Hindi - यात्रा-वृत्तांत

मुंबई की गणेश चतुर्थी

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कुणाल कुलकर्णी


मुंबई की धरती पर पहला कदम रखते ही कुणाल के मन में अजीब सी हलचल उठी। जैसे ही ट्रेन धीरे-धीरे छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस (सीएसएमटी) स्टेशन पर रुकी, खिड़की से झाँकते ही उसे हज़ारों चेहरों की चहल-पहल, पटरियों पर भागते कुलियों की आवाज़ें और लाउडस्पीकर पर गूंजती घोषणाओं का मिश्रण सुनाई दिया। स्टेशन पर कदम रखते ही उसे ऐसा महसूस हुआ मानो किसी अदृश्य शक्ति ने उसे खींचकर इस हलचल के बीच डाल दिया हो। दूर-दूर तक रंग-बिरंगे कपड़े पहने लोग, हाथों में मिठाई और पूजा का सामान, और माथे पर चंदन का तिलक लगाए श्रद्धालु दिखाई दे रहे थे। हर ओर से “गणपति बप्पा मोरया” की गूंज सुनाई देती थी, जो स्टेशन की भीड़भाड़ को भी एक लय में बांध रही थी। पहली बार मुंबई आने वाला कुणाल खुद को किसी उत्सव के सागर में डूबता महसूस कर रहा था। उसने अपने बैग की स्ट्रैप को कसकर पकड़ा और धीरे-धीरे भीड़ के साथ बहते हुए बाहर निकला। जैसे ही स्टेशन की पुरानी विक्टोरियन शैली की इमारत से बाहर आया, सामने मुंबई की सड़कें उसे स्वागत करती हुई प्रतीत हुईं—ऊपर पीली-नीली लाइटों की झिलमिलाहट, किनारे-किनारे सजाए गए फूलों की झालरें और ढोल-ताशों की धुनें, सब मिलकर एक ऐसी तस्वीर बना रहे थे जो उसने अब तक सिर्फ़ इंटरनेट और टीवी पर देखी थी।

बाहर खड़ी टैक्सियों की कतार में खड़े ड्राइवर भी मानो उत्सव के हिस्सेदार थे। हर टैक्सी के डैशबोर्ड पर गणेशजी की छोटी मूर्ति रखी थी, जिनके आगे अगरबत्तियों की हल्की-हल्की महक हवा में घुल रही थी। जब कुणाल ने एक टैक्सी रोकी और अंदर बैठा, तो ड्राइवर ने मुस्कुराते हुए सिर घुमाकर कहा, “गणपति बप्पा मोरया!” उसकी आवाज़ में जो उत्साह था, उसने कुणाल को अंदर तक छू लिया। कुणाल ने भी हिचकिचाते हुए उसी लय में कहा, “मोरया रे!” और दोनों हँस पड़े। टैक्सी जैसे ही स्टेशन से बाहर निकली, मुंबई की सड़कों का नज़ारा बदलता चला गया। सड़कें भले ही भीड़ से भरी थीं, लेकिन उस भीड़ में एक अनुशासन था, एक साझा भावना थी। दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे पंडाल सजे थे, जिनमें रोशनी, सजावट और रंगीन पर्दों की जगमगाहट थी। कहीं पर बप्पा की मूर्ति पर फूलों की वर्षा हो रही थी, तो कहीं पर बच्चे पारंपरिक नृत्य कर रहे थे। ट्रैफिक की गाड़ियों का शोर भी ढोल-ताशों और जयकारों में डूब गया था। टैक्सी की खिड़की से बाहर झाँकते हुए कुणाल ने महसूस किया कि यह शहर इन दिनों सिर्फ़ जी नहीं रहा, बल्कि हर सांस उत्सव में डूबी हुई है।

रास्ते भर कुणाल का मन एक ही सवाल में उलझा रहा—क्या वास्तव में कोई त्योहार इतना विशाल हो सकता है कि पूरा शहर उसकी लय में सांस ले? टैक्सी ड्राइवर ने मुस्कुराते हुए उसकी जिज्ञासा को जैसे पढ़ लिया और बोला, “साहब, आप पहली बार आए हैं न मुंबई में गणेशोत्सव के समय? यहाँ तो हर गली, हर मोहल्ला बप्पा का घर बन जाता है। अमीर-गरीब सब एक हो जाते हैं। आप जहाँ भी देखेंगे, वहीं आस्था और आनंद मिलेगा।” कुणाल खामोशी से उसकी बातें सुनता रहा, लेकिन उसके भीतर एक अजीब सा कंपन चल रहा था—मानो यह यात्रा उसके जीवन का एक अनोखा मोड़ बनने वाली है। टैक्सी समुद्र किनारे मरीन ड्राइव की ओर बढ़ी, जहाँ लहरें भी उत्सव के संगीत में शामिल लग रही थीं। आसमान पर शाम का नीला रंग धीरे-धीरे उतर रहा था, और शहर की लाइटें मानो तारों की तरह चमकने लगी थीं। कुणाल ने अपने डायरी में लिखने का मन बनाया—“मुंबई का यह पहला दृश्य ही मेरे लिए किसी सपने से कम नहीं। भीड़, रोशनी, ढोल और जयकारों के बीच मैं खुद को एक नए संसार में पाता हूँ। यह आगमन किसी साधारण यात्रा की शुरुआत नहीं, बल्कि एक गहरी सांस्कृतिक धड़कन को महसूस करने की यात्रा है।” और तभी टैक्सी ड्राइवर ने फिर ज़ोर से पुकारा—“गणपति बप्पा मोरया!” और भीड़ ने उसी सुर में जवाब दिया। कुणाल की आत्मा ने भी पहली बार पूरे जोश से कहा—“मोरया रे!” मानो वह अब इस शहर की लय में पूरी तरह शामिल हो चुका था।

टैक्सी से उतरकर जब कुणाल मीरा से पहली बार मिला तो उसे लगा जैसे इस अनजान शहर में कोई अपना मिल गया हो। मीरा प्लेटफॉर्म के बाहर एक साधारण कुर्ता-जींस में खड़ी थी, लेकिन उसके चेहरे की चमक और आत्मविश्वास ने तुरंत ध्यान खींच लिया। उसके हाथ में पूजा की थाली थी, जिस पर फूल और थोड़े से मोदक रखे थे। जैसे ही उसने कुणाल को देखा, वह मुस्कुराकर बोली—“स्वागत है मुंबई में, और सबसे पहले बप्पा के दरबार में।” कुणाल ने झिझकते हुए थाली से फूल उठाकर हाथ जोड़ लिए। उस पल उसे महसूस हुआ कि इस शहर की आत्मा सिर्फ़ इसकी भीड़ और इमारतों में नहीं, बल्कि यहाँ के लोगों की सहजता और अपनापन में बसी है। मीरा ने हँसते हुए कहा—“आप सोच रहे होंगे इतनी भीड़, इतना शोर… लेकिन यहीं से शुरू होती है मुंबई की असली पहचान। गणेशोत्सव सिर्फ़ एक त्योहार नहीं, बल्कि इस शहर की धड़कन है।” उसके शब्दों में एक दृढ़ता और गर्व झलक रहा था, मानो वह पूरे शहर का परिचय एक ही वाक्य में दे रही हो। कुणाल चुपचाप सुनता रहा और उसके भीतर एक उत्सुकता पनपने लगी कि आखिर इस उत्सव को देखने का असली तरीका क्या है।

मीरा ने तय कर लिया था कि वह कुणाल को सिर्फ़ बड़े-बड़े पंडाल नहीं दिखाएगी, बल्कि उन गलियों और मोहल्लों तक ले जाएगी जहाँ असली मुंबई सांस लेती है। “लोग टीवी पर लालबागचा राजा देखते हैं, लेकिन इस शहर की गली-गली में बप्पा के अलग-अलग रूप बसते हैं। यही मुंबई को खास बनाता है,” उसने चलते-चलते कहा। सड़क पर आगे बढ़ते हुए मीरा ने उसे बताया कि कैसे स्वतंत्रता संग्राम के समय लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव को सार्वजनिक मंच बनाया ताकि लोग एकजुट होकर अपने विचार साझा कर सकें। “यानी यह सिर्फ़ धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक आंदोलन की धरोहर भी है,” मीरा की आवाज़ में गर्व था। कुणाल ने पहली बार महसूस किया कि वह किसी साधारण गाइड से नहीं, बल्कि एक ऐसी लड़की से बात कर रहा है जो अपने शहर और उसकी परंपराओं से गहराई से जुड़ी है। उसकी आँखों में एक चमक थी, जैसे वह अपने प्रिय मित्र को अपने परिवार से मिलवा रही हो। भीड़ के बीच से गुजरते हुए कुणाल ने नोट किया कि लोग उसे देखकर मुस्कुरा रहे थे, बच्चों ने उसे हाथ हिलाया, और महिलाएँ आरती की थाली घुमा रही थीं। मीरा बोली—“देखा, यहाँ कोई अजनबी नहीं होता। जब बप्पा आते हैं, तो पूरा शहर एक परिवार बन जाता है।”

कुणाल को लगा कि वह धीरे-धीरे इस परिवार का हिस्सा बनने लगा है। उसकी जिज्ञासा और मीरा का आत्मीय परिचय दोनों मिलकर इस अनुभव को गहरा बना रहे थे। रास्ते में ढोल-ताशों की गूंज और जयकारे के बीच मीरा ने उससे कहा—“आपको लगेगा यह बस एक त्यौहार है, लेकिन यहाँ हर ध्वनि, हर सजावट, हर मूर्ति एक कहानी कहती है। आज मैं आपको वो मुंबई दिखाऊँगी, जो किताबों या कैमरों में कैद नहीं हो सकती। असली मुंबई वही है, जहाँ मोदक की मिठास के साथ आस्था मिलती है, जहाँ ढोल की थाप दिल की धड़कन बन जाती है, और जहाँ लोग अपना दुख-सुख बप्पा के सामने रखकर हल्के हो जाते हैं।” कुणाल उसकी बातों को सुनते हुए महसूस कर रहा था कि यह शहर सिर्फ़ देखने के लिए नहीं, बल्कि जीने के लिए है। उसके भीतर का ट्रेवल ब्लॉगर अब सिर्फ़ तस्वीरें लेने या लिखने के लिए उत्साहित नहीं था, बल्कि इस यात्रा को आत्मा से महसूस करने के लिए तैयार था। उसने मन ही मन तय किया कि मीरा के साथ यह सफर उसकी डायरी का सबसे खास अध्याय बनेगा। और जब मीरा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा—“तो चलिए, तैयार हो जाइए असली मुंबई देखने के लिए,” तो कुणाल को सचमुच लगा कि उसकी यात्रा अब शुरू हुई है।

जब मीरा ने कुणाल से कहा कि अब उसे “लालबागचा राजा” के दर्शन कराएगी, तो उसके भीतर एक अनोखा उत्साह जाग उठा। रास्ते भर गाड़ियों का शोर, लोगों की भीड़ और ढोल-ताशों की गूंज मानो एक ही दिशा में बह रही थी। जैसे-जैसे वे पंडाल की ओर बढ़ते गए, कुणाल ने देखा कि सड़कें पूरी तरह रोशनियों से नहाई हुई थीं। दोनों ओर सजाए गए मंडप, विशाल पोस्टर और फूलों की झालरें हवा में झूल रही थीं। भीड़ इतनी थी कि हर कदम आगे बढ़ने के लिए धैर्य और समय दोनों चाहिए थे। फिर भी किसी के चेहरे पर शिकायत नहीं थी, सबकी आँखों में बस एक ही उम्मीद थी—“राजा” की एक झलक पाने की। मीरा ने धीरे से कहा, “यह सिर्फ़ मूर्ति नहीं है, यह मुंबई का दिल है। लाखों लोग यहाँ सिर्फ़ बप्पा से मिलने आते हैं, अपनी खुशियाँ और दुख साझा करने।” कुणाल ने महसूस किया कि वह जिस भीड़ का हिस्सा बन रहा है, वह महज़ दर्शकों की भीड़ नहीं, बल्कि श्रद्धा का समंदर है, जिसमें हर लहर अपनी अलग कहानी समेटे हुए है। गर्म हवा, पसीने से भीगी भीड़, और ढोल की गूंज के बीच भी एक अजीब सुकून था। वह सोच रहा था कि आखिर कौन-सी ताक़त है जो इस विशाल जनसमूह को थकने नहीं देती।

काफ़ी देर तक इंतजार करने के बाद वे आखिरकार पंडाल के करीब पहुँचे। सामने खड़े “लालबागचा राजा” की मूर्ति देखकर कुणाल की आँखें कुछ क्षणों के लिए ठहर गईं। बप्पा के भव्य रूप, ऊँचे सिंहासन, और सोने-चाँदी से सजे मुकुट को देखकर उसे लगा मानो समय थम गया हो। मूर्ति की आँखों में एक ऐसी गहराई थी जिसमें समंदर की शांति और आकाश की विशालता दोनों समाई हुई थीं। भीड़ के जयकारे एक लहर की तरह उठते और बैठते रहे, लेकिन उस पल कुणाल को लगा कि उसके और बप्पा के बीच एक सीधा संवाद हो रहा है। मीरा ने धीरे से उसके कान में कहा—“यही है राजा, जिसकी एक झलक के लिए लोग दिन-रात लाइन में खड़े रहते हैं। किसी के पास दुख है, किसी के पास सपना… और सब यहाँ आकर उम्मीद ले जाते हैं।” तभी कुणाल के बगल में खड़े एक बुजुर्ग ने उसकी ओर देखा और हल्की मुस्कान दी। वह थे दादासाहेब, सफ़ेद धोती-कुर्ता पहने, माथे पर तिलक और हाथ में माला लिए हुए। उनकी आँखों में अनुभव की चमक थी, जैसे उन्होंने कई पीढ़ियों को इस उत्सव में भाग लेते देखा हो। उन्होंने कुणाल से पूछा—“पहली बार आए हो?” कुणाल ने सिर हिलाया, तो दादासाहेब बोले—“तो सुनो, यह उत्सव सिर्फ़ आज की बात नहीं है, इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।”

भीड़ के बीच खड़े-खड़े दादासाहेब ने धीमी आवाज़ में गणेशोत्सव की पुरानी कहानियाँ सुनानी शुरू कीं। उन्होंने बताया कि कैसे लोकमान्य तिलक ने इस पर्व को सार्वजनिक रूप देकर अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को एकजुट किया। “उस समय घरों तक सीमित गणपति पूजा को बाहर लाकर उन्होंने इसे समाज का त्योहार बना दिया। तब से लेकर आज तक, हर साल यह उत्सव लोगों को जोड़ता आया है। अमीर-गरीब, हिंदू-मुस्लिम, स्त्री-पुरुष—यहाँ कोई भेदभाव नहीं। सब राजा के सामने बराबर हैं।” कुणाल ने आश्चर्य से उनकी बातें सुनीं और महसूस किया कि यह आयोजन सिर्फ़ धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर भी है। दादासाहेब ने आगे कहा—“मैं बच्चा था तब से आ रहा हूँ यहाँ। तब इतनी रोशनी नहीं होती थी, इतने बड़े पंडाल नहीं होते थे, लेकिन लोगों की आस्था आज जैसी ही थी। तब ढोल भी लकड़ी के होते थे, और मोदक मिट्टी के बर्तनों में बनते थे। फर्क सिर्फ़ साधनों का है, भावना वही है।” कुणाल को लगा कि वह सिर्फ़ एक दर्शक नहीं, बल्कि किसी जीवित इतिहास का हिस्सा बन गया है। उसके सामने खड़ा “राजा” अब मूर्ति नहीं रहा, बल्कि सदियों से लोगों की आशाओं और संघर्षों का प्रतीक बन गया था। उस क्षण उसे एहसास हुआ कि मुंबई की असली पहचान इसी आस्था में छिपी है, जिसमें हर इंसान के दिल की धड़कन बप्पा के जयकारे के साथ एक हो जाती है।

भीड़ और पंडालों की चकाचौंध से निकलने के बाद मीरा ने कुणाल को अपने घर चलने का निमंत्रण दिया। “अब तक आपने बप्पा को शहर में देखा है, लेकिन उनका असली रूप घर-घर में बसता है। चलिए, आपको हमारी काकी से मिलवाती हूँ,” उसने मुस्कराते हुए कहा। कुणाल कुछ थका हुआ था, लेकिन उसकी जिज्ञासा और मीरा की आत्मीयता ने उसे मान जाने पर मजबूर कर दिया। जब वे दोनों मीरा के घर पहुँचे, तो दरवाज़े पर ही फूलों की सजावट और अंदर से आती अगरबत्ती की महक ने उसका स्वागत किया। बैठक के कोने में सजे एक छोटे से पंडाल में गणेशजी की मूर्ति स्थापित थी—साधारण लेकिन बेहद प्यारी। मोतियों की माला, केले के पत्ते और हाथ से बनाए कागज़ी सजावट से वह मंदिर किसी बड़े पंडाल से भी अधिक जीवंत लग रहा था। तभी अंदर से सुनीता काकी निकलीं। लगभग पैंतालीस साल की, साड़ी में सजी, माथे पर बड़ी सी बिंदी और आँखों में वही स्नेह, जिसे देखकर कुणाल को सचमुच अपनी माँ की याद आ गई। काकी ने बिना देर किए कहा—“आ गए बेटा? ज़रूर भूख लगी होगी। आओ, पहले मोदक खाओ।” और इससे पहले कि कुणाल कुछ कहता, उसे गरमा-गरम मोदकों से भरी थाली पकड़ा दी गई। भाप उठते हुए मोदक, जिनकी खुशबू में गुड़ और नारियल की मिठास घुली थी, कुणाल के लिए एक नया अनुभव थे।

मोदक का पहला कौर लेते ही कुणाल को लगा मानो इस स्वाद में किसी का दिल पिघलकर घुल गया हो। बाहर का पतला चावल का आवरण और अंदर का मीठा मिश्रण, साथ में काकी का स्नेह—सब मिलकर इस व्यंजन को सिर्फ़ भोजन नहीं, बल्कि भावनाओं का प्रतीक बना रहे थे। काकी ने प्यार से उसकी थाली में और मोदक रखे और कहने लगीं—“बप्पा को मोदक बहुत प्रिय हैं, इसलिए हर घर में इन्हें जरूर बनाया जाता है। पर हर परिवार का तरीका अलग होता है। कोई घी में तलकर बनाता है, कोई भाप में पकाकर। कोई सिर्फ़ नारियल-गुड़ भरता है, तो कोई उसमें सूखे मेवे डालता है। जैसे-जैसे स्वाद बदलता है, वैसे-वैसे हर घर की परंपरा भी झलकती है।” कुणाल ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था। उसने देखा कि पंडाल के पास मीरा और बाकी परिवारजन मिलकर आरती की तैयारी कर रहे थे। हर कोई अपने हिस्से का काम कर रहा था—कोई फूल सजा रहा है, कोई दीये रख रहा है, तो कोई मंत्रों की किताब खोल रहा है। इस साधारण लेकिन आत्मीय दृश्य ने कुणाल को गहराई से छू लिया। उसने सोचा कि सचमुच यह उत्सव शहर की गलियों और भव्य पंडालों में जितना जीवंत है, उतना ही घर-घर की आत्मा में भी धड़कता है।

आरती शुरू हुई। पूरे घर में घंटियों की ध्वनि और “सुखकर्ता दुखहर्ता” की मधुर लय गूंज उठी। काकी ने आरती थाली कुणाल के हाथ में थमा दी और मुस्कराकर कहा—“अब आप भी परिवार का हिस्सा हो गए हैं।” उस पल कुणाल की आँखें नम हो गईं। उसने सोचा कि वह तो एक यात्री है, इस शहर में अजनबी है, लेकिन फिर भी यहाँ के लोग उसे अपना मान रहे हैं। पूजा के बाद काकी ने बैठकर उसे बताया—“बेटा, बप्पा जब घर आते हैं तो हम मानते हैं कि वे हमारे मेहमान हैं। जिस तरह हम किसी अतिथि को प्यार और आदर से रखते हैं, वैसे ही उन्हें भी हर सुख-सुविधा देते हैं। कोई पाँच दिन बप्पा को घर पर रखता है, कोई सात दिन, और कोई ग्यारह दिन। लेकिन फर्क बस दिनों का है, भावना सबकी एक जैसी होती है।” कुणाल ध्यान से सुनता रहा। उसने महसूस किया कि यहाँ गणेशोत्सव केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि परिवारों की धड़कन है। यह त्योहार लोगों को उनके व्यस्त जीवन से निकालकर एक-दूसरे से जोड़ता है। हर मोदक का स्वाद, हर आरती की धुन और हर मुस्कान मानो कह रही थी कि “गणपति सिर्फ़ हमारे देवता नहीं, बल्कि हमारे अपने हैं।” उस रात जब कुणाल ने डायरी खोली, तो उसने लिखा—“आज मुझे समझ आया कि मुंबई की असली ताक़त उसके घरों में छिपी है। मोदक सिर्फ़ मिठाई नहीं, बल्कि उस अपनत्व का स्वाद है जो यह शहर हर अजनबी को बिना शर्त बाँटता है। गणेशोत्सव सचमुच घर-घर की आत्मा है।”

अगले दिन मीरा ने कुणाल से कहा कि आज वह उसे मुंबई की गलियों का रंग दिखाएगी। “कल तुमने लालबागचा राजा और घर की पूजा देखी, लेकिन असली मज़ा तो गलियों में है,” उसने मुस्कराते हुए कहा। कुणाल उत्साहित था, क्योंकि वह अब तक बड़े-बड़े पंडाल और भव्य मूर्तियाँ देख चुका था, लेकिन छोटे-छोटे मोहल्लों का गणेशोत्सव कैसा होता है, यह जानना चाहता था। वे दोनों भीड़-भाड़ से भरी एक गली में पहुँचे। यहाँ की सड़कों पर बच्चों की किलकारियाँ, ढोल-ताशों की आवाज़ें और रंग-बिरंगी सजावट ने एकदम अलग माहौल बना रखा था। छोटे-छोटे पंडालों में हाथ से बने झालर, रंगोली और फूलों से सजावट की गई थी। कोई पंडाल महज़ बांस और कपड़े से तैयार था, तो कोई थर्मोकोल से बने छोटे मंदिर जैसा दिख रहा था। लेकिन हर जगह की रौनक और ऊर्जा एक जैसी थी। कुणाल को महसूस हुआ कि इन तंग गलियों की संकरी जगहें भी दिलों की विशालता से भरी हुई हैं। यहाँ कोई बड़ी-बड़ी रोशनियों का खेल नहीं था, पर हर मुस्कान, हर जयकारा और हर मोदक की खुशबू इस उत्सव को भव्य बना रही थी।

जैसे-जैसे कुणाल गलियों से गुजरता गया, उसे अलग-अलग थीम वाले पंडाल देखने को मिले। एक पंडाल में प्लास्टिक प्रदूषण के खिलाफ संदेश था, जहाँ मूर्ति के आसपास कचरे के ढेर का मॉडल बनाकर दिखाया गया था कि इंसान कैसे प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहा है। वहीं दूसरे पंडाल में किसान जीवन पर आधारित थीम थी—मूर्तियाँ खेत, बैलगाड़ी और मेहनतकश किसानों के बीच स्थापित थीं। कुणाल ने देखा कि पूजा और आस्था से भी ज़्यादा यहाँ कला, सामाजिक चेतना और सामूहिक रचनात्मकता बोल रही थी। लोग अपनी प्रतिभा और सोच को इस उत्सव के जरिए सामने ला रहे थे। किसी पंडाल में मूर्ति को पहाड़ जैसा मंच दिया गया था, जिस पर पानी के झरने बहते दिखाई दे रहे थे, तो कहीं मूर्ति को समुद्र की गहराई में शंख और मोतियों से सजाया गया था। हर पंडाल मानो कह रहा था कि आस्था सिर्फ़ प्रार्थना तक सीमित नहीं, बल्कि यह इंसान की कल्पना और समाज के लिए उसकी ज़िम्मेदारी का दर्पण भी है। कुणाल ने मीरा से कहा, “यहाँ तो हर गली एक कला दीर्घा जैसी है।” मीरा ने मुस्कराकर जवाब दिया, “यही मुंबई है। यहाँ लोग सिर्फ़ भगवान से मन्नत नहीं माँगते, बल्कि उनके सामने समाज की तस्वीर भी रखते हैं।”

कई घंटों तक घूमते-घूमते कुणाल थक गया, लेकिन उसका मन और अधिक देखने को लालायित था। हर गली में प्रवेश करते ही उसे एक नई दुनिया मिल रही थी—कहीं बच्चे नाच रहे थे, कहीं महिलाएँ आरती गा रही थीं, तो कहीं बुजुर्ग लोग बैठकर बप्पा की कहानियाँ सुना रहे थे। ढोल-ताशों की गूंज से गलियाँ जीवंत हो उठी थीं। दीयों की रोशनी से अंधेरी रात भी सुनहरी लग रही थी। कुणाल को महसूस हुआ कि यह शहर केवल अपने समुद्र, गगनचुंबी इमारतों या फिल्मी दुनिया से नहीं, बल्कि अपनी गलियों के इस उत्सव से ज़िंदा है। यह उत्सव सिर्फ़ श्रद्धा नहीं, बल्कि एक साझा धड़कन है जिसमें कला, संस्कृति और इंसानियत एक साथ गूँजती है। उसने मन ही मन लिखा—“मुंबई की गलियाँ तंग हो सकती हैं, पर इनके दिल इतने विशाल हैं कि हर आने-जाने वाले को अपनी धड़कन का हिस्सा बना लेती हैं। यहाँ आस्था कला में ढल जाती है और कला आस्था में। शायद इसी वजह से यह शहर कभी थकता नहीं।” उस रात जब कुणाल अपने होटल लौटा, तो उसके कानों में अब भी ढोल-ताशों की गूंज थी और आँखों में हर गली का रंगीन चेहरा। उसे यक़ीन हो गया था कि मुंबई का असली जादू इन्हीं गलियों की नब्ज़ में धड़कता है।

गणेशोत्सव के छठे दिन की शाम, मीरा कुणाल को अपने एक खास दोस्त से मिलवाने ले गई। “आज तुम्हें किसी ऐसे से मिलवाऊँगी जो इस उत्सव की असली धड़कन है,” उसने मुस्कुराते हुए कहा। थोड़ी देर बाद वे दोनों एक खुले मैदान में पहुँचे जहाँ रंग-बिरंगी रोशनियों और सजावट के बीच युवाओं की भीड़ जमा थी। ढोल-ताशों की ताल पर नृत्य का अभ्यास चल रहा था। हवा में ढोलक की गहरी थाप और झांज की तेज़ गूंज गूँज रही थी, जो दिल की धड़कन से तालमेल करती लग रही थी। तभी एक लंबी चोटी वाली, पारंपरिक नौवारी साड़ी पहने युवती उनकी ओर बढ़ी। उसकी आँखों में आत्मविश्वास और चेहरे पर सहज मुस्कान थी। मीरा ने परिचय कराया—“ये हैं रुचि, मेरी सबसे अच्छी दोस्त और इस नृत्य मंडली की जान।” रुचि ने कुणाल का हाथ मिलाते हुए कहा—“स्वागत है। आज आप सिर्फ़ दर्शक नहीं रहेंगे, बल्कि हमारे साथ थिरकेंगे भी।” कुणाल हँस पड़ा, लेकिन उसके भीतर उत्सुकता और थोड़ी घबराहट दोनों साथ-साथ उमड़ रहे थे। मैदान में फैली ऊर्जा इतनी प्रबल थी कि उसे लगा जैसे वह किसी महोत्सव के बीच खड़ा हो।

रुचि की मंडली में अलग-अलग उम्र और पृष्ठभूमि के युवा थे—कोई कॉलेज का छात्र, कोई नौकरीपेशा, तो कोई मोहल्ले का साधारण लड़का। लेकिन सबका जुनून एक था—गणपति बप्पा के सम्मान में नृत्य। लड़के धोती-कुर्ता पहनकर और लड़कियाँ रंग-बिरंगी साड़ियों में सजकर पारंपरिक ढंग से तैयार थे। जैसे ही ढोल की गहरी थाप गूँजी, पूरी मंडली लय में आ गई। उनके कदम ज़मीन पर पड़ते ही धूल उछलती और ताल की गूंज आकाश तक पहुँचती। नृत्य के बीच-बीच में “गणपति बप्पा मोरया!” का जयघोष गूँजता, और हर कोई और अधिक जोश से भर जाता। कुणाल मंत्रमुग्ध होकर यह दृश्य देख रहा था। उसने महसूस किया कि यह केवल नृत्य नहीं, बल्कि भक्ति का जीवंत रूप है—हर थिरकन, हर ताल बप्पा को समर्पित है। रुचि आगे बढ़ी और बोली—“आइए, अब आपकी बारी है।” कुणाल ने पहले झिझकते हुए कदम बढ़ाए, लेकिन जैसे ही ढोल की धड़कन ने उसके दिल को छुआ, उसके पाँव खुद-ब-खुद थिरकने लगे। मीरा और रुचि की हँसी और बाकी मंडली की तालियों ने उसका आत्मविश्वास और बढ़ा दिया। धीरे-धीरे वह भी उसी लय में आ गया, मानो वर्षों से यही नृत्य करता आया हो।

कई घंटों तक मंडली नाचती रही। हर बार जब ताल बदलती, युवा नई ऊर्जा के साथ ज़ोर से कूदते, झूमते और हाथ हवा में लहराते। चेहरों पर पसीना बह रहा था, लेकिन आँखों में आनंद और संतोष झलक रहा था। कुणाल ने महसूस किया कि यह मंडली केवल नृत्य का समूह नहीं, बल्कि एक परिवार है। यहाँ हर कोई एक-दूसरे को प्रेरित कर रहा था, हर गलती पर हौसला बढ़ा रहा था, और हर थिरकन में अपनी आत्मा झोंक रहा था। जब अभ्यास खत्म हुआ, तो मंडली के सभी सदस्य कुणाल के पास आए और बोले—“आप अब हमारे अपने हो गए हैं।” कुणाल की आँखें चमक उठीं। उसने मन ही मन सोचा—“मैं इस शहर में अकेला आया था, लेकिन अब मेरे पास अपना एक परिवार है, जो मुझे ढोल-ताशों की धड़कन पर अपनापन सिखा रहा है।” उस रात होटल लौटते समय उसके कानों में अब भी ताल गूँज रही थी और दिल में एक गहरी तृप्ति थी। उसे लगा कि मुंबई ने उसे सिर्फ़ शहर की झलक नहीं, बल्कि अपनी आत्मा का हिस्सा बना लिया है।

गणेशोत्सव का सातवाँ दिन था, और मुंबई की गलियों में उत्सव का जोश अपने चरम पर पहुँच चुका था। कुणाल और मीरा भीड़ के साथ एक संकरी गली में पहुँचे, जहाँ चारों तरफ़ रोशनी, फूल और जयकारों की गूंज थी। हवा में अगरबत्ती और मोदक की खुशबू घुली हुई थी, लेकिन इस पूरे शोर के बीच भी एक चीज़ थी जो हर दिल की धड़कन पर हावी थी—ढोल की थाप। कुणाल की नज़र अनायास ही उस मंडली पर गई जहाँ दर्जनों युवा ढोल बजा रहे थे। उनके कंधों पर लटके भारी-भरकम ढोल, माथे पर बंधे लाल पट्टे और पसीने से भीगे चेहरे—सब मिलकर एक अद्भुत ऊर्जा फैला रहे थे। लेकिन उन सबके बीच एक चेहरा सबसे अलग चमक रहा था—एक लंबे, दुबले-से युवक का, जिसकी हर थाप इतनी शक्तिशाली थी कि पूरी गली गूँज उठती थी। वह था शिवा। उसके हाथों की गति इतनी तीव्र और सटीक थी कि हर बीट दिल को छू जाती थी। कुणाल कुछ देर तक मंत्रमुग्ध होकर उसे देखता रहा, मानो यह कोई साधारण वाद्य नहीं, बल्कि आत्मा का संगीत था जो गली की दीवारों और आसमान तक गूँज रहा था।

मीरा ने मुस्कुराते हुए कान में कहा—“वो है शिवा। इस गली की जान। ढोल उसका सिर्फ़ शौक़ नहीं, उसकी पहचान है।” तभी शिवा ने एक ज़ोरदार थाप मारी और ढोल की गूंज से मानो ज़मीन कांप उठी। भीड़ से “गणपति बप्पा मोरया!” का जयकारा गूंजा और लोग ताल के साथ नाचने लगे। कुणाल का मन भीतर तक हिल गया। वह भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ा और शिवा के पास पहुँचा। बजाते-बजाते ही शिवा ने मुस्कुराकर कहा—“भैया, ये ढोल सिर्फ़ आवाज़ नहीं, हमारी आत्मा है। जब हम बजाते हैं, तो बप्पा हमारे दिल से निकलकर हर थाप में बस जाते हैं।” उसकी आँखों में एक आग थी, एक जुनून जो शब्दों से परे था। कुणाल ने महसूस किया कि यह महज़ संगीत नहीं, बल्कि भक्ति का विस्फोट है। हर थाप में समर्पण, हर गूंज में प्रेम और हर ताल में आस्था की शक्ति थी। उसे लगा जैसे पूरी गली की दीवारें, आसमान और लोगों के दिल इस ताल से बंध गए हों। उस पल कुणाल को एहसास हुआ कि मुंबई की आत्मा सिर्फ़ रोशनी, पंडाल या नृत्य में नहीं, बल्कि उन हाथों में है जो ढोल बजाकर इस शहर की धड़कन को जीवित रखते हैं।

कुछ देर बाद शिवा ने ढोल कुणाल की ओर बढ़ाया और कहा—“आज़माइए, भैया।” कुणाल पहले तो हिचकिचाया, लेकिन फिर उसने ढोल की मोटी चमड़ी पर हाथ मारा। एक थाप गूँजी, पर उसमें न तो ताक़त थी, न आत्मा। शिवा हँस पड़ा और बोला—“दिल से बजाइए, वरना आवाज़ तो कोई भी कर सकता है।” यह कहते हुए उसने कुणाल का हाथ पकड़कर ताल सिखाई। धीरे-धीरे कुणाल ने लय पकड़नी शुरू की। जब उसने एक साथ कई थापें सही ताल पर मारीं, तो भीड़ से तालियाँ गूंज उठीं। मीरा ने दूर से अंगूठा उठाकर उसकी हिम्मत बढ़ाई। उस पल कुणाल ने एक गहरी अनुभूति की—वह अब सिर्फ़ पर्यटक नहीं रहा, वह इस उत्सव का हिस्सा बन गया था। शिवा ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा—“अब आप भी इस गली के अपने हो गए, भैया।” ढोल की लगातार गूंज और जयकारों के बीच कुणाल की आँखें भर आईं। उसे लगा मानो इस शहर ने उसे अपनाने के लिए अपनी धड़कन ही उसके हाथों में सौंप दी है। और वह धड़कन थी—ढोल की थाप।

गणेशोत्सव का दसवाँ दिन मुंबई में एक अलग ही रंग लेकर आता है। सुबह से ही हवा में एक अजीब-सी हलचल और गहरी भावनाएँ तैर रही थीं। पूरे शहर की गलियाँ फूलों की मालाओं, रंग-बिरंगे झंडों और रोशनी से सजी थीं। हर तरफ़ से “गणपति बप्पा मोरया, पुडचा वर्षी लवकर या!” का नारा गूंज रहा था। कुणाल होटल से निकलते ही इस लहर को महसूस करने लगा—लोग छोटे-बड़े गणपति की मूर्तियों को सजे-धजे ट्रकों और हाथगाड़ियों पर रखकर, जयकारों के साथ जुलूस में समुद्र की ओर ले जा रहे थे। मीरा और उसकी मंडली भी तैयार थी; हर किसी ने पारंपरिक कपड़े पहने थे, ढोल-ताशों की थाप पर उनके कदम अपने-आप थिरक रहे थे। जब वे सब चौपाटी बीच की ओर निकले, तो ऐसा लग रहा था जैसे पूरा शहर एक साथ चल पड़ा हो। बच्चे कंधों पर छोटे गणपति उठाए नाचते हुए जा रहे थे, महिलाएँ आरती की थालियाँ लिए गा रही थीं, और युवाओं का उत्साह तो देखने लायक था। इस भीड़ और ऊर्जा के बीच कुणाल को ऐसा अनुभव हो रहा था मानो वह किसी साधारण उत्सव में नहीं, बल्कि पूरे शहर की आत्मा की यात्रा में शामिल है।

सड़क पर हर कदम पर अलग-अलग मंडलियों के जुलूस मिलते। कहीं भव्य मूर्ति हाथी पर विराजमान थी, कहीं गणपति को समुद्र के राजा की तरह सजाया गया था। ट्रकों पर बने थीम पंडाल चलते-चलते जैसे शहर की कहानियाँ सुना रहे थे—कहीं स्वच्छता का संदेश, कहीं शिक्षा का महत्व, तो कहीं भाईचारे का चित्रण। और इन सबके बीच ढोल-ताशों की आवाज़ धड़कन की तरह गूंज रही थी। मीरा ने उत्साह से कहा—“देखो कुणाल, यही है विसर्जन का असली रंग। यहाँ हर गली, हर मोहल्ला अपनी पहचान के साथ बप्पा को विदा करने आया है।” कुणाल की आँखें चारों ओर घूम रही थीं। उसने देखा कि बूढ़े, जवान, बच्चे—हर कोई इस यात्रा का हिस्सा था। एक तरफ़ बच्चे फूल उड़ाते हुए ‘बप्पा मोरया’ चिल्ला रहे थे, दूसरी तरफ़ बुज़ुर्ग महिलाएँ नम आँखों से आरती गा रही थीं। यह दृश्य एक साथ उत्सव और विदाई दोनों की भावना लिए हुए था। कुणाल के दिल में हल्की उदासी भी घर करने लगी, क्योंकि उसे लगा कि यह सिर्फ़ मूर्ति का विसर्जन नहीं, बल्कि उन दस दिनों की यादों को भी विदा करने जैसा है।

जैसे-जैसे वे चौपाटी बीच के करीब पहुँचे, भीड़ और गहरी होती गई। समुद्र की लहरों के साथ मिलती ढोल की आवाज़ किसी अद्भुत संगीत जैसी लग रही थी। दूर तक रेत पर असंख्य मूर्तियाँ रखी थीं, और हर मंडली अपने-अपने गणपति को अंतिम विदाई देने की तैयारी कर रही थी। आकाश में हज़ारों रोशनी चमक रही थीं—झूमर, झालर और लोगों के मोबाइल कैमरों की फ्लैश। पूरा वातावरण आस्था और ऊर्जा से भरा था, लेकिन उसके भीतर एक भावुक ख़ामोशी भी थी, मानो सबके दिल कह रहे हों—“बप्पा, जल्दी लौट आना।” कुणाल ने पहली बार देखा कि कैसे पूरा शहर एक साथ समुद्र की ओर बढ़ रहा है, मानो यह सागर न सिर्फ़ पानी का, बल्कि भावनाओं का अथाह कुआँ है, जो हर घर, हर गली का प्रेम समेट लेता है। उसने मीरा की ओर देखा, जिसकी आँखों में चमक और नमी दोनों थीं। उसने धीरे से कहा—“यही है मुंबई की सबसे बड़ी ताक़त, कुणाल। यहाँ लोग बप्पा को समंदर में भेजते हैं, लेकिन दिल में हमेशा बसाए रखते हैं।” उस पल कुणाल को लगा कि यह यात्रा सिर्फ़ गणपति की नहीं, बल्कि उसकी अपनी आत्मा की भी है, जिसने इस शहर की धड़कन को समझ लिया है।

चौपाटी का किनारा उस रात किसी तीर्थस्थल जैसा लग रहा था। रेत पर असंख्य गणपति मूर्तियाँ अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही थीं, और हर मूर्ति के सामने आस्था और भावनाओं से भरे भक्त खड़े थे। विशाल मूर्तियों को ट्रकों और हाथगाड़ियों से धीरे-धीरे नीचे उतारा जा रहा था, मानो किसी प्रियजन को अंतिम बार विदाई दी जा रही हो। कुणाल ने देखा कि जिस मूर्ति को वह दो दिन पहले लालबाग के पंडाल में देखकर चकित रह गया था, वही अब सैकड़ों लोगों के कंधों पर सवार होकर समुद्र की ओर बढ़ रही है। हवा में लगातार ढोल-ताशों की गूंज, शंख की आवाज़ और लोगों की तालियों का मिश्रण एक ऐसा वातावरण बना रहा था, जो भीतर तक हिला देता था। मीरा ने उसके कान में फुसफुसाकर कहा—“अब देखो, असली क्षण आ गया है।” कुणाल की आँखें मूर्ति पर टिकी थीं; उसकी भव्यता, सजावट और लोगों की श्रद्धा—सब कुछ एक साथ उसे भावविभोर कर रहे थे।

भीड़ एक स्वर में पुकार रही थी—“गणपति बप्पा मोरया, पुढच्या वर्षी लवकर या!” यह केवल एक नारा नहीं था, बल्कि एक सामूहिक प्रतिज्ञा थी, एक भावनात्मक रिश्ता जिसे हर दिल ने बप्पा से जोड़ रखा था। बच्चे फूलों की पंखुड़ियाँ उछाल रहे थे, महिलाएँ आरती गाते हुए नम आँखों से हाथ जोड़ रही थीं, और पुरुष ढोल की थाप के साथ नृत्य कर रहे थे। कुणाल ने महसूस किया कि यह क्षण किसी उत्सव का अंत नहीं, बल्कि उसकी आत्मा की धड़कनों में गूंजता हुआ एक वादा है—अगले साल फिर से लौट आने का। जब मूर्ति को कंधों पर उठाकर समुद्र की लहरों की ओर ले जाया गया, तो भीड़ एक साथ आगे बढ़ी। उस दृश्य में कुछ ऐसा था जो किसी साधारण आँख से नहीं, दिल से देखा जा सकता था। समुद्र की ओर जाते हर कदम के साथ लोगों के चेहरों पर गर्व, श्रद्धा और उदासी एक साथ चमक रही थी। कुणाल के लिए यह अद्भुत था कि कैसे एक मूर्ति, जो मिट्टी से बनी थी, लाखों दिलों का केंद्र बन जाती है और फिर उसी मिट्टी में लौट जाती है।

जैसे ही मूर्ति को धीरे-धीरे लहरों में उतारा गया, समुद्र की गर्जना और लोगों के जयकारे एक साथ गूंज उठे। पूरा वातावरण थर्रा गया। कुणाल की आँखों से आँसू छलक पड़े; यह सिर्फ़ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन का गहरा संदेश था—आना, रहना और फिर लौट जाना। उसने देखा कि कैसे लोग नम आँखों के बावजूद मुस्कुरा रहे थे, क्योंकि वे जानते थे कि बप्पा अगले साल फिर आएँगे। भीड़ तितर-बितर होने लगी, लेकिन हवा में अभी भी “बप्पा मोरया” की गूंज बाकी थी। मीरा ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा—“याद रखना कुणाल, यहाँ विदाई में भी मिलन छिपा है। यह शहर ऐसे ही जीता है।” उस पल कुणाल समझ गया कि यह उत्सव केवल मूर्ति की पूजा नहीं, बल्कि विश्वास और आशा की निरंतरता है। समुद्र की लहरें जैसे वचन दे रही थीं कि यह बंधन कभी टूटेगा नहीं। कुणाल ने गहरी सांस ली और मन ही मन बप्पा से प्रार्थना की—“पुढच्या वर्षी लवकर या।”

१०

रात का सन्नाटा धीरे-धीरे शहर पर उतर रहा था, लेकिन कुणाल के मन में गणेशोत्सव की गूंज अब भी उतनी ही तीव्र थी। होटल के कमरे में लौटकर उसने खिड़की से बाहर झांका—मुंबई की सड़कें थकी हुई लग रही थीं, मानो दस दिनों की अनगिनत धड़कनों और उत्साह ने उन्हें निढाल कर दिया हो। लेकिन उस थकान के पीछे एक अजीब-सी चमक थी, जैसे शहर की आत्मा मुस्कुरा रही हो। कहीं दूर से अब भी “बप्पा मोरया” की हल्की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ रही थी। कुणाल अपने बैग से डायरी निकालकर मेज़ पर बैठ गया। उसने पेन उठाया और लिखना शुरू किया, पर शब्द उसके मन के तूफ़ान के आगे छोटे पड़ रहे थे। हर पन्ने पर उसे वही दृश्य दिख रहा था—लालबागचा राजा का भव्य रूप, गलियों की रंगीन सजावट, ढोल की थाप पर थिरकते कदम, और समुद्र की लहरों में विलीन होती मूर्तियाँ। उसने लिखा—“मुंबई ने मुझे आस्था, कला और एकता का असली रूप दिखाया। यहाँ लोग सिर्फ़ त्योहार नहीं मनाते, बल्कि अपने दिलों को एक धड़कन में जोड़ते हैं। यह शहर सिर्फ़ जिया नहीं जाता, यह तो महसूस किया जाता है।” उसके शब्दों में उसी क्षण की सच्चाई थी, जो उसने हर गली, हर जयकारे और हर आँसू में महसूस की थी।

डायरी लिखते-लिखते उसे मीरा, रुचि, शिवा और सुनीता काकी के चेहरे याद आए। उन सबने मिलकर उसे यह एहसास कराया था कि मुंबई में अजनबी कोई नहीं होता। यहाँ त्योहार सिर्फ़ धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि एक पुल है, जो हर वर्ग, हर धर्म और हर उम्र को जोड़ता है। उसे याद आया कि कैसे शिवा ने कहा था—“ढोल सिर्फ़ आवाज़ नहीं, हमारी आत्मा है।” सचमुच, उसने इन दिनों में हर ताल, हर नृत्य और हर आरती में शहर की आत्मा को महसूस किया था। मीरा का वह वाक्य भी गूंजा—“याद रखना, यहाँ विदाई में भी मिलन छिपा है।” यह बात उसके दिल में गहरी उतर गई। विसर्जन के क्षण में जो आँसू उसकी आँखों से बहे थे, वे दुख के नहीं, बल्कि इस विश्वास के थे कि यह रिश्ता कभी टूटेगा नहीं। कुणाल ने महसूस किया कि यह यात्रा उसके लिए एक साधारण अनुभव नहीं, बल्कि जीवन का सबक थी। उसने डायरी में लिखा—“मुंबई ने मुझे सिखाया कि एक शहर सिर्फ़ इमारतों से नहीं, बल्कि उन धड़कनों से बनता है, जो मिलकर सामूहिक आस्था की लौ जलाती हैं।”

डायरी बंद करके उसने गहरी सांस ली और अपने दिल में एक वादा किया। उसने मन ही मन कहा—“बप्पा, अगले साल फिर आऊँगा, आपकी थाप पर नाचूँगा, मोदक खाऊँगा और इस शहर की धड़कन का हिस्सा बनूँगा।” वह जानता था कि अब मुंबई सिर्फ़ एक शहर नहीं रहा, बल्कि उसकी आत्मा का हिस्सा बन चुका है। खिड़की से झांकते हुए उसने देखा कि दूर क्षितिज पर समुद्र चमक रहा था, मानो लहरें भी उसे विदा करते हुए कह रही हों—“पुढच्या वर्षी लवकर या।” उसके होंठों पर मुस्कान थी और आँखों में चमक। उस रात उसने नींद में भी जयकारे सुने, भीड़ के चेहरे देखे और समुद्र की गूंज महसूस की। कुणाल ने ठान लिया था कि यह उसकी पहली और आखिरी यात्रा नहीं होगी। मुंबई ने उसे अपनेपन से बाँधा था, और गणपति बप्पा ने उसे आशा, प्रेम और एकता का संदेश दिया था। डायरी के अंतिम पन्ने पर उसने लिखा—“यह यात्रा पूरी नहीं हुई, यह तो अभी शुरू हुई है।”

समाप्त

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