ गई, थकी हुई, खाली और फिर भी पूर्ण। डॉ. अरविंद धीरे-धीरे उठे — वह जीवित था, लेकिन कुछ टूटा हुआ, कुछ बदला हुआ। कुट्टन नायर दरवाजे पर खड़े मुस्करा रहे थे — जैसे कोई पुराना ऋण चुक गया हो। उन्होंने कहा, “कमल फिर नहीं खिलेगा। चक्र टूट गया है। बलिदान पूर्ण नहीं, मुक्त हो चुका है।” जान्हवी ने गहरी सांस ली — अब वह इतिहास नहीं लिखेगी, वह इतिहास बन चुकी थी।

बेकल किले पर सुबह की पहली किरणें जब समुद्र के ऊपर फैलने लगीं, तब उसकी हवाओं में एक अद्भुत शांति घुली हुई थी। पहली बार जान्हवी को वह लहरें डरावनी नहीं, बल्कि शांतिप्रद लगीं — जैसे किसी योद्धा की थकी हुई साँसें। पिछली रात की घटनाएँ एक स्वप्न की तरह उसकी स्मृति में समायी थीं, पर उन सबका प्रभाव उसके शरीर और आत्मा पर गहरा था। सुरंग में घटित सबकुछ — मीरा की मुक्ति, रुद्र तांत्रिक का नाश, और रक्त कमल का जलना — अब केवल उसके भीतर जीवित था। जब वह गुफा से बाहर निकली, तो कुट्टन नायर दूर समुद्र के किनारे खड़े थे, आँखों में वर्षों पुराना संतोष। उन्होंने बिना कुछ कहे सिर झुकाया, मानो वह नमन कर रहे हों उस स्त्री को, जिसने इतिहास का वह पृष्ठ जलाकर अंत कर दिया, जिसे किसी ने पढ़ा ही नहीं था।

जान्हवी ने किले के ऊपरी भाग पर चढ़कर समुद्र को देखा — वही विस्तार, वही अथाहता, लेकिन आज कुछ अलग था। हवा में कमल की गंध नहीं थी, मिट्टी में रक्त की आर्द्रता नहीं थी, और उन दीवारों में अब कोई साया नहीं थरथरा रहा था। गुफा की ओर जाने वाला रास्ता सुबह तक खुद-ब-खुद ढह गया था — जैसे समय ने खुद उस अध्याय को हमेशा के लिए बंद कर दिया हो। डॉ. अरविंद अब भी मौन थे, उनके मन में विज्ञान और अध्यात्म के बीच एक अनकही खाई बन चुकी थी। उन्होंने जान्हवी से बस इतना कहा, “जो हमने देखा, वह न तो केवल इतिहास है, न ही कल्पना। यह एक परंपरा थी, जो एक आत्मा के इंतज़ार में सदियों से ठहरी थी।” जान्हवी मुस्कराई — एक थकी हुई मुस्कान, लेकिन उसमें गहराई थी — जैसे किसी ने सत्य को स्पर्श किया हो।

दिल्ली लौटने के बाद जान्हवी ने ‘रक्त कमल: एक ऐतिहासिक वृतांत’ शीर्षक से अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किया। लेकिन उसमें उसने तंत्र, आत्मा, और बलिदान की किसी बात का ज़िक्र नहीं किया। वह केवल उस किले के सांस्कृतिक, स्थापत्य और स्थानीय जनश्रुतियों की चर्चा करती है। उसके शब्दों में वह सब कुछ है, पर फिर भी कुछ नहीं। क्योंकि वह जानती थी — कुछ रहस्य केवल अनुभव के होते हैं, वर्णन के नहीं। उसी वर्ष, मानसून में, बेकल किले की मिट्टी की जाँच हुई — और रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया कि उस स्थान पर कोई कमल या कमल जैसा पौधा उगने की क्षमता नहीं है। वैज्ञानिक निष्कर्ष ने जहाँ एक रहस्य को असंभव बताया, वहीं जान्हवी के दिल में यह सत्य हमेशा के लिए दर्ज रहा — कि रक्त कमल कभी फूल नहीं था, वह एक प्रतीक्षा थी… मीरा की, उसकी, और उन सभी आत्माओं की, जिन्हें किसी ने सुना नहीं।

कुछ महीने बाद, एक शाम, जब जान्हवी विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में पुराने अभिलेखों को पढ़ रही थी, तो उसे एक पुस्तक के पन्नों के बीच एक लाल कमल की सूखी पंखुड़ी मिली — न मिट्टी में उगा हुआ, न खून में डूबा हुआ — बस मौन और पूर्ण। वह मुस्कराई, आँखें बंद कीं, और धीरे से वह पंखुड़ी अपनी डायरी में रख दी। उसने सिर झुकाया और फुसफुसाई — “मुक्ति पूरी हुई।” और उस पल हवा की एक हल्की लहर उसके बालों से खेल गई… जैसे कोई आत्मा विदा लेकर जा रही हो।

समाप्त

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