नितीन द्विवेदी
१
प्रयागराज की सर्द सुबह थी। कुहासा गंगा किनारे के घाटों पर पसरा हुआ था। पुराने शहर के मोहल्ले में एक वीरान हवेली खामोशी ओढ़े खड़ी थी—’प्रकाश निवास’, जहाँ न्यायमूर्ति वेद प्रकाश अकेले रहते थे। बाहर एक नीली रंग की एंबेसेडर कार धूल से ढकी हुई थी, मानो वर्षों से चली नहीं हो। हवेली की जालीदार खिड़कियों से धूप झांकने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उस सुबह हवेली के भीतर कुछ और ही घट चुका था।
नौकर मुंशी बाबू, जो हर रोज़ सात बजे चाय लेकर ऊपर की मंज़िल पर जाया करते थे, आज दरवाज़ा खटखटाते ही कांप उठे। भीतर से कोई जवाब नहीं आया। कई बार दस्तक दी, लेकिन सन्नाटा बरकरार रहा। तब उन्होंने खिड़की के काँच से भीतर झांका। अंदर का दृश्य देखकर उनके हाथ से थाली गिर गई—न्यायमूर्ति वेद प्रकाश अपनी कुर्सी पर मृत बैठे थे, उनके सिर से खून बह रहा था, और उनकी बंद मुट्ठी में कोई कागज़ दबा हुआ था।
थरथराते हाथों से उन्होंने पुलिस को फोन किया। चंद मिनटों में सब-इंस्पेक्टर सौरभ चौहान घटनास्थल पर पहुंच गए। पूरा कमरा अंदर से लॉक था, खिड़की की सलाखें टूटी हुई थीं, लेकिन बाहर से कोई पैरों के निशान नहीं थे। सीन साफ नहीं था—यह आत्महत्या थी या हत्या?
इसी मोहल्ले के उस पार, गली के कोने में एक छोटी-सी चाय की दुकान थी, जिसे गफूर मियां चलाते थे। वहीं पर काम करता था चिंटू—एक बारह साल का गूंगा-बहरा लड़का, जो बोल नहीं सकता था लेकिन उसकी आँखें सब कुछ सुनती थीं। उस सुबह वो जल्दी उठ गया था। वो अक्सर हवेली के पीछे कचरा फेंकने जाता था, जहाँ से एक परछाईं को उसने दीवार फांदते देखा था। परछाईं भागती नहीं थी—वो इत्मीनान से चल रही थी, जैसे उसे किसी चीज़ का डर नहीं था।
चिंटू ने अपनी नोटबुक में उस परछाईं का चेहरा बनाने की कोशिश की। उसकी उंगलियाँ कांप रही थीं, लेकिन उसकी नज़रें पैनी थीं। उसने एक लंबा कोट, ऊँची एड़ी के जूते, और चश्मा बनाया। लेकिन किसी को कुछ नहीं बता सका—क्योंकि जब उसने गफूर मियां को चित्र दिखाया, तो उन्होंने सिर पर हाथ फेरा और कहा, “तू दिन में सपना देखता है बे।”
उधर पुलिस कमिश्नर डीसीपी भार्गव ने केस की कमान अपने हाथ में ले ली। और एक नई अफसर को केस सौंपा गया—एसीपी अदिति सिंह, जिसने कुछ महीने पहले ही लखनऊ से ट्रांसफर लिया था। तेज, तर्कशक्ति में प्रखर, लेकिन सिस्टम से नाराज़।
अदिति हवेली पहुँची और कमरे का मुआयना किया। मेज़ पर एक पुराना घड़ीसाज़ी का उपकरण रखा था, दीवार पर पुराने जजमेंट्स की प्रतिलिपियाँ। लेकिन उसकी नज़र गई उस नोट की ओर, जो मृतक के हाथ में था। उस पर बस एक पंक्ति थी:
“एक फैसला मैंने नहीं लिया, और उसकी कीमत अब चुका रहा हूँ।”
अदिति ने उस कमरे से कुछ और देखा—एक पुराना केस फ़ाइल बॉक्स जिसका कोना खुला हुआ था। फाइल पर लिखा था:
“स्टेट vs. इरशाद अली – २००३”
और तभी बाहर खड़ा चिंटू, अदिति को देखकर डरते-डरते अपनी नोटबुक में कुछ बनाता रहा। जब अदिति नीचे आई, तो वो आगे बढ़ा और नोटबुक उसकी तरफ़ बढ़ा दी। एक अनगढ़-सा चेहरा, पर उसकी आँखें तेज़ थीं।
अदिति ने पूछा, “तुमने ये देखा?”
चिंटू ने सिर हिलाया—हाँ।
“तुम बोल नहीं सकते?”
नकारात्मक सिर हिला।
वो झुकी, उसकी आँखों में देखा।
“क्या तुम मुझे सच बताओगे?”
उसने मुस्कुरा कर सिर हिला दिया—हाँ।
और वहीं से शुरू हुआ यह खेल। एक बच्चा, जो न बोल सकता है, न सुन सकता है, लेकिन उसने देखा है। और एक अफसर, जो व्यवस्था की परतों को चीरकर सच्चाई तक पहुँचना चाहती है।
पर हवेली की दीवारों में सिर्फ़ सन्नाटा नहीं था—वहाँ कोई और भी था, जो देख रहा था… और इंतज़ार कर रहा था।
२
प्रयागराज के पुलिस मुख्यालय में एसीपी अदिति सिंह अपने ऑफिस में केस फाइल फैला चुकी थीं। बाहर सायरन की आवाज़ें, फोन की घंटियां और कर्मचारियों की हलचल के बीच वह एकटक २००३ की उस केस फाइल को पढ़ रही थीं—“स्टेट vs. इरशाद अली”। केस दो दशक पुराना था, लेकिन उसकी परतें जैसे आज भी ताज़ा थीं। फाइल के मुताबिक़, इरशाद अली नामक एक ऑटो ड्राइवर पर एक जज की बेटी के अपहरण और हत्या का आरोप था। सबूत कमज़ोर थे, गवाहियाँ विरोधाभासी। लेकिन उस वक़्त के न्यायमूर्ति वेद प्रकाश ने सज़ा सुनाई—आजीवन कारावास। दो साल बाद जेल में इरशाद की रहस्यमयी मौत हो गई। केस बंद हो गया, मगर अब वही केस न्यायमूर्ति वेद प्रकाश की हत्या के दिन उनकी टेबल पर खुला क्यों था? क्या कोई पछतावा उन्हें अंदर से खा रहा था, या फिर कोई उन्हें ब्लैकमेल कर रहा था? अदिति को यह सवाल चैन नहीं लेने दे रहा था। उसी वक़्त दरवाज़ा खटखटाया गया—चिंटू, गफूर मियां के साथ आया था। उसके हाथ में एक नया स्केच था—एक कोट वाला आदमी, लेकिन इस बार चेहरे पर आधा नकाब और दाईं कलाई पर घड़ी की सीध में एक टैटू। अदिति चौक गईं—”ये टैटू कहीं देखा है मैंने…”** उन्होंने तुरंत क्राइम रिकॉर्ड डिपार्टमेंट से टैटू डाटाबेस मंगवाया। सैकड़ों टैटू के डिज़ाइनों में एक टैटू पर उनकी नज़र ठहर गई—”कृत्तिका” नाम का एक गिरोह, जो कभी प्रयागराज में सक्रिय था, अब विस्मृत हो चुका था। उनके निशान यही थे—त्रिकोण की आकृति में तीन बिंदु। लेकिन क्या इसका इस केस से संबंध था?**
अदिति ने अगली सुबह सीधे नैनी जेल का दौरा किया, जहाँ इरशाद अली की फाइल मौजूद थी। जेल के रजिस्टर में एक ऐसा नाम बार-बार आया जिसने अदिति को चौंका दिया—”सुबोध सिन्हा”, जो इरशाद से मिलने आता था, एक सामाजिक कार्यकर्ता बनकर। लेकिन अदिति को याद आया, यही सुबोध सिन्हा आज एक DSP हैं, और प्रयागराज के ही पश्चिम ज़ोन में कार्यरत हैं। अब सवाल यह था—एक अधिकारी जो इरशाद अली से जेल में मिलता था, वही अब पुलिस विभाग का उच्च अधिकारी है? क्या वेद प्रकाश को उसकी कोई सच्चाई मालूम थी? अदिति ने एक पर्सनल मीटिंग के लिए सुबोध सिन्हा को बुलाया। उनका बर्ताव सतर्क था, मुस्कराहट में झिझक थी। “मैम, बहुत पुरानी बात है। हाँ, इरशाद मेरे मोहल्ले का था। मैं उसके लिए केस लड़ना चाहता था, पर तब साधन नहीं थे।” अदिति ने चुपचाप टैटू वाला स्केच सामने रखा—सुबोध की पुतलियाँ सिकुड़ गईं, लेकिन उन्होंने भाव नहीं बदले। “ये क्या है?” उन्होंने पूछा। अदिति ने कहा, “आप बताइए।” उस क्षण अदिति को एहसास हुआ—सुबोध कुछ छिपा रहे हैं, और वो कुछ छोटा नहीं। बाहर खड़ा चिंटू, अदिति को इशारे में बताने की कोशिश कर रहा था—”यही वही चेहरा है जिसे उसने खिड़की से उतरते देखा था।”
अदिति अब इस केस को महज़ हत्या का मामला नहीं मान रही थीं। ये एक चक्र था, जिसमें पुराने गुनाहों की परछाइयाँ आज भी ज़िंदा थीं। चिंटू अब न केवल गवाह था, बल्कि खतरे में भी था। अदिति ने गफूर मियां को बुलाकर कहा, “इसे कुछ दिन मेरे साथ पुलिस क्वार्टर्स में रखा जाएगा। कोई नहीं जानता कि ये क्या जानता है।” लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। रात को अदिति के ऑफिस की खिड़की के पास एक पत्थर फेंका गया, जिससे काँच टूट गया। पत्थर के साथ एक कागज़ बंधा था—”जो मरा, वो मर चुका। जो बोलेगा, वो जलेगा।”
अदिति अब पूरी तरह समझ गईं—वेद प्रकाश की मौत महज़ एक हादसा नहीं, बल्कि एक श्रृंखला की शुरुआत थी। कोई पुरानी परछाई अब फिर से जाग चुकी थी, और उसका अगला निशाना चिंटू हो सकता था। लेकिन इस बार अदिति भी तैयार थी। वेद प्रकाश की टेबल पर एक और फ़ाइल थी—उस पर धूल जमी थी, लेकिन उसका नाम साफ था—”जजमेंट फ़ॉर सेल”। क्या यह वही केस था, जिसके फैसले को वेद प्रकाश जीवन भर ढोते रहे?
३
रात गहराती जा रही थी। पुलिस क्वार्टर की तीसरी मंज़िल के कमरे में एसीपी अदिति सिंह की टेबल पर केस फाइलें फैली थीं, दीवार पर चिंटू के बनाए स्केच पिन किए गए थे, और कमरे के कोने में एक चारपाई पर चिंटू अपनी नोटबुक सीने से चिपकाए सोने की कोशिश कर रहा था। मगर नींद आज किसी को नहीं आ रही थी। अदिति की सोच लगातार घूम रही थी—’कृत्तिका गिरोह’, ‘सुबोध सिन्हा’, और वो अजीब धमकी—जो उनके ऑफिस में फेंकी गई थी। इतने में बिजली चली गई। पूरा क्वार्टर अंधेरे में डूब गया। जनरेटर चालू होने से पहले सिर्फ़ एक परछाई कमरे के बाहर खिड़की से झांक रही थी—किसी ने एकदम धीमे से जाली खिसकाई। अदिति की नज़र वहां गई, और उसने तुरंत टॉर्च की रोशनी मारी—पर तब तक परछाई गायब थी। उन्होंने तुरंत वायरलेस से बाहर तैनात सिपाही से संपर्क किया—“कोई संदिग्ध दिखा?” जवाब आया—“नहीं मैडम, सब सामान्य है।” लेकिन अदिति को यकीन हो गया था—कोई बहुत नज़दीक है। बहुत ही नज़दीक।
अगली सुबह जैसे ही अदिति चिंटू के साथ कोर्ट परिसर की ओर निकलीं, एक काले रंग की बाइक तेज़ी से पीछे से आई और उनके वाहन की साइड पर टक्कर मारी। ड्राइवर ने हेलमेट पहना हुआ था, और बाइक पर कोई नंबर प्लेट नहीं थी। अदिति ने तुरंत पीछा शुरू किया, लेकिन वह बाइक गलियों में गायब हो गई। चिंटू घबरा गया था—उसका चेहरा पीला पड़ गया था, और उसने बार-बार अपनी कलाई की तरफ़ इशारा किया—वही टैटू वाला इशारा। अदिति समझ गईं—बाइक वाला वही व्यक्ति था, जो उस रात हवेली से निकला था। अब यह बात तय हो चुकी थी—चिंटू को ख़त्म करने की कोशिश हो रही है। लेकिन क्यों? क्या उसने कुछ और देखा था, जो वह अभी तक बता नहीं सका था?
अदिति ने अगले ही दिन बनारस जाने का निर्णय लिया—क्योंकि जेल रिकॉर्ड के मुताबिक़, ‘कृत्तिका’ गिरोह का अंतिम संदिग्ध वहीं देखा गया था—रामसेन दुबे, एक बूढ़ा, जो अब घाट पर पुजारी बनकर रहता था। अदिति चिंटू को साथ लेकर बनारस पहुँचीं और सीधा दशाश्वमेध घाट के पीछे के संकरे रास्तों में उस व्यक्ति को तलाशने लगीं। एक पुराने मंदिर की सीढ़ियों पर वह बैठा मिला—गेरुआ वस्त्र, पर चेहरे की आँखें आज भी चौकन्नी। अदिति ने सीधे सवाल किया—“आप ‘कृत्तिका’ को जानते हैं?” रामसेन कुछ पल चुप रहा, फिर बोला, “जानता था, अब नहीं। सब ख़त्म हो चुका है।” अदिति ने उसके सामने टैटू वाला स्केच रखा—रामसेन कांप उठा। “ये टैटू… ये तो सुबोध का है।”
यह सुनते ही अदिति को जैसे बिजली का झटका लगा। “सुबोध सिन्हा?”
“हाँ… वो हम सबका लीडर था। तब वो कॉलेज में पढ़ता था, और हम सब न्याय के लिए लड़ने वाले बनते थे। मगर फिर सब कुछ बदल गया… गिरोह डर का सौदा करने लगा।” रामसेन अब काँप रहा था, पर उसकी आँखों में पछतावा था। “इरशाद अली को फँसाना भी उसी की चाल थी। उसके खिलाफ़ सबूत गढ़े गए, और न्यायमूर्ति वेद प्रकाश को भी गुमराह किया गया। जब वेद प्रकाश को सच पता चला, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वो अंदर से टूट गए थे।”
अब चित्र साफ़ था—वेद प्रकाश को उनके पुराने फैसले का पछतावा था। उन्होंने ‘कृत्तिका’ गिरोह की सच्चाई जान ली थी, और शायद अपनी मौत से पहले सब उजागर करना चाहते थे। मगर गिरोह का नेता अब DSP बन चुका था—और उसे सच्चाई का उजागर होना बर्दाश्त नहीं था। अदिति जानती थीं—अब यह सिर्फ़ एक केस नहीं था, यह एक पूरी व्यवस्था के खिलाफ़ लड़ाई थी। पर अभी भी एक कड़ी गायब थी—चिंटू ने क्या और देखा था, जिसे वो बता नहीं पा रहा था?
४
बनारस से लौटने के बाद अदिति सिंह ने चिंटू को प्रयागराज के चिल्ड्रन काउंसलिंग सेंटर में भर्ती करवाया। शहर के बाहर स्थित इस शांत सेंटर में डॉक्टर मेहरा एक अनुभवी आर्ट थैरेपिस्ट थीं, जो मूक-बधिर बच्चों की आंतरिक स्मृतियों को चित्रों के ज़रिए खोलने में माहिर थीं। पहले दिन चिंटू चुप रहा, लेकिन दूसरे दिन उसने एक चित्र बनाया—एक अंधेरे कमरे में लाल रोशनी, एक गिलास में कोई तरल, और एक परछाईं जो ज़हर किसी चीज़ में मिला रही है। डॉक्टर मेहरा ने ये चित्र अदिति को दिखाया। अदिति सिहर उठीं—क्या वेद प्रकाश की मौत ज़हर से हुई थी? फॉरेंसिक रिपोर्ट में सिर पर चोट का ज़िक्र था, पर ज़हर की जांच नहीं हुई थी। उन्होंने तुरंत केस रिपोर्ट पुनः खोली और फॉरेंसिक लैब को संपर्क किया—“पेट के सैंपल की दुबारा जांच की जाए, खासकर सायनाइड या नींद की गोलियों के लिए।” चिंटू की आँखों ने उस रात जो देखा था, वह अब धुंध से साफ़ होने लगा था। और यह साफ़ होता जा रहा था कि हत्या सिर्फ़ हथियार से नहीं, विश्वास तोड़कर की गई थी।
अदिति उसी शाम प्रकाश निवास दोबारा पहुँचीं, जहाँ अब ताला लगा था। उन्होंने जर्जर पुस्तकालय की आलमारी की पीछे की दीवार पर ध्यान दिया, जहाँ दीवार के पीछे एक पैनल हल्का हिला हुआ दिखा। उन्होंने पैनल को हटाया, और भीतर से एक छोटा सा टेप रिकॉर्डर निकला—पुराने ज़माने का। शायद वेद प्रकाश ने कुछ रिकॉर्ड किया था। बैटरियाँ खत्म थीं। अदिति ने उसे ऑफिस लाकर चार्ज कर टेप को चलाया। रिकॉर्डिंग में आवाज़ गूंज रही थी—कमज़ोर, लेकिन स्पष्ट।
“अगर मैं मर जाऊं तो समझो, सच्चाई भारी पड़ गई। इरशाद अली निर्दोष था। मेरे फैसले ने एक जीवन छीन लिया। जो दस्तावेज़ मैंने दबाए थे, उन्हें अब ढूंढा जा सकता है। कृत्तिका एक नाम नहीं, एक साया है… वो अब वर्दी पहन चुका है।”
अदिति के रोंगटे खड़े हो गए। इस वसीयत का मतलब साफ़ था—वेद प्रकाश को मालूम था कि वह मारे जाएंगे, और उन्होंने अपनी अंतिम सच्चाई एक पुराने टेप में दर्ज कर दी थी। यह रिकॉर्डिंग अब सबूत थी, लेकिन क्या अदालत में इसे स्वीकारा जाएगा? और इससे बड़ा सवाल—क्या डीएसपी सुबोध सिन्हा को अभी इस टेप के बारे में पता है? उसी रात पुलिस क्वार्टर की छत पर किसी की हलचल दर्ज हुई। एक सिपाही ने बताया कि रात ढाई बजे किसी ने सिसिटिभि कैमरा काटने की कोशिश की। अदिति तुरंत चिंटू को दूसरी जगह भेजने का आदेश देती हैं। मगर इससे पहले कि वे निकलते, क्वार्टर के पास एक कार में बम की सूचना मिली। शायद हमला सिर्फ़ चेतावनी नहीं था—अब खेल खुलकर खेला जा रहा था।
अदिति ने डीसीपी भार्गव से मुलाकात की और उन्हें सारी जानकारी दी—टेप रिकॉर्डिंग, चिंटू के चित्र, और ‘कृत्तिका’ गिरोह का अतीत। लेकिन डीसीपी की प्रतिक्रिया अनपेक्षित थी। उन्होंने कहा, “अदिति, यह केस जितना दिखता है, उससे कहीं ज़्यादा गहरा है। सुबोध सिन्हा सिर्फ़ मोहरा है। पीछे बहुत ऊंची ताकतें हैं—जज, मंत्री, और शायद हमारा ही कोई कमिश्नर।” अदिति को समझ में आ गया—अब ये लड़ाई केवल एक बालक की गवाही की नहीं रही, ये सत्ता और सच्चाई की लड़ाई है। लेकिन अदिति पीछे हटने वाली नहीं थीं। उन्होंने निर्णय लिया—टेप को मीडिया को सौंपा जाएगा, लेकिन एक सुरक्षित चैनल से। और चिंटू को गुप्त स्थान पर ले जाकर, उसकी रक्षा के साथ, वह उसे कोर्ट तक पहुंचाने का संकल्प लेंगी।
५
सुबह पांच बजे प्रयागराज के न्यूज़ चैनलों पर एक खबर ने सबको चौंका दिया—“पूर्व न्यायमूर्ति वेद प्रकाश की मौत के पहले का टेप सामने आया!” हर चैनल पर वही आवाज़, वही गूंजती हुई स्वीकारोक्ति—”इरशाद अली निर्दोष था… कृत्तिका अब वर्दी में है…”। इस टेप ने जैसे पुलिस विभाग, न्यायिक व्यवस्था और राजनीति की दीवारों में भूकंप ला दिया। सोशल मीडिया पर #JusticeForIrshad ट्रेंड करने लगा। डीएसपी सुबोध सिन्हा कैमरों के सामने नहीं आए। पुलिस हेडक्वार्टर में एक आपात बैठक बुलाई गई। उधर, अदिति ने चिंटू को एक सीक्रेट सेफहाउस में शिफ्ट कर दिया था—एक सेवानिवृत्त महिला पुलिस अधिकारी उमा ठाकुर के फार्महाउस में। उमा कभी अदिति की ट्रेनिंग अफसर रही थीं—अब वो केस के इस निर्णायक मोड़ पर उसकी एकमात्र भरोसेमंद सहयोगी थीं। लेकिन अदिति को पता था—जैसे ही टेप बाहर गया, अगला वार चिंटू पर होगा।
उसी दोपहर जब अदिति कोर्ट के एक वरिष्ठ न्यायाधीश से मिलने जा रही थीं, चिंटू फार्महाउस के बगीचे में रंगों से एक नया चित्र बना रहा था। यह चित्र पहले से अधिक स्पष्ट था—एक आदमी, कोट में, बाएँ कान में वायरलेस, और पीछे एक सफेद कार जिसमें सरकारी स्टीकर लगा था। उमा ने चित्र देखकर फोन किया, “ये तो सरकारी एम्बेसडर कार जैसी लगती है।” तभी फार्महाउस के बाहर एक ऐसी ही कार आकर रुकी। ड्राइवर उतरकर बोला—“डीसीपी भार्गव ने भेजा है, चिंटू को सुरक्षा के लिए स्टेशन लाना है।” उमा को कुछ खटक गया। उन्होंने तुरंत अदिति को फोन किया—पर नेटवर्क नहीं था। ड्राइवर अंदर आया, लेकिन तभी चिंटू पीछे हट गया और अपनी नोटबुक से एक पेज दिखाया—उस ड्राइवर का स्केच, जो हवेली से भागा था।
उमा ने तुरंत अलमारी से लाइसेंसी रिवॉल्वर निकाला। ड्राइवर समझ गया—उसकी पहचान हो चुकी है। वह भागने की कोशिश करने लगा, लेकिन फार्महाउस के गेट पर तैनात उमा के पुराने सहयोगी राजीव चौधरी ने उसे पकड़ लिया। पूछताछ में पता चला कि उसे एक अज्ञात नंबर से पैसे और आदेश मिले थे—चिंटू को अगवा करके इलाहाबाद के बाहर एक बंद मिल में पहुंचाने के लिए। अदिति को जैसे ही यह खबर मिली, उन्होंने सब इंस्पेक्टर सौरभ के साथ मिलकर उस मिल की लोकेशन ट्रेस की और एक छोटी टीम के साथ वहाँ पहुंचीं। अंदर एक ब्लैक-ऑउट कमरे में सिसिटिभि मॉनिटर चल रहे थे—किसी ने चिंटू पर नजर रखने के लिए पहले ही सिस्टम तैयार कर रखा था। और उस कमरे की दीवारों पर पुराने केस के दस्तावेज़ों की जली हुई प्रतियाँ थीं—जैसे किसी ने सबूत मिटाने की कोशिश की हो।
अदिति अब जान चुकी थीं—कोई बहुत ऊँची ताकत इस लड़ाई में शामिल है। पर उसी वक्त एक हैरान कर देने वाला मोड़ आया। कोर्ट में अगली सुनवाई से पहले, एक पत्र अदिति के नाम आया—“मैं बोलना चाहता हूँ।” भेजने वाला था—डीसीपी भार्गव। उन्होंने अदिति को एक पुराने चर्च में बुलाया, जो अब बंद पड़ा था। अदिति हथियारबंद पहुँचीं। भार्गव ने जो कहा, वह अप्रत्याशित था—“मैं जानता हूँ सुबोध कौन है। और मैं बहुत पहले से उसके खिलाफ़ फाइलें जुटा रहा हूँ। पर अकेले नहीं कर सकता। तुम्हें सबूतों को कोर्ट तक ले जाना होगा। मैं गवाही दूँगा।” अदिति को जैसे एक साथ राहत और आशंका का अनुभव हुआ। उन्होंने पूछा—“आप तब तक चुप क्यों थे?” भार्गव बोले—“क्योंकि डरता था। अब डर से ऊब चुका हूँ।”
६
सिविल कोर्ट, प्रयागराज—सुबह १०:४५। कोर्ट रूम नंबर ६ में भीड़ पहले से ज़्यादा थी। मीडिया, पुलिस, वकील और जनता की आँखें एक मासूम चेहरे पर टिकी थीं—चिंटू, जिसने अब तक कुछ कहा नहीं, लेकिन सब कुछ देख लिया था। एसीपी अदिति सिंह ने उसकी नोटबुक और स्केच को पहले ही डिजिटल फॉर्म में बदलवाकर कोर्ट में दाख़िल करवाया था। जज ने एक विशेष व्यवस्था दी थी—चूंकि चिंटू मूक और बधिर है, उसकी गवाही ‘चित्र + संकेत भाषा + वीडियो एनिमेशन’ के माध्यम से ली जाएगी। कोर्ट में पहली बार इस तरह की गवाही हो रही थी। सामने वकील ने सवाल किया—”क्या यह बच्चा प्रमाणिक गवाह है?” अदिति ने जवाब में टेप रिकॉर्डिंग, फॉरेंसिक रिपोर्ट और डीसीपी भार्गव का शपथ पत्र रखा। भार्गव खुद कोर्ट में खड़े हुए, बोले—“सुबोध सिन्हा ने सिस्टम को ढाल बनाकर अपराध छिपाए। न्यायमूर्ति वेद प्रकाश ने अपनी गलती का प्रायश्चित करते हुए सब कुछ हमारे सामने छोड़ दिया। यह बच्चा गवाह नहीं, सत्य है।”
इसके बाद कोर्ट में वीडियो स्क्रीन पर चिंटू के बनाए दृश्यों की एनिमेटेड रीक्रिएशन चली। दृश्य १: हवेली का कमरा, लाल बल्ब, एक आदमी खिड़की से उतरते हुए, उसके हाथ में इंजेक्शन और शीशी। दृश्य २: वही आदमी कार की ओर बढ़ता है, ड्राइविंग करते वक्त मोबाइल पर बात करता है। दृश्य 3: चिंटू दीवार के पीछे से झांक रहा है। वीडियो पूरा होते ही कोर्ट में सन्नाटा छा गया। प्रतिवादी पक्ष के वकील ने आखिरी दांव खेलते हुए कहा—“एक बच्चा, जिसकी याद्दाश्त और समझ पर संदेह है, क्या न्याय की बुनियाद बन सकता है?” अदिति ने तुरंत प्रतिप्रश्न किया—“तो क्या कोई वर्दीधारी अधिकारी, जो हत्या कर चुका हो, बरी कर दिया जाना चाहिए?” जज ने चुपचाप दस्तावेज़ों का पुलिंदा देखा। तभी कोर्ट रूम के बाहर हंगामा मच गया—“बम की सूचना मिली है!” एक अज्ञात कॉल आया था—“कोर्ट में बम रखा गया है, केस रोक दो।”
पुलिस ने कोर्ट खाली करवाना शुरू किया। लेकिन अदिति ने जज से अनुरोध किया—“आपके समक्ष सबूत पूरे हो चुके हैं। निर्णय अब आप पर निर्भर है। कृपया इसे धमकी न समझें—यह वही डर है, जो न्यायमूर्ति वेद प्रकाश को मार गया।” जज ने सिर हिलाया और आदेश दिया—“कार्यवाही आगे जारी रहेगी।” बम स्क्वॉड ने जांच की, कुछ नहीं मिला। स्पष्ट था—यह सिर्फ़ गवाही रोकने का प्रयास था। मगर अब बहुत देर हो चुकी थी। जज ने कोर्ट में कहा—“बच्चे की मूक गवाही, तकनीकी सबूत, टेप रिकॉर्डिंग और डीसीपी भार्गव की शपथ को मिलाकर यह कोर्ट प्रथम दृष्टया आरोपी सुबोध सिन्हा को अभियुक्त मानती है और गिरफ्तारी का वारंट जारी करती है।” अदिति ने बाहर आकर मीडिया से कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ चिंटू का हाथ थामे रही।
सुबोध सिन्हा को देर रात उनके सरकारी आवास से गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के समय उन्होंने सिर्फ़ एक वाक्य कहा—“अगर सच बोलना जुर्म है, तो मैं भी एक दिन गवाह बनूँगा।” अदिति थक चुकी थीं, लेकिन पहली बार मुस्कराईं। कोर्ट रूम से निकलते समय उन्होंने चिंटू से कहा—“तू मौन था, पर सबसे बड़ा बयान तेरा था।” मीडिया ने उसे ‘India’s Silent Witness’ का नाम दिया। सरकार ने उसकी शिक्षा की ज़िम्मेदारी ली। और वेद प्रकाश का नाम अब दोषपूर्ण निर्णयों की सूची से हटाकर ‘स्वीकारोक्ति की साहसिक मिसाल’ के रूप में दर्ज किया गया।
७
प्रयागराज में न्याय मिला, लेकिन सन्नाटा अभी पूरी तरह टूटा नहीं था। सुबोध सिन्हा की गिरफ्तारी के तीन दिन बाद, एक बंद पैकेट में प्रयागराज पुलिस मुख्यालय को एक ब्लैक USB ड्राइव भेजी गई। उस पर सिर्फ़ तीन अक्षर खुदे थे—”KRT”। अदिति ने तुरंत साइबर सेल को बुलाया। जब फाइल खोली गई, एक वीडियो चला: धुंधला चेहरा, नकाब में, सिर्फ़ आँखें दिख रही थीं। और वो आवाज़—खामोश, धीमी लेकिन तीखी: “सुबोध तो मोहरा था, अदिति। कृत्तिका सिर्फ़ एक संगठन नहीं, विचार है। अगर तुम सोचती हो कि बच्चे को बचा लिया, तो तुम भूल में हो। अब लड़ाई रुकेगी नहीं—शुरू होगी।” वीडियो वहीं कट गया। अदिति ने गहरी सांस ली। उसने हमेशा सोचा था कि वेद प्रकाश की मौत एक निजी पश्चाताप थी, फिर एक केस, फिर एक गिरोह—लेकिन अब यह विचारधारा बन चुकी थी। उसने तुरंत NCRB और IB को संपर्क किया। और वहीं से सामने आया एक नाम, जो पुराने सिस्टम में बार-बार दफन कर दिया गया था—”सारंग मिश्रा”**, एक पूर्व पुलिस ट्रेनर, जो कभी सुबोध का गुरु था, और अब माना जाता था कि अंडरग्राउंड है।
सारंग मिश्रा कभी सिस्टम का हिस्सा था, फिर एक केस के चलते सस्पेंड हुआ—उसने अपने ही सीनियर अफसर पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था। उसके बाद वो लापता हो गया। लेकिन कुछ खुफिया फाइलों में उसका नाम ‘कृत्तिका’ के वैचारिक संस्थापक के रूप में बार-बार आया। अदिति ने IB अफसर विनय गुप्ता से मुलाकात की। उन्होंने एक नक्शा सामने रखा—देशभर के उन पाँच शहरों का, जहाँ पिछले एक साल में गवाहों की रहस्यमय मौतें हुई थीं। “हर केस में कोई ना कोई संबंध ‘कृत्तिका’ शब्द या चिन्ह से जुड़ा पाया गया।” उन्होंने एक फोटो दिखाया—एक स्कूल की जलती हुई बस, और एक कोना जहाँ दीवार पर वही त्रिकोण टैटू बना था। विनय बोले, “ये सिर्फ़ गवाहों का कत्ल नहीं है, ये संदेश है—सिस्टम में डर डालने का।”
अदिति ने तुरंत चिंटू को दिल्ली के एक हाई-सिक्योरिटी बाल संरक्षण केंद्र में भेजने की सिफारिश की। लेकिन चिंटू जाने से पहले कुछ कहना चाहता था। उसने अदिति को एक अंतिम चित्र दिया—एक घड़ी, जिसकी सुई उल्टी दिशा में चल रही थी, और नीचे लिखा था, संकेत भाषा में—”सब कुछ दोहराया जाएगा।” अदिति इस प्रतीक को समझने की कोशिश में लगी थीं, तभी एक और हमला हुआ—DCP भार्गव के घर पर बम विस्फोट। भार्गव बच गए, लेकिन गंभीर रूप से घायल हुए। अस्पताल में उन्होंने अदिति को फुसफुसाकर सिर्फ़ इतना कहा—“सारंग… कोर्ट रूम वापस आएगा…”
उस रात अदिति को एक अज्ञात नंबर से कॉल आया—कोई नहीं बोल रहा था, लेकिन बैकग्राउंड में वही टेप रिकॉर्डिंग की आवाज़ गूंज रही थी—“मैं मर गया, मगर सच्चाई नहीं…”। अदिति की आँखों में नींद नहीं थी—अब यह लड़ाई न गवाह की रही, न गवाही की… यह लड़ाई विचार बन चुके झूठ के खिलाफ़ थी। और जब झूठ विचार बन जाए, तब एक सच्चा अफसर, एक बच्चा, और एक अधूरी कुर्बानी ही आखिरी उम्मीद बनती है।
८
प्रयागराज से लगभग साठ किलोमीटर दूर, एक उपेक्षित इलाक़े में स्थित था—‘नवग्राम मानसिक आरोग्य केंद्र’। इसे दस साल पहले बंद कर दिया गया था, लेकिन खुफिया रिपोर्ट्स कहती थीं कि यहीं से ‘कृत्तिका’ नामक वैचारिक गिरोह का बीज बोया गया था। एसीपी अदिति सिंह ने जब अपनी गाड़ी उस वीरान परिसर में प्रवेश की, तो वहाँ की दीवारों पर उधड़े पोस्टर, जंग खाए दरवाज़े, और टीन की छत पर टपकती पानी की बूँदों ने एक ही बात कही—यहाँ कभी कोई चीखा होगा, लेकिन सुना नहीं गया। वहाँ के मुख्य हॉल की दीवार पर एक वाक्य लिखा था, जो अब आधा मिट चुका था—“हमारे मन की आग को… कोई बुझा नहीं सकता।”** उसी के नीचे मिला—त्रिकोण टैटू का पहला रूप। एक पुराना रजिस्टर मिला—जिसमें एक नाम हाइलाइट किया गया था: “सारंग मिश्रा – रोगी नहीं, पर्यवेक्षक (Observer)”। इसका मतलब था कि सारंग कभी इस मानसिक संस्था में इलाज कराने नहीं, किसी प्रयोग को देखने आया था। एक और फाइल मिली—‘Subject २७’, जिसमें एक बच्चे के मानसिक प्रोफाइल का उल्लेख था: मूक, बधिर, भयभीत… लेकिन स्मृति शक्ति तीव्र।
अदिति वहीं पर ठिठक गईं। उस बच्चे का स्केच देखती रहीं। उसकी आँखें, उसकी कद-काठी, चेहरे की बनावट—चिंटू। उसका पूरा नाम कभी किसी रिकॉर्ड में नहीं था, न ही उसकी फैमिली मिली थी। क्या संभव है कि चिंटू इस संस्था में कभी ‘प्रयोग’ के तहत रखा गया था? क्या वो सिर्फ़ एक गवाह नहीं, ‘कृत्तिका’ के अंदर से निकला पहला दरार था? अदिति ने तुरंत दिल्ली में मौजूद डॉक्टर मेहरा को कॉल किया। डॉक्टर मेहरा ने बताया—“चिंटू जब पहली बार मेरे पास आया था, तो उसके शरीर पर हल्के करंट के निशान थे। मुझे तब भी शक था कि उसे किसी मनोवैज्ञानिक प्रयोग का हिस्सा बनाया गया होगा। मगर अब तस्वीर साफ हो रही है।” अदिति को समझ में आने लगा था—चिंटू न सिर्फ़ गवाह है, वो एक अधूरी योजना का अधूरा परिणाम है, जिसे ‘कृत्तिका’ पूरा करना चाहता है या मिटाना चाहता है।
उधर दिल्ली के सुरक्षा केंद्र में चिंटू की तबीयत अचानक बिगड़ गई। वो कांप रहा था, आँखें खुली थीं लेकिन फोकस नहीं कर रही थीं। डॉक्टरों ने कहा—“ये PTSD का असर है। कोई छवि, कोई पुरानी चीख उसके दिमाग़ में लौट रही है।” अदिति ने तुरंत वीडियो कॉल से डॉक्टर मेहरा को जोड़ा। डॉक्टर मेहरा ने उसे संकेतों में शांत किया और कहा—“जो देख रहे हो, उसे काग़ज़ पर उतारो।” चिंटू ने कांपते हुए जो चित्र बनाया, उसमें एक चीज़ ने सबका दिल दहला दिया—एक बच्चा, पानी की टंकी के अंदर, चारों ओर अंधेरा, और बाहर एक आदमी उसे देख रहा था—चेहरे पर मुस्कान, पर आँखों में पागलपन। और उस आदमी की जेब में था वही टैटू—त्रिकोण के भीतर आँख।
चित्र के नीचे चिंटू ने पहली बार शब्द लिखे—“मैं वापस नहीं जाना चाहता।” अदिति ने अब फैसला कर लिया—सारंग मिश्रा को ढूंढना ही नहीं, उसके विचार को खत्म करना ज़रूरी है। लेकिन सवाल यह था—वो अब कहाँ है? तभी उसे याद आया—नवग्राम संस्थान के आखिरी पन्ने पर एक कोड था: “S26-BN-VAR-03″। ये कोई कोड नहीं, लोकेशन क्लू था। “S26” – सारंग मिश्रा; “BN” – बनारस; “VAR-03” – घाट नंबर ३ पर कोई गुप्त मिलन बिंदु। अदिति को दिशा मिल गई थी। मगर उससे पहले उसे किसी और को तैयार करना था—चिंटू। क्योंकि आखिरी लड़ाई उसी की पहचान पर आधारित होने वाली थी।
९
बनारस—शाम के सात बजे। घाट नंबर तीन पर अंधेरे की चादर धीरे-धीरे फैल रही थी। गंगा का जल शांत था, लेकिन उसकी सतह पर अजीब सी खामोशी थी, मानो वह कुछ छिपा रही हो। एसीपी अदिति सिंह एक सफेद धोती और माथे पर चंदन लगाए साध्वी के वेश में घाट की सीढ़ियाँ चढ़ रही थीं। हाथ में एक प्राचीन जल पात्र, और कमर में छिपा था सर्विलांस उपकरण। उसके पास थी नवग्राम से मिली वह कोडेड डायरी, जिसके अंतिम पृष्ठ पर लिखा था—“शून्य काल का प्रवेश यहीं से होता है।”** घाट पर मौजूद तांत्रिकों और संन्यासियों की भीड़ में कुछ चेहरे बार-बार घूम रहे थे, और उन्हीं में एक था—मोनोक्रोम चश्मा पहने एक अधेड़ पुरुष, जो मंदिर की पिछली दीवार से बार-बार अदिति की दिशा में देख रहा था।
अदिति ने घाट के पास एक छोटी सी गुफा जैसी संरचना में प्रवेश किया, जिसे स्थानीय लोग ‘मृत बोधि कुण्ड’ कहते थे। वहाँ दीवार पर वही प्रतीक था—त्रिकोण के भीतर आँख, लेकिन इस बार उसके नीचे लिखा था—“Act V – Chintu”। अदिति सिहर उठीं। कृत्तिका का अगला “अधिनायक नाटक” चिंटू के नाम पर था। तभी पीछे से किसी ने दबे पाँव प्रवेश किया। अदिति तुरंत मुड़ीं—सामने वही आदमी था—मोनोक्रोम चश्मे वाला। उसने मुस्कराकर कहा, “तुम जिस सत्य की तलाश में हो, वो कभी जीवित ही नहीं था। तुम सोचती हो कि तुम उसे मिटा सकती हो, जो विचार में जिंदा है?” अदिति ने अपनी जेब से डिवाइस निकाला—यह लाइव ट्रांसमिट कर रहा था। तभी बाहर पुलिस टीम ने अंदर घुसकर उसे पकड़ लिया। लेकिन उससे पहले उसने एक शब्द फेंका—”Sārang will rise.”
उधर दिल्ली में, डॉक्टर मेहरा चिंटू के साथ एक विशेष स्मृति सत्र चला रही थीं। उन्होंने एक विशेष उपचार के तहत उसकी गंध और स्पर्श से जुड़ी स्मृतियों को जगाने की कोशिश की। चिंटू कांपते हुए एक चित्र बनाने लगा—एक महिला, जिसके कानों में नीले झुमके थे, और हाथों में लाल चूड़ियाँ। तस्वीर के नीचे उसने लिखा—“Ma”। यह पहली बार था, जब चिंटू को अपनी माँ की याद आई थी। डॉक्टर मेहरा ने तुरंत अदिति को सूचना दी। अदिति ने NCRB डाटाबेस से मिलते-जुलते केस ढूंढवाए—एक केस २३ का था, जहाँ एक महिला ‘अनामिका’ ने अपने बेटे के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज करवाई थी—बच्चे का नाम कभी नहीं लिखा गया, बस यही कि वह “बोल नहीं सकता, लेकिन देखता बहुत है।” केस बंद हो गया था, और महिला का बाद में मानसिक अस्पताल में इलाज हुआ। अदिति के हाथ अब उस सच्चाई के करीब थे, जो ‘कृत्तिका’ के बाहर की दुनिया से भी जुड़ी थी।
बनारस में पकड़े गए मोनोक्रोम चश्मे वाले व्यक्ति की पूछताछ से जो डायरी मिली, उसमें एक योजना का उल्लेख था—”Final Purge – October 3rd – Family Court, Delhi”। अदिति समझ गईं—चिंटू को मारने का अंतिम प्रयास एक न्यायिक प्रतीक स्थल पर किया जाएगा, और वह हमला न्याय के सबसे मासूम प्रतीक—बाल न्यायालय—पर होगा। उन्होंने तुरंत दिल्ली के हाई अलर्ट के आदेश दिए, और चिंटू को वहाँ से निकालकर एक स्पेशल CBI सेफहाउस में भेजा। लेकिन अब सवाल सिर्फ़ सुरक्षा का नहीं था, बल्कि चिंटू की पहचान को उजागर करने का था। उसके चित्रों में छिपा अतीत, उसकी माँ की आँखें, और उसके खोए हुए नाम को वापस लाने की आखिरी कोशिश अब सामने थी।
१०
३ अक्टूबर, दिल्ली। फैमिली कोर्ट परिसर में सुबह की चहल-पहल थी, लेकिन सुरक्षा असामान्य रूप से कड़ी। CBI, NSG और लोकल पुलिस की तीन टीमें तैनात थीं। एसीपी अदिति सिंह एक बुलेटप्रूफ SUV में चिंटू को लेकर कोर्ट पहुँचीं, लेकिन इस बार उसकी आँखों में डर नहीं था। पहली बार, उसने बिना किसी संकेत के अदिति का हाथ थामा और धीमे से होंठों से शब्द बनाए—“मैं बोलूँगा।” डॉक्टर मेहरा ने बताया था कि उसके वोकल कॉर्ड्स में आवाज़ थी, पर वह खुद बोलने से डरता था। शायद आज वह डर भी घुटने टेक रहा था। कोर्ट परिसर में अदिति ने उसे छोटे बच्चों की अदालत में पेश किया, जहाँ उसे ‘गवाह की पुनर्पुष्टि’ देनी थी। सब कुछ ठीक लग रहा था—लेकिन तभी कोर्ट के पीछे की दीवार से धुआं उठा। विस्फोट नहीं हुआ, पर यह एक मोहरा था—ध्यान हटाने का। अदिति ने तत्काल चीखकर कहा—”चिंटू को भीतर ले जाओ! पीछे से कोई घुसने की कोशिश करेगा!”
सिक्योरिटी हरकत में आ गई, लेकिन तभी सिविल ड्रेस में तीन लोग, जो रिपोर्टर के भेष में अंदर घुसे थे, अचानक पिस्टल निकालकर एक दिशा में भागे—वो दिशा जहाँ चिंटू था। लेकिन पहले से तैयार NSG कमांडो ने उन्हें बीच रास्ते में ही गिरा दिया। तीनों पकड़ लिए गए। अदिति ने खुद कोर्ट रूम का गेट बंद करवाया और चिंटू को स्टैंड पर लाया। जज ने पूछा—“क्या आप गवाही देना चाहते हैं?” चिंटू ने धीरे से सिर हिलाया, फिर उसकी उंगलियाँ काँपीं… फिर होठ फड़फड़ाए… और पहली बार, हल्की लेकिन सुनाई देने वाली आवाज़ में शब्द निकले—”मैंने देखा था…” कोर्ट रूम सन्नाटे में डूब गया। अदिति की आँखें भर आईं। वह कोई लंबा बयान नहीं दे पाया, लेकिन उसके शब्दों और उसके चित्रों को, उसकी मां की यादों को, उसकी चुप्पी की ताकत को आज न्याय ने स्वीकारा।
जज ने कहा—“यह गवाही भारत की न्याय प्रणाली के इतिहास में एक नई दिशा है। यह गवाही उस मौन का प्रतीक है, जो वर्षों तक अनसुना रहा, पर आज समय ने उसे जगह दी।” इसी समय, सुरक्षा अफसर ने अदिति के कान में कहा—“एक और संदिग्ध कोर्ट की छत से नीचे कूद गया है। शव मिला है, पहचान अभी नहीं हुई।” जब बॉडी का चेहरा सामने आया, तो अदिति को सांसें थम गईं—सारंग मिश्रा। उसने खुद को समाप्त कर लिया था, अंतिम योजना विफल होने के बाद। उसके शरीर के पास एक पत्र था—“मैं विचार था। तुमने विचार को ज़िंदा दफना दिया। अब कोई और मेरी राख से उठेगा?” अदिति ने पत्र पढ़कर आग में फेंक दिया। और कहा—”नहीं। मौन अब नहीं रहेगा।”
कुछ महीनों बाद, चिंटू का असली नाम न्यायिक रिकार्ड में दर्ज हुआ—आरव अनमोल मिश्रा। उसकी माँ को खोज लिया गया—वो एक पुनर्वास केंद्र में थीं, और जब उन्होंने चिंटू को देखा, तो उन्होंने सबसे पहले जो कहा वो था—“तू बोल सकता है?” और चिंटू ने मुस्कराकर जवाब दिया—“अब डरता नहीं…” अदिति सिंह को वीरता पदक मिला, और उनकी कहानी कई पुलिस प्रशिक्षण केंद्रों में ‘सत्य की लड़ाई’ के पाठ में पढ़ाई जाने लगी। लेकिन जब उनसे पूछा गया—“क्या ये लड़ाई खत्म हुई?” उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा—“सच्चाई कभी खत्म नहीं होती, बस अगली आवाज़ का इंतज़ार करती है।”
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समाप्त