Hindi - प्रेतकथा

भूलभुलैया हवेली

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राजस्थान की तपती दोपहर में जब रेत के ढेर सुनहरी चमक बिखेर रहे थे, उसी समय वीरेंद्र राठौड़ अपने सफर की थकान झेलते हुए गाँव में पहुँचा। गाँव छोटा था, लेकिन सदियों पुराने किलेनुमा घरों और मिट्टी के झोपड़ों से भरा हुआ। हर गली से गुजरते हुए उसे महसूस होता कि लोग उसे एक अजीब नज़र से देख रहे हैं—जैसे उसकी पहचान उनसे अलग हो, जैसे उसका मक़सद उन्हें पहले ही मालूम हो। गाँव के चौपाल पर बैठे बूढ़े धीरे-धीरे आपस में फुसफुसाते, और बच्चे डरते-डरते उसके बैग को देखते, मानो किसी अनजाने यात्री का सामान हमेशा रहस्य से भरा होता है। वीरेंद्र की आँखों में बेचैनी थी, लेकिन उस बेचैनी के पीछे एक अटूट जिज्ञासा भी झलकती थी। यह वही गाँव था जिसके बाहर खड़ी थी वह हवेली—सदियों पुरानी, टूटी-फूटी, पर अब भी अपनी छाया से लोगों के दिलों पर राज करने वाली। बचपन से ही उसने अपने पिता से इस हवेली की कहानियाँ सुनी थीं; वही पिता जो एक दिन अचानक इसी हवेली के अंदर गुम हो गए और फिर कभी लौटकर न आए। गाँव वालों का कहना था कि हवेली लोगों को निगल लेती है, लेकिन वीरेंद्र के लिए यह महज़ अफवाह नहीं बल्कि उसकी अपनी ज़िंदगी का ज़ख्म था।

गाँव के सबसे पुराने व्यक्ति, भीम काका, जिनकी उम्र सत्तर के पार थी, चौपाल के किनारे बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उनका चेहरा गहरी झुर्रियों से भरा था और आँखों में समय की मार से पैदा हुई थकान साफ झलकती थी। वीरेंद्र उनके पास गया और आदर से बोला, “काका, मुझे हवेली के बारे में सब जानना है।” भीम काका का चेहरा जैसे पत्थर की तरह कठोर हो गया। उन्होंने लंबा कश खींचा और भारी आवाज़ में कहा, “बाबूसा, तूने गलत जगह कदम रख दिया है। वो हवेली किसी खजाने का नहीं, मौत का घर है। जिस-जिस ने उसमें कदम रखा, वो फिर कभी गाँव की हवा नहीं देख पाया। तुम्हारे बाप भी उसी हवेली में गए थे—और लौटकर न आए। तू क्यों उसी राह पर जा रहा है?” उनकी बातों में चेतावनी थी, मगर वीरेंद्र के दिल में एक और ही आग जल रही थी। उसने धीमी मगर दृढ़ आवाज़ में कहा, “काका, मैं सिर्फ खजाने के लिए नहीं जा रहा। मेरे पिता का सच वहीं छिपा है। अगर हवेली शापित है, तो मैं उस शाप को तोड़ूँगा।” भीम काका ने हुक्का नीचे रखा, उनकी आँखों में एक पल को डर और दया दोनों झलके, फिर उन्होंने सिर झुका लिया—मानो उन्हें यकीन हो गया हो कि अब यह लड़का भी हवेली के शिकंजे से बच नहीं पाएगा।

शाम ढलने लगी थी और आसमान में अरुणिमा फैल रही थी। वीरेंद्र अपने छोटे से कमरे में बैठा खिड़की से दूर हवेली को देख रहा था। हवेली गाँव से थोड़ी दूरी पर ऊँचे नीम और पीपल के पेड़ों के बीच खड़ी थी। उसका काला-साया शाम की लालिमा में और भी डरावना लगता। टूटी हुई छतें, जर्जर खिड़कियाँ और झुके हुए बुर्ज किसी कब्रिस्तान से कम भयावह नहीं लगते थे। कहते हैं कि रात को हवेली की टूटी खिड़कियों से हल्की रोशनी झिलमिलाती है और कभी-कभी वहाँ से औरतों की करुणा-भरी चीखें सुनाई देती हैं। वीरेंद्र का दिल धड़क रहा था, मगर डर से नहीं—बल्कि उस दृढ़ निश्चय से कि वह कल सुबह हवेली में प्रवेश करेगा। गाँव की हवा ठंडी हो चुकी थी, झींगुरों की आवाज़ें गूँज रही थीं, और चाँद की रोशनी हवेली पर पड़कर उसे और रहस्यमयी बना रही थी। वीरेंद्र ने अपने पिता का पुराना लॉकेट निकाला, जिसे वह हमेशा गले में पहनता था। वह लॉकेट मानो उसे साहस दे रहा था। आँखें बंद कर उसने कसम खाई—“पिताजी, मैं सच को जानकर रहूँगा। चाहे हवेली मुझे निगल ले, लेकिन मैं इस रहस्य को खत्म किए बिना चैन से नहीं बैठूँगा।” हवेली की छाया दूर तक फैली हुई थी, और वीरेंद्र के लिए अब यह छाया किसी भय का नहीं, बल्कि अपने भाग्य की पुकार का प्रतीक थी।

सुबह की पहली किरणों ने जैसे ही गाँव के आँगनों को रोशन किया, वीरेंद्र ने अपने बैग को कसकर कंधे पर डाला और हवेली की ओर चल पड़ा। रास्ता सुनसान था, दोनों ओर सूखी झाड़ियाँ और बबूल के पेड़ हवा में कराहते हुए झूल रहे थे। गाँव के लोग दूर से उसे जाते देख चुपचाप दरवाज़ों और खिड़कियों के पीछे छिप गए, मानो उनकी आँखों में यह विश्वास हो कि वह युवक अब कभी वापस नहीं आएगा। वीरेंद्र के कदम भारी ज़रूर थे, पर उसकी आँखों में दृढ़ निश्चय चमक रहा था। हवेली के पास पहुँचते ही उसकी साँसें थम-सी गईं—वह इमारत सचमुच किसी विशाल राक्षस की तरह खड़ी थी। टूटी-फूटी दीवारें, जिन पर बेलें और काई उग आई थी, मानो समय की परतों में दबा हुआ कोई रहस्य हो। विशाल दरवाज़े पर लगे ज़ंग खाए किवाड़ हवा के झोंके से चीखने लगे, जैसे उसे भीतर आने से रोक रहे हों। मगर वीरेंद्र ने अपनी उंगलियाँ दरवाज़े पर रखीं और ज़ोर से धक्का दिया। दरवाज़ा कर्र-कर्र की आवाज़ करता हुआ खुला और भीतर से एक ठंडी हवा का झोंका बाहर आया—जिसमें सड़न, धूल और किसी अज्ञात भय की गंध थी। यह वही क्षण था जब वीरेंद्र ने हवेली की देहरी पार की और एक ऐसी दुनिया में कदम रखा, जिसका हर कोना रहस्यों से भरा था।

हवेली का आंतरिक दृश्य और भी भयावह था। टूटे झूमरों से लटकती मकड़ी के जाले, दीवारों पर धुंधले पड़ चुके राजपूताना चित्र, और फर्श पर बिखरी टूटी टाइलें, सब मिलकर ऐसा आभास देते जैसे समय यहाँ ठहर गया हो। हर कमरे के दरवाज़े आधे खुले थे, अंधेरे गलियारों से धूल की परतें उड़ती हुई उसकी आँखों में चुभ रही थीं। वीरेंद्र धीरे-धीरे कदम बढ़ाता रहा, मशाल की रोशनी कमरे की दीवारों पर विचित्र छायाएँ बना रही थी। अचानक उसकी नज़र एक चित्र पर पड़ी—एक युवा राजकुमारी का चित्र, जिसकी आँखें उसे घूर रही थीं। ऐसा लगा मानो चित्र में कैद वह चेहरा ज़िंदा हो और उसकी हर हरकत पर नज़र रख रहा हो। वीरेंद्र के गले में लटका लॉकेट अनायास हिलने लगा, जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे छुआ हो। उस पल उसके मन में हल्की दहशत ने जन्म लिया, मगर उसने खुद को संयत किया। वह सोच रहा था कि क्या यह वही राजकुमारी है, जिसकी रहस्यमय कहानियाँ गाँव के बुज़ुर्गों ने सुनाई थीं—वही जो हवेली की आत्मा बनकर आज भी यहाँ भटकती है। समय तेजी से बीत रहा था, सूरज ढलने लगा था और हवेली के भीतर का अंधेरा गहराता जा रहा था। वीरेंद्र ने महसूस किया कि रात होने से पहले बाहर निकलना अब संभव नहीं है, इसलिए उसने तय किया कि वह हवेली के मुख्य हाल में ही ठहरकर रात बिताएगा।

जैसे ही रात का सन्नाटा हवेली पर छा गया, वीरेंद्र को पहली बार कुछ अजीब-सी आहटें सुनाई दीं। हवेली की दीवारें जैसे कराह रही हों, लकड़ी के दरवाज़े अपने आप चरमराने लगे। अचानक उसे साफ सुनाई दिया—कोई फुसफुसा रहा है, बहुत धीमी आवाज़ में, मगर स्पष्ट। उसने ध्यान से सुना और उसकी रीढ़ में सिहरन दौड़ गई—“वीर… वीर…”। यह आवाज़ न तो पुरुष की थी और न स्त्री की, बल्कि दोनों का मिश्रण लगती थी—मानो मृत आत्माओं की भीड़ उसकी पुकार कर रही हो। वीरेंद्र का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। वह मशाल को कसकर पकड़े खड़ा हो गया और आवाज़ के स्रोत को ढूँढ़ने लगा, मगर कमरे में उसके अलावा कोई नहीं था। हवा रुक गई थी, लेकिन फुसफुसाहट और तेज़ होती जा रही थी, जैसे हवेली की हर दीवार उसे पुकार रही हो। उसने सोचा कि यह उसका भ्रम है, लेकिन तभी उसे लगा कि कोई परछाई दीवारों पर सरक रही है। अचानक झूमर हिला और टूटी हुई काँच की बूँदें ज़मीन पर गिरकर खनक उठीं। वीरेंद्र के पैरों तले ज़मीन डगमगाने लगी, जैसे पूरी हवेली ज़िंदा हो और उसे अपनी गिरफ्त में लेने की कोशिश कर रही हो। उसका गला सूख गया, मगर उसने मन ही मन पिता का नाम लिया और धीरे-धीरे अपनी मशाल उठाकर दीवार पर नज़रें गड़ा दीं। आवाज़ें थम गईं, पर उस थमे हुए क्षण में वीरेंद्र को साफ-साफ अहसास हुआ कि कोई अदृश्य शक्ति उसके बेहद करीब है—इतनी करीब कि उसकी साँसों की नमी वीरेंद्र की गर्दन पर महसूस हो रही थी। यह सिर्फ शुरुआत थी, और वीरेंद्र समझ गया कि हवेली का हर कोना अब उससे संवाद करने वाला है—कभी डर से, कभी रहस्य से, और कभी उन सच्चाइयों से जिन्हें सुनने का साहस हर किसी में नहीं होता।

सुबह का सूरज गाँव के आकाश में धीमे-धीमे चढ़ रहा था, लेकिन वीरेंद्र की आँखों में पिछली रात का भय अब भी ताज़ा था। हवेली में दीवारों से आती फुसफुसाहटें, झूमर का अचानक हिलना, और अदृश्य परछाइयों का पीछा करना—ये सब उसे बेचैन कर चुके थे। मगर उस बेचैनी के साथ-साथ उसके भीतर एक गहरी जिज्ञासा भी जन्म ले चुकी थी, जो उसे हवेली से बाहर नहीं निकलने दे रही थी। गाँव के चौपाल पर लौटते समय उसने देखा कि एक युवती वहाँ खड़ी है। साधारण सफेद सूती कुर्ता और हाथ में पुरानी चामड़े की जिल्द में बंधी किताब लिए, वह बाकी ग्रामीणों से बिल्कुल अलग दिख रही थी। उसकी आँखों में चमक थी, मानो वह भी उसी रहस्य से जुड़ी हो जो हवेली के अंधेरों में कैद था। वीरेंद्र ने उसके पास जाकर पूछा, “आप कौन हैं? यहाँ नई लग रही हैं।” युवती मुस्कुराई और बोली, “मेरा नाम मीरा है। मैं इतिहास की शोधकर्ता हूँ और कई महीनों से इस हवेली के बारे में पढ़ाई कर रही हूँ। जब सुना कि कोई नौजवान वहाँ गया है और सुरक्षित लौट आया, तो मुझे लगा कि यह संयोग नहीं हो सकता। शायद हम दोनों की राहें इसी रहस्य ने मिलाई हैं।” वीरेंद्र चौंक गया, क्योंकि अब तक उसने किसी बाहरी को हवेली के बारे में इतनी गंभीरता से बात करते नहीं सुना था।

मीरा ने अपनी किताब खोली और उसमें बने शिलालेखों के चित्र वीरेंद्र को दिखाए। ये वही प्रतीक थे जिन्हें वीरेंद्र ने हवेली की दीवारों पर रात में देखा था। उसने कहा, “ये चिन्ह ठाकुर रुद्रप्रताप के समय के हैं। ठाकुर ने इस हवेली को सिर्फ रहने के लिए नहीं, बल्कि खजाना छिपाने और अपनी सत्ता को अमर करने के लिए बनवाया था। लेकिन उसके लालच ने उसे शापित कर दिया। कहते हैं कि उसने अपनी ही बेटी चंद्रिका को दीवारों में कैद कर दिया, ताकि खजाने की रक्षा हमेशा बनी रहे।” मीरा की आवाज़ में न सिर्फ़ शोध का आत्मविश्वास था, बल्कि उस कहानी के प्रति संवेदनशीलता भी। वीरेंद्र ने गहरी साँस ली और बोला, “तो जो आत्मा मैंने कल रात महसूस की, वो शायद वही चंद्रिका है…।” मीरा ने सिर हिलाया, “हाँ, और उसका दर्द अब भी इस हवेली की दीवारों में कैद है। इसीलिए हवेली हर आगंतुक को भटका देती है। वह खजाना पाना आसान नहीं, क्योंकि खजाने तक पहुँचने का रास्ता उसी की आत्मा से होकर जाता है।” वीरेंद्र को अब अपने पिता की गुमशुदगी और भी स्पष्ट समझ आने लगी। शायद उसके पिता ने भी इसी आत्मा को देखा होगा, और उन्हीं फुसफुसाहटों के बीच गायब हो गए। उसकी आँखों में गुस्सा और पीड़ा दोनों झलक उठे।

दोनों ने तय किया कि वे मिलकर इस रहस्य को उजागर करेंगे। वीरेंद्र को अब अकेलापन महसूस नहीं हो रहा था—मीरा का ज्ञान और दृढ़ता उसके साहस के साथ जुड़कर एक नई शक्ति दे रहे थे। मीरा ने कहा कि उसे हवेली के पीछे वाले हिस्से में एक पुराना तहखाना होने की जानकारी मिली है, जहाँ शायद शिलालेखों का और भी गहरा रहस्य छिपा हो। “लेकिन वहाँ तक पहुँचना आसान नहीं होगा,” उसने चेताया, “क्योंकि हवेली के उस हिस्से को गाँव वाले ‘मृतकों का गलियारा’ कहते हैं। वहाँ अब तक जो भी गया, लौटकर नहीं आया।” वीरेंद्र ने मुस्कुराते हुए कहा, “अगर मुझे अपने पिता का सच जानना है और इस शाप को खत्म करना है, तो मुझे उस गलियारे तक ज़रूर जाना होगा।” मीरा उसकी बात सुनकर थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली, “तो मैं भी साथ चलूँगी। इतिहास सिर्फ़ किताबों में पढ़ने के लिए नहीं होता, कभी-कभी उसे जीना पड़ता है।” उस क्षण दोनों के बीच एक अनकहा रिश्ता जुड़ गया—एक ऐसा रिश्ता जो डर और जिज्ञासा से परे जाकर विश्वास पर खड़ा था। हवेली अब उनके सामने सिर्फ़ एक रहस्य नहीं, बल्कि एक साझा लड़ाई बन चुकी थी। वीरेंद्र ने आकाश की ओर देखा, और हवेली पर छाई काली छाया उसे मानो ललकार रही थी। उसने मन ही मन ठान लिया—अब यह सफर अकेले का नहीं रहा, और अब जो भी सच सामने आएगा, उसे मीरा के साथ मिलकर ही उजागर करना होगा।

वीरेंद्र और मीरा ने उस दिन हवेली का कोना-कोना खंगालने का निश्चय किया था। धूप धीरे-धीरे ढल रही थी और हवेली के लंबे गलियारों में परछाइयाँ और गहरी हो रही थीं। वीरेंद्र ने दीवारों पर हाथ फेरते हुए कहा, “कहीं न कहीं कुछ छुपा है, मीरा। यह हवेली सिर्फ़ डराने के लिए नहीं बनी।” मीरा, अपने नोट्स और नक्शों के सहारे, हर दीवार और स्तंभ को ध्यान से देख रही थी। अचानक उसकी नज़र एक पुराने झरोखे के पास पड़ी दीवार पर गई, जहाँ बाकी दीवारों की तुलना में रंग अलग दिखाई दे रहा था। उसने पास जाकर थपथपाया—धड़ाम-धड़ाम की आवाज़ आई, मानो अंदर खोखली जगह हो। वीरेंद्र ने ज़ोर से धक्का दिया, तो धूल उड़ाते हुए ईंटें खिसकीं और एक छुपा हुआ दरवाज़ा सामने आ गया। दरवाज़े की लकड़ी इतनी पुरानी थी कि उस पर उंगलियाँ रखने भर से चूर्ण झरने लगा। दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा, और उनकी आँखों में भय से ज़्यादा जिज्ञासा चमक रही थी।

दरवाज़ा खोलते ही एक बासी हवा का झोंका बाहर निकला। भीतर एक अंधेरी, संकरी गली फैली हुई थी। वीरेंद्र ने मशाल जलाई और भीतर कदम रखा। जैसे ही मशाल की लौ ने दीवारों को छुआ, वहाँ खुदे हुए प्रतीक चमक उठे। ये राजपूती प्रतीक थे—त्रिशूल, सूर्य और रक्षक योद्धाओं के चित्र। मीरा ने उन्हें देखते हुए कहा, “ये सामान्य चिह्न नहीं हैं, ये शाप और सुरक्षा से जुड़े संकेत हैं। ठाकुर रुद्रप्रताप ने इन्हें किसी गहरे रहस्य को छिपाने के लिए बनवाया होगा।” रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा था, कहीं चौड़ा, कहीं इतना संकरा कि झुककर चलना पड़ता था। दीवारों से नमी टपक रही थी, और हर कदम पर गंध और भी गहरी होती जा रही थी। कभी-कभी ऐसा लगता, मानो किसी ने अभी-अभी वहाँ से होकर गुज़रा हो। उनके पैरों की आहट के साथ-साथ, जैसे किसी और की धीमी चाल भी सुनाई देती थी। वीरेंद्र मशाल को ऊँचा उठाकर आगे बढ़ा, लेकिन अंधेरा हर ओर से उनकी हिम्मत की परीक्षा ले रहा था।

थोड़ी दूर जाने के बाद, रास्ता अचानक दो भागों में बँट गया—एक दाईं ओर जाता था, दूसरा बाईं ओर। दीवार पर बने प्रतीकों को देखकर मीरा ने कहा, “दाईं ओर शक्ति का मार्ग है, और बाईं ओर बलिदान का।” वीरेंद्र ने बिना सोचे कहा, “हमें शक्ति चाहिए।” दोनों दाईं ओर मुड़े, और आगे कुछ ही कदम बाद एक छोटा सा कक्ष दिखाई दिया। वहाँ पत्थर का दरवाज़ा बंद था, जिस पर तलवार और सूर्य का चिह्न उकेरा था। वीरेंद्र ने दरवाज़ा धकेलने की कोशिश की, मगर वह हिला तक नहीं। तभी अचानक दीवार से एक आवाज़ गूंजी—धीमी और भारी, जैसे किसी युगों पुराने प्रहरी की। “जो सत्य चाहता है, उसे बलिदान देना होगा।” वीरेंद्र और मीरा के दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। वे समझ गए थे कि यह सिर्फ़ गुप्त रास्ता नहीं, बल्कि रहस्य और शाप का असली दरवाज़ा है। उनकी आँखों में एक अजीब सा दृढ़ निश्चय था—चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, अब वे पीछे नहीं हटेंगे।

वीरेंद्र और मीरा उस गुप्त मार्ग से निकलकर हवेली के भीतर लौटे ही थे कि अचानक वातावरण में एक ठंडी लहर दौड़ गई। हवेली की टूटी-फूटी खिड़कियों से आती चांदनी पूरे प्रांगण में एक अजीब उजास भर रही थी। हवा में किसी अनजाने गंध का अहसास था—मानो चंदन और राख का मिश्रण। तभी वीरेंद्र ने पहली बार उसे देखा। सफेद आँचल ओढ़े, भारी काले केशों के साथ, आँखों में पीड़ा और रोष का समंदर लिए एक स्त्री आकृति उनके सामने आकार लेने लगी। मीरा ने धीरे-से कहा—“यह वही है… चंद्रिका बाई।” उसकी आवाज़ मानो समय को चीरते हुए हवेली की दीवारों से टकराई। चंद्रिका बाई का चेहरा कभी मासूम पीड़ा में सिमट जाता, तो कभी विकराल रूप लेकर भय जगाता। वह कदम-दर-कदम आगे बढ़ती, और हर कदम के साथ हवा में ठंडक और गहराती जाती। वीरेंद्र ने महसूस किया कि उसकी सांसें थम-सी रही हैं। अचानक आत्मा ने भारी स्वर में कहा—“सच जानना है तो क़ुर्बानी देनी होगी।” उसकी आवाज़ ऐसी थी जैसे किसी ने शून्य से होकर सीधे दिल पर चोट की हो। वीरेंद्र की आँखों में पिता की यादें उमड़ आईं—क्या उनके पिता ने भी इसी आत्मा का सामना किया था?

चंद्रिका बाई की आँखें वीरेंद्र पर टिकी थीं, मानो उसे परख रही हों। उसके चारों ओर चमकते धुएँ का आवरण फैला हुआ था, जिसमें बीच-बीच में किसी स्त्री के विलाप और किसी योद्धा की गर्जना जैसी आवाजें मिल जातीं। वह कभी कोमलता से कहती—“मेरी पीड़ा समझो…” और अगले ही क्षण कठोर होकर गूँजती—“रक्त बिना सत्य नहीं मिलेगा।” वीरेंद्र और मीरा दोनों स्तब्ध खड़े थे। मीरा ने साहस बटोरकर पूछा—“ये शाप क्यों है? ठाकुर रुद्रप्रताप ने क्या किया था?” आत्मा ने मीरा की ओर देखा, उसके चेहरे पर क्षणभर के लिए करुणा झलकी, फिर उसने कहा—“धोखा… विश्वासघात… और रक्त। इस हवेली की नींव में ही चीखें दबी हैं।” उसकी आवाज़ दीवारों से टकराकर कई गुना बढ़ गई। अचानक हवेली के झूमर अपने आप हिलने लगे, टूटी खिड़कियों से आंधी का शोर आने लगा और दरवाज़े अपने आप बंद हो गए। वीरेंद्र ने अपनी मुट्ठी भींच ली। वह समझ गया था कि आत्मा सिर्फ डराने के लिए नहीं आई, बल्कि सच उजागर करने के लिए उसे चेतावनी देने आई है।

लेकिन उस चेतावनी का बोझ असहनीय था। “क़ुर्बानी” का क्या मतलब था? क्या आत्मा किसी इंसानी बलि की बात कर रही थी, या यह एक रूपक था किसी त्याग का? वीरेंद्र के मन में प्रश्नों का सैलाब उमड़ आया। चंद्रिका बाई धीरे-धीरे धुंध में विलीन होने लगी, लेकिन जाते-जाते उसकी गूंज हवेली में ठहर गई—“तुम्हें देना होगा… तभी पाओगे…”। वीरेंद्र घुटनों के बल बैठ गया, पसीने से तरबतर। मीरा ने उसका कंधा थामा और कहा—“यह आत्मा हमें सच तक पहुँचाना चाहती है, पर रास्ता आसान नहीं होगा। हमें तय करना होगा कि हम कितना सहन कर सकते हैं।” वीरेंद्र की आँखों में दृढ़ता लौट आई। उसने धीमे स्वर में कहा—“मैं अपने पिता के लिए, इस हवेली की सच्चाई के लिए, और इन पीड़ित आत्माओं की मुक्ति के लिए… हर कीमत चुकाने को तैयार हूँ।” हवेली की टूटी छत से आती चांदनी अब उनके चेहरों पर पड़ रही थी—जैसे अंधेरे के बीच एक दृढ़ निश्चय का प्रकाश।

हवेली की अंधेरी गलियों में मशाल की टिमटिमाती लौ के बीच मीरा ने वह पुराना शिलालेख अपने हाथों से छुआ। पत्थर की सतह पर उकेरे गए अक्षर मानो सदियों से उसके पढ़े जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वीरेंद्र की उत्सुक निगाहें मीरा पर टिकी थीं, और वह सावधानी से एक-एक शब्द पढ़ते हुए जैसे समय की परतें हटाने लगी। शिलालेख में दर्ज था—“यह हवेली सिर्फ ईंट और पत्थर की दीवारों से नहीं बनी, बल्कि पाप और खून की नींव पर खड़ी है।” इन शब्दों के साथ ही वीरेंद्र के भीतर सिहरन दौड़ गई। मीरा ने आगे पढ़ा कि ठाकुर रुद्रप्रताप, जो अपने समय का शक्तिशाली सामंत था, ने अपने साम्राज्य को अजेय बनाने के लिए हवेली के भीतर एक विशाल खजाना छिपाया था। लेकिन खजाने को सिर्फ धन-दौलत के रूप में नहीं देखा जा सकता था—वह सत्ता, अहंकार और क्रूरता का प्रतीक था। रुद्रप्रताप जानता था कि खजाने का रहस्य कभी उजागर हुआ, तो हवेली पर उसका अधिकार खतरे में पड़ सकता है। इसी डर और लालच के बीच उसने एक ऐसा पाप किया, जो हवेली को अनंतकाल के लिए शापित कर गया।

मीरा की आंखों से आंसू छलक पड़े जब उसने आगे पढ़ा। शिलालेख में साफ़ लिखा था कि रुद्रप्रताप ने अपने खजाने की रक्षा के लिए किसी दुश्मन पर नहीं, बल्कि अपने ही खून पर अत्याचार किया। उसकी बेटी, चंद्रिका बाई, जिसे लोग उसकी आत्मा के रूप में हवेली में भटकते देखते हैं, उस पाप की गवाही है। किंवदंती थी कि चंद्रिका बाई अत्यंत सुंदर और सरल स्वभाव की थी। उसे हवेली के बाहर एक कवि से प्रेम हो गया था, और यही बात रुद्रप्रताप के अहंकार को भड़काने लगी। उसे डर था कि बेटी का यह प्रेम उसके साम्राज्य की नींव हिला देगा और हवेली के भीतर छिपे खजाने तक अजनबियों का रास्ता खुल जाएगा। सत्ता के मद में अंधे होकर ठाकुर ने बेटी को हवेली के सबसे गुप्त हिस्से में बुलवाया और वहां मजदूरों को आदेश दिया कि उसे जीवित दीवारों में चुन दिया जाए। दीवारें धीरे-धीरे बंद हो गईं, और चंद्रिका की चीखें हवेली के कोनों में हमेशा के लिए गूंजती रह गईं। उसी दिन से हवेली के हर पत्थर ने रुद्रप्रताप के पाप को आत्मसात कर लिया, और यह स्थान शापित हो उठा।

वीरेंद्र और मीरा स्तब्ध खड़े रहे। हवेली के रहस्य का यह भयानक सच उनकी रगों में ठंडी लहर बनकर दौड़ गया। वीरेंद्र के कानों में अब चंद्रिका की आवाज़ पहले से भी अधिक स्पष्ट सुनाई देने लगी—एक दुखभरी पुकार, जो मुक्ति चाहती थी। मीरा ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “यही कारण है कि आत्मा आज तक भटक रही है। वह बदला नहीं चाहती, वह न्याय चाहती है।” वीरेंद्र ने महसूस किया कि हवेली में अब तक जितनी भी घटनाएं हुईं, वे सिर्फ भय पैदा करने के लिए नहीं थीं, बल्कि किसी गहरे संदेश का हिस्सा थीं। ठाकुर का पाप हवेली की दीवारों में बंधा रहस्य था, और चंद्रिका की आत्मा चाहती थी कि कोई इसे उजागर करे ताकि उसकी यातना समाप्त हो सके। वीरेंद्र की आंखों में दृढ़ता उतर आई। उसने मीरा की ओर देखते हुए कहा, “अब हमें सिर्फ खजाने का रहस्य नहीं, बल्कि इस आत्मा को मुक्ति दिलानी होगी। यही हवेली का सच है, और यही हमारा कर्तव्य।” हवेली की ठंडी हवा में जैसे चंद्रिका की कराह मिलकर एक नया संकल्प जगा रही थी—सत्य की खोज का यह सफर अब और भी भयावह मोड़ लेने वाला था।

वीरेंद्र हवेली की गहराइयों में उतरते हुए जैसे किसी और ही दुनिया में पहुँच गया। धूल से भरी सीढ़ियाँ और टूटते हुए पत्थरों की दीवारें उस पर अजीब सा दबाव डाल रही थीं। हर कदम पर उसके भीतर एक भय भी था और उम्मीद भी—शायद यहाँ उसे अपने पिता के बारे में कोई निशानी मिल जाए। जब वह एक जंग लगे दरवाज़े को धक्का देकर भीतर गया, तो वहाँ बिखरे हुए पुराने संदूक, टूटी अलमारियाँ और चूहों के कतरन पड़े हुए कागज़ दिखाई दिए। इन्हीं कागज़ों के बीच उसे एक चमड़े से बंधी डायरी मिली, जिस पर समय की मार से पीली पड़ चुकी स्याही से उसके पिता का नाम लिखा था। वीरेंद्र के हाथ काँप उठे। वह धीरे-धीरे डायरी को पलटने लगा और हर पन्ने पर अपने पिता की लिखी हुई इबारतें पढ़ते हुए जैसे अतीत की गलियों में उतर गया। उसमें लिखा था कि उसके पिता ने भी इस हवेली के रहस्यों की खोज में कदम रखा था। लेकिन जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए, हवेली की आत्मा—चंद्रिका बाई—ने उन्हें बार-बार भ्रमित किया, डराया और खजाने तक पहुँचने से रोका।

डायरी के पन्नों से वीरेंद्र को महसूस हुआ कि उसके पिता का संघर्ष कितना बड़ा रहा होगा। वहाँ लिखा था कि हवेली की दीवारों पर बने प्रतीक और गुप्त रास्तों की गुत्थियाँ आसानी से नहीं सुलझतीं, बल्कि हर कदम पर वे किसी नई पहेली में उलझ जाते। एक जगह पिता ने लिखा था कि उन्होंने हवेली की आत्मा से संवाद करने की कोशिश की थी। आत्मा कभी करुणा से भरी दिखाई देती, तो कभी क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला बनकर उन्हें डराती। उन्होंने अपने बेटे—यानी वीरेंद्र—का नाम लेकर लिखा था कि “यदि मैं यहाँ से ज़िंदा न लौट पाया तो यह लड़ाई अधूरी रह जाएगी। मेरे बेटे, यदि तू कभी यह पढ़े, तो जान ले कि इस हवेली का सच सिर्फ खजाना नहीं, बल्कि एक पाप का बोझ है जिसे मिटाना होगा।” यह पढ़ते हुए वीरेंद्र की आँखें भीग गईं। उसने महसूस किया कि यह सिर्फ खजाने की खोज नहीं है, बल्कि अपने पिता की अधूरी लड़ाई को पूरा करने का दायित्व भी उसी के कंधों पर आ गया है।

डायरी के अंतिम पन्नों में अधूरी लकीरों और निशानों से बना एक नक्शा उभरा था। वह नक्शा हवेली के भीतर किसी गुप्त मार्ग की ओर इशारा करता था, परंतु बीच का हिस्सा अधूरा था—मानो पिता उसे पूरा करने से पहले ही किसी अनहोनी का शिकार हो गए हों। वीरेंद्र ने गहरी साँस ली और उस नक्शे को ध्यान से देखा। हर अधूरी रेखा उसे अपने पिता की आवाज़ सी लगी—“मेरे बेटे, तू इस राह को पूरा कर।” उसके भीतर एक नया संकल्प जाग उठा। अब यह खोज सिर्फ हवेली के खजाने तक सीमित नहीं रही। यह उसके खोए हुए पिता की विरासत को समझने और उनके अपूर्ण सफ़र को पूरा करने की जंग थी। वह जानता था कि आगे का रास्ता और भी खतरनाक होगा—चंद्रिका बाई की आत्मा और हवेली की परछाइयाँ उसे आसानी से जीतने नहीं देंगी। लेकिन अब वीरेंद्र का मन डगमगाने वाला नहीं था। उसने डायरी को सीने से लगाया और यह वचन लिया कि चाहे जान भी चली जाए, पर वह अपने पिता की आख़िरी अधूरी कहानी को पूरा करके ही दम लेगा।

हवेली के तहख़ाने में दबे अंधेरे को चीरते हुए वीरेंद्र और मीरा ने वह अधूरा नक्शा सामने फैलाया, जिसे वीरेंद्र को अपने पिता की डायरी से मिला था। नक्शे की घिसी-पिटी लकीरें और अधूरी आकृतियाँ यह बता रही थीं कि खजाने का रास्ता सीधा नहीं है, बल्कि भूलभुलैया जैसे गलियारों से होकर जाता है। वे मशाल की रोशनी में नक्शे के प्रतीकों को ध्यान से देखते रहे और जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए, गलियारे बदलते प्रतीत होने लगे। दीवारों की दरारों से सीलन की गंध आ रही थी और पत्थरों पर नमी की बूंदें टपक रही थीं। अचानक एक जगह पहुँचकर उन्हें लगा कि रास्ता बंद हो गया है, लेकिन जैसे ही उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, पिछली दीवार खिसक कर दूसरी दिशा में खुल गई। मीरा ने भयभीत स्वर में कहा—“ये हवेली हमें रोकना चाहती है, वीरेंद्र… ये रास्ते अपने आप बदल रहे हैं।” वीरेंद्र ने मशाल ऊँची उठाते हुए जवाब दिया—“यही तो हवेली का जाल है, हमें इसके खेल में फँसना नहीं है।” लेकिन भीतर-ही-भीतर वह भी डर से काँप रहा था। उनके हर कदम के साथ दीवारों का खिसकना, दरवाज़ों का अपने आप बंद होना और पत्थरों से आती गूँज मानो इस बात का संकेत थी कि हवेली जिंदा है, और वह उन्हें कैद करना चाहती है।

घंटों तक वे इस भूलभुलैया में भटकते रहे। कभी गलियारा सीधा दिखाई देता और अचानक गोल चक्कर में बदल जाता। कभी सीढ़ियाँ ऊपर चढ़तीं लेकिन वापस नीचे उसी जगह पहुँचा देतीं। जगह-जगह लोहे की जंग लगी सलाखें और टूटी मूर्तियाँ दिखाई देतीं, जो मानो उन्हें देख रही हों। अचानक एक जगह फर्श नीचे धँस गया और वीरेंद्र बाल-बाल बचते हुए दीवार से चिपक गया। मीरा ने चीखते हुए उसका हाथ पकड़ा और पूरी ताक़त से खींच लिया। नीचे गहरी खाई थी जिसमें से सिर्फ अंधकार झलकता था, जैसे हवेली उन्हें हमेशा के लिए निगल लेना चाहती हो। दोनों हाँफते हुए ज़मीन पर बैठे, मगर रुकना उनके लिए मौत बुलाने जैसा था। उन्होंने महसूस किया कि दीवारें धीरे-धीरे उन्हें चारों ओर से घेरने लगी हैं। मीरा ने थरथराती आवाज़ में कहा—“ये दीवारें सांस ले रही हैं, वीरेंद्र… हमें जिंदा नहीं छोड़ेंगी।” वीरेंद्र ने अपनी आँखें बंद कीं और नक्शे के अधूरे हिस्से को याद करने की कोशिश की। तभी उसे डायरी की एक पंक्ति याद आई—“जिस रास्ते में सबसे ज़्यादा अंधेरा हो, वही मुक्ति का मार्ग है।” उसने तुरंत मशाल बुझा दी। मीरा चीख पड़ी—“पागल हो गए हो क्या!” लेकिन वीरेंद्र ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया और कहा—“यही हवेली की चाल है, रोशनी से हमें भटकाया जाएगा, अंधेरे में ही रास्ता छिपा है।”

कुछ देर तक वे पूरी तरह अंधेरे में हाथों से दीवार टटोलते रहे। अचानक उन्हें लगा कि हवा की एक ठंडी लहर सामने से आ रही है। उसी दिशा में बढ़ते हुए वे एक गुप्त दरवाज़े तक पहुँचे जो पहले दिखाई नहीं दे रहा था। वीरेंद्र ने पूरी ताक़त से उसे धक्का दिया और दरवाज़ा कराहते हुए खुल गया। भीतर जाते ही गलियारे की दीवारें अपने आप स्थिर हो गईं, जैसे हवेली उन्हें और आगे जाने से रोकने में असफल हो चुकी हो। मगर जैसे ही उन्होंने राहत की साँस ली, अचानक उनके पीछे का दरवाज़ा बंद हो गया और तेज़ धमाके के साथ पत्थरों का जाल नीचे गिर पड़ा। वे अब एक और भी गहरी भूलभुलैया में कैद हो चुके थे, जहाँ दूर से किसी स्त्री की करुण चीखें गूँज रही थीं। वीरेंद्र और मीरा ने एक-दूसरे की आँखों में देखा—दोनों को समझ आ गया था कि यह सिर्फ एक खजाने की तलाश नहीं है, बल्कि हवेली की आत्मा उन्हें एक बड़ी परीक्षा से गुज़ार रही है। आगे का हर कदम मौत और रहस्य के बीच की पतली रेखा पर चलने जैसा था।

हवेली की भूलभुलैया जैसे-जैसे वीरेंद्र और मीरा को अपने भीतर खींचती चली गई, वैसे-वैसे उनकी साँसें तेज़ होती गईं। कई घंटों तक दीवारों और अंधेरे गलियारों से जूझने के बाद अचानक एक भारी दरवाज़ा उनके सामने आया। दरवाज़ा जंग लगा हुआ था, मानो सदियों से किसी ने उसे छुआ ही न हो। वीरेंद्र ने अपनी पूरी ताक़त से उसे धक्का दिया, और जैसे ही वह दरवाज़ा खुला, दोनों की आँखें चौंधिया गईं। सामने एक विशाल कक्ष था, जिसकी दीवारों पर पुराने दीपक जड़े हुए थे। कमरे के बीचोंबीच चमकते सोने के ढेर, चाँदी के सिक्कों की बरसात और कीमती जवाहरात ऐसे चमक रहे थे जैसे स्वयं धरती ने अपने रत्न यहाँ समर्पित कर दिए हों। हवा में लोभ और रहस्य का घना मिश्रण था, जो मन को एक अजीब खिंचाव से भर देता था। मीरा के चेहरे पर आश्चर्य और भय का मिश्रण था—वह खजाने को देखकर दंग रह गई थी, पर साथ ही उसके मन में यह सवाल गूंज रहा था कि आखिर इतने सालों तक यह खज़ाना छुपा क्यों रहा। वीरेंद्र के दिल में भी क्षण भर के लिए जीत की मुस्कान आई, लेकिन उसके भीतर कहीं न कहीं यह शंका भी थी कि इतनी आसानी से खजाने तक पहुँचना हवेली की योजना नहीं हो सकती।

तभी उस कक्ष के भीतर अचानक हवा का प्रवाह बदल गया। दीपकों की लौ अनियंत्रित होकर हिलने लगी और एक ठंडी सिहरन दोनों की रूह तक उतर गई। उसी क्षण, खजाने के सामने धुंध का एक गुबार उठने लगा, जो धीरे-धीरे एक स्त्री के रूप में आकार लेने लगा। वह थी—चंद्रिका बाई की आत्मा। उसका चेहरा कभी कोमल और करुणा से भरा दिखाई देता, तो कभी विकृत और भयावह हो जाता। उसकी आँखों से मानो ज्वाला निकल रही थी। उसने धीमी, पर गूंजती हुई आवाज़ में कहा—“तुम खजाना चाहते हो? तो याद रखो, इसकी कीमत खून से चुकानी होगी। बलिदान दोगे तभी यह खजाना तुम्हारा होगा। नहीं तो यह तुम्हारी भी क़ब्रगाह बन जाएगा।” उसकी आवाज़ इतनी डरावनी थी कि मानो कक्ष की दीवारें भी कांप उठीं। मीरा भयभीत होकर पीछे हट गई, लेकिन वीरेंद्र ने हिम्मत नहीं खोई। उसने महसूस किया कि आत्मा का गुस्सा केवल लालचियों के लिए था, और शायद यही परीक्षा थी जिसे उसके पिता कभी पार नहीं कर पाए। वीरेंद्र ने अपने पिता की अधूरी डायरी के शब्द याद किए, जिसमें चेतावनी दी गई थी कि खजाने का मार्ग भले ही नक्शे से दिखे, पर अंतिम क़दम आत्मा की शर्तों पर ही पूरा होगा।

वीरेंद्र आत्मा की ओर बढ़ा और ठोस आवाज़ में बोला—“मुझे खजाना नहीं चाहिए, मुझे सच चाहिए। अगर मेरी क़ुर्बानी इस हवेली को मुक्त कर सकती है, तो मैं पीछे नहीं हटूँगा।” यह कहते ही कक्ष में सन्नाटा छा गया। चंद्रिका बाई की आँखों से आँसू बहने लगे, और उसका रूप क्षण भर को कोमल और मानवीय हो गया। उसने कहा—“मैं तुम्हारी आत्मा की सच्चाई देख रही हूँ। मेरी पीड़ा सिर्फ लालच के कारण थी, और जब तक यह खजाना हवेली की दीवारों में बंद है, तब तक मैं भी मुक्ति नहीं पा सकती।” मीरा ने काँपते स्वर में पूछा—“तो समाधान क्या है?” आत्मा ने धीरे से उत्तर दिया—“खजाने को पाने के लिए बलिदान दो, लेकिन अगर तुम त्याग करोगे, तो न केवल यह हवेली बल्कि मेरी आत्मा भी मुक्त हो जाएगी।” वीरेंद्र ने एक गहरी साँस ली। उसने खजाने की ओर आख़िरी बार देखा—सोने, चाँदी और जवाहरात की चमक अब उसे आकर्षित नहीं कर रही थी, बल्कि भारी लग रही थी। उसने दृढ़ स्वर में कहा—“मैं त्याग को चुनता हूँ। मैं खून नहीं, अपनी इच्छाओं का बलिदान दूँगा।” और उसी क्षण खजाने की चमक फीकी पड़ने लगी, कक्ष की दीवारों से बंधन टूटने लगे और चंद्रिका बाई की आत्मा धीरे-धीरे धुंध में विलीन होकर मुक्त हो गई। वीरेंद्र ने महसूस किया कि असली खजाना धन नहीं, बल्कि उस आत्मा को मोक्ष देना था। उसके पिता का सपना भी पूरा हो गया था—सच जानने का सपना।

१०

वीरेंद्र और मीरा जब खजाने के कक्ष में आत्मा की चुनौती का सामना कर रहे थे, तब दोनों की धड़कनें मानो मृत्यु और जीवन के बीच झूल रही थीं। आत्मा की आँखों में आंसुओं और आग का मिश्रण था—एक ओर शताब्दियों का दुख, दूसरी ओर प्रतिशोध की ज्वाला। हवेली की दीवारें कंपन कर रही थीं, जैसे वह भी इस निर्णायक क्षण की साक्षी हो। वीरेंद्र ने अपने पिता की डायरी में पढ़ी हुई अंतिम पंक्तियों को याद किया—“सच्चा बलिदान खून से नहीं, आत्मा की शांति से होता है।” अचानक उसे अपनी गर्दन में पड़ा वह लॉकेट याद आया, जिसे उसके पिता हमेशा पवित्र मानते थे और जिसे उन्होंने अपने अंतिम दिनों तक संभालकर रखा था। वह धीरे-धीरे आत्मा के चरणों में झुक गया और काँपते हाथों से लॉकेट रख दिया। आत्मा ने जैसे ही लॉकेट देखा, उसका चेहरा बदलने लगा। उसकी आँखों में वर्षों का दुःख पिघलकर बहने लगा, और हवेली की हवा में एक अजीब-सी करुणा घुल गई। मीरा विस्मित होकर देख रही थी कि वह औरत, जिसे सबने अब तक श्राप और भय की प्रतीक माना था, उसी क्षण एक पीड़ित माँ और बेबस बेटी में बदल गई।

चंद्रिका की आत्मा ने जैसे ही लॉकेट को छुआ, हवेली के भीतर एक अदृश्य शक्ति का विस्फोट हुआ। दीवारों पर जमी कालिख गिरने लगी, टूटे हुए झूमर अपने आप झूलने लगे और प्राचीन चित्रों की आँखों से आँसू बहने लगे। हवेली, जो सदियों से बंद और काली ऊर्जा का घर थी, अब अपने शाप से मुक्त होने की पीड़ा और राहत एक साथ महसूस कर रही थी। आत्मा धीरे-धीरे हल्की होती गई, उसका स्वर मीरा और वीरेंद्र के कानों में गूंजा—“अब मैं मुक्त हूँ… मेरे पाप नहीं, मेरे पिता के पाप मिट गए। तुम्हारे हाथों से मुझे मुक्ति मिली।” यह कहकर आत्मा प्रकाश की किरणों में विलीन हो गई। उसी क्षण हवेली की दीवारें चरमराने लगीं, छत से पत्थर गिरने लगे और विशाल स्तंभ दरकने लगे। मीरा ने वीरेंद्र का हाथ पकड़ा और कहा, “हमें यहाँ से निकलना होगा।” दोनों भूलभुलैया जैसे गलियारों से भागते हुए बाहर की ओर दौड़े। हर कदम पर हवेली मानो उन्हें रोकना चाहती थी, परंतु आत्मा की मुक्ति ने उन्हें संरक्षित कर दिया। बाहर निकलने तक वीरेंद्र और मीरा के पैरों के नीचे धरती कांप रही थी, जैसे हवेली खुद अपने पापों के बोझ से ढह रही हो।

बाहर निकलते ही उन्होंने पीछे मुड़कर देखा—वह भव्य हवेली, जो वर्षों से आतंक और रहस्य का प्रतीक बनी खड़ी थी, अब धीरे-धीरे मलबे में बदल रही थी। खजाने का चमकदार कक्ष, सोने-चाँदी और जवाहरात के ढेर, सब पत्थरों और धूल में दब गए। हवेली का शाप उसी मलबे के नीचे हमेशा के लिए दफन हो गया। वीरेंद्र ने गहरी सांस ली, और उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने खजाना खो दिया था, पर उसे अपने पिता का सच मिल गया था। वह समझ गया कि उसके पिता लालच से नहीं, बल्कि आत्मा को मुक्त करने के प्रयास में यहाँ आए थे, और उनकी अधूरी कोशिश आज पूरी हो चुकी है। मीरा ने उसका हाथ थामकर कहा, “सच्चा खजाना वही है जो दिल को सुकून दे, न कि सोना-चाँदी।” वीरेंद्र ने उसकी ओर देखा और सिर झुका दिया। हवेली की राख में भले ही सोना दबा रह गया हो, लेकिन उसके दिल ने अपने पिता की विरासत और एक आत्मा की शांति का खजाना पा लिया था। हवेली का अंत, दरअसल एक नई शुरुआत थी—जहाँ लालच की जगह सत्य और शांति ने अपनी जगह बना ली थी।

समाप्त

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