निखिल देसाई
१
कच्छ के सफेद रेगिस्तान में जब सूर्य ढलता है, तो आकाश किसी सूती कपड़े पर फैले सिंदूरी रंग-सा लगता है। ध्रुव पटेल ने कैमरे की लेंस से उस दृश्य को कैद करते हुए गहरी साँस ली। “WanderSoul.in” पर पोस्ट होने वाली यह उसकी अगली कहानी थी, और वह चाहता था कि यह कुछ अलग हो—कुछ ऐसा जो पाठकों को रेगिस्तान की गंध, उसके रंग और उसकी नीरवता तक पहुँचा दे। अहमदाबाद से आए हुए उसे तीन दिन हो चुके थे और रण उत्सव की भीड़-भाड़ से दूर वह भुज से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर एक गांव, खुदर में ठहरा था। यहां के लोक कलाकारों, ऊँटों के कारवां, और दूर-दूर तक फैली नमक की चमकदार भूमि उसे किसी दूसरी दुनिया का हिस्सा लगती थी। लेकिन पहली बार उसे कच्छ महज़ एक भूगोलिक आकर्षण नहीं, एक गूढ़ रहस्य-सा लग रहा था। गांव के बुजुर्गों की बातों में बार-बार एक शब्द आता — मृगतृष्णा। और उन्होंने साफ कहा था, “रण में जो दिखे, वह हमेशा सच नहीं होता।”
पहली रात जब वह गाँव के बाहर कैमरा लेकर अकेला निकला, तो हवा में कुछ अजीब सी सर्दी घुली हुई थी। दूर रेगिस्तान की सतह पर हल्की लहरें दिख रही थीं, जैसे पानी हो — लेकिन यह तो धूप का धोखा होता है, यही उसने किताबों में पढ़ा था। पर जैसे ही वह ट्राइपॉड पर कैमरा सेट कर रहा था, पीछे से एक धीमी-सी आवाज़ आई — “बचाओ…”। वह पलटा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। उसने सोचा, यह शायद हवा की सरसराहट होगी, या कोई जानवर। लेकिन जब दूसरी बार वही आवाज़, उतनी ही साफ, उतनी ही स्त्रीस्वर में फिर आई, तो उसकी उँगलियाँ खुद-ब-खुद कैमरे से हट गईं। रेत की लहरों के पार उसे एक परछाईं-सी दिखी — सफेद चुनरी, झुके हुए कंधे, और हाथ हिलाते हुए जैसे कोई मदद मांग रहा हो। लेकिन जब वह उसकी ओर दौड़ा, तो वह आकृति धीरे-धीरे हवा में घुलती गई। ध्रुव की साँसे तेज़ हो गईं। उसे पहली बार कच्छ की रात डरावनी लगी। उसी पल, उसका कैमरा अपने आप बंद हो गया। बैटरी फुल थी — लेकिन स्क्रीन ब्लैक हो चुकी थी।
अगले दिन सुबह जब वह गाँव में लौटा, तो उसकी हालत देखकर गांव की एक बुजुर्ग महिला, भीमा बेन, ने उसे ठंडा पानी दिया और कहा, “रण जब किसी को पुकारता है, तो वह यूँ ही नहीं होता। किसी ने तुम्हें देखा है वहाँ।” फैज़ल खान, जो उसका ट्रैवल गाइड था, हँसकर बोला, “आप लोग हर चीज़ में आत्मा क्यों ढूंढ लेते हैं?” लेकिन ध्रुव चुप रहा। उसका मन अब सामान्य नहीं था। उसे महसूस हो रहा था कि जो उसने देखा, वह केवल उसकी आँखों का धोखा नहीं था। दयानंद वाघेला, गाँव के सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति, ने उसे उसी शाम बुलाया। खाट पर बैठे हुए धीमे स्वर में उन्होंने कहा, “बीस साल पहले मेरी बेटी पायल भी ऐसी ही परछाईं के पीछे गई थी। लोगों ने कहा वह भाग गई, कुछ ने कहा रेत में डूब गई, लेकिन मैं जानता हूँ — मृगतृष्णा ने उसे निगल लिया।” उनकी आँखों में जो विश्वास था, वह किसी कथा का नहीं बल्कि किसी बाप के घाव का परिणाम था। ध्रुव ने पहली बार इस भ्रम को गंभीरता से लेना शुरू किया।
तीसरी रात जब वह फिर कैमरा लेकर रेगिस्तान की ओर गया, तो वह अब एक पर्यटक नहीं, खोजी पत्रकार जैसा महसूस कर रहा था। उसकी धड़कनें तेज थीं, पर आँखों में एक अलग प्रकार की दृढ़ता थी। वह चाहता था कि आज वह परछाईं के पास जाए, उसे जाने न दे। लेकिन रण की रेत, हवा और ध्वनि मिलकर एक भयानक खेल रचती हैं। कुछ दूर जाने के बाद, उसने फिर वही आवाज़ सुनी — “बचाओ…” इस बार तेज़, और कष्ट भरी। अब वह स्पष्ट देख सकता था — सफेद दुपट्टा हवा में लहरा रहा था, लड़की ने जैसे हाथ बढ़ाया हो उसकी ओर। ध्रुव आगे बढ़ा, लेकिन पाँव रेत में धँसने लगे। उसका गला सूख रहा था, और कैमरे की रिकॉर्डिंग फिर से बंद हो चुकी थी। उसने ज़मीन पर बैठकर साँसें सम्हालीं, लेकिन जैसे ही उसने सिर उठाया — वह आकृति ठीक उसके सामने थी। चेहरा धुंधला, पर आँखें बिलकुल साफ़। ध्रुव का सिर चकरा गया और वह वहीं बेहोश हो गया। जब उसकी आँखें खुलीं, तो सुबह हो चुकी थी। उसके हाथ में एक पुरानी डायरी थी — पन्नों पर मिट्टी जमी थी, और पहले पृष्ठ पर नाम लिखा था — “पायल वाघेला”। ध्रुव समझ चुका था — यह कोई सामान्य यात्रा नहीं थी, और अब वह केवल दर्शक नहीं, भागीदार बन चुका था।
२
ध्रुव पटेल की आँखें जब फिर से पूरी तरह खुलीं, तो आसमान नीला हो चुका था और रेगिस्तान की सतह पर सूर्य की किरणें बिखर रही थीं। पर वह अब भी उसी जगह था — जहाँ रात को वह बेहोश हुआ था। रेत उसके कपड़ों के अंदर तक घुस चुकी थी, होंठ फटे हुए थे, और गला सूखा हुआ। लेकिन उसकी हथेली में जो चीज़ थी, उसने बाकी सब एहसासों को बेमानी कर दिया — एक पुरानी, फटी-सी डायरी, जिसके पहले पन्ने पर पेंसिल से नाम लिखा था: “पायल वाघेला”. ध्रुव का मन विचलित हो उठा। क्या यह वही लड़की थी जिसे उसने रात को देखा? क्या वह कोई आत्मा थी? क्या यह डायरी सचमुच उसकी थी, या उसका भ्रम? उसने डायरी को खोला — अंदर पन्ने पीले थे, कुछ जगहों पर स्याही धुंधली हो चुकी थी, लेकिन कई पन्नों पर एक लड़की की भावनाओं, इच्छाओं और डर की झलक साफ दिखाई देती थी। “मुझे वो जगह खींच रही है… हर रात मुझे सपनों में सफेद रेत पुकारती है…” — यह एक पंक्ति थी जिसने ध्रुव को भीतर तक कंपा दिया। वह अब पूरी तरह यक़ीन करने लगा था कि जो उसके साथ हो रहा है, वो केवल संयोग नहीं, कोई योजना है — शायद किसी आत्मा की, शायद किसी अधूरी कहानी की।
वापसी की राह आसान नहीं थी। दोपहर तक वह खुदर गाँव पहुँच पाया, जहाँ फैज़ल उसे देखकर चौंक गया। “ध्रुव भाई, आप कहाँ थे? पूरी रात? फोन स्विच ऑफ… पुलिस में रिपोर्ट देने ही वाले थे!” ध्रुव ने धीमे स्वर में कहा, “मैं वहाँ था… रण में… वही लड़की फिर आई थी।” फैज़ल ने हँसने की कोशिश की, पर उसकी आँखों में डर भी था। “भाई, अब आप ज्यादा सोचने लगे हो। ये सब मन का खेल है। रेत में कई बार dehydration और थकान से hallucination होता है। मैंने भी सुना है लोगों को परियाँ दिखती हैं।” लेकिन ध्रुव अब फैज़ल की बातों को केवल तर्क नहीं, शंका की चादर मान रहा था जो सच्चाई को ढकना चाहती थी। उसने डायरी फैज़ल को दिखाई। फैज़ल के चेहरे से हँसी गायब हो गई। उसने कहा, “ये नाम तो मैंने सुना है… पायल वाघेला। बीस साल पहले खो गई थी। गांव वाले कहते हैं आत्मा बन गई है, लेकिन मुझे तो कभी यकीन नहीं आया।” ध्रुव ने उसकी आँखों में देखते हुए पूछा, “तो अब यकीन आया?” फैज़ल कुछ नहीं बोला।
शाम को दयानंद वाघेला के घर ध्रुव फिर गया — अब वह सवाल लेकर नहीं, जवाब के लिए गया था। बूढ़े की आँखें ध्रुव को देखकर नम हो गईं। “डायरी… वो पायल की ही है। मैंने खुद दिया था उसे।” उन्होंने बताया कि पायल बचपन से ही कुछ अलग थी — उसे सपनों में आवाज़ें आती थीं, और वह अक्सर कहती थी कि रेगिस्तान उसे बुलाता है। “लोग हँसते थे उस पर, पर मुझे लगता था उसकी आत्मा कुछ खोज रही थी।” ध्रुव ने पहली बार उस पिता की पीड़ा को न केवल सुना, बल्कि महसूस भी किया। वह समझ गया था कि पायल की आत्मा अधूरी रह गई थी — और अब शायद वह उसे पूरा करने के लिए उसे चुन चुकी थी। लेकिन सवाल यह था कि क्यों? और क्या वह इस रास्ते पर आगे बढ़कर खुद को भी खो देगा? दयानंद ने आखिरी में बस इतना कहा, “अगर तू वापस गया, तो याद रख — वहाँ सब दिखेगा, लेकिन सब कुछ सच नहीं होगा।”
अगली सुबह ध्रुव ने खुद को एक बार फिर कैमरे और डायरी के साथ तैयार किया — लेकिन इस बार वह सफेद रण में फोटोग्राफी के लिए नहीं, आत्मा की खोज में जा रहा था। हवा में कुछ बदल गया था — जैसे रण ने उसे पहचान लिया हो, उसे भीतर बुला लिया हो। सूरज की पहली किरणें अभी धरती को छू रही थीं, और रेत पर दूर-दूर तक छायाएँ बिछी थीं। तभी ध्रुव ने दूर क्षितिज की ओर देखा — वही परछाईं, वही सफेद दुपट्टा। पर इस बार वह भागा नहीं, वह स्थिर खड़ा रहा। लड़की ने मुड़कर उसकी ओर देखा — उसका चेहरा अभी भी धुंध में छिपा था, लेकिन आँखें — वो बिलकुल स्पष्ट थीं। जैसे वह कुछ कहना चाहती हो, जैसे वह उसे जानती हो। परछाईं कुछ पल ठहरी, फिर धीरे-धीरे रेगिस्तान की ओर चलने लगी। ध्रुव ने भी कदम बढ़ा दिए — अपने कैमरे, अपने डर, और अपने पुराने विश्वासों को पीछे छोड़कर। रण की रेत अब उसके लिए बस भूगोल नहीं थी — यह एक द्वार था, उस दुनिया का जो न तो पूरी तरह मृत थी, न ही पूरी तरह जीवित।
३
ध्रुव के कदम जैसे-जैसे रण की ओर बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे उसका मन अपने ही अंदर की एक भूलभुलैया में खोता जा रहा था। उस सुबह सब कुछ शांत था — न हवा की आवाज़, न कोई परिंदा, न इंसानी हलचल। रेगिस्तान अपनी चमकदार चुप्पी में डूबा हुआ था, और वह परछाईं — वह अब आगे नहीं बढ़ रही थी, बस क्षितिज पर खड़ी, प्रतीक्षा कर रही थी। जब ध्रुव ने लगभग आधा किलोमीटर का फासला तय किया, तो अचानक उसका कैमरा, जो उसके कंधे पर लटक रहा था, गर्म होने लगा। उसने उसे उतारकर ऑन करने की कोशिश की, लेकिन स्क्रीन झिलमिलाई और फिर काली हो गई। वहीं उसकी घड़ी भी रुक गई — समय जैसे ठहर गया था। रेत के ऊपर दो—नहीं, चार—चिन्ह दिखाई दे रहे थे, जैसे पहले भी कोई इस दिशा में गया हो। ध्रुव ने डायरी निकाली, पायल की लिखावट दोहराई: “मुझे लगता है मैं उसी रास्ते पर चल रही हूँ, जिसे किसी और ने पहले तय किया है। लेकिन मैं नहीं जानती, वो लौटा था या नहीं।” यह पंक्ति अब जैसे ध्रुव के लिए चेतावनी बन गई थी।
सूरज की तीखी किरणें जब सिर पर आईं, तो ध्रुव को एक पुरानी मिट्टी की हवेली दिखी — अधगिरी हुई, दीवारों पर छेद, और भीतर उगे हुए झाड़-झंखाड़। यह जगह नक्शे में नहीं थी, न किसी ने इसका ज़िक्र किया था। लेकिन परछाईं वहीं तक जाकर गायब हो गई थी। जैसे वह खुद उस हवेली की आत्मा हो। ध्रुव ने झिझकते हुए भीतर कदम रखा। हवा ठंडी हो गई थी, और एक अजीब सी गंध — सड़ी हुई लकड़ी, धूल और कुछ अनजाना — उसके नथुनों में भर गई। कमरे के कोने में एक पुराना आइना पड़ा था, टूटा हुआ। जैसे ही ध्रुव ने उस आईने में देखा, उसका प्रतिबिंब झिलमिलाने लगा — और अचानक उसमें पायल का चेहरा उभर आया, वही धुंधलापन, वही आँखें। वह पीछे हटा, लेकिन उसकी पीठ से कोई अदृश्य हवा टकराई — जैसे कोई उसे छू गया हो। कुछ क्षणों के लिए ध्रुव को लगा कि वह अब जाग नहीं रहा, बल्कि किसी और की स्मृति में जी रहा है। इस हवेली में कोई है — या कभी था — जो अभी भी यहीं रुका हुआ है, समय से परे।
उस शाम जब ध्रुव गाँव लौट रहा था, तो उसकी चाल में अनिश्चितता थी, आँखों में थकान और सिर में एक अजीब-सा शोर। फैज़ल उसे देख कर घबरा गया, “भाई, आप ठीक हो? चेहरा सफेद हो गया है आपका।” ध्रुव चुपचाप बैठ गया और बोला, “वहाँ कोई जगह है… जो ज़िंदा नहीं, लेकिन मरी भी नहीं है।” उसने हवेली की बात बताई, लेकिन फैज़ल ने ऐसा कोई स्थान जानने से इंकार किया। “भाई, मैंने तो वहाँ ऐसा कुछ नहीं देखा कभी, और ना ही किसी ने बताया।” तभी भीमा बेन वहीं आई और बोली, “उस हवेली का नाम नहीं लिया जाता। वो जगह भटकी हुई आत्माओं का रास्ता है। जिसने वहाँ कदम रखा, वह भूलभुलैया में उलझ गया।” ध्रुव को अब एहसास हो रहा था कि यह केवल रहस्य नहीं, एक जाल है — जहां सच्चाई और भ्रम के बीच की दीवार बहुत पतली है। पर फिर भी, उसने तय कर लिया था — अगर पायल की आत्मा अब भी बुला रही है, तो वह लौटेगा। लेकिन इस बार वो अकेला नहीं जाएगा, और न ही बिना तैयारी। क्योंकि रण अब एक यात्रा नहीं, एक परीक्षा बन चुका था।
रात को जब वह अपनी डायरी पढ़ रहा था, तो उसे एक नया पन्ना मिला — शायद पहले उसकी नज़र नहीं पड़ी थी। उस पन्ने पर सिर्फ चार शब्द लिखे थे: “मुझे अब भी दिखता है”। ध्रुव काँप गया। यह पंक्ति किसी आत्मा की नहीं लग रही थी, यह किसी जीवित इंसान की चेतावनी थी — शायद पायल की, शायद किसी और की, जो उससे पहले वहाँ गया था। तभी खिड़की के बाहर रेत उड़ने लगी, जैसे कोई तेज़ आँधी आ रही हो। लेकिन वह हवा नहीं थी — वह थी किसी की उपस्थिति। ध्रुव ने आँखें बंद कर लीं, और पहली बार उसके मन में डर से ज़्यादा एक सवाल गूंजा — “अगर मैं खो गया, तो क्या कोई मुझे ढूँढेगा?” रण में कोई रास्ता सीधा नहीं होता, और हर परछाईं केवल प्रकाश का खेल नहीं होती — कुछ परछाइयाँ, रास्ता बदलने आती हैं।
४
ध्रुव ने अगली सुबह नाश्ते के समय भीमा बेन को एक बार फिर बुलवाया। गांव की स्त्रियाँ उसे “भूतों की बहन” कहती थीं, लेकिन ध्रुव के लिए वह अब एकमात्र ऐसी कड़ी थी जो इस रहस्य से जुड़ी थी — जो पायल के समय से बची थी। भीमा बेन ने उसके आग्रह पर पास की छाँव में बैठकर धीरे-धीरे कहानी शुरू की। “पायल… वो बचपन से अलग थी। सबकी तरह झुंड में नहीं चलती थी। उसकी आँखों में रण बसता था, और सपनों में उसे सफेद धरती पुकारती थी। लोग कहते, उसका दिमाग कमज़ोर है, लेकिन मुझे पता था — वो कुछ देखती है जो बाकी नहीं देख सकते।” भीमा ने रेत की सतह पर उँगली से गोल घेरा खींचते हुए बताया, “उस रात… जब वो खोई… आसमान साफ़ था, हवा ठंडी और चाँद पूरा। पायल ने कहा कि वो ‘असली सफेद रण’ देखने जा रही है — वहाँ जहाँ आत्माएं जागती हैं। सब हँसे, किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। वो चली गई… और फिर कभी नहीं लौटी।”
ध्रुव ने उसकी आँखों में झाँककर पूछा, “क्या आप मानती हैं कि वह अब भी वहाँ है?” भीमा बेन ने बिना पलक झपकाए जवाब दिया, “नहीं… मैं जानती हूँ, वो अब भी वहीं है। कई बार, जब रेत बहती है या ऊँट डरकर रुक जाते हैं, मुझे उसकी आवाज़ सुनाई देती है। ‘बचाओ…’” उसने वही शब्द दोहराए जो ध्रुव कई बार सुन चुका था। अब यह आवाज़ कोई भ्रम नहीं लग रही थी, यह एक कॉल थी — समय, मृत्यु और माया से परे। भीमा ने आगे बताया कि पायल अकेली नहीं थी जो खोई थी। “हर पांच-छह साल में कोई न कोई मुसाफ़िर, फोटोग्राफर या जिज्ञासु वहाँ जाता है — और कुछ लौटते हैं, पर कुछ ऐसे बदलकर लौटते हैं कि वो खुद भी नहीं पहचानते खुद को। और कुछ… कभी लौटते ही नहीं।” यह सुनकर ध्रुव की रीढ़ में एक कंपकंपी दौड़ गई। क्या वह भी वैसी ही यात्रा पर निकला है? क्या वह पायल की कहानी को पूरा कर पाएगा या खुद एक नया अध्याय बन जाएगा इस माया में?
उस दिन दोपहर में ध्रुव फिर उस हवेली तक गया — इस बार अकेला नहीं, फैज़ल को साथ लेकर। फैज़ल झिझक रहा था, लेकिन ध्रुव का आग्रह टाल नहीं सका। दोनों ने नमक की चादरों के पार चलते हुए जब उस हवेली के पास पहुँचा, तो वातावरण अजीब ठहरा हुआ था। जैसे कोई ‘देख’ रहा हो। हवेली पहले जैसी ही वीरान थी, लेकिन इस बार ध्रुव ने दीवार पर कुछ नया देखा — एक हाथ से लिखा हुआ नाम: “पायल वाघेला – 2003”. फैज़ल की आँखें फैल गईं। “भाई… ये तो ताजा नहीं लगता… लेकिन पेंट सूखा भी नहीं है पूरी तरह।” उन्होंने दीवार को छूकर देखा — रंग अब भी गीला था। हवेली के भीतर ज़मीन पर एक जगह ताज़ी रेत की परत बिछी थी, मानो किसी ने हाल ही में वहाँ कुछ खोदा हो… या छुपाया हो। तभी एक कोने से खड़खड़ाने की आवाज़ आई। दोनों ने मुड़कर देखा — और कुछ भी नहीं था। फैज़ल काँप गया, “भाई, अब बहुत हो गया… ये जगह हमें नहीं चाहती। चलिए यहाँ से।”
लेकिन ध्रुव के पाँव नहीं हटे। उसने वह डायरी निकाली और उस कोने में जा बैठा, जहाँ रात में परछाईं गायब हुई थी। धीरे से पन्ना पलटा — इस बार जो पंक्ति सामने आई, वह थी: “मैंने देखा है रेत का दरवाज़ा खुलते हुए… और उसके भीतर घुटती चीख़ें।” तभी हवेली के फर्श के नीचे से एक ध्वनि उभरी — जैसे कोई कुछ खरोंच रहा हो। फैज़ल भागकर बाहर निकल गया, लेकिन ध्रुव वहीं बैठा रहा। अब डर कम और जिज्ञासा अधिक थी। वह उठकर उस कोने में गया, जहाँ फर्श कुछ नरम था। उसने रेत हटाई — वहाँ एक छोटा लकड़ी का संदूक था। उसे खोलते ही भीतर एक कंगन, एक टूटी हुई गुड़िया, और एक फटे हुए पन्ने का टुकड़ा मिला। उस टुकड़े पर केवल तीन शब्द थे — “अब भी देख रही हूँ।”
ध्रुव कांप गया। पायल की आत्मा केवल पुकार नहीं रही थी, वह देख रही थी। कहाँ से? क्यों? क्या वह आज़ाद नहीं हो पा रही थी? या वह किसी और को अपनी जगह खींच रही थी? सवाल गहराते जा रहे थे और जवाब रेत में गुम हो रहे थे। हवेली से निकलते समय ध्रुव ने अंतिम बार मुड़कर देखा — और कुछ पल के लिए, उस टूटी खिड़की में उसे एक आकृति दिखी — वही परछाईं, वही सफेद दुपट्टा… लेकिन इस बार उसके होंठ हिले, और आवाज़ आई नहीं — सिर्फ एक मुस्कान दिखी। मुस्कान? या चेतावनी? रण अब उसकी रगों में उतर रहा था — और शायद, मृगतृष्णा अब उसे छोड़ने को तैयार नहीं थी।
५
ध्रुव पटेल को सुबह-सुबह एक अलग तरह की बेचैनी ने घेर लिया था। उसने देखा कि उसके कैमरे में पिछली रात की कोई भी तस्वीर सेव नहीं हुई थी, जबकि उसने स्पष्ट रूप से याद किया कि वह उस नीली चादर पहने लड़की की परछाईं को कैद कर चुका था। कैमरे की स्क्रीन पर “No Files Found” का संदेश चमक रहा था, मानो उसकी यादें खुद मिटा दी गई हों। होटल के बाहर कच्छ का रण दूर तक फैला था, लेकिन आज की हवा में कुछ अजीब सी ठंडक थी—जैसे रेत के नीचे कुछ साँसें छुपी हों। नाश्ता छोड़कर वह उस दिशा में निकल पड़ा जहाँ कल रात उसने परछाईं को देखा था। उसके हाथ में बस उसका कैमरा और जेब में एक छोटा-सा डिजिटल रेकॉर्डर था, जिससे वह अक्सर लोकेशन साउंड रिकॉर्ड करता था। रास्ते में उसे एक बूढ़ा चरवाहा मिला जो ऊँटों के साथ गुजर रहा था। ध्रुव ने उससे कुछ पूछना चाहा, लेकिन उसकी आँखें जैसे खाली थीं—वह बिना उत्तर दिए आगे बढ़ गया।
ध्रुव अब कच्छ के उस हिस्से में पहुँच चुका था जिसे स्थानीय लोग “रण का काना हिस्सा” कहते हैं, जहाँ नमक की परतें इतनी मोटी हो जाती हैं कि वो दरारों में तब्दील हो जाती हैं। वहीं उसे वो पहला संकेत मिला—एक औरत के नंगे पाँव के पदचिह्न, जो बिल्कुल ताजे लग रहे थे, जैसे किसी ने अभी-अभी वहाँ से गुज़ार किया हो। ध्रुव ने घुटनों के बल झुककर तस्वीर ली, लेकिन फोटो लेते ही कैमरा एक अजीब आवाज़ कर बंद हो गया। उसे फिर वही फुसफुसाती सी आवाज़ सुनाई दी—”बचाओ…” इस बार आवाज़ हवा में घुली नहीं थी, बल्कि रेत से निकलती लग रही थी। वह पदचिह्नों के पीछे चलता गया, जो कभी-कभी गुम हो जाते, फिर दूसरी दिशा में उभरते। उसकी सांसें तेज़ थीं, कैमरा अब बेकार था और हर ओर एक रहस्यमयी खामोशी थी।
करीब आधे घंटे बाद, वह एक सूखे कुएँ के पास पहुँचा, जो बाहर से किसी आम जल-स्रोत जैसा ही दिखता था। लेकिन उसके मुहाने पर किसी ने सिंदूर से उकेरा था: “મફત માફી નથી (माफ़ी मुफ्त नहीं मिलती)।” उसे वह लड़की फिर दिखी—इस बार स्पष्ट रूप से। वह कुएँ के किनारे खड़ी थी, और उसके कपड़े नमक की सफेदी से जमे थे, बाल बिखरे, चेहरा भावशून्य। लेकिन ध्रुव जैसे ही उसके पास पहुँचा, वह हवा में घुल गई, मानो नमक की परत की तरह बिखर गई हो। ध्रुव ने डर और उत्तेजना के बीच रेकॉर्डर चालू किया और वही सवाल पूछा, जो अब उसकी आदत बन चुकी थी—“तुम कौन हो? क्या मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ?” जवाब में बस हवा का सन्नाटा। लेकिन जब उसने प्लेबैक पर सुना, तो रेकॉर्डर में दर्ज था—“ध्रुव… वापस मत जाओ…”
वह अब लौटना चाहता था लेकिन रेत की वह सपाट ज़मीन जैसे बदल गई थी। हर दिशा एक जैसी लग रही थी। उसने पीछे मुड़कर देखा, तो पदचिह्न मिट चुके थे, और कुआँ… अब वहाँ कोई कुआँ नहीं था। वह पसीने से तर-बतर हो चुका था, जबकि सूरज अब धीरे-धीरे ढल रहा था। रेत में अचानक एक झोंका उठा और उसने सुना किसी ने फिर से पुकारा—”ध्रुव…” इस बार नाम स्पष्ट था, और आवाज़ में एक दर्द भी। तभी दूर से उसे एक लाल चुनरी उड़ती दिखी, जो शायद हवा में नहीं, बल्कि किसी के कंधे पर थी। क्या वह लड़की अभी भी यहीं थी? या अब यह मृगतृष्णा सिर्फ भ्रम नहीं, बल्कि उसकी अपनी चेतना का हिस्सा बन चुकी थी?
६
ध्रुव उस रात ठीक से सो नहीं पाया। कमरे में बसी रेतीली हवा, दूर कहीं से आती ऊँटों की घंटियों की आवाज़ और लगातार ज़हन में गूंजती वह पुकार—“बचाओ…”—उसकी नींद को लगातार तोड़ रही थी। तड़के सुबह चार बजे उसकी आँख खुली, और उसने देखा कि खिड़की से बाहर आकाश नीला-काला हो चुका है। एक अनजानी बेचैनी उसे फिर खींच लाई थी उस दिशा की ओर, जहाँ पिछली रात वह अजीब सपना देख चुका था। इस बार उसने अपनी कैमरा बैग उठाई, मोबाइल को एयरप्लेन मोड में डाला और बिना किसी को जगाए, कैंपस से बाहर निकल गया। बाहर का रण अंधकार में डूबा हुआ था, लेकिन क्षितिज पर हल्की उजली रेखा उभर रही थी—भोर का आगमन था। वह धीरे-धीरे उसी दिशा में चलने लगा, जहाँ पिछली रात वह रेत में पैरों के निशान देख रहा था, मानो कोई अदृश्य लड़की उसे उसी पथ पर फिर बुला रही हो।
चलते-चलते रेत के ऊपर वह कुछ अजीब चिह्न देखने लगा—छोटे-छोटे पाँव के निशान जो अचानक प्रकट होते और फिर गायब हो जाते। ध्रुव ने पहले तो सोचा कि यह कोई जानवर रहा होगा, मगर निशान मानव पांवों के जैसे थे, और छोटे थे—मानो किसी किशोरी के। उसका कैमरा जैसे अपने आप एक्टिवेट हो गया, और उसने कई तस्वीरें लीं। अचानक, रण के बिल्कुल मध्य में उसे एक छोटा-सा गुम्बद दिखाई दिया, जो आधा रेत में धँसा हुआ था। वह चौक गया—यहाँ तो ऐसा कोई ढांचा नक्शों में नहीं दिखता था। पास आने पर उसने देखा, उस पर कुछ कच्छी लिपि में उकेरा गया था, लेकिन समय और रेत ने उसे मिटा दिया था। गुम्बद के चारों ओर किसी के जलने की गंध आ रही थी, जैसे वहाँ हाल ही में कोई अगरबत्ती या चिता जली हो। तभी उसे हवा में एक स्वर सुनाई दिया—धीमा, टूटता हुआ—“ध्रुव… मत लौटो… सच यही है…”
वह झटके से पीछे मुड़ा। कोई नहीं था। वह दौड़कर उस गुम्बद के अंदर गया, लेकिन अंदर सिर्फ़ रेत और टूटे पत्थर थे। फिर उसे एक कोना दिखा, जहाँ रेत के नीचे कोई चीज़ दबी हुई थी। उसने हाथ से रेत हटाई तो एक चूड़ी निकली—पुरानी, किनारे पर जली हुई, और उसके भीतर कच्छी में कुछ लिखा था: “मुझे देखा, अब मैं तुम्हारे भीतर हूँ।” ध्रुव के हाथ काँपने लगे। यह सब क्या था? क्या कोई आत्मा उसे जकड़ रही थी? वह फौरन उठकर बाहर आया और वापसी की ओर बढ़ा, लेकिन अब उसे दिशा समझ नहीं आ रही थी। रण ने उसे चारों ओर से घेर लिया था—कोई संकेत नहीं, कोई निशान नहीं, और सबसे डरावनी बात—रेत पर अब उसके खुद के पैरों के निशान भी नहीं बन रहे थे।
घबराहट में वह तेजी से चलने लगा, और तभी उसे दूर एक आकृति दिखाई दी—सफ़ेद घाघरा पहने एक लड़की, बाल खुले हुए, हाथ से इशारा कर रही थी। उसका चेहरा धुंधला था, मानो कैमरे की फोकस में न आया हो। “बचाओ…”—वही पुकार, वही स्वर, लेकिन अब पास से। ध्रुव चीख़कर उसकी ओर दौड़ा—“तुम कौन हो? क्या चाहिए तुम्हें?”—लेकिन लड़की एक पल में गायब हो गई। तभी पीछे से एक आवाज़ आई, सख़्त और भारी—“तू क्यों आया है यहाँ? जिसको खोजता है, वह अब मृगतृष्णा बन चुकी है।” ध्रुव ने पीछे देखा—एक बुढ़ा चरवाहा खड़ा था, उसकी आँखें धँसी हुईं, और हाथ में एक सूखा डंडा। “वापस जा, शहरवाले। ये रण अब तुझसे खेलने लगा है।”—कहकर वह धीरे-धीरे ध्रुव के सामने से गुज़रा और उसी रेत में समा गया, जैसे उसका अस्तित्व कभी था ही नहीं।
ध्रुव वहीं बैठ गया, हाँफता हुआ, उलझा हुआ। उसे अब समझ नहीं आ रहा था कि जो उसने देखा वह सपना था, भूतिया माया थी, या बस उसका मन उसे छल रहा था। रण की यह मृगतृष्णा अब उसके भीतर घुल रही थी, और वह दिन-प्रतिदिन उससे दूर होता जा रहा था जिसे वह ‘वास्तविकता’ मानता था। उसे समझ आ गया था—यह सिर्फ़ एक यात्रा नहीं है, यह उसका परीक्षण है, और शायद उसके भीतर कुछ ऐसा है जिसे यह भूमि पहचान चुकी है।
७
कच्छ के उस सुनसान विस्तार में जब ध्रुव ने खुद को न जाने कितने मील तक भटकते पाया, सूरज अब पश्चिम की दिशा में लुढ़कने लगा था। पसीने से भीगा उसका शरीर, प्यास से सूख चुका गला और आंखों में भटकते भ्रम — ये सब उसे निचोड़ रहे थे। मगर उसके भीतर कोई अधूरी पुकार थी जो उसे चैन नहीं लेने दे रही थी। दूर-दूर तक कोई इंसान नहीं, केवल नमक की सफेद चादर और हवा की सिहरन। अचानक, उसे फिर वही आवाज़ सुनाई दी — “बचाओ…” इस बार आवाज़ ज़्यादा पास से आई थी, जैसे ठीक उसके कान के पास किसी ने फुसफुसाया हो। घबरा कर उसने चारों ओर देखा, लेकिन कोई नहीं था। तभी उसकी नज़र सामने की रेत पर पड़ी — वहाँ ताज़े पैरों के निशान थे, मानो किसी ने नंगे पाँव अभी-अभी वहाँ से दौड़ लगाई हो।
ध्रुव ने बिना सोचे दौड़ना शुरू किया। वो निशान उसे एक सूखे सरोवर की ओर ले जा रहे थे, जिसके बीचोंबीच एक छोटा-सा टीला था। टीले पर एक अधगिरी-सी कुटिया दिखाई दी, जो पहली नज़र में रेत से बनी हुई लगती थी, जैसे रेत खुद अपना रूप लेकर वहां बस गई हो। कुटिया के अंदर से झीने परदे के पीछे से एक स्त्री आकृति का आभास हुआ — वही जिसे ध्रुव अब तक ढूंढ रहा था। कांपते कदमों से वह दरवाजे तक पहुँचा, लेकिन भीतर प्रवेश करते ही एक सर्द हवाओं की लहर उसके पूरे शरीर में दौड़ गई। कुटिया खाली थी — न कोई परछाईं, न कोई स्त्री, केवल एक टूटा हुआ आइना जिसमें उसकी अपनी परछाईं भी धुंधली हो चुकी थी। वह वहीं ज़मीन पर बैठ गया, उसकी सांसें तेज़ हो गईं और हृदय की धड़कन एक भयावह लय में धड़क रही थी।
उसी क्षण, उसके मोबाइल पर एक नोटिफिकेशन आया — “Memory card error. Last video corrupted.” ध्रुव का चेहरा फीका पड़ गया। वही वीडियो जिसमें उसने उस परछाईं को रिकॉर्ड किया था, जिसे वह सबूत मानता था कि वह hallucinate नहीं कर रहा। अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा था, सिवाय एक धुंधले एहसास के। तभी उसने देखा — दीवार पर पुराने समय की किसी औरत की एक धुंधली तस्वीर लगी थी, जिसकी आँखें ठीक ध्रुव की आँखों में देख रही थीं। नीचे एक गुजराती लिपि में कुछ लिखा था — “પ્રતીક્ષા…” (प्रतीक्षा)। एक लंबा मौन उसके भीतर भर गया। क्या वह लड़की जिसे उसने देखा, कोई आत्मा थी जो अभी भी किसी के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी?
ध्रुव अब डर से ज़्यादा उलझन में था। वह जानना चाहता था कि ये सब क्या है — भ्रम या कोई अनदेखा सत्य? जब वह बाहर आया तो आसमान का रंग बदल चुका था, जैसे मरुस्थल खुद अपने रहस्यों में सिमट रहा हो। दूर कहीं झुंड में उड़ते काले पक्षी, शाम की अनहोनी की सूचना दे रहे थे। मगर ध्रुव अब वापस नहीं जाना चाहता था। अब वो इस रेत में दबे पदचिन्हों के पीछे सच्चाई की तलाश में और गहरे उतरना चाहता था — क्योंकि अब ये केवल एक खोज नहीं थी, बल्कि उसका जुनून बन चुकी थी।
८
ध्रुव की आंखें जैसे ही खुलीं, आसमान में हल्की सी रौशनी फैल रही थी। रात की घटनाएँ अभी भी उसके मन में किसी अधूरी कहानी की तरह तैर रही थीं। वह उस तंबू से बाहर निकला, जो उसने पिछले दिन एक स्थानीय चरवाहे से उधार लिया था, और चारों ओर नज़र दौड़ाई। चारों ओर फैला हुआ सफेद रण, अब हल्की गुलाबी रोशनी में चमक रहा था। पर कहीं न कहीं यह चमक उसकी आंखों में चुभने लगी थी — जैसे हर कण में कोई अनदेखा सवाल दबा हो। ध्रुव ने अपनी डायरी खोली, जिसमें पिछली रात उसने रेखाओं में जो देखा, उसका एक स्केच बनाया था — वही लड़की, अधखुली आँखें, बिखरे बाल, और होंठों पर वही एक शब्द: “बचाओ”। वह जानता था, ये उसका वहम नहीं था। वह परछाईं अब उसके भीतर कहीं जम चुकी थी।
ध्रुव ने तय किया कि अब वह इस माया को सिर्फ दूर से देखने वाला पर्यटक नहीं रहेगा, उसे इस रहस्य का हिस्सा बनकर गहराई में उतरना होगा। वह भुज की ओर निकल पड़ा, वहाँ की पुरानी लाइब्रेरी और एक लोककथाओं के जानकार व्यक्ति — आचार्य नरेन्द्र शास्त्री — से मिलने। आचार्य शास्त्री एक संन्यासी जैसे वृद्ध थे, जिनकी आँखों में रेगिस्तान के बीते युगों की परछाइयाँ झलकती थीं। जब ध्रुव ने अपनी कहानी और लड़की की परछाईं का ज़िक्र किया, तो शास्त्री ने मौन साध लिया। कुछ देर बाद उन्होंने धीरे से कहा, “जिसे तुम देख रहे हो, वह कोई भ्रम नहीं, वह है रूपसिंधी।” ध्रुव चौंका। शास्त्री ने बताया कि सदियों पहले एक राजकुमारी — रूपसिंधी — का काफ़िला रण में लापता हो गया था, जब उसने एक सैनिक से प्रेम करके महल से भागने की कोशिश की थी। तब से कहा जाता है कि उसकी आत्मा हर पूर्णिमा पर किसी राहगीर से मिलती है, जो उसके दर्द को समझ सके।
शास्त्री की बातों से ध्रुव का मन और अधिक व्याकुल हो गया। वह अपने कैमरे की कुछ पुरानी तस्वीरों को देखने लगा — और हैरानी की बात यह थी कि कुछ छवियों में वास्तव में एक धुंधली आकृति दिख रही थी, जिसे पहले उसने नोटिस नहीं किया था। उसका कैमरा भी जैसे इस अदृश्य कथा को दर्ज कर रहा था। वह रात वहीं एक पुरानी धर्मशाला में रुका, लेकिन नींद जैसे आंखों से रूठ गई थी। हर बार जब वह आंखें बंद करता, वह लड़की उसके सामने आ जाती — वही “बचाओ” की गुहार, वही ठंडी हवा की सरसराहट, और उसी क्षण रण की रेत जैसे उसके चारों ओर घूमने लगती। क्या वह सच में रूपसिंधी से जुड़ चुका है? क्या उसका मन उस समय की गहराइयों में डूबने को तैयार है?
अगली सुबह ध्रुव ने एक नई योजना बनाई — वह उस पुराने मार्ग को खोजेगा जहां राजकुमारी का काफ़िला लापता हुआ था। इस मार्ग को स्थानीय लोग “सिलवाया की रेखा” कहते थे — एक गुमनाम पगडंडी, जो अब नक्शों से मिट चुकी थी लेकिन बुजुर्गों की यादों में आज भी ज़िंदा थी। रेगिस्तान के सबसे सूने कोने में स्थित इस रास्ते पर निकलते हुए ध्रुव ने महसूस किया कि हवा में कुछ बदल रहा है। दूर एक ऊँट की घंटी की आवाज़ आई — लेकिन वह किसी के पास नहीं थी। अचानक, रेत की सतह पर उसके कैमरे ने एक थर्मल सिग्नेचर रिकॉर्ड किया — जैसे कोई अदृश्य शरीर वहां से गुज़रा हो। ध्रुव अब इस खोज में सिर्फ एक पर्यटक नहीं था; वह अब उस लड़की का एकमात्र गवाह था, जिसने सदियों से सिर्फ एक बात चाही थी — “किसी को मेरी आवाज़ सुनाई दे।”
९
ध्रुव अब अकेला नहीं था। उसके साथ थी रेगिस्तान की रात, जिसकी हर साँस में डर था, और हर झोंके में कोई नामालूम आवाज़। उस रात जब वह खारे पानी के पुराने कुंड तक पहुँचा, वहाँ की हवा भारी थी। ऐसा लगता था जैसे हवा भी साँस रोककर किसी का इंतज़ार कर रही हो। चारों ओर बिखरी नमक की सफेद परतें चाँदनी में चमक रही थीं, लेकिन वह चमक सौंदर्य की नहीं, चेतावनी की थी। उसी झील के पास खड़े होकर ध्रुव ने फिर सुनी — वही आवाज़, जो अब कमज़ोर नहीं, बल्कि स्पष्ट और आग्रहपूर्ण थी — “ध्रुव, मुझे मुक्त करो…”। यह वही लड़की थी, वही स्वर, वही वेदना। लेकिन आज पहली बार उसका नाम पुकारा गया था। वह चौंका। क्या यह मात्र भ्रम था या सचमुच कोई आत्मा उसे जानती थी? या फिर यह सब अब कल्पना की सीमा पार कर चुका था?
उसने कैमरा उठाया, लेकिन स्क्रीन में दिख रही तस्वीर में कुछ था — एक साया, एक स्त्री आकृति, जो नमक की परतों पर बिना पदचिह्न छोड़े चल रही थी। लेकिन जैसे ही वह कैमरा हटाकर अपनी आँखों से देखता, वहाँ कुछ भी नहीं होता। उसकी साँसें तेज़ हो गईं। वह चलने लगा, उस दिशा में जहाँ परछाईं थी। हर क़दम पर ज़मीन नीचे धँसने लगती, जैसे कच्छ का यह रण अब उसे निगलना चाहता हो। तभी उसके सामने प्रकट हुई वह आकृति — एक काली चुनरी में लिपटी, धूल से सनी, उसकी आँखें लाल थीं लेकिन चेहरा शांत। “मैं हूँ माया,” उसने कहा, “जिसे तुमने वर्षों पहले अनदेखा किया था। तुमने मेरी छवि देखी, पर मेरी चीखें नहीं सुनीं।” ध्रुव पीछे हटने लगा, पर पैर ज़मीन से चिपक गए। माया धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ी। “हर साल इस जगह एक आत्मा खो जाती है। इस बार तुम चुने गए हो, क्योंकि तुमने देखना चाहा। और जिसने देखा, वो बच नहीं सकता।”
ध्रुव की आँखें काँप रही थीं, लेकिन उसने हिम्मत नहीं छोड़ी। “तुम कौन हो? क्या चाहती हो?” उसने चिल्लाकर पूछा। माया मुस्कराई, लेकिन वह मुस्कान मानवीय नहीं थी — वह किसी टूटे अस्तित्व की चीख जैसी थी। “मैं वह हूँ जिसे धोखा मिला था। जिसकी मृत्यु को आत्महत्या कहा गया, पर असल में वो नरबलि थी — यहाँ इसी झील के किनारे, पगड़ी वालों ने मुझे सती बना डाला… और मेरी आत्मा तभी से मुक्त नहीं हो सकी।” ध्रुव अवाक रह गया। इतने वर्षों बाद, वह किसी अनजानी कहानी का केंद्र बन गया था। उसे समझ आ गया कि माया की पीड़ा को केवल सुनने से मुक्ति नहीं मिलेगी — उसे पहचानने, और दुनिया को बताने की ज़रूरत थी। तभी हवा में एक झटका आया, माया की आकृति हिलने लगी, और आसमान से हल्का तूफ़ान उठने लगा।
ध्रुव ने अपनी डायरी निकाली और सब कुछ लिखने लगा। “तुम लिख रहे हो,” माया बोली, “तो सुनो — मेरी हड्डियाँ अब भी इसी झील के नीचे हैं, नमक में जमी हुई। जब तक उन्हें निकालकर सूरज की रोशनी नहीं मिलेगी, मेरी आत्मा मुक्त नहीं होगी।” ध्रुव ने सिर हिलाया। “मैं वादा करता हूँ,” उसने कहा, “तुम्हारी कहानी दुनिया को बताऊँगा।” उस पल माया की आँखें नम हो गईं। वह पीछे हटने लगी, उसकी परछाईं धीमे-धीमे नमक में घुलने लगी। और अगले ही क्षण, सब कुछ शांत हो गया। केवल ध्रुव और उसकी साँसे बाकी रह गईं — और एक नया उत्तरदायित्व, जो अब किसी भटकती आत्मा की मुक्ति से जुड़ा था।
१०
ध्रुव के चारों ओर अब बस रेत ही रेत थी, मगर ये वो रेत नहीं थी जो सूर्य की रोशनी में चमकती है — ये रेत स्याह थी, सन्नाटे में भी चीखती हुई। वह वहीं खड़ा था जहाँ कभी वह परछाईं उसे खींच लायी थी — एक सूखा हुआ सरोवर, जिसके मध्य में अब वह पुराना महादेव का खंडहर पड़ा था। रात गहरी हो चुकी थी और आसमान में चाँद पूरी तरह अदृश्य था। तभी एक हल्की सी झिलमिलाहट उसके आगे उत्पन्न हुई — वही लड़की, जो सफ़ेद चुनरी में लिपटी, ध्रुव को देख मुस्कुरा रही थी, जैसे वह किसी घनी धुँध से बाहर आकर सामने खड़ी हो। ध्रुव की आँखों से आँसू बह निकले, वह थक चुका था — सवालों से, भ्रमों से, अपने भीतर की टूटन से।
“कौन हो तुम?” उसकी आवाज़ काँप रही थी, मगर अब डर नहीं था, केवल जानने की तीव्र इच्छा। लड़की ने अपने चेहरे से चुनरी हटाई — और ध्रुव सन्न रह गया। वो उसकी माँ थी। मगर वही नहीं थी। चेहरा माँ का था, मगर आँखें किसी और की — जैसे आत्माओं का समंदर वहाँ जमा हो, जैसे ये शरीर किसी स्मृति की गठरी बन चुका हो। “मैं वो हूँ जिसे तुम खोजते रहे, पर मैं वो भी हूँ जो तुम खुद में छिपाते रहे,” उसकी आवाज़ गूंजती रही, “तुमने जिस भ्रम को मृगतृष्णा समझा, वही तुम्हारा सत्य था।” अचानक उस लड़की के चारों ओर आग की एक लपट उठी, और ध्रुव का सिर चकराने लगा। अगला क्षण वो ज़मीन पर गिर पड़ा।
सुबह की रौशनी से उसकी आँख खुली — वह उसी कुटिया में था जहाँ से उसकी यह रहस्यमयी यात्रा शुरू हुई थी। बाबा नज़र नहीं आए। दीवार पर एक फोटो लगी थी — जिसमें वही सफेद चुनरी वाली लड़की थी, और नीचे लिखा था: “वृन्दा — जो कभी खो गई थी रण में, अब रेत की आत्मा बन चुकी है।” ध्रुव की रूह काँप गई। उसने कैमरे की ओर देखा — और चौंक गया। उसमें कई ऐसी तस्वीरें थीं जो उसने कभी ली ही नहीं — महादेव का मंदिर, काली रेत, और वृन्दा… हर तस्वीर जैसे उसकी यात्रा की गवाही दे रही थी। ध्रुव ने कैमरा बंद किया, उठकर बाहर आया। दूर रण का विस्तार अब शांत था, कोई परछाईं नहीं, कोई आवाज़ नहीं। मगर भीतर की हलचल शांत हो चुकी थी। ध्रुव अब जानता था — मृगतृष्णा बाहर नहीं थी, वह उसके भीतर थी, और उसने अंततः उसे पहचान लिया था।
उसने अपने ब्लॉग पर लौटते हुए लिखा —
“कभी-कभी भ्रम ही वह दरवाज़ा होता है, जिससे होकर हम अपने सत्य तक पहुँचते हैं। कच्छ की रेत ने मुझे सिखाया कि सब कुछ जो दीखता है, वही नहीं होता… मगर जो छिपा होता है, वही असल में तुम्हारा अक्स होता है।”
ध्रुव पटेल — अब केवल एक ट्रैवल ब्लॉगर नहीं रहा। वह रेत की आत्माओं का साक्षी था, एक ऐसा आदमी जिसने खुद को खोया, और उसी में खुद को पाया।
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