Hindi - प्रेतकथा

भूतों का मेला

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राजस्थान की तपती धरती पर बीकानेर से करीब ८० किलोमीटर उत्तर-पश्चिम की ओर बसे कर्णसर गाँव की ओर बढ़ते हुए विराज प्रताप शेखावत के कैमरे का लेंस हर बंजर टीले, हर झुलसे पेड़, और हर झोंपड़ी को अपनी स्मृति में कैद कर रहा था। उसकी SUV रेत में बार-बार धँसती, पर चालक रफीक के अनुभव से रास्ता मिल ही जाता। विराज के पास बस एक अधूरी रिपोर्ट, एक पुराना नक़्शा, और अपनी गुमशुदा सहयोगी अन्वी चतुर्वेदी की फील्ड डायरी की कुछ जली पन्नियाँ थीं। चैनल हेड उसे इस स्टोरी से हटा चुका था—“लोककथाओं के पीछे वक्त ज़ाया न कर, लोग चुनाव में दिलचस्पी रखते हैं,” उसने कहा था। लेकिन विराज के लिए ये एक स्टोरी नहीं, एक व्यक्तिगत तलाश थी। अन्वी सिर्फ़ एक साथी नहीं थी, वह उसकी अधूरी बात थी—जिसके जवाब अब उसे भूतों के बीच ढूँढने थे। गाँव में पहुँचते ही विराज को एक विचित्र सन्नाटा महसूस हुआ—कोई बच्चा नहीं, कोई बूढ़ा नहीं, यहाँ तक कि कुत्तों के भौंकने तक की आवाज़ नहीं। सूखी हवा में एक अजीब सी गंध थी—जैसे धूप, राख और पुराने रक्त की मिली-जुली स्मृति। चौपाल के पास बैठी एक एकाकी वृद्धा—बिंदु देवी—उसे एकटक देखती रही, और जब विराज ने कैमरा निकाला, तो वह फुसफुसाई, “मेला लगेगा… तू आया क्यों, बेटा?”

बिंदु देवी की आँखों में वह देख रहा था—डर नहीं, बल्कि अनजाना दुख। उसने विराज को अपने झोंपड़े में बुलाया, जहाँ दीवारें पुराने अखबारों से सजी थीं और एक कोने में बंधी पगड़ी में नाम लिखा था—“धनीराम १९७३ – अमावस्या के दिन खो गया।” उसने कांपती उंगलियों से एक पुराना लोटा उठाया और कहा, “इन्हीं से पानी पीते थे वो… उसी दिन गया मेला देखने…” विराज ने अपना रिकॉर्डर ऑन किया लेकिन बिंदु देवी ने उसका हाथ पकड़ लिया, “रिकॉर्ड मत कर, बेटे। ये बातें हवाओं के लिए नहीं होतीं।” फिर वह कुछ बोलने लगी, जैसे किसी परछाई से। “हर साल अमावस्या को यहाँ मेला लगता है… पर वो मेला दुनिया के लिए नहीं है। वहाँ जाते तो हैं लोग, पर लौटते नहीं। ये रिवाज़ नहीं, शर्त है। किसी आत्मा की शर्त, जो जीवितों से हर साल एक उपहार मांगती है।” विराज उसकी बातों को पागलपन समझता, अगर वही शब्द उसने अन्वी की डायरी में ना पढ़े होते: “एक मेला है जहाँ कोई नाम नहीं लेता, पर सब उसे जानते हैं। और शायद… वहीं मैं जा रही हूँ।” उस रात विराज गाँव में एक वीरान हवेली में रुका—जहाँ पहले सरकारी स्कूल चला करता था। हवा खिड़की से चुपचाप अंदर आती रही, और मेज़ पर रखी अन्वी की डायरी के फटे पन्ने रात के सन्नाटे में फड़फड़ाते रहे।

सुबह की हल्की धूप जब काँच के दरवाज़े से भीतर आई, तो विराज ने देखा कि हवेली की दीवारों पर किसी ने कोयले से आकृतियाँ बनाई थीं—बच्चे, औरतें, जानवर, और बीच में एक चक्रव्यूह जैसा घेरा जिसमें कोई चेहरा धुँधला किया गया था। वह चित्र पुरातन लगते थे, जैसे सदियों पुराने मंदिरों की दीवारों से उठकर किसी ने यहाँ उकेर दिए हों। बाहर निकलते ही एक लड़का भागते-भागते पास आया और मुस्कुराकर बोला, “आप मेला देखने आए हो क्या?” विराज ने चौंककर देखा—लड़का 10-11 साल का होगा, पर उसकी आँखें अजीब सी सफ़ेद थीं। “अभी नहीं लगा मेला,” वह बोला, “पर जब लगेगा न, तो सब आएँगे… आप भी।” तभी एक औरत दौड़ती आई और लड़के को पकड़कर डांटते हुए ले गई—“कहा न था, मेले की बात मत किया कर!” विराज कैमरे के सामने खुद को रिकॉर्ड करता है—“Day 1: गाँव के लोग किसी मेला नाम की घटना को लेकर भयभीत हैं, जो अमावस्या की रात होती है। वे खुलकर नहीं बोलते, लेकिन संकेत मिलते हैं कि कई लोग वर्षों से अमावस्या को लापता हुए हैं। मेरी सहयोगी अन्वी चतुर्वेदी की गुमशुदगी शायद इसी मेले से जुड़ी है।” वह रिकॉर्डिंग बंद करता है, और कैमरा नीचा करता है। तभी हवाओं में दूर से ढोलक की धीमी थाप गूंजती है—अमावस्या अभी चार दिन दूर है, पर क्या यह मेला वाकई… शुरू हो चुका है?

कर्णसर गाँव की गलियों में सुबह के सूरज की रोशनी ढलानों से टकराकर जब ज़मीन पर गिरती, तो उसमें एक चमक नहीं, एक अजीब-सी फीकी सफेदी दिखाई देती थी। जैसे रेत खुद नींद में हो और जागने से डरती हो। विराज प्रताप शेखावत अपने कैमरे के साथ गाँव की तंग गलियों में घूम रहा था, हर घर पर दस्तक देकर कुछ सवाल पूछने की कोशिश कर रहा था—लेकिन हर बार जवाब एक ही: “हमें कुछ नहीं पता।” एक बूढ़ा आदमी उसे देखकर दरवाज़ा बंद कर लेता है, एक औरत बालकनी से ओझल हो जाती है, और बच्चे गली के मोड़ पर जाकर चुप हो जाते हैं। उस वीराने के बीच कुछ दीवारें ऐसी थीं जो चुप नहीं थीं—उन पर काले रंग से उकेरे गए अजीब चेहरों की श्रृंखला थी। हर चेहरा अधूरा—किसी की आँखें नहीं थीं, किसी का मुँह गायब था, किसी की गर्दन नहीं थी। इन चित्रों को देख विराज के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वह कैमरे से कुछ फुटेज लेता है और फिर स्थानीय स्कूल की जर्जर इमारत की ओर बढ़ता है—जहाँ उसकी गुमशुदा सहयोगी अन्वी आख़िरी बार देखी गई थी।

स्कूल अब बंद है—दरवाज़े पर ताला है, लेकिन खिड़की टूटी हुई है। विराज खिड़की से भीतर झाँकता है और देखता है कि क्लासरूम की दीवारों पर बच्चों के चित्रों की जगह अब कुछ स्याह धब्बे हैं—मानो वहाँ कुछ जलाया गया हो। एक पुरानी लकड़ी की मेज़ के नीचे से उसे एक जला हुआ रजिस्टर मिलता है। जब वह पन्ने पलटता है, तो एक पन्नी पर अन्वी की लिखावट में दर्ज आख़िरी लाइन उसे हिला देती है—“ये चेहरों की दीवार… हर साल एक नया चेहरा जुड़ता है। और मुझे लगता है, अगली बार मेरा नंबर है।” यह पढ़ते ही उसकी साँस थम-सी जाती है। बाहर निकलते ही उसे सामने खड़ा दिखता है वही सफ़ेद आँखों वाला बच्चा, जो कल मिला था। वो अब भी मुस्कुरा रहा था। “आपको पता है?” वह कहता है, “मेरे पापा भी यहाँ थे, पर अब दीवार पर रहते हैं।” विराज घबराकर पूछता है, “क्या मतलब?” बच्चा हँसता है, “चलो, दिखाता हूँ।” और वह उसे गाँव के पश्चिमी सिरे की ओर ले जाता है जहाँ एक पुराना कुआँ है—सूखा और दरारों से भरा। कुएँ की दीवार पर एक नया चेहरा खुरचा गया था—ताज़ा, मानो कल ही बनाया गया हो। बच्चा कहता है, “पापा कहते थे, जब मेले में मज़ा आए, तो लौटने की ज़रूरत नहीं।”

उसी शाम गाँव के मंदिर की घंटियाँ बजीं, लेकिन वह आवाज़ आम नहीं थी—हर बार की तरह शांति फैलाने वाली नहीं, बल्कि बेचैनी जगाने वाली थी। विराज मंदिर की ओर बढ़ा और वहाँ के पुजारी सत्ताराम से मिलने की कोशिश की। सत्ताराम, अधपकी दाढ़ी और थकी आँखों वाला आदमी, विराज को देखकर पल भर को ठिठका, फिर बोला, “तू यहाँ से चला जा, मेहमान… ये जगह तेरे जैसे लोगों की नहीं।” विराज ने अन्वी का नाम लिया तो सत्ताराम की आँखें सिकुड़ गईं। वह धीरे से बोला, “वो लड़की भी ज़िद्दी थी। पूछा था—‘मेला क्या होता है?’ हमने कहा, मत जाना। पर फिर भी गई।” विराज ने सवाल दागा, “क्या हुआ वहाँ?” सत्ताराम हँसा नहीं, बस उसकी आवाज़ भारी हो गई, “मेला हर साल लगता है… अमावस्या की रात। वो कोई साधारण उत्सव नहीं… आत्माओं का महोत्सव है। जीवितों को बुलावा आता है—कभी सपने में, कभी वादे में, कभी अपने खोए हुए को देखने की उम्मीद में। जो चला गया, उसका नाम दीवार पर लिखा जाता है। जैसे तेरी अन्वी का लिखा गया।” विराज ने कसम खा ली—वो हर हाल में इस मेले में जाएगा, भले ही उसके लिए उसे खुद अपनी पहचान भी गंवानी पड़े। दूर क्षितिज पर, रेत की आंधी उठ रही थी… जैसे मेला उसे पहले ही पहचान चुका हो।

अमावस्या की रात से एक दिन पहले विराज प्रताप शेखावत ने निर्णय ले लिया था—वह उस मेले तक जाएगा, चाहे जो भी हो। सत्ताराम की चेतावनी, बिंदु देवी की सिसकियाँ, बच्चे की रहस्यमयी मुस्कान—सब अब उसे और भी अधिक उकसा रहे थे। जैसे कोई अदृश्य डोरी उसे खींच रही हो, धीरे-धीरे, पर पूरी ताक़त से। उस रात गाँव में कोई चूल्हा नहीं जला, कोई दरवाज़ा नहीं खुला, और हर घर की खिड़कियों को भीतर से कील ठोंककर बंद कर दिया गया। विराज अपने कैमरे, टॉर्च, और अन्वी की डायरी के साथ स्कूल की छत पर बैठा रहा—पूर्व दिशा की ओर आँखें गड़ाए। आधी रात बीतते ही उसे ढोलक की बहुत धीमी थाप सुनाई दी—जैसे कोई बहुत दूर रेगिस्तान में किसी अदृश्य उत्सव की घोषणा कर रहा हो। वह छत से नीचे कूदा, कैमरा ऑन किया, और बिना किसी को बताए गाँव के पश्चिमी किनारे की ओर चल पड़ा—उसी दिशा में, जहाँ कल वह बच्चा उसे ले गया था।

रेगिस्तान की उस खुली धरती पर रात में चलना किसी दुःस्वप्न जैसा था। रेत के टीले साँपों की तरह प्रतीत हो रहे थे, और हवा में सूखी घास के अलावा कुछ भी स्थिर नहीं था। अचानक उसे सामने धुंधलका-सा कुछ दिखा—कपड़ों की लहराती झालरें, ऊँटों पर रंगीन परछाइयाँ, और एक विशाल तोरण द्वार जो खुद-ब-खुद रेत से उगता प्रतीत हो रहा था। जैसे किसी ने मरुभूमि पर नक़्शा नहीं, मंत्र फेंक दिया हो। विराज धीरे-धीरे आगे बढ़ा। “मेला” अब पूरी तरह उसके सामने था—झूलों की कतारें, चाट की दुकानें, जादूगरों की आवाजें, कठपुतली नाच और एक मृदंग-नाद… सब कुछ वहाँ था, लेकिन अजीब बात ये कि कहीं भी कोई वास्तविक जीवन नहीं था। वहाँ मौजूद हर व्यक्ति की चाल एक सी थी—धीमी, स्थिर, और बोझिल। उनके चेहरों पर भाव नहीं थे, बल्कि मुखौटे थे—कुछ पेड़ की छाल जैसे, कुछ सफेद मिट्टी से बने। वह समझ गया, ये लोग मनुष्य नहीं हैं… आत्माएँ हैं। और यह मेला उनके लिए ही है।

तभी विराज की नज़र एक झूले पर बैठी महिला पर पड़ी। सफेद सलवार, लाल दुपट्टा, और वह चेहरा—अन्वी। उसकी साँसें थम गईं। वह दौड़कर उसके पास पहुँचा, “अन्वी! अन्वी, मुझे पहचानो! मैं विराज हूँ!” लेकिन अन्वी की आँखें उसकी ओर देखकर भी पहचान से खाली थीं। वह हँसी, पर वह हँसी मानवीय नहीं थी—जैसे कोई सीखा हुआ अभिनय हो। तभी एक लंबी परछाई उसके पीछे आई और बोली, “नाम से पुकारोगे तो जाग जाएगी… पर तब तुम खुद नहीं बचोगे।” वह पलटा, तो देखा एक ऊँचा आदमी, काले साफ़े में, सफेद आंखों वाला एक सेवक खड़ा था—जिसके गले में हड्डियों की माला थी। “तुम जीवित हो… लेकिन अब ज्यादा देर नहीं। हर मेले में एक नया ‘मेहमान’ आता है। अबकी बार तुम हो।” विराज का दिल धड़कने लगा, उसने पीछे देखा—मेला फैलता जा रहा था, उसकी सीमा अब धुंध में गायब हो रही थी। उसने लौटने का रास्ता ढूँढा, पर रेत अब हर दिशा में एक समान थी। कोई पगडंडी नहीं, कोई ध्वनि नहीं—बस वही ढोलक, जो अब भीतर तक सुनाई दे रही थी। “मेला जिसका कोई रास्ता नहीं”—अन्वी की डायरी की पंक्तियाँ अब सच बन चुकी थीं।

रेत अब उसके पैरों के नीचे नहीं, उसकी साँसों में थी। विराज जिस जगह खड़ा था, वहाँ से निकलने की कोई दिशा नहीं बची थी। हर ओर रेत के बादल उठ रहे थे और उनके बीच, मेला एक दुष्ट स्वप्न की तरह फैलता जा रहा था। आवाजें पास आ रही थीं—हँसी की, रुलाई की, और अनाम मंत्रों की। वह चलने लगा, जैसे कोई अदृश्य डोर उसे खींच रही हो। पास ही कठपुतली का एक रंग-बिरंगा मंच लगा था। दो आत्माएँ कठपुतलियाँ चला रही थीं—कठपुतलियाँ जो नाचते हुए वही दृश्य दिखा रही थीं जो विराज ने अभी-अभी अनुभव किए थे: एक आदमी गाँव में आता है, सवाल करता है, रात को निकलता है, और मेले में फँस जाता है। विराज कांप उठा। “ये सब पहले से… तय है?” उसने बड़बड़ाया। तभी पास बैठे एक पागल साधु की आवाज आई—“तय नहीं, दोहराव है! बार-बार! हर बार! जैसे तुम, जैसे मैं… अब मेले के हिस्से हो गए हम सब…” विराज ने पलटकर देखा—वही साधु, जिसे गाँव में देखा था—चुग्गा लाल। लेकिन अब उसकी आँखें जल रही थीं, जैसे भीतर कोई और हो। “तू आया क्यों पत्रकार? क्या सोचता था? खबर बना लेगा? यह खबर नहीं, खून का सौदा है।”

चुग्गा लाल उसे पकड़कर एक ओर खींचता है, और फिर टूटी झोंपड़ियों के पीछे ले जाकर कहता है, “देख, मैं तुझे बताऊँगा एक राह… मगर उसका मोल है।” विराज चुप। वह अब सवाल नहीं करता, बस सुन रहा है—जैसे उसकी जिज्ञासा थक चुकी हो और अब केवल समझना बाकी हो। “यह मेला जीवितों के लिए नहीं। यह आत्माओं का उत्सव है। जो मर गए, जो अधूरे रह गए, जो भटक रहे हैं—वे हर अमावस्या को यहाँ आते हैं। और मेला सजता है… उनके मनोरंजन के लिए। नाच, खेल, तमाशा—सब तुम्हारे जैसे लोगों से होता है। जीवित मनोरंजन बनते हैं मृतों के लिए। तू अब इस खेल में उतर चुका है, पत्रकार।” विराज की आँखें फैल गईं। “तो क्या मैं… मैं मर चुका हूँ?” चुग्गा लाल हँस पड़ा, “नहीं, अभी नहीं। लेकिन मेला खत्म होते ही, तू भी एक चेहरा बन जाएगा दीवार पर।” विराज काँप गया। क्या यही हुआ था अन्वी के साथ भी? क्या वह अब इस मेले का हिस्सा बन चुकी है? तभी एक औरत की कराह सुनाई दी—वह अन्वी थी, झूले से गिर गई थी और अब मेला वाले उसे घेरे हुए थे। विराज दौड़ा, लेकिन उनके बीच घुस न सका। एक सफेद मुखौटा उसकी तरफ बढ़ा, और उसके सिर पर चोट मारी—वह वहीं बेहोश होकर गिर गया।

जब आँख खुली, तो विराज किसी अंधेरी गुफा में था। सामने टिमटिमाता दिया, और छत पर उलटे लटके कई मुखौटे, जैसे मृत चेहरों की पहचान। तभी एक भारी कदमों की आवाज़ आई। एक लंबा, गाढ़े कपड़े पहना व्यक्ति प्रवेश करता है—उसके चेहरे पर कोई आँख नहीं, बस एक जली हुई भौंह और राख से सना हुआ मस्तक। “मैं हूँ… इस मेले का शासक,” उसकी आवाज़ गूँजी, “राजपुरुष।” विराज को महसूस हुआ कि यह कोई आम आत्मा नहीं—यह वही आत्मा है जिसने कभी बीकानेर पर राज किया था। “हर साल मुझे चाहिए एक ‘ताज़ा चेहरा’—जो जीवित हो, जो जीवन का स्वाद लाया हो इस परलोक में। जो हमारे तमाशे का हिस्सा बने। तू अब हमारा नया चेहरा है। मेले के अंत में तू भी एक बन जाएगा—सेवक, तमाशबीन, या सिर्फ़ एक मुखौटा।” विराज चीखा, “अन्वी को छोड़ दो!” राजपुरुष ठहरकर बोला, “जो एक बार आया, वो लौटता नहीं… सिवाय एक शर्त के। अपनी जगह कोई और लाओ… और हम तुम्हें जाने देंगे।” विराज अब जान चुका था—उसके पास समय कम है, विकल्प सीमित हैं, और रहस्य गहरा। उसकी कहानी अब रिपोर्ट नहीं रही, यह उसका अंत और किसी और की शुरुआत थी।

राजपुरुष की उपस्थिति किसी प्राचीन मंदिर की टूटी मूर्ति की तरह थी—ध्वस्त, लेकिन पूज्य। उसका चेहरा नहीं था, केवल एक भभकती उपस्थिति थी—जिसके शब्द हवा में गूंजते नहीं, भीतर उतरते थे। विराज अब उस भूतिया सभा के केंद्र में खड़ा था, जहाँ हर आत्मा किसी न किसी रूप में उपस्थित थी—कठपुतली चालों में, मुखौटों के पीछे, घुड़सवार आकृतियों के रूप में जो हवा में तैरती थीं। “हर वर्ष एक बलिदान चाहिए,” राजपुरुष ने दोहराया, “यह हमारी परंपरा नहीं, हमारा अस्तित्व है। आत्माएँ समय के पार जीती हैं, लेकिन भूख अब भी रहती है—मनोरंजन की, स्पर्श की, ध्वनि की। इसलिए ये मेला—जहाँ तुम जैसे जीवित हमारी ज़रूरत पूरी करते हो।” विराज ने जबरन पूछा, “मैं लौटना चाहता हूँ। क्या रास्ता है?” राजपुरुष ने कहा, “किसी और को लाओ—किसी जीवित को। और उस जगह को भरो, जो तुम्हें मिली है।” यह एक शर्त थी, जो मानवता के विरुद्ध थी। लेकिन अन्वी को बचाने के लिए उसे अपने अंदर की इंसानियत को चुनौती देनी थी। “और अगर न ला पाऊँ?” उसने धीमे से कहा। जवाब सिर्फ़ एक क्रूर मुस्कान थी, और दूर से बजते मृदंग की गूंज—मानो किसी के शव की अंतिम धड़कन।

राजपुरुष ने फिर कहा, “यह तुम्हारा अंतिम अमावस्या है, विराज प्रताप शेखावत। सूरज उगे, उससे पहले तुम या तो हमारे बन जाओगे, या किसी और को लाकर मुक्त हो सकोगे।” उसे एक भूतिया सेवक जंगल के पार बने पुराने मंदिर की ओर ले गया, जो कभी कर्णसर का ग्राम देवता स्थल रहा होगा, पर अब वह जगह एक उलटा संसार बन चुकी थी। मंदिर के गर्भगृह में कई दीये जल रहे थे—हर दीया एक आत्मा के प्रतीक जैसा लग रहा था। वहीं दीवार पर अंकित थीं वर्षों से लापता लोगों की आकृतियाँ—बच्चों से लेकर बूढ़ों तक। वहीं बीच में विराज ने देखा—अन्वी का चेहरा, बिल्कुल वैसा जैसा उसने आख़िरी बार कैमरे में देखा था। चित्र ताज़ा था। उसने अपना सिर दीवार से टिका लिया—आँखें भर आईं। उसकी आवाज़ काँपी, “अन्वी… मैं तुम्हें लेकर जाऊँगा, मैं वादा करता हूँ।” तभी पीछे से एक धीमी आवाज़ आई, “अगर तुम मुझे यहाँ से बाहर ले जा सके, विराज… तो खुद को खोना पड़ेगा।” वह पलटा—अन्वी वहाँ खड़ी थी। लेकिन अब वह पहले जैसी नहीं थी—उसकी आँखें अभी भी जीवित थीं, पर चेहरा हल्का धुंधला था, जैसे उसका शरीर दो दुनियाओं के बीच खिंचा हुआ हो। “मैं यहाँ साल भर से हूँ,” वह बोली, “हर रात जागती हूँ, हर दिन भूलती हूँ। पर अब… अब तुम आए हो।”

विराज ने उसे गले लगाना चाहा, लेकिन वह पीछे हट गई। “अभी नहीं,” उसने कहा, “अगर तुमने मुझे छू लिया, तो मैं पूरी तरह यहीं की हो जाऊँगी।” विराज ने साँस थामी। “तुम्हें बाहर ले जाने के लिए हमें मेले का केंद्र ढूँढना होगा—वो स्तंभ जो इस जगह को शक्ति देता है।” अन्वी ने इशारा किया मंदिर के गर्भगृह के नीचे बनी सुरंग की ओर। “नीचे एक मूर्ति है—जिसे ‘नयन-ज्योति’ कहते हैं। वह राजपुरुष की आत्मा का केंद्र है। अगर उसे नष्ट कर सको, तो यह मेला खत्म हो सकता है।” लेकिन फिर उसने जोड़ा, “पर खतरा है—जो उस मूर्ति को देखता है, वह अक्सर उसका चेहरा भूल जाता है। अपनी पहचान खो देता है।” विराज चुप रहा, लेकिन उसके भीतर कोई ज्वाला फूट चुकी थी। वह जान चुका था, यह सिर्फ़ एक स्टोरी नहीं, अब यह संघर्ष है आत्मा की मुक्ति का। उसके पास रात भर का समय था। या तो वह नयन-ज्योति तक पहुँचे, या अगली अमावस्या तक किसी और को यहाँ लाने के लिए जिन्दा बचे। समय, अब रेगिस्तान की रेत की तरह उसकी मुट्ठी से फिसल रहा था।

रेगिस्तान की उस रात में, जब आकाश में चंद्रमा अनुपस्थित था और तारों की जगह धुंध तैर रही थी, विराज और अन्वी मंदिर के गर्भगृह की संकरी सुरंग में धीरे-धीरे उतर रहे थे। टॉर्च की रोशनी में आगे की दीवारों पर ऐसे चित्र उभर रहे थे जो किसी जातीय जनजाति की प्राचीन चेतावनी जैसे थे—आधे इंसानी और आधे जानवरों के आकृति वाले प्राणी, जिनके मुँह खुले थे और आँखें नहीं थीं। “ये क्या है?” विराज ने फुसफुसाते हुए पूछा। अन्वी ने कहा, “ये वे हैं जिन्होंने नयन-ज्योति को देखा और अपनी पहचान खो दी… वे अब इसी सुरंग में भटकते हैं।” सुरंग में हवा नहीं थी, केवल एक सघन चुप्पी जो कभी-कभी किसी स्त्री की रुलाई की तरह फूट पड़ती थी। “क्या तुम… सब कुछ याद रखती हो?” विराज ने धीरे से पूछा। अन्वी कुछ देर खामोश रही, फिर बोली, “हर दिन मैं भूल जाती हूँ कि मैं कौन हूँ। पर जैसे-जैसे अमावस्या नज़दीक आती है, मेरी यादें लौटती हैं… जैसे आज लौटीं। तुम्हारी आवाज़ ने कुछ खींच लिया मुझे समय की दरार से बाहर। लेकिन सुबह होते ही फिर खो जाऊँगी। इसलिए तुम्हें आज रात ही सब कुछ करना होगा।”

विराज ने उसका हाथ पकड़ना चाहा, पर फिर खुद को रोक लिया—उसे अब समझ आ चुका था कि इन दो दुनियाओं के बीच स्पर्श भी एक अनुबंध बन सकता है। सुरंग के अंतिम मोड़ पर एक हरे रंग की धुंध तैर रही थी, और वहाँ पर एक चबूतरे पर नयन-ज्योति रखी थी—एक काली पाषाण मूर्ति, जिसकी आँखें नहीं थीं, लेकिन फिर भी वहाँ से एक अपलक दृष्टि महसूस हो रही थी। उसकी भुजाएँ खंडित थीं, पर वक्षस्थल पर एक लाल बिंदु चमक रहा था—मानो वह अभी भी धड़क रही हो। जैसे ही विराज ने उसके पास कदम बढ़ाया, उसके मन में अजीब सी आवाजें गूंजने लगीं—उसकी माँ की पुकार, उसके पिता की फटकार, और उसके अपने डर—जैसे मूर्ति ने उसकी अंतरात्मा खोल दी हो। “यही कारण है कि लोग अपना चेहरा खो देते हैं,” अन्वी बोली, “यह मूर्ति तुम्हारी आत्मा को बाहर खींच लेती है, और अगर तुम कमज़ोर हुए… तो तुम खुद भी एक मुखौटा बन जाओगे।” विराज ने थरथराते हाथों से अपनी जेब से एक लोहे की छड़ी निकाली—जो वह खोजी रिपोर्टिंग में हमेशा साथ रखता था—और जैसे ही उसने मूर्ति पर वार करना चाहा, ज़मीन काँप उठी। दीवारों से एकसाथ दर्जनों मुखौटे गिर पड़े और हवा में नाचने लगे, जैसे किसी ने शंखनाद कर दिया हो।

वातावरण में एक बार फिर राजपुरुष की आवाज़ गूंजी—“नयन-ज्योति को छूना मत, विराज! तुम नहीं जानते तुम क्या छेड़ रहे हो!” लेकिन अब देर हो चुकी थी। विराज ने छड़ी से सीधा वार किया मूर्ति के वक्षस्थल पर। लाल बिंदु फूटा, और एक भयानक चीख़ पूरे परिसर में गूंज गई—ऐसी चीख़, जिसमें कई आत्माओं की पीड़ा और क्रोध समाहित था। अचानक हवा में रेत का गुबार उठने लगा, मूर्ति दरकने लगी, और सुरंग भरने लगी धुंध से। “भागो!” अन्वी चिल्लाई, और दोनों वापस ऊपर की ओर भागे। जैसे ही वे मंदिर से बाहर निकले, उन्हें दिखाई दिया—मेला अब टूट रहा है। झूले ज़मीन पर गिर चुके थे, कठपुतलियाँ जल रही थीं, और भूतिया परछाइयाँ एक-एक कर के राख में बदल रही थीं। मगर इसी भीड़ में राजपुरुष की आकृति एक अंतिम बार उभरी—अब वह गुस्से में नहीं, हारे हुए राजा की तरह दिख रहा था। उसने सिर झुकाया, और बोला, “तुमने खेल तोड़ दिया… लेकिन अगली अमावस्या फिर आएगी। और तब कोई और… तुम्हारी जगह लेगा।” फिर उसकी आकृति हवा में विलीन हो गई। विराज ने अन्वी का हाथ थामा—इस बार वह स्पर्श एक पुल था, एक वादा कि वे दोनों फिर से दुनिया में लौटेंगे। लेकिन जैसे ही सूरज की पहली किरण धरती पर पड़ी, अन्वी की आँखें बंद हो गईं। उसकी चेतना फिर उस झोंपड़ी में लौट चुकी थी, जहाँ वह साल भर से बंद थी। अब तय था—विराज को उसे फिर से जिंदा यादों में लाना होगा।

अमावस्या की रात टूट चुकी थी, पर विराज को राहत नहीं थी। मंदिर के गर्भगृह में नयन-ज्योति का विनाश तो हो चुका था, लेकिन उसकी कीमत अब भी अधूरी थी। अन्वी चेतनाहीन अवस्था में मंदिर के द्वार के बाहर लेटी थी—साँसें धीमी, नज़रों में नींद, और चेहरे पर एक अजीब शांति, मानो वह समय से बाहर किसी नीले सन्नाटे में तैर रही हो। विराज जानता था कि अगर वह कुछ घंटों में उसे गाँव के बाहर नहीं ले गया, तो यह मेला अपनी नई शक्ल में फिर जाग उठेगा, और इस बार वह अकेला नहीं, बल्कि अन्वी के साथ स्थायी कैदी बन जाएगा। लेकिन बाहर की दुनिया तक पहुँचने का कोई रास्ता नहीं था—रेगिस्तान अब भी धुंध से ढँका था, और गाँव की सीमाएँ किसी अदृश्य दीवार से घिरी थीं। उसी समय, एक बार फिर चुग्गा लाल प्रकट हुआ—उसकी आँखें बुझी हुई थीं, और कंधे पर राख जमी हुई थी। “एक रास्ता है,” उसने कहा, “जो जीवितों की दुनिया की ओर खुलता है… लेकिन हर दरवाज़े की चाबी कोई ना कोई कीमत माँगती है।” विराज ने ठंडी साँस ली, “क्या कीमत?” चुग्गा लाल ने कहा, “अपनी जगह कोई और दे दो। कोई ऐसा जो जीवित हो, पर तुम्हारी जगह यहाँ रहे… स्थायी रूप से।”

उस क्षण, विराज का अंतर्मन जैसे दो धाराओं में बँट गया। एक धारा कहती थी—जान बचाओ, बाहर निकलो, अन्वी को सुरक्षित ले जाओ; दूसरी धारा कहती थी—क्या तुम वही बनोगे जिसके खिलाफ़ तुम्हारा कैमरा अब तक लड़ता रहा? क्या किसी मासूम को लाकर उसकी आत्मा से व्यापार करोगे? लेकिन समय कम था। तभी उसके सामने बिंदु देवी की छाया-सी आकृति उभरी, जिसे उसने गाँव में पहले दिन देखा था। “तेरी नानी,” वह बोली, “मेरी बहन थी। वो भी इसी मेले में आई थी, और यहीं रह गई। उसने किसी को नहीं सौंपा, खुद को ही दे दिया… लेकिन तू क्या करेगा, विराज?” बिंदु देवी की आँखें पिघलती हुई मोम-सी लग रही थीं। उस क्षण में विराज को लगा कि सब कुछ धुंधला हो गया है—पत्रकारिता, इंसानियत, प्रेम… सब अब एक ही बिंदु पर आकर टिके हैं। और वह बिंदु है—चयन। वह उठ खड़ा हुआ, उसने अन्वी को अपने कंधे पर उठाया, और जंगल की ओर भागा—जहाँ चुग्गा लाल ने एक पुरानी बावड़ी के पास “जीवित द्वार” का संकेत दिया था। रास्ते में उसे भूतों के सेवक रोके, लेकिन राजपुरुष अब वहाँ नहीं था। नयन-ज्योति टूट चुकी थी, और उसकी सत्ता क्षीण हो चुकी थी।

बावड़ी के सामने खड़ा होकर विराज ने देखा—पानी में उसका चेहरा प्रतिबिंबित था, लेकिन कुछ अजीब था—उसकी आँखें कुछ क्षणों के लिए धुंधली दिखीं, जैसे वहाँ कोई और था। तभी पानी में से एक उँगली निकली, और आवाज़ आई—“तुम अपनी जगह सौंप चुके हो, विराज।” वह चौंक गया—“कब?” पानी से वही सफेद आँखों वाला बच्चा निकला, जो पहले दिन गाँव में मिला था। “जब तुमने पहली बार मेला देखा, तभी तुम्हारी आत्मा का हिस्सा छीन लिया गया। अब तुम अधूरा हो… लेकिन उसे बचाने के लिए यह अधूरापन काफी है।” बच्चे ने कहा, “इस द्वार से सिर्फ़ एक जा सकता है, दूसरा यहीं रहेगा।” विराज ने बिना किसी हिचकिचाहट के अन्वी को पानी की ओर बढ़ाया। बच्चे ने उसे थामा, और जैसे ही वह गायब हुई, विराज के चारों ओर मेला फिर से सजीव हो उठा—पर अब वह दर्शक नहीं, हिस्सा था। उसने नीचे देखा—उसके हाथ अब पारदर्शी हो रहे थे, उसकी साँसें धीमी, और चेहरा अब उस दीवार पर उभरने लगा था जहाँ हर साल एक नया चित्र बनता था। बाहर गाँव में सूरज उग रहा था—और गाँव की सीमा पर अन्वी बेहोश हालत में पड़ी थी। लोगों की भीड़ उसे घेर चुकी थी, और कोई चुपचाप पूछ रहा था, “ये तो वही पत्रकार की साथी है… जो एक साल पहले गायब हुई थी।” अन्वी की आँखें खुलीं, और उसके होठों पर बस एक नाम था—“विराज…”

बीकानेर के सरकारी अस्पताल में हल्की नीली चादरों के बीच, एक बिस्तर पर अन्वी चतुर्वेदी की आँखें खोलीं। सामने सफेद दीवारें थीं, और सिरहाने पर डॉक्टर का नामपट्ट: डॉ. विनीत ओझा। “आपको कोई ग्रामीण महिला यहाँ छोड़ गई थीं,” डॉक्टर ने कहा, “आप लगभग निर्जीव थीं, लेकिन आपके शरीर में कोई चोट नहीं थी… सिर्फ़ एक गहरी थकावट। और… आपकी स्मृति?” अन्वी कुछ पल खामोश रही, फिर बोली, “टुकड़ों में याद है। एक गाँव… एक मेला… और विराज।” डॉक्टर ने पूछा, “विराज कौन?” अन्वी ने धीरे से सिर हिलाया, “वो जो मेरी तलाश में आया था। जिसने मुझे बचाया। मगर अब…” उसकी आवाज़ टूट गई। तभी एक नर्स कमरे में दाखिल हुई, हाथ में एक पुराना कैमरा लिए हुए। “ये किसी ग्रामीण ने आपके पास से दिया था। बहुत पुराना है, शायद रिपोर्टर का।” अन्वी ने कैमरा हाथ में लिया। उस पर एक नाम उकेरा था—V.P.S.—विराज प्रताप शेखावत। उसकी उँगलियाँ काँपने लगीं। वह कैमरा ऑन करती है, और उसमें दर्ज आख़िरी फुटेज खुद उसकी ओर बढ़ती है—एक झिलमिलाती रात, एक रेतीली आंधी, और एक आवाज़: “अगर मैं लौट न सकूँ, तो इस कहानी को ख़त्म ज़रूर करना।” उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

तीन महीने बाद, कर्णसर गाँव में अन्वी लौटी। अब वह कोई रिपोर्टर नहीं, बल्कि एक खोजी लेखिका थी—जो कहानी लिखने नहीं, किसी को मुक्त करने आई थी। गाँव अब भी वैसा ही था—चुप, धूल भरा, और वक्त में अटका हुआ। पर अब लोग उससे डरते नहीं थे, बल्कि श्रद्धा से देखते थे—जैसे वह कोई पुराना ऋण चुका चुकी हो। बिंदु देवी अब जीवित नहीं थीं। उनके झोंपड़े में अब एक दीवार पर लिखा था—“जिसने लौटाया, उसे मोक्ष मिला।” अन्वी गाँव के पश्चिमी किनारे तक गई, जहाँ वह पुरानी बावड़ी अब भी थी। उसने वहाँ लाल चंदन और धूप जलाया, और कैमरे को पानी में डुबोते हुए कहा, “यह कहानी अब पूरी हुई, विराज।” पर जैसे ही कैमरा पानी में समाया, उसकी सतह पर कुछ लहराया—एक धुँधला चेहरा, आँखों से देखकर मुस्कुराता हुआ। उसकी मुस्कान में दर्द नहीं था—बल्कि एक संतोष था। और फिर सब स्थिर हो गया। उसी शाम, अन्वी ने बीकानेर लौटकर एक लेख प्रकाशित किया: “भूतों का मेला: एक प्रेम और बलिदान की कथा”।

लेख के छपते ही बहुतों ने इसे “फिक्शन” माना, बहुतों ने “फील्ड रिपोर्ट”। लेकिन एक पत्रिका ने उसे राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए नामांकित किया। जब मंच पर उसे बुलाया गया, तो उसने माइक पर केवल यही कहा: “यह पुरस्कार मेरा नहीं, उस व्यक्ति का है जिसने मेरी कहानी अधूरी नहीं रहने दी।” और फिर उसने माइक नीचे रख दिया। ठीक उसी रात, जब वह अकेली अपने कमरे में बैठी थी, उसे एक फोटोग्राफ मिला—जो कभी खींचा नहीं गया था, पर अब उसके कैमरे के भीतर था। उसमें विराज था, वही काले जैकेट में, रेगिस्तान के बीच खड़ा हुआ। उसकी आँखें झुकी थीं, और पीछे वही मेला धुंध की परत में लुप्त हो रहा था। फोटो के पीछे लिखा था—“मैं यहीं हूँ… जहाँ कहानी बचती है।” अन्वी मुस्कुराई, और उस कमरे की खिड़की खोल दी—जैसे कोई हवा भीतर आने को कह रही हो। वह जानती थी, कुछ कहानियाँ कभी पूरी नहीं होतीं। वे बस एक मेले की तरह लौटती हैं—हर अमावस्या, हर नई आत्मा के साथ।

समाप्त

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