Hindi - प्रेम कहानियाँ

मोबाइल का मिस्ड कॉल

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आरव मेहरा


भाग 1 — अनजान आवाज़

उस रात दिल्ली की हवा में नमी थी और मेरी खिड़की पर महीन बारिश टपक रही थी। मैं लैपटॉप बंद करके बिस्तर पर गिरा ही था कि फोन बज उठा—एक नंबर जो पहले कभी नहीं देखा। मैंने उठाया, “हेलो?” दूसरी तरफ एक गहरी साँस, फिर धीमी आवाज़, “सॉरी… गलती से डायल हो गया।” उस स्वर में बारिश की-सी झनझनाहट थी। मैंने “कोई बात नहीं” कहा और कॉल कट गई। पाँच मिनट बाद वही नंबर फिर। “इस बार भी गलती?” मैंने मुस्कुराकर पूछा। वह बोली, “मत काटिए… बस पूछना था—क्या आपके यहाँ भी यह बारिश वैसी लग रही है, जैसे कोई पुरानी धुन?” मैंने कहा, “दिल्ली की आधी खिड़कियों पर अभी यही धुन है।” कुछ पल खामोशी रही। फिर उसने बताया कि आज नई नौकरी का पहला दिन था; लौटते वक्त फोन बैग की लाइनिंग में अटक गया और उँगलियाँ उलझते-उलझते यह नंबर डायल हो गया। “आप नाराज़ तो नहीं?” उसने संकोच से पूछा। मैंने कहा, “नाराज़ होने जैसा कुछ नहीं। बस रात लंबी है।” वह धीरे बोली, “देर रात ही तो आवाज़ें साफ़ सुनाई देती हैं।” उस एक वाक्य ने मुझे रोक लिया। मैंने नाम नहीं पूछा। हम मौसम पर आये—उसे बरसात में बांसुरी पसंद है, पर शहर में अब हॉर्न और ऐप की पिंग है। मैंने कहा कि हमारी छतों के पार कहीं कोई हारमोनिका बजाता है; हवा साथ दे तो धुन दूर तक जाती है। अनजाने ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ गया; दूसरी तरफ हल्की हँसी तैर गई। “अगर धुन पहुँची,” उसने कहा, “तो समझूँगी हमारी दूरी मैप से कम है।” “तुम दिल्ली में हो?” “दूरी उतनी नहीं जितनी लगती है,” उसने शरारत से कहा। फिर बोली, “एक नियम रखें? दस दिनों तक नाम नहीं, फोटो नहीं, सोशल मीडिया नहीं—सिर्फ़ आवाज़। अगर इन दस दिनों में आपको मेरी आवाज़ पसंद न आए, तो कह दीजिएगा; मैं इस मिस्ड कॉल को मिस्ड स्टोरी मानकर फोल्ड कर दूँगी।” मैंने खिड़की की कुंडी खिसकाकर बूँदों को भीतर आने से रोका और सोचा—यह खेल है या किसी थकी आत्मा का आसरा। “ठीक है,” मैंने कहा, “पर एक नियम मेरी तरफ से—हम झूठ नहीं बोलेंगे। जहाँ सच कठिन लगे, वहाँ चुप रहेंगे, मगर झूठ नहीं।” “डन,” उसने कहा। फिर बिना नाम बताए कुछ रेखाएँ खींचीं—नानी बनारस में; उसे पीली छतरियाँ नहीं भातीं; हर सोमवार वह अपने लिए जलेबी लाती है और किसी से कहती नहीं। मैंने भी खुद को खोला—मैं फ्रीलांस इलस्ट्रेटर हूँ, पुराने टिकटों, पोस्ट बक्सों और जूट के बैगों के स्केच बनाता हूँ, और पैसे माँगते वक्त अक्सर हार जाता हूँ। “शायद इसलिए कि मेरे पिता अकाउंटेंट थे,” मैंने कहा, “और मैं उलझन का उल्टा बनना चाहता हूँ—सहज।” “सहज लोग दुर्लभ होते हैं,” उधर से आवाज़ आई, “दुर्लभ चीज़ों को लोग अलमारी में बंद कर देते हैं। उन्हें रोज़ के इस्तेमाल की वस्तु बनाइए।” हमने छोटी सूचियाँ बाँटी—मनपसंद रंग, पहला डर, सबसे लंबा सपना। मुझे भीड़ में अपना नाम पुकारे जाने से घबराहट होती है; उसे लिफ्ट में फँसने का डर है, इसलिए वह बेकार-सी एक लोहे की चाबी हमेशा साथ रखती है—“किसी अनदेखे दरवाज़े के लिए,” वह हँस पड़ी। खामोशी के बीच बारिश की टप-टप, दूर से आती पावभाजी की खुशबू और किसी कुत्ते का भौंकना—इन सबके बीच हमारी आवाज़ें एक-दूसरे को ढूँढ़ती रहीं। उसने पूछा, “अगर दस दिन बाद हम किसी कैफ़े में मिलें और आप मुझे पहचान न पाएँ तो?” मैंने कहा, “तुम बोलोगी, और मैं सुनकर पहचान लूँगा।” “आवाज़ें बदलती हैं,” उसने कहा, “दुख, थकान या खुशी से भी। कैसे पहचानोगे?” “क्योंकि तुम्हारी ‘सॉरी’ में तीन धुनें हैं,” मैंने कहा, “डर, शरारत और राहत। यह मेल कहीं और नहीं मिलेगा।” कुछ पल चुप्पी रही। फिर उसने बहुत धीरे पूछा, “तो सालों बाद भी, जब आपको किसी अजनबी से ‘सॉरी’ सुनाई दे, आप मुझे याद करेंगे?” मैंने हँसकर कहा, “शायद मैं वही मोड़ ढूँढ़ूँ जहाँ से तुम्हारी आवाज़ की सड़क शुरू हुई थी।” घड़ी ने एक बजाए। बारिश धीमी हुई। उसने कहा कि सुबह जल्दी उठना है; “कल इसी वक्त?” उसने जैसे तारे से वादा किया हो। “कल इसी वक्त,” मैंने कहा। फोन कट गया, पर कमरे में उसका ‘सॉरी’ रह गया—तकीये के नीचे छुपी कोई धुन। तभी गली में हारमोनिका बजने लगी—वही धुन जो कभी-कभी छत से उतरकर मेरी खिड़की तक आती है। आज वह बहुत पास थी, जैसे सामने वाली बालकनी से। मैं परदा उठाने गया, पर खुद को रोक लिया। नियम था—चेहरा नहीं, सिर्फ़ आवाज़। मैंने धुन सुनी और मन ही मन उस अनाम को एक नाम दिया जो मैंने कहा नहीं। शायद वह भी कहीं अपनी बालकनी में उसी धुन को सुनते हुए मेरे कमरे के मस्टर्ड लैम्प की रोशनी की कल्पना कर रही होगी। बारिश फिर आहिस्ता लौटी। मैंने रजिस्टर निकाला और पेंसिल से लिख दिया—“दिन एक: आवाज़। दिन दो: धुन।” आगे के पन्ने खाली छोड़ दिए—जैसे आगे की कहानी उन्हीं दस रातों में अपना स्केच बना लेगी। मुझे लगा, कुछ मिस्ड कॉल ज़िंदगी की स्पैम फ़ोल्डर से निकलकर इनबॉक्स में पिन हो जाते हैं—और पिन की गई चीज़ें हर मानसून में फिर सामने आ जाती हैं। नींद से पहले एक मैसेज आया—अनजान नंबर से: “जलेबी सोमवार को। बाकी सब कल।” साथ में पीली छतरी का इमोजी। उसे पीली छतरियाँ पसंद नहीं—यह इशारा है या मज़ाक? मैंने “ओके” टाइप किया और डिलीट कर दिया। नियम था—कम बोलना, ज़्यादा सुनना। मैंने अलार्म सेट किया ताकि स्क्रीन की रोशनी आँखों से दूर रहे। धीरे बारिश फिर तेज़ हुई, मानो मिनट गिन रही हो। मैं उसकी आवाज़ याद करने लगा—रेशमी, खुरदरी, नए कागज़ पर पहली पेंसिल जैसी। सोचा, दस दिन बाद अगर हम मिलें, तो पीछे वही हारमोनिका बजे, टेबल पर दो चाय से भाप उठे, और हम बिना नाम पूछे बात करते रहें। आवाज़ें चेहरों से कम नहीं; वे भरोसे की रूपरेखा बना देती हैं। नींद आई तो आखिरी खयाल यही था—कभी-कभी एक मिस्ड कॉल जीवन का सही नंबर बताता है, जिसे हम बहुत दिनों से खोज रहे होते हैं।

भाग 2 — दस रातों का वादा

बारिश थम चुकी थी, लेकिन उस रात की धुन मेरे भीतर रह गई। सुबह ऑफिस जाते वक्त कानों में अब भी उसकी आवाज़ गूंज रही थी। मैंने कई बार खुद को समझाया कि यह बस एक संयोग है—गलती से किया गया कॉल, एक खेल की तरह निकली बातचीत। लेकिन दिल बार-बार कह रहा था, “यह दस रातें कुछ बदलने वाली हैं।”

दूसरी रात का वक़्त आया। घड़ी ने बारह बजाए, मैं खिड़की पर कुर्सी खींचकर बैठ गया। जैसे ही फोन चमका, मेरे होंठों पर अनजाने में मुस्कान आ गई।

“तो?” उसकी आवाज़ आई, हल्की-सी थकी हुई लेकिन सजीव।
“तो,” मैंने कहा, “आज का दिन कैसा था?”
“आज दफ़्तर में लोग बहुत तेज़ी से बोले। लगा जैसे सबको दौड़ लगानी है और मैं सबसे पीछे हूँ। लेकिन शाम को मैंने वही किया जो हमेशा करती हूँ—जलेबी। सोमवार है न।”
मैं हँस पड़ा। “तो तुम्हारे पास मिठास का स्टॉक पक्का है। अच्छा, आज का विषय क्या है?”
वह पल भर चुप रही। “आज हम डर की बातें करेंगे। तुम्हें किस चीज़ से सबसे ज़्यादा डर लगता है?”

मैंने खिड़की के बाहर अंधेरे को देखा। “मुझे भीड़ में खो जाने से डर लगता है। जैसे रेल स्टेशन पर अचानक नाम पुकारा जाए और कोई सुने ही नहीं।”
“अजीब है,” उसने धीरे से कहा, “मुझे भीड़ में खोने से नहीं, अकेले रह जाने से डर लगता है। इसीलिए मैं रात में खिड़की बंद करके सो नहीं पाती। लगता है, हवा अगर बंद हो गई तो मैं भी बंद हो जाऊँगी।”

हम दोनों की खामोशी मिली और देर तक टिकी रही। फोन की दूसरी तरफ उसकी साँसों का उतार-चढ़ाव साफ़ सुनाई दे रहा था। मैंने सोचा, किसी की चुप्पी को महसूस कर पाना ही तो असली क़रीबी है।

वह बोली, “तुम्हें नहीं लगता, डर ही हमें इंसान बनाता है? अगर डर न हो, तो हम दूसरों की ओर क्यों जाएँगे?”
मैंने जवाब दिया, “शायद हाँ। डर हमें जोड़ता है। जैसे अभी हमारी आवाज़ें। हम दोनों एक-दूसरे के डर में झाँक रहे हैं।”
वह हल्के से हँसी। “तो यह मिस्ड कॉल डर की किताब है या दोस्ती की?”
“दोनों,” मैंने कहा, “क्योंकि दोस्ती वहीं से शुरू होती है जहाँ हम अपने डर छुपाना बंद कर देते हैं।”

रात गहराती गई। उसने अचानक कहा, “एक नियम और जोड़ें?”
“क्या?”
“हम हर रात एक राज़ साझा करेंगे। कोई छोटा या बड़ा। ऐसा राज़ जो हम किसी और से न कह पाएँ।”
“अगर राज़ बोझिल हुआ तो?” मैंने पूछा।
“तो हम दोनों उसे आधा-आधा बाँट लेंगे,” उसने कहा।

मैंने सोचा और फिर धीरे-से बोला, “ठीक है। मेरा राज़—मैंने बचपन में अपनी माँ का बनाया पहला चित्र चुपके से जला दिया था। क्योंकि मुझे लगा था, वह मुझसे अच्छा चित्र बनाती हैं और मैं कभी उन्हें पार नहीं कर पाऊँगा। आज तक यह बात किसी को नहीं बताई।”
फोन पर कुछ देर सन्नाटा रहा। फिर उसने कहा, “तुम बहुत ईमानदार हो। अब मेरी बारी।”
वह फुसफुसाई, “मेरा राज़—मैं कभी-कभी भीड़ में लोगों को देखती हूँ और सोचती हूँ, काश इनमें से कोई मेरा इंतज़ार करता। और जब कोई इंतज़ार नहीं करता, तो मैं फोन की स्क्रीन पर मुस्कराती हूँ—जैसे कोई मुझे देख रहा हो।”

मेरे भीतर कुछ हिला। अनजाने में ही बोला, “अब तो कोई है जो देख रहा है।”
उसने धीमे स्वर में कहा, “हाँ। अब शायद कोई है।”

घड़ी ने दो बजाए। उसने कहा, “नींद आ रही है, लेकिन आज की रात मेरे लिए आसान थी। राज़ बोलने से डर कम हुआ।”
“तो कल का राज़ संभालकर रखना,” मैंने कहा।
“हाँ,” उसने जवाब दिया। “कल मिलते हैं। तीसरी रात।”

कॉल कट गया, लेकिन मैं देर तक खिड़की पर बैठा रहा। आसमान साफ़ था, कहीं दूर से हारमोनिका की वही धुन सुनाई दी। मुझे लगा, यह संयोग नहीं है—यह वही है। शायद सचमुच पास, बस कुछ गलियों की दूरी पर।

मैंने नोटबुक में लिखा—
दिन दो: डर। दिन तीन: राज़।

भाग 3 — तीसरी रात का राज़

तीसरी रात आई तो मैं दिन गिनने लगा—जैसे कोई यात्रा शुरू हो चुकी है और हर पड़ाव पर नई पहचान खुल रही है। घड़ी ने बारह बजाए और फोन की स्क्रीन जगी। मेरा दिल तेज़ हो गया।

“तो, तैयार हो?” उसकी आवाज़ आई।
“हाँ,” मैंने कहा, “आज का राज़ बड़ा है या छोटा?”
वह हँसी, “तुम्हें क्या लगता है, मैं छोटी बातें छुपाती हूँ?”
मैंने कहा, “पता नहीं, लेकिन तुम्हारी आवाज़ सुनकर लगता है तुम्हारे भीतर कई कमरे हैं, और हर कमरे की चाबी तुम्हारे पास नहीं।”

कुछ देर खामोशी रही। फिर उसने धीरे से कहा, “आज मैं एक ऐसा राज़ बताऊँगी जो शायद तुम्हें डरा दे।”
“कहो।”
“मैं जब बारह साल की थी, पापा घर छोड़कर चले गए थे। उन्होंने कभी लौटकर नहीं देखा। उस दिन से मुझे लगता है, हर रिश्ता अधूरा है। मैं चाहकर भी किसी पर पूरा भरोसा नहीं कर पाती।”

मैं लंबे समय तक चुप रहा। उसकी साँसें भारी थीं, जैसे कहीं छाती के भीतर दबा बोझ बाहर निकल आया हो। मैंने कहा, “तुम्हारे लिए शायद हर आवाज़ एक दरवाज़ा है, पर तुम डरती हो उसे खोलने से। लेकिन देखो, यह दरवाज़ा तो खुल गया।”
वह हल्के से मुस्कुराई, “हाँ, शायद। तुम्हारी आवाज़ किसी पुराने दोस्त जैसी है, जो जानता है कि दरवाज़े पर दस्तक कैसे दी जाती है।”

अब मेरी बारी थी। मैंने कहा, “मेरा राज़—मैंने कभी किसी से साफ़-साफ़ नहीं कहा कि मैं अकेला हूँ। दोस्तों की भीड़ में भी मैं अक्सर खामोश बैठा रहता हूँ। लगता है कि मेरी बातें किसी को सुनाई ही नहीं देंगी।”
“मगर मुझे तो सुनाई देती हैं,” उसने तुरंत कहा।
मैंने महसूस किया कि उसकी आवाज़ में दृढ़ता है। जैसे उसने पहली बार तय किया हो कि किसी के लिए खड़ी होगी।

फिर उसने अचानक पूछा, “अगर ये दस रातें ख़त्म हुईं और मैं चली गई तो? तब तुम फिर अकेले हो जाओगे?”
मैंने हँसने की कोशिश की। “तो मैं नोटबुक में लिख दूँगा—‘दस रातों की दोस्ती’। किताब पूरी होगी, चाहे पन्ने कितने भी हों।”
वह बोली, “लेकिन मैं चाहती हूँ कि किताब अधूरी रहे। ताकि अगली बार मिलने की जगह बची रहे।”

उसकी बातों में अनजानी कोमलता थी। मैंने खिड़की से बाहर देखा। रात साफ़ थी, तारे बिखरे हुए थे। मैंने कहा, “अधूरी कहानियाँ ही तो हमें बार-बार लौटने पर मजबूर करती हैं।”

हम देर तक बातें करते रहे। उसने बताया कि उसे कविताएँ लिखने का शौक है, लेकिन कभी किसी को नहीं सुनाई। मैं भी अपने स्केचबुक के पन्ने उसके सामने शब्दों में खोलता गया।
“क्या तुम मेरी आवाज़ की तस्वीर बना सकते हो?” उसने पूछा।
मैंने जवाब दिया, “हाँ, तुम्हारी आवाज़ सुनकर लगता है जैसे किसी सफ़ेद पन्ने पर नीली स्याही की पहली लकीर खिंच रही हो। साफ़, गहरी और स्थायी।”
वह हँस पड़ी, “फिर तो मेरी आवाज़ तुम्हारे कमरे की दीवारों पर छप जाएगी।”

रात ढल रही थी। उसने कहा, “आज का राज़ बोलकर हल्का महसूस हो रहा है। शायद पहली बार लगा कि कोई मेरी अधूरी कहानी भी सुनना चाहता है।”
मैंने कहा, “और मुझे पहली बार लगा कि मेरी चुप्पी को भी कोई समझ रहा है।”

घड़ी ने तीन बजाए। उसने धीरे से कहा, “अब सोते हैं। कल चौथी रात, चौथा राज़।”
कॉल कट गया। लेकिन इस बार उसका अलविदा अलग था—उसने कहा, “गुड नाइट, दोस्त।”

मैंने नोटबुक में लिखा—
दिन तीन: अधूरे रिश्ते, अधूरी कहानियाँ।

और जब सोने गया, तो पहली बार खिड़की खुली छोड़ दी। मुझे भरोसा था कि उसकी आवाज़ हवा की तरह अंदर आकर कमरे को भर देगी।

भाग 4 — चौथी रात की आहट

दिन भर मैं बेचैन रहा। ऑफिस की फाइलें, ईमेल, मीटिंग—सब धुँधले लगे। दिमाग में सिर्फ़ वही सवाल घूम रहा था—आज की रात वह क्या कहेगी? क्या कोई नया राज़, या कोई हल्की-सी मुस्कान जो इशारा कर दे कि हमारी कहानी दोस्ती से कुछ और बनने लगी है?

रात के बारह बजे फोन चमका। मैंने तुरंत उठाया।

“इतनी जल्दी उठा लिया? लगता है आज का इंतज़ार ज़्यादा था,” उसने हँसते हुए कहा।
“हाँ,” मैंने कहा, “दिन भर घड़ी देखता रहा।”
“तो आज का विषय क्या हो?”
“तुम्हारी पसंद,” मैंने कहा।

कुछ पल खामोशी रही। फिर उसकी आवाज़ हल्की हुई—“तो आज प्यार की बात करेंगे।”

मेरे होंठों पर अजीब-सी मुस्कान आई। “प्यार?”
“हाँ,” उसने कहा, “डर और राज़ के बाद अब दिल की बारी है। बताओ, तुम्हें पहली बार कब लगा था कि तुम किसी से प्यार करते हो?”

मैं खिड़की से बाहर देखता रहा। बहुत पुरानी याद आई। “क्लास आठवीं में, एक लड़की थी—वह हमेशा लाल रिबन लगाती थी। मैंने कभी उससे बात नहीं की। लेकिन जब उसने एक दिन रिबन नहीं लगाया, तो पूरा दिन मुझे अजीब लगा। तब समझा कि शायद यही प्यार था।”
वह हँसी, “तो लाल रिबन ही तुम्हारा पहला प्यार था।”
“हाँ,” मैंने कहा, “कभी नाम भी नहीं पूछा। शायद अच्छा हुआ।”

अब उसकी बारी थी। उसने धीरे से कहा, “मेरा पहला प्यार किताबों में था। मैं लाइब्रेरी में बैठकर प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ती थी और सोचती थी, काश कोई मुझे ऐसे समझे जैसे वे किरदार एक-दूसरे को समझते हैं। लेकिन हक़ीक़त में ऐसा कोई नहीं मिला।”
मैंने कहा, “शायद अब मिला है।”
फोन पर खामोशी फैल गई। उसकी साँसें हल्की, पर तेज़ हो गईं।

“तुम ये क्यों कहते हो?” उसने पूछा।
“क्योंकि तुम्हारी बातें सुनते-सुनते लगता है, मैं वही कहानी पढ़ रहा हूँ जिसका इंतज़ार तुम्हें बरसों से था।”

वह चुप रही। फिर धीमे स्वर में बोली, “अगर ये दस दिन ख़त्म होने के बाद हम एक-दूसरे से न मिल पाए तो?”
मैंने कहा, “तो यह प्यार अधूरा रहेगा, जैसे तुम्हारी लाइब्रेरी की कहानियाँ। लेकिन अधूरी कहानियाँ भी तो अमर होती हैं।”
“नहीं,” उसने कहा, “इस बार मैं अधूरी नहीं रहना चाहती।”

मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गई। पहली बार उसने साफ़-साफ़ कहा था कि वह चाहती है यह रिश्ता आगे बढ़े।

मैंने धीरे से कहा, “तो फिर मिलते हैं। दस दिन के बाद, या उससे पहले?”
उसने लंबी साँस ली। “नहीं, नियम मत तोड़ो। दस दिन पूरे होने दो। तब तक यह आवाज़ ही हमारी दुनिया है।”
“ठीक है,” मैंने कहा, “पर वादा करो कि दसवें दिन तुम सचमुच आओगी।”
“वादा।” उसकी आवाज़ काँप रही थी।

घड़ी ने दो बजाए। उसने कहा, “आज की रात अलग थी। लगता है मिस्ड कॉल अब ज़िंदगी की कॉल बन गया है।”
“हाँ,” मैंने मुस्कुराकर कहा, “और मैं चाहता हूँ कि यह कभी डिसकनेक्ट न हो।”

कॉल कट गया। लेकिन उसके बाद भी कमरे में उसकी साँसें, उसकी झिझक, और उसका “वादा” गूंजता रहा।

मैंने नोटबुक में लिखा—
दिन चार: पहला इशाराप्यार।

उस रात नींद नहीं आई। मैंने महसूस किया कि मैं सिर्फ़ उसकी आवाज़ से ही नहीं, उसकी खामोशी से भी मोहब्बत करने लगा हूँ।

भाग 5 — पाँचवीं रात का इज़हार

पाँचवीं रात से पहले पूरा दिन जैसे काँच पर कदम रखकर गुज़रा। हर पल लगता रहा कि घड़ी की सुइयाँ मुझे ताना मार रही हैं—“जल्दी कर, बारह बजने वाला है।” ऑफिस से लौटते ही मैंने खिड़की खोली, कुर्सी वहीं रखी जहाँ पिछली चार रातों से रखता आया था। नोटबुक सामने थी—पन्ने आधे भरे, आधे खाली। शायद उसी की तरह—आधी कहानी सुनाई, आधी बाकी।

ठीक बारह बजे फोन चमका। मैंने मुस्कुराकर उठाया।

“इतना बेसब्री से इंतज़ार करते हो?” उसने छेड़ा।
“हाँ,” मैंने कहा, “क्योंकि हर रात मुझे लगता है अगली पंक्ति आज पूरी होगी।”
“और अगर पंक्ति पूरी ही न हुई तो?”
“तो मैं अधूरी पंक्ति को कविता मान लूँगा।”

कुछ देर खामोशी रही। फिर उसकी साँस गहरी हुई।
“आज,” उसने कहा, “मुझे एक ख्वाहिश बतानी है। ऐसी ख्वाहिश जो मैंने कभी किसी से नहीं कही।”
“कहो,” मैंने धीरे से कहा।

“मैं चाहती हूँ कि कोई मुझे बिना देखे भी पहचान ले। मेरी हँसी से, मेरी चुप्पी से, मेरी साँस की थरथराहट से। मैं चाहती हूँ कि कोई यह कहे—तुम वही हो, चाहे दुनिया बदल जाए।”

मेरे भीतर सिहरन हुई। मैंने जवाब दिया, “तो सुन लो—मैंने तुम्हें बिना देखे पहचान लिया है। जब तुम बोलती हो, तुम्हारी आवाज़ में एक धुन होती है। और जब तुम चुप होती हो, उस धुन का सन्नाटा भी पहचान में आता है। अब चाहे तुम लाखों के बीच खड़ी रहो, मुझे पता होगा तुम वही हो।”

उसकी तरफ़ से लंबी चुप्पी रही। फिर धीरे से बोली, “अगर मैं सचमुच तुम्हारे सामने आ जाऊँ, और तुम मुझे पहचान न पाओ तो?”
मैंने कहा, “तो तुम बस ‘सॉरी’ कहना। मैं तुरंत जान लूँगा।”

वह हँस पड़ी। हँसी में कंपकंपी थी, जैसे पहली बार किसी ने उसके दिल की इच्छा को नाम दे दिया हो।

अब मेरी बारी थी। मैंने कहा, “मेरी ख्वाहिश—मैं चाहता हूँ कि कोई मेरी अधूरी तसवीरें पूरी कर दे। मेरे स्केच हमेशा आधे रह जाते हैं। शायद इसलिए कि मैं अकेले रंग भरने से डरता हूँ।”
“तो मैं तुम्हारी तसवीरों में रंग भरूँगी,” उसने तुरंत कहा।
“बिना देखे कैसे?”
“आवाज़ों के रंग होते हैं,” उसने कहा, “तुम्हारा डर हल्का नीला है, तुम्हारी हँसी हल्का पीला। तुम्हारी खामोशी—गहरा स्याह। मैं ये रंग जोड़ दूँगी।”

मैं पहली बार नि:शब्द हो गया। उसकी आवाज़ में ऐसा विश्वास था जैसे वह सचमुच मेरे कैनवस को पूरा कर सकती है।

रात दो बज चुकी थी। मैंने धीरे से पूछा, “क्या तुम्हें लगता है कि हम सिर्फ़ दोस्त हैं?”
वह चुप रही। फिर बोली, “दोस्त वो होते हैं जिनसे हम रोज़मर्रा की बातें करते हैं। लेकिन तुमसे… तुमसे तो मैं वो कह रही हूँ जो मैंने कभी खुद से भी नहीं कहा। शायद यही प्यार है।”

मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गई।
“तो मान लो,” मैंने कहा, “यह मिस्ड कॉल अब प्यार की कॉल है।”

उसने बहुत धीरे से कहा, “हाँ… शायद यही सच है।”

घड़ी ने तीन बजाए। उसने अलविदा कहते हुए सिर्फ़ दो शब्द बोले—“गुड नाइट… प्यार।”

कॉल कट गया, लेकिन इन दो शब्दों ने मुझे पूरी रात जगाए रखा।

मैंने नोटबुक में लिखा—
दिन पाँच: ख्वाहिशें और इज़हार।

उस रात नींद नहीं आई। मैंने बार-बार फोन की स्क्रीन देखी, उम्मीद की कि फिर से चमक उठेगी। लेकिन नहीं। शायद प्यार की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है—वह हमें इंतज़ार करना सिखाता है।

भाग 6 — छठी रात का टकराव

छठी रात आई तो मेरे भीतर अजीब बेचैनी थी। पाँच रातों तक हमारी बातें ऐसे बहती रहीं जैसे किसी शांत नदी में नाव। लेकिन आज… न जाने क्यों दिल में आशंका थी। शायद प्यार के इज़हार के बाद डर और बड़ा हो जाता है।

घड़ी ने बारह बजाए। फोन चमका, मैंने तुरंत उठाया।
“हेलो।”
दूसरी तरफ़ उसकी आवाज़ धीमी थी, जैसे किसी ने उसे रोक रखा हो। “आज देर हो गई।”
“सब ठीक है?” मैंने पूछा।
वह बोली, “ऑफिस में बहुत कुछ हुआ। कुछ लोग हँस रहे थे… कहते थे मैं अजीब हूँ। अकेले रहती हूँ, अजीब बातें करती हूँ।”
मैंने कहा, “तुम अजीब नहीं हो। बस… अलग हो। और अलग होना बुरा नहीं।”
“लेकिन तुम्हें नहीं लगता मैं पागल जैसी लगती हूँ? रोज़ रात किसी अनजान नंबर पर बातें करती हूँ। क्या ये सामान्य है?”

उसका सवाल मुझे चुभ गया। मैंने धीमे स्वर में कहा, “अगर ये पागलपन है तो मैं भी उतना ही पागल हूँ। लेकिन अगर तुम्हें लगता है ये सब बेवकूफ़ी है, तो शायद हमें—”
उसने बीच में काट दिया, “नहीं! मैंने ऐसा नहीं कहा। बस… आज डर लग रहा है। कि कहीं ये सब झूठ तो नहीं?”

मैं चुप रहा। अंदर कहीं चोट लगी। उसने फिर कहा, “तुम्हारे लिए मैं बस एक आवाज़ हूँ। क्या होगा अगर दसवें दिन तुम मुझे देखो और कहो—नहीं, यही वो नहीं थी जिसे मैं ढूँढ़ रहा था?”

मैंने साँस खींची। “तो तुम सोचती हो मैं चेहरे से प्यार करूँगा, आवाज़ से नहीं?”
वह तड़पकर बोली, “चेहरा भी ज़रूरी होता है। लोग आवाज़ें भूल जाते हैं, लेकिन चेहरे याद रखते हैं।”

कुछ देर हम दोनों खामोश रहे। टकराव साफ़ था—वह चाह रही थी मैं वादा करूँ, और मैं डर रहा था झूठे वादे से।

आख़िर मैंने कहा, “सुनो, अगर दसवें दिन मैं तुम्हें पहचान न पाऊँ तो भी, मेरे लिए तुम वही रहोगी जिसने मेरी सबसे गहरी चुप्पी सुनी है। और यह कोई चेहरा नहीं बदल सकता।”

उसकी ओर से आँसुओं-सी आवाज़ आई। “तुम सच बोल रहे हो न?”
“हाँ। हमनें वादा किया था—झूठ नहीं।”

कुछ पल बाद वह शांत हुई। बोली, “ठीक है। माफ़ करना, आज शायद मैं बहुत उलझी हुई हूँ। पर यह डर मुझे खा जाता है।”
मैंने नरमी से कहा, “तो इसे बाँट लो। डर आधा हो जाएगा।”

फोन पर लंबी साँस की आवाज़ आई।
“तुम सचमुच अलग हो,” उसने कहा।
“और तुम?”
“मैं बस वही हूँ… जो हर रात इंतज़ार करती है। पर अब समझ में आया—यह सिर्फ़ खेल नहीं है। ये… ज़िंदगी का हिस्सा बन गया है।”

रात ढल चुकी थी। उसने कहा, “कल… मैं तुमसे एक बड़ा सवाल पूछूँगी। देखना, जवाब देने में हिचकना मत।”
मैंने हँसते हुए कहा, “ठीक है। लेकिन पहले से बता दो ताकि मैं तैयारी कर लूँ।”
“नहीं,” उसने कहा, “ये सवाल अचानक ही आना चाहिए। तभी पता चलेगा सच क्या है।”

कॉल कट गया। लेकिन उस रात मैं देर तक सो नहीं सका। उसके आँसुओं की नमी अब भी मेरे कानों में थी। मैंने नोटबुक खोली और लिखा—

दिन छह: टकराव और भरोसा।

भाग 7 — सातवीं रात का सवाल

सातवीं रात आई तो दिल में हल्की-सी घबराहट थी। उसने पिछली रात कहा था कि आज बड़ा सवाल पूछेगी। दिन भर सोचता रहा—क्या पूछेगी? नाम? चेहरा? या… शादी जैसी कोई बात?

घड़ी ने बारह बजाए। फोन चमका और मेरी साँस थम गई।

“हेलो,” मैंने कहा।
“हेलो,” उसने जवाब दिया। आवाज़ में एक अलग गंभीरता थी।
“तो… आज का बड़ा सवाल?” मैंने पूछते ही दिल की धड़कन तेज़ महसूस की।

वह थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली, “अगर मैं कल से तुम्हें कॉल करना बंद कर दूँ तो?”

मैं चौंक गया। “क्या मतलब?”
“मतलब यही—अगर मैं अचानक गायब हो जाऊँ, तुम्हारी ज़िंदगी से, तो तुम क्या करोगे?”

मेरे होंठ सूख गए। ये वही डर था जिसे मैं दबा रहा था। मैंने धीरे से कहा, “शायद… मैं पहले दिन-पहले रात की बातें बार-बार पढ़ूँगा। अपनी नोटबुक देखूँगा। लेकिन सच कहूँ, तुम्हारी आवाज़ के बिना ये पन्ने भी अधूरे रहेंगे।”

“और फिर?” उसने ज़िद की।
“फिर… शायद मैं उसी हारमोनिका की धुन ढूँढूँगा, जो हर रात सुनाई देती है। यकीन मानो, वो तुम्हारी ही है।”

वह हँस दी, पर हँसी में दर्द था। “तुम्हें यकीन है कि अगर मैं चली गई तो भी तुम मुझे ढूँढोगे?”
“हाँ,” मैंने दृढ़ता से कहा, “क्योंकि अब ये आवाज़ सिर्फ़ एक नंबर नहीं रही। ये मेरी धड़कन का हिस्सा है।”

कुछ पल सन्नाटा रहा। फिर उसने धीरे से कहा, “सवाल पूरा नहीं हुआ।”
“और क्या है?”
“अगर दसवें दिन मिलने पर मैं वैसी न निकली जैसी तुम सोच रहे हो—साधारण, या शायद बिल्कुल अलग—तो भी क्या तुम साथ रहोगे?”

मेरी साँस अटक गई। यही उसका असली सवाल था।

मैंने खिड़की से बाहर देखा। आसमान साफ़ था, एक तारा अकेला चमक रहा था।
“सुनो,” मैंने कहा, “प्यार चेहरों का खेल नहीं है। यह तो वही है जो हमने इन सात रातों में बाँटा—डर, राज़, ख्वाहिशें। अगर मैं तुम्हें पहचान न पाया, तो भी मैं वही रहूँगा जिसने तुम्हारी आवाज़ को कविता मान लिया है।”

उसकी साँस अटक गई। फिर बहुत धीरे से बोली, “तो तुम कह रहे हो… चाहे कुछ भी हो, तुम रहोगे?”
“हाँ,” मैंने बिना झिझक कहा।

फोन पर हल्की रुलाई की आवाज़ आई।
“तुम नहीं जानते… यह मेरे लिए कितना बड़ा है। आज पहली बार किसी ने कहा कि वो रह जाएगा।”

मेरे दिल में एक अजीब सुकून आया। जैसे कोई ज़ंजीर टूट गई हो।

घड़ी ने दो बजाए। उसने धीरे से कहा, “आज का सवाल पूरा हुआ। अब डर नहीं लग रहा।”
“और मुझे यकीन है कि दसवें दिन तुम आओगी।”
“हाँ,” उसने फुसफुसाया, “मैं आऊँगी। चाहे कुछ भी हो।”

कॉल कट गया। लेकिन उसकी आवाज़ कमरे में रह गई—“चाहे कुछ भी हो।”

मैंने नोटबुक में लिखा—
दिन सात: सवाल और वादा।

भाग 8 — आठवीं रात की तस्वीर

आठवीं रात से पहले पूरा दिन जैसे रुक-रुककर चला। हर घड़ी मानो किसी अनकहे रहस्य का इंतज़ार कर रही थी। सातवीं रात के वादे ने मुझे भीतर से बदला था—अब डर कम और भरोसा ज़्यादा था। फिर भी दिल में हल्की धड़कन थी, क्योंकि आज शायद हम अपने सपनों को किसी असली शक्ल देने की कोशिश करेंगे।

बारह बजे फोन चमका। मैंने जैसे ही उठाया, दूसरी तरफ़ से वही प्यारी हँसी गूँजी।
“लगता है तुम खिड़की के पास ही बैठे हो?” उसने कहा।
“हाँ,” मैंने जवाब दिया, “कुर्सी, नोटबुक, वही सब। बस तुम्हारी आवाज़ का इंतज़ार।”
“अच्छा,” उसने हल्के मज़ाक से कहा, “अगर मेरी आवाज़ न आए तो तुम क्या करोगे?”
“तो मैं खिड़की से आसमान देखूँगा और वही हारमोनिका ढूँढूँगा। मुझे यकीन है तुम वहीं कहीं पास हो।”

वह चुप रही। फिर धीरे से बोली, “आज मैं तुम्हें एक तस्वीर दिखाना चाहती हूँ।”
“लेकिन नियम था—कोई फोटो नहीं,” मैंने कहा।
“हाँ, फोटो नहीं… बस शब्दों में तस्वीर। आँखें बंद करो।”

मैंने आँखें बंद कीं।
“सोचो,” उसने शुरू किया, “एक कैफ़े है पुरानी दिल्ली में, जंग लगे बोर्ड वाला। अंदर लकड़ी की कुर्सियाँ, पीली लाइट। खिड़की के पास वाली टेबल पर मैं बैठी हूँ। नीली शॉल ओढ़ी है और सामने जलेबी की प्लेट रखी है। हाथ में किताब है—प्रेमचंद की।”
मैंने मुस्कुराकर कहा, “और मैं?”
“तुम दरवाज़े से भीतर आते हो। हाथ में स्केचबुक है। तुम मुझे देखते हो लेकिन कुछ नहीं कहते। बस खामोश होकर उसी टेबल पर बैठ जाते हो। और तभी तुम्हें पता चलता है—यही वही है।”

मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गई। मैंने कहा, “तुम्हारी तस्वीर बहुत साफ़ है। जैसे मैं सचमुच देख रहा हूँ।”
“तो?” उसने शरारत से पूछा।
“तो मैं भी तुम्हें एक तस्वीर दूँगा।”

मैंने आँखें बंद कीं।
“सोचो, हम दोनों छत पर बैठे हैं। बारिश हो रही है। तुम्हारी पीली छतरी पास में पड़ी है, भीगी हुई। तुम हँसते हुए कहती हो कि छतरियाँ बेकार होती हैं। मैं स्केच बना रहा हूँ और तुम कहती हो, ‘रंग भरना मत भूलना।’ और तभी बिजली चमकती है, तुम्हारा चेहरा साफ़ दिखता है।”

फोन पर उसकी साँसें गहरी हो गईं।
“यह तस्वीर… सच हो सकती है?” उसने पूछा।
“हाँ,” मैंने कहा, “अगर हम दोनों चाहें तो।”

वह बहुत देर चुप रही। फिर बोली, “आज पहली बार मुझे लगा कि यह सब सपना नहीं है। सच है, और सच हो सकता है।”

घड़ी ने दो बजाए। उसने धीरे से कहा, “कल—नौवीं रात—मैं तुम्हें एक संकेत दूँगी। जिससे तुम्हें यकीन होगा कि मैं तुम्हारे बहुत पास हूँ।”
मैं चौंका। “संकेत? कैसा?”
“कल जानोगे,” उसने कहा, “बस तैयार रहना।”

कॉल कट गया। लेकिन मेरा दिल अब और बेचैन था। क्या सचमुच वह यहीं, आसपास है?

मैंने नोटबुक खोली और लिखा—
दिन आठ: तस्वीरें और संकेत।

उस रात मैंने खिड़की खुली रखी और मन ही मन सोचा—कल उसकी दुनिया मेरे सामने सचमुच खुल जाएगी।

भाग 9 — नौवीं रात का संकेत

पूरे दिन बेचैनी मेरे साथ रही। आठवीं रात उसने कहा था—“कल मैं तुम्हें एक संकेत दूँगी।” सुबह से ही दिमाग यही सोचता रहा—संकेत कैसा होगा? आवाज़ में, शब्दों में, या… सचमुच किसी जगह पर?

रात आई। बारह बजने से पहले ही मैं खिड़की पर बैठा था, नोटबुक खुली हुई, हाथ में पेन काँप रहा था। जैसे ही घड़ी ने बारह बजाए, फोन चमका।

“तैयार हो?” उसने पूछा।
“हाँ,” मैंने कहा, “संकेत क्या है?”
वह हँसी, “इतना अधीर मत बनो। पहले थोड़ी बातें।”

हमने कुछ देर दिनभर की हल्की-फुल्की बातें कीं। फिर अचानक उसकी आवाज़ गंभीर हो गई।
“खिड़की खोलो,” उसने कहा।

मैंने चौंककर खिड़की खोली। बाहर ठंडी हवा थी।
“अब ध्यान से सुनो।”

मैंने कान लगाए। दूर से वही हारमोनिका की धुन सुनाई दी—पर आज अलग थी। धुन के बीच में किसी ने तीन बार छोटा-सा टुकड़ा बजाया, जैसे संकेत हो।

मैं सिहर गया। “ये… तुम हो?”
वह धीरे से बोली, “हाँ। यही मेरा संकेत है। मैं तुम्हारे बहुत पास हूँ। तुम्हारी खिड़की से दिखने वाले रास्ते पर ही।”

मेरा दिल धड़कने लगा। “तो तुम सचमुच यहीं हो! मैंने सोचा था यह बस संयोग है।”
“नहीं,” उसने कहा, “यह मैं ही थी। हर रात जब तुम खिड़की खोलते थे, मैं अपनी बालकनी से धुन बजाती थी। आज पहली बार मैंने तुम्हें सीधा संकेत दिया।”

मैं कुछ कह नहीं पाया। दिल में अजीब हलचल थी।
“तो,” उसने पूछा, “अब भी तुम्हें शक है कि मैं सिर्फ़ आवाज़ हूँ?”
“नहीं,” मैंने हाँफते हुए कहा, “अब तुम सच हो—मेरे आसमान के नीचे, मेरी गली में।”

कुछ पल हम दोनों चुप रहे। फिर उसने धीरे से कहा, “कल दसवीं रात है। आख़िरी। उसके बाद हमें मिलना होगा। या फिर सब खत्म करना होगा।”

मैंने घबराकर पूछा, “खत्म क्यों?”
“क्योंकि अगर यह सच है, तो अधूरा नहीं रहना चाहिए। और अगर अधूरा रहना है, तो यहीं रुक जाना बेहतर है।”

मेरे गले में शब्द अटक गए।
“तो तुम आओगी?” मैंने काँपते स्वर में कहा।
“हाँ,” उसने कहा, “कल रात। उसी कैफ़े में जिसका जिक्र मैंने किया था—पुरानी दिल्ली का, जंग लगे बोर्ड वाला। खिड़की के पास वाली टेबल।”

मेरे भीतर सन्नाटा छा गया। यह पल जैसे सपना नहीं, बल्कि कोई इम्तिहान था।
“और तुम?” उसने पूछा।
“मैं आऊँगा,” मैंने दृढ़ स्वर में कहा, “चाहे कुछ भी हो।”

घड़ी ने दो बजाए। उसने आख़िरी बार कहा, “तो कल… सच के सामने।”

कॉल कट गया। लेकिन हारमोनिका की धुन अब भी हवा में तैर रही थी—स्पष्ट, पास, जैसे उसने पहली बार खुद को पूरी तरह उजागर कर दिया हो।

मैंने नोटबुक में लिखा—
दिन नौ: संकेत और सामना।

उस रात नींद आई ही नहीं। बस खिड़की से बाहर देखता रहा, सोचता रहा—कल… आखिरकार चेहरा और आवाज़ एक होंगे।

भाग 10 — दसवीं रात का मिलन

दसवीं रात।
दिन भर घड़ी की सुइयाँ मेरे साथ खेलती रहीं। हर घंटे दिल कहता—“बस अब थोड़ा और।” कामकाज सब रुक गया। नोटबुक में कलम की नोक टिकाए रहा, लेकिन कुछ लिख न सका। हर पन्ना जैसे उसी का इंतज़ार कर रहा था।

रात आई। फोन बजा।

“तो… आख़िरी रात,” उसकी आवाज़ में कंपन था।
“आख़िरी नहीं, पहली,” मैंने कहा, “क्योंकि कल से कहानी सच होगी।”
वह हँस पड़ी। लेकिन हँसी के पीछे डर साफ़ था।

“अगर मैं वैसी न निकली जैसी तुमने सोची?” उसने धीरे पूछा।
“तो भी,” मैंने जवाब दिया, “तुम वही रहोगी जिसने मेरे डर बाँटे, राज़ सुने, ख्वाहिशें पूरी कीं।”
“और अगर तुम्हें पछतावा हुआ?”
“तो भी मैं धन्यवाद दूँगा—क्योंकि तुमने मुझे सिखाया कि मिस्ड कॉल भी ज़िंदगी बदल सकती है।”

कुछ पल चुप्पी रही। फिर उसने कहा, “तो तय रहा—कल शाम छह बजे, पुरानी दिल्ली का वही कैफ़े। खिड़की के पास वाली टेबल।”
“तय,” मैंने कहा।
उसने फुसफुसाकर कहा, “गुड नाइट… प्यार।”

कॉल कट गया।

अगली शाम

दिल्ली की गलियों से होते हुए मैं पुरानी हवेली-जैसे उस कैफ़े तक पहुँचा। बोर्ड सचमुच जंग लगा था, और खिड़की के पास वाली टेबल पर नीली शॉल ओढ़े एक लड़की बैठी थी। सामने जलेबी की प्लेट और किताब—प्रेमचंद की।

मेरे कदम ठिठक गए। उसने सिर उठाया। आँखों में वही धुन थी, जो हर रात आवाज़ में मिलती थी।

मैंने धीरे से कहा, “सॉरी… देर हो गई।”
उसके होंठ काँपे। हल्की हँसी आई—“मुझे पता था, तुम यही कहोगे।”

हम दोनों हँस पड़े। फिर खामोश हो गए। जैसे शब्दों की अब ज़रूरत ही नहीं रही। आवाज़, तस्वीर और चेहरा—सब मिल गए थे।

उसने धीरे से कहा, “तो अब यह खेल ख़त्म?”
“नहीं,” मैंने कहा, “अब असली शुरुआत।”

वेटर ने दो चाय रखीं। भाप उठी। खिड़की के बाहर वही हारमोनिका बज रही थी—शायद किसी अजनबी की धुन। लेकिन अब वह धुन हमारी थी।

मैंने नोटबुक का आख़िरी पन्ना खोला और लिखा—
दिन दस: मिस्ड कॉल से मिलन।

उसने मेरी ओर देखा और मुस्कुराई। “अब कोई मिस्ड कॉल नहीं। अब हर कॉल रिसीव होगी।”

हम दोनों ने चाय की पहली चुस्की ली। बाहर बारिश शुरू हो गई थी। और मुझे यकीन था—अब यह कहानी कभी अधूरी नहीं रहेगी।

समाप्त

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